रंगमंच (निबन्ध) : जयशंकर प्रंगमंचाद
Rangmanch (Nibandh) : Jaishankar Prasad
भरत के नाट्य-शास्त्र में रंगशाला के निर्माण के संबंध में विस्तृत रूप से बताया गया है। जिस ढंग के नाट्य-मंदिरों का उल्लेख प्राचीन अभिलेखों में मिलता है, उससे जान पड़ता है कि पर्वतों की गुफाओं में खोद कर बनाये जाने वाले मंदिरों के ढंग पर ही नगर की रंगशालाएँ बनती थीं।
कार्यः शैलगुहाकारी द्विभूमिर्नाट्यमंडपः से यह कहा जा सकता है कि नाट्य-मंदिर दो खंड के बनते थे, और वे प्रायः इस तरह के बनाए जाते थे जिससे उन का प्रदर्शन विमान का सा हो। शिल्प-संबंधी शास्त्रों में प्रायः द्विभूमिक, दोखंडे या तीनखंडे प्रासादों को, जो कि स्तंभों के आधार पर अनेक आकारों के बनते थे, विमान कहते हैं। यहाँ द्विभूमिः से ऐसा भी अर्थ लगाया जा सकता है कि एक भाग दर्शकों के लिए और दूसरा भाग अभिनय के लिए बनता था। किंतु खुले हुए स्थानों में अभिनय करने के लिए जो काठ के रंगमंच रामलीला में विमान के नाम से व्यवहार में ले आये जाते हैं, उनकी और संकेत करना मैं आवश्यक समझता हूँ। रंगशाला में शिल्प का या वास्तुनिर्माण का प्रयोग किस तरह होता था यह बताना सरल नहीं, तो भी नाट्य-मंडप तीन तरह के होते थे—विकृष्ट, चतुरस्र और व्यस्य। विकृष्ट नाट्य-मंडप की चौड़ाई से लंबाई दूनी होती थी। उस भूमि के दो भाग किये जाते थे। पिछले आधे के फिर दो भाग होते थे। आधे में रंगशीर्ष और रंगपीठ और आधे में पीछे नेपथ्य-गृह बनाया जाता था।
पृष्ठतो यो भवेत् भागो द्विधाभूतो भवेत् च सः
तस्यार्धेन विभागेन रंगशीर्षम् प्रयोजयेत्।
पश्चिमेतु पुनर्भागे नेपथ्यगृहमादिशेत्।
(२ अ॰ ना॰ शा॰)
आगे के बड़े आधे भाग में बैठने के लिए, जिससे दर्शकों को रंगशाला का अभिनय अच्छी तरह दिखलाई पड़े, सोपान की आकृति का बैठक बनाया जाता था। कदाचित् वह आज की गैलरी की तरह होता था।
स्तंभानाम् बाह्यतः स्थाप्यम् सोपानाकृति पीठकम्।
इष्टका दारुभिः कार्यम् प्रेक्षकाणाम् निवेशनम्।
ईंटों और लकड़ियों से ये सीढ़ियाँ एक हाथ ऊँची बनाई जाती थीं। इसी प्रसंग में मत्तवारणी का भी उल्लेख है। अभिनवगुप्त के समय में भी मत्तवारणी का स्थान निर्दिष्ट करने में संदेह और मतभेद हो गया था। नाट्य-शास्त्र में लिखा है―
रंग पीठस्य पार्श्वेतु कर्त्तव्या मत्तवारणी।
चतुस्तंभसमायुक्ता रंगपीठप्रमाणतः
अध्यर्ध हस्तोत्स्येधे न कर्तव्या मत्तवाणी।
मत्तवारणी के कई तरह के अर्थ लगाये गये हैं। अभिनव भारती में मत्तवारणी के संबंध में किसी का यह मत भी संग्रह किया गया है कि वह देवमंदिर की प्रदक्षिणा की तरह रंगशाला के चारों ओर बनाई जाती थी। मत्तवारणी बहिनिर्गमनप्रमाणेन सर्वतो द्वितीय भित्ति निवेशेन दैवप्रासादाट्टालिका प्रदक्षिणासदृशी द्वितीया भूमिरित्यन्ये, उपरि मंडपांतर निवेशनादित्यपरे। किंतु मेरी समझ में यह मत्तवारणी रंगपीठ के बराबर केवल एक ही ओर चार खंभों से रुकावट के लिए बनाई जाती थी। मत्तवारणी शब्द से भी यही अर्थ निकलता है कि वह मतवालों को वारण करे। यह डेढ़ हाथ ऊँची रंगपीठ के अगले भाग में लगा दी जाती थी।
