रंगभूमि (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद
Rangbhoomi (Novel) : Munshi Premchand
रंगभूमि अध्याय 37
प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृदयता सभी को मोहित कर लेती थी। इसके साथ ही अब उनके चरित्र में वह कर्तव्यनिष्ठा दिखाई देती थी, जिसकी उन्हें स्वयं आशा न थी। सेवक-दल में प्राय: सभी लोग शिक्षित थे, सभी विचारशील। वे कार्य को अग्रसर करने के लिए किसी नए विधान की आयोजना करना चाहते थे। वह अशिक्षित सिपाहियों की सेना न थी, जो नायक की आज्ञा को तौलती है, तर्क-वितर्क करती है, और जब तक कायल न हो जाए, उसे मानने को तैयार नहीं होती। प्रभु सेवक ने बड़ी बुध्दिमत्ता से इस दुस्तर कार्य को निभाना शुरू किया।
अब तक इस संस्था का कार्य क्षेत्र सामाजिक था। मेलों-ठेलों में यात्रिायों की सहायता, बाढ़-बूड़े में पीड़ितों का उध्दार, सूखे-झूरे में विपत्तिा के मारे हुओं का कष्ट-निवारण, ये ही इनके मुख्य विषय थे। प्रभुसेवक ने इसका कार्य-क्षेत्र विस्तृत कर दिया, इसको राजनीतिक रूप दे दिया। यद्यपि उन्होंने कोई नया प्रस्ताव न किया, किसी परिवर्तन की चर्चा तक न की, पर धीरे-धीरे उनके असर से नए भावों का संचार होने लगा।
प्रभु सेवक बहुत सहृदय आदमी थे, पर किसी को गरीबों पर अत्याचार करते देखकर उनकी सहृदयता हिंसात्मक हो जाती थी।
किसी सिपाही को घसियारों की घास छीनते देखकर वह तुरंत घसियारा की ओर से लड़ने पर तैयार हो जाते थे। दैविक आघातों से जनता की रक्षा करना उन्हें निरर्थक-सा जान पड़ता था। सबलों के अत्याचार पर ही उनकी खास निगाह रहती थी। रिश्वतखोर कर्मचारियों पर,जालिम जमींदारों पर, स्वार्थी अधिकारियों पर वह सदैव ताक लगाए रहते थे। इसका फल यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में इस संस्था की धाक बैठ गई। उसका दफ्तर निर्बलों और दु:खित जनों का आश्रय बन गया। प्रभु सेवक निर्बलों को प्रतिकार के लिए उत्तोजित करते रहते थे। उनका कथन था कि जब तक जनता स्वयं अपनी रक्षा करना न सीखेगी, ईश्वर भी उसे अत्याचार से नहीं बचा सकता।
हमें सबसे पहले आत्मसम्मान की रक्षा करनी चाहिए। हम कायर और दब्बू हो गए हैं, अभिमान और हानि चुपके से सह लेते हैं, ऐसे प्राणियों को तो स्वर्ग में भी सुख नहीं प्राप्त हो सकता। जरूरत है कि हम निर्भीक और साहसी बनें, संकटों का सामना करें, मरना सीखें। जब तक हमें मरना न आएगा, जीना भी न आएगा। प्रभु सेवक के लिए दीनों की रक्षा करते हुए गोली का निशाना बन जाना इससे कहीं आसान था कि वह किसी रोगी के सिरहाने बैठ पंखा झले, या अकाल-पीड़ितों को अन्न और द्रव्य बाँटता फिरे। उसके सहयोगियों को भी इस साहसिक सेवा में अधिक उत्साह था। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़ जाना चाहते थे। उनका विचार था कि प्रजा में असंतोष उत्पन्न करना भी सेवकों का मुख्य कर्तव्य है। इंद्रदत्ता इस सम्प्रदाय का अगुआ था, और उसे शांत करने में प्रभु सेवक को बड़ी चतुराई से काम लेना पड़ता था।
लेकिन ज्यों-ज्यों सेवकों की कीर्ति फैलने लगी, उन पर अधिकारियों का संदेह भी बढ़ने लगा। अब कुँवर साहब डरे कि कहीं सरकार इस संस्था का दमन न कर दे। कुछ दिनों में यह अफवाह भी गर्म हुई कि अधिकारी वर्ग में कुँवर साहब की रियासत जब्त करने का विचार किया जा रहा है। कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, पर यह अफवाह सुनकर उनका आसन भी डोल गया। वह ऐश्वर्य का सुख नहीं भोगना चाहते थे, लेकिन ऐश्वर्य की ममता का त्याग न कर सकते थे। उनको परोपकार में उससे कहीं अधिक आनंद आता था, जितना भोग-विलास में। परोपकार में सम्मान था, गौरव था; वह सम्मान न रहा, तो जीने में मजा ही क्या रहेगा! वह प्रभु सेवक को बार-बार समझाते-भाई, जरा समझ-बूझकर काम करो। अधिकारियों से बचकर चलो। ऐसे काम करो ही क्यों जिनसे अधिकारियों को तुम्हारे ऊपर संदेह हो। तुम्हारे लिए परोपकार का क्षेत्र क्या कम है कि राजनीति के झगड़े में पड़ो। लेकिन प्रभु सेवक उनके परामर्श की जरा भी परवा न करते-धमकी देते-इस्तीफा दे दूँगा। हमें अधिकारियों की क्या परवा! वे जो चाहते हैं, करते हैं, हमसे कुछ नहीं पूछते, फिर हम क्यों उनका रुख देखकर काम करें? हम अपने निश्चित मार्ग से विचलित न होंगे। अधिकारियों की जो इच्छा हो, करें। आत्मसम्मान खोकर संस्था को जीवित ही रखा, तो क्या! उनका रुख देकर काम करने का आशय तो यही है कि हम खाएँ, मुकदमे लड़ें, एक दूसरे का बुरा चेतें और पड़े-पड़े सोएँ। हमारे और शासकों के उद्देश्यों में परस्पर विरोध है। जहाँ हमारा हित है, वहीं उनको शंका है, और ऐसी दशा में उनका संशय स्वाभाविक है। अगर हम लोग इस भाँति डरते रहेंगे, तो हमारा होना-न-होना दोनों बराबर है।
एक दिन दोनों आदमियों में वाद-विवाद की नौबत आ गई। बंदोबस्त के अफसरों ने किसी प्रांत में भूमि-कर में मनमानी वृध्दि कर दी थी। काउंसिलों, समाचार-पत्रों और राजनीतिक सभाओं में इस वृध्दि का विरोध किया जा रहा था, पर कर-विभाग पर कुछ असर न होता था। प्रभु सेवक की राय थी, हमें जाकर असामियों से कहना चाहिए कि साल-भर तक जमीन परती पड़ी रहने दें। कुँवर साहब कहते थे कि यह तो खुल्लम-खुल्ला अधिकारियों से रार मोल लेना है।
प्रभु सेवक-अगर आप इतना डर रहे हैं, तो उचित है कि आप इस संस्था को उसके हाल पर छोड़ दें। आप दो नौकाओं पर बैठकर नदी पार करना चाहते हैं, यह असम्भव है। मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास न था, और अब तो निराशा-सी हो गई है।
कुँवर-तुम मेरी गिनती रईसों में क्यों करते हो, जब तुम्हें मालूम है कि मुझे रियासत की परवा नहीं। लेकिन कोई काम धन के बगैर तो नहीं चल सकता। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं की भाँति इस संस्था को भी धनाभाव के कारण हम टूटते देखें।
प्रभु सेवक-मैं बड़ी-से-बड़ी जाएदाद को भी सिध्दांत के लिए बलिदान कर देने में दरेग न करूँगा।
कुँवर-मैं भी न करता, यदि जाएदाद मेरी होती। लेकिन यह जाएदाद मेरे वारिसों की है, और मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनकी इच्छा के बगैर उनकी जाएदाद की उत्तार-क्रिया कर दूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे कर्मों का फल मेरी संतान को भोगना पड़े।
प्रभु सेवक-यह रईसों की पुरानी दलील है। वे अपनी वैभव-भक्ति को इसी परदे की आड़ में छिपाया करते हैं। अगर आपको भय है कि हमारे कामों से आपकी जाएदाद को हानि पहुँचेगी, तो बेहतर है कि आप इस संस्था से अलग हो जाएँ।
कुँवर साहब ने चिंतित स्वर में कहा-प्रभु, तुम्हें मालूम नहीं है कि इस संस्था की जड़ अभी कितनी कमजोर है! मुझे भय है कि यह अधिकारियों को तीव्र दृष्टि को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा उद्देश्य एक ही है; मैं भी वही चाहता हूँ, जो तुम चाहते हो। लेकिन मैं बूढ़ा हूँ, मंद गति से चलना चाहता हूँ; तुम जवान हो, दौड़ना चाहते हो। मैं भी शासकों का कृपापात्र नहीं बनना चाहता। मैं बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में है, अपने कल्याण के लिए जो कुछ करेंगे, दूसरों से सहानुभूति या सहायता की आशा रखना व्यर्थ है। किंतु कम-से-कम हमारी संस्था को जीवित तो रहना चाहिए। मैं इसे अधिकारियों के संदेह की भेंट करके उसका अंतिम संस्कार नहीं करना चाहता।
प्रभु सेवक ने कुछ उत्तार न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मन में निश्चय किया कि अगर कुँवर साहब ने ज्यादा चीं-चपड़ की, तो उन्हें इस संस्था से अलग कर देंगे। धन का प्रश्न इतना जटिल नहीं है कि उसके लिए संस्था के मर्मस्थल पर आघात किया जाए। इंद्रदत्ता ने भी यही सलाह दी-कुँवर साहब को पृथक् कर देना चाहिए। हम औषधियाँ बाँटने और अकाल-पीड़ित प्रांतों में मवेशियों का चारा ढोने के लिए नहीं हैं। है वह भी हमारा काम, इससे हमें इनकार नहीं, लेकिन मैं उसे इतना गुरु नहीं समझता। यह विधवंस का समय है, निर्माण का समय तो पीछे आएगा। प्लेग, दुर्भिक्ष और बाढ़ से दुनिया कभी वीरान नहीं हुई और न होगी।
क्रमश: यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि अब कितनी ही महत्तव की बातों में ये दोनों आदमी कुँवर साहब से परामर्श तक न लेते, बैठकर आपस ही में निश्चय कर लेते। चारों तरफ से अत्याचारों के वृत्तांत नित्य दफ्तर में आते रहते थे। कहीं-कहीं तो लोग इस संस्था की सहायता प्राप्त करने के लिए बड़ी-बड़ी रकमें देने पर तैयार हो जाते थे। इससे यह विश्वास होता जाता था कि संस्था पैरों पर खड़ी हो सकती है,उसे किसी स्थायी कोष की आवश्यकता नहीं। यदि उत्साही कार्यकर्ता हों, तो कभी धनाभाव नहीं हो सकता। ज्यों-ज्यों यह बात सिध्द होती जाती थी, कुँवर साहब का आधिपत्य लोगों को अप्रिय प्रतीत होता जाता था।
प्रभु सेवक की रचनाएँ इन दिनों क्रांतिकारी भावों से परिपूर्ण होती थीं। राष्ट्रीयता, द्वंद्व, संघर्ष के भाव प्रत्येक छंद से टपकते थे। उसने'नौका' नाम की एक ऐसी कविता लिखी, जिसे कविता-सागर का अनुपम रत्न कहना अनुचित न होगा। लोग पढ़ते थे और सिर धुनते थे। पहले ही पद्य में यात्री ने पूछा था-क्यों माँझी, नौका डूबेगी या पार लगेगी? माँझी ने उत्तार दिया था-यात्री, नौका डूबेगी; क्योंकि तुम्हारे मन में यह शंका इसी कारण हुई है। कोई ऐसी सभा, सम्मेलन, परिषद् न थी, जहाँ यह कविता न पढ़ी गई हो। साहित्य जगत् में हलचल-सी मच गई।
सेवक-दल पर प्रभु सेवक का प्रभुत्व दिन-दिन बढ़ता जाता था। प्राय: सभी सदस्यों को अब उन पर श्रध्दा हो गई थी, सभी प्राणपण से उनके आदेशों पर चलने को तैयार रहते थे। सब-के-सब एक रंग में रँगे हुए थे, राष्ट्रीयता के मद में चूर, न धन की चिंता, न घर-बार की फिक्र, रूखा-सूखा खानेवाले, मोटा पहननेवाले, जमीन पर सोकर रात काट देते थे, घर की ज़रूरत न थी, कभी-कभी वृक्ष के नीचे पडे रहते,कभी किसी झोंपड़े में। हाँ, उनके हृदयों में उच्च और पवित्र देशोपासना हिलोरें ले रही थी!
समस्त देश में संस्था की सुव्यवस्था की चर्चा हो रही थी। प्रभु सेवक देश के सर्व सम्मानित, सर्वजन-प्रिय नेताओं में थे। इतनी अल्पावस्था में यह कीर्ति! लोगों को आश्चर्य होता था। जगह-जगह से राष्ट्रीय सभाओं ने उन्हें आमंत्रिात करना शुरू किया। जहाँ जाते, लोग उनका भाषण सुनकर मुग्ध हो जाते थे।
पूना में राष्ट्रीय सभा का उत्सव था। प्रभु सेवक को निमंत्रण मिला। तुरंत इंद्रदत्ता को अपना कार्यभार सौंपा और दक्षिण के प्रदेशों में भ्रमण करने का इरादा करके चले। पूना में उनके स्वागत की खूब तैयारियाँ की गई थीं। यह नगर सेवक-दल का एक केंद्र भी था, और यहाँ का नायक एक बड़े जीवट का आदमी था, जिसने बर्लिन में इंजीनियरी की उपाधि प्राप्त की थी और तीन वर्ष के लिए इस दल में सम्मिलित हो गया था। उसका नगर में बड़ा प्रभाव था। वह अपने दल के सदस्यों के लिए स्टेशन पर खड़ा था। प्रभु सेवक का हृदय यह समारोह देखकर प्रफुल्लित हो गया। उसके मन ने कहा-यह मेरे नेतृत्व का प्रभाव है। यह उत्साह, यह निर्भीकता, यह जागृति इनमें कहाँ थी? मैंने ही इसका संचार किया। अब आशा होती है कि जिंदा रहा, तो कुछ-न-कुछ कर दिखाऊँगा। हा अभिमान!
