रंगभूमि (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

Rangbhoomi (Novel) : Munshi Premchand

रंगभूमि अध्याय 33

फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मुहल्ले में मकान ले-लेकर रहने लगे। पाँड़ेपुर छोटी-सी बस्ती तो थी ही, वहाँ इतने मकान कहाँ थे, नतीजा यह हुआ कि मुहल्लेवाले किराए के लालच से परदेशियों को अपने-अपने घरों में ठहराने लगे। कोई परदे की दीवार खिंचवा लेता था, कोई खुद झोंपड़ा बनाकर उसमें रहने लगता और मकान भड़ैतों को दे देता। भैरों ने लकड़ी की दूकान खोल ली थी। वह अपनी माँ के साथ वहीं रहने लगा, अपना घर किराए पर दे दिया। ठाकुरदीन ने अपनी दुकान के सामने एक टट्टी लगाकर गुजर करना शुरू किया, उसके घर में एक ओवरसियर आ डटे। जगधर सबसे लोभी था, उसने सारा मकान उठा दिया और आप एक फूस के छप्पर में निर्वाह करने लगा। नायकराम के बरामदे में तो नित्य एक बरात ठहरती थी। यहाँ तक लोभ ने लोगों को घेरा कि बजरंगी ने भी मकान का एक हिस्सा उठा दिया। हाँ, सूरदास ने किसी को नहीं टिकाया।
वह अपने नए मकान में, जो इंदुरानी के गुप्त दान से बना था, सुभागी के साथ रहता था। सुभागी अभी तक भैरों के साथ रहने पर राजी न हुई थी। हाँ, भैरों की आमद-रफ्त अब सूरदास के घर अधिक रहती थी। कारखाने में अभी मशीनें न गड़ी थीं, पर उसका फैलाव दिन-दिन बढ़ता जाता था। सूरदास की बाकी पाँच बीघे जमीन भी उसी धारा के अनुसार मिल के अधिकार में आ गई। सूरदास ने सुना, तो हाथ मलकर रह गया। पछताने लगा कि जॉन साहब ही से क्यों न सौदा कर लिया! पाँच हजार देते थे। अब बहुत मिलेंगे, दो-चार सौ रुपये मिल जाएँगे। अब कोई आंदोलन करना उसे व्यर्थ मालूम होता था। जब पहले ही कुछ न कर सका, तो अबकी क्या कर लूँगा।
पहले ही यह शंका थी, वह पूरी हो गई। दोपहर का समय था। सूरदास एक पेड़ के नीचे बैठा झपकियाँ ले रहा था कि इतने में तहसील के एक चपरासी ने आकर उसे पुकारा और एक सरकारी परवाना दिया। सूरदास समझ गया कि हो-न-हो जमीन ही का कुछ झगड़ा है। परवाना लिए हुए मिल में आया कि किसी बाबू से पढ़वाए। मगर कचहरी की सुबोधा लिपि बाबुओं से क्या चलती! कोई कुछ बता न सका। हारकर लौट रहा था कि प्रभु सेवक ने देख लिया। तुरंत अपने कमरे में बुला लिया और परवाने को देखा। लिखा हुआ था-अपनी जमीन के मुआवजे के 1,000 रुपये तहसील में आकर ले जाओ।
सूरदास-कुल एक हजार है?
प्रभु सेवक-हाँ, इतना ही तो लिखा है।
सूरदास-तो मैं रुपये लेने न जाऊँगा। साहब ने पाँच हजार देने कहे थे, उनके एक हजार रहे, घूस-घास में सौ-पचास और उड़ जाएँगे। सरकार का खजाना खाली है, भर जाएगा।
प्रभु सेवक-रुपये न लोगे, तो जब्त हो जाएँगे। यहाँ तो सरकार इसी ताक में रहती है कि किसी तरह प्रजा का धन उड़ा ले। कुछ टैक्स के बहाने से, कुछ रोजगार के बहाने से, कुछ किसी बहाने से हजम कर लेती है।
सूरदास-गरीबों की चीज है, तो बाजार-भाव से दाम देना चाहिए। एक तो जबरदस्ती जमीन ले ली, उस पर मनमाना दाम दे दिया। यह तो कोई न्याय नहीं है।
प्रभु सेवक-सरकार यहाँ न्याय करने नहीं आई है भाई, राज्य करने आई है। न्याय करने से उसे कुछ मिलता है? कोई समय वह था, जब न्याय को राज्य की बुनियाद समझा जाता था। अब वह जमाना नहीं है। अब व्यापार का राज्य है, और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसके लिए तारों का निशाना मारनेवाली तोपें हैं। तुम क्या कर सकते हो? दीवानी में मुकदमा दायर करोगे, वहाँ भी सरकार ही के नौकर-चाकर न्याय-पद पर बैठे हुए हैं।
सूरदास-मैं कुछ न लूँगा। जब राजा ही अधर्म करने लगा, तो परजा कहाँ तक जान बचाती फिरेगी?

प्रभु सेवक-इससे फायदा क्या? एक हजार मिलते हैं, ले लो; भागते भूत की लँगोटी ही भली। सहसा इंद्रदत्ता आ पहुँचे और बोले-प्रभु, आज डेरा कूच है, राजपूताना जा रहा हूँ।

प्रभु सेवक-व्यर्थ जाते हो। एक तो ऐसी सख्त गरमी, दूसरे वहाँ की दशा अब बड़ी भयानक हो रही है। नाहक कहीं फँस-फँसा जाओगे।
इंद्रदत्ता-बस, एक बार विनयसिंह से मिलना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि उनके स्वभाव, चरित्र, आचार-विचार में इतना परिवर्तन, नहीं रूपांतर कैसे हो गया।
प्रभु सेवक-जरूर कोई-न-कोई रहस्य है। प्रलोभन में पड़नेवाला आदमी तो नहीं है। मैं तो उनका परम भक्त हूँ। अगर वह विचलित हुए, तो मैं समझ जाऊँगा कि धर्मनिष्ठा का संसार से लोप हो गया।
इंद्रदत्ता-यह न कहो प्रभु, मानव-चरित्र बहुत ही दुर्बोध वस्तु है। मुझे तो विनय की काया-पलट पर इतना क्रोध आता है कि पाऊँ, तो गोली मार दूँ। हाँ, संतोष इतना ही है कि उनके निकल जाने से इस संस्था पर कोई असर नहीं पड़ सकता। तुम्हें तो मालूम है, हम लोगों ने बंगाल में प्राणियों के उध्दार के लिए कितना भगीरथ प्रयत्न किया। कई-कई दिन तक तो हम लोगों को दाना तक न मयस्सर होता था। सूरदास-भैया, कौन लोग इस भाँति गरीबों का पालन करते हैं?
इंद्रदत्ता-अरे सूरदास! तुम यहाँ कोने में खड़े हो! मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं। कहो, सब कुशल है न? सूरदास-सब भगवान् की दया है। तुम अभी किन लोगों की बात कर रहे थे?
इंद्रदत्ता-अपने ही साथियों की। कुँवर भरतसिंह ने कुछ जवान आदमियों को संगठित करके एक संगत बना दी है, उसके खर्च के लिए थोड़ी-सी जमीन भी दान कर दी है। आजकल हम लोग कई सौ आदमी हैं। देश की यथाशक्ति सेवा करना ही हमारा परम धर्म और व्रत है। इस वक्त हममें से कुछ लोग तो राजपूताना गए हुए हैं और कुछ लोग पंजाब गए हुए हैं, जहाँ सरकारी फौज ने प्रजा पर गोलियाँ चला दी हैं।
सूरदास-भैया, यह तो बड़े पुन्न का काम है। ऐसे महात्मा लोगों के तो दरसन करने चाहिए। तो भैया, तुम लोग चंदे भी उगाहते होगे?
इंद्रदत्ता-हाँ, जिसकी इच्छा होती है, चंदा भी दे देता है; लेकिन हम लोग खुद नहीं माँगते फिरते। सूरदास-मैं आप लोगों के साथ चलूँ, तो आप मुझे रखेंगे? यहाँ पड़े-पड़े अपना पेट पालता हूँ, आपके साथ रहूँगा, तो आदमी हो जाऊँगा।
इंद्रदत्ता ने प्रभु सेवक से अंगरेजी में कहा-कितना भोला आदमी है। सेवा और त्याग की सदेह मूर्ति होने पर भी गरूर छू तक नहीं गया, अपने सत्कार्य का कुछ मूल्य नहीं समझता। परोपकार इसके लिए कोई इच्छित कर्म नहीं रहा, इसके चरित्र में मिल गया है।
सूरदास ने फिर कहा-और कुछ तो न कर सकूँगा, अपढ़, गँवार ठहरा, हाँ, जिसके सरहाने बैठा दीजिएगा, पंखा झलता रहूँगा, पीठ पर जो कुछ लाद दीजिएगा, लिए फिरूँगा।
इंद्रदत्ता-तुम सामान्य रीति से जो कुछ करते हो, वह उससे कहीं बढ़कर है, जो हम लोग कभी-कभी विशेष अवसरों पर करते हैं। दुश्मन के साथ नेकी करना रोगियों की सेवा से छोटा काम नहीं है। सूरदास का मुख-मंडल खिल उठा, जैसे किसी कवि ने किसी रसिक से दाद पाई हो। बोला-भैया, हमारी क्या बात चलाते हो? जो आदमी पेट पालने के लिए भीख माँगेगा, वह पुन्न-धरम क्या करेगा! बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ। छोटा मुँह बड़ी बात है; लेकिन आपका हुकुम हो, तो मुझे मावजे के जो रुपये मिले हैं, उन्हें आपकी संगत की भेंट कर दूँ।
इंद्रदत्ता-कैसे रुपये?
प्रभु सेवक-इसकी कथा बड़ी लम्बी है। बस, इतना ही समझ लो कि पापा ने राजा महेंद्रकुमार की सहायता से इसकी जो जमीन ले ली थी, उसका एक हजार रुपया इसे मुआवजा दिया गया है। यह मिल उसी लूट के माल पर बन रही है।
इंद्रदत्ता-तुमने अपने पापा को मना नहीं किया?
प्रभु सेवक-खुदा की कसम, मैं और सोफी, दोनों ही ने पापा को बहुत रोका, पर तुम उनकी आदत जानते ही हो, कोई धुन सवार हो जाती है, तो किसी की नहीं सुनते।
इंद्रदत्ता-मैं तो अपने बाप से लड़ जाता, मिल बनती या भाड़ में जाती! ऐसी दशा में तुम्हारा कम-से-कम यह कर्तव्य था कि मिल से बिलकुल अलग रहते। बाप की आज्ञा मानना पुत्र का धर्म है, यह मानता हूँ; लेकिन जब बाप अन्याय करने लगे, तो लड़का उसका अनुगामी बनने के लिए बाधय नहीं। तुम्हारी रचनाओं में तो एक-एक शब्द से नैतिक विकास टपकता है, ऐसी उड़ान भरते हो कि हरिश्चंद्र और हुसैन भी मात हो जाएँ; मगर मालूम होता है, तुम्हारी समस्त शक्ति शब्द योजना ही में उड़ जाती है, क्रियाशीलता के लिए कुछ बाकी नहीं बचता यथार्थ तो यह है कि तुम अपनी रचनाओं की गर्द को भी नहीं पहुँचते। बस, जबान के शेर हो। सूरदास, हम लोग तुम-जैसे गरीबों से चंदा नहीं लेते। हमारे दाता धनी लोग हैं।
सूरदास-भैया; तुम न लोगे, तो कोई चोर ले जाएगा। मेरे पास रुपयों का काम ही क्या है। तुम्हारी दया से पेट-भर अन्न मिल ही जाता है, रहने के लिए झोंपड़ी बन ही गई है, और क्या चाहिए। किसी अच्छे काम में लग जाना इससे कहीं अच्छा है कि चोर उठा ले जाएँ। मेरे ऊपर इतनी दया करो।
इंद्रदत्ता-अगर देना ही चाहते हो, तो कोई कुआँ खुदवा दो। बहुत दिनों तक तुम्हारा नाम रहेगा।
सूरदास-भैया, मुझे नाम की भूख नहीं। बहाने मत करो, ये रुपये लेकर अपनी संगत में दे दो। मेरे सिर से बोझ टल जाएगा।
प्रभु सेवक-(अंग्रेजी में) मित्र, इसके रुपये ले लो, नहीं तो इसे चैन न आएगा। इस दयाशीलता को देवोपम कहना उसका अपमान करना है। मेरी तो कल्पना भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकती। ऐसे-ऐसे मनुष्य भी संसार में पड़े हुए हैं। एक हम हैं कि अपने भरे हुए थाल में से एक टुकड़ा उठाकर फेंक देते हैं, तो दूसरे दिन पत्र में अपना नाम देखने को दौड़ते हैं। सम्पादक अगर उस समाचार को मोटे अक्षरों में प्रकाशित न करे, तो उसे गोली मार दें। पवित्र आत्मा है!
इंद्रदत्ता-सूरदास, अगर तुम्हारी यही इच्छा है, तो मैं रुपये ले लूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि तुम्हें जब कोई जरूरत हो, हमें तुरंत सूचना देना। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि शीघ्र ही तुम्हारी कुटी भक्तों का तीर्थ बन जाएगी, और लोग तुम्हारे दर्शनों को आया करेंगे।
सूरदास-तो मैं आज रुपये लाऊँगा।
इंद्रदत्ता-अकेले न जाना, नहीं तो कचहरी के कुत्तो तुम्हें बहुत दिक करेंगे। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।
सूरदास-अब एक अर्ज आपसे भी है साहब! आप पुतलीघर के मजूरों के लिए घर क्यों नहीं बनवा देते? वे सारी बस्ती में फैले हुए हैं और रोज ऊधम मचाते रहते हैं। हमारे मुहल्ले में किसी ने औरत को नहीं छेड़ा था, न कभी इतनी चोरियाँ हुईं, न कभी इतने धड़ल्ले से जुआ हुआ, न शराबियों का ऐसा हुल्लड़ रहा। जब तक मजदूर लोग वहाँ काम पर नहीं आ जाते, औरतें घरों से पानी भरने नहीं निकलतीं। रात को इतना हुल्लड़ होता है कि नींद नहीं आती। किसी को समझाने जाओ, तो लड़ने पर उतारू हो जाता है। यह कहकर सूरदास चुप हो गया और सोचने लगा, मैंने बात बहुत बढ़ाकर तो नहीं कही!
इंद्रदत्ता ने प्रभु सेवक को तिरस्कारपूर्ण लोचनों से देखकर कहा-भाई, यह तो अच्छी बात नहीं। अपने पापा से कहो, इसका जल्दी प्रबंध करें। न जाने, तुम्हारे वे सब सिध्दांत क्या हो गए। बैठे-बैठे यह सारा माजरा देख रहे हो, और कुछ करते-धरते नहीं।
प्रभु सेवक-मुझे तो सिरे से इस काम से घृणा है, मैं न इसे पसंद करता हूँ और न इसके योग्य हूँ। मेरे जीवन का सुख-स्वर्ग तो यही है कि किसी पहाड़ी के दामन में एक जलधारा के तट पर, छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर पड़ा रहूँ। न लोक की चिंता हो, न परलोक की। न अपने नाम को कोई रोनेवाला हो, न हँसनेवाला। यही मेरे जीवन का उच्चतम आदर्श है। पर इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जिस संयम और उद्योग की जरूरत है, उससे वंचित हूँ। खैर, सच्ची बात तो यह है कि इस तरफ मेरा धयान ही नहीं गया। मेरा तो यहाँ आना न आना दोनों बराबर हैं। केवल पापा के लिहाज से चला आता हूँ। अधिकांश समय यही सोचने में काटता हूँ कि क्योंकर इस कैद से रिहाई पाऊँ। आज ही पापा से कहूँगा।
इंद्रदत्ता-हाँ, आज ही कहना। तुम्हें संकोच हो, तो मैं कह दूँ?
प्रभु सेवक-नहीं जी, इसमें क्या संकोच है। इससे तो मेरा रंग और जम जाएगा। पापा को खयाल होगा, अब इसका मन लगने लगा, कुछ इसने कहा तो! उन्हें तो मुझसे यही रोना है कि मैं किसी बात में बोलता ही नहीं।
इंद्रदत्ता यहाँ से चले तो सूरदास बहुत दूर तक उनके साथ सेवा-समिति की बातें पूछता हुआ चला आया। जब इंद्रदत्ता ने बहुत आग्रह किया, तो लौटा। इंद्रदत्ता वहीं सड़क पर खड़ा उस दुर्बल, दीन प्राणी को हवा के झोंके से लड़खड़ाते वृक्षों की छाँह में विलीन होते देखता रहा। शायद यह निश्चय करना चाहता था कि वह कोई देवता है या मनुष्य!

रंगभूमि अध्याय 34

प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाएँ। मैं प्रबंधकारिणी समिति के सामने इस प्रस्ताव को रख्रूगा। कुलियों के लिए अलग-अलग मकान बनवाने की जरूरत नहीं। लम्बे-लम्बे बैरक बनवा दिए जाएँ, ताकि एक-एक कमरे में 10-12 मजदूर रह सकें।
प्रभु सेवक-लेकिन बहुत-से कुली ऐसे भी तो होंगे, जो बाल-बच्चों के साथ रहना चाहेंगे?
मिसेज सेवक-कुलियों के बाल-बच्चों को वहाँ जगह दी जाएगी तो एक शहर आबाद हो जाएगा। तुम्हें उनसे काम लेना है कि उन्हें बसाना है! जैसे फौज के सिपाही रहते हैं, उसी तरह कुली भी रहेंगे। हाँ, एक छोटा-सा चर्च जरूर होना चाहिए। पादरी के लिए एक मकान भी होना जरूरी है।
ईश्वर सेवक-खुदा तुझे सलामत रखे बेटी, तेरी यह राय मुझे बहुत पसंद आई। कुलियों के लिए धार्मिक भोजन शारीरिक भोजन से कम आवश्यक नहीं। प्रभु मसीह, मुझे अपने दामन में छिपा। कितना सुंदर प्रस्ताव है! चित्त प्रसन्न हो गया। वह दिन कब आएगा, जब कुलियों के हृदय मसीह के उपदेशों से तृप्त हो जाएँगे।
जॉन सेवक-लेकिन यह तो विचार कीजिए कि मैं यह साम्प्रदायिक प्रस्ताव समिति के सम्मुख कैसे रख सकूँगा? मैं अकेला तो सब कुछ हूँ नहीं। अन्य मेम्बरों ने विरोध किया, तो उन्हें क्या जवाब दूँगा? मेरे सिवा समिति में और कोई क्रिश्चियन नहीं है। नहीं, मैं इस प्रस्ताव को कदापि समिति के सामने न रख्रूगा। आप स्वयं समझ सकते हैं कि इस प्रस्ताव में कितना धार्मिक पक्षपात भरा हुआ है!
मिसेज सेवक-जब कोई धार्मिक प्रश्न आता है, तो तुम उसमें खामख्वाह मीन-मेख निकालने लगते हो! हिंदू-कुली तो तुरंत किसी वृक्ष के नीचे दो-चार ईंट-पत्थर रखकर जल चढ़ाना शुरू कर देंगे, मुसलमान लोग भी खुले मैदान में नमाज पढ़ लेंगे, तो फिर चर्च से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है!
ईश्वर सेवक-प्रभु मसीह, मुझ पर अपनी दया-दृष्टि कर। बाइबिल के उपदेश प्राणिमात्र के लिए शांतिप्रिय हैं। उनके प्रचार में किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता और अगर एतराज हो भी, तो तुम इस दलील से उसे रद्द कर सकते हो कि राजा का धर्म भी राजा है। आखिर सरकार ने धर्म-प्रचार का विभाग खोला है, तो कौन एतराज करता है, और करे भी कौन उसे सुनता है? मैं आज ही इस विषय को चर्च में पेश करूँगा और अधिकारियों को मजबूर करूँगा कि वे कम्पनी पर अपना दबाव डालें। मगर यह तुम्हारा काम है, मेरा नहीं; तुम्हें खुद इन बातों का खयाल होना चाहिए। न हुए मि. क्लार्क इस वक्त!
मिसेज सेवक-वह होते, तो कोई दिक्कत ही न होती।
जॉन सेवक-मेरी समझ में नहीं आता कि मैं इस तजवीज को कैसे पेश करूँगा। अगर कम्पनी कोई मंदिर या मस्जिद बनवाने का निश्चय करती, तो मैं भी चर्च बनवाने पर जोर देता। लेकिन जब तक और लोग अग्रसर न हों, मैं कुछ नहीं कर सकता और न करना उचित ही समझता हूँ।
ईश्वर सेवक-हम औरों के पीछे-पीछे क्यों चलें? हमारे हाथों में दीपक है, कंधो पर लाठी है, कमर में तलवार है, पैरों में शक्ति है, हम क्यों आगे न चलें? क्यों दूसरों का मुँह देखें? मि. जॉन सेवक ने पिता से और ज्यादा तर्क-वितर्क करना व्यर्थ समझा। भोजन के पश्चात् वह आधी रात तक प्रभु सेवक के साथ बैठे हुए भिन्न-भिन्न रूप से नक्शे बनाते-बिगाड़ते रहे-किधर की जमीन ली जाए, कितनी जमीन काफी होगी, कितना व्यय होगा, कितने मकान बनेंगे।

प्रभु सेवक हाँ-हाँ करता जाता था। इन बातों में मन न लगता था। कभी समाचार-पत्र देखने लगता, कभी कोई किताब उलटने-पलटने लगता, कभी उठकर बरामदे में चला जाता। लेकिन धुन सूक्ष्मदर्शी नहीं होती। व्याख्याता अपनी वाणी के प्रवाह में यह कब देखता है कि श्रोताओं में कितनी की आँखें खुली हुई हैं। प्रभु सेवक को इस समय एक नया शीर्षक सूझा था और उस पर अपने रचना-कौशल की छटा दिखाने के लिए वह अधीर हो रहा था। नई-नई उपमाएँ, नई-नई सूक्तियाँ किसी जलधारा में बहकर आनेवाले जल के सदृश उसके मस्तिष्क में दौड़ती चली आती थीं और वह उसका संचय करने के लिए उकता रहा था; क्योंकि एक बार आकर, एक बार अपनी झलक दिखाकर, वे सदैव के लिए विलुप्त हो जाती है। बारह बजे तक इसी संकट में पड़ा रहा। न बैठते बनता था, न उठते। यहाँ तक कि उसे झपकियाँ आने लगीं। जॉन सेवक ने भी अब विश्राम करना उचित समझा। लेकिन जब प्रभु सेवक पलंग पर गया, तो निद्रा देवी रूठ चुकी थीं। कुछ देर तक तो उसने देवी को मनाने का प्रयत्न किया, फिर दीपक के सामने बैठकर उसी विषय पर पद्य-रचना करने लगा। एक क्षण में वह किसी दूसरे ही जगत् में था। वह ग्रामीणों की भाँति सराफे में पहुँचकर उसकी चमक-दमक पर लट्टई न हो जाता था। यद्यपि उस जगत् की प्रत्येक वस्तु रसमयी, सुरभित, नेत्र-मधुर, मनोहर मालूम होती थी, पर कितनी ही वस्तुओं को धयान से देखने पर ज्ञात होता था कि उन पर केवल सुनहरा आवरण चढ़ा है; वास्तव में वे या तो पुरानी हैं, अथवा कृत्रिाम! हाँ, जब उसे वास्तव में कोई नया रत्न मिल जाता था, तो उसकी मुखश्री प्रज्वलित हो जाती थी! रचयिता अपनी रचना का सबसे चतुर पारखी होता है। प्रभु सेवक की कल्पना कभी इतनी ऊँची न उड़ी थी। एक-एक पद्य लिखकर वह उसे स्वर में पढ़ता और झूमता। जब कविता समाप्त हो गई, तो वह सोचने लगा-देखूँ, इसका कवि-समाज कितना आदर करता है। सम्पादकों की प्रशंसा का तो कोई मूल्य नहीं। उनमें बहुत कम ऐसे हैं, जो कविता के मर्मज्ञ हों। किसी नए, अपरिचित कवि की सुंदर-से-सुंदर कविता स्वीकार न करेंगे, पुराने कवियों की सड़ी-गली, खोगीर की भरती, सब कुछ शिरोधार्य कर लेंगे। कवि मर्मज्ञ होते हुए भी कृपण होते हैं। छोटे-मोटे तुकबंदी करनेवालों की तारीफ भले ही कर दें; लेकिन जिसे अपना प्रतिद्वंद्वी समझते हैं, उसके नाम से कानों पर हाथ रख लेते हैं। कुँवर साहब तो जरूर फड़क जाएँगे। काश, विनय यहाँ होते, तो मेरी कलम चूम लेते। कल कुँवर साहब से कहूँगा कि मेरा संग्रह प्रकाशित करा दीजिए। नवीन युग के कवियों में तो किसी का मुझसे टक्कर लेने का दावा हो नहीं सकता, और पुराने ढंग के कवियों से मेरा कोई मुकाबला नहीं। मेरे और उनके क्षेत्र अलग हैं। उनके यहाँ भाषा-लालित्य है, पिंगल की कोई भूल नहीं, खोजने पर भी कोई दोष न मिलेगा, लेकिन उपज का नाम नहीं, मौलिकता का निशान नहीं, वही चबाए हुए कौर चबाते हैं, विचारोत्कर्ष का पता नहीं होता। दस-बीस पद्य पढ़ जाओ तो कहीं एक बात मिलती है, यहाँ तक कि उपमाएँ भी वही पुरानी-धुरानी, जो प्राचीन कवियों ने बाँध रखी हैं। मेरी भाषा इतनी मँजी हुई न हो, लेकिन भरती के लिए मैंने एक पंक्ति भी नहीं लिखी। फायदा ही क्या?

