राज्यश्री (नाटक) : जयशंकर प्रसाद

Rajyashri (Hindi Play) : Jaishankar Prasad

निपेतुरेकस्यां तस्यां शरा इव लक्ष्यभुवि भूभुजां सर्वेषां दृष्टयः
- हर्षचरिते

प्राक्कथन : राज्यश्री (नाटक)

राज्यश्री और हर्षवर्द्धन से सम्बन्ध रखने वाली घटनाओं का आधार हर्षवर्द्धन के राजकवि बाण का बनाया हुआ हर्षचरित और चीनी यात्री सुएनच्वांग का वर्णन है। हर्षचरित का वर्णन अपूर्ण है, अनुमान होता है कि ग्रन्थ की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं, या वह उस कवि की रचना कादम्बरी की भाँति अधूरी-सी रही। कुछ विशेष घटनाओं का वर्णन चीनी यात्री ने किया है। बौद्ध-धर्म का विशेष पक्षपाती होने के कारण वह उन घटनाओं को नहीं छोड़ सका, जो बौद्ध-धर्म के अनुकूल हुई थीं।

उस समय गुप्तों का प्राधान्य नष्ट हो चुका था। छठी शताब्दी में मालव के यशोधर्मदेव ने जब हूण मिहिरकुल को परास्त किया, तो साम्राज्य-शक्ति मगध से हटकर मालव की शरण में चली गयी, परन्तु यशोधर्मदेव की वंश परम्परा में वह स्थिर न रह सकी। इधर, जो हूण भारत की सीमा के भीतर घुस आये थे, वे कभी न कभी उपद्रव मचा ही देते, इस कारण स्थानीय राज्यों को उनसे बराबर छोटा-मोटा युद्ध करना ही पड़ता। सम्भवतः भारत के उत्तर पश्चिमी प्रान्त से उनका आतंक निर्मूल नहीं हुआ था, यद्यपि वे अब भारत-साम्राज्य के विजेता नहीं रहे।

यह सातवीं शताब्दी का प्रारम्भ था, जब स्थाण्वीश्वर के राजवंश ने प्रबलता प्राप्त की, शक्ति-सञ्चय करके वे हूणों से लड़े। कान्यकुब्ज में मौखरियों का प्राधान्य था और मालव में गुप्तवंश के कुछ फुटकल राजकुमार प्रबल हो गये थे। यशोधर्म के साम्राज्य का विभाग होकर स्थान-स्थान पर नवीन राजवंश अधिकार जमा रहे थे। इधर सिकुड़ कर मगध में गुप्तवंश के महाराजाधिराज अपनी मान-मर्यादा लिये दिन बिता रहे थे। फिर भी गुप्तों के राजकुमारों के ही अधिकार में पूर्वी मालव, मगध और गौड़ था।

गौड़ के एक राजकुमार ने मौखरी और वर्द्धनों की सम्मिलित राजशक्ति को उलट देने का संकल्प लिया। बाण ने इसका नाम नरेन्द्रगुप्त लिखा है परन्तु सुएनच्चांग के आधार पर बोधिद्रुम को उखाड़ने वाला शशांक ही गौड़-विद्रोह का कारण माना जाने लगा है, यद्यपि अभी तक यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हुआ है कि नरेन्द्रगुप्त और शशाक एक ही व्यक्ति हैं। कुछ लोग हर्षवर्धन की माता का नाम ही यशोमती देखकर ही उसे यशोधर्म की दुहिता मान लेने का प्रयास कर रहे हैं। अस्तु। वर्द्धनवंश के प्रभाकर के मरते ही नरेन्द्र के उकसाने से मालव के देवगुप्त ने प्रभाकर के जामाता ग्रहवर्मा से कान्यकुब्ज को छीन लिया और प्रभाकर की दुहिता राज्यश्री को बन्दी बना कर सफलता प्राप्त की। राज्यवर्द्धन ने जब कान्यकुब्ज का उद्धार किया, तो नरेन्द्र ने छल से उसकी हत्या की। हर्ष अभी एक नवयुवक शासक था। सम्भव था कि थानेसर ही उलट दिया जाता, परन्तु उसने अतुल पराक्रम से उस विपत्ति का सामना किया और मालव तथा गौड़ के षड्यन्त्र को ध्वस्त कर दिया। घटनाचक्र से वह समस्त उत्तरापथ का महाराजाधिराज बन गया। हर्षवर्धन ने राजनीति को संयम से चलाया। कामरूप, काश्मीर और वलभी के प्रान्तराज्य उनके अनुगत हो गये। दिवाकर मित्र नामक एक साधु ने राज्यमंत्री के प्राणों की रक्षा की।

कहा जाता है, कि हर्षवर्धन ने राज्यश्री के साथ कान्याकुब्ज का संयुक्त - शासन किया और इसलिये बहुत दिनों तक वह केवल राजपुत्र उपाधि धारण किये था, किन्तु बांसखेड़ा के शिलालेख में वह स्वयं लिखता है - “स्वहस्तोमम महाराजाधिराज? श्रीहर्षस्य"। उसका राज्यकाल 605 ईसवीय से आरम्भ होकर 647 ईसवीय तक चलता है।

चीनी यात्री ने तो हर्ष के काषाय लेने का भी उल्लेख किया है, परन्तु सम्भवतः यह भारत की वही प्राचीन प्रथा थी, जिसका वर्णन कालिदास ने विश्वजित् याग के बाद सर्वस्वदान के रूप में किया है - रघु भी सब जीत कर ऐसा दान करके अकिंचन हो गये थे, जब कौत्स गुरु-दक्षिणा के लिए गये थे। हर्षवर्धन का बौद्धधर्म की ओर अधिक झुकाव होने का कारण उनकी भगिनी राज्यश्री का बौद्ध दिवाकरमित्रा द्वारा बचाया जाना भी हो सकता है। सम्भवतः धर्म में वे समन्वयवादी थे, सूर्य, शिव और बुद्ध तीनों देवताओं की प्रतिमाएँ आदरणीय थीं। प्रधानतः हर्षवर्द्धन के हृदय में धर्म का सात्त्विक रूप व्याप्त था, यद्यपि चीनी-यात्री ने उसके महायान-प्रेमी होने का अधिक वर्णन किया है।

पुलकेशिन् चालुक्य ने उनकी विजय को दक्षिण में रोक दिया वह भी उत्तरापथ के साम्राज्य से सन्तुष्ट था। राज्यश्री एक आदर्श राजकुमारी थी। उसने अपना वैधव्य सात्त्विकता से बिताया। अनेक अवसरों पर वह हर्ष के लौह-हृदय को कोमल बनाने में कृतकार्य हुई।

यद्यपि इस धर्मसमन्वय के कारण, चीनी यात्री सुएनच्वांग और सीयूकी के अनुसार, स्वयं हर्षवर्द्धन के प्राण लेने तक की चेष्टा भी की गयी थी, परन्तु वह राज्यश्री के कोमल स्वभाव की प्रेरणा से, बचता ही रहा। कान्यकुब्ज का और प्रयाग का दानमहोत्सव वर्णन करते हुए सुएनच्वांग अघाता नहीं। यह सब प्रेरणा राज्यश्री की थी।

इस दृश्यकाव्य का पूर्वरूप "इन्दु" में पहले निकाला, फिर चित्राधार के संग्रह में वह पुनर्मुदित हुआ। एक प्रकार से मैं इसे अपना प्रथम ऐतिहासिक रूपक समझता हूँ। उस समय यह अपूर्ण-सा ही था, इसका वत्र्तमान रूप कुछ परिवत्र्तित और परिवर्धित है।

विकटघोष और सुरमा, यद्यपि, ऐतिहासिक पात्र नहीं है, परन्तु चीनी यात्री का एक डाकू से पकड़े जाने का उल्लेख मिलता है। हर्षवर्द्धन के जीवन का अन्तिम दृश्य इसमें नहीं दिया गया है, क्योंकि इस रूपक का उद्देश्य है, राज्यश्री का चरित्र-चित्रण।

पात्र-परिचय : राज्यश्री (नाटक)

राज्यश्री : कन्नौजराज ग्रहवर्मा की रानी

अमला, कमला, विमला : राज्यश्री की सखियाँ

सुरमा : एक मालिन

हर्षवर्द्धन : स्थाण्वीश्वर का राजकुमार; फिर भारत का सम्राट्

दिवाकरमित्र : एक महात्मा

नरेन्द्रगुप्त : गौड़ का राजा

राज्यवर्द्धन : स्थाण्वीश्वर का बड़ा राजकुमार

भण्डि : सेनापति

नरदत्त : मालव का सैनिक

सुएनच्वा : चीनी यात्री

पुलकेशिन : चालुक्य-नरेश

धर्मसिद्धि; शीलसिद्धि : दो भिक्षु

शान्तिदेव : भिक्षु फिर दस्यु विकट घोष

देवगुप्त : मालवराज

मधुकर : उसका सहचर

ग्रहवर्मा : कन्नौज का राजा

दौवारिक, सहचर, प्रहरी, दस्यु, सैनिक, प्रतिहारी, दूत, मंत्री, नागरिक इत्यादि।

प्रथम अंक-प्रथम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(नदी-तट का उपवन)

शान्तिदेव - सुरमा, अभी विलम्ब है।

सुरमा - क्या विलम्ब है प्रियतम, देखो मैं मल्लिका का क्षुप सींचती हूँ; यह भी मुझे वंचित नहीं रखता - छाया, सुगन्ध और फूलों से जीविका देता है, किन्तु तुम ! कितने निष्ठुर हो ! तुम्हारी आंखों में दया का संकेत भी नहीं।

शान्ति. - मैं भिक्षु हूँ सुरमा ! संसार ने मुझे एक ओर ढकेल दिया है - मैं अभी उसी ढालुवें से ढुलक रहा हूँ। रुकने का, सोचने का, अवसर नहीं। मुझे तुम्हारी बात, तुम्हारा स्नेह, एक विडम्बना - एक धोखा-सा जान पड़ता है।

सुरमा - विश्वास करो ! मैं आजीवन किसी राजा की विलास-मालिका बनाती रहूँ- ऐसा मेरा अदृश्य कहे, तो भी मैं मान लेने में असमर्थ हूँ। मेरी प्राणों की भूख आँखों की प्यास, तुम न मिटाओगे ?

शान्ति. - यह तो हुई तुम्हारी बात, परन्तु मैं क्या चाहता हूँ - यह मैं अभी स्वयं नहीं समझ सका हूँ।

सुरमा - मैं समझ गयी; तुम फूल लेने आकर नित्य बातें बना जाते हो। मुझे एक साधारण पुष्पवाली समझते हो न ! और तुम, ठहरे कुलीन क्षत्रिय, तिस पर भिक्षु !!

शान्ति. - ठहरो सुरमा ! जीवन की दौड़ बहुत लम्बी है, उसकी अभिलाषा के लिये इतना चंचल न होना चाहिए।

सुरमा - तुम निद्र्रय हो, मेरी आराधना का मूल्य नहीं जानते - भिक्षु ! तुम्हारा धर्म उसके सामने -

शान्ति. - उतावली न हो सुरमा ! परीक्षा देने जा रहा हूँ; साथ ही भाग्य की परीक्षा भी लूंगा ! महारानी राज्यश्री एक दिन भिक्षुओं को दान देंगीं, मैं भी देखूँगा कि भाग्य मुझे किस ओर खींचता है। फिर मैं तुमसे मिलूँगा।

(प्रस्थान)

(देवगुप्त का प्रवेश)

देव. - वाह ! जैसा सुन्दर यह उपवन है, वैसी ही मालिन ! क्यों जी, तुम्हारा नाम तो सुनूँ !

सुरमा - (सलज्ज) मुझे लोग सुरमा कहते है।

देव. - नाम तो बड़ा सुरुचिपूर्ण है ! भला, मैं तुम्हारे इस उपवन में कुछ दिन ठहर सकता हूँ ?

(सुरमा देवगुप्त को देखती है)

देव. - तुम तो बोलती भी नहीं हो। यह तुम्हारा मल्लिका का बाल-व्यंजन तो अभी अधबना ही है - धन्य तुम्हारी शिल्प-कुशलता !

सुरमा - मैं अकेली इस उपवन में रहती हूँ, आप एक विदेशी !

देव. - तो इससे क्या ? सब अकेले ही तो संसार-पथ में निकलते हैं, किसी का मिल जाना, यह तो उसके भाग्य की बात है। देखो मुझे यदि तुम न मिल जाती, तो कौन आश्रय देता ? (हँसता है)

सुरमा - (स्वगत) - यह कैसा विलक्षण पुरुष है ? उत्तर देते भी नहीं बनता, क्या करूँ ?