संधया समय विशाल पंडाल में जब वह मंच पर खड़े हुए, तो कई हजार श्रोताओं को अपनी ओर श्रध्दापूर्ण नेत्रों से ताकते देखकर उनका हृदय पुलकित हो उठा। गैलरी में योरपियन महिलाएँ भी उपस्थित थीं। प्रांत के गवर्नर महोदय भी आए हुए थे। जिसकी कलम में यह जादू है, उसकी वाणी में क्या कुछ चमत्कार न होगा, सब यही देखना चाहते थे।
प्रभु सेवक का व्याख्यान शुरू हुआ। किसी को उनका परिचय कराने की जरूरत न थी। राजनीति की दार्शनिक मीमांसा करने लगे। राजनीति क्या है? उसकी आवश्यकता क्यों है? उसके पालन का क्या विधान है? किन दशाओं में उसकी अवज्ञा करना प्रजा का धर्म हो जाता है? उसके गुण-दोष क्या हैं? उन्होंने बड़ी विद्वता और अत्यंत निर्भीकता के साथ इन प्रश्नों की व्याख्या की। ऐसे जटिल और गहन विषय को अगर कोई सरल, बोधगम्य और मनोरंजक बना सकता था, तो वह प्रभु सेवक थे। लेकिन राजनीति भी संसार की उन महत्तवपूर्ण वस्तुओं में है, जो विश्लेषण और विवेचना की आँच नहीं सह सकती। उसका विवेचन उसके लिए घातक है, उस पर अज्ञान का परदा रहना ही अच्छा है। प्रभु सेवक ने परदा उठा दिया-सेनाओं की कतारें आँखों से अदृश्य हो गईं, न्यायालय के विशाल भवन जमीन पर गिर पड़े, प्रभुत्व और ऐश्वर्य के चिद्द मिटने लगे, सामने मोटे और उज्ज्वल अक्षरों में लिखा था-सर्वोत्ताम राजनीति राजनीति का अंत है। लेकिन ज्यों ही उनके मुख से ये शब्द निकले-हमारा देश राजनीति शून्य है। परवशता और आज्ञाकारिता में सीमाओं का अंतर है। त्यों ही सामने से पिस्तौल छूटने की आवाज आई, और गोली प्रभु सेवक के कान के पास से निकलकर पीछे की ओर दीवार में लगी। रात का समय था; कुछ पता न चला, किसने यह आघात किया। संदेह हुआ, किसी योरपियन की शरारत है। लोग गैलरियों की ओर दौडे। सहसा प्रभु सेवक ने उच्च स्वर में कहा-मैं उस प्राणी को क्षमा करता हूँ, जिसने मुझ पर आघात किया है। उसका जी चाहे, तो वह फिर मुझ पर निशाना मार सकता है। मेरा पक्ष लेकर किसी को इसका प्रतिकार करने का अधिकार नहीं है। मैं अपने विचारों का प्रचार करने आया हूँ, आघातों का प्रत्याघात करने नहीं।
एक ओर से आवाज आई-यह राजनीति की आवश्यकता का उज्ज्वल प्रमाण है।
सभा उठ गई। योरपियन लोग पीछे के द्वार से निकल गए। बाहर सशस्त्र पुलिस आ पहुँची थी।
दूसरे दिन संधया को प्रभु सेवक के नाम तार आया-सेवक-दल की प्रबंध-कारिणी समिति आपके व्याख्यान को नापा करती है, और अनुरोध करती है कि आप लौट आएँ, वरना यह आपके व्याख्यानों की उत्तारदायी न होगी।
प्रभु सेवक ने तार के कागज को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और उसे पैरों से कुचलते हुए आप-ही-आप बोले-धूर्त, कायर, रँगा हुआ सियार। राष्ट्रीयता का दम भरता है, जाति की सेवा करेगा! एक व्याख्यान ने कायापलट कर दी। उँगली में लहू लगाकर शहीदों में नाम लिखाना चाहता है। जाति-सेवा को बच्चों का खेल समझ रखा है। यह बच्चों का खेल नहीं है, साँप के मुँह में उँगली डालना है, शेर से पंजा लेना है। यदि अपने प्राण और अपनी सम्पत्तिा इतनी प्यारी है, तो यह स्वाँग क्यों भरते हो? जाओ, तुम-जैसे देशभक्तों के बगैर देश की कोई हानि नहीं।
उन्होंने उसी वक्त तार का जवाब दिया-मैं प्रबंध-कारिणी समिति के अधीन रहना अपने लिए अपमानजनक समझता हूँ। मेरा उससे कोई सम्बंध नहीं।
आधा घंटे बाद दूसरा पत्र आया। इस पर सरकार की मुहर थी :
माई डियर सेवक,
मैं नहीं कह सकता कि कल आपका व्याख्यान सुनकर मुझे कितना लाभ और आनंद प्राप्त हुआ। मैं यह अत्युक्ति के भाव से नहीं कहता कि राजनीति की ऐसी विद्वतापूर्ण और तात्तिवक मीमांसा आज तक मैंने कहीं नहीं सुनी थी। नियमों ने मेरी जबान बंद कर रखी है, लेकिन मैं आपके भावों और विचारों का आदर करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह दिन जल्द आए, जब हम राजनीति का मर्म समझें और उसके सर्वोच्च सिध्दांतों का पालन कर सकें। केवल एक ही ऐसा व्यक्ति है, जिसे आपकी स्पष्ट बात असह्य हुई, और मुझे बड़े दु:ख और लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि वह व्यक्ति योरपियन है। मैं योरपियन समाज की ओर से इस कायरतापूर्ण और अमानुषिक आघात पर शोक और घृणा प्रकट करता हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि समस्त योरपियन समाज को आपसे हार्दिक सहानुभूति है। यदि मैं उस नर-पिशाच का पता लगाने में सफल हुआ (उसका कल से पता नहीं है), तो आपको इसकी सूचना देने में मुझसे अधिक आनंद और किसी को न होगा।
आपका
एफ. विल्सन
प्रभु सेवक ने इस पत्र को दुबारा पढ़ा। उनके हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। बड़ी सावधानी से उसे अपने संदूक में रख दिया। कोई और वहाँ होता, तो जरूर पढ़कर सुनाते। वह गर्वोन्मत्ता होकर कमरे में टहलने लगे। यह है जीवित जातियों की उदारता, विशाल-हृदयता,गुणग्राहकता! उन्होंने स्वाधीनता का आनंद उठाया है। स्वाधीनता के लिए बलिदान किए हैं, और इसका महत्तव जानते हैं। जिसका समस्त जीवन खुशामद और मुखापेक्षा में गुजरा हो, वह स्वाधीनता का महत्तव क्या समझ सकता है! मरने के दिन सिर पर आ जाते हैं, तो हम कितने ईश्वर-भक्त बन जाते हैं। भरतसिंह भी उसी तरफ गए होते, अब तक राम-नाम का जाप करते होते, वह तो विनय ने इधर फेर लिया। यह उन्हीं का प्रभाव था। विनय, इस अवसर पर तुम्हारी जरूरत है, बड़ी जरूरत है, तुम कहाँ हो? आकर देखो, तुम्हारी बोई हुई खेती का क्या हाल है! उसके रक्षक उसके भक्षक बने जा रहे हैं।
रंगभूमि अध्याय 38
सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाला मीठा राग गाता हुआ बहता था। भीलों के छोटे-छोटे झोंपड़े, जिन पर बेलें फैली हुई थीं, अप्सराओं के खिलौनों की भाँति सुंदर लगते थे। जब तक कुछ निश्चय न हो जाए कि क्या करना है, कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, तब तक उन्होंने उसी गाँव में निवास करने का इरादा किया। एक झोंपड़े में जगह भी आसानी से मिल गई। भीलों का आतिथ्य प्रसिध्द है, और ये दोनों प्राणी भूख-प्यास, गरमी-सरदी सहने में अभ्यस्त थे। जो कुछ मोटा-झोटा मयस्सर हुआ, खा लिया, चाय और मक्खन, मुरब्बे और मेवों का चस्का न था। सरल और सात्तिवक जीवन उनका आदर्श था। यहाँ उन्हें कोई कष्ट न हुआ। इस झोंपड़ें में केवल एक भीलनी रहती थी। उसका लड़का कहीं फौज में नौकर था। बुढ़िया इन लोगों की सेवा-टहल सहर्ष कर देती। यहाँ इन लोगों ने मशहूर किया कि हम दिल्ली के रहनेवाले हैं, जल-वायु बदलने आए हैं। गाँव के लोग उनका बड़ा अदब और लिहाज करते थे।
किंतु इतना एकांत और इतनी स्वाधीनता होने पर भी दोनों एक दूसरे से बहुत कम मिलते। दोनों न जाने क्यों सशंक रहते थे। उनमें मनोमालिन्य न था, दोनों प्रेम में डूबे हुए थे। दोनों उद्विग्न थे, दोनों विकल, दोनों अधीर, किंतु नैतिक बंधनों की दृढ़ता उन्हें मिलने न देती। सात्तिवक धर्म-निरूपण ने सोफिया को साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर दिया था। उसकी दृष्टि में भिन्न-भिन्न मत केवल एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न नाम थे। उसे अब किसी से द्वेष न था, किसी से विरोध न था। जिस अशांति ने कई महीनों तक उसके धर्म-सिध्दांतों को कुंठित कर रखा था, वह विलुप्त हो गई थी। अब प्राणिमात्र उसके लिए अपना था। और यद्यपि विनय के विचार इतने उदार न थे, संसार की प्र्रेम-ममता उनके लिए एक दार्शनिक वाद से अधिक मूल्य न रखती थी; किंतु सोफिया की उदारता के सामने उनकी परंपरागत समाज-व्यवस्थाएँ मुँह छिपाती फिरती थी। वास्तव में दोनों का आत्मिक संयोग हो चुका था, और भौतिक संयोग में भी कोई वास्तविक बाधा न थी। किंतु यह सब होते हुए भी वे दोनों पृथक् रहते, एकांत में साथ कभी न बैठते। उन्हें अब अपने ही से शंका होती थी! वचन का काल समाप्त हो चुका था, लेख का समय आ गया था। वचन से जबान नहीं कटती। लेख से हाथ कट जाता है।
लेकिन लेख से हाथ चाहे कट जाए, इसके बिना कोई बात पक्की नहीं होती। थोड़ा-सा मतभेद, जरा-सा असंयम समझौते को रद्द कर सकता है। इसलिए दोनों ही अनिश्चित दशा का अंत कर देना चाहते थे। कैसे करें यह समझ में नहीं आता था। कौन इस प्रसंग को छेडे? क़दाचित् बातों में कोई आपत्तिा खड़ी हो जाए। सोफिया के लिए विनय का सामीप्य काफी था। वह उन्हें नित्य आँखों से देखती थी, उनके हर्ष और अमर्ष में सम्मिलित होती थी, उन्हें अपना समझती थी। इससे अधिक वह कुछ न चाहती थी। विनय रोज आस-पास के देहातों में विचरने चले जाते थे। कोई स्त्री उनसे अपने परदेसी पुत्र या पति के नाम पत्र लिखाती, कहीं रोगियों को दवा देते, कहीं पारस्परिक कलहों में मधयस्थ बनना पड़ता। भोर के गए पहर रात को लौटते। यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी। सोफिया चिराग जलाए उनकी बाट देखा करती। जब वह आ जाते, तो उनके हाथ-पैर धुलवाकर भोजन कराती, दिन-भर की कथा प्रेम से सुनती और तब दोनों अपनी-अपनी कोठरियों में सोने चले जाते। वहाँ विनय को अपना घास का बिछौना बिछा हुआ मिलता। सिरहाने पानी की हाँड़ी रखी होती। सोफिया इतने ही में संतुष्ट थी। अगर उसे विश्वास हो जाता कि मेरा सम्पूर्ण जीवन इसी भाँति कट जाएगा, तो वह अपना अहोभाग्य समझती। यही उसके जीवन का मधुर स्वप्न था। लेकिन विनय इतने धैर्यशील, इतने विरागी न थे। उनको केवल आधयात्मिक संयोग से संतोष न होता था। सोफिया का अनुपम सौंदर्य, उसकी स्वर्गोपम वचन-माधुरी, उसका विलक्षण अंग-विन्यास उनकी शृंगारमयी कल्पना को विकल करता रहता था। उन्होंने कुचक्रों में पड़कर एक बार उसे खो दिया था। अब दुबारा उस परीक्षा में न पड़ना चाहते थे। जब तक इसकी सम्भावना उपस्थित थी, उनके चित्ता को कभी शांति न हो सकती थी।
ये लोग रेलवे स्टेशन के पते से अपने नाम पत्र-पत्रिाकाएँ, पुस्तकें आदि मँगा लिया करते थे। उनसे संसार की प्रगति का बोध हो जाता था। भीलों से उनको कुछ प्रेम-सा हो गया था। यहाँ से कहीं और चले जाने की उन्हें इच्छा ही न होती थी। दोनों को शंका थी कि इस सुरक्षित स्थान से निकलकर हमारी न जाने क्या दशा हो जाए, न जाने हम किस भँवर में जा पड़ें। इस शांति-कुटीर को दोनों ही गनीमत समझते थे। सोफिया को विनय पर विश्वास था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से परिचित थी। विनय को सोफिया पर विश्वास न था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से अनभिज्ञ थे।
इस तरह एक साल गुजर गया। सोफिया विनय को जल-पान कराकर अंगीठी के सामने बैठी एक किताब देख रही थी। कभी मार्मिक स्थलों पर पेंसिल से - निशान करती, कभी प्रश्नचिद्द बनाती, कहीं लकीर खींचती। विनय को शंका हो रही थी कि कहीं वह तल्लीनता प्रेम-शैथिल्य का लक्षण तो नहीं है? पढ़ने में ऐसी मग्न है कि ताकती तक नहीं। कपड़े पहन, बाहर जाना चाहते थे। ठंडी हवा चल रही थीं जाड़े के कपड़े थे ही नहीं। कम्बल काफी न था। अलसाकर अंगीठी के पास आए और माँची पर बैठ गए। सोफिया की आँखें किताब में गड़ी हुई थीं। विनय की लालसा-युक्त दृष्टि अवसर पाकर निर्विघ्न रूप से उसके रूप-लावण्य की छटा देखने लगी। सहसा सोफिया ने सिर उठाया, तो विनय को सचेष्ट नेत्रों से अपनी ओर ताकते पाया। लजाकर आँखें नीची कर लीं और बोली-आज तो बड़ी सरदी है, कहाँ जाओगे! बैठो, तुम्हें इस पुस्तक के कुछ भाग सुनाऊँ। बहुत ही सुपाठय पुस्तक है। यह कहकर उसने आँगन की ओर देखा, भीलनी गायब थी। शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी। अब दस बजे से पहले न आएगी। सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई।
विनय ने उत्सुकता के साथ कहा-नहीं सोफी, आज कहीं न जाऊँगा। तुमसे कुछ बातें करने को जी चाहता है। किताब बंद करके रख दो। तुम्हारे साथ रहकर भी तुमसे बातें करने को तरसता रहता हूँ।
यह कहकर उन्होंने सोफिया के हाथों से किताब छीन लेने की चेष्टा की। सोफिया किताब को दृढ़ता से पकड़कर बोली-ठहरो-ठहरो! अब यही शरात मुझे अच्छी नहीं लगती। बैठो, इस फ्रेंच फिलॉसफर के विचार सुनाऊँ। देखो उसने कितनी विशाल हृदयता से धार्मिक निरूपण किया है।
विनय-नहीं, आज दस मिनट के लिए तुम इस फिलॉसफर से अवकाश माँग लो और मेरी ये बातें सुन लो, जो किसी पिंजर-बध्दपक्षी की भाँति बाहर निकलने के लिए तड़फड़ा रही हैं। आखिर मेरे इस वनवास की कोई अवधि है या सदैव जीवन के सुख-स्वप्न ही देखता रहूँगा?
सोफिया-इस लेखक के विचार उस जवाब से कहीं मनोरंजक हैं, जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ। मुझे इन पर कई शंकाएँ हैं। सम्भव है, विचार परिवर्तन से उनकी निवृत्तिा हो जाए।
विनय-नहीं, यह किताब बंद करके रख दो। आज मैं सफर के लिए कमर कसकर आया हूँ। आज तुमसे वचन लिए बिना तुम्हारा दामन न छोड़ईँगा। क्या अब भी मेरी परीक्षा कर रही हो?
सोफिया ने किताब बंद करके रख दी और प्रेम-गम्भीर भाव से बोली-मैंने तो अपने को तुम्हारे चरणों पर डाल दिया, अब और मुझसे क्या चाहते हो?
विनय-अगर मैं देवता होता, तो तुम्हारी प्रेमोपासना से संतुष्ट हो जाता; लेकिन मैं भी तो इच्छाओं का दास, क्षुद्र मनुष्य हूँ। मैंने जो कुछ पाया है, उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ, सब चाहता हूँ। क्या अब भी तुम मेरा आशय नहीं समझीं? मैं पक्षी को अपनी मुँडेर पर बैठे देखकर संतुष्ट नहीं, उसे अपने पिंजड़े में जाते देखना चाहता हूँ। क्या और भी स्पष्ट रूप से कहूँ? मैं सर्वभोगी हूँ, केवल सुगंध से मेरी तृप्ति नहीं होती।
सोफिया-विनय, मुझे अभी विवश न करो, मैं तुम्हारी हूँ। मैं इस वक्त यह बात जितने शुध्द भाव और निष्कपट हृदय से कह रही हूँ, उससे अधिक किसी मंदिर में, कलीसा में या हवन-कुंड के सामने नहीं कह सकती। जिस समय मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया था, उस समय भी तुम्हारी थी। लेकिन क्षमा करना, मैं कभी ऐसा कर्म न करूँगी, जिससे तुम्हारा अपमान, तुम्हारी अप्रतिष्ठा, तुम्हारी निंदा हो। मेरा यह संयम अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए है। आत्मिक मिलाप के लिए कोई बाधा नहीं होती; पर सामाजिक संस्कारों के लिए अपने सम्बंधियों और समाज के नियमों की स्वीकृति अनिवार्य है, अन्यथा वे लज्जास्पद हो जाते हैं। मेरी आत्मा मुझे कभी क्षमा न करेगी, अगर मेरे कारण तुम अपने माता-पिता, विशेषत: अपनी पूज्य माता के कोप-भाजन बनो, और वे मेरे साथ तुम्हें भी कुल-कलंक समझने लगें। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि इस अवज्ञा के लिए रानीजी तुम्हें और विशेषकर मुझे, क्या दंड देंगी। वह सती हैं, देवी हैं, उनका क्रोध न जाने क्या अनर्थ करे। मैं उनकी दृष्टि में कितनी पतित हूँ, इसका मुझे अनुभव हो चुका है, और तुम्हें भी उन्होंने कठोर-से-कठोर दंड दे दिया, जो उनके वश में था। ऐसी दशा में जब उन्हें ज्ञात होगा कि मैं और तुम केवल प्रेम के सूत्र में नहीं, संस्कारों के सूत्र में बँधो हुए हैं, तो आश्चर्य नहीं कि वह क्रोधवेश में आत्महत्या कर लें। सम्भव है, इस समय तुम उन समस्त विघ्न-बाधाओं को अंगीकार करने को तैयार हो जाओ; लेकिन मैं बाह्य संस्कारों को इतने महत्तव की वस्तु नहीं समझती।
विनय ने उदास होकर कहा-सोफी, इसका आशय इसके सिवा और क्या है कि मेरा जीवन सुख-स्वप्न देखने में ही कट जाए!
सोफी-नहीं विनय, मैं इतनी हताश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि कभी-न-कभी रानीजी से तुम्हारा और अपना अपराध क्षमा करा लूँगी,और तब उनके आशीर्वादों के साथ हम दाम्पत्य-क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। रानीजी की कृपा और अकृपा, दोनों ही सीमागत रहती हैं। एक सीमा का अनुभव हम कर चुके। ईश्वर ने चाहा, तो दूसरी सीमा का भी जल्द अनुभव होगा। मैं तुमसे सविनय अनुरोध करती हूँ कि अब इस प्रसंग को फिर मत उठाना, अन्यथा मुझे कोई दूसरा रक्षा-स्थान खोजना पड़ेगा।
विनय ने धीरे से कहा-वह दिन कब आएगा, जब या तो अम्माँजी न होंगी या मैं न रहूँगा।
तब उन्होंने कम्बल ओढ़ा, हाथ में लकड़ी ली और बाहर चले गए, जैसे कोई किसान महाजन की फटकार सुनकर उसके घर से बाहर निकले।
फिर पूर्ववत् दिन कटने लगे, विनय बहुत मलिन और खिन्न रहते। यथासम्भव घर से बाहर ही विचरा करते, आते भी तो भोजन करके चले जाते। कहीं जाना न होता, तो नदी के तट पर जा बैठते और घंटों जल-क्रीड़ा देखा करते। कभी कागज की नावें बनाकर उसमें तैराते और उनके पीछे-पीछे वहाँ तक जाते, जहाँ वे जल-मग्न हो जातीं। उन्हें अब भ्रम होने लगा था कि सोफिया को अब भी मुझ पर विश्वास नहीं है। वह मुझसे प्रेम करती है, लेकिन मेरे नैतिक बल पर उसे संदेह है।
एक दिन वह नदी के किनारे बैठे हुए थे कि बुढ़िया भीलनी पानी भरने आई। उन्हें वहाँ बैठे देखकर उसने घड़ा रख दिया और बोली-क्यों मालिक, तुम यहाँ अकेले क्यों बैठे हो? घर में मालकिन घबराती न होंगी? मैं उन्हें बहुत रोते देखा करती हूँ। क्या तुमने उन्हें कुछ कहा है? क्या बात है? कभी तुम दोनों को बैठकर हँसते-बोलते नहीं देखती?