रंगमंच में भी दो भाग होते थे। पिछले भाग को रंगशीर्ष कहते थे और सब से आगे का भाग रंगपीठ कहा जाता था। इन दोनों के बीच में जवनिका रहती थी। अभिनव गुप्त कहते हैं―यत्र यवनिका रंगपीठ तच्छिरसोर्मध्ये। रंगमंच की इस योजना से जान पड़ता है कि अपटी, तिरस्करिणी और प्रतिसीरा आदि जो पदों के भेद हैं वे जवनिका के भीतर के होते थे। रंगशीर्ष में नेपथ्य के भीतर के दो द्वार होते थे। रंगशीर्ष यंत्रजाल, गवाक्ष, सालभंजिका आदि काठ की बनी नाना प्रकार की आकृतियों से सुशोभित होता था, जो दृश्योपयोगी होते थे। संभवतः यही मुख्य अभिनय का स्थान होता था।
पिंडीबंध आदि नृत्य-अभिनय के साधारण अंश, चेटी आदि के द्वारा प्रवेशक की सूचना, प्रस्तावना आदि जवनिका के बाहर ही रंगपीठ पर होते थे। रंगपूजा रंगशीर्ष पर जवनिका के भीतर होती थी। सरगुजा के गुहा-मंदिर की नाट्यशाला दो हजार वर्ष की मानी जाती है। कहा जाता है कि भोज ने भी कोई ऐसी रंगशाला बनवाई थी जिस में पत्थरों पर संपूर्ण शाकुंतल नाटक उत्कीर्ण था। आधुनिक रामलीला के अभिनयों में प्रचलित विमान यह प्रमाणित करते हैं कि भारत में दोनों तरह के रंगमंच होते थे। एक तो वे जिन के बड़े-बड़े नाट्यमंदिर बने थे और दूसरे चलते हुए रंगमंच, जो काठ के विमानों से बनाये जाते थे और चतुष्पथ तथा अन्य प्रशस्त खुले स्थानों में आवश्यकतानुसार घुमा-फिरा कर अभिनयपयेागी कर लिये जाते थे।
नाट्यमंदिरों के भीतर स्त्रियों और पुरुषों के सुंदर चित्र भीत पर लिखे जाते थे। और उन में स्थान-स्थान पर वातायनों का भी समावेश रहता था। नाट्य-मंडप में कक्षाएँ बनाई जाती थीं जिन में अभिनय के दर्शनीय गृह, नगर, उद्यान, ग्राम, जंगल, पर्वत और समुद्रों का दृश्य बनाया जाता था। आधुनिक काल के रंगमंचों से कुछ भिन्न उन की योजना अवश्य होती थी। किंतु—
कक्ष्या विभागे क्षेयानि गृहाणि नगराणि च
उद्यानारामसहितो देशो ग्रामोऽटवी तथा।
(ना॰ शा॰।१४ अ॰)
इत्यादि से यह मालूम होता है कि दृश्यों का विभाग कर के नाट्य-मंडप के भीतर उन की इस तरह से योजना की जाती थी कि उन में सब तरह के स्थानों का दृश्य दिखलाया जा सकता था; और जिस स्थान की वार्त्ता होती थी उस का दृश्य भिन्न कक्ष्या में दिखाने का प्रबंध किया जाता था। स्थान की दूरी इत्यादि का भी संकेत कक्ष्याओं में उन की दूरी से किया जाता था।
वाच्यम् वा मध्यमम् वापि तथैवाभ्यंतरम् पुनः
दूरम् व सन्निकृष्टम् वा देशाश्च परिकल्पयेत्।
यत्र वार्त्ता प्रवर्तेत तत्र कक्ष्याम् प्रवर्त्तते॥
रंगमंच में आकाशगामी सिद्ध विद्याधरों के विमानों के भी दृश्य दिखलाये जाते थे। यदि मृच्छकटिक और शाकुंतल तथा विक्रमोर्वशी नाटक खेलने ही के लिए बने थे, जैसा कि उन की प्रस्तावनाओं से प्रतीत होता है, तो यह मानना पड़ेगा कि रंगमंच इतना पूर्ण और विस्तृत होता था कि उस में बैलों से जुते हुए रथ और घोड़ों के रथ तथा हेमकूट पर चढ़ती हुई अप्सराएं दिखलाई जा सकती थीं। इन दृश्यों के दिखलाने में मोम, मिट्टी, तृण, लाख, अभ्रक, काठ, चमड़ा, वस्त्र और बाँस के फंठों से काम लिया जाता था।
प्रतिपादौ प्रतिशिरः प्रतिहस्तौ प्रतिस्वक्षम्
तृणजैः कीलजैर्माण्डैः सरूपाणीह कारयेत्।
यद्यस्य यादृशं रूपं सारूप्यगुणसंभवम्
मृन्मयं गव कृत्स्मं तु नाना रूपांस्तु कारयेत्।
भांडवस्त्रमधूच्छिष्टैः लाक्षयाभ्रदलेन च
नमास्तु विविध कार्याः धर्मधर्मध्वजास्तथा।
२४ अध्याय
ऊपर के उद्धरणों से जान पड़ता है कि सरूप अर्थात् मुखौटों का भी प्रयोग दैत्य-दानवों के अंगों की विचित्रता के लिए होता था। कृत्रिम हाथ और पैर तथा मुखौटे मिट्टी, फूस, मोम, लाख और अभ्रक के पत्रों से बनाये जाते थे।