प्रात:काल वह मुँह-हाथ धो, कविता जेब में रख, बिना जलपान किए घर से चला, तो जॉन सेवक ने पूछा-क्या जलपान न करोगे? इतने सबेरे कहाँ जाते हो?
प्रभु सेवक ने रुखाई से उत्तार दिया-जरा कुँवर साहब की तरफ जाता हूँ।
जॉन सेवक-तो उनसे कल के प्रस्ताव के सम्बंध में बातचीत करना। अगर वह सहमत हो जाएँ, तो फिर किसी को विरोध करने का साहस न होगा।
मिसेज सेवक-वही चर्च के विषय में न?
जॉन सेवक-अभी नहीं, तुम्हें अपने चर्च ही की पड़ी हुई है। मैंने निश्चय किया है कि पाँड़ेपुर की बस्ती खाली करा ली जाए और वहीं कुलियों के मकान बनवाए जाएँ। उससे अच्छी वहाँ कोई दूसरी जगह नहीं नजर आती।
प्रभु सेवक-रात को आपने उस बस्ती को लेने की चर्चा तो न की थी!
जॉन सेवक-नहीं, आओ जरा यह नक्शा देखो। बस्ती के बाहर किसी तरफ काफी काफी जमीन नहीं है। एक तरफ सरकारी पागलखाना है, तो दूसरी रायसाहब का बाग, तीसरी तरफ हमारी मिल। बस्ती के सिवा और जगह ही कहाँ है? और, बस्ती है ही कौन-सी बड़ी! मुश्किल से 15-20 या अधिक से अधिक 30 घर होंगे। उनका मुआवजा देकर जमीन लेने की क्यों न कोशिश की जाए?
प्रभु सेवक-अगर बस्ती को उजाड़कर मजदूरों के लिए मकान बनवाने हैं, तो रहने ही दीजिए, किसी-न-किसी तरह गुजर तो हो ही रहा है। अगर ऐसी बस्तियों की रक्षा का विचार किया होता, तो आज यहाँ एक बंगला भी नजर न आता। ये बँगले ऊसर में नहीं बने हैं।
प्रभु सेवक-मुझे ऐसे बँगले से झोंपड़ी ही पसंद है, जिसके लिए कई गरीबों के घर गिराने पड़ें। मैं कुँवर साहब से इस विषय में कुछ न कहूँगा। आप खुद कहिएगा।
जॉन सेवक-यह तुम्हारी अकर्मण्यता है। इसे संतोष और दया कहकर तुम्हें धोखे में न डालँगा। तुम जीवन की सुख-सामग्रियाँ तो चाहते हो, लेकिन उन सामग्रियों के लिए जिन साधनों की जरूरत है, उनसे दूर भागते हो। हमने तुम्हें क्रियात्मक रूप से कभी धन और विभव से घृणा करते नहीं देखा। तुम अच्छे से अच्छा मकान, अच्छे से अच्छा भोजन, अच्छे से अच्छे वस्त्र चाहते हो, लेकिन बिना हाथ-पैर हिलाए ही चाहते हो कि कोई तुम्हारे मुँह में शहद और शर्बत टपका दे।
प्रभु सेवक-रस्म-रिवाज से विवश होकर मनुष्य को बहुधा अपनी आत्मा के विरुध्द आचरण करना पड़ता है।
जॉन सेवक-जब सुख-भोग के लिए तुम रस्म-रिवाज से विवश हो जाते हो, तो सुख-भोग के साधनों के लिए क्यों उन्हीं प्रथाओें से विवश नहीं होते! तुम मन और वचन से वर्तमान सामाजिक प्रणाली की कितनी ही उपेक्षा क्यों न करो, मुझे जरा भी आपत्तिा न होगी। तुम इस विषय पर व्याख्यान दो, कविताएँ लिखो, निबंध रचो, मैं खुश होकर उन्हें पढ़ईँगा औैर तुम्हारी प्रशंसा करूँगा; लेकिन कर्मक्षेत्र में आकर उन भावों को उसी भाँति भूल जाओ, जैसे अच्छे-से-अच्छे सूट पहनकर मोटर पर सैर करते समय तुम त्याग, संतोष और आत्मनिग्रह को भूल जाते हो।
प्रभु सेवक और कितने ही विलास-भोगियों की भाँति सिध्दांत-रूप से जनवाद के कायल थे। जिन परिस्थितियों में उनका लालन-पालन हुआ था, जिन संस्कारों से उनका मानसिक और आत्मिक विकास हुआ था, उनसे मुक्त हो जाने के लिए जिस नैतिक साहस की, उद्दंडता की जरूरत है, उससे वह रहित थे। वह विचार-क्षेत्र में त्याग के भावों को स्थान देकर प्रसन्न होते थे और उन पर गर्व करते थे। उन्हें शायद कभी सूझा ही न था कि इन भावों को व्यवहार रूप में भी लाया जा सकता है। वह इतने संयमशील न थे कि अपनी विलासिता को उन भावों पर बलिदान कर देते। साम्यवाद उनके लिए मनोरंजन का एक विषय था, और बस। आज तक कभी किसी ने उनके आचरण की आलोचना न की थी, किसी ने उनको व्यंग्य का निशाना न बनाया था, और मित्रों पर अपने विचार-स्वातंत्रय की धाक जमाने के लिए उनके विचार काफी थे। कुँवर भरतसिंह के संयम और विराग का उन पर इसलिए असर न होता था कि वह उन्हें उच्चतर श्रेणी के मनुष्य समझते थे। अशर्फियों की थैली मखमल की हो या खद्दर की, अधिक अंतर नहीं।

पिता के मुख से वह व्यंग्य सुनकर ऐसे तिलमिला उठे, मानो चाबुक पड़ गया हो। आग चाहे फूस को न जला सके, लोहे की कील मिट्टी में चाहे न समा सके, काँच चाहे पत्थर की चोट से न टूट सके, व्यंग्य विरले ही कभी हृदय को प्रज्वलित करने, उसमें चुभने और उसे चोट पहुँचाने में असफल होता है, विशेष करके जब वह उस प्राणी के मुख से निकले, जो हमारे जीवन को बना या बिगाड़ सकता है। प्रभु सेवक को मानो काली नागिन ने डस लिया, जिसके काटे को लहर भी नहीं आती। उनकी सोई हुई लज्जा जाग उठी। अपनी अधोगति का ज्ञान हुआ। कुँवर साहब के यहाँ जाने को तैयार थे, गाड़ी तैयार कराई थी; पर वहाँ न गए। आकर अपने कमरे में बैठ गए। उनकी आँखें भर आईं, इस वजह से नहीं कि मैं इतने दिनों तक भ्रम में पड़ा रहा, बल्कि इस खयाल से कि पिताजी को मेरा पालन-पोषण अखरता है-यह लताड़ पाकर मेरे लिए डूब मरने की बात होगी, अगर मैं उनका आश्रित बना रहूँ। मुझे स्वयं अपनी जीविका का प्रश्न हल करना चाहिए। इन्हें क्या मालूम नहीं था कि मैं प्रथाओं से विवश होकर ही इस विलास-वासना में पड़ा हुआ हूँ? ऐसी दशा में इनका मुझे ताना देना घोर अन्याय है। इतने दिनों तक कृत्रिम जीवन व्यतीत करके अब मेरे लिए अपना रूपांतर कर लेना असम्भव है। यही क्या कम है कि मेरे मन में ये विचार पैदा हुए। इन विचारों के रहते हुए कम-से-कम मैं औरों की भाँति स्वार्थांध और धन-लोलुप तो नहीं हो सकता। लेकिन मैं व्यर्थ इतना खेद कर रहा हूँ। मुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि पापा ने वह काम कर दिया, जो सिध्दांत और विचार से न हुआ था। अब मुझे उनसे कुछ कहने-सुनने की जरूरत नहीं। उन्हें शायद मेरे जाने से दु:ख भी न होगा। उन्हें खूब मालूम हो गया कि मेरी जात से उनकी धन-तृष्णा तृप्त नहीं हो सकती। आज यहाँ से डेरा कूच है, यही निश्चय है। चलकर कुँवर साहब से कहता हूँ, मुझे भी स्वयं-सेवकों में ले लीजिए। कुछ दिनों उस जीवन का आनंद भी उठाऊँ। देखूँ, मुझमें और भी कोई योग्यता है, या केवल पद्य-रचना ही कर सकता हूँ। अब गिरिशृंगों की सैर करूँगा, देहातों में घूमूँगा, प्राकृतिक सौंदर्य की उपासना करूँगा, नित्य नया दाना, नया पानी, नई सैर, नए दृश्य। इससे ज्यादा आनंदप्रद और कौन जीवन हो सकता है! कष्ट भी होंगे। धूप है, वर्षा है, सरदी है, भयंकर जंतु हैं; पर कष्टों से मैं कभी भयभीत नहीं हुआ। उलझन तो मुझे गृहस्थी के झंझटों से होती है। यहाँ कितने अपमान सहने पड़ते हैं! रोटियों के लिए दूसरों की गुलामी! अपनी इच्छाओं को पराधीन बना देना! नौकर अपने स्वामी को देखकर कैसा दबक जाता है, उसके मुख-मंडल पर कितनी दीनता, कितना भय छा जाता है! न, मैं अपनी स्वतंत्रता की अब से ज्यादा इज्जत करना सीखूँगा। दोपहर को जब घर के सब प्राणी पंखों के नीचे आराम से सोए, तो प्रभु सेवक ने चुपके से निकलकर कुँवर साहब के भवन का रास्ता लिया। पहले तो जी में आया कि कपड़े उतार दूँ और केवल एक कुरता पहनकर चला जाऊँ। पर इन फटे हालों घर से कभी न निकला था। वस्त्र-परिवर्तन के लिए कदाचित् विचार-परिवर्तन से भी अधिक नैतिक बल की जरूरत होती है। उसने केवल अपनी कविताओं की कापी ले ली और चल खड़ा हुआ। उसे जरा भी खेद न था, जरा भी ग्लानि न थी। ऐसा खुश था, मानो कैद से छूटा है-आप लोगों को अपनी दौलत मुबारक हो। पापा ने मुझे बिलकुल निर्लज्ज, आत्मसम्मानहीन, विलास-लोलुप समझ रखा है, तभी तो जरा-सी बात पर उबल पड़े। अब उन्हें मालूम हो जाएगा कि मैं बिलकुल मुर्दा नहीं हूँ।

कुँवर साहब दोपहर को सोने के आदी नहीं थे। फर्श पर लेटे कुछ सोच रहे थे। प्रभु सेवक जाकर बैठ गए। कुँवर साहब ने कुछ न पूछा, कैसे आए, क्यों उदास हो? आधा घंटे तक बैठे रहने के बाद भी प्रभु सेवक को उनसे अपने विषय में कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। कोई भूमिका ही न सूझती। यह महाशय आज गुम-सुम क्यों हैं? क्या मेरी सूरत से ताड़ तो नहीं गए कि कुछ स्वार्थ लेकर आया है? यों तो मुझे देखते ही खिल उठते थे, दौड़कर छाती से लगा लेते थे, आज मुखातिब ही नहीं होते। पर-मुखापेक्षी होने का यही दंड है। मैं भी घर से चला, तो ठीक दोपहर को, जब चिड़ियाँ तक घोंसले से नहीं निकलतीं। आना ही था, तो शाम को आता। इस जलती हुई धूप में कोई गरज का बावला ही घर से निकल सकता है। खैर, यह पहला अनुभव है।
वह निराश होकर चलने के लिए उठे तो भरतसिंह बोले-क्यों-क्यों, जल्दी क्या है? या इसीलिए कि मैंने बातें नहीं कीं? बातों की कमी नहीं है; इतनी बातें तुमसे करनी हैं कि समझ में नहीं आता, शुरू क्यों कर करूँ! तुम्हारे विचार में विनय ने रियासत का पक्ष लेने में भूल की? प्रभु सेवक ने द्विधा में पड़कर कहा-इस पर भिन्न-भिन्न पहलुओं से विचार किया जा सकता है।
कुँवर-इसका आशय यह है कि बुरा किया। उसकी माता का भी यही विचार है। वह तो इतनी चिढ़ी हुई हैं कि उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहतीं। लेकिन मेरा विचार है कि उसने जिस नीति का अनुसरण किया है, उस पर उसे लज्जित होने का कोई कारण नहीं। कदाचित् उन दशाओं में मैं भी यही करता। सोफी से उसे प्रेम न होता, तो भी उस अवसर पर जनता ने जो विद्रोह किया, वह उसके साम्यवाद के सिध्दांतों को हिला देने को काफी था। पर जब यह सिध्द है कि सोफिया का अनुराग उसके रोम-रोम में समाया है, तो उसका आचरण क्षम्य ही नहीं, सर्वथा स्तुत्य है। वह धर्म केवल जत्थेबंदी है, जहाँ अपनी बिरादरी से बाहर विवाह करना वर्जित हो, क्योंकि इससे उसकी क्षति होने का भय है। धर्म और ज्ञान दोनों एक हैं और इस दृष्टि से संसार में केवल एक धर्म है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, बौध्द धर्म ये नहीं हैं, भिन्न-भिन्न स्वार्थों के दल हैं, जिनसे हानि के सिवा आज तक किसी को लाभ नहीं हुआ। अगर विनय इतना भाग्यवान हो कि सोफिया को विवाह-सूत्र में बाँध सके, तो कम-से-कम मुझे जरा भी आपत्तिा न होगी।
प्रभु सेवक-मगर आप जानते हैं, इस विषय में रानीजी को जितना दुराग्रह है, उतना ही मामा को भी है।
कुँवर-इसका फल यह होगा कि दोनों का जीवन नष्ट हो जाएगा। ये दोनों अमूल्य रत्न धर्म के हाथों मिट्टी में मिल जाएँगे।
प्रभु सेवक-मैं तो खुद इन झगड़ों से इतना तंग आ गया हूँ कि मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है, घर से अलग हो जाऊँ। घर के साम्प्रदायिक जलवायु और सामाजिक बंधनों से मेरी आत्मा दुर्बल हुई जा रही है। घर से निकल जाने के सिवा मुझे और कुछ नहीं सूझता। मुझे व्यवसाय से पहले ही बहुत प्रेम न था, और अब, इतने दिनों के अनुभव के बाद तो मुझे उससे घृणा हो गई है।
कुँवर-लेकिन व्यवसाय तो नई सभ्यता का सबसे बड़ा अंग है, तुम्हें उससे क्या इतनी अरुचि है?
प्रभु सेवक-इसलिए कि यहाँ सफलता प्राप्त करने के लिए जितनी स्वार्थपरता और नर-हत्या की जरूरत है, वह मुझसे नहीं हो सकती। मुझमें उतना उत्साह ही नहीं है। मैं स्वभावत: एकांतप्रिय हूँ और जीवन-संग्राम में उससे अधिक नहीं पड़ना चाहता जितना मेरी कला के पूर्ण विकास और उसमें यथार्थता का समोवश करने के लिए काफी हो। कवि प्राय: एकांतसेवी हुआ किए हैं, पर इससे उनकी कवित्व-कला में कोई दूषण नहीं आने पाया। सम्भव था, वे जीवन का विस्तृत और पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करके अपनी कविता को और भी मार्मिक बना सकते, लेकिन साथ ही यह शंका भी थी कि जीवन-संग्राम में प्रवृत्ता होने से उनकी कवि-कल्पना शिथिल हो जाती। होमर अंधा था, सूर भी अंधा था, मिल्टन भी अंधा था, पर ये सभी साहित्य-गगन के उज्ज्वल नक्षत्र हैं; तुलसी, वाल्मीकि आदि महाकवि संसार से अलग, कुटियों में बसनेवाले प्राणी थे; पर कौन कह सकता है कि उनकी एकांतसेवा से उनकी कवित्व-कला दूषित हो गई! नहीं कह सकता कि भविष्य में मेरे विचार क्या होंगे, पर इस समय द्रव्योपासना से बेजार हो रहा हूँ।
कुँवर-तुम तो इतने विरक्त कभी न थे, आखिर बात क्या है?
प्रभु सेवक ने झेंपते हुए कहा-अब तक जीवन के कुटिल रहस्यों को न जानता था। पर अब देख रहा हूँ कि वास्तविक दशा उससे कहीं जटिल है, जितनी मैं समझता था। व्यवसाय कुछ नहीं है, अगर नर-हत्या नहीं है। आदि से अंत तक मनुष्यों को पशु समझना और उनसे पशुवत् व्यवहार करना इसका मूल सिध्दांत है। जो यह नहीं कर सकता, वह सफल व्यवसायी नहीं हो सकता। कारखाना अभी बनकर तैयार नहीं हुआ, और भूमि-विस्तार की समस्या उपस्थित हो गई। मिस्त्रिायों और कारीगरों के लिए बस्ती में रहने की जगह नहीं है। मजदूरों की संख्या बढ़ेगी, तब वहाँ निर्वाह ही न हो सकेगा। इसलिए पापा की राय है कि उसी कानूनी दफा के अनुसार पाँड़ेपुर पर भी अधिकार कर लिया जाए और वाशिंदों को मुआवजा देकर अलग कर दिया जाए। राजा महेंद्रकुमार की पापा से मित्रता है ही और वर्तमान जिलाधीश मि. सेनापति रईसों से उतना ही मेल-जोल रखते हैं जितना मि. क्लार्क उनसे दूर रहते थे। पापा का प्रस्ताव बिना किसी कठिनाई के स्वीकृत हो जाएगा और मुहल्लेवाले जबरदस्ती निकाल दिए जाएँगे। मुझसे यह अत्याचार नहीं देखा जाता। मैं इसे रोक नहीं सकता हूँ कि उससे अलग रहूँ।
कुँवर-तुम्हारे विचार में कम्पनी को नफा होगा?
प्रभु सेवक-मैं समझता हूँ, पहले ही साल 25 रुपये सैकड़े नफा होगा।
कुँवर-तो क्या तुमने कारखाने से अलग होने का निश्चय कर लिया?
प्रभु सेवक-पक्का निश्चय कर लिया।
कुँवर-तुम्हारे पापा काम सँभाल सकेंगे?
प्रभु सेवक-पापा ऐसे आधे दर्जन कारखानों को सँभाल सकते हैं। उनमें अद्भुत अधयवसाय है। जमीन का प्रस्ताव बहुत जल्दी कार्यकारिणी समिति के सामने आएगा। मेरी आपसे यह विनीत प्रार्थना है कि आप उसे स्वीकृत न होने दें।
कुँवर-(मुस्कराकर) बुङ्ढा आदमी इतनी आसानी से नई शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता। बूढ़ा तोता पढ़ना नहीं सीखता। मुझे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं नजर आती कि बस्तीवालों का मुआवजा देकर जमीन ले ली जाए। हाँ, मुआवजा उचित होना चाहिए। जब तुम कारखाने से अलग ही हो रहे हो, तो तुम्हें इन झगड़ों से क्या मतलब? ये तो दुनिया के धंधे हैं, होते आए हैं और होते जाएँगे।
प्रभु सेवक-तो आप इस प्रस्ताव का विरोध न करेंगे?
कुँवर-मैं किसी ऐसे प्रस्ताव का विरोध न करूँगा, जिससे कारखाने की हानि हो। कारखाने से मेरा स्वार्थ-सम्बंध है, मैं उसकी उन्नति में बाधक नहीं हो सकता। हाँ, तुम्हारा वहाँ से निकल आना मेरी समिति के लिए शुभ लक्षण है। तुम्हें मालूम है, समिति के अधयक्ष डॉक्टर गांगुली हैं; पर कुछ वृध्दावस्था और काउंसिल के कामों में व्यस्त रहने के कारण वह इस भार से मुक्त होना चाहते हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम इस भार को ग्रहण करो। समिति इस समय मँझधार में है, विनय के आचरण ने उसे एक भयंकर दशा में डाल दिया है। तुम्हें ईश्वर ने विद्या, बुध्दि, उत्साह, सब कुछ दिया है। तुम चाहो, तो समिति को उबार सकते हो, और मुझे विश्वास है, तुम मुझे निराश न करोगे।
प्रभु सेवक की आँखें सजल हो गईं। वह अपने को इस सम्मान के योग्य न समझते थे। बोले-मैं इतना उत्तारदायित्व स्वीकार करने के योग्य नहीं हूँ। मुझे भय है कि मुझ-जैसा अनुभवहीन, आलसी प्रकृति का मनुष्य समिति की उन्नति नहीं कर सकता। यह आपकी कृपा है कि मुझे इस योग्य समझते हैं। मेरे लिए सफ ही काफी है।