विनय ने कहा-क्या करूँ माता, उन्हें यही तो बीमारी है कि मुझसे रूठी रहती हैं। बरसों से उन्हें यही बीमारी हो गई है।
भीलनी-तो बेटा, इसका उपाय मैं कर दूँगी। ऐसी जड़ी दे दूँ कि तुम्हारे बिना उन्हें छिन-भर भी चैन न आए।
विनय-क्या ऐसी जड़ी भी होती है?
बुढ़िया ने सरल विज्ञता से कहा-बेटा, जड़ियाँ तो ऐसी-ऐसी होती हैं कि चाहे आग बाँध लो, पानी बाँध लो, मुरदे को जिला दो, मुद्दई को घर बैठे मार डालो। हाँ, जानना चाहिए। तुम्हारा भील बड़ा गुनी था। राजा के दरबार में आया-जाएा करता था। उसी ने मुझे दो-चार बूटियाँ बता दी थीं। बेटा, एक-एक बूटी एक-एक लाख को सस्ती है।
विनय-तो मेरे पास इतने रुपये कहाँ है?
भीलनी-नहीं बेटा, तुमसे मैं क्या लूँगी। तुम बिसुनाथपुरी के निवासी हो। तुम्हारे दरसन पा गई, यही मेरे लिए बहुत है। वहाँ जाकर मेरे लिए थोड़ा-सा गंगाजल भेज देना। बुढ़िया तर जाएगी। तुमने मुझसे पहले न कहा, नहीं तो मैंने वह जड़ी तुम्हें दे दी होती। तुम्हारी अनबन देखकर मुझे बड़ा दुख होता है।
संधया समय, जब सोफिया बैठी भोजन बना रही थी, भीलनी ने एक जड़ी लाकर विनयसिंह को दी और बोली-बेटा, बड़े जतन से रखना,लाख रुपये दोगे, तब भी न मिलेगी। अब तो यह विद्या ही उठ गई। इसको अपने लहू में पंद्रह दिन तक रोज भिगोकर सुखाओ। तब इसमें से एक-एक पत्ती काटकर मालकिन को धूनी दो। पंद्रह दिन के बाद जो बच रहे, वह उनके जूड़े में बाँध दो। देखो, क्या होता है। भगवान् चाहेंगे, तो तुम आप उनसे ऊबने लगोगे। वह परछाईं की भाँति तुम्हारे पीछे लगी रहेंगी। फिर उनसे विनय के कान में एक मंत्र बताया, जो कई निरर्थक शब्दों का संग्रह था, और कहा कि जड़ी को लहू में डुबाते समय यह मंत्र पाँच बार पढ़कर जड़ी पर फूँक देना।
विनयसिंह मिथ्यावादी न थे; मंत्र-तंत्र पर उनका अणु-मात्र भी विश्वास न था। लेकिन सुनी-सुनाई बातों से उन्हें यह मालूम था कि निम्न जातियों में ऐसे तांत्रिक क्रियाओं का बड़ा प्रचार है, और कभी-कभी इनका विस्मयजनक फल भी होता है। उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहीं, अगर कुछ फल होता है, तो वह मूर्खों के दुर्बल मस्तिष्क के कारण। शिक्षित पर, जो प्राय: शंकावादी होते हैं,जो ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करते, भला इनका क्या असर हो सकता है? तो भी उन्होंने यह सिध्दि प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्हें उससे किसी फल की आशा न थी, केवल उसकी परीक्षा लेना चाहते थे।
लेकिन कहीं सचमुच इस जड़ी में कुछ चमत्कार हो, तो फिर क्या पूछना। इस कल्पना ही से उनका हृदय पुलकित हो उठा। सोफिया मेरी हो जाएगी। तब उसके प्रेम में और ही बात होगी?
ज्यों ही मंगल का दिन आया, वह नदी पर गए, स्नान किया और चाकू से अपनी एक उँगली काटकर उसके रक्त में जड़ी को भिगोया,और तब उसे एक ऊँची चट्टान पर पत्थरों से ढंककर रख आए। पंद्रह दिन तक लगातार यही क्रिया करते रहे। ठंड ऐसी पड़ती थी कि हाथ-पाँव गले जाते थे, बरतनों में पानी जम जाता था। लेकिन विनय नित्य स्नान करने जाते। सोफिया ने उन्हें इतना कर्मनिष्ठ न देखा था। कहती-इतनी सबेरे न नहाओ, कहीं सरदी न लग जाए, जंगली आदमी भी दिन-भर अंगीठी जलाए बैठे रहते हैं, बाहर मुँह नहीं निकाला जाता,जरा धूप निकल आने दिया करो। लेकिन विनय मुस्कराकर कह देते, बीमार पड़ईँगा, तो कम-से-कम तुम मेरे पास बैठोगी तो। उनकी कई उँगलियों में घाव हो गए, पर वह इन घावों को छिपाए रहते थे।
इन दिनों विनय की दृष्टि सोफिया की एक-एक बात, एक-एक गति पर लगी रहती थी। वह देखना चाहते थे कि मेरी क्रिया का कुछ असर हो रहा है या नहीं, किंतु, कोई प्रत्यक्ष फल न दिखाई देता था। पंद्रहवें दिन जाकर उन्हें सोफिया के व्यवहार में कुछ थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ा। शायद किसी और समय उनका इस ओर धयान भी न जाता, किंतु आजकल तो उनकी दृष्टि बहुत सूक्ष्म हो गई थी। जब घर से बाहर जाने लगे, तो सोफिया अज्ञात भाव से निकल आई और कई फर्लांग तक उनसे बातें करती हुई चली गई। जब विनय ने बहुत आग्रह किया,तब लौटी। विनय ने समझा, यह उसी क्रिया का असर है।
आज से धूनी देने की क्रिया आरम्भ होती थी। विनय बहुत चिंतित थे-वह क्रिया क्योंकर पूरी होगी! अकेले सोफी के कमरे में जाना सभ्यता, सज्जनता और शिष्टता के विरुध्द है। कहीं सोफी जाग जाए और मुझे देख ले, तो मुझे कितना नीच समझेगी! कदाचित् सदैव के लिए मुझसे घृणा करने लगे। न भी जागे; तो भी यह कौन-सी भलमंसी है कि कोई आदमी किसी युवती के कमरे में प्रवेश करे। न जाने किस दशा में लेटी होगी। सम्भव है, केश खुले हों, वस्त्र हट गया हो। उस समय मेरी मनोवृत्तियाँ कितनी कुचेष्ट हो जाएँगी। मेरा कितना नैतिक पतन हो गया है!
सारे दिन वह इन्हीं अशांतिमय विचारों में पड़े रहे, लेकिन संधया होते ही वह कुम्हार के घर से एक कच्चा प्याला लाए और उसे हिफाजत से रख दिया। मानव-चरित्र की एक विचित्रता यह है कि हम बहुधा ऐसे काम कर डालते हैं, जिन्हें करने की इच्छा हमें नहीं होती। कोई गुप्त प्रेरणा हमें इच्छा के विरुध्द ले जाती है।
आधी रात हुई, तो विनय प्याली में आग और हाथ में वह रक्त-सिंचित जड़ी लिए हुए सोफी की कोठरी के द्वार पर आए। कम्बल का परदा पड़ा हुआ था। झोंपड़े में किवाड़ कहाँ! कम्बल के पास खड़े होकर कान लगाकर सुना। सोफी मीठी नींद सो रही थी। वह थर-थर काँपते,पसीने से तर, अंदर घुसे। दीपक के मंद प्रकाश में सोफी निद्रा में मग्न लेटी हुई ऐसी मालूम होती थी, मानो मस्तिष्क में मधुर कल्पना विश्राम कर रही हो। विनय के हृदय पर आतंक-सा छा गया। कई मिनट तक मंत्र-मुग्ध-से खड़े रहे, पर अपने को सँभाले हुए, मानो किसी देवी के मंदिर में हैं। उन्नत हृदयों में सौंदर्य उपासना-भाव को जागृत कर देता है, वासनाएँ विश्रांत हो जाती हैं। विनय कुछ देर तक सोफी को भक्ति-भाव से देखते रहे। तब वह धीरे-से बैठ गए, प्याली में जड़ी का एक टुकड़ा तोड़कर रख दिया और उसे सोफिया के सिरहाने की ओर खिसका दिया। एक क्षण में जड़ी की सुगंध से सारा कमरा बस उठा। ऊद और अम्बर में वह सुगंध कहाँ? धुएँ में कुछ ऐसी उद्दीप्न-शक्ति थी कि विनय का चित्ता चंचल हो उठा। ज्यों ही धुआँ बंद हुआ, विनय ने प्याली से जड़ी की राख निकाल ली। भीलनी के आदेशानुसार उसे सोफिया पर छिड़क दिया और बाहर निकल आए। लेकन अपनी कोठरी में आकर वह घंटों बैठे पश्चात्ताप करते रहे। बार-बार अपने नैतिक भावों को चोट पहुँचाने की चेष्टा की। इस कृत्य को विश्वासघात, सतीत्व-हत्या कहकर मन में घृणा का संचार करना चाहा। सोते वक्त निश्चय किया कि बस, इस क्रिया का आज से अंत है। दूसरे दिन दिन-भर उनका हृदय खिन्न, मलिन, उद्विग्न रहा। ज्यों-ज्यों रात निकट आती थी,उन्हें शंका होती जाती थी कि कहीं मैं फिर यह क्रिया न करने लगूँ। दो-तीन भीलों को बुला लाए और उन्हें अपने पास सुलाया। भोजन करने में बड़ी देर की, जिससे चारपाई पर पड़ते-ही-पड़ते नींद आ जाए। जब भोजन करके उठे, तो सोफी आकर उनके पास बैठ गई। यह पहला ही अवसर था कि वह रात को उनके पास बैठी बातें करती रही। आज के समाचार-पत्रों में प्रभु सेवक की पूना में दी हुई वक्तृता प्रकाशित हुई थी। सोफी ने इसे उच्च स्वर में पढ़ा। गर्व से उनका सिर ऊँचा हो गया, बोली-देखो, कितना विलासप्रिय आदमी था, जिसे सदैव अच्छे वस्त्रों और अन्य सुख-सामग्रियों की धुन सवार रहती थी। उसकी कितनी कायापलट हुई है। मैं समझती थी, इससे कभी कुछ न होगा, आत्मसेवन में ही इसका जीवन व्यतीत होगा। मानव-हृदय के रहस्य कितने दुर्बोध होते हैं। उसका यह त्याग और अनुराग देखकर आश्चर्य होता है!
विनय-जब प्रभु सेवक इस संस्था के कर्णधार हो गए, तो मुझे कोई चिंता नहीं। डॉक्टर गांगुली उसे दवा बाँटनेवालों की मंडली बनाकर छोड़ते। पिताजी पर मेरा विश्वास नहीं, और इंद्रदत्ता तो बिलकुल उजव् है। प्रभु सेवक से ज्यादा योग्य पुरुष न मिल सकता था। वह यहाँ होते,तो बलाएँ लेता। यह दैवी सहायता है, और अब मुझे आशा होती है कि हमारी साधना निष्फल न होगी।
भीलों के खर्राटों की आवाजें आने लगीं। सोफी चलने को उठी, तो उसने विनय को ऐसी चितवनों से देखा, जिसमें प्रेम के सिवा और भी कुछ था-आर्द्र्र आकांक्षा झलक रही थी। एक आर्कषण था, जिसने विनय को सिर से पैर तक हिला दिया। जब वह चली गई, तो उन्होंने एक पुस्तक उठा ली और पढ़ने लगे। लेकिन ज्यों-ज्यों क्रिया का समय आता था, उनका दिल बैठा जाता था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई जबरदस्ती उन्हें ठेल रहा है। जब उन्हें यकीन हो गया कि सोफिया सो गई होगी, तो वह धीरे से उठे, प्याली में आग ली और चले। आज वह कल से भी ज्यादा भयभीत हो रहे थे। एक बार जी में आया कि प्याली को पटक दूँ। लेकिन इसके एक ही क्षण बाद उन्होंने सोफी के कमरे में कदम रखा। आज उन्होंने आँखें ऊपर उठाई ही नहीं सिर नीचा किए धूनी सुलगाई और राख छिड़ककर चले आए। चलती बार उन्होंने सोफिया का मुखचंद्र देखा। ऐसा भासित हुआ कि वह मुस्करा रही है। कलेजा धक से हो गया। सारे शरीर में सनसनी दौड़ गई। ईश्वर! अब लाज तुम्हारे हाथ में है, इसने देख न लिया हो! विद्युतगति से अपनी कोठरी में आए, दीपक बुझा दिया और चारपाई पर गिर पड़े। घंटों कलेजा धड़कता रहा।
इस भाँति पाँच दिनों तक विनय ने बड़ी कठिनाइयों से यह साधना की, और इतने ही दिनों में उन्हें सोफिया पर इसका असर साफ नजर आने लगा। यहाँ तक कि पाँचवें दिन वह दोपहर तक उसके साथ भीलों की झोंपड़ियों की सैर करती रही। उसके नेत्रों में गम्भीर चिंता की जगह अब एक लालसापूर्ण चंचलता झलकती थी और अधरों पर मधुर हास्य की आभा। आज रात को भोजन के उपरांत वह उनके पास बैठकर समाचार-पत्र पढ़ने लगी और पढ़ते-पढ़ते उसने अपना सिर विनय की गोद में रख दिया, और उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर बोली-सच बताओ विनय, एक बात तुमसे पूछँ, बताओगे न? सच बताना, तुम यह तो नहीं चाहते कि यह बला सिर से टल जाए? मैं कहे देती हूँ, जीते जी न टलूँगी, न तुम्हें छोड़ँईगी, तुम भी मुझसे भागकर नहीं जा सकते। किसी तरह न जाने दूँगी। जहाँ जाओगे, मैं भी चलूँगी,तुम्हारे गले का हार बनी रहूँगी।
यह कहते-कहते उसने विनय के हाथ छोड़ दिए और उनके गले में बाँहें डाल दीं।
विनय को ऐसा मालूम हुआ कि मेरे पैर उखड़ गए हैं और मैं लहरों में बहा जा रहा हूँ। एक विचित्र आशंका से उनका हृदय काँप उठा,मानो उन्होंने खेल में सिंहनी को जगा दिया हो। उन्होंने अज्ञात भाव से सोफी के कर-पाश से अपने को मुक्त कर लिया और बोले-सोफी!
सोफी चौंक पड़ी, मानो निद्रा में हो। फिर उठकर बैठ गई और बोली-मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि पूर्व-जन्म में, उससे पहले भी आदि से तुम्हारी हूँ, कुछ स्वप्न-सा याद आता है कि हम और तुम नदी के किनारे एक झोंपड़े में रहते थे। सच!
विनय ने सशंक होकर कहा-तुम्हारा जी कैसा है?
सोफी-मुझे कुछ हुआ थोड़े ही है, मैं तो अपने पूर्वजन्म की बात याद कर रही हूँ। मुझे ऐसा याद आता है कि तुम मुझे झोंपड़ी में अकेली छोड़कर अपनी नाव पर कहीं परदेश चले गए और मैं नित्य नदी के तीर बैठी हुई तुम्हारी राह देखती थी, पर तुम न आते थे।
विनय-सोफिया मुझे भय हो रहा है कि तुम्हारा जी अच्छा नहीं है। रात बहुत हो गई है, अब सो जाओ।
सोफी-मेरा तो आज यहाँ से जाने का जी नहीं चाहता। क्या तुम्हें नींद आ रही है? तो सोओ, मैं बैठी हूँ। जब तुम सो जाओगे, मैं चली जाऊँगी।
एक क्षण बाद फिर बोली-मुझे न जाने क्यों संशय हो रहा है कि तुम मुझे छोड़ जाओगे।
विनय-सोफी, अब हम अनंत काल तक अलग न होंगे।
सोफी-तुम इतने निर्दय नहीं हो, मैं जानती हूँ। मैं रानीजी से न डरूँगी, साफ-साफ कह दूँगी, विनय मेरे हैं।
विनय की दशा उस भूखे आदमी की-सी थी, जिसके सामने परसी थाली रखी हुई हो, क्षुधा से चित्ता व्याकुल हो रहा हो, आँतें सिकुड़ी जाती हों, आँखों में अंधोरा छा रहा हो; मगर थाली में हाथ न डाल सकता हो, इसलिए कि पहले किसी देवता का भोग लगना है। उन्हें अब इसमें कोई संदेह न रहा था कि सोफी की व्याकुलता उसी क्रिया का फल है। उन्हें विस्मय होता था कि उस जड़ी में कौन-सी शक्ति है। वह अपने कृत्य पर लज्जित थे, और सबसे अधिक भयभीत थे, आत्मा से नहीं, परमात्मा से नहीं, सोफी से। जब सोफी को ज्ञात हो जाएगा-कभी-कभी तो यह नशा उतरेगा ही-तब वह मुझसे इसका कारण पूछेगी और मैं छिपा न सकूँगा। उस समय वह मुझे क्या कहेगी!