कुछ लोगों का कहना है कि भारतवर्ष में 'यवनिका' यवनों अर्थात् ग्रीकों से नाटकों में ली गयी है। किंतु मुझे यह शब्द शुद्ध रूप से व्यवहृत 'जवनिका' भी मिला। अमरकोष में―प्रतिसीरा जवनिका स्यात् तिरस्करिणी च सा; तथा हलायुध में―अपटी कांडपटः स्याम् प्रतिसारा जवनिका तिरस्करणी।
इस में 'य' से नहीं किंतु 'ज' से ही जवनिका का उल्लेख है। जवनिका से शीघ्रता का द्योतन होता है। जव का अर्थ वेग और त्वरा से है। तब जवनिका उस पट को कहते हैं जो शीघ्रता से उठाया या गिराया जा सके। कांड-पट भी एक इसी तरह का अर्थ ध्वनित करता है, जिस में पट अर्थात् वस्त्र के साथ कांड अर्थात् डंडे का संयोग हो। प्रतिसीरा और तिरस्करिणी भी साभिप्राय शब्द मालूम होते हैं। प्रतिसीरा तो नहीं किंतु तिरस्करिणी का प्रयोग विक्रमोर्वशी में एक जगह आता है। द्वितीय अंक में जब राजा प्रमोद वन में आते हैं तो वहीं पर आकाश-मार्ग से उर्वशी और चित्रलेखा का भी आगमन होता है। उर्वशी चित्रलेखा से कहती है, तिरस्करिणी परि परिच्छन्ना पार्श्ववर्त्तिनी भूत्वा श्रोस्ये तावत्। और फिर आगे चल कर उसी अंक में तिरस्करिणीम् अपनीम् तिरस्करिणी को हटा कर प्रगट होती है। प्रतिसीरा का भी प्रयोग संभव है। खोजने से मिल जाय, किंन्तु अपटी शब्द अत्यंत संदेहजनक है। मृच्छकटिक, विक्रमोर्वशी आदि में ततः प्रविशत्यपटीक्षेपेण कई स्थानों पर मिलता है। विक्रमोर्वशी के टीकाकार रंगनाथ ने यतः―नासूचितसय पात्रस्य प्रवेशो नाटके मतः इति नाटकसमयप्रसिद्धेर्यत्रा सूचित पात्र प्रवेशस्तत्राकस्मिक प्रवेशेऽपटीक्षेपेणेति वचनं युक्तम्। अत्र तु प्रस्तावनास्ते सूचितानामेवाप्सरसां प्रवेश इति। केचित्पुनः―न पटीक्षेपोऽपटीक्षेपे इति विग्रहं विधाय पटीक्षेपं विनैव प्रविशंतीति समर्थयन्ते तदप्यापाद्य कुचोयमाप्रमित्यारतां तावत्।
इस से जान पड़ता है कि प्रवेशक की सूचना अत्यंत आवश्यक होती थी और यह कार्य अंकों के आरंभ में चेटी, दासी या अन्य ऐसे ही पात्रों के द्वारा सूचित किया जाता था। उस के बाद अभिनय के वास्तविक पात्र रंगमंच पर प्रवेश करते थे। विक्रमोर्वशी में प्रस्तावना में ही अप्सराओं की पुकार सुनाई पड़ती है और सूत्रधार रंगमंच से प्रस्थान कर जाता है और अप्सराएं प्रवेश करती हैं। किंतु ऐसा प्रतीत होता हैं कि पटी अभी तक उठीं नहीं है और अप्सराओं का प्रवेश हो गया है। रंगमंच के उसी अगले भाग पर वे आ गई हैं, जहाँ कि सूत्रधार ने प्रस्तावना की है। इस के बाद अपटीक्षेप होता है अर्थात् पर्दा उठता है, तब पुरूरुवा का प्रवेश होता है और सामने हेमकूट का भी दृश्य दिखाई पड़ता है। इसलिए कुछ विशेष ढंग के परदे का नाम अपटी जान पड़ता है। संभवतः अपटीक्षेप उन स्थानों पर किया जाता था जहाँ सहसा पात्र उपस्थित होता था। उसी अंक में अन्य पात्रों के द्वारा कथावस्तु के अन्य विभाग का अभिनय करने में अपटीक्षेप का प्रयोग होता था। यह निश्चय है कि कालिदास और शूद्रक इत्यादि प्राचीन नाटककार रंगमंच के पटीक्षेप से परिचित थे और दृश्यांतर (ट्रांस्फर सीन) उपस्थित करने में उन का प्रयोग भी करते थे। यद्यपि वे प्राचीन रंगमंच अधुनिक ढंग से पूर्ण रूप से विकसित नहीं थे, फिर भी रंगमंचों के अनुकूल कक्ष्या-विभाग और उन में दृश्यों के लिए शैल, विमान और यान तथा कृत्रिम प्रासाद-यंत्र और पटों का उपयोग होता था।
