रक्त, रेत और हरियाली (कहानी) : हिमांशु जोशी

Rakt, Ret Aur Hariyali (Hindi Story) : Himanshu Joshi

आँधियारा सीलन भरा छोटा कमरा। कच्ची मिट्टी की जगह उखड़ी हुई फर्श। उसी से पुती मटियाली दीवारें, जिन पर गांधी और नेताजी के चित्रों के अवशेष लटक रहे थे। छत धुएँ से एकदम स्याह काली। एक छोटा सा दीवार पर खिड़कीनुमा छेद, जिस पर टँगे पुराने तिरंगे के चीथड़े ठंडी हवा को रोकने का असफल प्रयास कर रहे थे। निकट ही दरवाजे पर लगा टाट मुँह लटकाए अपनी मुक्ति के अंतिम दिन गिन रहा था।

उसी कमरे के कोने में ‌ह‌‌ड्डियों का ढाँचा मात्र एक मरणासन्न रोगी पड़ा था। जिसकी खोई-खोई पलकें बार-बार खुलतीं, बार-बार मुँदती। सजल नेत्रों से कभी वह छत की ओर देखता, कभी चदरिया में मुँह गड़ा लेता। बड़ा बेचैन-सा कुछ ढूँढ़ता-खोजता चला जा रहा था।

तभी बुढ़िया-सी दयनीय-दीन महिला दीया लिए अंदर आई। आले में दीपक रखती हुई देर तक उस वीतरागी खोई आकृति को देखती रही। हौले से फिर निकट आकर बोली, “क्या सोच रहे हो?”

उसने जैसे सुना ही नहीं। उसी तरह, वैसे ही शून्य भाव से कहा, “कुछ भी...नहीं...।”

“कुछ तो है!”

देर तक निगाहें दीये पर गड़ी रहीं। फिर धीरे से एक निःश्वास निकला। हलकी जम्हाई लेते हुए कहा, “क्या पूछ रही थीं?”

“यही कि क्या सोच में पड़े हो, इस तरह से?”

“कुछ भी तो नहीं...। अभी किसी ने बतलाया कि वन-महोत्सव पर जो वृक्ष हमने लगाए थे, वे सूख रहे हैं। सोच रहा हूँ कि वे क्यों सूखे! और अब कैसे हरे होंगे? सच, वृंदा! उनका सूखना न जाने क्यों रह-रहकर कसक रहा है! लगता है, उनके साथ-साथ मेरी सारी आशाएँ, आकांक्षाएँ सब सूखती-मुरझाती चली जा रही हैं...।”

“उन वृक्षों की तुम्हें इतनी चिंता है?” कुछ सोचती हुई वृंदा बोली, “लेकिन, घर के ये जीते-जागते पौधे सूख रहे हैं। यह क्यारी उजड़ रही है। इसे भी तो देखो! अपना यह हाल कर डाला। मेरी कब कुछ चिंता की? लेकिन, इन बालकों का भी तो खयाल करो। तुम्हीं इनसे आँखें मूँद लोगे, तो फिर क्या होगा?...” वृंदा का गला भर आया।

“तुम क्यों इनकी चिंता में घुलती हो?” खाँसते हुए नंदन बाबू बोले, “जिसने जीवन दिया है, वही जिलाएगा भी। हम कौन होते हैं, किसी को पालनेवाले? अपने हाथों हमने क्या न किया! जो कुछ बन सका, करते रहे। और अधिक किया ही क्या जा सकता है? फिर वृंदा! हम अपने तक ही तो घिरे नहीं। अपने ही घर की क्यारी हम हरी-भरी नहीं देखना चाहते। औरों के ऊसर-बंजर के पौधों को भी लहलहाना चाहते हैं। अपने तक सीमित रहना आज तक न सीखा और अब क्या...?”