आखिर जब अंगीठी की आग ठंडी हो गई और सोफी को सरदी मालूम होने लगी, तो सोफी चली गई। क्रिया का समय भी आ पहुँचा। लेकिन आज विनय को साहस न हुआ। उन्हें उसकी परीक्षा ही करनी थी, परीक्षा हो गई और तांत्रिाक साधनों पर उन्हें हमेशा के लिए श्रध्दा हो गई।
सोफिया को चारपाई पर लेटते ही भ्रम हुआ कि रानी जाह्नवी सामने खड़ी ताक रही हैं। उसने कम्बल से सिर निकालकर देखा और तब अपनी मानसिक दुर्बलता पर झुँझलाकर सोचने लगी-आजकल मुझे क्या हो गया है? मुझे क्यों भाँति-भाँति के संशय होते रहते हैं? क्यों नित्य अनिष्ट-शंका हृदय पर छाई रहती है? जैसे मैं विचारहीन-सी हो गई हूँ। विनय आजकल क्यों मुझसे खिंचे हुए हैं? कदाचित् वह डर रहे हैं कि रानीजी कहीं उन्हें शाप न दे दें अथवा आत्मघात न कर लें। इनकी बातों में पहले की उत्सुकता, प्रेमातुरता नहीं है। रानी मेरे जीवन का सर्वनाश किए देती हैं।
इन्हीं अशांतिमय विचारों में डूबी हुई वह सो गई, तो देखती क्या है कि वास्तव में रानीजी मेरे सामने खड़ी क्रोधोन्मत्ता नेत्रों से ताक रही हैं और कह रही हैं-विनय मेरा है। वह मेरा पुत्र है, उसे मैंने जन्म दिया है, उसे मैंने पाला है, तू क्यों उसे मेरे हाथों से छीने लेती है?अगर तूने मुझसे उसे छीना, मेरे कुल को कलंकित किया, तो मैं तुम दोनों का इस तलवार से बध कर दूँगी!
सोफी तलवार की चमक देखकर घबरा गई। चिल्ला उठी। नींद टूट गई। उसकी सारी देह तृणवत् काँप रही थी। वह दिल मजबूत करके उठी और विनयसिंह की कोठरी में जाकर उसके सीने से चिपट गई। विनय की आँखें लग रही थीं चौंककर सिर उठाया।
सोफी-विनय, विनय जागो, मैं डर रही हूँ।
विनय तुरंत चारपाई से उतरकर खड़े हो गए और पूछा-क्या है सोफी?
सोफी-रानीजी को अभी-अभी मैंने अपने कमरे में देखा। अभी वहीं खड़ी हैं।
विनय-सोफी, शांत हो जाओ। तुमने कोई स्वप्न देखा है। डरने की कोई बात नहीं।
सोफी-स्वप्न नहीं था विनय, मैंने रानीजी को प्रत्यक्ष देखा।
विनय-वह यहाँ कैसे आ जाएँगी? हवा तो नहीं हैं!
सोफी-तुम इन बातों को नहीं जानते विनय! प्रत्येक प्राणी के दो शरीर होते हैं-एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म। दोनों अनुरूप होते हैं, अंतर केवल इतना ही है कि सूक्ष्म शरीर स्थूल में कहीं सूक्ष्म होता है। वह साधारण दशाओं में अदृश्य है, लेकिन समाधि या निद्रावस्था में स्थूल शरीर का स्थानापन्न बन जाता है। रानीजी का सूक्ष्म शरीर अवश्य यहाँ है।
दोनों ने बैठकर रात काटी।
सोफिया को अब विनय के बिना क्षण-भर भी चैन नहीं आता। उसे केवल मानसिक अशांति न थी, ऐंद्रिक सुख-भोग के लिए भी उत्कंठित रहती। जिन विषयों की कल्पनामात्र से उसे अरुचि थी, जिन बातों को याद करके ही उसके मुख पर लालिमा छा जाती, वे कल्पनाएँ और वे ही भावनाएँ अब नित्य उसके चित्ता पर आच्छादित रहतीं। उसे अपनी वासना-लिप्सा पर आश्चर्य होता था। किंतु जब वह विलास-कल्पना करते-करते उस क्षेत्र में प्रविष्ट होती, जो दाम्पत्य जीवन ही के लिए नियंत्रिात हैं, तो रानीजी की वही क्रोध-तेज-पूर्ण मूर्ति उसके सम्मुख खड़ी हो जाती और वह चौंककर कमरे से निकल भागती। इस भाँति उसने दस-बारह दिन काटे। कृपाण के नीचे खड़े अभियोगी की दशा भी इतनी चिंताजनक न होगी!
एक दिन वह घबराई हुए विनय के पास आई, बोली-विनय, मैं बनारस जाऊँगी। मैं बड़े संकट में हूँ। रानीजी मुझे यहाँ चैन न लेने देंगी। अगर यहाँ रही, तो शायद जीवन के हाथ धोना पड़े, मुझ पर अवश्य कोई-न-कोई अनुष्ठान किया गया है। मैं इतनी अव्यवस्थित-चित्ता कभी न थी। मुझे स्वयं ऐसा मालूम होता है अब मैं वह हूँ ही नहीं, कोई और ही हूँ। मैं जाकर रानीजी के पैरों पर गिरूँगी। उनसे अपना अपराध क्षमा कराऊँगी और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें प्राप्त करूँगी। उनकी इच्छा के बगैर मैं तुम्हें नहीं पा सकती। और जबरदस्ती ले लूँ, तो कुशल से न बीतेगी। विनय, मुझे स्वप्न में भी यह आशंका न थी कि मैं तुम्हारे लिए इतनी अधीर हो जाऊँगी। मेरा हृदय कभी इतना दुर्बल और इतना मोहग्रस्त न था।
विनय ने चिंतित होकर कहा-सोफी, मुझे आशा है कि थोड़े दिनों में तुम्हारा चित्ता शांत हो जाएगा।
सोफी-नहीं विनय, कदापि नहीं। रानीजी ने तुम्हें एक महान् उद्देश्य के लिए बलि कर रखा है। बलि-जीवन का उपभोग अनिष्टकारक होता है। मैं उनसे भिक्षा मागँगी।
विनय-तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।
सोफी-नहीं, नहीं, ईश्वर के लिए ऐसा मत कहो। मैं तुम्हें रानीजी के सामने न ले जाऊँगी। मुझे अकेले जाने दो।
विनय-इस दशा में मैं तुम्हें अकेले कभी न जाने दूँगा। अगर ऐसा ही है, तो मैं तुम्हें वहाँ छोड़कर वापस आ जाऊँगा।
सोफी-वचन दो कि बिना मुझसे पूछे रानीजी के पास न जाओगे।
विनय-हाँ, सोफी, यह स्वीकार है। वचन देता हँ।
सोफी-फिर भी दिल नहीं मानता। डर लगता है, वहाँ तुम आवेश में आकर कहीं रानीजी के पास न चले जाओ। तुम यहीं क्यों नहीं रहते?मैं तुम्हें नित्यप्रति पत्र लिखा करूँगी और जल्द-से-जल्द लौट आऊँगी।
विनय ने उसे तस्कीन देने के लिए अकेले जाने की अनुमति दे दी, लेकिन उनका स्नेह-सिंचित हृदय यह कब मान सकता था कि सोफिया इस अव्यवस्थित दशा में इतनी लम्बी यात्रा करे। सोचा, उसकी निगाह बचाकर किसी दूसरे डब्बे में बैठ जाऊँगा। उन्हें लौटकर आने की बहुत कम आशा थी। भीलों ने सुना, तो भाँति-भाँति के उपहार लेकर बिदा करने आए। मृग-चर्मों, बघनखों और नाना प्रकार की जड़ी-बूटियों का ढेर लग गया था। एक भील ने धनुष भेंट किया। सोफी और विनय, दोनों ही को इस स्थान से प्रेम हो गया था। निवासियों का सरल,स्वाभाविक, निष्कपट जीवन उन्हें ऐसा भा गया था कि उन लोगों को छोड़कर जाते हुए हार्दिक वेदना होती थी। भीलगण रो रहे थे और कह रहे थे, जल्द आना, हमें भूल न जाना। बुढ़िया भीलनी तो उन्हें छोड़ती ही न थी। सब-के-सब स्टेशन तक उन्हें पहुँचाने आए। लेकिन जब गाड़ी आई और वह बैठी, विनय से बिदा होने का समय आया, तो वह विनय के गले लिपटकर रोने लगी। विनय चाहते थे कि निकल जाएँ और किसी दूसरे डब्बे में जा बैठें, पर वह उन्हें छोड़ती ही न थी। मानो यह अंतिम वियोग है। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो वह हृदय-वेदना से विकल होकर बोली-विनय, मुझसे इतने दिनों कैसे रहा जाएगा? रो-रोकर मर जाऊँगी। ईश्वर, मैं क्या करूँ?
विनय-सोफी, घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।
सोफी-नहीं, नहीं, ईश्वर के लिए नहीं। मैं अकेली ही जाऊँगी।
विनय गाड़ी में आकर बैठ गए। गाड़ी रवाना हो गई। जरा देर बाद सोफिया ने कहा-तुम न आते, तो मैं शायद घर तक न पहुँचती। मुझे ऐसा ज्ञात हो रहा था कि प्राण निकले जा रहे हैं। सच बताना विनय, तुमने मुझ पर मोहिनी तो नहीं डाल दी है? मैं इतनी अधीर क्यों हो गई हूँ?
विनय ने लज्जित होकर कहा-क्या जाने सोफी, मैंने एक क्रिया तो की है। नहीं कह सकता कि वह मोहनी थी या कुछ और!
सोफी-सच?
विनय-हाँ, बिलकुल सच। मैं तुम्हारी प्रेम-शिथिलता से डर गया था कि कहीं तुम मुझे फिर से न परीक्षा में डालो।
सोफी ने विनय की गर्दन में हाथ डाल दिए और बोली-तुम बड़े छलिया हो। अपना जादू उतार लो, मुझे क्यों तड़पा रहे हो?
विनय-क्या कहूँ, उतारना नहीं सीखा, यही तो भूल हुई।
सोफी-तो मुझे भी वही मंत्र क्यों नहीं सीखा देते? न मैं उतार सकूँगी, न तुम उतार सकोगे। (एक क्षण बाद) लेकिन नहीं, मैं तुम्हें संज्ञाहीन न बनाऊँगी। दो में से एक को तो होश में रहना चाहिए। दोनों मदमत्ता हो जाएँगे, तो अनर्थ हो जाएगा, अच्छा, बताओ कौन-सी क्रिया की थी?
विनय ने अपनी जेब से वह जड़ी निकालकर दिखाते हुए कहा-इसी की धूनी देता था।
सोफी-जब मैं सो जाती थी, तब?
विनय-(सकुचाते हुए) हाँ, सोफी, तभी।
सोफी-तुम बड़े ढीठ हो। अच्छा, अब यही जड़ी मुझे दे दो। तुम्हारा प्रेम शिथिल होते देखूँगी, तो मैं भी यही क्रिया करूँगी।
यह कहकर उसने जड़ी लेकर रख ली। थोड़ी देर बाद उसने पूछा-यह तो बताओ, वहाँ तुम रहोगे कहाँ? मैं रानीजी के पास तुम्हें न जाने दूँगी।
विनय-अब मेरा कोई मित्र नहीं रहा। सभी मुझसे असंतुष्ट हो रहे होंगे। नायकराम के घर चला जाऊँगा। तुम वहीं आकर मुझसे मिल लिया करना। वह तो घर पहुँच ही गया होगा।
सोफिया-कहीं जाकर कह न दे!
विनय-नहीं, मंदबुध्दि है, पर विश्वासघाती नहीं है।
सोफिया-अच्छी बात है। देखें, रानीजी से मुराद मिलती है या मौत!
रंगभूमि अध्याय 39
तीसरे दिन यात्रा समाप्त हो गई, तो संधया हो चुकी थी। सोफिया और विनय दोनों डरते हुए गाड़ी से उतरे कि कहीं किसी परिचित आदमी से भेंट न हो जाए। सोफिया ने सेवा-भवन (विनयसिंह के घर) चलने का विचार किया; लेकिन आज वह बहुत कातर हो रही थी। रानीजी न जाने कैसे पेश आएँ। वह पछता रही थी कि नाहक यहाँ आई; न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। अब उसे अपने ग्रामीण जीवन की याद आने लगी। कितनी शांति थी, कितना सरल जीवन था, न कोई विघ्न था, न बाधा; न किसी से द्वेष था, न मत्सर। विनयसिंह उसे तस्कीन देते हुए बोले-दिल मजबूत रखना, जरा भी मत डरना, सच्ची घटनाएँ बयान करना, बिलकुल सच्ची, तनिक भी अतिशयोक्ति न हो, जरा भी खुशामद न हो। दया-प्रार्थना का एक शब्द भी मुख से मत निकालना। मैं बातों को घटा-बढ़ाकर अपनी प्राण-रक्षा नहीं करना चाहता। न्याय और शुध्द न्याय चाहता हूँं यदि वह तुमसे अशिष्टता का व्यवहार करें, कटु वचनों का प्रहार करने लगें, तो तुम क्षण-भर भी मत ठहरना। प्रात:काल आकर मुझसे एक-एक बात कहना। या कहो, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ?
सोफी उन्हें साथ लेकर चलने पर राजी न हुई। विनय तो पाँडेपुर की तरफ चले, वह सेवा-भवन की ओर चली। ताँगेवाले ने कहा-मिस साहब, आप कहीं चली गई थीं क्या? बहुत दिनों बाद दिखलाई दीं। सोफी का कलेजा धक-धक करने लगा। बोली-तुमने मुझे कब देखा? मैं तो इस शहर में पहली बार आई हूँ।
ताँगेवाले ने कहा-आप ही-जैसी एक मिस साहब यहाँ सेवक साहब की बेटी भी थीं। मैंने समझा, आप ही होंगी।
सोफिया-मैं ईसाई नहीं हूँ।
जब वह सेवा-भवन के सामने पहुँची, तो ताँगे से उतर पड़ी। वह रानीजी से मिलने के पहले अपने आने की कानोंकान भी खबर न होने देना चाहती थी। हाथ में अपना बैग लिए हुए डयोढ़ी पर गई और दरबान से बोली-जाकर रानीजी से कहो, मिस सोफिया आपसे मिलना चाहती हैं।
दरबान उसे पहचानता ही था। उठकर सलाम किया और बोला-हुजूर, भीतर चलें, इत्ताला क्या करनी है! बहुत दिनों बाद आपके दरसन हुए।
सोफिया-मैं बहुत अच्छी तरह खड़ी हूँ। तुम जाकर इत्तिाला तो दो।
दरबान-सरकार, उनका मिजाज आप जानती ही हैं। बिगड़ जाएँगी कि उन्हें साथ क्यों न लाया, इत्तिाला क्यों देने आया?
सोफिया-मेरी खातिर से दो-चार बातें सुन लेना।
दरबार अंदर गया, तो सोफिया का दिल इस तरह धड़क रहा था, जैसे कोई पत्ता हिल रहा हो। मुख पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था। धड़का लगा हुआ था-कहीं रानी साहब गुस्से में भरी वहीं से बिगड़ती हुई न आएँ, यह कहला दें, चली जा, नहीं मिलती! बिना एक बार उनसे मिले तो मैं न जाऊँगी, चाहे वह हजार बार दुतकारें।
एक मिनट भी न गुजरने पाया था कि रानीजी एक शाल ओढ़े हुए द्वार पर आ गईं और उससे टूटकर गले मिली, जैसे माता ससुराल से आनेवाली बेटी को गले लगा ले। उनकी आँखों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। अवरुध्द कंठ से बोली-तुम यहीं क्यों खड़ी हो गईं बेटी, अंदर क्यों न चली आईं? मैं तो नित्यप्रति तुम्हारी बाट जोहती रहती थी। तुमसे मिलने को जी तड़प-तड़पकर रह जाता था। मुझे आशा हो रही थी कि तुम आ रही हो, पर तुम आती न थीं। कई बार यों ही स्टेशन तक गई कि शायद तुम्हें देख पाऊँ। ईश्वर से नित्य मनाती थी कि एक बार तुमसे मिला दे। चलो, भीतर चलो। मैंने तुम्हें जो दुर्वचन कहे थे, उन्हें भूल जाओ! (दरबान से) यह बैग उठा ले। महरी से कह दे, मिस सोफिया का पुराना कमरा साफ कर दे। बेटी, तुम्हारे कमरे की ओर ताकने की हिम्मत नहीं पड़ती, दिल भर-भर आता है।
यह कहते हुए सोफिया का हाथ पकड़े अपने कमरे में आईं और उसे अपनी बगल में मसनद पर बैठाकर बोलीं-आज मेरी मनोकामना पूरी हो गई। तुमसे मिलने के लिए जी बहुत बेचैन था।
सोफिया का चिंता-पीड़ित हृदय इस निरपेक्षित स्नेह-बाहुल्य से विह्नल हो उठा। वह केवल इतना कह सकी-मुझे भी आपके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा थी। आपसे दया-भिक्षा माँगने आई हूँ।
रानी-बेटी, तुम देवी हो, मेरी बुध्दि पर परदा पड़ा था। मैंने तुम्हें पहचाना न था। मुझे मालूम है बेटी, सब सुन चुकी हूँ। तुम्हारी आत्मा इतनी पवित्र है, यह मुझे न मालूम था। आह! अगर पहले से जानती।
यह कहते-कहते रानीजी फूट-फूटकर रोने लगीं। जब चित्ता शांत हुआ, तो फिर बोलीं-अगर पहले से जान गई होती, तो आज इस घर को देखकर कलेजा ठंडा होता। आह! मैंने विनय के साथ घोर अन्याय किया। तुम्हें न मालूम होगा बेटी, जब तुमने...(सोचकर) वीरपालसिंह ही नाम था? हाँ, जब तुमने उसके घर पर रात के समय विनय का तिरस्कार किया, तो वह लज्जित होकर रियासत के अधिकारियों के पास कैदियो पर दया करने के लिए दौड़ता रहा। दिन-दिन भर निराहार और निर्जल पड़ा रहता, रात-रात भर पड़ा रोया करता, कभी दीवान के पास जाता, कभी एजेंट के पास, कभी पुलिस के प्रधान कर्मचारी के पास, कभी महाराजा के पास। सबसे अनुनय-विनय करके हार गया। किसी ने न सुनी। कैदियों की दशा पर किसी को दया न आई। बेचारा विनय हताश होकर अपने डेरे पर आया। न जाने किस सोच में बैठा था कि मेरा पत्र उसे मिला। हाय! (रोकर) सोफी, वह पत्र नहीं था; विष का प्याला था, जिसे मैंने अपने हाथों उसे पिलाया; कटार थी, जिसे मैंने अपने हाथों उसकी गर्दन पर फेरा। मैंने लिखा था, तुम इस योग्य नहीं हो कि मैं तुम्हें अपना पुत्र समझ्रू, तुम मुझे अपनी सूरत न दिखाना। और भी न जाने कितनी कठोर बातें लिखी थीं। याद करती हूँ, तो छाती फटने लगती है। यह पत्र पाते ही वह बिना किसी से कुछ कहे-सुने नायकराम के साथ यहाँ आने के लिए तैयार हो गया। कई स्टेशनों तक नायकराम उसके साथ आए। पंडाजी को फिर नींद आ गई। और जब आँख खुली, तो विनय का कहीं गाड़ी में पता न था। उन्होंने सारी गाड़ी तलाश की। फिर उदयपुर तक गए। रास्ते में एक-एक स्टेशन पर उतरकर पूछ-ताछ की, पर कुछ पता न चला। बेटी, यह इस अभागिनी की राम-कथा है। मैं हत्यारिन हूँ! मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में और कौन होगी? न जाने विनय का क्या हाल हुआ; कुछ पता नहीं। उसमें बड़ा आत्माभिमान था बेटी, बात का बड़ा धनी था। मेरी बातें उसके दिल पर चोट कर गई। मेरे प्यारे लाल ने कभी सुख न पाया। उसका सारा जीवन तपस्या ही में कटा।
यह कहकर रानी फिर रोने लगीं। सोफी भी रो रही थी। पर दोनों के मनोभावों में कितना अंतर था! रानी के आँसू दु:ख; शोक और विषाद के थे, सोफी के आँसू हर्ष और उल्लास के।
एक कक्ष में रानीजी ने पूछा-क्यों बेटी, तुमने उसे जेल जाते देखा था, तो बहुत दुबला हो गया था?