देव. - तो मैं तुम्हारे इस उद्यान में दो घड़ी तो विश्राम अवश्य करूँगा। फिर चाहे निकाल देना।

सुरमा - अच्छी बात है। मैं अपनी पुष्प-रचना लेकर राज-मन्दिर जाती हूँ, तब तक आप यहाँ विश्राम कर लीजिये।

देव. - तो क्या तुम राज-मन्दिर में भी जाती हो ?

सुरमा - हाँ ! वहीं से तो मेरी जीविका है !

देव. - अच्छी बात है सुरमा; तुम हो आओ ! मैं तब तक थकान मिटाता हूँ।

(एक वृक्ष के नीचे बैठ जाता है - सुरमा माला बनाती हुई उसे कनखियों से देखती जाती है)

देव. - वाह ! कितना सुरभित समीर है। घ्राण तृप्त हो गया ! मस्तिष्क जैसे हँसने लगा और ग्लानि का तो कहीं पता नहीं ! सुरमा, तुम्हारा स्थान कितना सुरम्य है ! - (देखकर) - अरे तुम्हारा बाल-व्यंजन बन भी गया, कितना सुन्दर है ! उन कोमल हाथों को चूम लेने का मन करता है - जिन्होंने इसे बनाया।

सुरमा - (हँसती हुई) आप तो बड़े धृष्ट है... मैं अब तो जाती हूं।

(अपनी पुष्प-रचना लेकर इठलाती हुई जाती है)

प्रथम अंक-द्वितीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(कान्यकुब्ज के राजमन्दिर का एक प्रकोष्ठ)

ग्रहवर्मा - (राज्यश्री के साथ चिन्तित भाव से प्रवेश करते हुए) - प्रिये, मेरा चित्त आज न जाने क्यों उदासीन हो रहा है, चेष्टा करके भी मैं उसे प्रसन्न नहीं कर पाता हूँ। अनेक भावनाएँ हृदय में उठ रही है, जो निर्बल होने पर भी उसे उद्विग्न कर रही हैं।

राज्यश्री - नाथ, आप जैसे धीर पुरुषों को - जिनका हृदय हिमालय के समान अचल और शांत है - क्या मानसिक व्याधियाँ हिला या गला सकती है ? कभी नहीं।

ग्रह. - इस विश्वव्यापी वैभव के आनन्द में यह मेरा हृदय संशक होकर मुझे आज दुर्बल बना रहा है।

राज्यश्री - शंका किस बात की, प्रियतम ?

ग्रह. - पुण्यभूमि महोदय का सिंहासन, सरल और अनुरक्त-प्रजा; सुजला-शस्य-श्यामला उर्वरा भूमि, स्वास्थ्य का वातावरण और सबसे सुन्दर उत्तरापथ का कुसुम यह पवित्र मुख - मेरा है, अपना है; फिर भी...

राज्यश्री - (संकुचित होती हुई) - तब भी, क्या ?

ग्रह. - तब भी यही कि यह सुदूर-व्यापी नील आकाश कितने कुतूहलों का, परिवर्तनों का क्रीड़ा-क्षेत्र है। यह आवरण है भी कितना काला - कितना...

राज्यश्री - बस नाथ, बस। क्या हृदय को दुर्बल बनाकर अनुशोचन बढ़ा रहे हो !

ग्रह. - मनुष्य-हृदय स्वभाव-दुर्बल है। प्रवृत्तियाँ बड़ी-बड़ी राजशक्तियों के सदृश इसे घेरे रहती हैं। अवसर मिला कि इस छोटे-से हृदय-राज्य को आत्मसात् कर लेने को प्रस्तुत हो जाती है !

राज्यश्री - व्यर्थ चिन्ता ! हृदय को प्रसन्न कीजिये। सम्भव है कि संगीत में मन लग जाय, बुलाऊँ गानेवालियों को ?

ग्रह. - नहीं प्रिये, क्षत्रियों का विनोद तो मृगया है। इच्छा होती है कि सीमाप्रान्त के जंगल में कुछ दिनों तक मन बहलाऊँ।

राज्यश्री - जैसी इच्छा, मुझे भी आज भिक्षुओं को दान देना है।

ग्रह. - अच्छी बात है।

(प्रस्थान)

प्रथम अंक-तृतीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(सुरमा का उपवन)

देवगुप्त - मालव-नरेश, में छद्मवेश में अनेक देश देखता फिरा, किन्तु उस दिन मदनोत्सव में जो आनन्द-दायक दृश्य यहाँ देखने में आया, वह क्या कभी भूलने को है! राज्यश्री ! आह कितना आकर्षक - कितना सौन्दर्यमय वह रूप है।

(मधुकर का प्रवेश)

मधु. - महाराज, मालव से एक दूत आया है।

देव. - उसे बुला लो मधुकर, मैं अब कुछ दिन यहीं अपना निवास रखूंगा।

(मधुकर जाता है, दूत के साथ फिर आता है)

दूत. - जय हो देव !

देव. - कहो क्या समाचार है ?

दूत. - महाराज के अनुग्रह से सब मंगल है। मन्त्रिवर ने यह प्रार्थना-पत्र श्री चरणों में भेजा है। (पत्र देता है)

देव. - (पढ़ता है) - ‘स्वास्ति श्री इत्यादि महाराज की... आज्ञा के अनुसार वीरसेन सेना के साथ निर्दिष्ट स्थान पर प्रेरित हो चुके हैं। और भी एक सहस्र सैनिक दूत के साथ ही अनेक वेशों में आपके समीप उपस्थित है। संकेत पाते ही एकत्र हो सकेंगे। किन्तु देव, परिणाम-दर्शी होकर कार्य आरम्भ करें - यही प्रार्थना है। (हँसकर पत्र फाड़ता हुआ) मंत्री वृद्ध हो गये हैं ! जाओ विश्राम करो (दूत जाता है)

(सुरमा का प्रवेश)

देव. - आओ सुरमा; यह मेरा साथी एक और श्रेष्ठि आ गया है, तुम्हें कष्ट तो न होगा ?

सुरमा - (माला एक ओर रखती हुई) - कष्ट ! ओह ! कष्टों का तो अभ्यास हो गया है। अभी राज-मन्दिर से हो आयी। सुना है कि महाराज मृगया के लिए सीमाप्रान्त चले गये हैं। मैं उन विभव-विलास के प्रदर्शनों को, उपकरणों को, अपनी दरिद्रता की हँसी उड़ाते देखती हुई, लौट आयी हूँ। यह माला, यह मल्लिका का बाल-व्यंजन क्या होगा- मेरा दिन-भर का परिश्रम।

देव. - (सहानुभूति) - तो मैं इसे ले सकता हूँ सुरमा !

सुरमा. - आप ? ले लीजिये।

देव. - तुम्हारे महाराज कुपित न होंगे।

सुरमा - होना है सो हो जाय - श्रेष्ठि, मैं राजा को देखकर बड़ा डरती हूँ ! वहाँ जाना होता है तो मैं जैसे आग में, पानी में जा रही हूँ। पैर काँपने लगते हैं - मानों भूकम्प में चल रही हूँ !

देव. - और यदि मैं भी कहीं का राजा होऊँ सुरमा !

सुरमा - (देखकर) - तुम ! तुम राजा नहीं हो सकते; असंभव है। तुम तो हमारे-जैसे ही लाग हो, तुम्हारी मुख की ज्योति - उहूँ, तुम और चाहे कुछ बन जाओ, राजा नहीं हो सकते।

देव. - वाह सुरमा ! तुम सामुद्रिक भी जानती हो !

सुरमा - (पास बैठ कर) - अहा ! कितनी सुहावनी रात है - चन्द्रिका के मुख पर कुहरे का अवगुण्ठन नहीं। स्वच्छ अनन्त में देवताओं के दीप झलमला रहे हैं - कितना सुन्दर है !

देव. - (स्वगत) - कितनी भावनामयी यह युवती है - अवश्य इसके हृदय में महत्त्व की आकांशा है - (प्रकट) - क्यों सूरमा, ऐसी रात तो सुन्दर संगीत खोजती है- तुम कुछ गाना भी जानती हो ?

सुरमा - (कृत्रिम क्रोध से) - वाह ! आप तो धीरे-धीरे हाथ-पांव फैलाने लगे !

देव. - (अनुयय से) - सुन्दरी एक तान ! अपराध क्षमा हो ! विदेश की यह रजनी आजीवन स्मरण रहेगी - दुहाई है !

सुरमा - मैं जानती हूँ कि नहीं, यह नहीं जानती, पर गाती हूँ - कभी-कभी अपने दुःखी दिनों पर रोती हूँ अवश्य !

देव. - वही सही सुरमा !

सुरमा - (गाती है) -

आशा विकल हुई है मेरी,
प्यास बुझी न कभी मन की रे !
दूर हट रहा सरवर शीतल,
हुआ चाहता अब तो ओझल,
झुक जाती है पलकें दुर्बल !
ध्वनि सुन न पड़ी नव धन की रे !
ओ बेपीर पीर ! हूँ हारी,
जाने दे, हूँ मैं अधमारी,
सिसक रही घायल दुखियारी -
गाँठ भूल जीवन-धन की रे !
आशा विकल हुई है मेरी

प्रथम अंक-चतुर्थ दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(प्रकोष्ठ में मंत्री)

दूत - (प्रवेश करके) - आर्य ! भयानक समाचार है !

मंत्री - क्या है ?

दूत - सीमाप्रान्त के कानन में महाराज तो सुख-मृगया-विनोद में दिवस-यापन कर रहे है; किन्तु ...

मंत्री - कहो-कहो, किन्तु क्या ?

दूत - युद्ध की आशंका है। मालवेश्वर की सीमा हमारी सीमा से मिली हुई हैं अकारण उनकी सेना आजकल सीमा पर एकत्र होने लगी है और महाराज को चिढ़ाने के लिए जान-बूझ कर धृष्टता की जा रही है। इसलिए महाराज ने कहा है कि सेनापति को सेना के साथ शीघ्र यहाँ आ जाना चाहिए।

मंत्री - किन्तु जैसे समाचार नगर के मुझे मिले हैं, उससे तो मैं स्वयं सशंक हो रहा हूँ। मुझे कान्यकुब्ज के भीतर नागरिकों में कुछ सन्देहजनक व्यक्ति होने का पता चला है। - (कुछ सोचकर) - अच्छा, तुम महाराज से कहना कि मैं सैन्य भेजता हूँ, पर आद्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है। मैं नगर-रक्षा के लिए थोड़ी सेना लूँगा, क्योंकि स्थाण्वीश्वर से सहायता मिलने में अभी विलम्ब होगा। मैं वहाँ भी सन्देश भेजता हूँ।

(दूत का प्रस्थान) तो अब महारानी को भी समाचार देना चाहिए। अब स्मरण आया - आज तो वह दान-पर्व में लगी होंगी। तो चलूँ वहीं। सेना भी तो भेजनी है। जरा भी कैसी भीषण व्याधि है! अहा ! हम लोग इसे नित्य देखते हैं, पर तथागत के समान किसने इस दृश्य से लाभ उठाया ? इतने दिन काम किया; अब भी तृष्णा तो न छूटी ! चलूँ - मुझे पँहुचने में भी तो विलम्ब होगा। पहले सेनापति से मिलूँ या महारानी से ? - (सोचकर) - पहले सेनापति से यही ठीक होगा।

(प्रस्थान)

प्रथम अंक-पञ्चम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(देव-मन्दिर में राज्यश्री दान के उपकरण और भिक्षु उपस्थित हैं।)

राज्यश्री - भिक्षुओं को वस्त्र और धन देती है - शान्तिदेव सामने आता है - तुम्हारा शुभ-नाम भिक्षु ?

शांतिदेव - जय हो ! मेरा नाम शान्तिभिक्षु ...

(रुककर राज्यश्री की ओर देखने लगता है)

राज्यश्री - भिक्षु, तुमने प्रवज्या ग्रहण कर ली है, किन्तु तुम्हारा हृदय अभी...

शांतिदेव - कल्याणी ! मैं, मेरा अपराध -

राज्यश्री - हाँ तुम! भिक्षु! तुम्हे शील-सम्पदा नहीं मिली, जो सर्वप्रथम मिलनी चाहिए।

शांतिदेव - मैं सब ओर से दरिद्र हूँ देवि ! - (स्वगत) - विश्व में इतनी विभूति! और मैं - सिर ऊंचा करके अत्यन्त ऊँचाई की ओर देखता हुआ केवल उलटा होकर गिर जाता हूँ - चढ़ने की कौन कहे !

राज्यश्री - क्या सोचते हो, भिक्षु !