कुँवर साहब ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा-तुम जैसे आदमियों को सफ में रखूँ तो नायकों को कहाँ से लाऊँ? मुझे विश्वास है कि कुछ दिनों डॉ. गांगुली के साथ रहकर तुम इस काम में निपुण हो जाओगे। सज्जन लोग सदैव अपनी क्षमता की अपेक्षा करते हैं, पर मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुममें अद्भुत विद्युत-शक्ति है; उससे कहीं अधिक, जितनी तुम समझते हो। अरबी घोड़ा हल में नहीं चल सकता, उसके लिए मैदान चाहिए। तुम्हारी स्वतंत्र आत्मा कारखाने में संकुचित हो रही थी, संसार के विस्तीर्ण क्षेत्र में निकलकर उसके पर लग जाएँगे। मैंने विनय को इस पद के लिए चुन रखा था, लेकिन उसकी वर्तमान दशा देखकर मुझे अब उस पर विश्वास नहीं रहा। मैं चाहता हूँ, इस संस्था को ऐसी सुव्यवस्थित दशा में छोड़ जाऊँ कि यह निर्विघ्न अपना काम करती रहे। ऐसा न हुआ, तो मैं शांति से प्राण भी न त्याग सकूँगा। तुम्हारे ऊपर मुझे भरोसा है, क्यांकि तुम नि:स्वार्थ हो। प्रभु, मैंने अपने जीवन का बहुत दुरुपयोग किया है। अब पीछे फिरकर उस पर नजर डालता हूँ, तो उसका कोई भाग ऐसा नहीं दिखाई देता, जिस पर गर्व कर सकूँ। एक मरुस्थल है, जहाँ हरियाली का निशान नहीं। इस संस्था पर मेरे जीवन-पर्यंत के दुष्कृत्यों का बोझ लदा हुआ है। यही मेरे प्रायश्चित्ता का साधन और मेरे मोक्ष का मार्ग है। मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा यही है कि मेरा सेवक-दल संसार में कुछ कर दिखाए। उसमें सेवा का अनुराग हो, बलिदान का प्रेम हो, जातीय गौरव का अभिमान हो। जब मैं ऐसे प्राणियों को देश के लिए प्राण-समर्पण करते देखता हूँ, जिनके पास प्राण के सिवा और कुछ नहीं है, तो मुझे अपने ऊपर रोना आता है कि मैंने सब कुछ रहते हुए भी कुछ न किया। मेरे लिए इससे घातक और कोई चोट नहीं है कि यह संस्था विफल मनोरथ हो। मैं इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हूँ। मैंने दस लाख रुपये इस खाते में जमा कर दिए हैं और इच्छा है कि इस पर प्रतिवर्ष एक लाख और बढ़ाता जाऊँ। इतने विशाल देश के लिए 100 सेवक बहुत कम हैं। कम-से-कम 500 आदमी होने चाहिए। अगर दस साल भी और जीवित रहा, तो शायद मेरी यह मनोकामना पूरी हो जाए। इंद्रदत्ता में सब गुण तो हैं, पर वह उद्दंड स्वभाव का आदमी है। इस कारण मेरा मन उस पर नहीं जमता।

मैं तुमसे साग्रह... डॉक्टर गांगुली आ पहुँचे, और प्रभु सेवक को देखकर बोले-अच्छा, तुम यहाँ कुँवर साहब को मंत्र दे रहा है, तुम्हारा पापा महेंद्रकुमार को पट्टी पढ़ा रहा है। पर मैंने साफ-साफ कह दिया कि ऐसा बात नहीं हो सकता। तुम्हारा मिल है, उसका हानि-लाभ तुमको और तुम्हारे हिस्सेदार को होगा, गरीबों को क्यों उनके घर से निकालता है; पर मेरी कोई नहीं सुनता। हम कड़वा बात कहता है न, वह काहे को अच्छा लगेगा? मैं काउंसिल में इस पर प्रश्न करूँगा। यह कोई बात नहीं है कि आप लोग अपना स्वार्थ के लिए दूसरों पर अन्याय करें। शहर का रईस लोग हमसे नाराज हो जाएगा, हमको परवाह नहीं है। हम तो वहाँ वही करेगा, जो हमारा आत्मा कहेगा। तुमको दूसरे किसिम का आदमी चाहिए, तो बाबा हमसे इस्तीफा ले लो। पर हम पाँडेपुर को उजड़ने न देगा।
कुँवर-यह बेचारे तो खुद उस प्रस्ताव का विरोध करते हैं। आज इसी बात पर पिता और पुत्र में मनमुटाव भी हो गया है। यह घर से चले आए हैं और कारखाने से कोई सम्पर्क नहीं रखना चाहते।
गांगुली-अच्छा, ऐसा बात है! बहुत अच्छा हुआ। ऐसा विचारवान् लोग मिल का काम नहीं कर सकता। ऐसा लोग मिल में जाएगा, तो हम लोग कहाँ से आदमी लाएगा? प्रभु, हम बूढ़ा हो गया, कल मर जाएगा। तुम हमारा काम क्यों नहीं सँभालता? हमारा सेवक दल तुम्हारा रेस्पेक्ट करता है। तुम हमें इस भार से मुक्त कर सकता है। बुङ्ढा आदमी और सब कुछ कर सकता है, उत्साह तो उसके बस का बात नहीं! हम तुमको अब न छोड़ेगा। काउंसिल में इतना काम है कि हमको इस काम के लिए अवकाश ही नहीं मिलता। हम काउंसिल में न गया होता, तो उदयपुर में यह सब कुछ नहीं होने पाता। हम जाकर सबको शांत कर देता। तुम इतना विद्या पढ़कर उसको धन कमाने में लगाएगा, छि:-छि:!
प्रभु सेवक-मैं तो सेवकों में भरती होने के लिए घर से आया ही हूँ, पर मैं उसका नायक होने के योग्य नहीं हूँ। यह पद आप ही को शोभा देता है। मुझे सिपाहियों ही में रहने दीजिए। मैं इसी को अपने लिए गौरव की बात समझूँगा।
गांगुली-(हँसकर) ह:-ह: काम तो अयोग्य ही लोग करता है। योग्य आदमी काम नहीं करता, वह बस बातें करता है। योग्य आदमी का आशय है बातूनी आदमी, खाली बात, बात, जो जितना ही बात करता है, उतना ही योग्य होता है। वह काम का ढंग बता देगा; कहाँ कौन भूल हो गया, यह बता देगा; पर काम नहीं कर सकता। हम ऐसा योग्य आदमी नहीं चाहता। यहाँ बातें करने का काम नहीं है। हम तो ऐसा आदमी चाहता है, जो मोटा खाए, मोटा पहने, गली-गली, नगर-नगर दौड़े, गरीबों का उपकार करे, कठिनाइयों में उनका मदद करे। तो कब से आएगा?
प्रभु सेवक-मैं तो अभी से हाजिर हूँ।
गांगुली-(मुस्कराकर) तो पहला लड़ाई तुमको अपने पापा से लड़ना पड़ेगा।
प्रभु सेवक-मैं समझता हूँ, पापा स्वयं इस प्रस्ताव को न उठाएँगे।
गांगुली-नहीं-नहीं, वह कभी अपना बात नहीं छोड़ेगा। हमको उससे युध्द करना पड़ेगा। तुमको उससे लड़ना पड़ेगा। हमारी संस्था न्याय को सर्वोपरि मानती है, न्याय हमको माता-पिता से, धन-दौलत से, नाम और जस से प्यारा है। हम और सब कुछ छोड़ देगा, न्याय को न छोड़ेगा, यही हमारा व्रत है। तुमको खूब सोच-विचारकर तब यहाँ आना होगा।
प्रभु सेवक-मैंने खूब सोच-विचार लिया है।
गांगुली-नहीं-नहीं, जल्दी नहीं है, खूब सोच-विचार लो, यह तो अच्छा नहीं होगा कि एक बार आकर तुम फिर भाग जाए।
प्रभु सेवक-अब मृत्यु ही मुझे इस संस्था से अलग कर सकती है।
गांगुली-मि. जॉन सेवक तुमसे कहेगा, हम न्याय-अन्याय के झगड़े में नहीं पड़ता, तुम हमारा बेटा है, हमारा आज्ञा पालन करना तुम्हारा धर्म है, तो तुम क्या जवाब देगा? (हँसकर) मेरा बाप ऐसा कहता, तो मैं उससे कभी न कहता कि हम तुम्हारा बात न मानेगा। वह हमसे बोला, तुम बैरिस्टर हो जाए, हम इंगलैंड चला गया। वहाँ से बैरिस्टर होकर आ गया। कई साल तक कचहरी जाकर पेपर पढ़ा करता था। जब फादर का डेथ हो गया तो डॉक्टरी पढ़ने लगा। पिता के सामने हमको यह कहने का हिम्मत नहीं हुआ कि हम कानून नहीं पढ़ेगा।
प्रभु सेवक-पिता का सम्मान करना दूसरी बात है, सिध्दांत का पालन करना दूसरी बात। अगर आपके पिता कहते कि जाकर किसी के घर में आग लगा दो, तो आप आग लगा देते?
गांगुली-नहीं-नहीं, कभी नहीं, हम कभी आग न लगाता, चाहे पिताजी हमीं को क्यों न जला देता। लेकिन पिता ऐसी आज्ञा दे भी तो नहीं सकता।
सहसा रानी जाह्नवी ने पदार्पण किया, शोक और क्रोध की मूर्ति, भौएँ झुकी हुई, माथा सिकुड़ा हुआ, मानो स्नान करके पूजा करने जाते समय कुत्तो ने छू लिया हो। गांगुली को देखकर बोलीं-आपकी तबियत काउंसिल से नहीं थकती, मैं तो जिंदगी से थक गई। जो कुछ चाहती हूँ, वह नहीं होता; जो नहीं चाहती, वही होता है। डॉक्टर साहब, सब कुछ सहा जाता है, बेटे का कुत्सित व्यवहार नहीं सहा जाता, विशेषत: ऐसे बेटे का, जिसके बनाने में लिए कोई बात उठा न रखी गई हो। दुष्ट जसंवतनगर के विद्रोह में मर गया होता, तो मुझे इतना दु:ख न होता।
कुँवर साहब और ज्यादा न सुन सके। उठकर बाहर चले गए। रानी ने उसी धुन में कहा-यह मेरा दु:ख क्या समझेंगे! इनका सारा जीवन भोग-विलास में बीता है। आत्मसेवा के सामने इन्होंने आदर्शों की चिंता नहीं की। अन्य रईसों की भाँति सुख-भोग में लिप्त रहे। मैंने तो विनय के लिए कठिन तप किया है, उसे साथ लेकर महीनों पहाड़ो में पैदल चली हूँ, केवल इसीलिए कि छुटपन से ही उसे कठिनाइयों का आदी बनाऊँ। उसके एक-एक शब्द, एक-एक काम को धयान से देख रही हूँ कि उसमें बुरे संस्कार न आ जाएँ। अगर वह कभी नौकर पर बिगड़ा है, तो तुरंत उसे समझाया है; कभी सत्य से मुँह मोड़ते देखा, तो तुरंत तिरस्कार किया। यह मेरी व्यथा क्यों जानेंगे? यह कहते-कहते रानी की निगाह प्रभु सेवक पर पड़ गई, जो कोने में खड़ा कुछ उलट-पलट रहा था। उनकी जबान बंद हो गई। आगे कुछ न कह सकीं। सोफिया के प्रति जो कठोर वचन मन में थे, वे मन ही में रह गए। केवल गांगुली से इतना बोलीं-'जाते समय मुझसे मिल लीजिएगा' और चली गईं।