सोफी-जी हाँ, पहचाने न जाते थे।
रानी-उसने समझा विद्रोहियों ने तुम्हारे साथ न जाने क्या व्यवहार किया हो। बस, इस बात पर उसे जिद पड़ गई। आराम से बैठो बेटी,अब यही तुम्हारा घर है। अब मेरे लिए तुम्हीं विनय की प्रतिच्छाया हो। अब यह बताओ, तुमने इतने दिनों कहाँ थीं? इंद्रदत्ता तो कहता था कि तुम विनय का तिरस्कार करके तीन ही चार दिन बाद वहाँ से चली आई थीं। इतने दिनों कहाँ रहीं? साल-भर से ऊपर तो हो गया होगा।
सोफिया का हृदय आनंद से गद्गद् हो रहा था। जी में तो आया कि इसी वक्त सारा वृत्तांत कह सुनाऊँ, माता को शोकाग्नि शांत कर दूँ। पर भय हुआ कि कहीं इनका धर्माभिमान फिर न जागृत हो जाए। विनय की ओर से तो अब वह निश्ंचित हो गई थी। केवल अपने ही विषय में शंका थी। देवता को न पाकर हम पाषाण-प्रतिष्ठा करते हैं। देवता मिल गया, तो पत्थर को कौन पूजे? बोली-क्या बताऊँ, कहाँ थी? इधर-उधर भटकती फिरती थी। और शरण ही कहाँ थी! अपनी भूल पर पछताती और रोती थी। निराश होकर यहाँ चली आई।
रानी-तुम व्यर्थ इतने दिनों कष्ट उठाती रहीं। क्या यह घर तुम्हारा न था? बुरा न मानना बेटी, तुमने विनय के साथ बड़ा अन्याय किया-उतना ही, जितना मैंने। तुम्हारी बात उसे और भी ज्यादा लगी; क्योंकि उसने जो कुछ किया था, तुम्हारे ही हित के लिए किया था। मैं अपने प्रियतम के साथ इतनी निर्दयता कभी न कर सकती। अब तुम स्वयं अपनी भूल पर पछता रही होगी। हम दोनों ही अभिमानी हैं। आह! बेचारे विनय को कहीं सुख न मिला। तुम्हारा हृदय अत्यंत कठोर है। सोचो, अगर तुम्हें खबर मिलती कि विनय को डाकुओं ने पकड़कर मार डाला है, तो तुम्हारी क्या दशा हो जाती? शायद तुम भी इतनी ही दया-शून्य हो जाती। यह मानवीय स्वभाव है। मगर अब पछताने से क्या होता है। मैं आप ही नित्य पछताया करती हूँ। अब तो वह काम सँभालना है, जो उसे अपने जीवन में सबसे प्यारा था। तुमने उसके लिए बड़े कष्ट उठाए; अपमान, लज्जा, दंड सब कुछ झेला। अब उसका काम सँभालो। इसी को अपने जीवन का उद्देश्य समझो। तुम्हें क्या खबर होगी, कुछ दिनों तक प्रभु सेवक इस संस्था के व्यवस्थापक हो गए थे। काम करनेवाला हो, तो ऐसा हो। थोड़े ही दिनों में उसने सारा मुल्क छान डाला और पूरे पाँच सौ वालेंटियर जमा कर लिए, बड़े-बड़े शहरों में शाखाएँ खोल दीं, बहुत-सा रुपया जमा कर लिया। मुझे इससे बड़ा आनंद मिलता था कि विनय ने जिस संस्था पर अपना जीवन बलिदान कर दिया, वह फल-फूल रही है। मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था। प्रभु सेवक और कुँवर साहब में अनबन हो गई। प्रभु सेवक उसे ठीक उसी मार्ग पर ले जा रहा था, जिस पर विनय ले जाना चाहता था। कुँवर साहब और उनके परम मित्र डॉ. गांगुली उसे दूसरे ही रास्ते पर ले जाना चाहते थे। आखिर प्रभु सेवक ने पद-त्याग कर दिया। तभी से संस्था डावाँडोल हो रही है, जाने बचती है या जाती है। कुँवर साहब में एक विचित्र परिवर्तन हो गया है। वह अब अधिकारियों से सशंक रहने लगे हैं। अफवाह थी कि गवर्नमेंट इनकी कुल जाएदाद जब्त करनेवाली है। अधिकारी मंडल के इस संशय को शांत करने के लिए उन्होंने प्रभु सेवक के कार्यक्रम से अपना विरोध प्रकाशित करा दिया। यही अनबन का मुख्य कारण था। अभी दो महीने भी नहीं गुजरे, लेकिन शीराजा बिखर गया। सैकड़ों सेवक निराश होकर अपने काम-धंधो में लग गए। मुश्किल से दो सौ आदमी और होंगे। चलो बेटी, तुम्हारा कमरा साफ हो गया होगा, तुम्हारे भोजन का प्रबंध करके तब इतमीनान से बातें करूँ। (महाराजिन से) इन्हें पहचानती है न? तब यह मेरी मेहमान थीं, अब मेरी बहू हैं। जा, इनके लिए दो-चार नई चीजें बना ला। आह! आज विनय होता तो मैं अपने हाथों से इसे उसके गले लगा देती, ब्याह रचाती। शास्त्रों में इसकी व्यवस्था है।
सोफिया की प्रबल इच्छा हुई कि रहस्य खोल दूँ। बात ओठों तक आई और रुक गई।
सहसा शोर मचा-लाला साहब आ गए! लाला साहब आ गए! भैया विनयसिंह आ गए! नौकर-चाकर चारों ओर से दौड़े, लौडियाँ-महरियाँ काम छोड़-छोड़कर भागीं। एक क्षण में विनय ने कमरे में कदम रखा। रानी ने उसे सिर से पैर तक देखा, मानो निश्चय कर रही थीं कि मेरा ही विनय है या कोई और; अथवा देखना चाहती थीं कि उस पर कोई आघात के चिद्द तो नहीं हैं। तब उठीं और बोलीं-बहुत दिनों में आए बेटा! आओ, छाती से लगा लूँ। लेकिन विनय ने तुरंत उनके चरणों पर सिर रख दिया। रानीजी को अश्रु-प्रवाह में न कुछ सूझता था और न प्रेमावेश में कोई बात मुँह से निकलती थी, झुकी हुई विनय का सिर पकड़कर उठाने की चेष्टा कर रही थीं। भक्ति और वात्सल्य का कितना स्वर्गीय संयोग था।
लेकिन विनय को रानी की बातें न भूली थीं। माता को देखकर उसके दिल में जोश उठा कि इनके चरणों पर आत्मसमर्पण कर दूँ। एक विवशकारी उद्गार था प्राण दे देने के लिए, वहीं माता के चरणों पर जीवन का अंत कर देने के लिए, दिखा देने के लिए कि यद्यपि मैंने अपराध किए हैं, पर सर्वथा लज्जाहीन नहीं हूँ, जीना नहीं जानता, लेकिन मरना जानता हूँ। उसने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। सामने ही दीवार पर तलवार लटक रही थी। वह कौंधकर तलवार उतार लाया और उसे सर से खींचकर बोला-अम्माँ, इस योग्य तो नहीं हूँ कि आपका पुत्र कहलाऊँ; लेकिन आपकी अंतिम आज्ञा शिरोधार्य कर अपनी सारी अपकीर्ति का प्रायश्चित्ता कर दिए देता हूँ। मुझे आशीर्वाद दीजिए।
सोफिया चिल्लाकर विनय से लिपट गई। जाह्नवी ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-विनय, ईश्वर साक्षी है, मैं तुम्हें कब का क्षमा कर चुकी। तलवार छोड़ दो। सोफी, तू इनके हाथ से तलवार छीन ले, मेरी मदद कर।
विनयसिंह की मुखाकृति तेजोमय हो रही थी, आँखे बीरबहूटी बनी हुई थीं। उसे अनुभव हो रहा था कि गर्दन पर तलवार मार लेना कितना सरल है। सोफिया ने दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़ ली और अश्रुपूरित लोचनों से ताकती हुई बोली-विनय, मुझ पर दया करो!
उसकी दृष्टि इतनी करुण, इतनी दीन थी कि विनय का हृदय पसीज गया। मुट्ठी ढीली पड़ गई। सोफिया ने तलवार लेकर खूँटी पर लटका दी। इतने में कुँवर भरतसिंह आकर खड़े हो गए और विनय को हृदय से लगाते हुए बोले-तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते, मुँछें कितनी बढ़ गई हैं! इतने दुबले क्यों हो? बीमार थे क्या?
विनय-जी नहीं, बीमार तो नहीं था। ऐसा दुबला भी नहीं हूँ। अब माताजी के हाथों के पकवान खाकर मोटा हो जाऊँगा।
कुँवर-तुम दूर क्यों खड़ी हो सोफिया? आओ, तुम्हें प्यार कर लूँ। रोज ही तुम्हारी याद आती थी। विनय बड़ा भाग्यशाली था कि तुम-जैसी रमणी पाई। संसार में तो मिलती नहीं, स्वर्ग की मैं नहीं कहता। अच्छा संयोग है कि तुम दोनों एक ही दिन आए। बेटी, मैं तुमसे विनय की सिफारिश करता हूँ। तुमने इन्हें जो फटकार बताई थी, उसे सुनकर बेचारा नायकराम स्त्रिायों से इतना डर गया कि तय की कराई सगाई से इनकार कर गया। उम्र भर स्त्री के लिए तरसता रहा, पर अब नाम भी नहीं लेता। कहता है-यह बेवफा जात होती है। भैया विनयसिंह ने जिसके लिए बदनामी सही, जान पर खेले, वही उनसे आँखें फेर ले! कान पकड़े, अब तो मर जाऊँगा, पर ब्याह न करूँगा। अपना हाथ बढ़ाओ विनय! सोफी, यह हाथ लो, तो मुझे इतमीनान हो जाए कि तुम्हारे दिल साफ हो गए। जाह्नवी, चलो हम लोग बाहर चलें, इन्हें एक दूसरे को मनाने दो। इन्हें कितनी ही शिकायतें करनी होंगी, बातें करने के लिए विकल हो रहे होंगे। आज बड़ा शुभ दिन है।
जब एकांत हुआ, तो सोफी ने पूछा-तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए?
विनय ने सकुचाते हुए कहा-सोफी, मुझे वहाँ मुँह छिपाकर बैठते हुए शर्म आती थी। प्राण-भय से दबक जाना कायरों का काम है। माताजी की जो इच्छा हो, वही सही। नायकराम कहता रहा, पहले मिस साहब को आने दो; लेकिन मुझसे न रहा गया।
सोफिया-खैर, अच्छा ही हुआ, खूब आ गए। माताजी तुम्हारी चर्चा करके आठ-आठ आँसू रोती थी। उनका दिल तुम्हारी तरफ से साफ हो गया है।
विनय-तुम्हें तो कुछ नहीं कहा?
सोफिया-मुझसे तो ऐसा टूटकर गले मिलीं कि मैं चकित हो गई। यह उन्हीं कठोर वचनों का प्रभाव है, जो मैंने तुम्हें कहे थे। माता आप चाहे पुत्र को कितनी ही ताड़ना दे, यह गवारा नहीं करती कि कोई दूसरा उसे कड़ी निगाह से भी देखे। मेरे अन्याय ने उनकी न्याय-भावना को जागृत कर दिया।
विनय-हम लोग बड़े शुभ मुहूर्त में चले थे।
सोफिया-हाँ विनय, अभी तक तो कुशल से बीती। आगे की ईश्वर जाने।
विनय-हम अपना दु:ख का हिस्सा भोग चुके।
सोफिया ने आशंकित स्वर से कहा-ईश्वर करे, ऐसा ही हो।
किंतु सोफिया के अंतस्तल में अनिष्ट-शंका का प्रतिबिंब दिखाई दे रहा था। वह उसे प्रकट न कर सकती थी, पर उसका चित्ता उदास था। सम्भव है कि जन्मगत धार्मिक संस्कारों से विमुख हो जाने का खेद इसका कारण हो अथवा वह इसे वह अतिवृष्टि समझ रही हो, जो अनावृष्टि की सूचना देती है। कह नहीं सकते, पर जब सोफी रात को भोजन करके सोई, तो उसका चित्ता किसी बोझ से दबा हुआ था।
रंगभूमि अध्याय 40
मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थना की गई थी और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। इसलिए निर्माण-कार्य को उस तिथि तक समाप्त करने के लिए बड़े उत्साह से काम किया जा रहा था। उस दिन तक कोई काम बाकी न रहना चाहिए। मजा तो जब आए कि दावत में इसी मिल का बना हुआ सिगार भी रखा जाए। मिस्टर जॉन सेवक सुबह से शाम तक इन्हीं तैयारियों में दत्ताचित्ता रहते थे। यहाँ तक कि रात को दुगुनी मजदूरी देकर काम कराया जा रहा था। मिल के आस-पास पक्के मकान बन चुके थे। सड़क के दोनों किनारों पर और निकट के खेतों में मजदूरों ने झोंपड़ियाँ डाल ली थीं। एक मील तक सड़क के दोनों ओर झोंपड़ियों की श्रेणियों ही नजर आती थीं। यहाँ बड़ी चहल-पहल रहती थी। दूकानदारों ने भी अपने-अपने छप्पर डाल लिए थे। पान,मिठाई, अनाज, गुड़, घी, साग, भाजी और मादक वस्तुओं की दूकानें खुल गई थीं। मालूम होता था, कोई पैठ है।
मिल के परदेसी मजदूर, जिन्हें न बिरदारी का भय था, न सम्बंधियों का लिहाज, दिन-भर तो मिल के काम करते, रात को ताड़ी-शराब पीते। जुआ नित्य होता था। ऐसे स्थानों पर कुलटाएँ भी आ पहुँचती हैं। यहाँ भी एक छोटा-मोटा चकला आबाद हो गया था। पाँड़ेपुर का पुराना बाजार सर्द होता जाता था। मिठुआ, घीसू, विद्याधर तीनों अकसर इधर सैर करने आते और जुआ खेलते। घीसू तो दूध बेचने के बहाने आता,विद्याधर नौकरी खोजने के बहाने और मिठुआ केवल उन दोनों का साथ देने आया करता था। दस-ग्यारह बजे रात तक वहाँ बड़ी बहार रहती थी। कोई चाट खा रहा है, कोई तम्बोली की दूकान के सामने खड़ा है, कोई वेश्याओं से विनोद कर रहा है। अश्लील हास-परिहास, लज्जास्पद नेत्र-कटाक्ष और कुवासनापूर्ण हाव-भाव का अविरल प्रवाह होता रहता था। पाँड़ेपुर में ये दिलचस्पियाँ कहाँ? लड़कों की हिम्मत न पड़ती थी कि ताड़ी की दूकान के सामने खड़े हों, कहीं घर का कोई आदमी देख न ले। युवकों की मजाल न थी कि किसी स्त्री को छेड़े, कहीं मेरे घर जाकर कह न दे। सभी एक दूसरे से सम्बंध रखते थे। यहाँ वे रुकावटें कहाँ? प्रत्येक प्राणी स्वच्छंद था। उसे न किसी का भय था, न संकोच। कोई किसी पर हँसनेवाला न था। तीनों ही युवकों को मना किया जाता था, वहाँ न जाएा करो, जाओ भी तो अपना काम करके चले आया करो; किंतु जवानी दीवानी होती है, कौन किसी की सुनता है। सबसे बुरी दशा बजरंगी की थी। घीसू नित्य रुपये-आठ आने उड़ा लिया करता। पूछने पर बिगड़कर कहता, क्या मैं चोर हूँ?