शांतिदेव - केवल अपनी क्षुद्रता -

राज्यश्री - तुम संयत करो अपने मन को भिक्षु ! श्लाघा और आकांक्षा का पथ तुम बहुत पहले छोड़ चुके हो। यदि तुम्हारी कोई अत्यन्त आवश्यकता हो, तो मैं पूरी कर सकती हूँ; निश्चिन्त उपासना की व्यवस्था करा दे सकती हूँ।

शांतिदेव - (स्वगत) इतना सौन्दर्य, विभव और शक्ति एकत्र !

राज्यश्री - तुम चुप क्यों हो, भिक्षु !

शांतिदेव - मुझे जो चाहिए वह नहीं मिल सकता - इसलिये मैं न माँगूँगा।

राज्यश्री - भिक्षु ! मेरा व्रत न खण्डित करो।

शांतिदेव - नहीं, मैं दान न लूँगा; मुझे कुछ न चाहिए।

(प्रस्थान)

राज्यश्री - विमला ! मैं इस प्रसंग से दुखी हो गयी हूँ।

विमला - चिन्ता न कीजिये देवि, पूजन भी तो हो चुका है। अब पधारिये।

राज्यश्री - चलती हूँ सखि ! मेरा हृदय कह रहा है कि महाराज का कोई सन्देश आ रहा है।

विमला - प्रियजन की उत्कण्ठा में प्रायः ऐसा ही भ्रम हुआ करता है।

(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रति. - महादेवी की जय हो ! मंत्री महोदय आ रहे हैं।

राज्यश्री - आने दो।

मंत्री - (प्रवेश करके) महादेवी की जय हो ! कुछ निवेदन...

राज्यश्री - कहिये-कहिये -

मंत्री - सीमाप्रान्त से युद्ध का सन्देश आया है।

राज्यश्री - (स्वस्थ होकर) - मंत्री! इसी बात को कहने में आप संकुचित होते थे! क्षत्राणी के लिए इससे बढ़कर शुभ-समाचार कौन होगा! आप प्रबन्ध कीजिये, मैं निर्भय हूँ।

(मंत्री का प्रस्थान)

राज्यश्री - चलो, सब लोग फिर से विजय के लिए प्रार्थना कर लें।

(सब प्रतिमा के सामने जाकर प्रार्थना करती हैं। पुष्पाञ्जलि चढ़ाती हैं, मन्दिर में अट्टहास, राज्यश्री मूर्छित होती हैं, अन्धकार)

प्रथम अंक-षष्ठ दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(सुरमा का उपवन)

देवगुप्त - सुरमा, तुमको जब बड़े कष्ट से उपवन सींचते देखता हूँ और परिश्रम से फूलों को चुनते और उनकी माला बनाते देखता हूँ, तो मेरा हृदय व्यथित होता है !

सुरमा - क्यों, इतनी सहानुभूति तो आज तक किसी ने मेरे साथ नहीं दिखलायी!

देवगुप्त - मेरा हृदय जाने; इस ‘क्यों’ का कारण मैं क्या बतलाऊँ। यह कुसुम तो कामदेव की उपासना में मुकुट की शोभा बढ़ा सकता है।

सुरमा - किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है, श्रेष्ठि ! तुम्हारा...

देव - ठहरो सुरमा ! मैं श्रेष्ठि नहीं हूँ - आज मैं तुम्हे अभिन्न समझ कर अपना रहस्य कहता हूँ। मैं मालव-नरेश देवगुप्त हूँ।

सुरमा - (आश्चर्य से) - क्या !

दूत - (प्रवेश करके) - जय हो देव, स्थाण्वीश्वर में प्रभाकरवर्द्धन का निधन हुआ और राज्यावर्द्धन इस समय हूण-युद्ध के लिए पञ्चनद गये हैं।

देव - अच्छा जाओ !

(दूत का प्रस्थान)

सुरमा - तुम - आप - मालव के -

देव - हाँ सुरमा, चलोगी मेरे साथ ?

सुरमा - यह भी सत्य है ? नहीं महाराज ! जैसे आपका वेश कृत्रिम है, वैसे ही यह वाणी भी तो नहीं ?

देव. - नहीं प्रिये, मैं तुम्हारा अनुचर हूँ।

सुरमा - हे भगवान् ! इतना बड़ा सौभाग्य ! नहीं, यह मेरे अदृष्ट का उपहास है।

देव. - सुन्दरी यह उपहास नहीं, सत्य है।

सुरमा - परन्तु शान्तिभिक्षु की प्रतीक्षा !

देव. - कौन शान्तिभिक्षु ? उसे कुछ दान दिया चाहती हो क्या ?

सुरमा - नहीं, दे चुकी हूँ !

देव. - तो दे दो; यह उपवन ही न - तुम्हें अब इसकी आवश्यकता ही क्या ?

सुरमा - वही करूँगी।

देव. - मुझे तुमने प्राण-दान दिया परन्तु देखो, जब तक यहाँ से हम लोग मालव के लिए प्रस्थान न करें यह बात न खुलने पावे।

सुरमा - अच्छा जाती हूँ, विश्वास रखिये - (अस्तव्यस्त भाव से उठ कर जाती है)

(मधुकर का प्रवेश)

देव. - सीमा का क्या समाचार है ? वीरसेन की वीरता पर तो मुझे विश्वास है; पर मौखरी भी सहज नहीं। इधर मैं इतने मनुष्यों के साथ दूसरी राजधानी में पड़ा हूँ, बड़ी विषम समस्या है। क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता।

मधुकर - सीमाप्रान्त में विजय मिलने की निश्चित सम्भावना है और यदि ऐसा न हुआ, तो शीघ्र ही मालव पहुँच कर सब दोष मंत्री के सिर रखकर अलग हो जाइयेगा, सन्धि का प्रस्ताव भेज दीजियेगा। क्योंकि यह तो प्रसिद्ध है ही कि मालवेश्वर बहुत दिनों से तीर्थ-यात्रा के लिए गये है।

देव. - मधुकर ! देवगुप्त उसी गुप्त-कुल का है, जिसके नाम से एक दिन समस्त जम्बूद्वीप विकम्पित होता था। आज सिंह-विहीन जंगल में स्यारों का राज्य है। मुझे एक बार वही चेष्टा करनी होगी। स्थाण्वीश्वर और कान्यकुब्ज दोनों का ध्वंस करना है।

मधु - दैव अनुकूल होने से आपकी इच्छा पूरी ही होगी।

(चर का प्रवेश)

चर - जय हो देव ! सीमाप्रान्त का युद्ध आपके पक्ष में सफल हुआ। ग्रहवर्मा को कड़ी चोट आयी है; क्योंकि वीरसेन ने कान्यकुब्ज की सेना पहुंचने के पहले ही युद्ध आरम्भ कर दिया था। इधर दुर्ग में भी सेना बहुत कम है।

देव - मेरा अनुमान है कि मेरे सैनिक उनसे अधिक हैं। मधुकर ! सुनो तो - (कान में कुछ कहता है, प्रकट) - जब कुछ और सेना सीमा की ओर चली जाय, तो जिस ढंग से बताया है, उसी प्रकार मेरे सब सैनिक दुर्ग में एकत्र हों। ‘विजय’ संकेत होगा, जाओ- बस।

(सबका प्रस्थान)

प्रथम अंक-सप्तम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(प्रकोष्ठ में मूर्छित राज्यश्री और सखियाँ)

विमला - सखी ! क्या होगा !

कमला - क्या कहूँ, मन्दिर वाली घटना से अभी तक एक बार भी पूरी चेतना नहीं आयी। सखी ! यह बात तो आश्चर्यजनक हुई - क्या कोई अपदेवता वहाँ उस दिन आ गया था ?

विमला - सखी मैं तो समझती हूँ, वही भिक्षु ठठाकर हँस पड़ा महारानी को प्रतिमा हँसने के अपशकुन की आशंका हुई।

कमला - देख, देख, अब उठ रही है, कुछ कहा ही चाहती हैं -

(मंत्री का प्रवेश, राज्यश्री उठकर प्रलाप करती है)

राज्यश्री - हँस दिया - हाँ, हँस दिया ! मेरी प्रार्थना पर हँस दिया ! क्या वह अनुचित थी ? मेरी बात क्या हँसने योग्य थी ? नहीं, नहीं, हँसी का कारण है मेरा निर्बल होना। हँसो और भी हँसो ! मेरी प्रार्थना तुम्हारे कर्कश कठोर अट्टहास में विलीन हो जाय! हा हा हा हा !

मंत्री - किससे और क्या कहूँ ? जिसकी आशंका-मात्र से यह दशा है, उसे वास्तविक समाचार देने का क्या परिणाम होगा ? कुटिलते ! देख, तूने एक सोने का संसार मिट्टी में मिला दिया।

(प्रतिहारी का त्रस्तभाव से प्रवेश)

प्रति - आर्य ! न मालूम क्यों दुर्ग में बड़ी भीड़ इकट्ठी हो रही है। प्रजा कह रही है कि मुझ महाराज की सच्ची अवस्था मालूम होनी चाहिए।

मंत्री - उन लोगों से कहो कि हम अभी आते हैं।

(प्रतिहारी का प्रस्थान)

(राज्यश्री उठ कर उन्मत्तभाव से टहलती है)

प्रति. - (पुनः प्रवेश करके) - अनर्थ !

मंत्री - क्या हुआ ? कुछ कहो भी !

प्रति. - उन्हीं प्रजाओं के साथ दुर्ग में सहस्रों शत्रु घुस आये हैं।

मंत्री - हूँ ! वह प्रजा न थी, जो इस तरह षड्यंत्र करके दुर्ग में चली आयी ? वे शत्रु... (विचारने लगता है)

(एक सैनिक का प्रवेश)

सैनिक - मन्त्रिवर ! दुर्ग-रक्षक सैन्य-संग्रह करके आत्म-रक्षा का प्रबन्ध कर रहे हैं। उन्होंने मुझे यह कहने के लिए भेजा है कि इस उपद्रव का नेता वही दुष्ट वणिकवेशधारी मालवेश है।

मंत्री - (चौंक कर) क्या मालवेश ? अच्छा ! जाओ, युद्ध में पीछे न हटना ! कान्यकुब्ज के एक भी सैनिक के जीवित रहते देवगुप्त दुर्ग पर अधिकार न करने पावे।

(सैनिक का प्रस्थान)

राज्यश्री - मंत्री ! उसने हँस दिया !

(नेपथ्य में रण-कोलाहल)

मंत्री - विमला ! यहाँ महारानी का रहना ठीक नहीं।

राज्यश्री - महारानी फिर कहाँ जाएँगी ?

मंत्री - शत्रु दुर्ग में घुस आये हैं।

राज्यश्री - जाओ, उन्हें सादर लिवा लाओ।

मंत्री - हे भगवान् !

(देवगुप्त का विजयी सैनिकों के साथ प्रवेश। राज्यश्री मंत्री का खड्ग ले लेती है और देवगुप्त पर उसे चलाती है, देवगुप्त उसे पकड़ता है और वह मूर्च्छित होती है)

[यवनिका]

द्वितीय अंक-प्रथम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(सुरमा का उपवन, अकेले शान्ति देव)

शांति. - मैं संसार से अलग किया गया था - किस लिये ? पिता ने मुझे भिक्षु-संघ में समर्पण किया था - क्या इसलिये कि मैं धार्मिक जीवन व्यतीत करूँ ? मेरे लिये उस हृदय में दया या सहानुभूति न थी ! जब हृदय-कानन की आशा-लता बलवती हुई, मैं देखता हूँ कि कर्मक्षेत्र में मेरे लिये कुछ अवशिष्ट नहीं।

सुरमा - जीवन की पहली चिनगारी - वह भी किधर गयी! धधक उठी एक ज्वाला - राज्यश्री! - (सोचकर)- मूर्ख! मैं निश्चय नहीं कर पाता कि सुरमा या राज्यश्री, मेरे जलते हुये ग्रहपिण्ड के भ्रमण का कौन केन्द्र है! कान्यकुब्ज में इतना बड़ा परिवर्तन! इधर सुरमा भी न जाने कहाँ गयी! तो क्या करूँ? लौट जाऊँ संघ में? नहीं, सुरमा भी न जाने कहाँ गयी! तो क्या करूँ? लौट जाऊँ संघ में? नहीं, संघ मेरे लिए नहीं है। अब यहीं कुटी में रहूँगा। तो क्या मैं तपस्वी होऊँगा ? नहीं, अच्छा जो नियति करावे - (देखकर) - ओह ! कैसी काली रात है!

(सोता है, दस्युओं का प्रवेश)

एक - आज जो सेना हम लोगों ने देखी, वह किसकी है ?

दूसरा - राज्यवर्द्धन की सेना है। राज्यश्री और ग्रहवर्मा का प्रतिशोध लेने आ रही है।

पहला - तो क्या राज्यश्री भी मार डाली गयी ?

