रशीद जहां— 'अंगारे' वाली : ज़ाहिद ख़ान
Rashid Jahan 'Angaare' Wali : Zahid Khan
डॉ. रशीद जहां, तरक़्क़ीपसंद तहरीक का वह उजला, चमकता और सुनहरा नाम हैं, जो अपनी सैंतालिस साल की छोटी सी ज़िंदगानी में एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय रहीं। उनकी कई पहचान थीं मसलन अफ़साना निगार, ड्रामा निगार, जर्नलिस्ट, डॉक्टर, सियासी—समाजी कारकुन और इन सबमें भी सबसे बढ़कर, मुल्क में तरक़्क़ीपसंद तहरीक की बुनियाद रखने और उसको परवान चढ़ाने में रशीद जहां का बेमिसाल योगदान है।
वे प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की संस्थापक सदस्य थीं। इन दोनों संगठनों के विस्तार में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी और उर्दू ज़बान के अदीबों, संस्कृतिकर्मियों को इन संगठनों से जोड़ा।
लखनऊ, इलाहाबाद, पंजाब, लाहौर जो उस ज़माने में अदब के बड़े मर्कज़ थे, इन मर्कज़ों से उन्होंने सभी अहम लेखकों को संगठन से जोड़ा। संगठन की विचारधारा से उनका तआरुफ़ कराया। गोया कि संगठन के हर काम में वे पेश-पेश रहती थीं। उन्होंने जैसे अपनी ज़िंदगी को तरक़्क़ीपसंद तहरीक के लिए ही क़ुर्बान कर दिया था।
साल 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ। इस अधिवेशन को कामयाब बनाने में भी रशीद जहां का बड़ा रोल था। तरक़्क़ीपसंद तहरीक के लिए रशीद जहां और महमूदुज्ज़फ़र का जिस तरह का समर्पण था, उसका अपनी किताब ‘रौशनाई’ में बयान करते हुए सज्जाद ज़हीर लिखते हैं,‘‘उन दोनों ने अपनी ख़ुदी को भुलाकर इंसानियत को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया था।’’
सज्जाद ज़हीर की इस बात की बानगी यह है कि प्रगतिशील आंदोलन और सामाजिक कार्यों में अपनी मसरूफ़ियतों के चलते, आगे चलकर रशीद जहां ने न सिर्फ अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया, बल्कि महमूदुज्ज़फ़र के साथ शादी इस शर्त पर की, कि वे अपना परिवार नहीं बढ़ाएंगे। क्योंकि इससे उनके सामाजिक कामों में रुकावट आ सकती है। इंसानियत की ख़िदमत के लिए ऐसा मजबूत इरादा, प्रतिबद्धता की दूसरी मिसाल शायद ही कहीं मिले। इंसानियत की ख़िदमत रशीद जहां कभी अपने समाजी, सियासी कामों से करतीं, तो कभी अपने लेखन से।
25 अगस्त, 1905 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में पैदा हुई डॉ. रशीद जहां तरक़्क़ीपसंद और रौशन—ख़याल तो थी हीं, व्यक्तिगत आज़ादी भी उन्हें अपने विरसे में मिली थी। उनके पिता शेख अब्दुल्ला औरतों की तालीम के बड़े हामी थे। रशीद जहां की मां वहीद जहां बेगम, जो आला बी के नाम से मशहूर थीं, वे भी अपने ख़ाविंद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर क़ौम की ख़िदमत करती थीं। शेख अब्दुल्ला ने लड़कियों की तालीम के वास्ते जब अलीगढ़ में मदरसा खोला, तो आला बी ने उनका भरपूर साथ दिया। ऐसे रौशन—ख़याल माहौल में रशीद जहां की तर्बीयत हुई। जिसका असर उनकी ज़िंदगी पर ताउम्र रहा। उन्होंने तालीम की अहमियत समझी और इस तालीम को आगे तक बढ़ाया। रशीद जहां ने इस बारे में खुद लिखा है,‘‘हमने तो जब से होश संभाला, हमारा तो तालीमे-निस्वां का ओढ़ना है और तालीमे-निस्वां का बिछौना।’’