एक दिन बजरंगी ने सूरदास से कहा-सूरे, लड़के बरबाद हुए जाते हैं। जब देखो, चकले ही में डटे रहते हैं। घिसुआ में चोरी की बान कभी न थी। अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दो, खोजकर निकाल लेता है।
जगधर सूरदास के पास बैठा हुआ था। ये बातें सुनकर बोला-मेरी भी वही दसा है भाई! विद्याधर को कितना पढ़ाया-लिखाया, मिडिल तक खींच-खाँचकर ले गया। आप भूखा रहता था, घर के लोग कपड़ों को तरसते थे, मगर उसके लिए किसी बात की कमी न थी। आशा थी, चार पैसे कमाएगा, मेरा बुढ़ापा कट जाएगा, घर-बार सँभालेगा, बिरादरी में मरजाद बढ़ाएगा। सो अब रोज वहाँ जाकर जुआ खेलता है। मुझसे बहाना करता है कि वहाँ एक बाबू के पास काम सीखने जाता हूँ। सुनता हूँ, किसी औरत से उसकी आसनाई हो गई है। अभी पुतलीघर के कई मजदूर उसे खोजते हुए मेरे पास आए थे। उसे पा जाएँ तो मार-पीट करें। वे भी उसी औरत के आसना हैं। मैंने हाथ-पैरकर पकड़कर उनको बिदा किया। यह कारखाना क्या खुला, हमारी तबाही आ गई! फायदा जरूर है, चार पैसे की आमदनी है। पहले एक ही खोंचा न बिकता था, अब तीन-तीन बिक जाते हैं, लेकिन ऐसा सोना किस काम का, जिससे कान फटे!
बजरंगी-अजी, जुआ ही खेलता, तब तक गनीमत थी, हमारा घीसू तो आवारा हो गया है। देखते नहीं हो, सूरत कैसी बिगड़ गई है! कैसी देह निकल आई थी! मुझे पूरी आशा थी कि अब दंगल मारेगा, अखाड़े का कोई पट्ठा उसके जोड़ का नहीं है, मगर जब से चकले की चाट पड़ गई है, दिन-दिन घुलता जाता है। दादा को तुमने देखा था न? दस-पाँच कोस के इर्द-गिर्द कोई उनसे हाथ न मिला सकता था। चुटकी से सुपारी तोड़ देते थे। मैंने भी जवानी में कितने ही दंगल मारे। तुमने तो देखा ही था, उस पंजाबी को कैसा मारा था कि पाँच सौ रुपये इनाम पाए और अखबारों में दूर-दूर तक नाम हो गया। कभी किसी माई के लाल ने मेरी पीठ में धूल नहीं लगाई। तो बात क्या थी? लँगोटे के सच्चे थे। मोंछें निकल आई थीं, तब तक किसी औरत का मुँह न देखा था। ब्याह हो गया, तब भी मेहनत-कसरत की धुन में औरत का धयान ही न करते थे। उसी के बल पर अब भी दावा है कि दस-पाँच का सामना हो जाए, तो छक्के छुड़ा दूँ, पर इस लौंड़े ने डोंगा डुबा दिया?घूरे उस्ताद कहते थे कि इसमें दम ही नहीं है, जहाँ दो पकड़ हुए, बस भैंसे की तरह हाँफने लगता है।
सूरदास-मैं अंधा आदमी लौंडों के ये कौतुक क्या जानूँ, पर सुभागी कहती है कि मिठुआ के ढंग अच्छे नहीं हैं। जब से टेसन पर कुली हो गया है, रुपये-आठ आने रोज कमाता है, मुदा कसम ले लो, जो घर पर एक पैसा भी देता हो। भोजन मेरे सिर करता है; जो कुछ पाता है,नसे-पानी में उड़ा देता है।
जगधर-तुम भी झूठमूठ लाज ढो रहे हो। निकाल क्यों नहीं देते घर से? अपने सिर पड़ेगी, तो आटे-दाल का भाव मालूम होगा। अपना लड़का हो, तो एक बात है; भाई-भतीजे किसके होते हैं?
सूरदास-पाला तो लड़के ही की तरह, दिल ही नहीं मानता।
जगधर-अपना बनाने से थोड़े ही अपना हो जाएगा।
ठाकुरदीन भी आ गया था। जगधर की बात सुनकर बोला-भगवान् ने क्या तुम्हारे करम में काँटे ही बोना लिखा है, किसी का भी भला नहीं देख सकते?
सूरदास-उसके मन में जो आए, करे, पर मेरे हाथों तो यह नहीं हो सकता कि मैं आप खाकर सोऊँ और उसकी बात न पूछँ।
ठाकुरदीन-कोई बात कहने के पहले सोच लेना चाहिए कि सुननेवाले को अच्छी लगेगी या बुरी। जिस लड़के को बालपन से पाला, और इस तरह पाला कि कोई अपने बेटे को भी न पालता होगा, उसे अब छोड़ दें।?
जमुनी-अब के कलजुगी लड़के जो कुछ न करें थोड़ा है। अभी दूधा के दाँत नहीं टूटे, सुभागी ने घीसू को गोद खेलाया है, सो आज वह उसी से दिल्लगी करता है। छोटे-बड़े का लिहाज उठ गया। वह तो कहो, सुभागी की काठी अच्छी है, नहीं बाल-बच्चे हुए होते, तो घीसू से जेठे होते।
यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर तीनों लौंडे नायकराम के दालान में बैठे हुए मंसूबे बाँधा रहे थे। घीसू ने कहा-सुभागी मारे डालती है। देखकर यही जी चाहता है कि गले लगा लें। सिर पर साग की टोकरी रखकर बल खाती हुई चलती है, सो जान ले लेती है। बड़ी काफर है!
विद्याधर-तुम तो हो घामड़, पढ़े-लिखे तो हो नहीं, बात क्या समझो। मासूक कभी अपने मुँह से थोड़े ही कहता है कि मैं राजी हूँ। उसकी आँखों से ताड़ जाना चाहिए। जितना ही बिगड़े, उतनी ही दिल से राजी समझो। कुछ पढ़े होते तो जानते कि औरतें कैसे नखरे करती हैं।
मिठुआ-पहले सुभागी मुझसे भी इसी तरह बिगड़ती थी, किसी तरह हत्थे ही न चढ़े, बात तक न सुने; पर मैंने हिम्मत करके एक दिन कलाई पकड़ ली, और बोला-अब न छोड़ँईगा, चाहे मार ही डाल। मरना तो एक दिन है ही, तेरे ही हाथों मरूँगा। यों भी तो मर रहा हूँ, तेरे हाथों मरूँगा, तो सिधो सरग जाऊँगा। पहले तो बिगड़कर गालियाँ देने लगी, फिर कहने लगी-छोड़ दो, कहीं कोई देख ले, तो गजब हो जाए। मैं तेरी बुआ लगती हूँ। पर मैंने एक न सुनी। बस, फिर क्या था। उसी दिन से आ गई चंगुल में।
मिठुआ अपनी प्रेम-विजय की कल्पित कथाएँ गढ़ने में निपुण था। निरक्षर होने पर भी गप्पें मारने में उसने विद्याधर को मात कर दिया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ ऐसा रंग भरता था कि मित्रों को उन गपोड़ों पर विश्वास आ जाता था। घीसू बोला-क्या करूँ, मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती। डरता हूँ, कहीं शोर मचा दे, तो आफत आ जाए। तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ गई थी?
विद्याधर-तुम्हारा सिर जाहिल-जपाट तो हो। मासूक अपने आसिक को आजमाता है कि इसमें कुछ जीवट भी है कि यों ही छैला बना फिरता है। औरत उसी को प्यार करती है, जो दिलावर हो, निडर हो, आग में कूद पड़े।
घीसू-तुम तैयार हो?
विद्याधर-हाँ, आज ही।
मिठुआ-मगर देख लेना, दादा द्वार पर नीम के नीचे सोते हैं।
घीसू-इसका क्या डर। एक धाक्का दूँगा, दूर जाके गिरेगा।
तीनों मिस्कौट करते, इस षडयंत्र के दाँव-पेच सोचते हुए, कुली बाजार की तरफ चले गए। वहाँ तीनों ने शराब पी, दस-ग्यारह बजे रात तक बैठे गाना-बजाना सुनते रहे। मदिरालयों में स्वरहीन कानों के लिए संगीत की कभी कमी नहीं रहती। तीनों नशे में चूर होकर लौटे, तो घीसू बोला-सलाह पक्की है न? आज वारा-न्यारा हो जाए, चित पड़े या पट।
आधी रात बीत चुकी थी। चौकीदार पहरा देकर जा चुका था। घीसू और विद्याधर सूरदास के द्वार पर आए।
घीसू-तुम आगे चलो, मैं यहाँ खड़ा हूँ।
विद्याधर-नहीं, तुम जाओ, तुम गँवार आदमी हो। कोई देख लेगा, तो बात भी न बना सकोगे।
नशे ने घीसू को आपे से बाहर कर रखा था। कुछ यह दिखाना भी मंजूर था कि तुम लोग मुझे जितना बोदा समझते हो, उतना बोदा नहीं हूँ। झोंपड़ी में घुस ही तो पड़ा, और जाकर सुभागी की बाँह पकड़ ली। सुभागी चौंककर उठ बैठी और जोर से बोली-कौन है? हट।
घीसू-चुप-चुप, मैं हूँ।
सुभागी-चोर-चोर! चोर-चोर!
सूरदास जागा। उठकर मड़ैया में जाना चाहता था कि किसी ने उसे पकड़ लिया। उसने डाँटकर पूछा, कौन है? जब कुछ उत्तार न मिला,तब उसने भी उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया-चोर! चोर! मुहल्ले के लोग ये आवाजें सुनते ही लाठियाँ लेकर निकल पड़े। बजरंगी ने पूछा, कहाँ, गया कहाँ? सुभागी बोली, मैं पकड़े हुए हूँ। सूरदास ने कहा, एक को मैं पकड़े हुए हूँ। लोगों ने आकर देखा, तो भीतर सुभागी घीसू को पकड़े हुए है, बाहर सूरदास विद्याधर को। मिठुआ नायकराम के द्वार पर खड़ा था। यह हुल्लड़ सुनते ही भाग खड़ा हुआ। एक क्षण में सारा मुहल्ला टूट पड़ा। चोर को पकड़ने के लिए बिरले ही निकलते हैं, पकड़े गए चोर पर पँचलतियाँ जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। लेकिन यहाँ आकर देखते हैं, तो न चोर, न चोर का भाई, बल्कि अपने ही मुहल्ले के लौंडे हैं।
एक स्त्री बोली-यह जमाने की खूबी है कि गाँव-घर का विचार उठ गया, किसकी आबरू बचेगी!
ठाकुरदीन-ऐसे लौंडों का सिर काट लेना चाहिए।
नायकराम-चुप रहो ठाकुरदीन, यह गुस्सा करने की बात नहीं, रोने की बात है।
जगधर-बजरंगी जमुनी सिर झुकाए चुप खड़े थे, मुँह से बात न निकलती थी। बजरंगी को तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि घीसू का गला घोंट दे। यह जमाव और हलचल देखकर कई कांस्टेबिल भी आ पहुँचे। अच्छा शिकार फँसा, मुट्ठियाँ गरम होंगी। तुरंत दोनों युवकों की कलाइयाँ पकड़ लीं। जमुनी ने रोकर कहा-ये लौंडे मुँह में कालिख लगानेवाले हैं। अच्छा होगा, छ:-छ: महीने की सजा काट आएँगे, तब इनकी आँखें खुलेंगी। समझाते-समझाते हार गई कि बेटा, कुराह मत चलो, लेकिन कौन सुनता है? अब जाके चक्की पीसो। इससे तो अच्छा था कि बाँझ ही रहती।
नायकराम-अच्छा, अब अपने-अपने घर जाते जाव। जमादार, लौंड़ें हैं, छोड़ दो, आओ चलें।
जमादार-ऐसा न कहो पंडाजी, कोतवाल साहब को मालूम हो जाएगा, तो समझेंगे, इन सबों ने ले-देकर छोड़ दिया होगा।
नायकराम-क्या कहते हो सूरे, अब ये लोग जाएँ न?
ठाकुरदीन-हाँ, और क्या। लड़कों से भूल-चूक हो ही जाती है। काम तो बुरा किया, पर अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ।
सूरदास-मैं कौन होता हूँ कि जाने दूँ! जाने दें कोतवाल, डिपटी, हाकिम लोग!
बजरंगी-सूरे, भगवान जानता है, जान का डर न होता, तो इस दुष्ट को कच्चा ही चबा जाता।
सूरदास-अब तो हाकिम लोगों के हाथ में है, छोड़ें चाहे सजा दें।
बजरंगी-तुम कुछ न करो, तो कुछ न होगा। जमादारों को हम मना लेंगे।
सूरदास-तो भैया, साफ-साफ बात यह है कि मैं बिना सरकार में रपट किए न मानूँगा, चाहे सारा मुहल्ला मेरा दुसमन हो जाए।
बजरंगी-क्या यही होगा सूरदास? गाँव-घर, टोले-मुहल्ले का कुछ लिहाज न करोगे? लड़कों से भूल तो हो ही गई, अब उनकी जिंदगानी खराब करने से क्या मिलेगा?
जगधर-सुभागी ही कहाँ की देवी है! जब से भैरों ने छोड़ दिया, सारा मुहल्ला उसका रंग-ढंग देख रहा है। बिना पहले की साँठ-गाँठ के कोई किसी के घर नहीं घुसता!
सूरदास-तो यह सब मुझसे क्या कहते हो भाई, सुभागी देवी हो, चाहे हरजाई हो, वह जाने, उसका काम जाने। मैंने अपने घर में चोरों को पकड़ा है, इसकी थाने में जरूर इत्तिाला करूँगा, थानेवाले न सुनेंगे, तो हाकिम से कहूँगा। लड़के लड़कों की राह रहें तो लड़के हैं; सोहदों की राह चलें, तो सोहदे हैं। बदमासों के और क्या सींगपूँछ होती है?
बजरंगी-सूरे, कहे देता हूँ, खून हो जाएगा।
सूरदास-तो क्या हो जाएगा? कौन कोई मेरे नाम को रोनेवाला बैठा हुआ है?
नायकराम ने वहाँ ठहरना व्यर्थ समझा। क्यों नींद खराब करें? चलने लगे, तो जगधर ने कहा-पंडाजी, तुम भी जाते हो, यहाँ क्या होगा?
नायकराम ने जवाब दिया-भाई, सूरदास मानेगा नहीं, चाहे लाख कहो। मैं भी तो कह चुका, कहो और हाथ-पैर पड़ईँ, पर होना-हवाना कुछ नहीं। घीसू और विद्या की तो बात ही क्या, मिठुआ भी होता, तो सूरे उसे भी न छोड़ता। जिद्दी आदमी है।
जगधर-ऐसा कहाँ का धान्नासेठ है कि अपने मन ही की करेगा। तुम चलो, ज़रा डाँटकर कहो तो।
नायकराम लौटकर सूरदास से बोले-सूरे, कभी-कभी गाँव-घर के साथ मुलाहजा भी करना पड़ता है। लड़कों की जिंदगानी खराब करके क्या पाओगे?
सूरदास-पंडाजी, तुम भी औरों की-सी कहने लगे! दुनिया में कहीं नियाव है कि नहीं? क्या औरत की आबरू कुछ होती ही नहीं? सुभागी गरीब है, अबला है, मजूरी करके अपना पेट पालती है, इसलिए जो कोई चाहे, उसकी आबरू बिगाड़ दे? जो चाहे, उसे हरजाई समझ ले?
सारा मुहल्ला एक हो गया, यहाँ तक दोनों चौकीदार भी मुहल्लेवालों की-सी कहने लगे। एक बोला-औरत खुद हरजाई है।
दूसरा-मुहल्ले के आदमी चाहें, तो खून पचा लें, यह कौन-सा बड़ा जुर्म है।
पहला-सहादत ही न मिलेगी, तो जुर्म क्या साबित होगा?
सूरदास-सहादत तो जब न मिलेगी, जब मैं मर जाऊँगा। वह हरजाई है?
चौकीदार-हरजाई तो है ही। एक बार नहीं, सौ बार उसे बाजार में तरकारी बेचते और हँसते देखा है।
सूरदास-तो बाजार में तरकारी बेचना और हँसना हरजाइयों का काम है?
चौकीदार-अरे, तो जाओगे तो थाने ही तक न! वहाँ भी तो हमीं से रपट करोगे?
नायकराम-अच्छी बात है, इसे रपट करने दो। मैं देख लूँगा। दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं।
सूरदास-हाँ दारोगाजी के मन में जो आए करें, दोस-पास उनके साथ हैं।
नायकराम-कहता हूँ, मुहल्ले में न रहने पाओगे।
सूरदास-जब तक जीता हूँ, तब तक तो रहूँगा, मरने के बाद देखी जाएगी।
कोई सूरदास को धमकाता था, कोई समझाता था। वहाँ वही लोग रहे गए थे, जो इस मुआमले को दबा देना चाहते थे। जो लोग इसे आगे बढ़ाने के पक्ष में थे, वे बजरंगी और नायकराम के भय से कुछ कह न सकने के कारण अपने-अपने घर चले गए थे। इन दोनों आदमियों से बैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी। पर सूरदास अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि किसी भाँति मानता ही न था। अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो। हम लोग थानेदार ही को रोजी कर लेंग। दस-बीस रुपये से गम खाएँगे।
नायकराम-अरे, वही लाला थानेदार है न? उन्हें मैं चुटकी बजाते-बजाते गाँठ लूँगा। मेरी पुरानी जान-पहचान है।
जगधर-पंडाजी, मेरे पास तो रुपये भी नहीं हैं, मेरी जान कैसे बचेगी?