“आज तक न सीखा तो कौन सा पहाड़ तोड़ लिया?” तनिक आवेश से वृंदा बोली, “वर्षों की लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़ दी। बाबा ने जब सारी जायदाद फूँकी तो तुमने उफ तक न की। उलटे आग पर घी का काम किया। उनके साथ जेल गए। लाठियाँ खाईं। रहा-सहा भी सब खाक कर डाला।...भिखारिन की तरह मैंने सारी जिंदगी बिताई। एक-एक टुकड़े रोटी के लिए मेरे बच्चे तरसते रहे। मैंने पड़ोसियों के घर चक्की चलाई। जूठे बर्तन माँजे। किसी तरह तुम्हारे बच्चों का पेट पाला। तुम्हारी इज्जत रखी। कभी किसी के आगे हाथ न पसारा। इसलिए कि कोई यह न कहे कि तुम्हारे बच्चे भूखों मर रहे हैं और फिर लोग तुम्हारी हँसी उड़ाएँ। लेकिन तुम भूलते गए। हर बार दिलासा देते रहे—‘वृंदा, यह देश का सवाल है। एक दिन अपनी सरकार बनेगी। गुलामी की बेड़ियाँ टूटेंगी। गरीबों के दिन आएँगे।’ बापू का राम-राज्य होगा। सच, वृंदा! वह हमारे सौभाग्य की कैसी शुभ घड़ी होगी!...कैसी आस लिए कहते थे! लेकिन आजादी मिले आज इतने साल बीत गए। पर, किसने यह कहा—नंदन! तेरे बच्चे भूखे हैं। ले, दो चुटकी आटा ले जा। तू बीमार है। ले, अपना भी इलाज करवा। तेरी नौकरी छूट गई। जायदाद पहले ही लुट चुकी। लेकिन खानेवाले इतने बच्चे हैं! तू कैसे इनका पेट भरता होगा। अपनी लाज इन फटे चीथड़ों में तू कैसे छुपाता होगा...?”

“इतने पर भी चेते नहीं। इस हालत में आज भी तुम्हें वन-महोत्सव के वृक्षों की चिंता है! यदि वे हरे हो भी जाएँ तो कौन से सोने के फल उन सूखे देवदार पांगर के पेड़ों से टपकेंगे? तुम्हारे बच्चे कौन से उनके साए में झूलेंगे? ऐसा ही तुम तब भी तो कहा करते थे! मैं पूछती हूँ—कहाँ है, तुम्हारे बापू का राम राज्य!”

“कहाँ भटक गए गरीबों के वे दिन? क्या इसी दिन के लिए तुमने हमारी हत्या की थी...! ऐसा ही था तो सबको साथ जहर दे देते। इस तरह की सत्ता से तुम्हें क्या मिल गया...?” वृंदा फफककर रो पड़ी। आँचल में देर तक सिर गड़ाए सिसकती-सुबकती रही।

नंदन बाबू चुप थे। मौन थे। ठगे से देखते रहे। कुछ भी उन्हें न सूझा। आँखें देर तक उस घुमरैली छत पर लगाए रहे। फिर धीरे से बड़ी वेदना के साथ खाँसते हुए बोले, “बावली हो न! ऐसी बातें भी किया करते हैं! हमने महलों में रहने की कभी कल्पना नहीं की थी। सुख के सपने संजोकर आजादी में कभी भाग नहीं लिया था। जो कुछ भी किया, अपने देश के लिए, मातृभूमि के लिए किया। वह कर्तव्य था। फिर, उसका बदला कैसा?...

“लेकिन, कभी खयाल आता है। सोचता हूँ वृंदा! तुमको, इन निरपराध बच्चों को, मेरे कारण क्यों इतनी यातनाएँ भुगतनी पड़ीं? आज भी तुम कौन से कष्ट नहीं झेल रही हो? फिर, विचार आता है—तुम्हीं क्या ऐसी अकेली हो?...अनगिनत अभागे आज भी भूखे हैं, नंगे हैं। उनके भोले-भाले मासूम बच्चे आज भी दर-दर के भिखारी हैं। फिर तुम भी उन-सा ही अपने को क्यों नहीं समझ लेतीं?”

माँ की गोदी में दुबककर बैठे मन्नो के भूरे बालों पर हाथ फेरते रहे। कुछ देर बाद श्मशान का सा सन्नाटा भंग करते हुए बोले—“न जाने क्यों वृंदा, इन्हें देखते ही मुझे उन छोटे-छोटे पौधों की याद हो आती है, नन्ही-नन्ही हथेलियों से मिट्टी हटाते हुए। गिलास-कटोरियों से पानी भर-भरकर सींचते हुए दृश्य देखता हूँ, तो विभोर हो उठता हूँ। वे दिन आँखों के आगे तैरने लगते हैं, जब इसी तरह बूढ़े बाबा, नन्ही अलका, मैं, तुम सब मिलकर रात को कभी नमक बनाते। कभी चरखा कातते। सारी रात जागकर सुबह निकलनेवाले जुलूस के लिए तिरंगे और पोस्टर तैयार किया करते। वह सपना ऐसे ही तो साकार होते दीखा। उसी निष्ठा से हमने इन्हें भी लगाया। फिर, ये क्यों सूख रहे होंगे? क्या हमारी भावना सच्ची नहीं? क्या गरीबों के पौधों में उगने की सामर्थ्य नहीं? तुम्हें मालूम है, हमने कर्जा लेकर इन्हें लगाया था। आजादी के बाद हमने भी एक महोत्सव मनाया था।”