दूसरा - नहीं जी, वह तो बन्दी है। इसी गड़बड़ी में तो अपना हाथ लगेगा। क्या बताऊँ, यदि राज्यश्री को हम लोग पा जाते, तो बहुत-सा धन मिलता।

(शांतिदेव करवटें बदलता है)

पहला - (उसे देखकर) - तू कौन है रे ?

शांति- - विकटघोष !

दूसरा - सो तो तेरे लम्बे-चौड़े हाथ-पैर और कर्कश कण्ठ से ही प्रकट है, पर तू करता क्या है ?

शांति. - मैं कान्यकुब्ज का दस्यु, मूर्ख ! मेरे क्षेत्र में तू क्यों आया ?

पहला - भाई विकटघोष ! तो हम लोग भी तुम्हें अपना नेता मानेंगे।

विकट. - यह बात ! फिर राज्यश्री को अकेले लोप करने का प्रयत्न न करना ! समझा।

दोनों - नहीं, भला ऐसा भी हो सकता है ! परन्तु दस्युपति, एक और भी सेना गौड़ की आ रही है। इन दोनों के आक्रमण के बीच से राज्यश्री को निकाल ले जाना सहज काम नहीं।

विकट. - डरपोक ! इसी बल पर दस्यु बना है।

दोनों - नहीं, हम लोग प्राण देने या लेने में पीछे नहीं हटते।

विकट. - तो अच्छी बात है ! चलो, हम लोग आज रात में दोनों सेनाओं का लक्ष्य तो समझ लें।

दोनों - चलो।

[तीनों का प्रस्थान]

द्वितीय अंक-दूसरा दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(वन-पथ)

(कुछ सैनिकों के साथ भण्डि का प्रवेश)

भण्डि - क्यों जी, अब तो मेरा अनुमान है कि कन्नौज की सीमा समीप है।

एक सैनिक - हम लोग तो आज ही पहुँच गये होते, यदि गौड़राज की प्रतीक्षा में समय नष्ट न किया गया होता।

भण्डि - आज ही तो नरेन्द्रगुप्त शशांक के आने का निश्चय था, और इसी कानन का स्थान नियत था, फिर अभी वे क्यों नहीं आये ?

अन्य सै. - आवें चाहे न आवें। सेनापति ! इस अकारण मैत्री से मेरा चित्त तो बहुत शंकित हो रहा है। महाकुमार ने न जाने क्यों उस पर इतना विश्वास कर लिया है। क्या हम लोग स्वयं इस दुष्ट मालवपति को दण्ड देने में असमर्थ है ... ?

भण्डि - यह ठीक है, पर यदि राजनीति मित्रता से सफल होती हो, तो विग्रह करना उचित नहीं। उसकी भी स्थाण्वीश्वर से मैत्री करने की इच्छा है। क्यों ? केवल वर्द्धनों का लोहा मानकर !

तीसरा सै. - अच्छा, तो अब आप पट-मण्डप में विश्राम करें, महाराज कुमार के पूछने पर आपको मैं सूचना दूँगा। शिविर आपका समीप है।

भण्डि - अच्छा (सामने देखकर) - ये तीन कौन अपरिचित से चले आ रहे है।

(विकटघोष का अपने दो साथियों सहित प्रवेश)

विकट. - (प्रणाम करके) - सेनापति की कृपा से मेरा मनोरथ पूर्ण हो।

भण्डि - तुम्हारी क्या अभिलाषा है।

विकट. - हम लोग साहसिक हैं परन्तु अब चरित्रय और वीरतापूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, देवगुप्त हमारा चिर शत्रु है, उससे प्रतिशोध लेना हमारा अभीष्ट है।

भण्डि - किन्तु तुम्हारा विश्वास ?

विकट. - क्या हम तीन वीरों से आप डरते हैं - क्या इतनी बड़ी सेना को हम तीन व्यक्ति वंचित कर सकते हैं ! इतनी मूर्खता मेरे मन में तो नहीं हैं, सेनापति ;

भण्डि - किन्तु...

विकट. - किन्तु कौन जन्तु है, मैं नही जानता! वीरों के पास कोई प्रमाण-पत्र नहीं लिखा रहता, सेनापति ! यदि आप अविश्वास करते हों, तो हम लोग चले जायं।

भण्डि - तुम्हारा परिचय ?

विकट. - मेरा नाम है विकटघोष और ये दोनों मेरे शूर साथी हैं। मैं आपका उपकार करूँगा; विजय में उपयोगी सिद्ध हो सकूँगा।

भण्डि - क्या ?

विकट. - मुझे कान्यकुब्ज-दुर्ग के गुप्त-मार्ग विदित हैं, उनके द्वारा सुगमता से आपको विजय मिल सकती है।

भण्डि - (कुछ विचार कर) - तुम मुझे तो कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। अस्तु, तुम पञ्चनद गुल्म में सम्मिलित किये गए। (पूर्व सैनिक से) - गौल्मिक ! इन्हें ले जाओ।

[सब जाते है]

द्वितीय अंक-तृतीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(शिविर)

(राज्यवर्द्धन, नरेन्द्रगुप्त और भण्डि)

नरेन्द्र. - दुरात्मा देवगुप्त ने कैसे कुसमय में यह उत्पात मचाया ! जब आप दोनों भाई पिता के शोक में व्याकुल थे, तभी उसे नारकीय अभिनय करने का अवसर मिला! अच्छा, धैर्य और शान्ति से अग्रसर होकर...

राज्यवर्द्धन - शान्ति कहाँ, गौड़ेश्वर ! अपने इन दुर्वृत्त वैरियों से बदला लेना और तुरन्त दण्ड देना मेरे जीवन का प्रथम कार्य है। अपने बाहुबल से प्रतिशोध न लेकर चित्त को सन्तोष देना मेरा काम नहीं।

नरेन्द्र. - ऐसा ही होगा।

राज्यवर्द्धन - होगा नहीं, हुआ समझो। राज्यवर्द्धन वह राख का ढेर नहीं, जो शत्रु-मुख के पवन से धधक न उठे। यह ज्वाला है; उत्तरापथ को जलाकर शान्त होगी। गौड़ेश्वर, तुम तो वर्द्धनों के बन्धु हो, परन्तु यह तुमसे न छिपा होगा कि स्थाण्वीश्वर की उन्नति अनेक नरेशों की आँखों में खटक रही है। अभी पंचनद से हूणों को विताड़ित किया और जालन्धर में उदितराज की स्कन्धावार में छोड़ आया; परन्तु मैं देखता हूँ कि हूणों से पहले अपने घर में ही युद्ध करना पड़ेगा।

भण्डि - देव उसके लिये चिन्ता क्या ! हमारा शस्त्र-बल उचित दण्ड देने में कभी पीछे न रहेगा। महोदय और मगध तो हम लोगों के मित्र ही हैं - पश्चिम आर्यावर्त में ही तो संघर्ष है।

नरेन्द्र - कुछ चिन्ता न कीजिए - गौड़ और मगध की समस्त शक्ति आपके लिये प्रस्तुत है।

राज्यवर्द्धन - भण्डि, महोदय-दुर्ग लेने का क्या उपाय निश्चित किया है ? ध्वंस करने की तो मेरी इच्छा नहीं; और अवरोध में भी अधिक दिन बिताना ठीक नहीं।

भण्डि - उसके लिये चिन्ता न कीजिये देव, सब यथासमय आप देखेंगे। विश्राम कीजिये।

(दूत का प्रवेश)

दूत - जय हो, देव।

राज्यवर्द्धन - क्या समाचार है ?

दूत - दुर्ग के भीतर बहुत थोड़ी सेना है और देवी राज्यश्री भी वहीं है।

राज्यवर्द्धन - मैं अभी आक्रमण करना चाहता हूँ।

भण्डि - विश्राम कीजिये। आज भर केवल। कल ही आप देखेंगे कि विजयलक्ष्मी आपका स्वागत करती है।

राज्यवर्द्धन - ऐसा ही हो, भण्डि !

द्वितीय अंक-चतुर्थ दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(दुर्ग के भीतर एक प्रकोष्ठ में राज्यश्री और विमला)

विमला - सिर की वेदना तो अब कम है न महादेवी !

राज्यश्री - वेदना रोम-रोम में खड़ी है, विमला ! चेतना ने तो भूली हुई यातनाओं, अत्याचार और इस छोटे से जीवन पर संसार के दिये हुए कष्टों को फिर से सजीव कर दिया है। सखी ! औषधि न देकर यदि तू विष देती, तो कितना उपकार करती।

विमला - भगवान् पर विश्वास रखिये।

राज्यश्री - विश्वास ! सखी, विश्वास तो मेरा प्रत्येक श्वास कर रहा है ! मैं तो समझती हूँ कि मेरी प्रार्थना - मेरी आत्र्तवाणी - उन कानों में पहुँचती ही नहीं है।

विमला - गर्व से भरे मनुष्यों का ही यह स्वभाव है - जिनके कान मोतियों के कुण्डल से बाहर लदे हैं और प्रशंसा एवं संगीत की झनकारों से भीतर भी भरे हैं, वे ही क्रन्दन नहीं सुनना चाहते।

राज्यश्री - जैसी उनकी इच्छा। तो क्या सर्वत्र शत्रु का अधिकार हो गया है ?

विमला - दुर्दैव ने सब करा दिया।

(देवगुप्त का प्रवेश)

राज्यश्री - यह कौन !

देव. - मैं हूँ देवगुप्त। राज्यश्री ! तुम्हें स्वस्थ देखकर मैं प्रसन्न हुआ।

विमला - अधखिली वसंत की कली की जलती हुई धूल में गिरा कर भीषण अंधड़ चिल्ला कर कहता है - ‘तुम स्वस्थ हो ! ‘शांत सरोवर की कुमुदिनी को पैरों से कुचल कर उन्मत्त गज, उसे सहलाना चाहता है !

देव. - राज्यश्री ! अपनी इन दासियों को मना करो। मैं तुमसे बात करना चाहता हूं।

राज्यश्री - तुम देवगुप्त ? मुझसे बात करने के अधिकारी नहीं हो - एक निर्लज्ज प्रवञ्चक का इतना साहस !

देव. - सुन्दरी !

राज्यश्री - बस मैं सचेत हूँ देवगुप्त ! तुम अपने प्राणों पर अधिकार है। मैं तुम्हारा वध न कर सकी, तो क्या अपना प्राण भी नहीं दे सकती ?

देव. - तब तुम इस राज-मन्दिर को बन्दीगृह बनाना चाहती हो ?

राज्यश्री - नरक में रहना हो सो भी अच्छा !

देव. - तब यही हो (ताली बजाता है - चार सैनिकों का प्रवेश) देखो आज से ये लोग बन्दी हैं - सावधान ! इसके साथ वही व्यवहार करना होगा।

(प्रस्थान)

द्वितीय अंक-पञ्चम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(प्रकोष्ठ में मधुकर - रात्रि)

मधु. - देखूँ अब क्या होता है ?

(विकटघोष पीछे से आकर चपत लगाता है)

मधु. - (सिर सहलाता हुआ) - क्या यही होना था ? भाई तुम हो कौन ? मुझसे तुमसे कब का परिचय है ? - यह परिचय कैसा ?

विकट. - यह तुम नहीं जानते - हम तुम साथ ही न वहाँ पढ़ते थे ! तुम एक चपत लगाकर गुरुकुल छोड़कर भाग आये और राजसहचर बनकर आनन्द करने लगे। यह उसी का प्रतिशोध है। स्मरण हुआ ? मेरा नाम है विकटघोष !

मधु. - (विचारने की मुद्रा से) - होगा ! होगा भाई, वह तो पाठशाला का लड़कपन था; अब हम तुम दोनों बड़े हो गये। फिर, वैसी बात न होनी चाहिए।

विकट. - यह सब तो मित्रता में चलता ही रहता है; पर तुमने मुझे पहचाना ठीक!

मधु. - ठीक ! क्या नाम ?

विकट. - विकटघोष।

मधु. - ओह ! तब आप शंख-घोष करते। यह मेरी रोएँदार खँजड़ी क्यों बजा रहे थे ? आप इतनी रात को अतिथि !

विकट. - मैं शीघ्र जाऊँगा।

मधु - हाँ ! अधिक कष्ट करने की आवश्यकता नहीं - आपको दूर जाना भी होगा?

विकट. - चुप रहो; पहले यह तो पूछा ही नहीं कि तुम क्यों आये थे।

मधु. - आप जाइये, मैं पूछ लूँगा ! उधर - (राह दिखलाता है)

विकट. - तुझे तुम्हारी महारानी से मिलना है।

मधु. - तब आपको उस ठाठ से आना चाहिए था ! यह भयानक दाढ़ी और बिच्छू की दुम - नहीं-नहीं डंक-सी मूँछ ! उहुँ ! आप तनिक भी सहृदय नहीं - इसे कुछ नीची कीजिये !