नायकराम-मैं भी तो परदेश से लौटा हूँ। हाथ खाली हैं। जाके कहीं रुपये की फिकिर करो।
जगधर-मैं सूरे को अपना हितू समझता था। जब कभी काम पड़ा है, उसकी मदद की है। इसी के पीछे भैरों से दुश्मनी हुई। और, अब भी यह मेरा न हुआ!
नायकराम-यह किसी का नहीं है। जाकर देखो, जहाँ से हो सके, 25 रुपये तो ले ही आओ।
जगधर-भैया, रुपये किससे माँगने जाऊँ? कौन पतियाएगा?
नायकराम-अरे, विद्या की अम्माँ से कोई गहना ही माँग लो। इस बखत तो प्रान बचें, फिर छुड़ा देना।
जगधर बहाने करने लगा-वह छल्ला तक न देगी; मैं मर भी जाऊँ, तो कफन के लिए रुपये न निकालेगी। यह कहते-कहते वह रोने लगा। नायकराम को उस पर दया आ गई। रुपये देने का वचन दे दिया।
सूरदास प्रात:काल थाने की ओर चला, तो बजरंगी ने कहा-सूरे, तुम्हारे सिर पर मौत खेल रही है, जाओ।
जमुनी सूरे के पैरों से लिपट गई और रोती हुई बोली-सूरे, तुम हमारे बैरी हो जाओगे, यह कभी आसा न थी।
बजरंगी ने कहा-नीच है, और क्या! हम इसको पालते ही चले आते हैं। भूखों कभी सोने नहीं दिया। बीमारी-आरामी में कभी साथ नहीं छोड़ा। जब कभी दूधा माँगने आया, खाली हाथ नहीं जाने दिया। इस नेकी का यह बदला! सच कहा है, अंधों में मुरौवत नहीं होती। एक पासिन के पीछे!
नायकराम पहले ही लपककर थाने जा पहुँचे और थानेदार से सारा वृत्तांत सुनाकर कहा-पचास का डौल है, कम न ज्यादा। रपट ही न लिखिए।
दारोगा ने कहा-पंडाजी, जब तुम बीच में पड़े हुए हो, तो सौ-पचास की कोई बात नहीं; लेकिन अंधो को मालूम हो जाएगा कि रपट नहीं लिखी गई, तो सीधा डिप्टी साहब के पास जा पहुँचेगा। फिर मेरी जान आफत में पड़ जाएगी। निहायत रूखा अफसर है, पुलिस का तो जानी दुश्मन ही समझो। अंधा यों माननेवाला आसामी नहीं है। जब इसने चतारी के राजा साहब को नाकों चने चबवा दिए, तो दूसरों की कौन गिनती है! बस, यही हो सकता है कि जब मैं तफतीश करने आऊँ, तो आप लोग किसी को शहादत न देने दें। अदम सबूत में मुआमला खारिज हो जाएगा। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि शहादत के लिए किसी को दबाऊँगा नहीं, गवाहों के बयान में भी कुछ काट-छाँट कर दूँगा।
दूसरे दिन संधया समय दारोगाजी तहकीकात करने आए। मुहल्ले के सब आदमी जमा हुए; मगर जिससे पूछो, यही कहता है-मुझे कुछ मालूम नहीं है, मैं कुछ नहीं जानता, मैंने रात को किसी की 'चोर-चोर' आवाज नहीं सुनी, मैंने किसी को सूरदास के द्वार पर नहीं देखा, मैं तो घर में द्वार बंद किए पड़ा सोता था। यहाँ तक कि ठाकुरदीन ने भी साफ कहा-साहब, मैं कुछ नहीं जानता। दारोगा ने सूरदास पर बिगड़कर कहा-झूठी रपट है बदमाश!
सूरदास-रपट झूठी नहीं है, सच्ची है।
दारोगा-तेरे कहने से सच्ची मान लूँ? कोई गवाह भी है?
सूरदास ने मुहल्लेवालों को सम्बोधित करके कहा-यारो, सच्ची बात कहने से मत डरो। मेल-मुरौवत इसे नहीं कहते कि किसी औरत की आबरू बिगाड़ दी जाए और लोग उस पर परदा डाल दें। किसी के घर में चोरी हो जाए और लोग छिपा लें। अगर यही हाल रहा, तो समझ लो कि आबरू न बचेगी। भगवान् ने सभी को बेटियाँ दी हैं, कुछ उनका खियाल करो। औरत की आबरू कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके पीछे सिर कट जाते हैं, लहू की नदी बह जाती है। मैं और किसी से नहीं पूछता, ठाकुरदीन, तुम्हें भगवान का भय है, पहले तुम्हीं आए थे, तुमने यहाँ क्या देखा? क्या मैं और सुभागी दोनों घीसू और विद्याधर का हाथ पकड़े हुए थे? देखो, मुँहदेखी नहीं, साथ कोई न जाएगा। जो कुछ देखा हो,सच कह दो।
ठाकुरदीन धार्मभीरु प्राणी था। ये बातें सुनकर भयभीत हो गया और बोला-चोरी-डाके की बात तो मैं कुछ नहीं जानता, यही पहले भी कह चुका, बात बदलनी नहीं आती। हाँ, जब मैं आया तो तुम और सुभागी दोनों लड़कों को पकड़े चिल्ला रहे थे।
सूरदास-मैं उन दोनों को उनके घर से तो नहीं पकड़ लाया था?
ठाकुरदीन-यह दैव जाने। हाँ, 'चोर-चोर' की आवाज मेरे कान में आई थी।
सूरदास-अच्छा, अब मैं तुमसे पूछता हूँ जमादार, तुम आए थे न? बोलो, यहाँ जमाव था कि नहीं?
चौकीदार ने ठाकुरदीन को फूटते देखा, तो डरा कि कहीं अंधा दो-चार आदमियों को और फोड़ लेगा, तो हम झूठे पडेंग़े। बोला-हाँ, जमाव क्यों नहीं था!
सूरदास-घीसू को सुभागी पकड़े हुए थी कि नहीं? विद्याधर को मैं पकड़े हुए था कि नहीं?
चौकीदार-चोरी होते हमने नहीं देखी।
सूरदास-हम इन दोनों लड़कों को पक्+ड़े थे कि नहीं?
चौकीदार-हाँ, पकड़े तो थे, पर चोरी होते देखी नहीं?
सूरदास-दारोगाजी, अभी शहादत मिली कि और दूँ? यहाँ नंगे-लुच्चे नहीं बसते, भलेमानसों ही की बस्ती है। कहिए, बजरंगी से कहला दूँ;कहिए, खुद घीसू से कहला दूँ? कोई झूठी बात न कहेगा। मुरौवत मुरौवत की जगह होती है, मुहब्बत मुहब्बत की जगह है। मुरौवत और मुहब्बत के पीछे कोई अपना परलोक न बिगाड़ेगा।
बजरंगी ने देखा, अब लड़के की जान नहीं बचती, तो अपना ईमान क्यों बिगाड़े? दारोगा के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला-दारोगाजी, सूरे जो बात कहते हैं, वह ठीक है। जिसने जैसी करनी की है, वैसी भोगे। हम क्यों अपनी आकबत बिगाड़ें? लड़का ऐसा नालायक न होता, तो आज मुँह में कालिख क्यों लगती? अब उसका चलन ही बिगड़ गया, तो मैं कहाँ तक बचाऊँगा? सजा भोगेगा, तो आप आँखें खुलेंगी।
हवा बदल गई। एक क्षण में साक्षियों का ताँता बँधा गया। दोनों अभियुक्त हिरासत में ले लिए गए। मुकदमा चला, तीन-तीन महीने की सजा हो गई। बजरंगी और जगधर दोनों सूरदास के भक्त थे। नायकराम का यह काम था कि सब किसी से सूरदास के गुन गाया करें। अब ये तीनों उसके दुश्मन हो गए। दो बार पहले पहले भी वह अपने मुहल्ले का द्रोही बन चुका था, पर उन दोनों अवसरों पर किसी को उसकी जात से इतना आघात न पहुँचा था, अबकी तो उसने घोर अपराध किया था। जमुनी जब सूरदास को देखती, तो सौ काम छोड़कर उसे कोसती। सुभागी को घर से निकलना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि मिठुआ ने भी साथ छोड़ दिया। अब वह रात को भी स्टेशन पर ही रह जाता। अपने साथियों की दशा ने उसकी आँखें खोल दीं। नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दिया, चक्कर खाकर आते-जाते। बस, उसके सम्बंधियों में ले-देके एक भैरों रह गया। हाँ, कभी-कभी दूसरों की निगाह बचाकर ठाकुरदीन कुशल-समाचार पूछ जाता। और तो और दयागिरि भी उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं लोग उसका मित्र समझकर मेरी दक्षिणा-भिक्षा न बंद कर दें। सत्य के मित्र कम होते हैं, शत्रुओं से कहीं कम।
रंगभूमि अध्याय 41
प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भाँति वह केवल बतलाए हुए मार्ग पर आँखें बंद करके चलने पर ही संतुष्ट न थे; उनकी निगाह आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है, जो उनकी दृष्टि को सीमित कर देती है। वह किसी विषय पर स्वाधीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते, नियम, सिध्दांत और परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधि ग्रंथों में खोजता है; वह केवल निदान का दास है, लक्षणों का गुलाम; वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औषधि लुकमान के पास भी न थी। सहज बुध्दि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होती, तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती है, जरा-जरा-सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मंत्री-भवन में बैठा हुआ सेना-मंत्री सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक से पृथक हो जाने से मि. जॉन सेवक लेशमात्र भी चिंतित नहीं हुए थे। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार-कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बहीखाते लिख सकते थे, उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एंजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी-कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थे, अब नियमानुसार और यथासमय जाते। बहुधा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर जाते। कभी रात को नौ-दस बजे जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बलबूते पर यह काम नहीं उठाया है; कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धन-प्रेम का आधार संतान-प्रेम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंग, उनकी जीवन-धार का मुख्य-श्रोत था। संसार के और सभी धंधे इसके अंतर्गत थे।
मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्टे्रट से उन्होंने मेल-जोल पैदा कर लिया था, चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्तवपूर्ण विजय की आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तोजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धूम से चल रही थी, लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधा थी। जॉन सेवक इसी उधोड़-बुन में पड़े रहते थे।
संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि विकट समस्या बिना विशेष उद्योग के हल हो गई। प्रभु सेवक के असहयोग ने वह काम कर दिखाया, जो कदाचित् उनके सहयोग से भी न हो सकता था।
जब से सोफिया और विनयसिंह आ गए थे, सेवक-दल बड़ी उन्नति कर रहा था। उसकी राजनीति की गति दिन-दिन तीव्र और उग्र होती जाती थी। कुँवर साहब ने जितनी आसानी से पहली बार अधिकारियों की शंकाओं को शांत कर दिया था, उतनी आसानी से अबकी बार न कर सके। समस्या कहीं विषम हो गई थी। प्रभु सेवक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना मुश्किल न था, विनय को घर से निकाल देना,उसे अधिकारियों की दया पर छोड़ देना, कहीं मुश्किल था। इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, जाति-प्रेम में पगे हुए,स्वच्छंद, नि:स्पृह और विचारशील। उनको भोग-विलास के लिए किसी बड़ी जाएदाद की बिलकुल जरूरत न थी। किंतु प्रत्यक्ष रूप से अधिकारियों के कोपभाजन बनने के लिए वह तैयार न थे। वह अपना सर्वस्व जाति-हित के लिए दे सकते थे; किंतु इस तरह कि हित का साधन उनके हाथ में रहे। उनमें वह आत्मसमर्पण की क्षमता न थी, जो निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से अपने को मिटा देती है। उन्हें विश्वास था कि हम आड़ में रहकर उससे कहीं अधिक उपयोगी बन सकते हैं, जितने सामने आकर। विनय का दूसरा ही मत था। वह कहता था, हम जाएदाद के लिए अपनी आत्मिक स्वतंत्रता की हत्या क्यों करें? हम जाएदाद के स्वामी बनकर रहेंगे, उसके दास बनकर नहीं। अगर सम्पत्तिा से निवृत्तिा न प्राप्त कर सके, तो इस तपस्या का प्रयोजन ही क्या? यह तो गुनाहे बेलज्जत है। निवृत्तिा ही के लिए तो यह साधना की जा रही है। कुँवर साहब इसका यह जवाब देते कि हम इस जाएदाद के स्वामी नहीं, केवल रक्षक हैं। यह आनेवाली संतानों की धरोहर-मात्र है। हमको क्या अधिकार है कि भावी संतान से वह सुख और सम्पत्तिा छीन लें, जिसके वे वारिस होंगे? बहुत सम्भव है, वे इतने आदर्शवादी न हों, या उन्हें परिस्थिति के बदल जाने से आत्मत्याग की जरूरत ही न रहे। यह भी सम्भव है कि उनमें वे स्वाभाविक गुण न हों, जिनके सामने सम्पत्तिा की कोई हस्ती नहीं। ऐसी ही युक्तियों से वह विनय का समाधान करने की विफल चेष्टा किया करते थे। वास्तव में बात यह थी कि जीवन-पर्यंत ऐश्वर्य का सुख और सम्मान भोगने के पश्चात् वह निवृत्तिा का यथार्थ आशय ही न ग्रहण कर सकते थे। वह संतान न चाहते थे, सम्पत्तिा के लिए संतान चाहते थे। जाएदाद के सामने संतान का स्थान गौण था। उन्हें अधिकारियों की खुशामद से घृणा थी, हुक्काम की हाँ में हाँ मिलना हेय समझते थे; किंतु हुक्काम की नजरों में गड़ना, उनके हृदय में खटकना, इस हद तक कि वे शत्रुता पर तत्पर हो जाएँ, उन्हें बेवकूफी मालूम होती थी। कुँवर साहब के हाथों में विनय को सीधी राह पर लाने का एक ही उपाय था, और वह यह कि सोफिया से उसका विवाह हो जाए। इस बेड़ी में जकड़कर उसकी उद्दंडता को वह शांत करना चाहते थे; लेकिन अब जो कुछ विलम्ब था, वह सोफिया की ओर से। सोफिया को अब भी भय था कि यद्यपि रानी मुझ पर बड़ी कृपा-दृष्टि रखती हैं, पर दिल से उन्हें यह सम्बंध पसंद नहीं। उसका यह भय सर्वथा अकारण भी न था। रानी भी सोफिया से प्रेम कर सकती थीं और करती थीं, उसका आदर कर सकती थीं और करती थीं, पर अपनी वधू में वह त्याग और विचार की अपेक्षा लज्जाशीलता, सरलता, संकोच और कुल-प्रतिष्ठा को अधिक मूल्यवान समझती थीं, संन्यासिनी वधू नहीं, भोग करनेवाली वधू चाहती थीं। किंतु वह अपने हृदयगत भावों को भूलकर भी मुँह से न निकालती थीं। न ही वह इस विचार को मन में आने ही देना चाहती थीं, इसे कृतघ्नता समझती थीं।
कुँवर साहब कई दिन तक इसी संकट में पड़े रहे। मि. जॉन सेवक से बातचीत किए बिना विवाह कैसे ठीक होता? आखिर एक दिन इच्छा न होने पर भी विवश होकर उनके पास गए। संधया हो गई थी। मि. जॉन सेवक अभी-अभी मिल से लौटे थे और मजदूरों के मकानों की स्कीम सामने रखे हुए कुछ सोच रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही उठे और बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
कुँवर साहब कुर्सी पर बैठते हुए बोले-आप विनय और सोफिया के विवाह के विषय में क्या निश्चय करते हैं? आप मेरे मित्र और सोफिया के पिता हैं, और दोनों ही नाते से मुझे आपसे यह कहने का अधिकार है कि अब इस काम में देर न कीजिए।
जॉन सेवक-मित्रता के नाते चाहे जो सेवा ले सकते हैं, लेकिन (गम्भीर भाव से) सोफिया के पिता के नाते मुझे कोई निश्चय करने का अधिकार नहीं। उसने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया। नहीं तो उसे इतने दिन यहाँ आए हो गए, क्या एक बार भी यहाँ तक न आती? उसने हमसे यह अधिकार छीन लिया।
इतने में मिसेज सेवक भी आ गईं। पति की बातें सुनकर बोलीं-मैं तो मर जाऊँगी, लेकिन उसकी सूरत न देखूँगी। हमारा उससे अब कोई सम्बंध न रहा।
कुँवर-आप लोग सोफिया पर अन्याय कर रहे हैं। जब से वह आई है, एक दिन के लिए भी घर से नहीं निकली। इसका कारण केवल संकोच है, और कुछ नहीं। शायद डरती है कि बाहर निकलूँ, और किसी पुराने परिचित से साक्षात् हो जाए, तो उससे क्या बात करूँगी। थोड़ी देर के लिए कल्पना कर लीजिए कि हममें से कोई भी उसकी जगह होता, तो उसके मन में कैसे भाव आते। इस विषय में वह क्षम्य है। मैं तो इसे अपना दुर्भाग्य समझ्रूगा, अगर आप लोग उससे विरक्त हो जाएँगे। अब विवाह में विलम्ब न होना चाहिए।
मिसेज सेवक-खुदा वह दिन न लाए! मेरे लिए तो वह मर गई, उसका फातेहा पढ़ चुकी, उसके नाम को जितना रोना था, रो चुकी!