“कौन सा पुण्य हुआ? इस गरीबी में नन्हे बालकों के सिर कर्जा ही तो मढ़ा। और पुराना ही क्या कम था?” सरोष वृंदा आँखें पोंछती खड़ी हुई।

“कैसी बातें करती हो?” तनिक झुँझलाकर बोले, “पैसों का कर्जा चुकाया भी जा सकता है, लेकिन यह चुकाना तो संभव नहीं...”

एक ठंडी आह भरते हुए उसने आँखें मूँद लीं। हथेली ऊपर गड़ाए रहे। फिर, पलकें ऊपर उठीं तो देखा, वृंदा रसोईघर में चली गई है। कमरा फिर वैसा ही सूना-सूना है। केवल वही एकाकी दीया टिमटिमा रहा है। जैसे उनकी ओर सहानुभू‌ति से अपलक देखता चला जा रहा हो!

उन्होंने घुटने मोड़ लिये। चादर को कुछ और ऊपर खींच लिया। बिस्तरे से बाहर आधा मुँह निकाले कुछ खोए-खोए से देखते रहे। उनकी आँखों के आगे वे बीते दिन घूमने लगे। उन्हें याद आया, जब मोहन काका ऐसे ही अंधियारी कोठरी में ठंड से ठिठुरते, कराहते हुए दम तोड़ रहे थे। कैसे ‘गांधी की जय’ बोलने के अपराध में उस साल मेले में सिर तोड़ दिया गया। उसी के कुछ दिनों बाद अल्मोड़ा जेल में ही उनकी दु:खद मौत भी हो गई। तब बिहारी लाल ने किस तरह से अपना कर्जा बतलाकर उनकी सारी जायदाद नीलाम में चढ़वा दी थी। सुना था, कुछ पैसे स्वयंसेवकों के कपड़े बनवाने और खिलाने-पिलाने के लिए अवश्य लिये थे। लेकिन, कैसे वे बाद में एक के इक्कीस हो गए? यह किसी को भी पता न चला।

तब अंत में काकी के लिए क्या बचा? केवल कुछ रूखी-सूखी जमीन ही तो न? उसी के सहारे रो-धोकर किसी तरह उसकी जिंदगी बीती। मरते समय भी वह कह गई थीं—“नंदू! जिनके लिए मेरा सर्वस्व गया, उन्हीं गांधी बाबा को यह जमीन भी दे देना।”

तब भूदान में उसे देने का निश्चय किया। उस साल जब वन-महोत्सव मना तो गाँव वालों ने मिलकर किस उत्साह से उस कूल (छोटी नहर) वाले हिस्से को खूब अच्छी तरह साफ किया। महोत्सव के दिन कैसी निष्ठा से उसमें फूल चढ़ाए। औरतों ने आरती उतारी। मंगल-गीत गाए। फिर, उस पर तुलसी और कनैर के साथ-साथ देवदार के पौधे भी लगाए।

वे नन्हे-नन्हे पौधे लहलहा भी न पाए कि बिहारी की घोषणा ने सबकी आशाओं पर पानी फेर दिया। बाद में अदालत तक की भी नौबत आई। लेकिन, वहाँ भी वही हुआ, जो होना था। पटवारी से मिलकर बीस साल पुराना जमीन का नक्शा तक बदलवा लिया।

किस निर्दयता से वे अधखिली कलियाँ कटीं। कैसे मेरी विस्फारित आँखें देखती रहीं? लगा, जैसे उनके हर घाव मेरे कलेजे को चीरकर हुए हों! जैसे मेरी आँखों के सामने मेरे मासूम बच्चों के गले में छुरी फेरी जा रही हो। आवेश में न जाने क्या-क्या चीखता-चिल्लाता रहा। लेकिन, कौन सुननेवाला था मेरी? उन छोटे-छोटे पौधों के गड्ढे पट गए। देखते-देखते एक पीली कोठी खड़ी हो गई।

तब पागल-सा हो उठा। सोचता रहा—यह जमीन तो गांधी बाबा की थी। उसमें तो तपोवन बनना चाहिए था, फिर वह विलास-घर क्यों बना? सोचते-सोचते मस्तिष्क फटने लगा। आज भी मेरी बुद्धि काम नहीं कर पाती। भला यह क्यों हुआ?