रंगभूमि अध्याय 35

विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा।
नायकराम-सवेरे राम-नाम नहीं लेती, भीख माँगने चल खड़ी हुई। तुझे तो जैसे रात को नींद नहीं आई। माँगने को तो दिन-भर है।
बुढ़िया-बेटा, दुखिया हूँ।
नायकराम-यहाँ कौन सुखिया है। रात-भर भूखों मरे। मासूक की घुड़कियाँ खाईं। पैर तो सीधो पड़ते नहीं, तुम्हें कहाँ से पैसा दें?
बुढ़िया-बेटा, धूप में मुझसे चला नहीं जाता, सिर में चक्कर आ जाता है। नई-नई विपत है, भैया, भगवान् उस अधम पापी विनयसिंह का बुरा करे, उसी के कारण बुढ़ापे में यह दिन देखना पड़ा; नहीं तो बेटा दूकान करता था, हम घर में रानी बनी बैठी रहती थीं, नौकर-चाकर थे, कौन-सा सुख नहीं था। तुम परदेसी हो, न जानते होगे, यहाँ दंगा हो गया था। मेरा लड़का दूकान से हिला तक नहीं, पर उस निगोड़े विनयसिंह ने सहादत दे दी कि यह भी दंगे में मिला हुआ था। पुलिस हमारे ऊपर बहुत दिनों से दाँत लगाए थी, कोई दाँव न पाती थी। यह सहादत पाते ही दौड़ आ गई, लड़का पकड़ लिया गया और तीन साल की सजा हो गई। एक हजार जरीबाना हुआ। घर की बीस हजार की गृहस्थी तहस-नहस हो गई। घर में बहू है, बच्चे हैं, इसी तरह माँग-जाँचकर उनको पालती-पोसती हूँ। न जाने उस कलमुँहे ने कब का बैर निकाला।
विनय ने जेब से एक रुपया निकालकर बुढ़िया को दिया और आकाश की ओर देखकर ठंडी साँस ली। ऐसी मानसिक वेदना उन्हें कभी न हुई थी।
बुढ़िया ने रुपया देखा, तो चौंक पड़ी। समझी, शायद भूल से दिया है। बोली-बेटा, यह तो रुपया है।
विनय ने अवरुध्द कंठ से कहा-हाँ, ले जाओ। मैंने भूल से नहीं दिया है।
वृध्दा आशीर्वाद देती हुई चली गई। दोनों आदमी और आगे बढ़े तो राह में एक कुआँ मिला। उस पर पीपल का पेड़ था। एक छोटा-सा मंदिर भी बना हुआ था। नायकराम ने सोचा, यहीं हाथ-मुँह धो लें। दोनों आदमी कुएँ पर गए, तो देखा एक विप्र महाराज पीपल के नीचे बैठे पाठ कर रहे हैं। जब वह पाठ कर चुके, तो विनय ने पूछा-आपको मालूम है, सरदार नीलकंठ आजकल कहाँ हैं?
पंडितजी ने कर्कश कंठ से कहा-हम नहीं जानते।
विनय-पुलिस के मंत्री तो होंगे?
पंडित-कह दिया, मैं नहीं जानता।
विनय-मि. क्लार्क तो दौरे पर होंगे?
पंडित-मैं कुछ नहीं जानता।
नायकराम-पूजा-पाठ में देस-दुनिया की सुध ही नहीं!
पंडित-हाँ, जब तक मनोकामना न पूरी हो जाए, तब तक मुझे किसी से कुछ सरोकार नहीं। सबेरे तुमने म्लेच्छों का नाम सुना दिया, न जाने दिन कैसे कटेगा।
नायकराम-वह कौन-सी मनोकामना है?
पंडित-अपने अपमान का बदला।
नायकराम-किससे?
पंडित-उसका नाम न लूँगा। किसी बड़े रईस का लड़का है। काशी से दीनों की सहायता करने आया था। सैकड़ों घर उजाड़कर न जाने कहाँ चल दिया। उसी के निमित्ता यह अनुष्ठान कर रहा हूँ। यहाँ आधा नगर मेरा यजमान था, सेठ-साहूकार मेरा आदर करते थे। विद्यार्थियों को पढ़ाया करता था। बुराई यह थी कि नाजिम को सलाम करने न जाता था। अमलों की कोई बुराई देखता, तो मुँह पर खोलकर कह देता। इसी से सब कर्मचारी मुझसे जलते थे। पिछले दिनों जब यहाँ दंगा हुआ, तो सबों ने उसी बनारस के गुंडे से मुझ पर राजद्रोह का अपराध लगवा दिया। सजा हो गई, बेंत पड़ गए, जरीबाना हो गया, मर्यादा मिट्टी में मिल गई। अब नगर में कोई द्वार पर खड़ा नहीं होने देता। निराश होकर देवी की शरण आया हूँ। पुरश्चरण का पाठ कर रहा हूँ। जिस दिन सुनूँगा कि उस हत्यारे पर देवी ने कोप किया, उसी दिन मेरी तपस्या पूरी हो जाएगी। द्विज हूँ, लड़ना-भिड़ना नहीं जानता, मेरे पास इसके सिवा और कौन-सा हथियार है?
विनय किसी शराबखाने से निकलते हुए पकड़े जाते, तो भी इतने शर्मिंदा न होते। उन्हें अब इस ब्राह्मण की सूरत याद आई। याद आया कि मैंने ही पुलिस की प्रेरणा से इसे पकड़ा दिया था। जेब से पाँच रुपये निकाले और पंडितजी से बोले-यह लीजिए, मेरी ओर से भी उस नर-पिशाच के प्रति मारण-मंत्र का जाप कर दीजिएगा। उसने मेरा भी सर्वनाश किया है। मैं भी उसके खून का प्यासा हो रहा हूँ।
पंडित-महाराज, आपका भला होगा। शत्रु की देह में कीड़े न पड़ जावें तो कहिएगा कि कोई कहता था। कुत्तों की मौत मरेगा। यहाँ सारा नगर उसका दुश्मन है। अब तक इसलिए उसकी जान बची कि पुलिस उसे घेरे रहती थी। मगर कब तक? जिस दिन अकेला घर से निकला, उसी दिन देवी का उस पर कोप गिरा है। वह इसी राज्य में है, कहीं बाहर नहीं गया है, और न अब बचकर जा ही सकता है। काल उसके सिर पर खेल रहा है। इतने दीनों की हाय क्या निष्फल हो जाएगी?
जब यहाँ से और आगे चले, तो विनय ने कहा-पंडाजी, जल्दी से एक मोटर ठीक कर लो। मुझे भय लग रहा है कि कोई मुझे पहचान न ले। अपने प्राणों का इतना भय मुझे कभी न हुआ था। अगर ऐसे ही दो-एक दृश्य और सामने आए, तो शायद मैं आत्मघात कर लूँ। आह! मेरा कितना पतन हुआ है! और अब तक मैं यही समझ रहा था कि मुझसे कोई अनौचित्य नहीं हुआ। मैंने सेवा का व्रत लिया था, घर से परोपकार करने चला था। खूब परोपकार किया! शायद ये लोग मुझे जीवन-पर्यंत न भूलेंगे।
नायकराम-भैया, भूल-चूक आदमी ही से होती है। अब उसका पछतावा न करो।
विनय-नायकराम, यह भूल-चूक नहीं है, ईश्वरीय विधान है; ऐसा ज्ञात होता है कि ईश्वर सद्व्रतधारियों की कठिन परीक्षा लिया करते हैं। सेवक का पद इन परीक्षाओं में सफल हुए बिना नहीं मिलता। मैं परीक्षा में गिर गया, बुरी तरह गिर गया।
नायकराम का विचार था कि जरा जेल के दारोगा साहब का कुशल-समाचार पूछते चलें; लेकिन मौका न देखा तो तुरंत मोटर-सर्विस के दफ्तर में गए। वहाँ मालूम हुआ कि दरबार ने सब मोटरों को एक सप्ताह के लिए रोक लिया है।
मिस्टर क्लार्क के कई मित्र बाहर से शिकार खेलने आए हुए थे। अब क्या हो? नायकराम को घोड़े पर चढ़ना न आता था और विनय को यह उचित न मालूम होता था कि आप तो सवार होकर चलें और वह पाँव-पाँव।
नायकराम-भैया, तुम सवार हो जाओ, मेरी कौन, अभी अवसर पड़ जाए, तो दस कोस जा सकता हूँ।
विनय-तो मैं ही ऐसा कौन मरा जाता हूँ। अब रात की थकावट दूर हो गई।
दोनों आदमियों ने जलपान किया और उदयपुर चले। आज विनय ने जितनी बात की, उतनी शायद और कभी न की थी, और वह भी नायकराम-जैसे लट्ठ गँवार से। सोफी की तीव्र आलोचना अब उन्हें सर्वथा न्याय-संगत जान पड़ती थी। बोले-पंडाजी, यह समझ लो कि अगर दरबार ने उन सब कैदियों को छोड़ न दिया, जो मेरी शहादत से फँसे हैं, तो मैं भी अपना मुँह किसी को न दिखाऊँगा। मेरे लिए यही एक आशा रह गई है। तुम घर जाकर माताजी से कह देना कि वह कितना दुखी और अपनी भूल पर कितना लज्जित था।
नायकराम-भैया, तुम घर न जाओगे, तो मैं भी न जाऊँगा। अब तो जहाँ तुम हो, वहीं मैं भी हूँ। जो कुछ बीतेगी, दोनों ही के सिरे बीतेगी।
विनय-बस, तुम्हारी यही बात बुरी मालूम होती है। तुम्हारा और मेरा कौन-सा साथ है। मैं पातकी हूँ। मुझे अपने पातकों का प्रायश्चित्ता करना है। तुम्हारे माथे पर तो कलंक नहीं है। तुम अपना जीवन क्यों नष्ट करोगे? मैंने अब तक सोफिया को न पहचाना था। आज मालूम हुआ कि उसका हृदय कितना विशाल है। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। हाँ, शिकायत केवल इस बात की है कि उसने मुझे अपना न समझा। वह अगर समझती कि यह मेरे हैं, तो मेरी एक-एक बात क्यों पकड़ती, जरा-जरा-सी बातों पर क्यों गुप्तचरों की भाँति दृष्टि रखती! वह यह जानती है कि मैं ठुकरा दूँगी, तो यह जान पर खेल जाएँगे। यह जानकर भी उसने मेरे साथ इतनी निर्दयता क्यों की? वह यह क्यों भूल गई कि मनुष्य से भूलें होती ही हैं। सम्भव है, अपना समझकर ही उसने मुझे यह कठोर दंड दिया हो। दूसरों की बुराइयों की हमें परवाह नहीं होती, अपनों ही को बुरी राह चलते देखकर दंड दिया जाता है। मगर अपनों को दंड देते समय इसका तो धयान रखना चाहिए कि आत्मीयता का सूत्र न टूटने पाए! यह सोचकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि उसका दिल मुझसे सदैव के लिए फिर गया।
नायकराम-ईसाइन है न! किसी अंगरेज को गाँठेगी।
विनय-तुम बिलकुल बेहूदे हो, बात करने की तमीज नहीं। मैं कहता हूँ, वह अब उम्र-भर ब्रह्मचारिणी रहेगी। तुम उसे क्या जानो, बात समझो न बूझो, चट से कह उठे, किसी अंगरेज को गाँठेगी। मैं उसे कुछ-कुछ जानता हूँ। मेरे लिए उसने क्या-क्या नहीं किया, क्या-क्या नहीं सहा। जब उसका प्रेम याद आता है, तो कलेजे में ऐसी पीड़ा होती है कि कहीं पत्थरों से सिर टकराकर प्राण दे दूँ। अब वह अजेय है, उसने अपने प्रेम का द्वार बंद कर लिया। मैंने उस जन्म में न जाने कौन-सी तपस्या की थी, जिसका सुफल इतने दिनों भोगा। अब कोई देवता बनकर भी उसके सामने आए, तो वह उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखेगी। जन्म से ईसाइन भले ही हो, पर संस्कारों से, कर्मों से वह आर्य महिला है। मैंने उसे कहीं का न रखा। आप भी डूबा, उसे भी ले डूबा। अब तुम देखना कि रियासत को वह कैसा नाकों चने चबवाती है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति है कि आन-की-आन मे रियासत का निशान मिटा सकती है।
नायकराम-हाँ, है तो ऐसी ही आफत की परकाला।
विनय-फिर वही मूर्खता की बात! मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि मेरे सामने उसका नाम इज्जत से लिया करो। मैं उसके विषय में किसी के मुख से एक भी अनुचित शब्द नहीं सुन सकता। वह अगर मुझे भालों से छेद दे, तो भी उसके प्रति मेरे मन में उपेक्षा का भाव न आएगा। प्रेम में प्रतिकार नहीं होता। प्रेम अनंत क्षमा, अनंत उदारता, अनंत धैर्य से परिपूर्ण होता है।
यों बातें करते हुए दोनों ने दोपहर तक आधी मंजिल काटी। दोपहर को आराम करने लगे, तो ऐसे सोए कि शाम हो गई। रात को वहीं ठहरना पड़ा। सराय मौजूद थी, विशेष कष्ट न हुआ। हाँ, नायकराम को आज जिंदगी में पहली बार भंग न मिली और वह बहुत दुखी रहे। एक तोले भंग के लिए एक से दस रुपये तक देने को तैयार थे, पर आज भाग्य में उपास ही लिखा था। चारों ओर से हारकर वह सिर थाम कुएँ की जगत पर आ बैठे, मानो किसी घर के आदमी का दाह-क्रिया करके आए हों।
विनय ने कहा-ऐसा व्यसन क्यों करते हो कि एक दिन भी उसके बिना न रहा जाए? छोड़ो इसे, भले आदमी, व्यर्थ में प्राण दिए देते हो।
नायकराम-भैया, इस जन्म में तो छूटती नहीं, आगे की दैव जाने। यहाँ तो मरते समय भी एक गोला सिरहाने रखे लेंगे, वसीयत कर जाएँगे कि एक सेर भंग हमारी चिता में डाल देना। कोई पानी देनेवाला तो है नहीं, लेकिन अगर कभी भगवान् ने वह दिन दिखाया, तो लड़कों से कह दूँगा कि पिंड के साथ भंग का पिंडा भी जरूर देना। इसका मजा वही जानता है, जो इसका सेवन करता है।
नायकराम को आज भोजन अच्छा न लगा, नींद न आई, देह टूटती रही। गुस्से में सरायवाले को खूब गालियाँ दीं। मारने दौड़े। बनिये को डाँटा कि साफ शक्कर क्यों न दी। हलवाई से उलझ पड़े कि मिठाइयाँ क्यों खराब दीं। देख तो, तेरी क्या गत बनाता हूँ, चलकर सीधो सरदार साहब से कहता हूँ। बच्चा! दूकान न लुटवा दूँ, तो कहना। जानते हो, मेरा नाम नायकराम है। यहाँ तेल की गंध से घिन है। हलवाई पैरों पड़ने लगा; पर उन्होंने एक न सुनी। यहाँ तक कि धमकाकर उससे 25 रुपये वसूल किए। किंतु चलते समय विनय ने रुपये वापस करा दिए। हाँ,हलवाई को ताकीद कर दी कि ऐसी खराब मिठाइयाँ न बनाया करे और तेल की चीज के घी के दाम न लिया करे।
दूसरे दिन दोनों आदमी दस बजते-बजते उदयपुर पहुँच गए। पहला आदमी जो उन्हें दिखाई दिया, वह स्वयं सरदार साहब थे। वह टमटम पर बैठे हुए दरबार से आ रहे थे। विनय को देखते ही घोड़ा रोक दिया और पूछा-आप कहाँ?
विनय ने कहा-यहीं तो आ रहा था।
सरदार-कोई मोटर न मिला? हाँ, न मिला होगा। तो टेलीफोन क्यों न कर दिया? यहाँ से सवारी भेज दी जाती। व्यर्थ इतना कष्ट उठाया।
विनय-मुझे पैदल चलने का अभ्यास है, विशेष कष्ट नहीं हुआ। मैं आज आपसे मिलना चाहता हूँ, और एकांत में। आप कब मिल सकेंगे?
सरदार-आपके लिए समय निश्चित करने की जरूरत नहीं। जब जी चाहे, चले आइएगा, बल्कि वहीं ठहरिएगा भी।
विनय-अच्छी बात है।
सरदार साहब ने घोड़ों को चाबुक लगाया और चल दिए। यह न हो सका कि विनय को भी बिठा लेते, क्योंकि उनके साथ नायकराम को भी बैठाना पड़ता। विनयसिंह ने एक ताँगा किया और थोड़ी देर में सरदार साहब के मकान पर जा पहुँचे।
सरदार साहब ने पूछा-इधर कई दिनों से आपका कोई समाचार नहीं मिला। आपके साथ के और लोग कहाँ हैं? कुछ मिसेज क्लार्क का पता चला?
विनय-साथ के आदमी तो पीछे हैं; लेकिन मिसेज क्लार्क का कहीं पता न चला, सारा परिश्रम विफल हो गया। वीरपालसिंह की तो मैंने टोह लगा ली, उसका घर भी देख आया। पर मिसेज क्लार्क की खोज न मिली।
सरदार साहब ने विस्मित होकर कहा-यह आप क्या कह रहे हैं? मुझे जो सूचना मिली है, वह तो यह कहती है कि आपसे मिसेज क्लार्क की मुलाकात हुई और अब मुझे आपसे होशियार रहना चाहिए। देखिए, मैं वह खत आपको दिखाता हूँ।
यह कहकर सरदार साहब मेज के पास गए, एक बादामी मोटे कागज पर लिखा हुआ खत उठा लाए और विनयसिंह के हाथ में रख दिया।
जीवन में यह पहला अवसर था कि विनय ने असत्य का आश्रय लिया था। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। बात क्योंकर निबाहें, यह समझ में न आया। नायकराम भी फर्श पर बैठे हुए थे। समझ गए कि यह असमंजस में पड़े हुए हैं। झूठ बोलने और बातें बनाने में अभ्यस्त थे। बोले-कुँवर साहब, जरा मुझे दीजिए, किसका खत है?
विनय-इंद्रदत्ता का।
नायकराम-ओहो! उस पगले का खत है! वही लौंडा न, जो सेवा समिति में आकर गाया करता था? उसके माँ-बाप ने घर से निकाल दिया था। सरकार, पगला है। ऐसी ही ऊटपटाँग बात किया करता है।
सरदार-नहीं, किसी पगले लौंडे की लेखन-शैली ऐसी नहीं हो सकती। बड़ा चतुर आदमी है। इसमें कोई संदेह नहीं। उसके पत्र इधर कई दिनों से बराबर मेरे पास आ रहे हैं। कभी मुझको धमकाता है, कभी नीति के उपदेश देता है। किंतु जो कुछ कहता है, शिष्टाचार के साथ। एक भी अशिष्ट अथवा अनर्गल शब्द नहीं होता। अगर यह वही इंद्रदत्ता है, जिसे आप जानते हैं, तो और भी आश्चर्य है। सम्भव है, उसके नाम से कोई दूसरा आदमी पत्र लिखता हो। यह कोई साधारण शिक्षा पाया हुआ, आदमी नहीं मालूम होता।
विनयसिंह तो ऐसे सिटपिटा गए, जैसे कोई सेवक अपने स्वामी का संदूक खोलता हुआ पकड़ा जाए। मन में झुँझला रहे थे कि क्यों मैंने मिथ्या भाषण किया? मुझे छिपाने की जरूरत ही क्या थी? लेकिन इंद्रदत्ता का इस पत्र से क्या उद्देश्य है? क्या मुझे बदनाम करना चाहता है?
नायकराम-कोई दूसरा ही आदमी होगा। उसका मतलब यही है कि यहाँ के हाकिमों को कुँवर साहब से भड़का दे। क्यों भैया, समिति में कोई विद्वान् आदमी था?
विनय-सभी विद्वान थे, उनमें मूर्ख कौन है? इंद्रदत्ता भी उच्च कोटि की शिक्षा पाए हुए है। पर मुझे न मालूम था कि वह मुझसे इतना द्वेष रखता है।
यह कहकर विनय ने सरदार साहब को लज्जित नेत्रों से देखा। असत्य का रूप प्रतिक्षण भयंकर तथा मिथ्यांधकार और भी सघन होता जाता था।
तब वह सकुचाते हुए बोले-सरदार साहब, क्षमा कीजिएगा, मैं आपसे झूठ बोल रहा था। इस पत्र में जो कुछ लिखा है, वह अक्षरश: सत्य है। नि:संदेह मेरी मुलाकात मिसेज क्लार्क से हुई। मैं इस घटना को आपसे गुप्त रखना चाहता था, क्योंकि मैंने उन्हें इसका वचन दे दिया था। वह वहाँ बहुत आराम से हैं, यहाँ तक कि मेरे बहुत आग्रह करने पर भी मेरे साथ न आईं।
सरदार साहब ने बेपरवाही से कहा-राजनीति में वचन का बहुत महत्तव नहीं है। अब मुझे आपसे चौकन्ना रहना पड़ेगा। अगर इस पत्र ने मुझे सारी बातों का परिचय न दे दिया होता, तो आपने तो मुझे मुगालता देने में कोई बात उठा न रखी थी। आप जानते हैं, हमें आजकल इस विषय में गवर्नमेंट से कितनी धमकियाँ मिल रही हैं या कहिए मिसेज क्लार्क के सकुशल लौट आने पर ही हमारी कारगुजारी निर्भर है। खैर, यह क्या बात है? मिसेज क्लार्क आईं क्यों नहीं? क्या बदमाशों ने उन्हें आने न दिया?
विनय-वीरपालसिंह तो बड़ी खुशी से उन्हें भेजना चाहता था। यही एक साधन है, जिससे वह अपनी प्राणरक्षा कर सकता है। लेकिन वह खुद ही आने पर तैयार न हुईं।
सरदार-मिस्टर क्लार्क से नाराज तो नहीं हैं?
विनय-हो सकता है। जिस दिन विद्रोह हुआ था, मिस्टर क्लार्क नशे में अचेत पड़े थे, शायद इसी कारण उनसे चिढ़ गई हों। ठीक-ठीक कुछ नहीं कह सकता। हाँ, उनसे भेंट होने से यह बात स्पष्ट हो गई कि हमने जसंवतनगरवालों का दमन करने में बहुत-सी बातें न्याय-विरुध्द कीं। हमें शंका थी कि विद्रोहियों ने मिसेज क्लार्क को या तो कैद कर रखा है या मार डाला है। इसी शंका पर हमने दमन-नीति का व्यवहार किया। सबको एक लाठी से हाँका। किंतु दो बातों में से एक भी सच न निकली। मिसेज क्लार्क जीवित हैं और प्रसन्न हैं। वह वहाँ से स्वयं नहीं आना चाहतीं। जसवंतनगरवाले अकारण ही हमारे कोप के भागी हुए, और मैं आपसे बड़े आग्रह से प्रार्थना करता हूँ कि उन गरीबों पर दया होनी चाहिए। सैकड़ों निरपराधियों की गर्दन पर छुरी फिर रही है।
सरदार साहब जान-बूझकर किसी पर अन्याय न करना चाहते थे, पर अन्याय कर चुकने के बाद अपनी भूल स्वीकार करने का उन्हें साहस न होता था। न्याय करना उतना कठिन नहीं है, जितना अन्याय का शमन करना। सोफी के गुम हो जाने से उन्हें केवल गवर्नमेंट की वक्र दृष्टि का भय था। पर सोफी का पता मिल जाना, समस्त देश के सामने अपनी अयोग्यता और नृशंसता का डंका पीटना था। मिस्टर क्लार्क को खुश करके गवर्नमेंट को खुश किया जा सकता था, पर प्रजा की जबान इतनी आसानी से न बंद की जा सकती थी।
सरदार साहब ने कुछ सकुचाते हुए कहा-या तो मैं मान सकता हूँ क मिसेज क्लार्क जीवित हैं। लेकिन आप तो क्या, ब्रह्मा भी आकर कहें कि वह वहाँ प्रसन्न हैं और आना नहीं चाहतीं, तो भी मैं स्वीकार न करूँगा। यह बच्चों की-सी बात है। किसी को अपने घर से अरुचि नहीं होती कि वह शत्रुओं के साथ साथ रहना पसंद करे। विद्रोहियों ने मिसेज क्लार्क को यह कहने के लिए मजबूर किया होगा। वे मिसेज क्लार्क को उस वक्त तक न छोड़ेंगे, जब तक हम सारे कैदियों को मुक्त न कर दें। यह विजेताओं की नीति है और मैं इसे नहीं मान सकता। मिसेज़ क्लार्क को कड़ी-से-कड़ी यातनाएँ दी जा रही हैं, और उन्होंने उन यातनाओं से बचने के लिए आपसे यह सिफारिश की है, और कोई बात नहीं है।
विनय-मैं इस विचार से सहमत नहीं हो सकता। मिसेज क्लार्क बहुत प्रसन्न दिखाई देती थीं। पीड़ित हृदय कभी इतना निश्शंक नहीं हो सकता।
सरदार-यह आपकी आँखों का दोष है। अगर मिसेज क्लार्क स्वयं आकर मुझसे कहें कि मैं बड़े आराम से हूँ, तो भी मुझे विश्वास न आएगा। आप नहीं जानते, ये लोग किन सिध्दियों से स्वाधीनता पर जान देनेवाले प्राण्0श्निायों पर भी आतंक जमा लेते हैं; यहाँ तक कि उनके पंजे से निकल आने पर भी कैदी उन्हीं की-सी कहता है और उन्हीं की-सी करता है। मैं एक जमाने में पुलिस की कर्मचारी था। आपसे सच कहता हूँ, मैंने कितने ही राजनीतिक अभियोगों में बड़े-बड़े व्रतधारियों से ऐसे अपराध स्वीकार करा दिए, जिनकी उन्होंने कल्पना तक न की थी। वीरपालसिंह इस विषय में हमसे कहीं चतुर है।
विनय-सरदार साहब, अगर थोड़ी देर के लिए मुझे यह विश्वास भी हो जाए कि मिसेज क्लार्क ने दबाव में आकर मुझसे ये बातें कही हैं,तो भी अब ठंडे हृदय से विचार करने पर मुझे ज्ञात हो रहा है कि इतनी निर्दयता से दमन न करना चाहिए था। अब उन अभियुक्तों पर कुछ रिआयत होनी चाहिए।
सरदार-रिआयत राजनीति में पराजय का सूचक है। अगर मैं यह भी मान लूँ कि मिसेज क्लार्क वहाँ आराम से हैं और स्वतंत्र हैं, तथा हमने जसवंतनगरवालों पर घोर अत्याचार किया, फिर भी मैं रिआयत करने को तैयार नहीं हूँ। रिआयत करना अपनी दुर्बलता और भ्रांति की घोषणा करना है। आप जानते हैं, रिआयत का परिणाम क्या होगा? विद्रोहियों के हौसले बढ़ जाएँगे, उनके दिल में रियासत का भय जाता रहेगा और जब भय न रहा तो राज्य भी नहीं रह सकता। राज्य-व्यवस्था का आधार न्याय नहीं, भय है। भय को आप निकाल दीजिए,और राज्य-विधवंस हो जाएगा, फिर अर्जुन की वीरता और युधिष्ठिर का न्याय भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। सौ-दो सौ निरपराधियों का जेल में रहना, राज्य न रहने से कहीं अच्छा है। मगर मैं उन विद्रोहियों को निरपराध क्योंकर मान लूँ? कई हजार आदमियों का सशस्त्र होकर एकत्र हो जाना, यह सिध्द करता है कि वहाँ लोग विद्रोह करने के विचार से ही गए थे।
विनय-किंतु जो लोग उसमें सम्मिलित न थे, वे तो बेकसूर हैं?
सरदार-कदापि नहीं, उनका कर्तव्य था कि अधिकारियों को पहले ही से सचेत कर देते। एक चोर को किसी के घर में सेंध लगाते देखकर घरवालों को जगाने की चेष्टा न करें, तो आप स्वयं चोर की सहायता कर रहे हैं। उदासीनता बहुधा अपराध से भी भयंकर होती है।
विनय-कम-से-कम इतना तो कीजिए कि जो लोग मेरी शहादत पर पकड़े गए हैं, उन्हें बरी कर दीजिए।
सरदार-असम्भव है।
विनय-मैं शासन-नीति के नाते नहीं, दया और सौजन्य के नाते आपसे यह विनीत आग्रह करता हूँ।
सरदार-कह दिया भाईजान, कि यह असम्भव है। आप इसका परिणाम नहीं सोच रहे हैं।
विनय-लेकिन मेरी प्रार्थना को स्वीकार न करने का परिणाम भी अच्छा न होगा। आप समस्या को और जटिल बना रहे हैं।
सरदार-मैं खुले विद्रोह से नहीं डरता। डरता हूँ केवल सेवकों से; प्रजा के हितैषियों से और उनसे यहाँ की प्रजा का जी भर गया है। बहुत दिन बीत जाएँगे, इसके पहले कि प्रजा देश-सेवकों पर फिर विश्वास करे।
विनय-अगर इसी नियत से आपने मेरे हाथों प्रजा का अनिष्ट कराया, तो आपने मेरे साथ घोर विश्वासघात किया, लेकिन मैं आपको सतर्क किए देता हूँ कि यदि आपने मेरा अनुरोध न माना, तो आप रियासत में ऐसा विप्लव मचा देंगे, जो रियासत की जड़ हिला देगा। मैं यहाँ से मिस्टर क्लार्क के पास जाता हूँ। उनसे भी यही अनुरोध करूँगा और यदि वह भी न सुनेंगे, तो हिज़ हाइनेस की सेवा में यही प्रस्ताव उपस्थित करूँगा। अगर उन्होंने भी न सुना, तो फिर इस रियासत का मुझसे बड़ा और कोई शत्रु न होगा।
यह कहकर विनयसिंह उठ खड़े हुए और नायकराम को साथ लेकर मिस्टर क्लार्क के बँगले पर जा पहुँचे। वह आज ही अपने शिकारी मित्रों को बिदा करके लौटे थे और इस समय विश्राम कर रहे थे। विनय ने अरदली से पूछा, तो मालूम हुआ कि साहब काम कर रहे हैं। विनय बाग में टहलने लगे। जब आधा घंटे तक साहब ने न बुलाया तो उठे और सीधो क्लार्क के कमरे में घुस गए, वह इन्हें देखते ही उठ बैठे, और बोले-आइए-आइए, आप ही की याद कर रहा था। कहिए, क्या समाचार है? सोफ़िया का पता तो आप लगा ही आए होंगे?
विनय-जी हाँ, लगा आया।
यह कहकर विनय ने क्लार्क से भी वही कथा कही, जो सरदार साहब से कही थी, और वही अनुरोध किया।
क्लार्क-मिस सोफी आपके साथ क्यों नहीं आईं?
विनय-यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन वहाँ उन्हें कोई कष्ट नहीं है।
क्लार्क-तो फिर आपने नई खोज क्या की? मैंने तो समझा था, शायद आपके आने से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ेगा। यह देखिए,सोफ़िया का पत्र है। आज ही आया है। इसे आपको दिखा तो नहीं सकता, पर इतना कह सकता हूँ कि वह इस वक्त मेरे सामने आ जाए, तो उस पर पिस्तौल चलाने में एक क्षण भी विलम्ब न करूँगा। अब मुझे मालूम हुआ कि धर्मपरायणता छल और कुटिलता का दूसरा नाम है। इसकी धर्म-निष्ठा ने मुझे बड़ा धोखा दिया। शायद कभी किसी ने इतना बड़ा धोखा न खाया होगा। मैंने समझा था, धार्मिकता से सहृदयता उत्पन्न होती है; पर यह मेरी भ्रांति थी। मैं इसकी धर्म-निष्ठा पर रीझ गया। मुझे इंग्लैंड की रँगीली युवतियों से निराशा हो गई थी। सोफ़िया का सरल स्वभाव और धार्मिक प्रवृत्तिा देखकर मैंने समझा, मुझे इच्छित वस्तु मिल गई। अपने समाज की उपेक्षा करके मैं उसके पास जाने-आने लगा और अंत में प्रोपोज़ किया। सोफ़िया ने स्वीकार तो कर लिया, पर कुछ दिनों तक विवाह को स्थगित रखना चाहा। मैं क्या जानता था कि उसके दिल में क्या है? राजी को गया। उसी अवस्था में वह मेरे साथ यहाँ आई, बल्कि यों कहिए कि वही मुझे यहाँ लाई। दुनिया समझती है, वह मेरी विवाहिता थी, कदापि नहीं। हमारी तो मँगनी भी न हुई थी। अब जाकर रहस्य खुला कि वह बोलशेविकों की एजेंट है। उसके एक-एक शब्द से उसकी बोलशेविक प्रवृत्तिा टपक रही है। प्रेम का स्वाँग भरकर वह अंगरेजों के आंतरिक भावों का ज्ञान प्राप्त करना चाहती थी। उसका यह उद्देश्य पूरा हो गया। मुझसे जो कुछ काम निकल सकता था, वह निकालकर उसने मुझे दुतकार दिया। विनयसिंह, तुम नहीं अनुमान कर सकते कि मैं उससे कितना प्रेम करता था। इस अनुपम रूपराशि के नीचे इतनी घोर कुटिलता! मुझे धमकी दी है कि इतने दिनों में अंगरेजी समाज का मुझे जो कुछ अनुभव हुआ है, उसे मैं भारतवासियों के विनोदार्थ प्रकाशित कर दूँगी। वह जो कुछ कहना चाहती है,मैं स्वयं क्यों न बतला दूँ? अंगरेज-जाति भारत का अनंत काल तक अपने साम्राज्य का अंग बनाए रखना चाहती है। कंजरवेटिव हो या लिबरल, रेडिकल हो या लेबर, नेशनलिस्ट हो या सोशलिस्ट, इस विषय में सभी एक ही आदर्श का पालन करते हैं। सोफी के पहले मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि रेडिकल और लेबर नेताओं के धोखे में न आओ। कंजरवेटिव दल में और चाहे कितनी बुराइयाँ हों, वह निर्भीक है,तीक्ष्ण सत्य से नहीं डरता। रेडिकल और लेबर अपने पवित्र और उज्ज्वल सिध्दांतों का समर्थन करने के लिए ऐसी आशाप्रद बातें कह डालते हैं, जिनका व्यवहार में लाने का उन्हें साहस नहीं हो सकता। आधिपत्य त्याग करने की वस्तु नहीं है। संसार का इतिहास केवल इसी शब्द'आधिपत्य-प्रेम' पर समाप्त हो जाता है। मानव स्वभाव अब भी वही है, जो सृष्टि के आदि में था। अंगरेज-जाति कभी त्याग के लिए, उच्च सिध्दांतों पर प्राण देने के लिए प्रसिध्द नहीं रही। हम सब-के-सब-मैं लेबर हूँ-साम्राज्यवादी हैं। अंतर केवल उस नीति में है, जो भिन्न-भिन्न दल इस जाति पर आधिपत्य जमाए रखने के लिए ग्रहण करते हैं। कोई शासन का उपासक है, कोई सहानुभूति का, कोई चिकनी-चुपड़ी बातों से काम निकालने का। बस, वास्तव में नीति कोई है ही नहीं, केवल उद्देश्य है, और वह यह कि क्योंकर हमारा आधिपत्य उत्तारोत्तार सुदृढ़ हो। यही वह गुप्त रहस्य है, जिसको प्रकट करने की मुझे धमकी दी गई है। यह पत्र मुझे न मिला हाता, तो मेरी आँखों पर परदा पड़ा रहता और सोफी के लिए क्या कुछ न कर डालता। पर इस पत्र ने मेरी आँखें खोल दीं और अब मैं आपकी सहायता नहीं कर सकता; बल्कि आपसे भी अनुरोध करता हूँ कि इस बोलशेविक आंदोलन को शांत करने में रियासत की सहायता कीजिए। सोफी-जैसी चतुर, कार्यशील, धुन की पक्की युवती के हाथों में यह आंदोलन कितना भयंकर हो सकता है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है।
विनय यहाँ से भी निराश होकर बाहर निकले, तो सोचने लगे, अब महाराजा साहब के पास जाना व्यर्थ है। वह साफ कह देंगे, जब मंत्री और एजेंट कुछ नहीं कर सकते, तो मैं क्या कर सकता हूँ। लेकिन जी न माना, ताँगेवाले को राजभवन की ओर चलने का हुक्म दिया।
नायकराम-क्या गिटपिट करता रहा? आया राह पर?
विनय-यही राह पर आ जाता, तो महाराज साहब के पास क्यों चलते?
नायकराम-हजार-दो हजार माँगता हो, तो दे क्यों नहीं देते? अफसर छोटे हों या बड़े, लोभी होते हैं।
विनय-क्या पागलों की-सी बात करते हो! अंगरेज में अगर ये बुराइयाँ होतीं, तो इस देश से ये लोग कब के सिधार गए होते। यों अंगरेज भी रिश्वत लेते हैं, देवता नहीं हैं, पहले-पहल अंगरेज यहाँ आए थे, वे तो पूरे डाकू थे, लेकिन अपने राज्य का अपकार करके ये लोग कभी अपना उपकार नहीं करते। रिश्वत भी लेंगे, तो उसी दशा में, जब राज्य को उससे कोई हानि न पहुँचे!
नायकराम चुप हो रहे। ताँगा राज-भवन की ओर जा रहा था। रास्ते में कई सड़कें, कई पाठशालाएँ, कई चिकित्सालय मिले। इन सबों के नाम अंगरेजी थे। यहाँ तक एक पार्क मिला, वह भी किसी अंगरेज एजेंट के नाम से अलंकृत था। ऐसा जान पड़ता था, यह कोई भारतीय नगर नहीं, अंगरेजों का शिविर है। ताँगा जब राजभवन के सामने पहुँचा तो विनयसिंह उतर पड़े और महाराजा के प्राइवेट सेक्रेटरी के पास गए। यह एक अंगरेज था। विनय से हाथ मिलाते हुए बोला-महाराजा साहब तो अभी पूजा पर है। ग्यारह बजे बैठा था, चार बजे उठेगा। क्या आप लोग इतनी देर तक पूजा किया करता है?
विनय-हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे पूजा करनेवाले हैं, जो कई-कई दिन तक समाधि में मग्न रहते हैं। पूजा का वह भाग, जिसमें परमात्मा या अन्य देवताओं से कल्याण की याचना की जाती है, शीघ्र समाप्त हो जाता है; लेकिन वह भाग, जिसमें योग-क्रियाओं द्वारा आत्मशुध्दि की जाती है, बहुत विशद होता है।
सेक्रेटरी-हम जिस राजा के साथ पहले था, वह सबेरे से दो बजे तक पूजा करता था, तब भोजन करता था और चार बजे सोता था। फिर नौ बजे पूजा पर बैठ जाता था और दो बजे रात को उठता था। वह एक घंटे के लिए सूर्यास्त के समय बाहर निकलता था। इतनी लम्बी पूजा मेरे विचार में अस्वाभाविक है। मैं समझता हूँ कि यह न तो उपासना है, न आत्मशुध्दि की क्रिया, केवल एक प्रकार की अकर्मण्यता है।
विनय का चित्ता इस समय इतना व्यग्र हो रहा था कि उन्होंने इस कटाक्ष का कुछ उत्तार न दिया। सोचने लगे-अगर राजा साहब ने भी साफ जवाब दिया, तो मेरे लिए क्या करना उचित होगा? अभी इतने बेगुनाहों के खून से हाथ रँगे हुए हैं, कहीं सोफी ने गुप्त हत्याओं का अभिनय आरम्भ किया, तो उसका खून भी मेरी ही गर्दन पर होगा। इस विचार से वह इतने व्याकुल हुए कि एक ठंडी साँस लेकर आराम-कुर्सी पर लेट गए और आँखें बंद कर लीं। यों वह नित्य संधया करते थे, पर आज पहली बार ईश्वर से दया-प्रार्थना की। रात-भर के जागे, दिन-भर के थके थे ही, एक झपकी आ गई। जब आँखें खुलीं, तो चार बज चुके थे। सेक्रेटरी से पूछा-अब तो हिज़ हाइनेस पूजा पर से उठ गए होंगे?
सेक्रेटरी-आपने तो एक लम्बी नींद ले ली।
यह कहकर उसने टेलीफोन द्वारा कहा-कुँवर विनयसिंह हिज़ हाइनेस से मिलना चाहते हैं।
एक क्षण में जवाब आया-आने दो।
विनयसिंह महाराज के दीवाने-खाने में पहुँचे। वहाँ कोई सजावट न थी, केवल दीवारों पर देवताओं के चित्र लटके हुए थे। कालीन के फर्श पर सफेद चादर बिछी हुई थी। महाराज साहब मसनद पर बैठे हुए थे। उनकी देह पर केवल एक रेशमी चादर थी और गले में एक तुलसी की माला। मुख से साधुता झलक रही थी। विनय को देखते ही बोले-आओ जी, बहुत दिन लगा दिए। मिस्टर क्लार्क की मेम का कुछ पता चला?
विनय-जी हाँ, वीरपालसिंह के घर है, और बड़े आराम से है। वास्तव में अभी मिस्टर क्लार्क से उसका विवाह नहीं हुआ है, केवल मँगनी हुई है। इनके पास आने पर राजी नहीं होती है। कहती है, मैं यहीं बड़े आराम से हूँ और मुझे भी ऐसा ही ज्ञात होता है।
महाराज-हरि-हरि! यह तो तुमने विचित्र बात सुनाई! इनके पास आती ही नहीं! समझ गया, उन सबों ने वशीकरण कर दिया होगा। शिव-शिव! इनके पास आती ही नहीं।
विनय-अब विचार कीजिए कि वह तो जीवित है, और सुखी है और यहाँ हम लोगों ने कितने ही निरपराधियों को जेल में डाल दिया,कितने ही घरों को बरबाद कर दिया और कितने ही को शारीरिक दंड दिए।
महाराजा-शिव-शिव! घोर अनर्थ हुआ।
विनय-भ्रम में हम लोगों ने गरीबों पर कैसे-कैसे अत्याचार किए कि उनकी याद ही से रोमांच हो आता है। महाराज बहुत उचित कहते हैं, घोर अनर्थ हुआ। ज्यों ही यह बात लोगों को मालूम हो जाएगी, जनता में हाहाकर मच जाएगा। इसलिए अब यही उचित है कि हम अपनी भूल स्वीकार कर लें और कैदियों को मुक्त कर दें।
महाराज-हरि-हरि, यह कैसे होगा बेटा? राजों से भी कहीं भूल होती है। शिव-शिव! राजा तो ईश्वर का अवतार है। हरि-हरि! वह एक बार जो कर देता है, उसे फिर नहीं मिटा सकता। शिव-शिव! राजा का शब्द ब्रह्मलेख है, वह नहीं मिट सकता, हरि-हरि!
विनय-अपनी भूल स्वीकार करने में जो गौरव है, वह अन्याय को चिरायु रखने में नहीं। अधीश्वरों के लिए क्षमा ही शोभा देती है। कैदियों को मुक्त करने की आज्ञा दी जाए, जुरमाने के रुपये लौटा दिए जाएँ और जिन्हें शारीरिक दंड दिए गए हैं, उन्हें धन देकर संतुष्ट किया जाए। इससे आपकी कीर्ति अमर हो जाएगी, लोग आपका यश गाएँगे और मुक्त कंठ से आशीर्वाद देेंगे।