रशीद जहां ने तालीम के साथ-साथ महज चौदह साल की उम्र से ही मुल्क की आज़ादी के लिए चल रही तहरीकों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी थी। शुरुआत में गांधी जी के ख़याल से मुतासिर हुईं और बाक़ायदा खादी भी पहनी। इन सियासी सरगर्मियों के बीच रशीद जहां की तालीम चलती रही, इसमें कहीं कोई ख़लल पैदा नहीं हुआ। साल 1923 में जब वे सिर्फ अठारह साल की थीं, उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘सलमा’ लिखी।
रशीद जहां की ज़िंदगी में एक नया बदलाव और मोड़ तब आया, जब उनकी मुलाकात सज्जाद ज़हीर, महमूदुज्ज़फ़र और अहमद अली से हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के दरमियान इन लोगों के बीच जो लंबे-लंबे बहस-मुबाहिसे हुए, उसने रशीद जहां को एक नया नज़रिया प्रदान किया। कहानी संग्रह ‘अंगारे’ का जब प्रारूप बना, तो रशीद जहां ने भी इस में अपनी एक कहानी ‘दिल्ली की सैर’ और एक एकांकी ‘पर्दे के पीछे’ शामिल करने की रज़ामंदी दे दी। साल 1932 में किताब जब छपकर बाजार में आई, तो हंगामा मच गया।
‘अंगारे’ ने हिंदोस्तानी समाज में बवाल मचा दिया। बवाल भी ऐसा-वेसा नहीं, हाजरा बेगम ने उस दौर की कैफ़ियत कुछ यूं बयां की है,‘‘अंगारे शाए करते समय खुद सज्जाद ज़हीर को अंदाज़ा नहीं था कि यह एक नई अदबी राह का संगेमील बन जायेगा। वह खुद तो लंदन चले गये, लेकिन यहां तहलका मच गया। पढ़ने वालों की मुखालफ़त इस कदर बढ़ी कि मस्ज़िदों में रशीद जहां-अंगारे वाली के खिलाफ वाज होने लगे, फ़तवे दिये जाने लगे और किताब ‘अंगारे’ जब्त हो गई। उस वक़्त तो वाकई ‘अंगारे’ ने आग सुलगा दी थी।’’ जाहिर है कि ‘अंगारे’ का सबसे ज्यादा असर रशीद जहां पर पड़ा। उनके खिलाफ फ़तवे आये और उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिलीं। लेकिन इन फ़तवों और धमकियों से वे बिल्कुल भी नहीं डरीं-घबराई बल्कि इन प्रतिक्रियावादी ताकतों के ख़िलाफ़ वे डटकर खड़ी हो गईं। इन हादसों से उनका तरक़्क़ीपसंद ख़याल में यक़ीन और भी ज्यादा पुख़्ता हो गया।
एक तरफ किताब ‘अंगारे’ और उसके लेखकों की मुखालिफ़त हो रही थी, किताब को संयुक्त प्रांत की हुकूमत ने जब्त कर लिया था, तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग थे, जो इस क़दम का खुले दिल से ख़ैर—मक़्दम कर रहे थे। बाबा-ए-उर्दू मौलाना अब्दुल हक़, मुंशी दयानारायण निगम भी उनमें से एक थे। रशीद जहां जिधर भी जातीं, उन्हें लोग ‘अंगारे’ वाली लेखिका के तौर पर पुकारते और सराहते। बहरहाल, एक अकेली किताब अंगारे ने उर्दू अदब की पूरी धारा बदल कर रख दी। कल तक जिन मामलों पर अफ़साना निगार अपनी कलम नहीं चलाते थे, उन मामलों पर कहानियां खुलकर लिखी जाने लगीं।
‘अंगारे’ में शामिल रशीद जहां की कहानी ‘दिल्ली की सैर’ की यदि बात करें, तो यह छोटी सी कहानी है। इस कहानी का मुख्य किरदार ‘मलिका’ अपने शौहर के साथ दिल्ली की सैर पर न जाने का एलान कर, जैसे खुली बग़ावत करती है। कहने को कहानी में यह एक छोटा सा इशारा है, लेकिन उस समय के हालात में यह छोटा इशारा, भी बड़ी बात थी। ‘पर्दे के पीछे’ एकांकी में रशीद जहां, पितृसत्तात्मक सोच के प्रति और भी ज्यादा आक्रामक हो जाती हैं। अंग्रेज हुक़ूमत द्वारा ‘अंगारे’ पर पाबंदी लगाए जाने के बाद भी इसके चारों लेखक न तो झुके और न ही इसके लिए उन्होंने सरकार से कोई माफ़ी मांगी।