नाट्यमंदिर में नर्त्तकियों का विशेष प्रबंध रहता था। जान पड़ता है कि रेचक, अंगहार, करण और चारियों के साथ पिंडीबंध अथवा सामूहिक नृत्य का भी आयोजन रंगमंच में होता था। अति प्राचीन काल में भारतवर्ष के रंगमंच में स्त्रियाँ नाटकों को सफल बनाने के लिए आवश्यक समझी गईं। केवल पुरुषों के द्वारा अभिनय असफल होने लगे, तब रंगोपजीवना अप्सराएँ रंगमंच पर आईं। कहा गया है―
कौशिकीश्लक्ष्णनैपश्या शृंगाररससंभवा
अशक्याः पुरुषैसातु प्रयोक्तुम् स्त्री जनादृते।
ततोऽसृजन्महातेजा मनसाप्सरसो विभुः।
रंगमंच पर काम करने वाली स्त्रियों को अप्सरा, रंगोपजीवना इत्यादि कहते थे। मालविकाग्निमित्र में स्त्रियों को अभिनय की शिक्षा देने वाले आचार्यों का भी उल्लेख है। उन का मत है कि पुरुष और स्त्री के स्वभावानुसार अभिनय उचित है। क्योंकि स्त्रीणां स्वभाव मधुरः कण्ठो नृणां बलत्वश्च―स्त्रियों का कंठ स्वभाव से ही मधुर होता है, पुरुष में बल है। इस लिए रंगमंच पर गान स्त्रियाँ करें, पाठ्य अर्थात् पढ़ने की वस्तु का प्रयोग पुरुष करें। पुरुष का गाना रंगमंच पर उतना शोभन नहीं माना जाता था। एवं स्वभावसिद्धं स्त्रीणां गानं नृणां च पाठ्यविधिः।
सामूहिक पिंडीबंध आदि चित्रनृत्यों का रंगमंच पर अच्छा प्रयोग होता था। पिंडीबंध चार तरह का होता था—पिंडी, शृंखलिका, लताबंध और भेद्यक। कई नर्तकियों के द्वारा नृत्य में अंगहारों के साथ, परस्पर विचित्र बाहुबंध और संबंध कर के अनेक आकार बनाये जाते थे। अभिनय में रंगमंच पर इन की भी आवश्यकता होती थी। और पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी रंगमंच-शाला की उच्च कोटि की शिक्षा मिलती थी। नाटकोपयोगी दृश्यों के निर्माण-वस्त्र तथा आयुधों के साथ कृत्रिम केश-मुकुटों और दाढ़ी इत्यादि का भी उल्लेख नाट्यशास्त्र में मिलता है। केश-मुकुट भिन्न-भिन्न पात्रों के लिए कई तरह के बनते थे।
रक्षो दानवदैत्यानां पिककेशकृतानितु
हरिश्मश्रुणि च तथा मुखशीर्षीण कारयेत्।
(ना॰ शा॰ २८-१४३)
कोयल के पंखों से दैत्य दानवों की दाढ़ी और मूँछ भी बनाई जाती थीं। मुकुट अभिनय के लिए भारी न हों; इस लिए अभ्रक और ताम्र के पतले पत्रों से हलके बनाए जाते थे। कंचुक इत्यादि वस्त्रों का भी नाट्यशास्त्र में विस्तृत वर्णन है। इन वस्तुओं के उपयेाग में इस बात का भी विचार किया जाता था कि नाटक के अभिनय में सुविधा हो। नाटक के अभिनय में दो विधान माननीय थे, और उन्हें लोकधर्मी और नाट्यधर्मी कहते थे। भरत के समय में ही रंगमंचों में स्वाभाविकता पर ध्यान दिया जाने लगा था। रंगमंच पर ऐसे अभिनय को लोकधर्मी कहते थे। इस लेाकधर्मी अभिनय में रंगमंच पर कृत्रिम उपकरणों का उपयोग बहुत कम होता था। स्वभावो लोकधर्मी तु नाट्यधर्मी विकारतः
(१९३, अ॰ १३)।
स्वाभाविकला का अधिक ध्यान केवल उपकरणों में ही नहीं किंतु आंगिक अभिनय में भी अभीष्ट था। उस में बहुत अंगलीला वर्जित थी।
अतिसत्व क्रियाएँ असाधारण कर्म, अतिभाषित लोकप्रसिद्ध द्रव्यों का उपयोग अर्थात् शैल, यान और विमान आदि का प्रदर्शन और ललित अंगहार जिसमें प्रयुक्त होते थे―रंगमंच के ऐसे नाटकों को नाट्यधर्मी कहते थे। स्वगत, आकाश-भाषित इत्यादि तब भी अस्वाभाविक माना जाता था, और इन का प्रयोग नाट्यधर्मी अभिनय में ही रंगमंच पर किया जाता था।
आसन्नोक्तं च यद वाक्यम् न शृण्वंति परस्परम्
अनुक्तं श्रूयते वाक्यम् नाट्यधर्मी तु सास्मृता!