महाराज-शिव-शिव! बेटा, तुम राजनीति की चालें नहीं जानते। यहाँ एक कैदी भी छोड़ा गया और रियासत पर वज्र गिरा। सरकार कहेगी,मेम को न जाने किस नीयत से छिपाए हुए है, कदाचित् उस पर मोहित है, तभी तो पहले दंड का स्वाँग भरकर अब विद्रोहियों को छोड़े देता है! शिव-शिव! रियासत धूल में मिल जाएगी, रसातल को चली जाएगी। कोई न पूछेगा कि यह सच है या झूठ। कहीं इस पर विचार न होगा। हरि-हरि! हमारी दशा साधारण अपराधियों से भी गई-बीती है। उन्हें तो सफाई देने का अवसर दिया जाता है, न्यायालय में उन पर कोई धारा लगाई जाती है और उसी धारा के अनुसार दंड दिया जाता है। हमसे कौन सफाई लेता है, हमारे लिए कौन-सा न्यायालय है! हरि-हरि! हमारे लिए न कोई कानून है, न कोई धारा। जो अपराध चाहा, लगा दिया; जो दंड चाहा, दे दिया। न कहीं अपील है, न फरियाद। राजा विषय-प्रेमी कहलाते ही हैं, उन पर यह दोषारोपण होते कितनी देर लगती है। कहा जाएगा, तुमने क्लार्क की अति रूपवती मेम को अपने रनिवास में छिपा लिया और झूठमूठ उड़ा दिया कि वह गुम हो गई? हरि-हरि! शिव-शिव! सुनता हूँ, बड़ी रूपवती स्त्री है, चाँद का टुकड़ा है,अप्सरा है। बेटा, इस अवस्था में यह कलंक न लगाओ। वृध्दावस्था भी हमें ऐसे कुत्सित दोषों से बचा नहीं सकती। मशहूर है, राजा लोग रसादि का सेवन करते हैं, इसलिए जीवन-पर्यंत हृष्ट-पुष्ट बने रहते हैं। शिव-शिव! यह राज्य नहीं है, अपने कर्मों का दंड है। नकटा जिया बुरे हवाल। शिव-शिव! अब कुछ नहीं हो सकता। सौ-पचास निर्दोष मनुष्यों का जेल में पड़ा रहना कोई असाधारण बात नहीं। वहाँ भी तो भोजन-वस्त्र मिलता ही है। अब तो जेलखानों की दशा बहुत अच्छी है। नए-नए कुरते दिए जाते हैं। भोजन भी अच्छा दिया जाता है। हाँ, तुम्हारी खातिर से इतना कर सकता हूँ कि जिन परिवारों का कोई रक्षक न रह गया हो, अथवा जो जुरमाने के कारण दरिद्र हो गए हों, उन्हें गुप्त रीति से कुछ सहायता दे दी जाए। हरि-हरि! तुम अभी क्लार्क के पास तो नहीं गए थे?

विनय-गया था, वहीं से तो आ रहा हूँ।
महाराजा-(घबराकर) उनसे तो यह नहीं कह दिया कि मेम साहब बड़े आराम से हैं और आने पर राजी नहीं है?
विनय-यह भी कह दिया, छिपाने की कोई बात न थी। किसी भाँति उन्हें धैर्य तो हो।
महाराजा-(जाँघ पर हाथ पटककर) सर्वनाश कर दिया! हरि-हरि चौपट-नाश कर दिया। शिव-शिव! आग तो लगा दी, अब मेरे पास क्यों आए हो। शिव-शिव! क्लार्क कहेगा, कैदी कैद में आराम से है, तो इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य है। अवश्य कहेगा! ऐसा कहना स्वाभाविक भी है। मेरे अदिन आ गए, शिव-शिव ! मैं इस आक्षेप का क्या उत्तार दूँगा! भगवन्, तुमने घोर संकट में डाल दिया। यह कहते हैं बचपन की बुध्दि! वहाँ न जाने कौन-सा शुभ समाचार कहने दौड़े थे। पहले प्रजा को भड़काया, रियासत में आग लगाई, अब यह दूसरा आघात किया। मूर्ख! तुझे क्लार्क से कहना चाहिए था, वहाँ मेम को नाना प्रकार के कष्ट दिए जा रहे हैं, अनेक यातनाएँ मिल रही हैं। ओह! शिव-शिव!
सहसा प्राइवेट सेक्रेटरी ने फोन में कहा-मिस्टर क्लार्क आ रहे हैं।
महाराजा ने खड़े होकर कहा-आ गया यमदूत, आ गया। कोई है? कोट-पतलून लाओ। तुम जाओ विनय, चले जाओ, रियासत से चले जाओ। फिर मुझे मुँह मत दिखाना। जल्दी पगड़ी लाओ, यहाँ से उगालदान हटा दो।
विनय को आज राजा से घृणा हो गई। सोचा, इतना पतन, इतनी कायरता! यों राज्य करने से डूब मरना अच्छा है! वह बाहर निकले, तो नायकराम ने पूछा-कैसी छनी?
विनय-इनकी तो मारे भय से आप ही जान निकली जाती है। ऐसा डरते हैं, मानो मिस्टर क्लार्क कोई शेर हैं और इन्हें आते-ही-आते खा जाएँगे। मुझसे तो इस दशा में एक दिन भी न रहा जाता।
नायकराम-भैया, मेरी तो अब सलाह है कि घर लौट चलो, इस जंजाल में कब तक जान खपाओगे?
विनय ने सजल नयन होकर कहा-पंडाजी, कौन मुँह लेकर घर जाऊँ? मैं अब घर जाने योग्य नहीं रहा। माताजी मेरा मुँह न देखेंगी। चला था जाति की सेवा करने, जाता हूँ सैकड़ों परिवारों का सर्वनाश करके। मेरे लिए तो अब डूब मरने के सिवा और कुछ नहीं रहा। न घर का रहा न घाट का। मैं समझ गया नायकराम, मुझसे कुछ न होगा, मेरे हाथों किसी का उपकार न होगा, मैं विष बोने ही के लिए पैदा किया गया हूँ;मैं सर्प हूँ, जो काटने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता। जिस पामर प्राणी को प्रांत-का-प्रांत गालियाँ दे रहा हो, जिसके अहित के लिए अनुष्ठान किए जा रहे हों, उसे संसार पर भार-स्वरूप रहने का क्या अधिकार है? आज मुझ पर कितने बेकसों की आहें पड़ रही हैं। मेरे कारण कितना आँसू बहा है, उसमें मैं डूब सकता हूँ। मुझे जीवन से भय लग रहा है। जितना जिऊँगा, उतना ही अपने ऊपर पापों का भार बढ़ाऊँगा। इस वक्त अगर अचानक मेरी मृत्यु हो जाए, तो समझ्रू, ईश्वर ने मुझे उबार लिया।

इस तरह ग्लानि में डूबे हुए विनय उस मकान में पहुँचे, जो रियासत की ओर से उन्हें ठहरने को मिला था। विनय को देखते ही नौकर-चाकर दौड़े, कोई पानी खींचने लगा, कोई झाड़ई देने लगा, कोई बरतन धोने लगा। विनय ताँगे से उतरकर सीधो दीवानखाने में गए। अंदर कदम रखा ही था कि मेज पर बंद लिफाफा मिला। विनय का हृदय धक-धक करने लगा। यह रानी जाह्नवी का पत्र था। लिफाफा खोलने की हिम्मत न पड़ी। कोई माता परदेश में पड़े हुए बीमार बेटे का तार पाकर इतनी शंकातुर न होती होगी। लिफाफा हाथ में लिए हुए सोचने लगे-इसमें मेरी भर्त्सना के सिवा और क्या होगा? इंद्रदत्ता ने जो कुछ कहा है, वही तीव्र शब्दों में यहाँ दुहराया गया होगा। लिफाफा ज्यों-का-त्यों रख दिया और सोचने लगे-अब क्या करना चाहिए? क्यों न यहाँ बाजार में खड़े होकर जनता को सूचित कर दूँ कि दरबार तुम्हारे साथ यह अन्याय कर रहा है? लेकिन इस समय पीड़ित जनता को सहायता की जरूरत है, धन कहाँ से आए? पिताजी को लिखूँ कि आप इस समय मेरे पास जितने रुपये भेज सकें, भेज दीजिए? रुपये आ जाएँ, तो यहाँ अनाथों में बाँट दूँ? नहीं, सबसे पहले वायसराय से मिलूँ और यहाँ की यथार्थ स्थिति उनसे बयान करूँ। सम्भव है, वह दरबार पर दबाव डालकर कैदियों को मुक्त करा दें। यही ठीक है। अब मुझे सब काम छोड़कर वाइसराय से मिलना चाहिए।

वह यात्रा की तैयारियाँ करने लगे, लेकिन रानीजी के पत्र की याद, सिर पर लटकती हुई नंगी तलवार की भाँति उन्हें उद्विग्न कर रही थी। आखिर उनसे न रहा गया, पत्र खोलकर पढ़ने लगे :

विनय, आज से कई मास पहले मैं तुम्हारी माता होने पर गर्व करती थी, पर आज तुम्हें पुत्र कहते हुए लज्जा से गड़ी जाती हूँ। तुम क्या थे, क्या हो गए! और अगर यही दशा रही, तो अभी और न जाने, क्या हो जाओगे। अगर मैं जानती कि तुम इस भाँति मेरा सिर नीचा करोगे, तो आज तुम इस संसार में न होते। निर्दयी! इसीलिए तूने मेरी कोख में जन्म लिया था! इसीलिए मैंने तुझे अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाला था! चित्रकार जब कोई चित्र बनाते-बनाते देखता है कि इससे मेरे मन के भाव व्यक्त नहीं होते, तो वह तुरंत उसे मिटा देता है। उसी भाँति मैं तुझे भी मिटा देना चाहती हूँ। मैंने ही तुम्हें रचा है। मैंने ही तुम्हें यह देह प्रदान की है। आत्मा कहीं से आई हो, देह मेरी है। मैं उसे तुमसे वापस माँगती हूँ। अगर तुममें अब भी कुछ आत्मसम्मान है, तो मेरी अमानत मुझे लौटा दो। तुम्हें जीवित देखकर मुझे दु:ख होता है। जिस काँटे से हृदय-वेदना हो रही है, उसे निकाल सकूँ, तो क्यों न निकाल दूँ! क्या तुम यह मेरी अंतिम अभिलाषा पूरी करोगे या अन्य अभिलाषाओं की भाँति इसे भी धूल में मिला दोगे? मैं अब भी तुम्हें इतना लज्जा-शून्य नहीं समझती, नहीं तो मैं स्वयं आती और तुम्हारे मर्मस्थल से वह वस्तु निकाल लेती, जो तुम्हारी कुमति का मूल है। क्या तुम्हें मालूम नहीं कि संसार में कोई ऐसी वस्तु भी है, जो संतान से भी अधिक प्रिय होती है? वह आत्मगौरव है। अगर तुम्हारे-जैसे मेरे सौ पुत्र होते, तो मैं उन सबों को उसकी रक्षा के लिए बलिदान कर देती। तुम समझते होगे, मैं क्रोध से बावली हो गई हूँ। यह क्रोध नहीं है, अपनी आत्मवेदना का रोदन है। जिस माता की लेखनी से ऐसे निर्दय शब्द निकलें, उसके शोक, नैराश्य और लज्जा का अनुमान तुम-जैसे दुर्बल प्राणी नहीं कर सकते। अब मैं और कुछ न लिखूँगी। तुम्हें समझाना व्यर्थ है। जब उम्र-भर की शिक्षा निष्फल हो गई, तो एक पत्र की शिक्षा का क्या फल होगा! अब केवल दो इच्छाएँ हैं-ईश्वर से तो यह कि तुम-जैसी संतान सातवें वैरी को भी न दें, और तुमसे यह कि अपने जीवन की क्रूर लीला को समाप्त करो।

विनय यह पत्र पढ़कर रोए नहीं, क्रुध्द नहीं हुए, ग्लानित भी नहीं हुए। उनके नेत्र गर्वोत्तोजना से चमक उठे, मुख-मंडल पर आरक्त तेज की आभा दिखाई दी, जैसी किसी कवीश्वर के मुख से अपने पूर्वजों की वीरगाथा सुनकर मनचले राजपूत का मुख तमतमा उठे-माता, तू धन्य है। स्वर्ग में बैठी हुई वीर राजपूतानियों की वीर आत्माएँ तुम्हारी आदर्शवादिता पर गर्व करती होंगी। मैंने अब तक तुम्हारी अलौकिक वीरता का परिचय न पाया था। तुमने भारत की विदुषियों का मस्तक उन्नत कर दिया। देवी! मैं स्वयं अपने को तुम्हारा पुत्र कहते हुए लज्जित हूँ! हा, मैं तुम्हारा पुत्र कहलाने योग्य नहीं हूँ। तुम्हारे फ्ै+सले के आगे सिर झुकाता हूँ। अगर मेरे पास सौ जानें होतीं, तो न सबों को तुम्हारे आत्मगौरव की रक्षा के लिए बलिदान कर देता। अभी इतना निर्लज्ज नहीं हुआ हूँ। लेकिन यों नहीं। मैं तुम्हें इतना संतोष देना चाहता हूँ कि तुम्हारा पुत्र जीना नहीं जानता, पर मरना जानता है। अब विलम्ब क्यों? जीवन में जो कुछ न करना था, वह सब कर चुका। उसके अंत का इससे उत्ताम और कौन अवसर मिलेगा? यह मस्तक केवल एक बार तुम्हारे चरणों पर तड़पेगा। सम्भव है, अंतिम समय तुम्हारा पवित्र आशीर्वाद पा जाऊँ। शायद तुम्हारे मुख से ये पावन शब्द निकल जाएँ कि 'मुझे तुझसे ऐसी ही आशा थी, तूने जीना न जाना, लेकिन मरना जानता है।' यदि अंत समय भी तुम्हारे मुख से 'प्रिय पुत्र', ये दो शब्द सुन सका, तो मेरी आत्मा शांत हो जाएगी, और नरक में भी सुख का अनुभव करेगी। काश! ईश्वर ने पर दिए होते, तो उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाता।

