रजनीगंधा (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट
Rajnigandha (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt
मुझे रजनीगंधा की खुशबू सब से अधिक भाती है। 'नाइट क्वीन' (रात की रानी) के नाम से जाने-जानेवाले इस फूल की छोटी-छोटी कलियां जब खिलने लगती हैं, तो उनकी सगन्ध मझे हठात् आकृष्ट कर लेती हैं। बाड के पास की झाड़ियों और चारदीवारी को पार कर अँधेरे में आती वह ताजी सुगन्ध मुझे आनन्द-सागर में डुबो देती है। रात की रानी फूलों में वेश्या समझी जाती है, क्योंकि वह दिन-भर सोती है साँझ के बाद अंधेरे में उसकी सुगन्ध आकर लोगों का स्पर्श करती है और हठात् उन्हें वशीभूत कर लेती है।
मगर मैं अपने बाग में रजनीगन्धा का एक भी पौधा लगाने की अनुमति नहीं देता । मेरा बाग कई तरह के फूलों के पौधों से सुशोभित है, पर एक भी रजनीगन्धा का पौधा आपको दिखायी नयीं देगा। इसका एक विशेष कारण है, उसके पीछे एक पुरानी दास्तान है।
वही मैं लिख रहा हूँ। उन दिनों मैं सत्रह वर्ष का, एक कालेज का छात्र था । एक नौजवान की जिन्दगी में यह आयु कितने ही खतरों से भरी रहती है । अंग्रेज इस आयु को 'स्वोट सेवेंटीन' (मधुर सत्रह) कहते हैं। नौजवानी के नशे में इस आयु का नौजवान कई चक्करों में फंसा रहता है । वह इश्क में फंस जाता है और प्रेम के सुने-सुनाये आदर्शों के पीछे भागकर औंधे मुंह गिर पड़ता है। वह खूबसूरत लड़कियों को देवी मानकर उनकी आराधना करता है और हताश होता है । वह भावुक, निरीह तथा स्वप्नजीवी होता है। इस आयु के नौजवान संपादकों की नाकों में दम किये रहते हैं, इस आयु के नौजवानों पर, चाहे उनमें गधे की ही अक्ल क्यों न हो, कविता करने का भूत सवार होता है । वे भौतिकवादी न होकर दार्शनिक होते हैं । उसका प्रेम दार्शनिकों के प्रेम की ही तरह होता है। "विकास लतिका' के प्रेम से अधिक वह 'नलिनी' और 'लीला' के प्रेम को पसंद करता है उसका आदर्श प्रेमी इटालियन 'डान्रि' होता है।
मैं कई लड़कियों से, उनकी अनुमति के बिना ही परिचय करता, उनके सौन्दर्य को परखता, उनके चरित्र की जाँच करता और यह मालूम करने की कोशिश करता कि वे किसी से प्रेम तो नहीं करतीं। आखिर मेरी 'आइडियल गर्ल' (आदर्श लड़की) बनने का सौभाग्य मालती को प्राप्त हुआ।
मालती हाई स्कूल की एक छात्रा थी। वह स्वस्थ और गोरी-चिट्टी थी। उसकी छातियाँ गोलाकार और उभरी थीं और बदन चांदनी की तरह चमकता था। उसकी नशीली आंखों ने ही मुझे आकृष्ट किया था। कुल मिलाकर वह नजाकत की एक पुतली थी। वह कभी हँसती नहीं थी। उसका रोब से बातें करना मुझे बहुत पसंद आया। मेरी दृष्टि से लड़कियों को ऐसा ही होना चाहिए । मुंह फाड़कर हँसने वाली छोकरियों को मैं उन दिनों पसंद नहीं करता था। वह हरे रंग का, खद्दर का घाघरा और लाल रंग का, सादा, खद्दर का ब्लाउज पहनती। छाती से पुस्तकों को दबाये, बायें हाथ में काजू की मूठवाली छतरी पकड़े बह सड़क के किनारे-किनारे सिर झुकाकर एक हंसिनी की तरह चलती। उसके चलते हुए देखने के लिए मैं बड़ी उत्सुकता से हर दिन बरामदे में खड़े-खड़े उसका इन्तजार करता। उसे मालूम नहीं था कि मैं दिन-रात उसकी आराधना करता था। गणित प्रोफेसर रामनाथ अय्यर के 'लोगरितं', 'कोट्टाण्जेण्ट' जैसे फ़िजूल के सामानों को एक ओर सरकाकर मैं मालती, उसके आचरण और उसकी किताबों के साथ चलने वाली चाल पर कविता रचने लगता-