प्राचीन रंगमंच में स्वगत की योजना जिस में कि समीप का उपस्थित व्यक्ति सुनी बात को अनसुनी कर जाता है, नाट्यधर्मी अभिनय के ही अनुकूल होता था; और 'भाण' में आकाश-भाषित का प्रयोग भी नाट्यधर्मी के ही अनुकूल है। व्यंजना-प्रधान अभिनय का भी विकास प्राचीन रंगमंच पर हो गया था। भावपूर्ण अभिनयों में पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी। नाट्यशास्त्र के २६वें अध्याय में इस का विस्तृत वर्णन है। पक्षियों का रेचक से, सिंह आदि पशुओं का गति-प्रचार से, भूत-पिशाच और राक्षसों का अंगहार से अभिनय किया जाता था। इस भावाभिनय का पूर्ण स्वरूप अभी भी दक्षिण के कथकलि नृत्य में वर्तमान है।
रंगमंच में नटों के गति-प्रचार (मूवमेंट), वस्तु-निवेदन (डिलीवरी), संभाषण (स्पीच) इत्यादि पर भी अधिक सूक्ष्मता से ध्यान दिया जाता था। और इन पर नाट्यशास्त्र में अलग-अलग अध्याय ही लिखे गये हैं। रंगमंच पर जिस कथा का अवतरण किया जाता था, उस का विभाग भी समय के अनुसार और अभिनय की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए किया जाता था।
ज्ञात्वा दिवसांस्तान्क्षणयाममुहूर्त्तलक्षणोपेतान्।
विभजेत् सर्वमशेषम् पृथक् पृथक् काव्यमंकेषु॥
प्रायः एक दिन का कार्य एक अंक में पूरा हो जाना चाहिए और यदि न हो सके तो प्रवेशक और अंकावतार के द्वारा उस की पूर्ति होनी चाहिए। एक वर्ष से अधिक का समय तो एक अंक में आना नहीं चाहिए। प्रवेशक, अंकावतार और अपटीक्षेप का प्रयोग आज कल की तरह दृश्य या स्थान को प्रधानता दे कर नहीं किया जाता था; किंतु वे कथावस्तु के विभाजन-स्वरूप ही होते थे। पाँच अंक के नाटक रंगमंच के अनुकूल इस लिए माने जाते थे कि उन में कथावस्तु की पाँचों संधियों का क्रम-विकास होता था। और कभी-कभी हीन-संधि नाटक भी रंगमंच पर अभिनीत होते थे, यद्यपि वे नियम विरुद्ध माने जाते थे। दूसरी, तीसरी, चौथी संधियों का अर्थात् बिंदु, पताका और प्रकरी का तो लोप हो सकता था, किंतु पहली और पाँचवी संधि का अर्थात् बीज और कार्य का रहना आवश्यक माना गया है। आरंभ और फलयोग का प्रदर्शन रंगमंच पर आवश्यक माना गया है।
रंगमंच की बाध्य-बाधकता का जब हम विचार करते हैं तो उस के इतिहास से यह प्रकट होता है कि काव्यों के अनुसार प्राचीन रंगभंच विकसित हुए और रंगमंचों की नियमानुकूलता मानने के लिए काव्य बाधित नहीं हुए। अर्थात् रंगमंच को ही काव्य के अनुसार अपना विस्तार करना पड़ा और यह प्रत्येक काल में माना जायगा कि काव्यों के अथवा नाटकों के लिए ही रंगमंच होते हैं। काव्यों की सुविधा जुटाना रंगमंच का काम है। क्योंकि रसानुभूति के अनंत प्रकार नियमबद्ध उपायों से नहीं प्रदर्शित किये जा सकते और रंगमंच ने सुविधानुसार काव्यों के अनुकूल समय-समय पर अपना स्वरूप-परिवर्त्तन किया है।
मध्यकालीन भारत में जिस आतंक और अस्थिरता का साम्राज्य था, उस ने यहाँ की सर्व-साधारण प्राचीन रंगशालाओं को तोड़-फोड़ दिया। धर्मांध आक्रमणों ने जब भारतीय रंगमंच के शिल्प का विनाश कर दिया तो देवालयों में संलग्न मंडपों में छोटे-मोटे अभिनय सर्व-साधारण के लिए सुलभ रह गये। उत्तरीय भारत में तो औरंगज़ेब के समय में ही साधारण संगीत का भी जनाजा निकाला जा चुका था। किंतु रंगमंच से विहीन कुछ अभिनय बच गये, जिन्हें हम पारसी स्टेजों के आने के पहले भी देखते रहे हैं। इन में मुख्यतः नौटंकी (नाटकी?) और भाँड़ ही थे। रामलीला और यात्राओं का भी नाम लिया जा सकता है। सार्वजनिक रंगमंचों के विनष्ट हो जाने पर यह खुले मैदानों में तथा उत्सवों के अवसर पर खेले जाते थे। रामलीला और यात्रा तो देवता-विषयक अभिनय थे, किंतु नाटकी और भाँड़ों में शुद्ध मानव-संबंधी अभिनय होते थे। मेरा निश्चित विचार है कि भाँड़ो की परिहास की अधिकता संस्कृत भाण