कुँवर-यह ज्यादती आप लोग मेरे रियासत के साथ कर रहे हैं। विवाह एक ऐसा उपाय है, जो विनय की उद्दंडता को शांत कर सकता है।
जॉन सेवक-मेरी तो सलाह है कि आप रियासत को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दीजिए। गवर्नमेंट आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेगी और आपके प्रति उसका सारा संदेह शांत हो जाएगा। तब कुँवर विनयसिंह की राजनीतिक उद्दंडता का रियासत पर जरा भी असर न पड़ेगा; और यद्यपि इस समय आपको यह व्यवस्था बुरी मालूम होगी, लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके विचारों में प्रौढ़ता आ जाएगी, तो वह आपके कृतज्ञ होंगे और आपको अपना सच्चा हितैषी समझेंगे। हाँ, इतना निवेदन है कि इस काम में हाथ डालने से पहले आप अपने को खूब दृढ़ कर लें। उस वक्त अगर आपकी ओर से जरा भी पसोपेश हुआ, तो आपका सारा प्रयत्न विफल हो जाएगा, आप गवर्नमेंट के संदेह को शांत करने की जगह और भी उकसा देंगे।
कुँवर-मैं जाएदाद की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। मेरी इच्छा केवल इतनी है कि विनय को आर्थिक कष्ट न होने पाए। बस,अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता।
जॉन सेवक-आप प्रत्यक्ष रूप से तो कुँवर विनयसिंह के लिए व्यवस्था नहीं कर सकते। हाँ, यह हो सकता है कि आप अपनी वृत्तिा में से जितना उचित समझें, उन्हें दे दिया करें।
कुँवर-अच्छा, मान लीजिए, विनय इसी मार्ग पर और भी अग्रसर होते गए, तो?
जॉन सेवक-तो उन्हें रियासत पर कोई अधिकार न होगा।
कुँवर-लेकिन उनकी संतान को तो यह अधिकार रहेगा?
जॉन सेवक-अवश्य।
कुँवर-गवर्नमेंट स्पष्ट रूप से यह शर्त मंजूर कर लेगी?
जॉन सेवक-न मंजूर करने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता।
कुँवर-ऐसा तो न होगा कि विनय के कामों का फल उनकी संतान को भोगना पड़े? सरकार रियासत को हमेशा के लिए जब्त कर ले? ऐसा दो-एक जगह हुआ है। बरार ही को देखिए।
जॉन सेवक-कोई खास बात पैदा हो जाए, तो नहीं कह सकते; लेकिन सरकार की यह नीति कभी नहीं रही। बरार की बात जाने दीजिए। वह इतना बड़ा सूबा है कि किसी रियासत में उसका मिल जाना राजनीतिक कठिनाइयों का कारण हो सकता है।
कुँवर-तो मैं कल डॉक्टर गांगुली को शिमले से तार भेजकर बुलाए लेता हूँ?
जॉन सेवक-आप चाहें, तो बुला लें। मैं तो समझता हूँ, यहीं से मसबिदा बनाकर उनके पास भेज दिया जाए या मैं स्वयं चला जाऊँ और सारी बातें आपकी इच्छानुसार तय कर आऊँ।
कुँवर साहब ने धन्यवाद दिया और घर चले गए। रात-भर वह इसी हैस-वैस में पड़े रहे कि विनय और जाह्नवी से इस निश्चय का समाचार कहूँ या न कहूँ। उनका जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्या? अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगा, तो और भी दिलेर हो जाएगा। अंत को उन्होंने यह निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहीं, और विघ्न पड़ने की सम्भावना है। जब काम पूरा हो जाएगा, तो कहने-सुनने को काफी समय मिलेगा।
मिस्टर जॉन सेवक पैरों-तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना-पत्र लिखवाया और कुँवर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गांगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गांगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसंद किया और खुद शिमले से आए। यहाँ कुँवर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रांतीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इसमें क्या आपत्तिा हो सकती थी, विशेषत: ऐसी दशा में जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न था? कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अंदर रियासत पर सरकारी अधिकार हो गया। कुँवर साहब लज्जा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलते,घर में बहुत कम आते, आँखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाए। जिस दिन सारी शतर्ें तय हो गईं, कुँवर साहब से न रहा गया, विनयसिंह से बोले-रियासत पर तो सरकारी अधिकार हो गया।
विनय ने चौंककर पूछा-क्या जब्त हो गई?
कुँवर-नहीं, मैंने कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दिया!
यह कहकर उन्होंने शर्तों का उल्लेख किया और विनीत भाव से बोले-क्षमा करना, मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।
विनय-मुझे इसका बिलकुल दु:ख नहीं है, लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की है, जिसका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।
कुँवर-इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।
विनय-आपने यह निश्चय करने से पहले ही मुझसे सलाह ली होती, तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक् रहने का प्रतिज्ञापत्र लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।
कुँवर-(सोचकर) उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?
विनय-तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना-जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकें, तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहीं, आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूँगा।
कुँवर साहब सजल नयन होकर बोले-विनय, मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहीं, तुम्हारी सहानुभूति और दया का पात्र होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँ, केवल सामाजिक सेवक से हमारा उध्दार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजना, जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न हो, जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाए, संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा-क्षेत्र में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धारण करेगी और इसका परिणाम यह होगा! मैंने सोचा था, मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगा;यह न जानता था कि इसके बदले मुझे अपना सर्वस्व-और अपना ही नहीं, भावी संतान का सर्वस्व भी-होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान् त्याग की सामर्थ्य नहीं।
विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में उन्हें कोई चिंता न थी, चिंता थी सेवक-दल के संचालन की। इसके लिए धन कहाँ से आएगा? उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैं, यह गुर न जानते थे। कम-से-कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धन एकत्र करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धन-सम्पत्ति इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवार, 60 हजार रुपये साल के लिए 12 लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक था। कुछ बुध्दि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धन था, पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थी, क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।
तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्ता, दोनों रुपयों की चिंता में मग्न बैठे हुए थे सहसा सोफिया ने आकर कहा-मैं एक उपाय बताऊँ?
इंद्रदत्ता-भिक्षा माँगने चलें?
सोफिया-क्यों न एक ड्रामा खेला जाए! ऐक्टर हैं ही, कुछ परदे बनवा लिए जाएँ, मैं भी परदे बनाने में मदद दूँगी।
विनय-सलाह तो अच्छी है, लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।
सोफिया-नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगी, मैं परिचारिका का पार्ट लूँगी।
इंद्रदत्ता-अच्छा, कौन-सा नाटक खेला जाए? भट्टजी का 'दुर्गावती' नाटक।
विनय-मुझे तो 'प्रसाद' का 'अजातशत्रु' बहुत पसंद है।
सोफिया-मुझे 'कर्बला' बहुत पसंद आया। वीर और करुण, दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।
इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था।
विनय-अच्छा, बताओ, इसमें क्या होगा?
सोफिया-रुपये तो होंगे नहीं, और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पाएगा? वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगा?
विनय-और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।
इंद्रदत्ता-कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।
विनय-तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थी?
इंद्रदत्ता-रुपये हो तो, तो बीमा न कराया होता?
विनय-मैं कहता हूँ, रुपये हैं, चाहे शर्त बद लो।
इंद्रदत्ता-मेरे पास कुल पाँच रुपये हैं, पाँच-पाँच की बाजी है।
विनय-यह नहीं। अगर इसमें रुपये हों, तो मैं तुम्हारी गर्दन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुए, तो तुम मेरी गर्दन पर सवार होना। बोलो?
इंद्रदत्ता-मंजूर है, खोलो लिफाफा।
लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला। पूरे दस हजार रुपये का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले-मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़े हैं। आइए, लाइए गर्दन।
इंद्रदत्ता-ठहरो-ठहरो, गर्दन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़ो, क्या लिखा है, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? लगे सवारी गाँठने।
विनय-जी नहीं, यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गर्दन टूटे या रहे, इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले-पतले तो हो नहीं,खासे देव तो बने हुए हो।
इंद्रदत्ता-भाई, आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा का था।
विनय-खैर, देर न कीजिए, गर्दन झुकाकर खड़े हो जाइए।
इंद्रदत्ता-सोफिया, मेरी रक्षा करो। तुम्हीं ने पहले कहा था, इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।
सोफिया-मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानो, यह जानें। यह कहकर उसने खत शुरू किया-
प्रिय बंधुवर,
मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्र किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक-दल से मुझे अब भी वही प्रेम है, जो पहले था। उसकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल समाचार जानने के लिए उत्सुक होंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य-चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के सिवा मैंने और किसी को इतना काव्य-रस-चतुर नहीं पाया। कितनी सजीव सहृदयता थी! गवर्नर महोदय की प्रेरणा से मैं यहाँ आया, और जब से आया हूँ, आतिथ्य का अविरल प्रवाह हो रहा है। वास्तव में जीवित राष्ट्र ही गुणियों का आदर करना जानते हैं। बड़े ही सहृदय, उदार, स्नेहशील प्राणी हैं। मुझे इस जाति से अब श्रध्दा हो गई है, और मुझे विश्वास हो गया कि इस जाति के हाथों हमारा अहित कभी नहीं हो सकता। कल यूनिवर्सिटी की ओर से मुझे एक अभिनंदन-पत्र दिया गया। साहित्य-सेवियों का ऐसा समारोह मैंने काहे को कभी देखा था! महिलाओं का स्नेह और सत्कार देखकर मैं मुग्ध हो गया। दो दिन पहले इंडिया-हाउस में भोज था।
आज साहित्य-परिषद् ने निमंत्रित किया है। कल 'लिबरल' एसोसिएशन दावत देगा। परसों पारसी समाज का नम्बर है। उसी दिन यूनियन क्लब की ओर से पार्टी दी जाएगी। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि मैं इतना जल्द बड़ा आदमी हो जाऊँगा। मैं ख्याति और सम्मान के निंदकों में नहीं हूँ। इसके सिवा गुणियों को और क्या पुरस्कार मिल सकता है? मुझे कब मालूम हुआ कि मैं क्या करने के लिए संसार में आया हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? अब तक भ्रम में पड़ा हुआ था। अब से मेरे जीवन का मिशन होगा प्राच्य और पाश्चात्य को प्रेम-सूत्र में बाँधना, पारस्परिक द्वंद्व को मिटाना और दोनों में समान भावों को जागृत करना। मैं यही व्रत धारण करूँगा। पूर्व ने किसी जमाने में पश्चिम को धर्म का मार्ग दिखाया था; अब उसे प्रेम का शब्द सुनाएगा, प्रेम का पथ दिखाएगा। मेरी कविताओं का पहला संग्रह मैकमिलन कम्पनी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होगा। गवर्नर महोदय मेरी उन कविताओं की भूमिका लिखेंगे। इस संग्रह के लिए प्रकाशकों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए हैं। इच्छा तो यही थी कि ये सब रुपये अपनी प्यारी संस्था को भेंट करता; पर विचार हो रहा है कि अमेरिका की सैर भी करूँ। इसलिए इस समय जो कुछ भेजता हूँ, उसे स्वीकार कीजिए। मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है। इसलिए धन्यवाद की आशा नहीं रखता। हाँ, इतना निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ कि आपको सेवा के उच्चादर्शों का पालन करना चाहिए, और राजनीतिक परिस्थितियों से विरक्त होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के प्रचार को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। मेरे व्याख्यानों की रिपोर्ट आपको यहाँ के समाचार-पत्रों में मिलेगी। आप देखेंगे कि मेरे राजनीतिक विचारों में कितना अंतर हो गया है। मैं अब स्वदेशी नहीं, सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है; प्राणिमात्र से मेरा बंधुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रार्थना कीजिए कि अमेरिका से सकुशल लौट आऊँ।
आपका सच्चा बंधु
प्रभु सेवक
सोफिया ने पत्र मेज पर रख दिया और गम्भीर भाव से बोली-इसके दोनों ही अर्थ हो सकते हैं, आत्मिक उत्थान या पतन। मैं तो पतन ही समझती हूँ।
विनय-क्यों? उत्थान क्यों नहीं?
सोफिया-इसलिए कि प्रभु सेवक की आत्मा शृंगारप्रिय है। वह कभी स्थिर चित्ता नहीं रहे। जो प्राणी सम्मान से इतना फूल उठता है, वह उपेक्षा से इतना ही हताश भी हो जाएगा।
विनय-यह कोई बात नहीं। कदाचित् मैं भी इसी तरह फूल उठता। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। यहाँ उनकी क्या कद्र हुई? मरते दम तक गुमनाम पड़े रहते।
इंद्रदत्ता-जब हमारे काम के नहीं रहे, तो प्रसिध्द हुआ करें। ऐसे विश्व-प्रेमियों से कभी किसी का उपकार न हुआ है, न होगा। जिसमें अपना नहीं, उसमें पराया क्या होगा?
सोफिया-सार्वदेशिकता हमारे कई कवियों को ले डूबी, इन्हें भी ले डूबेगी। इनका होना, न होना हमारे लिए दोनों बराबर है; बल्कि मुझे तो अब इनसे हानि पहुँचने की शंका है। मैं जाकर अभी इस पत्र का जवाब लिखती हूँ।
यह कहते हुए सोफिया वह पत्र हाथ में लिए हुए अपने कमरे में चली गई। विनय ने कहा-क्या करूँ, रुपये वापस कर दूँ।
इंद्रदत्ता-रुपये क्यों वापस करोगे? उन्होंने कोई शर्त तो की नहीं है! मित्रोचित सलाह दी है और बहुत अच्छी सलाह दी हैं हमारा भी तो वही उद्देश्य है। अंतर केवल इतना है कि वह समता के बिना ही बंधुत्व का प्रचार करना चाहते हैं, हम बंधुत्व के लिए समता को आवश्यक समझते हैं।
विनय-यों क्यों नहीं कहते कि बंधुत्व समता पर ही स्थित है?
इंद्रदत्ता-सोफिया देवी खूब खबर लेंगी।
विनय-अच्छा, अभी रुपये रखे लेता हूँ, पीछे देखा जाएगा।
इंद्रदत्ता-दो-चार ऐसे ही मित्र और मिल जाएँ, तो हमारा काम चल निकले।
विनय-सोफिया का ड्रामा खेलने की सलाह कैसी है?
इंद्रदत्ता-क्या पूछना, उनका अभिनय देखकर लोग दंग रह जाएँगे।
विनय-तुम मेरी जगह होते, तो उसे स्टेज पर लाना पसंद करते?
इंद्रदत्ता-पेशा समझकर तो नहीं, लेकिन परोपकार के लिए स्टेज पर लाने में शायद मुझे आपत्तिा न होगी।
विनय-तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा उदार हो। मैं तो इसे किसी हालत में पसंद न करूँगा। हाँ, यह तो बताओ, सोफिया आजकल कुछ उदास मालूम होती है! कल इसने मुझसे जो बातें की, वे बहुत निराशाजनक थीं। उसको भय है कि उसी के कारण रियासत का यह हाल हुआ है। माताजी तो उस पर जान देती हैं, पर वह उनसे दूर भागती है। फिर वही आधयात्मिक बातें करती है, जिनका आशय आज तक मेरी समझ में नहीं आया-मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी नहीं बनना चाहती, मेरे लिए केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि काफी है, और जाने क्या-क्या। और मेरा यह हाल है कि घंटे-भर भी उसे न देखूँ, तो चित्ता विकल हो जाता है।
इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।
इंद्रदत्ता-आइए, इंदुरानी, आइए। आप ही का इंतजार था।
इंदु-झूठे हो, मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थी, रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।
इंद्रदत्ता-तो मालूम होता है, आप कुछ लाई हैं। लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।
इंदु-मुझसे माँगते हो? मेरा हाल जानकर भी? एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ है? अम्माँजी तो अब राजी हैं न?
विनय-किसी की दिल की बात कोई क्या जाने।
इंदु-मैं तो समझती हूँ अम्माँजी राजी भी हो जाएँ, तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दु:ख तो अवश्य होगा; लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।
विनय ने आँसू पीते हुए कहा-मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।
इंदु-सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धर्मसंकट में पड़ी हुई है। न तुम्हें निराश करना चाहती है, न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम है, वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्री नहीं है, केवल एक कल्पना है। भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते हो, पर उसे अनुभव नहीं कर सकते, उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावों को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्य ही नहीं। सोफिया वही कवि की अंतर्तम भावना है।
इंद्रदत्ता-और आपकी यह सब बातें भी कोरी कवि-कल्पना हैं। सोफिया न कवि-कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्य; न देवी है न देवता। न अप्सरा है न परी। जैसी अन्य स्त्रियाँ होती हैं, वैसी ही एक स्त्री वह भी है, वही उसके भाव हैं, वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी की, कोई भी ऐसी बात की, जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैं? तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैं, तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम हो, पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी। आप लोग वही चाहते हैं, जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखी है। आप लोग तैयारियाँ कीजिए, फिर उसकी ओर से आपत्तिा हो, तो अलबत्ता उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती है,आप लोग स्वयं धुकुर-पुकुर कर रहे हैं, तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।
इंदु-ऐसा कहीं भूलकर भी न करना, नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।
इतने में सोफिया वह पत्र लिए हुए आती दिखाई दी, जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दी, और बोली-तुम लोगों को तो अभी खबर न होगी, मि. सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।
सोफिया ने इंदु को गले मिलते हुए पूछा-पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगे?
इंदु-अभी तुम्हें मालूम ही नहीं? वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जाएगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।
इंद्रदत्ता-राजा साहब ने मंजूर कर लिया? इतनी जल्दी भूल गए। अबकी शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा।
इंदु-सरकार का आदेश था, कैसे न मंजूर करते।
इंद्रदत्ता-साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्र चला दिया।
इंदु-क्यों, इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिकार नहीं करा दिया? एक राजद्रोही राज को अपंग नहीं बना दिया? एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डाली? सरकार पर इतने एहसान करके यों ही छोड़ देते? चतुर व्यवसायी न हुए, कोई राजा-ठाकुर हुए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कम्पनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।
विनय-राजा साहब को पद-त्याग कर देना चाहिए। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।
इंदु-कुछ सोच-समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुना, पाँडेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।
इंद्रदत्ता-न होना चाहिए।
सोफिया-जरा चलकर देखना चाहिए, वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गए, तो? नहीं, मैं न जाऊँगी, तुम्हीं लोग जाओ।
तीनों आदमी पाँड़ेपुर की तरफ चले।