विनय ने बाहर की तरफ देखा। सूर्यदेव किसी लज्जित प्राणी की भाँति अपना कांतिहीन मुख पर्वतों की आड़ में छिपा चुके थे। नायकराम पल्थी मारे भंग घोट रहे थे। यह काम वह सेवकों से नहीं लेते थे। कहते-यह भी एक विद्या है, कोई हल्दी-मसाला तो है नहीं कि जो चाहे, पीस दे। इसमें बुध्दि खर्च करनी पड़ती है, तब जाकर बूटी बनती है। कल नागा भी हो गया। तन्मय होकर भंग पीसते और रामायण की दो-चार चौपाइयाँ, जो याद थीं, लय से गाते जाते थे। इतने में विनय ने बुलाया।
नायकराम-क्या है भैया? आज मजेदार बूटी बन रही है। तुमने कभी काहे को पी होगी। आज थोड़ी-सी ले लेना, सारी थकावट भाग जाएगी।
विनय-अच्छा, इस वक्त बूटी रहने दो। अम्माँजी का पत्र आया है, घर चलना है, एक ताँगा ठीक कर लो।
नायकराम-भैया, तुम्हारे तो सब काम उतावली के होते हैं। घर चलना है, तो कल आराम से चलेंगे। बूटी छानकर रसोई बनाता हूँ। तुमने बहुत कशमीरी रसोइयों का बनाया हुआ खाना खाया होगा, आज जरा मेरे हाथ के भोजन का भी स्वाद लो।
विनय-अब घर पहुँचकर ही तुम्हारे हाथ के भोजन का स्वाद लूँगा।
नायकराम-माताजी ने बुलाया होगा?
विनय-हाँ, बहुत जल्द।
नायकराम-अच्छा, बूटी तो तैयार हो जाए। गाड़ी तो नौ बजे रात को जाती है।
विनय-नौ बजने में देर नहीं है। सात तो बज ही गए होंगे।
नायकराम-जब तक असबाब बँधवाओ, मैं जल्दी से बनाए लेता हूँ। तकदीर में इतना सुख भी नहीं लिखा है कि निश्ंचित होकर बूटी तो बनाता।
विनय-असबाब कुछ नहीं जाएगा। मैं घर से कोई असबाब लेकर नहीं आया था। यहाँ से चलते समय घर की क्ुं+जी सरदार साहब को दे देनी होगी।
नायकराम-और यह सारा असबाब?
विनय-कह दिया कि मैं कुछ न ले जाऊँगा।
नायकराम-भैया, तुम कुछ न लो, पर मैं तो यह दुशाला और यह संदूक जरूर लूँगा। जिधर से दुशाला ओढ़कर निकल जाऊँगा, देखनेवाले लोट जाएँगे।
विनय-ऐसी घातक वस्तु लेकर क्या करोगे, जिसे देखकर ही सुथराव हो जाए। यहाँ की कोई चीज मत छूना, जाओ।
नायकराम भाग्य को कोसते हुए घर से निकले, तो घंटे-भर तक गाड़ी का किराया ठीक करते रहे। आखिर जब यह जटिल समस्या किसी विधि न हल हुई, तो एक को जबरदस्ती पकड़ लाया। ताँगेवाला भुनभुनाता हुआ आया-सब हाकिम-ही-हाकिम तो हैं, मुदा जानवर के पेट को भी तो कुछ मिलना चाहिए; कोई माई का लाल यह नहीं सोचता कि दिन-भर तो बेगार में मरेगा, क्या आप खाएगा, क्या जानवर को खिलाएगा, क्या बाल-बच्चों को देगा। उस पर निखरनामा लिखकर गली-गली लटका दिया। बस, ताँगेवाले ही सबको लूटे खाते हैं, और तो जितने अमले-मुलाजिम हैं, सब दूध के धोए हुए हैं। वकचा ढो ले, भीख माँग खाए, मगर ताँगा कभी न चलाए।

ज्यों ही ताँगा द्वार पर आया, विनय आकर बैठ गए, लेकिन नायकराम अपनी अधघुटी बूटी क्योंकर छोड़ते? जल्दी-जल्दी रगड़ी, छानकर पी, तमाखू खाई, आईना के सामने खड़े होकर पगड़ी बाँधी, आदमियों को राम-राम कहा और दुशाले को सचेष्ट नेत्रों से ताकते हुए बाहर निकले। ताँगा चला। सरदार साहब का घर रास्ते ही में था। वहाँ जाकर नायकराम ने क्ुं+जी उनके द्वारपाल के हवाले की और आठ बजते-बजते स्टेशन पर पहुँच गए। नायकराम ने सोचा, राह में तो कुछ खाने को मिलेगा नहीं, और गाड़ी पर भोजन करेंगे कैसे, दौड़कर पूरियाँ लीं,पानी लाए और खाने बैठ गए। विनय ने कहा, मुझे अभी इच्छा नहीं है। वह खड़े गाड़ियों की समय-सूची देख रहे थे कि यह गाड़ी अजमेर कब पहुँचेगी, दिल्ली में कौन-सी गाड़ी मिलेगी। सहसा क्या देखते हैं कि एक बुढ़िया आर्त्तनाद करते हुए चली आ रही है। दो-तीन आदमी उसे सँभाले हुए हैं। वह विनयसिंह के समीप आकर बैठ गई। विनय ने पूछा, तो मालूम हुआ कि इसका पुत्र जसवंतनगर की जेल का दारोगा था,उसे दिन-दहाड़े किसी ने मार डाला। अभी समाचार आया है, और यह बेचारी शोकातुरा माता यहाँ से जसवंतनगर जा रही है। मोटरवाले किराया बहुत माँगते थे, इसलिए रेलगाड़ी से जाती है। रास्ते में उतरकर बैलगाड़ी कर लेगी। एक ही पुत्र था; बेचारी को बेटे का मुँह देखना भी न बदा था।

विनयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ-दारोगा बड़ा सीधा-सादा आदमी था। कैदियों पर बड़ी दया किया करता था। उसके किसी को क्या दुश्मनी हो सकती थी? उन्हें तुरंत संदेह हुआ कि यह भी वीरपालसिंह के अनुयायियों की क्रूर लीला है। सोफी ने कोरी धमकी न दी थी। मालूम होता है, उसने गुप्त हत्याओं के साधन एकत्र कर लिए हैं। भगवान्, मेरे दुष्कृत्यों का क्षेत्र कितना विकसित है! इन हत्याओं का अपराध मेरी गर्दन पर है, सोफी की गर्दन पर नहीं। सोफिया जैसी करुणामयी विवेकशीला, धर्मनिष्ठ रमणी मेरी ही दुर्बलता से प्रेरित होकर हत्या-मार्ग पर अग्रसर हुई है। ईश्वर! क्या अभी मेरी यातनाओं की मात्रा पूरी नहीं हुई? मैं फिर सोफ़िया के पास जाऊँगा और उसके चरणों पर सिर रखकर विनीत भाव से कहँगा-देवी! मैं अपने किए का दंड पा चुका, अब यह लीला समाप्त कर दो, अन्यथा यहीं तुम्हारे सामने प्राण त्याग दूँगा! लेकिन सोफी को पाऊँ कहाँ? कौन मुझे उस दुर्गम दुर्ग तक ले जाएगा।
जब गाड़ी आई, तो विनय ने वृध्दा को अपनी ही गाड़ी में बैठाया। नायकराम दूसरी गाड़ी में बैठे, क्योंकि विनय के सामने उन्हें मुसाफिरों से चुहल करने का मौका न मिलता। गाड़ी चली। आज पुलिस के सिपाही प्रत्येक स्टेशन पर टहलते हुए नजर आते थे। दरबार ने मुसाफिरों की रक्षा के लिए यह विशेष प्रबंध किया था। किसी स्टेशन पर मुसाफिर सवार होते न नजर आते थे। विद्रोहियों ने कई जागीरदारों को लूट लिया था।
पाँचवें स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एकाएक गाड़ी रुक गई। वहाँ कोई स्टेशन न था। लाइन के नीचे कई आदमियों की बातचीत सुनाई दी। फिर किसी ने विनय के कमरे का द्वार खोला। विनय ने पहले तो आगंतुक को रोकना चाहा, गाड़ी में बैठते ही उनका साम्यवाद स्वार्थ का रूप धारण कर लेता था। यह भी संदेह हुआ कि डाकू न हों, लेकिन निकट से देखा, तो किसी स्त्री के हाथ थे, अलग हट गए, और एक क्षण में एक स्त्री गाड़ी पर चढ़ आई। विनय देखते ही पहचान गए, वह मिस सोफ़िया थी। उसके बैठते ही गाड़ी फिर चलने लगी।
सोफ़िया ने गाड़ी में आते ही विनय को देखा, तो चेहरे का रंग उड़ गया। जी में आया, गाड़ी से उतर जाऊँ। पर वह चल चुकी थी। एक क्षण तक वह हतबुध्दि-सी खड़ी रही, विनय के सामने उसकी आँखें न उठती थीं, तब उसी वृध्दा के पास बैठ गई और खिड़की की ओर ताकने लगी। थोड़ी देर तक दोनों मौन बैठे रहे, किसी को बात करने की हिम्मत न पड़ती थी।
वृध्दा ने सोफी से पूछा-कहाँ जाओगी बेटी?
सोफ़िया-बड़ी दूर जाना है।
वृध्दा-यहाँ कहाँ से आ रही हो?
सोफ़िया-यहाँ से थोड़ी दूर एक गाँव है, वहीं से आती हूँ।
वृध्दा-तुमने गाड़ी खड़ी करा दी थी क्या?
सोफ़िया-स्टेशनों पर आजकल डाके पड़ रहे हैं। इसी से बीच में गाड़ी रुकवा दी।
वृध्दा-तुम्हारे साथ और कोई नहीं है क्या? अकेले कैसे जाओगी?
सोफिया-आदमी न हो, ईश्वर तो है!
वृध्दा-ईश्वर है कि नहीं, कौन जाने। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि संसार का करता-धरता कोई नहीं है, तभी तो दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं, खून होते हैं। कल मेरे बेटे को डाकुओं ने मार डाला। (रोकर) गऊ था, गऊ। कभी मुझे जवाब नहीं दिया। जेल के कैदी उसको असीस दिया करते थे। कभी भलेमानस को नहीं सताया। उस पर यह वज्र गिरा, तो कैसे कहूँ कि ईश्वर है।
सोफ़िया-क्या जसवंतनगर के जेलर आपके बेटे थे?
वृध्दा-हाँ बेटी, यही एक लड़का था, सो भगवान् ने हर लिया।
यह कहकर वृध्दा सिसकने लगी। सोफ़िया का मुख किसी मरणासन्न रोगी के मुख की भाँति निष्प्रभ हो गया। जरा देर तक वह करुणा के आवेश को दबाए हुए खड़ी रही। तब खिड़की के बाहर सिर निकालकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका कुत्सित प्रतिकार नग्न रूप में उसके सामने खड़ा था।
सोफी आधा घंटे तक मुँह छिपाए रोती रही, यहाँ तक कि वह स्टेशन आ गया जहाँ वृध्दा उतरना चाहती थी। जब वह उतरने लगी, तो विनय ने उसका असबाब उतारा और उसे सांत्वना देकर बिदा किया।
अभी विनय गाड़ी में बैठे भी न थे कि सोफी नीचे आकर वृध्दा के सम्मुख खड़ी हो गई और बोली-माता, तुम्हारे पुत्र की हत्या करनेवाली मैं हूँ। जो दंड चाहो, दो! तुम्हारे सामने खड़ी हूँ।
वृध्दा ने विस्मित होकर कहा-क्या तू ही वह पिशाचिनी है, जिसने दरबार से लड़ने के लिए डाकुओं को जमा किया है? नहीं, तू नहीं हो सकती। तू तो मुझे करुणा और दया की मूर्ति-सी दीखती है।
सोफी-हाँ, माता, मैं वही पिशाचिनी हूँ।
वृध्दा-जैसा तूने किया वैसा तेरे आगे आएगा। मैं तुझे और क्या कहूँ। मेरी भाँति तेरे भी दिन रोते बीतें।
एंजिन ने सीटी दी। सोफी संज्ञा-शून्य-सी खड़ी रही। वहाँ से हिली तक नहीं। गाड़ी चल पड़ी। सोफी अब भी वहीं खड़ी थी। सहसा विनय गाड़ी से कूद पड़े, सोफ़िया का हाथ पकड़कर गाड़ी में बैठा दिया और बड़ी मुश्किल से आप भी गाड़ी में चढ़ गए। एक पलक भी विलम्ब होता,तो वहीं रह जाते।

सोफ़िया ने ग्लानि-भाव से कहा-विनय, तुम मेरा विश्वास करो या न करो; पर मैं सत्य कहती हूँ कि मैंने वीरपाल को एक हत्या की भी अनुमति नहीं दी। मैं उसकी घातक प्रवृत्तिा को रोकने का यथाशक्ति प्रयत्न करती रही; पर यह दल इस प्रत्याघात की धुन में उन्मत्ता हो रहा है। किसी ने मेरी न सुनी। यही कारण है कि मैं अब यहाँ से जा रही हूँ। मैंने उसे रात को अमर्ष की दशा में तुमसे न जाने क्या-क्या बातें कीं, लेकिन ईश्वर ही जानते हैं, इसका मुझे कितना खेद और दु:ख है। शांत मन से विचार करने पर मुझे मालूम हो रहा है कि निरंतर दूसरों को मारने और दूसरों के हाथों मारे जाने के लिए आपत्काल में ही हम तत्पर हो सकते हैं। यह दशा स्थायी नहीं हो सकती। मनुष्य स्वभावत: शांतिप्रिय होता है। फिर जब सरकार की दमननीति ने निर्बल प्रजा को प्रत्याघात पर आमादा कर दिया, तो क्या सबल सरकार और भी कठोर नीति का अवलम्बन न करेगी? लेकिन मैं तुमसे ऐसी बातें कर रही हूँ, मानो तुम घर के आदमी हो। मैं भूल गई थी कि तुम राजभक्तों के दल में हो। पर इतनी दया करना कि मुझे पुलिस के हवाले न कर देना। पुलिस से बचने के लिए ही मैंने रास्ते में गाड़ी को रोककर सवार होने की व्यवस्था की। मुझे संशय है कि इस समय भी तुम मेरी ही तलाश में हो।

विनयसिंह की आँखें सजल हो गईं। खिन्न स्वर में बोले-सोफ़िया, तुम्हें अख्यितार है मुझे जितना नीच और पतित चाहो, समझो; मगर एक दिन आएगा, जब तुम्हें इन वाक्यों पर पछताना पड़ेगा और तुम समझोगी कि तुमने मेरे ऊपर कितना अन्याय किया है। लेकिन जरा शांत मन से विचार करो, क्या घर पर, यहाँ आने के पहले, मेरे पकड़े जाने की खबर पाकर तुमने भी वही नीति न धारण की थी? अंतर केवल इतना था कि मैंने दूसरों को बरबाद किया, तुम अपने ही को बरबाद करने पर तैयार हो गईं। मैंने तुम्हारी नीति को क्षम्य समझा, वह आपध्दर्म था। तुमने मेरी नीति को अम्य समझा और कठोर-से-कठोर आघात जो तुम कर सकती थीं, वह कर बैठीं। किंतु बात एक ही है! तुम्हें मुझको पुलिस की सहायता करते देखकर इतना शोकमय आश्चर्य न हुआ होगा, जितना मुझको तुम्हें मिस्टर क्लार्क के साथ देखकर हुआ। इस समय भी तुम उसी प्रतिहिंसक नीति का अवलम्बन कर रही हो, या कम-से-कम मुझसे कर चुकी हो। इतने पर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती। तुम्हारी झिड़कियाँ सुनकर मुझे जितना मानसिक कष्ट हुआ और हो रहा है, वही मेरे लिए असाधय था। उस पर तुमने इस समय और भी नमक छिड़क दिया। कभी तुम इस निर्दयता पर खून के आँसू बहाओगी। खैर।

यह कहते-कहते विनय का गला भर आया। फिर वह और कुछ न कह सके।
सोफ़िया ने आँखों में असीम अनुराग भरकर कहा-आओ, अब हमारी-तुम्हारी मैत्री हो जाए। मेरी उन बातों को क्षमा कर दो।
विनय ने कंठ-स्वर को सँभालकर कहा-मैं कुछ कहता हूँ? अगर जी न भरा हो, तो और जो चाहो, कह डालो। जब बुरे दिन आते हैं, तो कोई साथी नहीं होता। तुम्हारे यहाँ से आकर मैंने कैदियों को मुक्त करने के लिए अधिकारियों से, मिस्टर क्लार्क से, यहाँ तक कि महाराजा साहब से जितनी अनुनय-विनय की, वह मेरा ही दिल जानता है। पर किसी ने मेरी बातें तक न सुनीं। चारों तरफ से निराश होना पड़ा।
सोफी-यह तो मैं जानती थी। इस वक्त कहाँ जा रहे हो?
विनय-जहन्नुम में।
सोफी-मुझे भी लेते चलो।
विनय-तुम्हारे लिए स्वर्ग है।
एक क्षण बाद फिर बोले-घर जा रहा हूँ। अम्माँजी ने बुलाया है। मुझे देखने के लिए उत्सुक हैं।
सोफ़िया-इंद्रदत्ता तो कहते थे, तुमसे बहुत नाराज हैं?
विनय ने जेब से रानीजी का पत्र निकालकर सोफी को दे दिया और दूसरी ओर ताकने लगे। कदाचित् वह सोच रहे थे कि यह तो मुझसे इतनी खिंच रही है, और मैं बरबस इसकी ओर दौड़ा जाता हूँ। सहसा सोफ़िया ने पत्र फाड़कर खिड़की के बाहर फेंक दिया और प्रेमविह्नल होकर बोली-मैं तुम्हें न जाने दूँगी। ईश्वर जानता है, न जाने दूँगी। तुम्हारे बदले मैं स्वयं रानीजी के पास जाऊँगी और उनसे कहूँगी, तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ...यह कहते-कहते उसकी आवाज फँस गई। उसने विनय के कंधो पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। आवाज हल्की हुई, तो फिर बोली-मुझसे वादा करो न कि न जाऊँगा। तुम नहीं जा सकते। धर्म और न्याय से नहीं जा सकते। बोलो, वादा करते हो?
उन सजल नेत्रों में कितनी करुणा, कितनी याचना, कितनी विनय, कितना आग्रह था!
विनय ने कहा-नहीं सोफी, मुझे जाने दो। तुम माताजी को खूब जानती हो। मैं न जाऊँगा, तो वह अपने दिल में मुझे निर्लज्ज, बेहया,कायर समझने लगेंगी और इस उद्विग्नता की दशा में न जाने क्या कर बैठें।
सोफिया-नहीं विनय, मुझ पर इतना जुल्म न करो। ईश्वर के लिए दया करो। मैं रानीजी के पास जाकर रोऊँगी, उनके पैरों पर गिरूँगी और उनके मन में तुम्हारे प्रति जो गुबार भरा हुआ है, उसे अपने आँसुओं से धो दूँगी। मुझे दावा है कि मैं उनके पुत्रवात्सल्य को जागृत कर दूँगी। मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ। उनका हृदय दया का आगार है। जिस वक्त मैं उनके चरणों पर गिरकर कहूँगी, अम्माँ, तुम्हारा बेटा मेरा मालिक है, मेरे नाते उसे क्षमा कर दो, उस वक्त वह मुझे पैरों से ठुकराएँगी नहीं। वहाँ से झल्लाई हुई उठकर चली जाएँगी, लेकिन एक क्षण बाद मुझे बुलाएँगी और प्रेम से गले लगाएँगी। मैं उनसे तुम्हारी प्राण-भिक्षा माँगूँगी, फिर तुम्हें माँग लूँगी। माँ का हृदय कभी इतना कठोर नहीं हो सकता। वह यह पत्र लिखकर शायद इस समय पछता रही होंगी, मना रही होंगी कि पत्र न पहुँचा हो। बोलो, वादा करो।
ऐसे प्रेम से सने, अनुराग में डूबे वाक्य विनय के कानों ने कभी न सुने थे, उन्हें अपना जीवन सार्थक मालूम होने लगा। आह! सोफी अब भी मुझे चाहती है, उसने मुझे क्षमा कर दिया। वह जीवन, तो पहले मरुभूमि के समान निर्जन, निर्जल, निर्जीव था, अब पशु-पक्षियों,सलिल-धाराओं और पुष्प-लतादि से लहराने लगा। आनंद के कपाट खुल गए थे और उसके अंदर से मधुर गान की तानें, विद्युद्दीपों की झलक, सुगंधित वायु की लपट बाहर आकर चित्ता को अनुरक्त करने लगी। विनयसिंह को इस सुरम्य दृश्य ने मोहित कर लिया। जीवन के सुख जीवन के दु:ख हैं। विराग और आत्मग्लानि ही जीवन के रत्न हैं। हमारी पवित्र कामनाएँ, हमारी निर्मल सेवाएँ, हमारी शुभ कल्पनाएँ विपत्तिा ही की भूमि में अंकुरित और पल्लवित होती हैं।
विनय ने विचलित होकर कहा-सोफी, अम्माँजी के पास एक बार मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि जब तक वह फिर स्पष्ट रूप से न कहेंगी...
सोफ़िया ने विनय की गर्दन में बाँहें डालकर कहा-नहीं-नहीं, मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं। तुम अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकते। तुममें साहस है, आत्माभिमान है, शील है, सब कुछ है, पर धैर्य नहीं। पहले मैं अपने लिए तुम्हें आवश्यक समझती थी, अब तुम्हारे लिए अपने को आवश्यक समझती हूँ। विनय, जमीन की तरफ क्यों ताकते हो? मेरी ओर देखो। मैंने जो तुम्हें कटु वाक्य कहे, उन पर लज्जित हूँ। ईश्वर साक्षी है, सच्चे दिल से पश्चात्ताप करती हूँ। उन बातों को भूल जाओ। प्रेम जितना ही आदर्शवादी होता है, उतना ही क्षमाशील भी। बोलो, वादा करो। अगर तुम मुझसे गला छुड़ाकर चले जाओगे, तो फिर...तुम्हें सोफी फिर न मिलेगी।
विनय ने प्रेम-पुलकित होकर कहा-तुम्हारी इच्छा है, तो न जाऊँगा।
सोफी-तो हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे।
विनय-नहीं पहले बनारस चलें। तुम अम्माँजी के पास जाना। अगर वह मुझे क्षमा कर देंगी...
सोफी-विनय, अभी बनारस मत चलो। कुछ दिन चित्ता को शांत होने दो, कुछ दिन मन को विश्राम लेने दो। फिर रानीजी का तुम पर क्या अधिकार है? तुम मेरे हो, समस्त नीतियों के अनुसार, जो ईश्वर ने और मनुष्य ने रची हैं, तुम मेरे हो। मैं रिआयत नहीं, अपना स्वत्व चाहती हूँ। हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे। इसके बाद सोचेंगे, हमें क्या करना है, कहाँ जाना है।
विनय ने सकुचाते हुए कहा-जीवन का निर्वाह कैसे होगा? मेरे पास जो कुछ है, वह नायकराम के पास है। वह किसी दूसरे डब्बे में है। अगर उसे खबर हो गई, तो वह भी हमारे साथ चलेगा।
सोफी-इसकी क्या चिंता। नायकराम को जाने दो। प्रेम जंगलों में भी सुखी रह सकता है।
अंधोरी रात में गाड़ी शैल और शिविर को चीरती चली जाती थी। बाहर दौड़ती हुई पर्वत-मालाओं के सिवा और कुछ न दिखाई देता था। विनय तारों की दौड़ देख रहे थे, सोफ़िया देख रही थी कि आस-पास कोई गाँव है या नहीं।
इतने में स्टेशन नज़र आया। सोफी ने गाड़ी का द्वार खोल दिया और दोनों चुपके से उतर पड़े, जैसे चिड़ियों का जोड़ा घोंसले से दाने की खोज में उड़ जाए। उन्हें इसकी चिंता नहीं कि आगे ब्याध भी है, हिंसक पक्षी भी हैं, किसान की गुलेल भी है। इस समय तो दोनों अपने विचारों में मग्न हैं, दाने से लहराते हुए खेतों की बहार देख रहे हैं। पर वहाँ तक पहुँचना भी उनके भाग्य में है, यह कोई नहीं जानता।