(हाथ बढ़ाता है)

विकट. - (झटक कर) सीधे बताओ किधर से जाना होगा ?

मधु. - दो पथ हैं। एक सुंदर राजमन्दिर में जाता है, यहाँ श्रीमती सुरमा देवी विराजमान हैं और दूसरा बन्दीगृह में, जहाँ राज्यश्री हैं। आप किसी रानी से भेंट किया चाहते हैं ?

विकट. - (चौंक कर) - सुरमा ! कौन ?

मधु - अजी ! वे नयी रानी हैं - इस नये राज्य की ! समझते नहीं राजा लोग जब नये राज्य बना सकते हैं, तो उसमें रानी वही पुरानी रक्खेंगे !

विकट. - यह कहाँ की राजकुमारी है ?

मधु. - अरे इसी बुद्धि पर तुम रानी से मिलने चले हो। (उसे छुरा निकालते देखकर डरता हुआ) - पहले उसे भीतर करो, नहीं तो मेरे प्राण बाहर आ जायँगे।

विकट - तो बताओ शीघ्र।

मधु - वह तो इसी कान्यकुब्ज की एक मालिन है। उसे भीतर...

(भयभीत होकर छुरे को देखता है)

विकट. - (छुरे को भीतर रखता हुआ सोचता है) - तो क्या वही

सुरमा - वह रानी! देवगुप्त की प्रणयिनी। उसके यहाँ कौन-सा पथ जायेगा ?

मधु - यही (सामने दिखाकर) - और उधर - (बताकर) आप राज्यश्री से मिल सकते हैं।

विकट. - अच्छा अब तुम विश्राम करो।

(उसके हाथ-पैर बाँधने लगता है)

मधु. - यह क्या ? - यह मित्रता है ?

विकट. - चुप रहो - (संकेत करता है)

(दूसरा दस्यु आता है, उसे वहीं छोड़कर विकटघोष चला जाता है दूसरा दस्यु उसे घसीटकर ले जाता है)

द्वितीय अंक-षष्ठ दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(उपवन में सुरमा और देवगुप्त)

देव. - आज सुरमा ! अच्छी तरह पिला दो। कल तो मुझे भयानक युद्ध के लिये प्रस्तुत होना है। तुम कितनी सुन्दर हो सुरमा !

सुरमा - कितनी मादकता इस प्रशंसा में है, प्रियतम ! मुझे अपना स्वरूप विस्मृत होता जा रहा है। मेरा यह सौभाग्य... !

देव. - सुरमा ! मेरे जीवन में ऐसा उन्मादकारी अवसर कभी न आया था। तुम यौवन, स्वास्थ्य और सौन्दर्य की छलकती हुई प्याली हो - पागल न होना ही आश्चर्य है, मेरे इस साहस की विजय-लक्ष्मी !

सुरमा - (इधर-उधर देखती हुई) - कहाँ हूँ ? यह उज्ज्वल भविष्य कहाँ छिपा था? और यह सुन्दर वर्तमान, इन्द्रजाल तो नहीं? (देवगुप्त का हाथ पकड़ कर) क्या यह सत्य है?

(सुरमा पान-पात्र भरकर देती है)

देव. - उतना ही सत्य है, जितना मेरा कान्यकुब्ज के सिंहासन पर अधिकार। सुरमा! शंका न करो। दो - एक पात्र।

देव. - (पीता हुआ) यह देखो सुरमा ! नक्षत्र के फूल आकाश बरसा रहा है, उधर देखो चन्द्रमा की स्निग्ध प्रसन्न हँसी तुम्हारा मनुहार कर रही है, जीवन की यह निराली रात है ! सुरमा ! कुछ गाओगी ?

सुरमा - क्यों नहीं प्रियतम ! (गाती है)

सम्हाले कोई कैसे प्यार
मचल-मचल उठता है चञ्चल
भर लाता है आँखों में जल
बिछलन कर, चलता है उस पर
लिये व्यथा का भार
सिसक-सिसक उठता है मन में
किस सुहाग के अपनेपन में
‘छुईमुई’-सा होता, हँसता
कितनी है सुकुमार

देव. - सुरमा ! तुम कितनी मधुर हो - मेरे जीवन की ध्रुवतारिका !

(नेपथ्य से)

"यह तुम्हारे दुर्भाग्य के मन्दग्रह की प्रभा है !"

देव. - (चौंककर) - यह कौन ?

(नेपथ्य से)

"मैं हूँ। सुरमा के उपवन का यक्ष। सावधान ! इस अपनी विपत्ति और अलक्ष्मी से अलग हो जाओ, नहीं तो युद्ध में तुम्हारा निधन होगा।"

देव. - यक्ष ? असम्भव ! यक्ष और कोई नहीं, मनुष्य है। तुम कौन हो, प्रवञ्चक?

(नेपथ्य से)

"मैं यक्ष हूँ - तुम्हारी इच्छा हो तो बाण चलाकर देख लो - वही फिर लौटकर तुम्हें लगता है कि नहीं। मैं फिर सावधान कर देता हूँ - सुरमा को अभी अपने पास से अलग करो, नहीं तो पछताओगे।"

देव. - तो मैं...

(नेपथ्य से)

"हाँ, हाँ, तुम; यदि तुम्हें मृत्यु का आलिंगन न करना हो तो सुरमा के बाहुपाश से अपने को मुक्त करो।"

(देवगुप्त भयभीत होकर सुरमा को देखता है, सुरमा हताश दृष्टि से उसे देखती है, दूर से कोलाहल की ध्वनि)

देव. - यह क्या ?

(नेपथ्य से)

"यह है तुम्हारी सुख-निद्रा का अन्त-सूचक शत्रु सेना का शब्द ! मूर्ख ! अब भी भागो?"

(देवगुप्त भयभीत सुरमा को छोड़कर जाता है।
सुरमा -‘प्रियतम सुनो-सुनो कहती’ रह जाती है। विकटघोष का प्रवेश)

सुरमा - हे भगवान् !

विकट. - रमणी ! जब तुम्हें कोई चलने को कहता है, तो पैरों में पीड़ा का अनुभव करने लगती हो। जब विश्राम का समय होता है, तो पवन से भी तीव्रगति धारण करती हो। तुम स्नेह से पिच्छिल, जल से अधिक तरल, पत्थर से भी कठोर ! इन्द्रधनुष से भी सुन्दर बहुरंगशालिनी स्त्री ! तुमको...

सुरमा - तुम कौन हो ? यक्ष नहीं, तुम्हारा स्वर तो परिचित-सा है।

विकट. - (बनावटी बाल अलग करके) - परिचय ? तुम लोगों से परिचय आकाश-तट के डूबते हुए तारों का-सा है - उज्ज्वल आलोक फैलाकर अन्धकार में विलीन हो जाना। ओह, जब निःश्वास ले-लेकर सिसकती हुई, किसी मूर्ख की छाती पर सुकुमार कुसुम-सी व्याकुल होकर तुम पतित रहती हो, तब भी तुम्हारे भीतर व्यंग्य हँसा करता है! जब स्वयं प्राण देने के लिए प्रस्तुत होती हो, तब वह कितने जीवन लेने का प्रस्ताव होता है ! प्रवञ्चना की पुजारिन ! युवती, रमणी सुरमा ! तुमने मुझे पहचाना ?

सुरमा - पहचानती हूँ शान्तिभिक्षु ! मेरा अपराध क्षमा करोगे ?

शान्ति. - अपराध का पता लगा है अभी, सुरमा ? मैंने तो वही कहा था कि - ‘अभी विलम्ब है, थोड़ा ठहरो’ - तब तुमने समीर की सी गति धारण कर ली - आँधी चल पड़ी। ठहरने का क्षण समय की सारिणी से लोप हो गया - वाह-री छलना !

सुरमा - क्षमा करो शान्तिभिक्षु !

शान्ति. - अभी नहीं सुरमा ! विलम्ब है !

(प्रस्थान)

द्वितीय अंक-सप्तम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(राज्यश्री बन्दीगृह में)

नरदत्त - कौन न कहेगा कि महत्त्वशाली व्यक्तियों के सौभाग्य-अभिनय में धूर्तता का बहुत हाथ होता है। जिसके रहस्यों को सुनने से रोम-कूप स्वेद-जल से भर उठें, जिसके अपराध का पात्र छलक रहा है, वही समाज का नेता है। जिसके सर्वस्व-हरणकारी करों से कितनों का सर्वनाश हो चुका है, वही महाराज है। जिसके दण्डनीय कार्यों का न्याय करने में परमात्मा को समय लगे, वही दण्ड-विधायक है। यदि किसी साधारण मनुष्य का यही काम होता, जो महाराज देवगुप्त ने किया है, तो वह चोर, लम्पट और धूर्त आदि उपाधियों से विभूषित होता। परन्तु उन्हें कौन कह सकता है? - (राज्यश्री को देखकर)- अहा, कैसा देवी का-सा रूप है ! देखते ही श्रद्धा होती है।

(अन्य प्रहरियों का प्रवेश)

नर. - क्यों जी, तुम लोग अब तक कहाँ थे ? बड़ा विलम्ब किया !

एक - आपको क्या मालूम नहीं ! उधर इतना बखेड़ा फैला है !

नर. - क्या ? कुछ सुनें भी। हम तो यही थे न !

एक - राज्यवर्द्धन की सेना घुसी चली आ रही है।

नर. - और महाराज ?

एक - जायेंगे कहाँ ? दुर्ग-द्वार पर तो भीषण युद्ध हो रहा है।

(नेपथ्य में रण-वाद्य और कोलाहल)

नर. - अच्छा, तुम लोग सावधान रहना। मैं देख आऊँ !

(प्रस्थान)

दूसरा - क्या कहें, यह चुड़ैल भी हम लोगों के पीछे लगी है; नहीं तो अब तक हम लोग नौ-दो ग्यारह होते !

राज्यश्री - (चैतन्य होकर) क्यों जी, यह युद्ध का शब्द कैसा ?

पहला - घबराती क्यों हो ? कितनों को मारकर तुम मरोगी !

राज्यश्री - सुखी मनुष्य ! तुम मरने से इतना डरते हो ! भग्न हृदयों से पूछो - वे मृत्यु की कैसी सुखद कल्पना करते हैं।

दूसरा - अनागत विपत्ति की कल्पना चाहे जितनी सुन्दर हो; पर आ पड़ने पर मृत्यु की विभीषिका उतनी टाल देने की वस्तु नहीं।

राज्यश्री - अस्त होते हुए अभिमानी भास्कर से पूछो - वह समुद्र में गिरने को कितना उत्सुक है ! पतंग-सदृश निराश हृदय से पूछो कि जल जाने में वह अपना सौभाग्य समझता है या नहीं ! और तुम तो सैनिक हो, मरने का ही वेतन पाते हो !

दूसरा - और तुम जीने के लिये ?

(रण कोलाहल-विकटघोष का प्रवेश)

विकट. - क्यों, यही गप्प लड़ाने का समय है ? जाओ, शीघ्र युद्ध में जाओ, महाराज ने बुलाया है। मुझे राज्यश्री को दूसरे स्थान में ले जाने की आज्ञा हुई है।

पहला - तब तो आप के पास कोई आज्ञापत्र होगा ? ऐसे हम लोग कैसे टलें !

तीसरा - यह तो पागल है, भला आप असत्य कहेंगे। हम लोग जाते हैं - (स्वगत)- किसी प्रकार पिण्ड तो छूटे !

(सभी का प्रस्थान)

विकट. - भद्रे ! शीघ्र चलो। महाराजकुमार राज्यवर्द्धन का आदेश है कि राज्यश्री को युद्ध से कहीं अलग ले जाओ।

राज्यश्री - क्या? भाई राज्यवर्द्धन !

विकट. - हाँ, उन्होंने कहा है कि युद्ध के भीषण होने की सम्भावना है, इसलिए आपको शीघ्र ही किसी सुरक्षित स्थान में पहुँचना चाहिए।

राज्यश्री - तो चलो।

विकट. - (कुछ विचार कर ताली बजाता है - दो दस्युओं का प्रवेश) - देखो, उसी गुप्त-मार्ग से इन्हें ले चलो, मैं अभी आता हूँ।

(राज्यश्री का दस्युओं के साथ प्रस्थान)

(नेपथ्य से सुरमा का क्रन्दन। रण-कोलाहल। विकटघोष का उस ओर जाना, सुरमा को लिये फिर आना। सुरमा मूर्छित-सी)

विकट. - सुरमा ! सावधान ! नहीं तो प्राण न बचेंगे ?

सुरमा - कौन (चैतन्य होकर) शान्ति ?

विकट. - चुप तुम चाहे कितनी कुटिलता ग्रहण करो; पर मैं तुम्हें...