'कुकुर मुत्ता-सी बढ़नेवाले छाती को
देखकर जलता कलेजा मेरा भी।'
ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं, हालांकि मैंने कविता की ये पंक्तियाँ इस विचार से लिखी थीं कि उसके सम्बन्ध में वासना की कोई बात मन में नहीं लाना चाहिए। मेरा तो उसके साथ, वासनाहीन पवित्र प्रेम था। उसमें मुझे पीड़ा तथा निराशा ही मिलती थी। मैं सोचता कि मुझे भी ‘मदनन' की ही तरह प्रेम की वेदना तथा निराशा के गीत गाते हए घूमने का सुअवसर मिलता, तो कितना अच्छा होता। डंडे से जिस तरह झंडा लिपटता है, उसी तरह एक दिन मालती मुझसे आ लिपटेगी, इस दृश्य की मैं कल्पना किया करता ।
मालती हमारे घर से दो फांग दूर पश्चिम में एक भारी अहाते वाले महल में रहती थी। उसके पिता से मेरा मामूली परिचय था। मालती मेरे सामने सिर झुकाकर चलती थी इससे मुझे लगता था कि वह मुझे पहचानती थी।
रात में भोजन के बाद मैं घूमने निकलता, तो सड़क से पगडंडी पर उतर कर मैं मालती के महल के फाटक पर जा पहुँचता। फाटक के पास ही रजनीगन्धा की एक बड़ी आदम-कद झाड़ थी। उस झाड़ में छिपकर कोई बैठ जाता, तो उसे अपने कमरे में बैठी पढ़ती हुई मालती जरूर दिखाई देती।
मैं ऐसा ही करता । मेज पर जो रोशनी होती, उसी में मालती के चेहरे के भावों को देखता । वह ऐसा ब्लाउज पहनती, जिसके चौड़े गले से उसकी आधी खुली छाती नजर आती । बालों को वह दोनों कन्धों पर खुला छोड़ रखती। वे बाल उसके दोनों कन्धों से छाती पर लटककर उसके ब्लाउज को ढंक लेते। इससे चट्टानों से फूटनेवाले फौव्वारे की तरह उसकी सफेद छाती का एक हिस्सा ही दिखाई देता। वह सामने किताब खोलकर, दाहिने हाथ पर ललाट रखकर मेज पर जरा झुककर बैठती। वह जोर से नहीं पढ़ती। एक रात मुझे उसके मुंह से यह फुसफुसाहट सुनायी पड़ी, “आण्ट सीता वाण्टेड टु गो विथ राम" पढ़ते-पढ़ते वह ऊँघने लगती । और उसका सिर मेज पर झुककर टकरा जाता । तब वह आँखें फाड़कर इधर-उधर देखती। फिर दरवाजे से अंधेरे में देर तक एकटक देखती रहती। झाड़ में से यह सब देखकर मुझे उससे बड़ी हमदर्दी होती। मेरा मन होता कि जोर से उसको पुकारकर कहूँ, "बस करो प्यारी अब जाकर सो जाओ।"
वह आँखें मलकर फिर पढ़ने लगती, नींद की खुमारी से परेशान मैं अपने दिल की रानी को टकटकी बांधे साँस रोककर देखने लगता। रजनीगन्धा की मस्त करने वाली खुशबू मेरे नासा-पुटों में भरकर मन को आन्दोलित कर देती। उस झुरमुट में मैं जब तक रहता मुझे लगता कि मैं स्वर्ग नन्दन वन में हूँ। सुरभित नींद की खुमारी में वह सुकुमारी मुझे एक स्वप्न-परी की तरह लगती। मुझे लगता कि मैं स्वप्न देख रहा होऊँ और वह सुन्दरी राजनीगन्धा की सुगन्ध की तरह मुझ से लिपटी हुई हो।
कभी-कभी वह मलयालम कविता पढ़ने लगती । वह 'मंजरी' छंद सुरीली आवाज में गाती।