रंगभूमि अध्याय 36

मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उनका लिहाज करते थे। लेकिन आय-वृध्दि के साथ उनके व्यय में भी खासी वृध्दि हो गई थी। जब यहाँ अपने बराबर के लोग न थे; फटे जूतों पर ही बसर कर लिया करते, खुद बाजार से सौदा-सुलफ लाते, कभी-कभी पानी भी खींच लेते थे। कोई हँसनेवाला न था। अब मिल के कर्मचारियों के सामने उन्हें ज्यादा शान से रहना पड़ता था और कोई मोटा काम अपने हाथ से करते हुए शर्म आती थी। इसलिए विवश होकर एक बुढ़िया मामा रख ली थी। पान-इलायची आदि का खर्च कई गुना बढ़ गया था। उस पर कभी-कभी दावत भी करनी पड़ती थी। अकेले रहनेवाले से कोई दावत की इच्छा नहीं करता। जानता है, दावत फीकी होगी। लेकिन सकुटुम्ब रहनेवालों के लिए भागने का कोई द्वार नहीं रहता। किसी ने कहा-खाँ साहब, आज जरा जरदे पकवाइए, बहुत दिन हुए, रोटी-दाल खाते-खाते जबान मोटी पड़ गई। ताहिर अली को इसके जवाब में कहना ही पड़ता-हाँ-हाँ, लीजिए, आज बनवाता हूँ। घर में एक ही स्त्री होती, तो उसकी बीमारी का बहाना करके टालते, लेकिन यहाँ तो एक छोड़ तीन-तीन महिलाएँ थीं। फिर ताहिर अली रोटी के चोर न थे। दोस्तों के आतिथ्य में उन्हें आनंद आता था। सारांश यह कि शराफत के निबाह में उनकी बधिया बैठी जाती थी। बाजार में तो अब उनकी रत्ती-भर भी साख न रही थी, जमामार प्रसिध्द हो गए थे, कोई धोले की चीज को भी न पतियाता, इसलिए मित्रों से हथफेर रुपये लेकर काम चलाया करते। बाजारवालों ने निराश होकर तकाजा करना ही छोड़ दिया, समझ गए कि इसके पास है ही नहीं, देगा कहाँ से? लिपि-बध्द ऋण अमर होता है। वचन-बध्द ऋण निर्जीव और नश्वर। एक अरबी घोड़ा है, जो एड़ नहीं सह सकता; या तो सवार का अंत कर देगा या अपना। दूसरा लद्दू टट्टू है, जिसे उसके पैर नहीं, कोड़े चलाते हैं; कोड़ा टूटा या सवार का हाथ रुका, तो टट्टई बैठा, फिर नहीं उठ सकता।

लेकिन मित्रों के आतिथ्य-सत्कार ही तक रहता, तो शायद ताहिर अली किसी तरह खींच-तानकर दोनों चूल बराबर कर लेते। मुसीबत यह थी कि उनके छोटे भाई माहिर अली इन दिनों मुरादाबाद के पुलिस-ट्रेनिंग स्कूल में भरती हो गए थे। वेतन पाते ही उसका आधा, आँखें बंद करके मुरादाबाद भेज देना पड़ता था। ताहिर अली खर्च से डरते थे, पर उनकी दोनों माताओं ने उन्हें ताने देकर घर में रहना मुश्किल कर दिया। दोनों ही की यह हार्दिक लालसा थी कि माहिर अली पुलिस में जाए और दारोगा बने। बेचारे ताहिर अली महीनों तक हुक्काम के बँगलों की खाक छानते रहे; यहाँ जा, वहाँ जा; इन्हें डाली, उन्हें नजराना पेश कर; इनकी सिफारिश करवा, उनकी चिट्ठी ला। बारे मिस्टर जॉन सेवक की सिफारिश काम कर गई। ये सब मोरचे तो पार हो गए। अंतिम मोरचा डॉक्टरी परीक्षा थी। यहाँ सिफारिश और खुशामद की गुजर न थी।32 रुपये सिविल सर्जन के लिए 16 रुपये असिस्टैंट सर्जन के लिए और 8 रुपये क्लर्क तथा चपरासियों के लिए, कुल 56 रुपये जोड़ था। ये रुपये कहाँ से आएँ? चारों ओर से निराश होकर ताहिर अली कुल्सूम के पाए आए और बोले-तुम्हारे पास कोई जेवर हो, तो दे दो, मैं बहुत जल्द छुड़ा दूँगा। उसने तिनककर संदूक उनके सामने पटक दिया और कहा-यहाँ गहनों की हवस नहीं, सब आस पूरी हो चुकी। रोटी-दाल मिलती जाए, यही गनीमत है। तुम्हारे गहने तुम्हारे सामने हैं, जो चाहो, करो। ताहिर अली कुछ देर तक शर्म से सिर न उठा सके। फिर संदूक की ओर देखा। ऐसी एक भी वस्तु न थी, जिससे इसकी चौथाई रकम मिल सकती। हाँ, सब चीजों को कूड़ा कर देने पर काम चल सकता था। सकुचाते हुए सब चीजें निकालकर रूमाल में बाँधी और बाहर आकर इस सोच में बैठे थे कि इन्हें क्योंकर ले जाऊँ कि इतने में मामा आई। ताहिर अली को सूझी, क्यों न इसकी मारफत रुपये मँगवाऊँ। मामाएँ इन कामों में निपुण होती हैं। धीरे से बुलाकर उससे यह समस्या कही। बुढ़िया ने कहा-मियाँ, यह कौन-सी बड़ी बात है, चीज तो रखनी है, कौन किसी से खैरात माँगते हैं। मैं रुपये ला दूँगी, आप निसाखातिर रहें। गहनों की पोटली लेकर चली, तो जैनब ने देखा। बुलाकर बोलीं-तू कहाँ लिए-लिए फिरेगी, मैं माहिर अली से रुपये मँगवाए देती हूँ, उनका एक दोस्त साहूकारी का काम करता है। मामा ने पोटली उसे दे दी, दो घंटे बाद अपने पास से 56 रुपये निकालकर दे दिए। इस भाँति यह कठिन समस्या हल हुई। माहिर अली मुरादाबाद सिधारे और तब से वहीं पढ़ रहे थे। वेतन का आधा भाग वहाँ निकल जाने के बाद शेष में घर का खर्च बड़ी मुश्किल से पूरा पड़ता। कभी-कभी उपवास करना पड़ जाता। उधर माहिर अली आधो पर ही संतोष न करते। कभी लिखते, कपड़ों के लिए रुपये भेजिए; कभी टेनिस खेलने के लिए सूट की फरमाइश करते। ताहिर अली को कमीशन के रुपयों में से भी कुछ-न-कुछ वहाँ भेज देना पड़ता था।

एक दिन रात-भर उपवास करने के बाद प्रात:काल जैनब ने आकर कहा-आज रुपयों की कुछ फिक्र की, या आज भी रोजा रहेगा।
ताहिर अली ने चिढ़कर कहा-मैं अब कहाँ से लाऊँ? तुम्हारे सामने कमीशन के रुपये मुरादाबाद भेज दिए थे। बार-बार लिखता हूँ कि किफायत से खर्च करो, मैं बहुत तंग हूँ; लेकिन वह हजरत फरमाते हैं, यहाँ एक-एक लड़का घर से सैकड़ों मँगवाता है और बेदरेग खर्च करता है, इससे ज्यादा किफायत मेरे लिए नहीं हो सकती। जब उधर का यह हाल है, इधर का यह हाल, तो रुपये कहाँ से लाऊँ? दोस्तों में भी तो कोई ऐसा नहीं बचा, जिससे कुछ माँग सकूँ।
जैनब-सुनती हो रकिया, इनकी बातें? लड़के को खर्च क्या दे रहे हैं, गोया मेरे ऊपर कोई एहसान कर रहे हैं। मुझे क्या, तुम उसे खर्च भेजो या बुलाओ। उसके वहाँ पढ़ने से यहाँ पेट थोड़े ही भर जाएगा। तुम्हारा भाई है, पढ़ाओ या न पढ़ाओ, मुझ पर क्या एहसान!
ताहिर-तो तुम्ही बताओ, रुपये कहाँ से लाऊँ?
जैनब-मरदों के हजार हाथ होते हैं। तुम्हारे अब्बाजान दस ही रुपये पाते थे कि ज्यादा? 20 रुपये तो मरने के कुछ दिन पहले हो गए थे। आखिर कुनबे को पालते थे कि नहीं। कभी फाके की नौबत नहीं आई। मोटा-महीन दिन में दो बार जरूर मयस्सर हो जाता था। तुम्हारी तालीम हुई, शादी हुई, कपड़े-लत्तो भी आते थे। खुदा के करम से बिसात के मुआफिक गहने भी बनते थे। वह तो मुझसे कभी न पूछते थे, कहाँ से रुपये लाऊँ? आखिर कहीं से लाते ही तो थे!
ताहिर-पुलिस के मुहकमे में हर तरह की गुंजाइश होती है। यहाँ क्या है, गिनी बोटियाँ, नपा शोरबा।
जैनब-मैं तुम्हारी जगह होती, तो दिखा देती कि इसी नौकरी में कैसे कंचन बरसता। सैकड़ों चमार हैं। क्या कहो, तो सब एक-एक गट्ठा लकड़ी न लाएँ? सबों के यहाँ छान-छप्पर पर तरकारियाँ लगी होंगी? क्यों न तुड़वा मँगाते? खालोें के दाम में भी कमी-बेशी करने का तुम्हें अख्तियार है। कोई यहाँ बैठा देख नहीं रहा है। दस के पौने दस लिख दो, तो क्या हरज हो? रुपये की रसीदों पर अंगूठे का निशान ही न बनवाते हो? निशान पुकारने जाता है कि मैं दस हूँ या पौने दस? फिर अब तुम्हारा एतबार जम गया। साहब को सुभा भी नहीं हो सकता। आखिर इस एतबार से कुछ अपना फायदा भी तो हो कि सारी जिंदगी दूसरों ही का पेट भरते रहोगे? इस वक्त भी तुम्हारी रोकड़ में सैकड़ों रुपये होंगे। जितनी जरूरत समझो, इस वक्त निकाल लो। जब हाथ में रुपये आएँ, रख देना। रोज की आमदनी-खर्च का मीजान की मिलना चाहिए न? यह कौन-सी बड़ी बात है? आज खाल का दाम न दिया, कल दिया, इसमें क्या तरद्दुद है? चमार कहीं फरियाद करने न जाएगा। सभी ऐसा करते हैं, और इसी तरह दुनिया का काम चलता है। ईमान दुरुस्त रखना हो, तो इंसान को चाहिए कि फकीर हो जाए।
रकिया-बहन, ईमान है कहाँ, जमाने का काम तो इसी तरह चलता है।
ताहिर-भाई, जो लोग करते हों, वे जानें, मेरी तो इन हथकंडों से रूह फना होती है। अमानत में हाथ नहीं लगा सकता। आखिर खुदा को भी तो मुँह दिखाना है। उसकी मरजी हो, जिंदा रखे या मार डाले।
जैनब-वाह रे मरदुए, कुरबान जाऊँ तेरे ईमान पर। तेरा ईमान सलामत रहे, चाहे घर के आदमी भूखों मर जाएँ। तुम्हारी मंशा यही है कि सब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएँ। बस, और कुछ नहीं। फिक्र तो आदमी को अपने बीवी-बच्चों की होती है। उनके लिए बाजार मौजूद है। फाका तो हमारे लिए है। उनका फाका तो महज दिखावा है।
ताहिर अली ने इस मिथ्या आक्षेप पर क्षुब्ध होकर कहा-क्यों जलाती हो, अम्मी जान! खुदा गवाह है, जो बच्चे के लिए धोले की भी कोई चीज ली हो। मेरी तो नीयत कभी ऐसी न थी, न है, न होगी, यों तुम्हारी तबीयत है, जो चाहो समझो।
रकिया-दोनों बच्चे रात-भर तड़पते रहे, 'अम्माँ, रोटी, अम्माँ रोटी!' पूछो, अम्माँ क्या आप रोटी हो जाए! तुम्हारे बच्चे और नहीं तो ओवरसियर के घर चले जाते हैं, वहाँ से कुछ-न-कुछ खा-पी आते हैं। यहाँ तो मेरी ही जान खाते हैं।
जैनब-अपने बाल-बच्चों को खिलाने-न-खिलाने का तुम्हें अख्तियार है। कोई तुम्हारा हिसाबिया तो है नहीं, चाहे शीरमाल खिलाओ या भूखों रखो। हमारे बच्चों को तो घर की रूखी रोटियों के सिवा और कहीं ठिकाना नहीं। यहाँ कोई वली नहीं है, जो फाकों से जिंदा रहे। जाकर कुछ इंतजाम करो।

ताहिर अली बाहर आकर बड़ी देर घोर चिंता में खड़े रहे। आज पहली बार उन्होंने अमानत के रुपये को हाथ लगाने का दुस्साहस किया। पहले इधर-उधर देखा, कोई खड़ा हो नहीं है, फिर बहुत धीरे से लोहे का संदूक खोला। यों दिन में सैकड़ों बार वही संदूक खोलते, बंद करते थे; पर इस वक्त उनके हाथ थर-थर काँप रहे थे। आखिर उन्होंने रुपये निकाल लिए, तब सेफ बंद किया। रुपये लाकर जैनब के सामने फेंक दिए और बिना कुछ कहे-सुने बाहर चले गए। दिल को यों समझाया-अगर खुदा को मंजूर होता कि मेरा ईमान सलामत रहे, तो क्यों इतने आदमियों का बोझ मेरे सिर पर डाल देता। यह बोझ सिर पर रखा था, तो उसके उठाने की ताकत भी तो देनी चाहिए थी। मैं खुद फाके कर सकता हूँ, पर दूसरों को तो मजबूर नहीं कर सकता। अगर इस मजबूरी की हालत में खुदा मुझे सजा के काबिल समझे, तो वह मुंसिफ नहीं है। इस दलील से उन्हें कुछ तस्कीन हुई। लेकिन मि. जॉन सेवक तो इस दलील से माननेवाले आदमी न थे। ताहिर अली सोचने लगे, कौन चमार सबसे मोटा है, जिसे आज रुपये न दूँ, तो चीं-चपड़ न करे। नहीं, मोटे आदमी के रुपये रोकना मुनासिब नहीं, मोटे आदमी निडर होते हैं। कौन जाने, किसी से कह ही बैठे। जो सबसे गरीब, सबसे सीधा हो, उसी के रुपये रोकने चाहिए। इसमें कोई डर नहीं। चुपके से बुलाकर अंगूठे के निशान बनवा लूँगा। उसकी हिम्मत ही न पड़ेगी कि किसी से कहे। उस दिन से उन्हें जब जरूरत पड़ती, रोकड़ से रुपये निकाल लेते, फिर रख देते। धीरे-धीरे रुपये पूरे कर देने की चिंता कम होने लगी। रोकड़ में रुपयों की कमी पड़ने लगी। दिल मजबूत होता गया। यहाँ तक कि छठा महीने जाते-जाते वह रोकड़ के पूरे डेढ़ सौ रुपये खर्च कर चुके थे।