सुरमा - मेरे शान्ति - मेरे प्रिय !

विकट. - इस अभिनय का काम नहीं। चलो, वह देखो; युद्ध समीप आता जा रहा है। अरे, लो वे इधर ही आ रहे हैं।

(विकटघोष सुरमा को लेकर जाता है। एक ओर से देवगुप्त, दूसरी ओर से राज्य वर्धन का प्रवेश)

राज्यवर्द्धन - दुष्ट मालव ! अब भागने से काम न चलेगा - सावधान तेरी नीचता का अंत समीप है।

देवगुप्त - तो मैं प्रस्तुत हूँ।

(युद्ध-देवगुप्त की मृत्यु)

[यवनिका]

तृतीय अंक-प्रथम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(पथ में)

सुरमा - तब?

विकट. - तुम्हारी इच्छा सुरमा ! तुम्हारी शीघ्रता ने दो जीवन नष्ट किये - मैं दस्यु हुआ और तुम एक कामुक की वासना पूर्ण करने वाली वेश्या।

सुरमा - और तुम राज्यश्री को कहाँ छिपाये हो ?

विकट. - वह मैं नही जानता। मेरे साथी - दूसरे

दस्यु - उसे ले भागे।

सुरमा - क्यों, क्या तुम्हारे विलम्ब का कारण राज्यश्री का रूप न था ?

विकट. - पर उसकी प्यास तुम्हीं ने जगा दी थी। मैं विचारता था कि किधर बढ़ूँ? रूप और विभव दोनों के प्रभाव ने मुझे अभिभूत तो कर दिया था, किन्तु मैं तुम्हे भूला न था, सुरमा !

सुरमा - तो अब हम तुम एकत्र संसार की यात्रा कर सकते हैं। विचार लो!

विकट. - पतन की चरम सीमा तक चलें, सुरमा ! बीच में रुकने की आवश्यकता नहीं। संसार ने हम लोगों की ओर आँख उठाकर नहीं देखा और देखेगा भी नहीं तब उसकी उपेक्षा करूंगा। यदि कुछ ऐसा कर सकूँ कि वह मुझे देखे, मेरी खोज करे, तब तो सही !

सुरमा - यही तो मैं चाहती थी। तुम ऐसा करो, और मैं तुम्हारी बनूँ।

विकट. - तो चलो, गौड़ के शिविर में चलें।

सुरमा - वहाँ क्या करना होगा ?

विकट. - वहाँ चलने पर बताऊँगा; पहले किसी प्रकार शिविर में घुसना होगा।

सुरमा - तुम किसी भी बात को सोचते हो तो बड़ी तीव्रता से !

विकट. - यही तो मेरी सरलता का प्रमाण है, सुरमा ! अब शील-संकोच का डर मुझे नहीं भयभीत कर सकता। यहाँ तक बढ़ आने पर लौटना असम्भव है !

(नरेन्द्रगुप्त का एक सहचर के साथ प्रवेश विकट घोष और सुरमा का छिप जाना)

नरेन्द्र. - वयस्य ! बड़ी विषम समस्या है। राज्यवर्द्धन आज मेरे शिविर में आवेगा, बस यही अवसर है। मगध के गुप्तों का गौरव इन वर्द्धनों के चरणों में लोट रहा है ! मुझसे यह नहीं देखा जाता। मगध आज नतफण मन्त्रमुग्ध सर्प है, उसका यह नीरव अपमान मुझसे नहीं देखा जाता।

सहचर - इसीलिये तो परमभट्टारक ने आपको सुदूर गौड़ में भेज दिया है। आपकी तेज स्विता से आपके कुल के लोग भी सशंक हैं।

नरेन्द्र. - किन्तु भभक उठने वाली अग्नि को किसी उपाय से शान्त कर लेना सहज नहीं - मैं इन उपायों से और भी उत्तेजित हो गया हूँ। सम्बन्धी होकर वे मेरी अवमानना करें और मैं शील की आड़ लेकर अपनी दुर्बलता छिपाता फिरूँ ? - असम्भव है ! आज इसका निबटारा करना है। राज्यवर्द्धन मेरे हाथ में होगा, उसका अन्त होने पर हर्षवर्धन- कल का छोकरा - उसे उँगलियों पर नचा दूँगा।

सह. - परन्तु क्या आप स्वयं हत्या करेंगे ?

नरेन्द्र. - नहीं - यह तो असम्भव है। मुझे एक साहसिक और वेश्या की आवश्यकता है, जिसमें वह प्राणों के साथ कीर्ति से भी वंचित रहे। परन्तु मिले जब तो !

सह. - यह घटना आकस्मिक रूप से होनी चाहिए। तो फिर कहिये, मैं खोज लाऊँ !

(विकटघोष सुरमा से संकेत करता है दोनों बाहर आते हैं)

नरेन्द्र. - तुम लोग कौन हो ?

विकट. - हम लोग गायक हैं।

नरेंद्र. - (देख कर) क्यों जी, यह तो हम लोगों के काम का मनुष्य हो सकता है? (विकटघोष से) - तुम गायक नहीं हो; तुम्हारे मुख पर तो कला की एक भी रेखा नहीं है। स्पष्ट, रक्त और हत्या का उल्लेख तुम्हारे ललाट पर है।

विकट. - जीवन बड़ा कठोर है, इसकी आवश्यकता जो न करावे ! सच बात तो यह है कि मुझे अपने सुख के लिए सब कुछ करना अभीष्ट है।

नरेंद्र. - वही तो पुरुषार्थ की बात है, तुममें पूर्ण मनुष्यता है (सुरमा की ओर देखकर) और तुम तो अवश्य गा सकती हो। चलो मुझे तुम दोनों की आवश्यकता है।

विकट. - तो मेरा पुरस्कार ?

नरेन्द्र. - काम देखकर मिलेगा। आज शिविर में राज्यवर्द्धन का निमंत्रण है, उसी उत्सव में तुम लोगों को चलना होगा।

विकट. - (अलग सुरमा से)

राज्यवर्द्धन - सुरमा, तुम्हारे भाग्याकाश का धूमकेतु; और मेरे लिए तो सभी शत्रु हैं। बोलो, क्या कहती हो ?

सुरमा - जो करो, मैं प्रस्तुत हूँ। (अलग) हाय, दूसरा पथ नहीं यदि मैं कहती हूँ कि नहीं तो, उहूँ ... फिर, यही सही; इस ओर से भी प्राण नहीं बचता।

विकट. - हम लोग चलेंगे।

नरेन्द्र. - तो चलो।

(सब जाते हैं। मधुकर का प्रवेश)

मधु. - प्राण बचे बाबा, अब इन राजाओं के फेर में न पड़ूँगा। ओह उस विकटघोष का बुरा हो, कहाँ से टपक पड़ा ! राज्यश्री भी कहीं इधर-उधर चली गई होगी। सुरमा का दुर्भाग्य ! वह भी कुछ ही दिनों के लिए रानी बन गयी थी ? मुझे छुट्टी मिली इस प्रतिज्ञा पर कि मैं राज्यश्री भी खोज निकालूँगा ! पर जाऊँ किधर ? वह बड़े-बड़े शिविर पड़े दिखाई दे रहे हैं, तो उधर ही चलूँ। हूँ, सोंधीं बास भी तो आ रही है - चलूं ? नहीं अब भागो; ब्राह्मण देवता ! भीख माँग कर खा लेना ठीक है; पर किसी राजा के यहाँ कदापि न..

[प्रस्थान]

तृतीय अंक-द्वितीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(कानन में राज्यश्री को लिये हुए दानों दस्यु)

राज्यश्री - मैं दुःखी हूँ, दस्यु ! तुम धन चाहते हो; पर वह मेरे पास नहीं ! इस विस्तीर्ण विश्व में सुख मेरे लिए नहीं, पर जीवन ? आह ! जितनी सांसें चलनी है, वे चलकर ही रुकेंगी। तुम मनुष्य होकर हिंस्र पशुओं को क्यों लज्जित कर रहे होः इस श्मशान को कुरेद कर जली हुई हड्डियों के टुकड़ो के अतिरिक्त मिलेगा क्या ?

दस्यु - परन्तु मैं तुमको छोडूँ कैसे, क्या करूँ ? तुम मुझे कुछ धन दिलवा दो।

राज्यश्री - अर्थी ! तुम इतने मूर्ख हो ! मेरा राज्य छिन गया, सब लुट गया, भला अब मैं कहाँ से दिलवा दूँ ?

दस्यु - तब मैं तुम्हें किसी के हाथ बेच दूँगा। क्यों जी, यही ठीक रहा।

दूसरा - और किया क्या जायगा।

राज्यश्री - तब अच्छा हो कि मेरे जीवन का अन्त हो जाय ! भगवान तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो !

(नेपथ्य से गान)

अब भी चेत ले तू नीच
दुःख-परितापित धरा को स्नेह-जल से सींच
शीघ्र तृष्णा-पाश से नर, कण्ठ को निज खींच
स्नान कर करुणा-सरोवर, धुले तेरा कीच

पहला - यह क्या ?

दूसरा - हम लोग क्या कर रहे है ?

(दिवाकरमित्र का प्रवेश)

दिवा. - क्षणिक संसार ! इस महाशून्य में तेरा इन्द्रजाल किसे नहीं भ्रान्त करता! मैंने बहुत दिनों शास्त्रों का अध्ययन किया, पण्डितों को परास्त किया, तर्क से कितनों का मुँह बन्द कर दिया, परन्तु क्या मन को शान्ति मिली ? नहीं; तब ? - भगवान् की करुणा अवलम्बन शेष है। करुणे ! इस दुःखपूर्ण धरती को अपनी क्रोड़ में चिरकालिक शान्ति दे, विश्राम दे। (देखकर) - अरे, यह वनलक्ष्मी-सी कौन है ? विषाद की यह कालिमा क्यों? और तुम लोग कौन हो भाई ?

दस्यु - हम लोग दस्यु हैं !

दिवा. - और तुम देवी ?

राज्यश्री - जब विपत्ति हो, जब दुर्दशा की मलिन छाया पड़ रही हो, तब अपने उज्ज्वल कुल का नाम बताना, उसका अपमान करना है। देव, मैं एक विपन्न अनाथ हूँ! जीवन का अन्त चाहती हूँ - मृत्यु चाहती हूँ।

दिवा. - यह पाप ! देवि, आत्महत्या या स्वेच्छा से मरने के लिये प्रस्तुत होना - भगवान की अवज्ञा है। जिस प्रकार सुख-दुःख उसके दान है - उन्हें मनुष्य झेलता है, उसी प्रकार प्राण भी उसी की धरोहर है। तुम अधीर न हो। क्यों भाई, तुम प्राण चाहते हो या धन ?

पहला - मुझे तो धन चाहिए।

दिवा. - तो चलो, मेरे कुटीर पर जो कुछ हो सब ले लो।

दूसरा - किन्तु, मुझे तो अपनी शान्ति दीजिये ! देव, मैं इस कर्म से अत्यन्त व्यथित हो गया हूँ। अब अपने पद-रज की विभूति दीजिये।

दिवा. - (हँसकर) अच्छा वैसा ही होगा ! चलो सब लोग आश्रम पर। रेवा-तट कुमार हर्षवर्द्धन और पुलकेशिन चालुक्य का युद्ध चल रहा है। अनेक लोग हताहत हो गये हैं। क्या तुम लोग उन आहतों को सेवा-शुश्रषा कर सकोगे ?

राज्यश्री - क्या ? कुमार हर्षवर्द्धन !

दिवा. - हाँ देवी, चलो आश्रम समीप है।

(प्रस्थान)

तृतीय अंक-तृतीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(रेवा-तट की युद्ध-भूमि - रण-वाद्य बजता है। एक ओर से हर्षवर्द्धन और दूसरी ओर से पुलकेशिन् अपनी सेना के साथ आते हैं।)

हर्ष. - चालुक्य ! तुम वीर हो।

पुल. - उत्तरापथेश्वर ! अभी मुझे अपनी वीरता को परीक्षा देनी है, क्योंकि विदेशी हूणों को विताड़ित करने वाले महावीर हर्षवर्द्धन के अस्त्र का आज ही सामना है।

हर्ष. - पर मैं अब युद्ध न करूँगा। (हाथ उठाकर) ठहरो, कोई अस्त्र न चलावे।

(रण-वाद्य बन्द हो जाते हैं)

पुल. - क्यों ? युद्ध से विश्राम क्यों ?