फिर विचार आया—वह नाले के पार जमीन तो काका की है। वह भला रूखी कैसे रहेगी? वहाँ तो हरियाली लानी ही होगी...। यही सोचकर इस बार महोत्सव वहीं मनाने का निश्चय किया।

लेकिन महोत्सव मनाने के लिए था क्या मेरे पास? केवल गाँववालों का ही आसरा तो न? मैंने उन्हीं से कहा। तब बात उन्होंने टाल दी, स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बिहारी सरकारी आदमी है, उसने हमारी लगी-लगाई पौध काटी है। फिर उसका कोई भी महोत्सव उनसे न मनेगा।

कैसा धक्का लगा तब! सारी रात नींद न आई। ये ही विचार उमड़ते रहे कि बिहारी सरकारी आदमी कैसे हुआ?...खादी के कपड़े पहनकर, यदा-कदा, कहीं कभी चंदा देकर और सभा-समितियों में लंबे-लंबे भाषण से ही तो न? उसमें बार-बार उसने यही तो दुहराया था कि किस तरह से, किसी जमाने में स्वयंसेवकों की उसने सहायता की। कई बार उनके लिए उसने कपड़े बनवाए। रहने-खाने की व्यवस्था की। अमर शहीद मोहन की विधवा पत्नी जीवन भर उन्हीं की दी गई जमीन के आसरे रही। उन तूफानी दिनों में अंग्रेजी सरकार को उन्हें पकड़ने का कोई साफ बहाना न मिला तो चोरबाजारी का ही इल्जाम लगाने पर बाज न आई।

तब उसके टकसाली आदमी बनने में कौन सी कसर बाकी थी। चुनाव का टिकट पाना कौन सा कठिन काम था। फिर, ऐसे प्रभावशाली पैसेवाले व्यक्ति को अवसर देने पर संस्था की सीट भी तो सुरक्षित थी। इसीलिए बिहारी एम.एल.ए. बने। उन्हें पीली कोठी, हरी कार की जरूरत हुई।

पर, यह कैसे संभव होता कि बिहारी के सरकारी आदमी बनने से हमारा महोत्सव न बने! मैंने तब गाँववालों को समझाया कि वन-महोत्सव सरकार का नहीं, संस्था का नहीं और किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, वह तो वृक्ष-विहीन धरती का है। हमारी रूखी धरती की माँग हमें भरनी है। हमें चारों ओर हरियाली लानी है। आओ, एक बार फिर हम महोत्सव मनाएँ। उपजाऊ धरती पर पेड़ सभी के लगते हैं, हमारी रूखी रेत में उगेंगे।

वे धरती के लाल तब पीछे न हटे। मेरी बातों से उन्होंने मुँह न मोड़ा। कंधे से कंधा मिलाकर, अंतिम साँसों तक साथ निभाने का वचन दिया। जिस लगन से उन्होंने उसे प्रारंभ किया था, उसी तत्परता से वे आज तक जुटे हुए हैं। फिर, भला वे क्यों सूख रहे होंगे? क्यों मुरझा रहे होंगे?

नंदन बाबू का श्वास चढ़ गया। सोचते-सोचते, बेचैन-से हो उठे। तभी फिर खाँसी का दौर शुरू हुआ। देखा, इस बार बलगम के साथ खून की मात्रा बढ़ आई है। एक ठंडी आह भरते हुए उन्होंने आँखें मूँद लीं।

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तीन रातें बीतीं। नंदन बाबू की हालत तब से दिन-प्रतिदिन चिंताजनक होती चली गई। कई बार साँस रुक-सी आती। अधमरे-से हो जाते। नन्हे बच्चे सकपकाते हुए रुलाई भरी आँखों से देखते रहते। वृंदा भी बावली-सी हो उठी। उसे सूझता न था कि अब वह क्या करे? किधर जाए? फिर इस बार तो गिरती हालत देख और अधिक चिंतित हो उठी। उस श्मशान-सी सूनी आधी रात में अकेली सिरहाने में बैठी, उनके तवे-से तपते माथे को सहलाती रही।

सारी रात उसकी पलकें पतझड़ के पीले पात-सी उस आकृति पर लगी रहीं। देखती गई—कैसी हालत हो गई अब? हिल-डुल नहीं सकते। करवट नहीं बदल पाते, केवल डबडबाई आँखों से छत की ओर देखते रहते हैं। कैसी आतुरता से होंठ फड़कते हैं? “वृंदा! अब न बचूँगा। लगता है, केवल कुछ ही दिनों का मेहमान हूँ। लेकिन, फिर भी मुझे जीना ही होगा न? अपने लिए न सही, लेकिन इन बच्चों, उन पौधों के लिए तो बचना ही पड़ेगा न...!”