उसके कंठ की माधुरी के बारे में क्या कहना !.."सुनने वाला जैसे रसविभोर हो उठे।
तब उसके ओठों को चूमने के लिए मेरा मन मचल उठता ।
लगातार तीन महीने तक मैंने हर रात एक-एक घंटा उस रजनीगन्धा के झुरमुट में छिपकर चुपचाप उस सुन्दरी की उपासना की। रजनीगन्धा की सुगन्ध और मालती की रूप-माधुरी मेरे हृदय में जैसे एकाकार हो गये हों। मैंने हर शाम उस मादक सौंदर्य का दूर से ही आस्वादन किया।
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बारिश के दिन आये, तो मेरी शाम की सैर में अड़चन पड़ने लगी। जब वर्षा बहुत तेज होती, तो वह अपने कमरे का दरवाजा बन्द कर लेती । तब जैसे मेरे हृदय का किवाड़ भी बन्द हो जाता । हताश होकर, बारिश में भीगते हुए मैं अपने दुखी हृदय को हाथों से सहलाते हुए घर वापस आता।
एक शाम निकुंज में बैठते ही मुझे मालती के पिता को अपने पुत्र से कहते हुए सुना, कल बाग के सभी पुराने पौधों को निकालकर नये पौधे लगवा देना चाहिए । अहाते की बाड़ को भी छटवा देना जरूरी है। बेकार की झाड़ों की सफाई भी करा देनी चाहिए।"
यह सुनकर मेरा दिल धक-से कर गया। रजनीगन्धा की झाड़ कट जाएगी, तो मैं कहाँ छुपकर अपने हृदय की रानी को देखूँगा? और नहीं देख पाऊँगा, तो मेरे हृदय की क्या हालत होगी । मेरा हृदय उस पक्षी की तरह तड़प उठा, जिसका नीड़ उजाड़ दिया गया हो। हाय ! मेरे प्रेम का स्वप्न-स्थल विलीन हो जाएगा, तो मैं अपनी स्वप्नों की रानी को एकान्त में कहाँ देख पाऊँगा?
मैं सोचने लगा कि अपने उस प्रेम-स्वप्न-स्थल की कैसे सुरक्षा की जाए। सोचने पर मुझे एक ही उपाय सूझा। मैंने निश्चय किया कि उस निकुंज को बचाने की विनती करते हुए मैं मालती को एक पत्र लिखूँ।
उस रात तीन बजे तक बैठकर, सोच-सोच कर मैंने यह पत्र लिखा,
मेरे हृदय की रानी,
मुझे तुम्हारे कमरे के सामने की रजनीगन्धा के निकुंज में बैठकर तुम्हारी उपासना करते हुए तीन महीने हो रहे हैं। किसी को, तुम्हें भी, इसकी सूचना दिये बिना मैं एक खामोश उपासक की तरह वर्षों तुम्हारी उपासना करना चाहता था। मगर विधि का विधान कौन मिटा सकता है ? मैंने आज तुम्हारे पिता जी को यह कहते सुना कि वे कल उस रजनीगन्धा निकुंज को कटवा देंगे। तभी मेरा हृदय तड़प रहा है। हाय ! निकुंज कट जाएगा, तो मैं कहाँ बैठकर तुम्हारी उपासना करूँगा। तुमसे मेरा निवेदन कि तुम उस निकुंज को कटने से बचाकर मेरी रक्षा करने की कृपा करो।
मेरे पवित्र तथा निस्वार्थ प्रेम की रक्षा तुम करो, इसके लिए मैं तुम्हारी कृपा के सिवा और कुछ नहीं मांगता । ओं शान्तिः ।
शेष फिर कभी।
तुम्हारा ही प्रेमी
पत्र मालती तक पहुंचाने के खयाल से मैं सुबह ही मालती के घर की ओर रवाना हो गया।
एक सफेद 'प्रिंस आफ वेल्स' के पौधे की डाली मांगने का बहाना कर मैं अहाते में घुस गया। उस समय वहाँ हो-हल्ला मचा हुआ था। दस-पन्द्रह आदमी सहन में खड़े थे। मैंने उनके बीच घुसकर देखा, एक भयंकर काला नाग सहन में पड़ा था और लोग उसे डंडे से पीट रहे थे। वह करीब तीन फुट लम्बा था ।
एक बड़ा काला नाग !