हर्ष. - मुझे साम्राज्य की सीमा नहीं बढानीं है। वसुन्धरा के शासन के लिए एक प्रवीर की आवश्यकता होती है, सो इधर दक्षिणापथ में उसका अभाव नहीं। महाराष्ट्र सुशासित वीरनिवास है। मुझे तो उत्तरापथ के द्वार की रक्षा करनी है।

पुल. - नहीं, नहीं, बातों से काम नहीं चलेगा सम्राट् ! आज मुझे क्षात्रधर्म की परीक्षा देनी है - युद्ध होगा।

हर्ष. - कभी नहीं। यों तुम अपनी विजय-घोषणा कर सकते हो, क्योंकि मेरी गजवाहिनी तुम्हारे अश्वारोहियों से वित्रस्त हो चुकी है - परन्तु अब मैं युद्ध न करूँगा! व्यर्थ इतने प्राणों का नाश न होने दूँगा। चालुक्य, मैं सन्धि का प्रार्थी हूँ। और भी सुनोगे? हम लोग साम्राज्य नहीं स्थापित किया चाहते थे; मगध के सम्राटों की दुर्बलता से उत्तरापथ हूणों से अरक्षित था, आपाततः मुझे युद्ध करना पड़ा। उधर मेरे आत्मीय मौखरी ग्रहवर्मा का षडयन्त्र से बध हुआ ही था - भाई राज्यवर्द्धन की भी हत्या हुई ! मैं अकारण दूसरों की भूमि हड़पने वाला दस्यु नहीं हूँ। यह एक संयोग है कि कामरूप से लेकर सुराष्ट्र तक, काश्मीर से लेकर रेवा तक, एक सुव्यवस्धित राष्ट्र हो गया। मुझे और न चाहिए। यदि इतने मनुष्यों को सुखी कर सकूँ - राज-धर्म का पालन कर सकूँ - तो कृतकृत्य हो जाऊँगा।

पुल. - उदार महापुरुष। मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरे शरीर पर हूणों का अहेर करने वाले इन हाथों से प्रहार हो और मैं उसे झेलूँ तो !

हर्ष. - मैं इस वीरोन्माद, इस उत्साह का आदर करता हूँ। चालुक्य ! मेरा मन व्यथित हो उठा है। मैंने सुना है कि मेरी अनाथ दुखिया बहन कहीं इसी विन्ध्यापाद में है। मैं अभी जाना चाहता हूँ।

पुल. - क्या महारानी राज्यश्री अभी जीवित हैं ?

हर्ष. - हाँ पुलेकिशन् ! मुझे अभी-अभी चर ने यह सन्देश दिया है। दक्षिणापथेश्वर, मैं अभी विदा चाहता हूँ।

पुल. - महावीर, जैसी आपकी इच्छा ! मैं आप से सन्धि, युद्ध सब में अपने को धन्य समझता हूँ।

हर्ष. - (हाथ फैलाकर) - तो आओ भाई !

(दोनों गले से मिलते हैं)

तृतीय अंक-चतुर्थ दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(सरयू का तट - अशोक-कानन। विकटघोष अपने साथी डाकुओं के साथ बैठा हुआ। सामने देवी की उग्र-मूर्ति)

विकट. - सुरमा, तुम्हारे हाथों में आकर यह कड़वी मदिरा कितनी मीठी, कितनी हल्की हो जाती है - पिलाओ और प्रेयसी !

सुरमा. - लो - (पिलाती है)

विकट. - अभी तक सब नहीं आये ! वह चीनी यात्री अवश्य बड़ा धनी होगा, सुरमा! तब तक तुम कुछ गाओ न !

सुरमा - (गाती है)

जब प्रीति नहीं मन में कुछ भी
तब क्यों फिर बात बनाने लगे।
सब रीति प्रतीति उठी पिछली
फिर भी हँसने मुसकाने लगे।।
मुख देख सभी सुख खो दिया था
दुख मोल इसी सुख को लिया था।
सर्वस्व ही तो हमने दिया था
तुम देखने को तरसाने लगे।।

विकट. - सुरमा ! वह उपालम्भ बड़ा कठोर है ! सुरमा, मैं देवलोक से तुम्हारे लिये गिर पड़ा - केवल तुम्हें पाने के लिये, फिर भी यह ! (मद्यप की-सी चेष्टा करता है)

(सुएनच्वांग को लिये हुये डाकुओं का प्रवेश)

विकट. - हा हा हा हा ! आ गया ! क्यों, धर्म कमाने आया था, तो पूँजी के लिये कुछ रुपये भी लाया था ?

सुएन. - दस्युराज ! मैं रुपये लेकर नहीं आया हूँ। मेरे पास थोड़ा-सा धर्म और कुछ शान्ति है - तुम चाहते हो लेना ?

विकट - मूर्ख ! शान्ति को मैंने देखा है, कितने शवों में वह दिखायी पड़ी ! शान्ति को मैंने देखा है दरिद्रों के भीख माँगने में। मैं उस शान्ति को धिक्कारता हूँ। धर्म को मैंने खोजा - जीर्ण पत्रों में, पंडितों के कूटतर्क में उसे बिलखते पाया, मुझे उसकी आवश्यकता नहीं।

सुएन. - तब क्या चाहिए ?

विकट. - या तो धन दे या रक्त। जो मुझे धन नहीं देता, उसे मेरी देवी को रक्त देना पड़ता है।

सुएन. - रक्त से किसकी प्यास बुझती है, जानते हो ? - पिशाचों, पशुओं की - तुम तो मनुष्य हो।

विकट. - ओह ! मेरी प्रतिमा - मेरी क्रूरता की देवी - नरबलि चाहती है। तू बहुत स्वस्थ है, विदेशी। मैंने राज-रक्त से पहले-पहल हाथ रँगा था, वह कितना लाल था! उसका मनोरंजन कितना ललित था ! सुरमा ! स्मरण है वह राज्यवर्द्धन की हत्या ? बड़ी उत्साहवर्धक थी वह !

सुरमा - प्रिय ! वह भयानक दृश्य था - आह मैं गा रही थी, राज्यवर्द्धन के हाथ में मदिरा का पात्र था और तुम थे खड़े। उसकी मदिर दृष्टि मुझ पर पड़ी थी। अनुचर सब मद-विह्वल थे। सहसा तुम्हारी आंखें चमक उठीं, ज्योंही राजकुमार ने मेरी ओर हाथ बढ़ाया - दूसरा पात्र माँगा, तुमने कितनी भीषणता से प्रहार किया ! वह छुरी पत्थर का कलेजा भी छेद देती - राज्यवर्द्धन तो साधारण मनुष्य था।

विकट. - हाँ सुरमा ! वह मेरा हाथ ! अब तो मैं रक्त देख कर अत्यन्त प्रसन्न होता हूँ ! यात्री ! तो आज ही तुम्हारी बलि होगी, प्रस्तुत रहो !

सुएन. - मुझे प्रार्थना कर लेने दो।

सुरमा - देवी की जय !

(सुरमा के साथ सब विकट-नृत्य करने लगते हैं। भिक्षु प्रार्थना करता है। अकस्मात् आँधी के साथ अन्धकार फैलता है। सब चिल्लाने लगते हैं - "दस्युपति ! उस भिक्षु को छोड़ दो" "उसी के कारण यह विपत्ति है,""छोड़ो उसे !"- प्रार्थना करते हुए सुएनच्वांग को सब धक्का देकर हटा दते हैं)

तृतीय अंक-पञ्चम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(दिवाकर मित्र का तपोवन)

राज्यश्री - दुःखों को छोड़ कर और कोई न मुझसे मिला, मेरा चिर सहचर ! परन्तु अब उसे भी छोड़ूँगी। आर्य मुझे आज्ञा दीजिये। स्त्रियों का पवित्र कर्तव्य पालन करती हुई इस क्षण-भगुंर संसार से बिदाई लूँ - नित्य की ज्वाला से, यह चिता की ज्वाला प्राण बचावे !

दिवा. - देवि, मैं यह कदापि नहीं कह सकता। यह धर्म नहीं, आत्महत्या है। सती होना जल मरने से ही नहीं हो सकता। यह तो मैं नहीं कह सकता कि इस पुतले को बना कर दुःख का सम्बल देकर विधाता ने क्यों अनन्तपथ का यात्री बनाया, पर इससे इतना भयभीत क्यों रहूँ ? उस करुणानिधान की स्नेहानुभूति इसी में तो झलकती है। प्राणी दुःखों में भगवान् के समीप् होता है, देवि ! उसको...।

राज्यश्री - परन्तु अब इस हृदय में बल नहीं है, महात्मन् ! आज्ञा दीजिये। मेरे इस अंतिम सुख में बाधा न दीजिये - (प्रार्थना करती है)

जय जयति करुणा-सिन्धु।
जय दीनजन के बन्धु।।
जय अखिल लोक ललाम।
जय जय भुवन अभिराम।।
जय पतित पावन नाम।
जय प्रणत जन सुख धाम।।
जय देव धर्म स्वरूप।
जय जय जगत्पति भूप।।

(चिता प्रज्जवलित होती है। राज्यश्री का उसमें प्रवेश करने का उपक्रम, सहसा - ‘ठहरो-ठहरो !’ का शब्द।

दस्यु - जो भिक्षु हो गया था - दौड़ता हुआ आता है)

राज्यश्री - अब क्या ?

भिक्षु - सम्राट् हर्षवर्द्धन आ रहे हैं।

राज्य. - कौन ? भैया हर्ष ?

(हर्ष का प्रवेश)

राज्यश्री - आओ हर्ष ! इस अन्तिम समय में तुम आ गये ! मेरा सारा विषाद चला गया।

हर्ष. - हे भगवान् ! मैं यह क्या देखता हूँ। प्रतिहिंसा से प्रेरित होकर लाखों प्राणों का संहार करने वाले हृदय, और वज्र हो जा ! बहन, मैंने इतना रक्तपात किया; क्या इसलिये कि राज्यश्री जल मरे इतना दृप्त राजचक्र फिर मेरी असफलता पर एक बार हँस दे ? उत्तरापथ के समस्त नरपति आज इन चरणों में प्रणत हैं। यह मरण का समय नहीं है, चलो एक बार देखो कि तुम्हारे नीच शत्रुओं का क्या परिणाम हुआ। कान्यकुब्ज के सिंहासन पर वर्द्धनवंश की एक बालिका उर्जस्वित शासन कर सकती है, यही तो मुझे दिखला देना था।

राज्यश्री - भाई हर्ष, यह रत्नजटित मुकुट तुम्हें भगवान ने इसलिये नहीं दिया कि लाखों सिरों को तुम पैरों से ठुकराओ। मेरी शान्ति ढूँढकर तुमने उसे इतनी बड़ी नर-हत्या में पाया ! हर्ष ! विचार करो, तुमने मेरे सदृश कितनी स्त्रियों को दुखिया बनाया ! तुम्हें क्या हो गया था ?

हर्ष. - (सिर नीचा करके) मेरा भ्रम था ! किन्तु अब ?

राज्यश्री - अब मुझे आज्ञा दो कि मैं तुम्हारा प्रायश्चित करूँ और सती धर्म का पालन भी।

हर्ष. - बहन ! हम लोग दो ही तो बचे हैं। भाई राज्यवर्द्धन की हत्या हुई, अब तुम भी जाना चाहती हो, मेरे वर्द्धन कुल की यह दशा ! तो फिर यही हो राज्यश्री !

राज्यश्री - क्या भाई राज्यवर्द्धन भी नहीं रहे ?

हर्ष. - हाँ बहन ! जब उन्होंने दुष्ट मालव को दण्ड देकर कान्यकुब्ज का उद्धार किया, उसी समय बन्धु नामधारी नरेन्द्र - नीच नरेन्द्र ने षड्यन्त्र से उनका प्राणनाश कराया ! आज तक भण्डि उसका पीछा कर रहे हैं ? वह भाग रहा है। तो फिर मैं ही क्या करूँगा ? - (दिवाकर मित्र से) आर्य ! मुझे भी काषाय दीजिये।

राज्यश्री - (चिता से हट आती है) - भाई ! तुम भी... ! नहीं, ऐसा नहीं होगा। मैं तुम्हारे लिए जीवित रहूँगी। मेरे अकेले भाई ! मुझे क्षमा करो, मैं कठोर हो गयी थी।

हर्ष. - बहन ! इस इन्द्रजाल की महत्ता में जीवन कितना लघु है ! सब गर्व; सारी वीरता, अनन्त विभव, अपार ऐश्वर्य, हृदय की एक चोट से - संसार की एक ठोकर से- निस्सार लगने लगा।

राज्यश्री - भाई ! दुःखमय मानव जीवन है। उसे अभ्यास पड़ जाता है, इस लिये सबके मन में तीव्र विराग नहीं होता। पर तुम इतने दुर्बल होगे, यह मैं नहीं जानती थी! मैं स्त्री हूँ - स्वभाव-दुर्बल नारी ! मेरा अनुकरण न करो, भाई ! चलो हम लोग दूसरों के दुःख-सुख में हाथ बँटावें।

हर्ष. - चलो, पराक्रम से जो सम्पत्ति, शस्त्र बल से जो ऐश्वर्य मैंने छीन लिया है, उसे पात्रों को दे दूँ। हम राजा होकर कंगाल बनने का अभ्यास करें।

राज्यश्री - चलो भाई ! जहाँ तक बन पड़े, लोक-सेवा करते अन्त में हम दोनों साथ ही काषाय लेंगे।

(सबका प्रस्थान)

चतुर्थ अंक-प्रथम दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(कानन में - साधु के वेष में विकटघोष)

सुरमा - यह आज नया रूप कैसा ?