मुकुन्दानंद और रससदन आदि की परंपरा में है, और नाटकी था नौटंकी प्राचीन रागकाव्य के अथवा गीति-नाट्य की स्मृतियाँ हैं। रामलीला पाठ्य-काव्य रामायण के आधार पर वैसी ही होती है जैसे प्राचीन महाभारत और वाल्मीकि के पाठ्य-काव्यों के साथ अभिनय होता था। दक्खिन में अब भी कथकलि अभिनय उस प्रथा को सजीव किये है। प्रवृत्ति वही पुरानी है। परन्तु उत्तरीय भारत में बाह्म प्रभाव की अधिकता के कारण इन में परिवर्तन हो गया है और अभिनय की वह बात नहीं रही। हाँ, एक बात अवश्य इन लोगों ने की है और वह है चलते-फिरते रङ्गमंचों की या विमानों की रक्षा।
वर्तमान रङ्गमंच अन्य प्रभावों से अछूता न रह सका, क्योंकि विप्लव और आतंक के कारण प्राचीन विशेषताएँ नष्ट हो चुकी थीं। मुगल दरबारों में जो थोड़ी सी संगीत-पद्धति तानसेन की परम्परा में बच रही थी, उस में भी बाह्य प्रभाव का मिश्रण होने लगा था। अभिनयों में केवल भाण ही मुग़ल दरबार में स्वीकृत हुआ था; वह भी केवल मनोरंजन के लिए।
पारसी व्यवसायियों ने पहले-पहल नये रङ्गमंच की आयोजना की। भाषा मिश्रित थी―इंद्र-सभा, चित्रा-बकावली, चंद्रावली और हरिश्चंद्र आदि अभिनय होते थे, अनुकरण था रङ्गमंच में शेक्सपीरियन स्टेज का। क्योंकि वहाँ भी विक्टोरियन युग की प्रेरणा ने रङ्गमंच में विशेष परिवर्तन कर लिया था। १९वीं शताब्दी के मध्य में कीन की सहायता से अंग्रेज़ी रङ्गमंच में पुरावृत्त की खोजों के आधार पर, शेक्सपियर के नाटकों के अभिनय की नई योजना हुई, और तभी हेनरी इर्विंग सदृश चतुर नट भी आए। किन्तु साथ ही सूक्ष्म तथा गंभीर प्रभाव डालने वाली इब्सन की प्रेरणा भी पश्चिम में स्थान बना रही थी, जो नाटकीय यथार्थवाद का मूल है।
भारतीय रङ्गमंच पर इस पिछली धारा का प्रभाव पहले-पहल बंगाल पर हुआ। किंतु इन दोनों प्रभावों के बीच में दक्षिण में भारतीय रंगमंच निजी स्वरूप में अपना अस्तित्व रख सका। कथकलि नृत्य मंदिरों की विशाल संख्याओं में मर नहीं गया था। भावाभिनय अभी होते रहते थे। कदाचित् संस्कृत नाटकों का अभिनय भी चल रहा था, बहुत दबे-दबे। आंध्र ने आचार्यों के द्वारा जिस धार्मिक संस्कृति का पुनरावर्तन किया था, उस के परिणाम में संस्कृत साहित्य का भी पुनरुद्धार और तत्संबंधी साहित्य और कला की भी पुनरावृत्ति हुई थी। संस्कृत के नाटकों का अभिनय भी उसी का फल था। दक्षिण में वे सब कलाएं सजीव थीं; उन का उपयोग भी हो रहा था। हाँ, वाली और जावा इत्यादि के मंदिरों में इसी प्रकार के अभिनय अधिक सजीवता से सुरक्षित थे। ३० बरस पहले जब काशी में पारसी रंगमंच की प्रबलता थी, तब भी मैंने किसी दक्षिणी नाटक-मंडली द्वारा संस्कृत मृच्छकटिक का अभिनय देखा था। उस की भारतीय विशेषता अभी मुझे भूली नहीं है। कदाचित् उन का नाम 'ललित-कलादर्श-मंडली' था।
दृश्यांतर और चित्रपटों की अधिकता के साथ ही पारसी स्टेज ने पश्चिमी ट्यूनों का भी मिश्रण भारतीय संगीत में किया। उस के इस काम में बंगाल ने भी साथ दिया, किंतु उतने भद्दे ढंग से नहीं। बंगाल ने जितना पश्चिमी ढंग का मिश्रण किया वह सुरुचि से बहुत आगे नहीं बढ़ा। चित्रपटों में सरलता उस ने रक्खी। किंतु पारसी स्टेज ने अपना भयानक ढंग बंद नहीं किया। पारसी स्टेज में दृश्यों और परिस्थितियों के संकलन की प्रधानता है। वस्तु-विन्यास चाहे कितना ही शिथिल हो किंतु अमुक परदे के पीछे वह दूसरा प्रभावोत्पादक परदा आना ही चाहिए। कुछ नहीं तो एक असंबद्ध फूहड़ भड़ैती से ही काम चल जायगा।