डॉक्टरी, रशीद जहां का पेशा था और अपने इस पेशे में वे काफी मसरूफ़ रहती थीं। तिस पर सियासी और प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा के काम अलग। लेकिन अपनी तमाम मसरूफ़ियत के बाद भी वे कहानियां, एकांकी, लेख और नाटक लिखती रहीं। साल 1937 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘औरत’ प्रकाशित हुआ। रशीद जहां की शुरुआती कहानियां यदि देखें, तो उनमें जरूर एक कच्चापन नजर आता है, कहीं-कहीं इन कहानियों में कोरी भावुकता और नारेबाजी दिखलाई देती है, लेकिन जैसे-जैसे ज़िंदगी में नए तजुर्बे हासिल होते हैं, विचारों में स्थायित्व आता है, उनकी कहानी संवरने लगती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से इनमें सुधार आता है। बाद में उन्होंने ‘चोर’, ‘वह’, ‘आसिफ़जहां की बहू’, ‘इस्तख़ारा’, ‘छिद्दा की मां’, ‘इफ़तारी’, ‘मुज़रिम कौन’, ‘मर्द-औरत’, ‘सिफ़र’, ‘ग़रीबों का भगवान’, ‘वह जल गई’, जैसी उम्दा कहानियां लिखीं।
रशीद जहां के अफ़सानों में एक भाव स्थायी है, वह है बग़ावत। बग़ावत-सड़ी-गली रूढ़ियों से, औरत-मर्द के बीच ग़ैर बराबरी से, सामंती जीवन मूल्यों से, अंग्रेज हुक़ूमत के अत्याचार और शोषण से। रशीद जहां के अफ़साने हों या फिर ड्रामें इन दोनों ही के महिला किरदार काफी मुखर हैं।
रशीद जहां की ज़्यादातर कहानियों और नाटक में अंग्रेज हुक़ूमत के ख़िलाफ़ गुस्सा और इस निज़ाम को बदल देने की स्पष्ट जद्दोजहद दिखलाई देती है। हालांकि उन्होंने कम ही कहानियां लिखीं, लेकिन इन कहानियों में भी विषय, किरदार, शिल्प और कहानी कहन के दिलफ़रेब नमूने देखने को मिलते हैं। रशीद जहां का बेश्तर लेखन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और साम्यवादी नजरिये से अलग नहीं है। वर्गचेतना और शोषितों, उत्पीड़ितों के प्रति पक्षधरता उनकी कहानियों का अहम हिस्सा है। रशीद जहां ने समाज के उपेक्षित तबकों के लोगों पर भी अपनी कलम चलाई। उन्हें अपनी अफ़सानों का अहम किरदार बनाया।
रशीद जहां ने जितना भी लिखा, उसमें बिल आख़िर एक मक़सद है। हालात से लड़ने की जद्दोजहद है और उसे बदल देने की बला की जिद है। ‘सिफ़र’, ‘चोर’, ‘वह’ वगैरह कहानियों के केन्द्रीय किरदार कहीं न कहीं रशीद जहां के ही ख़यालों को आगे बढ़ाते हैं। ये किरदार कुछ इस तरह से गढ़े गए हैं कि वे कभी भुलाए नहीं भूलेंगे।
उर्दू के एक बड़े आलोचक क़मर रईस का रशीद जहां के अफ़सानों पर ख़याल है,‘‘तरक़्क़ीपसंंद अदीबों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहां तन्हा थीं, जिन्होंने उर्दू अफ़सानों में समाजी और इंक़लाबी हक़ीकत निगारी की रवायत को मुस्तहकम बनाने की सई की।’’ ग़ुलाम हिन्दुस्तान में वाक़ई यह एक बड़ा काम था। यह वह दौर था, जब अदब और पत्रकारिता दोनों को अंग्रेज हुक़ूमत की सख़्त पहरेदारी से गुज़रना पड़ता था। हर तरह की रचनाओं और ख़बरों पर निग़रानी रहती थी। एक तरफ अदीबों और पत्रकारों पर अंग्रेज हुकूमत की पाबंदियां थीं, तो दूसरी ओर मुल्क की सामंती और प्रतिक्रियावादी शक्तियां भी हर प्रगतिशील विचार का विरोध करती थीं। औरतों के लिए हिन्दोस्तानी समाज में आज़ादियां हासिल नहीं थी। उन पर कई तरह का पहरा था। औरतों को परिवार और समाज में बराबरी का दर्जा देना तो दूर, उनकी तालीम भी ज़रूरी नहीं समझी जाती थी। ऐसे खराब माहौल में डॉ. रशीद जहां का पहले आला तालीम हासिल करना, फिर डॉक्टर बनना और उसके बाद सियासी, समाजी कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना वाकई एक क्रांतिकारी कदम था। जिसका हिन्दोस्तानी औरतों पर काफी असर पड़ा।
रशीद जहां ने कई नाटक और एकांकियां भी लिखीं। ‘पड़ोसी’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘गोशए आफ़िसयत’, ‘नई पौद’, ‘जोड़-तोड़’, ‘बच्चों का खून’, ‘नफ़रत’ आदि रशीद जहां के नाटक और एकांकी हैं। रशीद जहां ने कहानी, एकांकी और नाटक लिखने के अलावा पत्रकारिता भी की। प्रगतिशील लेखक संघ के अंग्रेजी मुख्य पत्र ‘द इंडियन लिट्रेचर’ और सियासी मासिक मैगजीन ‘चिंगारी’ के संपादन में उन्होंने न सिर्फ सहयोग किया, बल्कि इसमें रचनात्मक अवदान भी दिया। रशीद जहां ने अपने ज्यादातर लेख ‘चिंगारी’ के लिए ही लिखे। जिनमें ‘अदब और अवाम’, ‘उर्दू अदब में’, ‘इंक़लाब की ज़रूरत’, ‘प्रेमचंद’, ‘मुंशी प्रेमचंद से हमारी मुलाक़ात’, ‘औरत घर से बाहर’, ‘चन्द्र सिंह गढ़वाली’ और ‘हमारी आज़ादी’ आदि प्रमुख हैं। इन लेखों को पढ़कर जाना जा सकता है कि उनका क्या मानसिक धरातल था।
दीगर तरक़्क़ीपसंद अदीबों की तरह रशीद जहां का संघर्ष मुल्क की आज़ादी तक ही सीमित नहीं रहा, आज़ादी के बाद अलग तरह के सवाल थे और इन सवालों से भी उन्होंने जमकर मुठभेड़ की। वास्तविक स्वराज्य पाने के लिए सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन किए। किसानों, मज़दूरों और कामगारों के अधिकारों के लिए सरकार से जद्दोजहद की। साल 1948 में रेलवे यूनियन की एक ऐसी ही हड़ताल में शिरकत लेने की वजह से रशीद जहां गिरफ़्तार हुईं।
वे कैंसर की मरीज थीं, बावजूद इसके उन्होंने जेल में 16 दिन की लंबी भूख हड़ताल की। ऐसे में उनका मर्ज़ और भी ज़्यादा गंभीर हो गया, पर उन्होंने हार नहीं मानी। जिस्म ज़रूर कमजोर हो गया, लेकिन ज़ेहन मजबूत बना रहा। आगे भी रशीद जहां की इस तरह की सक्रियता बराबर बनी रही। जहां कही भी नाइंसाफ़ी या जुल्म होता, वह उसका विरोध करतीं। अपनी सेहत से बेपरवाह होकर उन्होंने लगातार काम किया। जिसका नतीज़ा यह निकला कि उनकी बीमारी और भी बढ़ गई। इस बार उन्हें इलाज के लिए सोवियत संघ भेजा गया। लेकिन इस घातक रोग से एक बार जो उनकी सेहत बिगड़ी, तो फिर दोबारा ठीक नहीं हुई।
29 जुलाई, 1952 को बीमारी से जूझते हुए मास्को में उनका इंतिकाल हो गया। रशीद जहां, इस जहां से भले ही रुख़सत हो गईं हों, लेकिन उनका अदबी जहां हमेशा ज़िंदा रहेगा और हमें याद दिलाता रहेगा कि वे किस तरह का समाजी-सियासी जहां चाहती थीं। एक ऐसा जहां जो बराबरी, समानता और न्याय पर आधारित हो। जहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, वर्ण, लिंग, भाषा, रंग, नस्ल के आधार पर इंसान-इंसान के बीच कोई भेद न हो।