विकट. - कान्यकुब्ज में स्वर्ण और रत्न की वर्षा हो रही है सुरमा। राज्यश्री अपने समस्त कोष का अद्भुत दान कर रही है। वहाँ भी लुटना चाहिए न।

सुरमा - अब समझी ! मुझे तो तुम्हारा यह रूप देखकर बड़ा सन्देह हुआ था।

विकट. - यही न कि मैं फिर साधु तो नहीं हो गया ? (हँसता है)

(उसके साथी दस्यु साधु के रूप में आते है)

एक दस्यु - परन्तु अब हम लोग कहाँ चलेंगे, कान्यकुब्ज का दान तो अन्तप्राय है। अब सुना गया है कि यही प्रयाग में ही फिर से दान होगा। और, वह चीनी भिक्षु भी साथ ही आ रहा है।

विकट. - चीनी भिक्षु ! - न जाने क्यों उसे इतना आदर मिल रहा है !

दूसरा. - और साथ-ही-साथ धन भी। सुना है कि पञ्चनद् के उदितराज, कामरूप के कुमारराज; बलभी के ध्रुवभट भी यहीं आ रहे हैं और सम्राट् हर्षवर्द्धन सर्वस्व दान करेंगे।

सुरमा. - तो मैं भी चलूँगी।

विकट. - इसी रूप में ?

(सुरमा नेपथ्य में जाती है और अवधूती बनकर आती है)

सुरमा - अलख अरूप
तेरा नाम, सब सुखधाम,
जीवन ज्योति स्वरूप।
मंगल गान, एक समान,
एक छाया की धूप।।
अलख अरूप

(सब गाते हुए जाते हैं)

(बौद्ध साधुओं का प्रवेश)

धर्मसिद्धि - इतना अपमान ! वह चीनी भिक्षु भयानक पण्डित निकला !

शीलसिद्धि - महायान ! तांत्रिक उपसनाओं से भरा हुआ एक इन्द्रजाल ! उसकी उन्नति ! भगवान तथागत ! तुम्हारे सत्य का इतना दुरुपयोग !

धर्म. - अज्ञान प्रायः प्रबल हो जाता है और असत्य अधिक आकर्षक होता है, किन्तु यह चीनी यात्री और हर्ष दोनों ही इसके प्रधान कारण हैं।

शील. - फिर उपाय ?

धर्म. - उपाय होगा। देखा नहीं - यह दस्युओं का दल साधु बनकर आ रहा है। दान का अतिरुप है यह; जब ऐसे लोग भी उस पुण्यभाग के अधिकारी होंगे, तब वह स्वयं विकृत होगा। चलो महास्थविर से कहना है।

शील. - वे तो अत्यन्त उत्तेजित हैं।

धर्म. - चलो भी।

[प्रस्थान]

चतुर्थ अंक-द्वितीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(प्रयाग में गंगा तट, हर्ष सपरिवार)

राज्यश्री - भाई, भण्डि ने क्या कहा।

हर्ष. - गुप्तकुल का दुर्नाम नरेन्द्र प्राणों के लिए अत्यन्त भयभीत है। वह सन्धि का प्रार्थी है और वह कहता है कि उस हत्या में वेश्या का सम्पर्क था, उसका नहीं।

राज्यश्री - फिर भी वह क्षम्य है। अपना सम्बन्धी है। भाई, जाने दो ! आज हम लोग दान देने चल रहै हैं, क्षमा करो भाई !

हर्ष - तब तुम्हारी इच्छा। मेरा हृदय नहीं क्षमा करेगा, मैं अशक्त हूँ।

(एक दौवारिक का प्रवेश)

दौवारिक - जय हो देव !

हर्ष. - क्या है ?

दौवा. - महाश्रमण पर आज एक भयानक आक्रमण हुआ था, किन्तु वे बच गये।

हर्ष. - महाश्रमण पर ! उपद्रवी पकड़े गये ?

दौवा. - नहीं देव ! वे निकल भागे। ऐसा विदित होता है कि महाश्रमण के प्राण लेने का एक षड्यन्त्र था, जिसके भीतर धार्मिक द्वेष काम कर रहा था।

हर्ष. - धर्म में भी यह उपद्रव ! राज्यश्री, देखो बहन ! सब स्थानों पर क्षमा की एक सीमा होती है - (दौवारिक से) - जाओ डौंड़ी पिटवा दो कि यदि महाश्रमण का एक रोम भी छू गया, तो समस्त विरोधियों को जीवित जलना पड़ेगा।

राज्यश्री - चलो भाई ! हम लोग यह महासमारोह दूर से देखें।

(सब का प्रस्थान। दूसरी ओर से दो भिक्षुओं का प्रवेश)

पहला - यही होना चाहिए। अब धर्म नहीं बचेगा।

दूसरा - अब दूसरा उपाय नहीं।

पहला - तो फिर वही ठीक किया जाय।

दूसरा - वह तो प्रस्तुत है।

पहला - तो फिर चलो।

(दोनों का प्रस्थान)

चतुर्थ अंक-तृतीय दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(प्रयाग का दूसरा भाग, सुरमा का प्रवेश)

सुरमा - जैसे अंतिम अभिनय हो ! आज यह क्या होगा ? इतना बड़ा उत्पात ऐसे ही चला करेगा ? असम्भव है। तो ? मैंने रोक नही लिया, नहीं मानता - हत्या करते-करते कितना निर्दय-हृदय हो गया है ! और मैं कहाँ चल रही हूँ, वही जीवन, किन्तु वह धीर धारा न रही ! ठठा कर हंसना, नाचते हुए स्थिर जीवन में एक आन्दोलन उत्पन्न कर देना, नही, यह कृत्रिम हैं, यह नही चलेगा ! राज्यश्री को देखती हूँ, तब मुझे अपना स्थान सूचित होता है - पता चलता है कि मैं कहाँ हूँ ! चलूँ, रोक सकूँ।

(सुरमा का प्रस्थान। दो नागरिकों का व्यग्र भाव से प्रवेश)

पहला - इतना बड़ा उत्पात !

दूसरा - होम करते हाथ जले !

पहला - ना भाई ! कितने ही ढोंगी घुस आते हैं - अधिक पुण्य भी करने में कितना पाप हो सकता है !

दूसरा - परन्तु वह राजा का प्रताप था ! सुना नहीं कि उस नीच हत्यारे का हाथ काँप कर रह गया।

पहला - पकड़ लिया गया कि नहीं ?

दूसरा - चलो देखा जाय।

[प्रस्थान]

चतुर्थ अंक-चतुर्थ दृश्य : राज्यश्री (नाटक)

(बुद्ध-प्रतिमा के सम्मुख सम्राट हर्षवर्द्धन और प्रमुख सामन्तगण तथा चीनी यात्री सुएनच्वाग)

(हर्षवर्द्धन सब मणि रत्न दान करता हुआ अपना सर्वस्व उतार देता है)

हर्ष. - (राज्यश्री से) दो बहन। एक वस्त्र। (राज्यश्री देती है) क्यों मेरी इसी विभूति और प्रतिपत्ति के लिए हत्या की जा रही थी न ? मैं आज सबसे अलग हो रहा हूँ - यदि कोई शत्रु मेरा प्राणदान चाहे, तो वह भी दे सकता हूँ।

(समवेत स्वर में)

(जय महाराजाधिराज हर्षवर्द्धन की जय)

सुएन. - यह भारत का देव-दुर्लभ दृश्य देखकर सम्राट् ! मुझे विश्वास हो गया कि यही अमिताभ की प्रसव-भूमि हो सकती है।

(विकटघोष को लिये हुए प्रहरियों का प्रवेश)

राज्यश्री - महा-श्रमण मुझे भी एक वस्त्र दीजिये।

सुएन. - सर्वस्व दान करने वाली देवी ! मैं तुम्हें कुछ दूँ - यह मेरा भाग्य ! तुम्हीं मुझे वरदान दो कि भारत से जो मैंने सीखा है; वह जाकर अपने देश में सुनाऊँ ! लो देवि ! (वस्त्र देता है)

(हर्ष और राज्यश्री एक-एक वस्त्र में खड़े होते हैं)

भण्डि - देव, यह दान तो हो चुका, अब मैं भी कुछ माँगता हूँ - न्याय दीजिये।

हर्ष. - यह ! साहसिक ! क्यों तुम मेरे प्राण चाहते थे न ?

(विकटघोष चुप रहता है)

भण्डि - देव ! यही नीच है, जिसने कुमार राज्यवर्द्धन की हत्या की थी। मैंने इसे भागते हुए देखा था; परन्तु उस समय मैं नरेन्द्र के पीछे पड़ा था।

हर्ष. - क्या ? यही है ?

सब लोग - वध करो ! वध करो !!

राज्यश्री - ठहरो (देखकर) - मुझे स्मरण हो रहा है। हाँ, वही तो है ! तुम हो शान्तिभिक्षु !

विकट. - हाँ देवि !

हर्ष. - क्या ? भिक्षु !

राज्यश्री - हाँ, यह भिक्षु था, भाई ! मैंने इससे कहा था - ‘तुम संयत करो अपने मन की श्लाघा और आकांक्षा का पथ बहुत पहले छोड़ चुके हो’ परन्तु भगवान् !

विकट. - वध की आज्ञा दीजिये ! ओह ! प्राण जल रहे हैं। रोम-रोम से चिनगारियाँ निकल रही हैं... दण्ड ! दण्ड ! हे भगवान् !

राज्यश्री - आज हम लोगों ने सर्वस्व दान किया है, भाई ! आज महाव्रत का उद्यापन है। क्यों एक यही दान रह जाय - इसे प्राणदान दो भाई !

(घोष - "देवी राज्यश्री की जय")

सुरमा - (दौड़ती हुई आयी) - मुझे भी महारानी ! स्त्री की मर्यादा ! करुणा की देवी! राज्यश्री ! मुझे भी दण्ड !

राज्यश्री - अरे तू मालिन !

सुरमा - हाँ भगवति ! मेरा प्रायश्चित ?

राज्यश्री - महाश्रमण ! आज सबका प्रायश्चित चित्त-शुद्धिपूर्वक काषाय लेने में है। आप इन दोनों को भी काषाय दीजिये।

(महाश्रमण आगे बढ़कर दो काषाय देते हैं। विकटघोष का बन्धन खोला जाता है)

सुएन. - ‘दस्युराज ! मैं रुपये लेकर नहीं आया हूँ। मेरे पास थोड़ा-सा धर्म है और कुछ शान्ति - तुम चाहते हो लेना ?’ - मैंने यही एक दिन तुमसे कहा था, वही आज भी कहता हूँ।

(विकटघोष और सुरमा दोनों महाश्रमण के पैर पर गिरते हैं; थालों में मणि, आभूषण और वस्त्र लिये कुमारराज, उदितराज इत्यादि आते हैं)

हर्ष. - यह क्या ?

कुमार. - उसी धर्म की रक्षा के लिये बोधिसत्व का व्रत ग्रहण कीजिये। आप भिक्षु होकर लोक का कल्याण नहीं कर सकते - राजदण्ड से ही आपका कर्तव्यपूर्ण होगा। लोक-सेवा छोड़कर आप व्रत-भंग न कीजिये।

सुएन. - हाँ महाराज ! इस धर्मराज्य का शासन करने के लिए आप को राजमुकुट और दण्ड ग्रहण करना ही पड़ेगा।

राज्यश्री - भाई ! यहाँ त्याग का प्रश्न नहीं है। यह लोक-सेवा है। ऐसा राज्य करने का आदर्श आर्यावर्त की ही उत्तम-श्री है।

(हर्ष नत होकर मुकुट और राजदण्ड ग्रहण करता है - घोष - "जय महाराजाधिराज हर्षवर्द्धन की जय !" “जय देवी राज्यश्री की जय !")

(आलोक - पुष्पवर्षा)

(समवेत स्वर से)

करुणा-कादम्बिनी बरसे !
दुख से जली हुई यह धरणी प्रमुदित हो सरसे।
प्रेम-प्रचार रहे जगतीतल दया-दान दरसे।
मिटे कलह शुभ शान्ति प्रकट हो अचर और चर से।

[यवनिका]

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