हिंदी के कुछ अकाल-पक्व अलोचक जिन का पारसी स्टेज से पिंड नहीं छूटा है सोचते हैं स्टेज में यथार्थवाद। अभी वे इतने भी सहनशील नहीं कि फूहड़ परिहास के बदले―जिस से वह दर्शकों को उलझा लेता है―तीन-चार मिनट के लिए काला परदा खींच कर दृश्यांतर बना लेने का अवसर रंगमंच को दें। हिंदी का कोई अपना रंगमंच नहीं है। जब उस के पनपने का अवसर था तभी सस्ती भावुकता ले कर वर्तमान सिनेमा में बोलने वाले चित्रपटों का अभ्युदय हो गया, और फलतः अभिनयों का रंगमंच नहीं-सा हो गया है। साहित्यिक सुरुचि पर सिनेमा में ऐसा धावा बोल दिया है कि कुरुचि को नेतृत्व करने का संपूर्ण अवसर मिल गया है। उन पर भी पारसी स्टेज की गहरी छाप है। हाँ, पारसी स्टेज के आरंभिक विनय-सूत्रों में एक यह भी था कि वे लोग प्राचीन इंग्लैंड के रंगमंचों की तरह स्त्रियों का सहयोग नहीं पसंद करते थे। १८वीं शताब्दी में धीरे-धीरे स्त्रियाँ रंगमंच पर इंग्लैंड में आई। किंतु सिनेमा ने स्त्रियों को, रंगमंच पर अबाध अधिकार दिया। बालकों को स्त्री-पात्र के अभिनय की अवांछनीय प्रणाली से छुटकारा मिला। किंतु रंगमंचों की असफलता का प्रधान कारण है स्त्रियों का उन में अभाव; विशेषतः हिंदी रंगमंच के लिए। बहुत से नाटक मंडलियों द्वारा इस लिए नहीं खेले जाते कि उन के पास स्त्री-पात्र नहीं हैं। रंगमंच की तो अकाल मृत्यु हिंदी में दिखाई पड़ रही है। कुछ मंडलियाँ कभी-कभी साल में एकाध बार, वार्षिकोत्सव मनाने के अवसर पर, कोई अभिनय कर लेती है। पुकार होती है आलोचकों की, हिंदी में नाटकों के अभाव की। रंगमंच नहीं है, ऐसा समझने का कोई साहस नहीं करता। क्योंकि दोष-दर्शन सहज है। उस के लिए वैसा प्रयत्न करना कठिन है जैसा कीन ने किया था। युग के पीछे हम चलने का स्वाँग भरते हैं, हिंदी में नाटकों का यथार्थवाद अभिनीत देखना चाहते हैं और यह नहीं देखते कि पश्चिम में अब भी प्राचीन नाटकों को फिर से सवाक् चित्र बनाने के लिए प्रयत्न होता रहता है। ऐतिहासिक नाटकों के सवाक्-चित्र बनाने के लिए उन ऐतिहासिक व्यक्तियों की स्वरूपता के लिए टनों मेक-अप का मसाला एक-एक पात्र पर लग जाता है। युग की मिथ्या धारणा से अभिभूत नवीनतम की खोज में, इब्सनिज़्म का भूत वास्तविकता का भ्रम दिखाता है। समय का दीर्घ अतिक्रमण कर के जैसा पश्चिम ने नाट्यकला में अपनी सब वस्तुओं को स्थान दिया है, वैसा क्रम-विकास कैसे किया जा सकता है यदि हम पश्चिम के आज को ही सब जगह खोजते रहेंगे? और यह भी विचारणीय है कि क्या हम लोगों का सोचने का, निरीक्षण का दृष्टिकोण सत्य और वास्तविक है? अनुकरण में फ़ैशन की तरह बदलते रहना साहित्य में ठोस अपनी वस्तु का निमंत्रण नहीं करता। वर्तमान और प्रति क्षण का वर्तमान सदैव दूषित रहता है, भविष्य के सुंदर निर्माण के लिए। कलाओं का अकेले प्रतिनिधित्व करने वाले नाटक के लिए तो ऐसी 'जल्दबाजी' बहुत ही अवांछनीय है। यह रस की भावना से अस्पृष्ट व्यक्ति-वैचित्र्य की यथार्थवादिता ही का आकर्षण है, जो नाटक के संबंध में विचार करने वालों को उद्विग्न कर रही है। प्रगतिशील विश्व है; किंतु अधिक उछलने में पदस्खलन का भी भय है। साहित्य में युग की प्रेरणा भी आदरणीय है, किंतु इतना ही अलं नहीं। जब हम यह समझ लेते हैं कि कला को प्रगतिशील बनाए रखने के लिए हम को वर्तमान सभ्यता का—जो सर्वोत्तम है―अनुसरण करना चाहिए, तो हमारी दृष्टिकोण भ्रमपूर्ण हो जाता है। अतीत और वर्तमान को देख कर भविष्य का निर्माण होता है। इसलिए हम को साहित्य में एकांगी लक्ष्य नहीं रखना चाहिए। जिस तरह हम स्वाभाविक या प्राचीन शब्दों में लोकधर्मी अभिनय की आवश्यकता समझते हैं, ठीक उसी प्रकार से नाट्यधर्मी अभिनय की भी; देश, काल, पात्र के अनुसार रंगमंच में संगृहीत रहना चाहिए। पश्चिम ने भी अपना सब कुछ छोड़ कर नये को नहीं पाया है।
श्री भारतेंदु ने रंगमंच की अव्यवस्थाओं को देख कर जिस हिंदी रंगमंच की स्वतंत्र स्थापना की थी, उस में इन सब का समन्वय था। उस पर सत्य-हरिश्चंद्र, मुद्राराक्षस, नीलदेवी, चंद्रावली, भारत-दुर्दशा, प्रेमयोगिनी सब का सहयोग था। हिंदी रंगमंच की इस स्वतंत्र चेतनता को सजीव रख कर रंगमंच की रक्षा करनी चाहिए। केवल नई पश्चिमी प्रेरणाएँ हमारी पथ-प्रदर्शिका न बन जाएँ। हाँ, उन सब साधनों से जो वर्तमान विज्ञान द्वारा उपलब्ध हैं, हम को वंचित भी न होना चाहिए।