कैसे अधीर हो कहते! लेकिन, फिर यह क्या हो रहा है? क्या-क्या न किया अब तक? कौन सी कसर बाकी रखी? अधनंगे, भूखे-प्यासे रहकर भी सब करते रहे। लेकिन फिर यह क्या...!

धैर्य का बाँध टूट पड़ा। उनके माथे पर सिर टिका जोर-जोर से वृंदा फफक पड़ी।

उस सारी रात बेहोशी रही। बार-बार वे बड़बड़ाते रहे। लेकिन, इस बार पलकें खुली थीं। फिर भी बड़बड़ाना जारी था—

“वृंदा, तुझे याद है, जब आजादी के बाद हमने भी महोत्सव मनाया था कर्जा लेकर, जो देवदार और पांगर के पौधे रोपे थे; वे सूख रहे हैं। तूने देखा वृंदा! वे ठूँठ से खड़े हैं। हवा में झूलते हुए गिरने को तैयार हैं। कोई भी नहीं दीखता वहाँ पर। अकेला मैं पागल की तरह बार-बार उन्हें झकझोरते हुए पूछ रहा हूँ—‘बतलाओ तुम क्यों सूख रहे हो? क्या हमने सच्ची भावनाओं से नहीं लगाया था, नहीं सींचा था? फिर, इस तरह क्यों मुरझा रहे हो?’ तब कोई कहता है—‘जिस पानी से इन्हें सींचा, वह पर्याप्त न था। इन पौधों के लिए कुछ खाद, ताजा हवा की जरूरत है, पानी नहीं, खून की आवश्यकता है।’...

“पर, वृंदा। तू देख रही है, खून मेरे शरीर में नहीं रहा। लेकिन, खाद के लिए मेरी लाश उन पौधों की जड़ों में गाड़ देना। खून से तुम सींचना, बच्चों से सिंचवाना। जब मौत आ जाए तो खुशी से तुम भी अपने शरीर की खाद से हरा-भरा करना...।”

गला सूख गया। आवाज टूट गई। लेकिन, फिर भी होंठ फुसफुसाते रहे। “हमें अपने मुरझाते पौधों की चिंता नहीं। सारी धरती पर हरियाली देखना चाहते थे, इसीलिए वन-महोत्सव मनाया...कर्जा लेकर भी पौधे लगाए। गरीबों की आशाओं से उन्हें सींचा। फिर, उन्हें निराश न करना, उनका कर्जा भी चुका देना...! मैं न जिया, इसका दु:ख न करना। मेरी मुरझाती पौध हरी कर देना। दूसरों की सूखी धरती पर हरियाली ला सकी, तो तेरी फुलवारी भी मुरझाती...न...रहेगी...” आवाज धीरे-धीरे धीमी होती चली गई। अंत में होंठों का फड़कना भी बंद हो चला।

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बावली-सी एक बुढ़िया प्रतिदिन भोर की किरण से पहले नहा-धोकर पौधों में अर्घ का जल देती। फूल चढ़ाती। आत्म-विस्मृत-सी देखती रहती—उनकी लाश पर उगे पौधे हरे होते जा रहे हैं। धीरे-धीरे वे बढ़ रहे हैं। उनकी बाढ़ से पीली कोठी ढकती चली जा रही है। वैसे ही उसके नन्हे-नन्हे बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। उनकी ओट से एक दिन उनकी गरीबी भी ढक जाएगी। फिर वह भी भिखारिन न रहेगी...

सोचते-सोचते विभोर-सी हो उठती। उसे लगता, जैसे वे जीवित उसी के सामने खड़े हों! उन्हीं का वह फलता-फूलता शरीर हो! जिस पर अभी उसने जल चढ़ाया, वे पेड़ की जड़ें नहीं, वे चरण हों। उन्हीं के हाथों की सिर पर शीतल छाया हो। हवा से हिलती-डुलती वे कोंपलें नहीं, जैसे उनके ही फड़कते होंठ हों! इस बार भी कह रहे हों...तेरी फुलवारी भी...मुरझाती...न रहेगी...।

(समाज, दिसबंर 1958 से)

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