अब ताहिर अली को नित्य यही चिंता बनी रहती कि कहीं बात खुल न जाए। चमारों से लल्लो-चप्पो की बातें करते। कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहते थे कि रोकड़ में इन रुपयों का पता न चले। लेकिन बही-खाते में हेर-फेर करने की हिम्मत न पड़ती थी। घर में भी किसी से यह बात न कहते। बस, खुदा से यही दुआ करते थे कि माहिर अली आ जाए। उन्हें 100 रुपये महीना मिलेंगे। दो महीने में अदा कर दूँगा। इतने दिन साहब हिसाब की जाँच न करें, तो बेड़ा पार है।
उन्होंने दिल में निश्चय किया, अब कुछ ही हो, और रुपये न निकालूँगा। लेकिन सातवें महीने में फिर 25 रुपये निकालने पड़ गए। अब माहिर अली का साल भी पूरा हो चला था। थोड़े ही दिनों की और कसर थी। सोचा, आखिर मुझे उसी की बदौलत तो यह जेरबारी हो रही है। ज्यों ही आया, मैंने घर उसे सौंपा। कह दूँगा, भाई, इतने दिनों तक मैंने सँभाला। अपने से जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी तालीम में खर्च किया,तुम्हारा रोजगार लगा दिया। अब कुछ दिनों के लिए मुझे इस फिक्र से नजात दो। उसके आने तक यह परदा ढका रह जाए, तो दुम झाड़कर निकल जाता। पहले यह ऐसी ही कोई जरूरत पड़ने पर साहब के पास जाते थे। अब दिन में एक बार जरूर मिलते। मुलाकातों से संदेह को शांत रखना चाहते थे। जिस चीज से टक्कर लगने का भय होता है, उससे हम और भी चिमट जाते हैं! कुल्सूम उनसे बार-बार पूछती कि आजकल तुम इतने रुपये कहाँ पा जाते हो? समझाती-देखो, नीयत न खराब करना। तकलीफ और तंगी से बसर करना इतना बुरा नहीं,जितना खुदा के सामने गुनहगार बनना। लेकिन ताहिर अली इधर-उधर की बातें करके उसे बहला दिया करते थे।
एक दिन सुबह को ताहिर अली नमाज अदा करके दफ्तर में आए तो देखा, एक चमार खड़ा रो रहा है। पूछा, क्या बात है? बोला-क्या बताऊँ खाँ साहब, रात घरवाली गुजर गई। अब उसका किरिया-करम करना है, मेरा जो कुछ हिसाब हो, दे दीजिए, दौड़ा हुआ आया हूँ, कफन के रुपये भी पास नहीं हैं। ताहिर अली की तहवील में रुपये कम थे। कल स्टेशन से माल भेजा था, महसूल देने में रुपये खर्च हो गए थे। आज साहब के सामने हिसाब पेश करके रुपये लानेवाले थे। इस चमार को कई खालों के दाम देने थे। कोई बहाना न कर सके। थोड़े-से रुपये लाकर उसे दिए।
चमार ने कहा-हुजूर, इतने में तो कफन भी पूरा न होगा। मरनेवाली अब फिर तो आएगी नहीं, उसका किरिया-करम तो दिल खोलकर दूँ। मेरे जितने रुपये आते हैं, सब दे दीजिए। यहाँ तो जब तक दस बोतल दारू न होगी, लाश दरवज्जे से न उठेगी।
ताहिर अली ने कहा-इस वक्त रुपये नहीं हैं, फिर ले जाना।
चमार-वाह खाँ साहब, वाह! अंगूठे का निशान कराए तो महीनों हो गए; अब कहते हो फिर ले जाना। इस बखत न दोगे, तो क्या आकबत में दोगे? चाहिए तो यह था कि अपनी ओर से कुछ मदद करते, उलटे मेरे ही रुपये बाकी रखते हो।
ताहिर अली कुछ रुपये और लाए। चमार ने सब रुपये जमीन पर पटक दिए और बोला-आप थूक से चुहिया जिलाते हैं! मैं आपसे उधर नहीं माँगता हूँ, और आप यह कटूसी कर रहे हैं, जानो घर से दे रहे हों।
ताहिर अली ने कहा-इस वक्त इससे ज्यादा मुमकिन नहीं।
चमार था तो सीधा, पर उसे कुछ संदेह हो गया, गर्म पड़ गया।
सहसा मिस्टर जॉन सेवक आ पहुँचे। आज झल्लाए हुए थे। प्रभु सेवक की उद्दंडता ने उन्हें अव्यवस्थित-सा कर दिया था। झमेला देखा, तो कठोर स्वर से बोले-इसके रुपये क्यों नहीं दे देते? मैंने आपसे ताकीद कर दी थी कि सब आदमियों का हिसाब रोज साफ कर दिया कीजिए। आप क्यों बाकी रखते हैं? क्या आपकी तहवील में रुपये नहीं हैं?
ताहिर अली रुपये लाने चले, तो कुछ ऐसे घबराए हुए थे कि साहब को तुरंत संदेह हो गया। रजिस्टर उठा लिया और हिसाब देखने लगे। हिसाब साफ था। इस चमार के रुपये अदा हो चुके थे। उसके अंगूठे का निशान मौजूद था। फिर यह बकाया कैसा? इतने में और कई चमार आ गए। इस चमार को रुपये लिए जाते देखा, तो समझे, आज हिसाब चुकता किया जा रहा है। बोले-सरकार, हमारा भी मिल जाए।
साहब ने रजिस्टर जमीन पर पटक दिया और डपटकर बोले-यह क्या गोलमाल है? जब इनसे रसीद ली गई, तो इनके रुपये क्यों नहीं दिए गए?
ताहिर अली से और कुछ तो न बन पड़ा, साहब के पैरों पर गिर पड़े और रोने लगे। सेंध में बैठकर घूरने के लिए बड़े घुटे हुए आदमी की जरूरत होती है।
चमारों ने परिस्थिति को ताड़कर कहा-सरकार, हमारा पिछला कुछ नहीं है, हम तो आज के रुपये के लिए कहते थे। जरा देर हुई, माल रख गए थे। खाँ साहब उस बखत नमाज पढ़ते थे।
साहब ने रजिस्टर उठाकर देखा, तो उन्हें किसी-किसी नाम के सामने एक हलका-सा चिद्द दिखाई दिया। समझ गए, हजरत ने ही ये रुपये उड़ाए हैं। एक चमार से, जो बाजार से सिगरेट पीता आ रहा था, पूछा-तेरा नाम क्या है?
चमार-चुनकू।
साहब-तेरे कितने रुपये बाकी हैं?
कई चमारों ने उसे हाथ के इशारे से समझाया कि कह दे, कुछ नहीं। चुनकू इशारा न समझा। बोला-17 रुपये पहले के थे, 9 रुपये आज के।
साहब ने अपनी नोटबुक पर उसका नाम टाँक लिया। ताहिर अली को कुछ कहा न सुना, एक शब्द भी न बोले। जहाँ कानून से सजा मिल सकती थी, वहाँ डाँट-फटकार की जरूरत क्या? सब रजिस्टर उठाकर गाड़ी में रखे, दफ्तर में ताला बंद किया, सेफ में दोहरे ताले लगाए,तालियाँ जेब में रखीं और फिटन पर सवार हो गए। ताहिर अली को इतनी हिम्मत भी न पड़ी कि कुछ अनुनय-विनय करें। वाणी ही शिथिल हो गई। स्तम्भित-से खड़े रह गए। चमारों के चौधरी ने दिलासा दिया-आप क्यों डरते हो खाँ साहब, आपका बाल तो बाँका होने न पाएगा। हम कह देंगे, अपने रुपये भर पाए हैं। क्यों रे, चुनकुआ, निरा गँवार ही है, इसारा भी नहीं समझता?
चुनकू ने लज्जित होकर कहा-चौधरी, भगवान् जानें, जो मैं जरा भी इशारा पा जाता, तो रुपये का नाम ही न लेता।
चौधरी-अपना बयान बदल देना; कह देना, मुझे जबानी हिसाब याद नहीं था।
चुनकू ने इसका कुछ जवाब न दिया। बयान बदलना साँप के मुँह में उँगली डालना था। ताहिर अली को इन बातों से जरा भी तस्कीन नहीं हुई। वह पछता रहे थे। इसलिए नहीं कि मैंने रुपये क्यों खर्च किए, बल्कि इसलिए कि नामों के सामने के निशान क्यों लगाए। अलग किसी कागज पर टाँक लेता, तो आज क्यों यह नौबत आती? अब खुदा ही खैर करे। साहब मुआफ करनेवाली आदमी नहीं हैं। कुछ सूझ ही न पड़ता था कि क्या करें। हाथ-पाँव फूल गए थे।
चौधरी बोला-खाँ साहब, अब हाथ-पर-हाथ धरकर बैठने से काम न चलेगा। यह साहब बड़ा जल्लाद आदमी है। जल्दी रुपये जुटाइए। आपको याद है, कुल कितने रुपये निकलते होंगे?
ताहिर-रुपयों की कोई फिक्र नहीं है जी, यहाँ तो दाग लग जाने का अफसोस है। क्या जानता था कि आज यह आफत आनेवाली है, नहीं तो पहले से तैयार न हो जाता! जानते हो, यहाँ कारखाने का एक-न-एक आदमी कर्ज माँगने को सिर पर सवार रहता है। किस-किससे हीला करूँ? और फिर मुरौवत में हीला करने से भी तो काम नहीं चलता। रुपये निकालकर दे देता हूँ। यह उसी शराफत की सजा है। 150 रुपये से कम न निकलेंगे, बल्कि चाहे 200 रुपये हो गए हों।
चौधरी-भला, सरकारी रकम इस तरह खरच की जाती है! आपने खरच की या किसी को उधर दे दी, बात एक ही है। वे लोग रुपये दे देंगे?
ताहिर-ऐसा खरा तो एक भी नहीं। कोई कहेगा, तनख्वाह मिलने पर दूँगा। कोई कुछ बहाना करेगा। समझ में नहीं आता, क्या करूँ?
चौधरी-घर में तो रुपये होंगे?
ताहिर-होने को क्या दो-चार सौ रुपये न होंगे; लेकिन जानते हो, औरत का रुपया जान के पीछे रहता है। खुदा को जो मंजूर है, वह होगा।
यह कहकर ताहिर अली अपने दो-चार दोस्तों की तरफ चले कि शायद यह हाल सुनकर लोग मेरी कुछ मदद करें, मगर कहीं न जाकर एक दरख्त के नीचे नमाज पढ़ने लगे। किसी से मदद की उम्मीद न थी।
इधर चौधरी ने चमारों से कहा-भाइयो, हमारे मुंसीजी इस बखत तंग हैं। सब लोग थोड़ी-थोड़ी मदद करो, तो उनकी जान बच जाए। साहब अपने रुपये ही न लेंगे कि किसी की जान लेंगे! समझ लो, एक दिन नसा नहीं खाया।
चौधरी तो चमारों से रुपये बटोरने लगा। ताहिर अली के दोस्तों ने यह हाल सुना, तो चुपके से दबक गए कि कहीं ताहिर अली कुछ माँग न बैठें। हाँ, जब तीसरे पहर दारोगा ने आकर तहकीकात करनी शुरू की और ताहिर अली को हिरासत में ले लिया, तो लोग तमाशा देखने आ पहुँचे। घर में हाय-हाय मच गई। कुल्सूम ने जाकर जैनब से कहा-लीजिए, अब तो आपका अरमान निकला!
जैनब ने कहा-तुम मुझसे क्या बिगड़ती हो बेगम! अरमान निकले होंगे तो तुम्हारे, न निकले होंगे तो तुम्हारे। मैंने थोड़े ही कहा था कि जाकर किसी के घर में डाका मारो। गुलछर्रे तुमने उड़ाए होंगे, यहाँ तो रोटी-दाल के सिवा और किसी का कुछ नहीं जानते।
कुल्सूम के पास तो कफन को कौड़ी भी न थी, जैनब के पास रुपये थे, पर उसने दिल जलाना ही काफी समझा। कुल्सूम की इस समय ताहिर अली से सहानुभूति न थी। उसे उन पर क्रोध आ रहा था, जैसे किसी को अपने बच्चे को चाकू से उँगली काटते देखकर गुस्सा आए।
संधया हो रही थी। ताहिर अली के लिए दारोगा ने एक इक्का मँगवाया। उस पर चार कांस्टेबिल उन्हें लेकर बैठे। दारोगा जानता था कि यह माहिर अली के भाई हैं, कुछ लिहाज करता था। चलते वक्त बोला, अगर आपको घर में किसी से कुछ कहना हो, तो आप जा सकते हैं। औरतें घबरा रही होंगी, उन्हें जरा तस्कीन देते आइए। पर ताहिर अली ने कहा, मुझे किसी से कुछ नहीं कहना है। वह कुल्सूम को अपनी सूरत न दिखाना चाहते थे, जिसे उन्होंने जान-बूझकर गारत किया था और निराधार छोड़े जाते थे। कुल्सूम द्वार पर खड़ी थी। उनका क्रोध प्रतिक्षण शोक की सूरत पकड़ता जाता था, यहाँ तक कि जब इक्का चला, तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बच्चे 'अब्बा, अब्बा' कहते इक्के के पीछे दौड़े। दारोगा ने उन्हें एक-एक चवन्नी मिठाई खाने को देकर फुसला दिया। ताहिर अली तो उधर हिरासत में गए, इधर घड़ी रात जाते-जाते चमारों का चौधरी रुपये लेकर मिस्टर सेवक के पास पहुँचा। साहब बोले-ये रुपये तुम उनके घरवालों को दे दो, तो उनका गुजर हो जाए। मुआमला अब पुलिस के हाथ में है, मैं कुछ नहीं कर सकता।
चौधरी-हुजूर, आदमी से खता हो ही जाती है। इतने दिनों तक आपकी चाकरी की, हुजूर को उन पर कुछ दया करनी चाहिए। बड़ा भारी परिवार है सरकार, बाल-बच्चे भूखों मर जाएँगे।
जॉन सेवक-मैं यह सब जानता हूँ, बेशक उनका खर्च बहुत था। इसीलिए मैंने माल पर कटौती दे दी थी। मैं जानता हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया है, मजबूर होकर किया है; लेकिन विष किसी भी नीयत से खाया जाए, विष ही का काम करेगा, कभी अमृत नहीं हो सकता। विश्वासघात विष से कम घातक नहीं होता। तुम ये रुपये जाकर उनके घरवालों को दे दो। मुझे खाँ साहब से कोई बिगाड़ नहीं है, लेकिन अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता। पाप को क्षमा करना पाप करना है।
चौधरी यहाँ से निराश होकर चला गया। दूसरे दिन अभियोग चला। ताहिर अली दोषी पाए गए। वह अपनी सफाई न पेश कर सके। छ: महीने की सजा हो गई।
जब ताहिर अली कांस्टेबिलों के साथ जेल की तरफ जा रहे थे, तो उन्हें माहिर अली ताँगे पर सवार आता हुआ दिखाई दिया। उनका हृदय गद्गद हो गया। आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। समझे, माहिर मुझसे मिलने दौड़ा चला आता है। शायद आज ही आया है, और आते-ही-आते यह खबर पाकर बेकरार हो गया है। जब ताँगा समीप आ गया, तो वह चिल्लाकर रोने लगे। माहिर अली ने एक बार उन्हें देखा, लेकिन न सलाम-बंदगी की, न ताँगा रोका, न फिर इधर दृष्टिपात किया, मुँह फेर लिया, मानो देखा ही नहीं। ताँगा ताहिर अली की बगल से निकल गया। उनके मर्मस्थल पर एक सर्द आह निकली। एक बार फिर चिल्लाकर रोए। वह आनंद की धवनि थी, यह शोक का विलाप; वे आँसू की बूँदे थीं, ये खून की।
किंतु एक ही क्षण में उनकी आत्मवेदना शांत हो गई-माहिर ने मुझे देखा ही न होगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी जरूरी थी, लेकिन शायद वह किसी ख्याल में डूबा हुआ था। ऐसा होता भी तो है कि जब हम किसी खयाल में होते हैं, तो न सामने की चीजें दिखाई देती हैं, न करीब की बातें सुनाई देती हैं। यही सबब है। अच्छा ही हुआ कि उसने मुझे न देखा, नहीं तो इधर मुझे पदामत होती, उधर उसे रंज होता।
उधर माहिर अली मकान पर पहुँचे, तो छोटे भाई आकर लिपट गए। ताहिर अली के दोनों बच्चे भी दौड़े, और 'माहिर चाचा आए' कहकर उछलने-कूदने लगे। कुल्सूम भी रोती हुई निकल आई। सलाम-बंदनी के पश्चात् माहिर अपनी माता के पास गए। उसने उन्हें छाती से लगा लिया।
माहिर-तुम्हारा खत न जाता, तो अभी मैं थोड़े ही आता। इम्तहान के बाद ही तो वहाँ मजा आता है, कभी मैच, कभी दावत, कभी सैर,कभी मुशायरे। भाई साहब को यह क्या हिमाकत सूझी!
जैनब-बेगम साहब की फरमाइशें कैसे पूरी होतीं! जेवर चाहिए, जरदा चाहिए, जरी चाहिए, कहाँ से आता! उस पर कहती हैं, तुम्हीं लोगों ने उन्हें मटियामेट किया। पूछो, रोटी-दाल में ऐसा कौन-सा छप्पन टके का खर्च था? महीनों सिर में तेल डालना नसीब न होता था। अपने पास से पैसे निकालो, तो पान खाओ। उस पर इतने ताने!
माहिर-मैंने तो स्टेशन से आते हुए उन्हें जेल जाते देखा। मैं तो शर्म के मारे कुछ न बोला, बंदगी तक न की। आखिर लोग यही न कहते कि उनका भाई जेलखाने जा रहा है! मुँह फेरकर चला आया। भैया रो पड़े। मेरा दिल भी मसोस उठा, जी चाहता था, उनके गले लिपट जाऊँ;लेकिन शर्म आ गई। थानेदार कोई मामूली आदमी नहीं होता। उसका शुमार हुक्काम में होता है। इसका खयाल न करूँगा, तो बदनाम हो जाऊँगा।
जैनब-छ: महीने की सजा हुई है।
माहिर-जुर्म तो बड़ा था, लेकिन शायद हाकिम ने रहम किया।
जैनब-तुम्हारे अब्बा का लिहाज किया होगा, नहीं तो तीन साल से कम के लिए न जाते।
माहिर-खानदान में दाग लगा दिया। बुजुर्गों की आबरू खाक में मिला दी।
जैनब-खुदा न करे कि कोई मर्द औरत का कलमा पढ़े।
इतने में मामा नाश्ते के लिए मिठाइयाँ लाए। माहिर अली ने एक मिठाई जाहिर को दी, एक जाबिर को। इन दोनों ने जाकर साबिर और नसीमा को दिखाई। वे दोनों भी दौड़े। जैनब ने कहा-जाओ, खेलते क्यों नहीं! क्या सिर पर डट गए! न जाने कहाँ के मरभुखे छोकरे हैं। इन सबों के मारे कोई चीज मुँह में डालनी मुश्किल है। बला की तरह सिर पर सवार हो जाते हैं। रात-दिन खाते ही रहते हैं, फिर भी जी नहीं भरता।
रकिया-छिछोरी माँ के बच्चे और क्या होंगे!
माहिर ने एक-एक मिठाई उन दोनों को भी दी। तब बोले-गुजर-बसर की क्या सूरत होगी? भाभी के पास तो रुपये होंगे न?
जैनब-होंगे क्यों नहीं! इन्हीं रुपयों के लिए तो खसम को जेल भेजा। देखती हूँ, क्या इंतजाम करती हैं। यहाँ किसी को क्या गरज पड़ी है कि पूछने जाए।
माहिर-मुझे अभी न जाने कितने दिनों में जगह मिले। महीना-भर लग जाए, महीने लग जाएँ। तब तक मुझे दिक मत करना।
जैनब-तुम इसका गम न करो बेटा! वह अपना सँभालें, हमारा भी खुदा हाफिज है। वह पुलाव खाकर सोएँगी, तो हमें भी रूखी रोटियाँ मयस्सर हो ही जाएँगी।
जब शाम हो गई, तो जैनब ने मामा से कहा-जाकर बेगम साहब से पूछो, कुछ सौदा-सुल्फ आएगा, या आज मातम मनाया जाएगा?
मामा ने लौट आकर कहा-वह तो बैठी रो रही हैं। कहती हैं, जिसे भूख हो, खाए, मुझे नहीं खाना है।
जैनब-देखा! यह तो मैं पहले ही कहती थी कि साफ जवाब मिलेगा। जानती है कि लड़का परदेस से आया है, मगर पैसे न निकलेंगे। अपने और अपने बच्चों के लिए बाजार से खाना मँगवा लेगी, दूसरे खाएँ या मरें, उसकी बला से। खैर, उन्हें उनके मीठे टुकड़े मुबारक रहें, हमारा भी अल्लाह मालिक है।
कुल्सूम ने जब सुना था कि ताहिर अली को छ: महीने की सजा हो गई, तभी से उसकी आँखों में अंधोरा-सा छाया हुआ था। मामा का संदेशा सुना, तो जल उठी। बोली-उनसे कह दो, पकाएँ-खाएँ, यहाँ भूख नहीं है। बच्चों पर रहम आए, तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें।
मामा ने इसी वाक्य को अन्वय किया, जिसने अर्थ का अनर्थ कर दिया।
रात के नौ बज गए। कुल्सूम देख रही थी कि चूल्हा गर्म है। मसाले की सुगंध नाक में आ रही थी, बघार की आवाज भी सुनाई दे रही थी; लेकिन बड़ी देर तक कोई उसके बच्चों को बुलाने न आया, तो वह बैन कर-करके रोने लगी। उसे मालूम हो गया कि घरवालों ने साथ छोड़ दिया और अब मैं अनाथ हूँ, संसार में कोई मेरा नहीं। दोनों बच्चे रोते-रोते सो गए। उन्हीं के पैताने वह भी पड़ रही। भगवान्, ये दो-दो बच्चे, पास फूटी कौड़ी नहीं, घर के आदमियों का यह हाल, यह नाव कैसे पार लगेगी!
माहिर अली भोजन करने बैठे, तो मामा से पूछा-भाभी ने भी कुछ बाजार से मँगवाया है कि नहीं।
जैनब-मामा से मँगवाएँगी, तो परदा न खुल जाएगा? खुदा के फजल से साबिर सयाना हुआ। गुपचुप सौदे वही लाता है, और इतना घाघ है कि लाख फुसलाओ, पर मुँह नहीं खोलता।
माहिर-पूछ लेना। ऐसा न हो कि हम लोग खाकर सोएँ, और वह बेचारी रोजे से रह जाएँ।
जैनब-ऐसी अनीली नहीं है, वह हम-जैसों को चरा लाएँ। हाँ, पूछना मेरा फर्ज है, पूछ लूँगी।
रकिया-सालन और रोटी, किस मुँह से खाएँगी, उन्हें तो जरदा-शीरमाल चाहिए।
दूसरे दिन सबेरे दोनों बच्चे बावर्चीखाने में गए, तो जैनब ने ऐसी कड़ी निगाहों से देखा कि दोनों रोते हुए लौट आए। अब कुल्सूम से न रहा गया। वह झल्लाकर उठी और बावर्चीखाने में जाकर मामा से बोली-तूने बच्चों को खाना क्यों नहीं दिया रे? क्या इतनी जल्दी काया-पलट हो गई? इसी घर के पीछे हम मिट्टी में मिल गए और मेरे लड़के तड़पें, किसी को दर्द न आए?
मामा ने कहा-तो आप मुझसे क्या बिगड़ती हैं, मैं कौन होती हूँ, जैसा हुकुम पाती हूँ, वैसा करती हूँ।
जैनब अपने कमरे से बोली-तुम मिट्टी में मिल गईं, तो यहाँ किसने घर भर लिया। कल तक कुछ नाता निभा जाता था, वह भी तुमने तोड़ दिया। बनिए के यहाँ से कर्ज जिंस आई, तो मुँह में दाना गया। सौ कोस से लड़का आया, तुमने बात तक न पूछी। तुम्हारी नेकी कोई कहाँ तक गाए।

आज से कुल्सूम की रोटियाँ के लाले पड़ गए। माहिर अली कभी दोनों भाइयों को लेकर नानबाई की दूकान से भोजन कर आते, कभी किसी इष्ट-मित्र के मेहमान हो जाते। जैनब और रकिया के लिए मामा चुपके-चुपके अपने घर से खाना बना लाती। घर में चूल्हा न जलता। नसीमा और साबिर प्रात:काल घर से निकल जाते। कोई कुछ दे देता, तो खा लेते। जैनब और रकिया की सूरत से ऐसे डरते थे, जैसे चूहा बिल्ली से। माहिर के पास भी न जाते। बच्चे शत्रु और मित्र को खूब पहचानते हैं। अब वे प्यार के भूखे नहीं, दया के भूखे थे। रही कुल्सूम,उसके लिए गम ही काफी था। वह सीना-पिरोना जानती थी, चाहती तो सिलाई करके अपना निर्वाह कर लेती; पर जलन के मारे कुछ न करती थी। वह माहिर के मुँह में कालिख लगाना चाहती थी, चाहती थी कि दुनिया मेरी दशा को देखे और इन पर थूके। उसे अब ताहिर अली पर भी क्रोध आता था-तुम इसी लायक थे कि जेल में पड़े-पड़े चक्की पीसो। अब आँखें खुलेंगी। तुम्हें दुनिया के हँसने की फिक्र थी। अब दुनिया किसी पर नहीं हँसती! लोग मजे से मीठे लुकमे उड़ाते और मीठी नींद सोते हैं। किसी को तो नहीं देखती कि झूठ भी इन मतलब के बंदों की फजीहत करे। किसी को गरज ही क्या पड़ी है कि किसी पर हँसे। लोग समझते होंगे, ऐसे कमसमझों, लाज पर मरनेवालों की यही सजा है।

इस भाँति एक महीना गुजर गया। एक दिन सुभागी कुल्सूम के यहाँ साग-भाजी लेकर आई। वह अब यही काम करती थी। कुल्सूम की सूरत देखी, तो बोली बहूजी, तुम तो पहचानी ही नहीं जातीं। क्या कुढ़-कुढ़कर जान दे दोगी? बिपत तो पड़ ही गई है, कुढ़ने से क्या होगा?मसल है, आँधी आए, बैठ गँवाए। तुम न रहोगी तो बच्चों को कौन पालेगा? दुनिया कितनी जल्दी अंधी हो जाती है। बेचारे खाँ साहब इन्हीं लोगों के लिए मरते थे। अब कोई बात भी नहीं पूछता। घर-घर यही चर्चा हो रही है कि इन लोगों को ऐसा न करना चाहिए था। भगवान् को क्या मुँह दिखाएँगे।
कुल्सूम-अब तो भाड़ लीपकर हाथ काला हो गया।
सुभागी-बहू, कोई मुँह पर न कहे, लेकिन सब थुड़ी-थुड़ी करते हैं। बेचारे नन्हे-नन्हे बालक मारे-मारे फिरते हैं, देखकर कलेजा फट जाता है। कल तो चौधरी ने माहिर मियाँ को खूब आड़े हाथों लिया था।
कुल्सूम को इन बातों से बड़ी तस्कीन हुई। दुनिया इन लोगों को थूकती तो है, इनकी निंदा तो करती है, इन बेहयाओं को लाज ही न हो,तो कोई क्या करे। बोली-किस बात पर?
सुभागी कुछ जवाब न देने पाई थी कि बाहर से चौधरी ने पुकारा। सुभागी ने जाकर पूछा-क्या कहते हो?
चौधरी-बहूजी से कुछ कहना है। जरा परदे की आड़ में खड़ी हो जाएँ।
दोपहर क समय था। घर में सन्नाटा छाया हुआ था। जैनब और रकिया किसी औलिया के मजार पर शीरनी चढ़ाने गई थीं। कुल्सूम परदे की आड़ में आकर खड़ी हो गई।
चौधरी-बहूजी, कई दिनों से आना चाहता था, पर मौका न मिलता था। जब आता, तो माहिर मियाँ को बैठे देखकर लौट जाता। कल माहिर मियाँ मुझसे कहने लगे, तुमने भैया की मदद के लिए जो रुपये जमा किए थे, वे मुझे दे दो, भाभी ने माँगे हैं। मैंने कहा, जब तक बहूजी से खुद न पूछ लूँगा, आपको न दूँगा। इस पर बहुत बिगड़े। कच्ची-पक्की मुँह से निकालने लगे-समझ लूँगा, बड़े घर भिजवा दूँगा। मैंने कहा,जाइए समझ लीजिएगा। तो अब आपका क्या हुक्म है? ये सब रुपये अभी मेरे पास रखे हुए हैं, आपको दे दूँ न? मुझे तो आज मालूम हुआ कि वे लोग आपके साथ दगा कर गए!
कुल्सूम ने कहा-खुदा तुम्हें इस नेकी का सबब देगा। मगर ये रुपये जिसके हों, उन्हें लौटा दो। मुझे इनकी जरूरत नहीं है।
चौधरी-कोई न लौटाएगा।
कुल्सूम-तो तुम्हीं अपने पास रखो।
चौधरी-आप लेतीं क्यों नहीं? हम कोई औसान थोड़े ही जताते हैं। खाँ साहब की बदौलत बहुत कुछ कमाया है, दूसरा मुंसी होता, तो हजारों रुपये नजर ले लेता। यह उन्हीं की नजर समझी जाए।
चौधरी ने बहुत आग्रह किया, पर कुल्सूम ने रुपये न लिए। वह माहिर अली को दिखाना चाहती थी कि जिन रुपयों के लिए तुम कुत्तों की भाँति लपकते थे, उन्हीं रुपयों को मैंने पैर से ठुकरा दिया। मैं लाख गई-गुजरी हँ, फिर भी मुझमें कुछ गैरत बाकी है, तुम मर्द होकर बेहयाई पर कमर बाँधे हुए हो।
चौधरी यहाँ से चला, तो सुभागी से बोला-यही बड़े आदमियों की बातें हैं। चाहे टुकड़े-टुकडे उड़ जाएँ, मुदा किसी के सामने हाथ न पसारेंगी। ऐसा न होता, तो छोटे-बड़े में फर्क ही क्या रहता। धन से बड़ाई नहीं होती, धरम से होती है।
इन रुपयों को लौटाकर कुल्सूम का मस्तक गर्व से उन्नत हो गया। आज उसे पहली बार ताहिर अली पर अभिमान हुआ-यह इज्जत है कि पीठ-पीछे दुनिया बड़ाई करती रहे। उस बेइज्जती से तो मर जाना ही अच्छा कि छोटे-छोटे आदमी मुँह पर लताड़ सुनाएँ। कोई लाख उनके एहसान को मिटाए, पर दुनिया तो इंसाफ करती है! रोज ही तो अमले सजा पाते रहते हैं। कोई तो उनके बाल-बच्चों की बात नहीं पूछता;बल्कि उलटे और लोग ताने देते हैं। आज उनकी नेकनामी ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया।
सुभागी ने कहा-बहूजी, बहुत औरतें देखीं, लेकिन तुम-जैसी धीरजवाली विरली ही कोई होगी। भगवान् तुम्हारा संकट हरें।
वह चलने लगी, तो कई अमरूद बच्चों के लिए रख दिए।
कुल्सूम ने कहा-मेरे पास पैसे नहीं हैं।
सुभागी मुस्कराकर चली गई।

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