एक आदमी कह रहा था, "इस रजनीगन्धा की झाड़ में ही इस महाशय का निवास था । जब हमने झाड़ काटी, तो वहाँ एक बिल दिखाई पड़ी। उसे हम पाटने लगे, ये महाशय फुफकारकर हम पर झपट पड़े। ताज्जुब है कि जाने कब से ये यहाँ रह रहे थे, लेकिन कभी दिखायी नहीं पड़े थे।" यह कहनेवाला वेलु बढ़ई था । उसने मेरी ओर देखते हुए कहा, "देखिए, कैसा भयानक नाग है।"
तभी काले नाग की पूंछ मीटर की सुई की तरह हिल उठी । यह देखते ही बढ़ई सावधान होकर बोला, "यह क्या? यह अभी तक मरा नहीं ?" कहकर वह अपने हाथ की लाठी से नाग का सिर कुचलने लगा। नाग के सिर पर चोट लगी, तो उसके मुंह से खून उछल पड़ा।
अब मुझसे वहाँ खड़ा नहीं रहा गया। मेरे होश फाख्ता हो गये थे। मुझे मालूम नहीं कि मैं घर कैसे पहुंचा था। भय से मेरा कलेजा काँप रहा था । मैं उस झाड़ में बैठकर मालती के दिव्य सौन्दर्य का आस्वादन करता था, मेरे नजदीक ही कहीं वह भयंकर काला नाग फन उठाकर रजनीगंधा की सुगन्ध का पान करता होगा, यह सोचकर मेरे प्राण नखों में आ जाते। मुझे लगा कि इस पर मैं अधिक सोच-विचार करूंगा तो निश्चय ही मैं पागल हो जाऊंगा। लेकिन कोशिश करने पर भी मैं भूल न पाता था। मुझे लगता था कि मेरे पीछे ही फन उठाये एक काला नाग बैठा था। मैं भूल नहीं सकता।
उस रात मुझे तेज बुखार आ गया मैं लगातार भयंकर सपने देखता रहा । सपने में मुझे सांप-ही-सांप दिखायी दे रहे थे कभी पलंग पर कभी दरवाजे से अन्दर आते हुए, कभी बकसे में फन उठाये, कभी छत से लटके हुए।
"सांप ! सांप !" मैं चिल्ला उठता।
मेरा चिल्लाना सुनकर घरवाले लाठी लेकर आ जाते । और कमरे में सांप ढूंढ़ने लगते।
एक बार मुझे लगा कि पीछे से आकर एक नाग अपना फन मेरी छाती पर रख रहा था, तो मैं चीखकर उठ खड़ा हुआ।
सपनों में मैंने मालती को एक नागकन्या के रूप में देखा था। उसका चेहरा देखकर मैं खुश होता, लेकिन शरीर देखकर बदहवास हो जाता।
एक महीने तक मैं बुखार में पड़ा रहा । बुखार टूटा और कुछ दम आया, तो एक दिन मैं घूमने निकला। मालती के महल के पास पहुँचा तो देखा, बरामदे में एक बोर्ड लटका हुआ था जिसपर यह लिखा था, 'मकान किराये के लिए खाली है।'
पड़ोस में मैंने पूछ-ताछ की, तो मालूम हुआ कि मालती के पिता का तबादला कन्नूर के लिए हो गया था और वे लोग एक हफ्ता हुआ चले गये थे ।
फिर मैंने कभी मालती को नहीं देखा । बहुत बाद पता चला कि उसकी शादी हो गयी थी और उसके दो बच्चे भी हो गये थे। तब उसे देखने की इच्छा से मैंने उसे एक पत्र लिखा। वह पत्र जाने कहाँ-से-कहाँ से होकर एक हफ्ते बाद मेरे पास वापस आ गया और मैंने उसे चीर-फाड़कर फेंक दिया।
अब कहीं से भी रजनीगंधा की महक आती है, तो मेरे मन में अपने सत्रह साल की आयु के प्रेम के पागलपन की पुरानी कहानी उभर आती है और मेरी आंखों के सामने आँखों में नींद भरे किताब पढ़ती मालती का चेहरा और फन फैलाये काला नाग एक ही समय मेरी आँखों के सामने नाच उठता है।
मैं मारे भय के अपने बाग में रजनीगन्धा नहीं लगाने देता।