आलोचकों का कहना है कि "वर्तमान युग की रंगमंच की प्रकृति के अनुसार भाषा सरल हो और वास्तविकता भी हो।" वास्तविकता का प्रच्छन्न अर्थ इब्सेनिज़्म के आधार पर कुछ और भी है। वे छिप कर कहते हैं, हम को अपराधियों से घृणा नहीं, सहानुभूति रखनी चाहिए। इस का उपयोग चरित्र-चित्रण में व्यक्ति-वैचित्र्य के समर्थन में भी किया जाता है। रंगमंच पर ऐसे वस्तु-विन्यास समस्या बन कर रह जायँगे। प्रभाव का असंबद्ध स्पष्टीकरण भाषा की क्लिष्टता से भी भयानक है। रेडियो ड्रामा के संवाद भी लिखे जाने लगे हैं, जिन में दृश्यों का संपूर्ण लोप है। दृश्य वस्तु श्रव्य बन कर संवाद में आती है। किंतु साहित्य में एक प्रकार के एकांकी नाटक भी लिखने का प्रयास हो रहा है। वे यही समझ कर तो लिखे जाते हैं कि उन का अभिनय सुगम है। किंतु उन का अभिनय होता कहाँ है? यह पाठ्य छोटी कहानियों का ही प्रतिरूप नाट्य है। दृश्यों की योजना साधारण होने पर भी खिड़की के टूटे हुए काँच, फटा परदा और कमरे के कोने में मकड़ी का जाला दृश्यों में प्रमुख होते हैं―वास्तविकता के समर्थन में!
भाषा की सरलता की पुकार भी कुछ ऐसी ही है। ऐसे दर्शकों और सामाजिकों का अभाव नहीं किन्तु प्रचुरता है, जो पारसी स्टेज पर गाई गई गज़लों के शब्दार्थों से अपरिचित रहने पर तीन बार तालियाँ पीटते हैं। क्या हम नहीं देखते कि बिना भाषा के अबोल-चित्रपटों के अभिनय में भाव सहज ही समझ में आते हैं और कथकलि के भावाभिनय भी शब्दों की व्याख्या ही हैं? अभिनय तो सुरुचिपूर्ण शब्दों को समझाने का काम रंगमंच से अच्छी तरह करता है। एक मत यह भी है कि भाषा स्वाभाविकता के अनुसार पात्रों की अपनी होनी चाहिए और इस तरह कुछ देहाती पात्रों से उन की अपनी भाषा का प्रयोग कराया जाता है। मध्यकालीन भारत में जिस प्राकृत का संस्कृत से सम्मेलन रंगमंच पर कराया गया था वह बहुत कुछ परिमार्जित और कृत्रिम-सी थी। सीता इत्यादि भी संस्कृत बोलने में असमर्थ समझी जाती थीं! वर्तमान युग की भाषा-संबंधी प्रेरणा भी कुछ कुछ वैसी ही है। किंतु आज यदि कोई मुग़ल-कालीन नाटक में लखनवी उर्दू मुग़लों से बुलवाता है तो वह भी स्वाभाविक या वास्तविक नहीं है। फिर राजपूतों की राजस्थानी भाषा भी आनी चाहिए। यदि अन्य असभ्य पात्र हैं तो उन की जंगली भाषा भी रहनी चाहिए। और इतने पर भी क्या वह नाटक हिंदी का ही रह जायगा? यह विपत्ति कदाचित् हिंदी नाटकों के लिए ही है।
मैं तो कहूँगा कि सरलता और क्लिष्टता पात्रों के भावों और विचारों के अनुसार भाषा में होगी ही और पात्रों के भावों और विचारों के ही आधार पर भाषा का प्रयोग नाटकों में होना चाहिए। किंतु इस के लिए भाषा की एकतंत्रता नष्ट कर के कई तरह की खिचड़ी भाषाओं का प्रयोग हिंदी नाटकों के लिए ठीक नहीं। पात्रों की संस्कृति के अनुसार उन के भावों और विचारों में तारतम्य होना भाषाओं के परिवर्तन से अधिक उपयुक्त होगा। देश और काल के अनुसार भी सांस्कृतिक दृष्टि से भाषा में पूर्ण अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
रंगमंच के संबंध में यह भारी भ्रम है कि नाटक रंगमंच के लिए लिखे जायँ। प्रयत्न तो यह होना चाहिए कि नाटक के लिए रंगमंच हों, जो व्यावहारिक है। हाँ, रंगमंच पर सुशिक्षित और कुशल अभिनेता तथा मर्मज्ञ सूत्रधार के सहयोग की आवश्यकता है। देश-काल की प्रवृत्तियों का समुचित अध्ययन भी आवश्यक है। फिर तो पात्र रंगमंच पर अपना कार्य सुचारु रूप से कर सकेंगे। इन सब के सहयोग से ही हिंदी रंगमंच का अभ्युत्थान संभव है।