राजकुमार को ज्ञान मिला : संथाली लोक-कथा

Rajkumar Ko Gyan Mila: Santhali Lok-Katha

किसी समय एक राजा को एकलौता पुत्र था और राजा अपने एकलौता बेटे से सदैव कहता रहता था कि वह समुचित ढ़ंग से पढ़ना-लिखना सिख ले, इससे राज्य के प्रबंधन में और विवाद के लिए न्याय निर्णय मांगने जब लोग आएंगे तब यह उसके काम आएगा। लेकिन राजकुमार ने अपने पिता के परामर्श पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने पढ़ाई के प्रति उदासीनता बनाये रखा। जब वह बड़ा हुआ तब राजकुमार ने अनुभूत किया की उसके पिता का कहना कितना उचित था और राजकुमार ने निश्चय किया की वह ज्ञान अर्जन हेतु विदेश जायेगा। इसलिए उसने अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य को सूचित किये बिना तीन स्वर्ण मुद्रा के साथ अपना पैसों का बटुआ ले कर घर से प्रस्थान कर गया। लम्बे समय तक प्रवास करने के पश्चात् एक दिन उसने देखा की एक व्यक्ति खेत जोत रहा है वह उस के पास खैनी मांगने गया और पूछा की क्या यहाँ आस-पास कोई बुद्धिमान व्यक्ति रहता है। उस हलवाहा ने पूछा- “तुम उस बुद्धिमान व्यक्ति से क्या चाहते हो”? राजकुमार ने बताया वह ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से भ्रमण कर रहा है।

हलवाहा ने कहा, यदि इस हेतु मुझे कुछ धन का भुगतान किया जाए तो मैं तुम्हें ज्ञानवान बना सकता हूँ। तब राजकुमार ने वचन दिया की प्रत्येक विद्या के लिए हलवाहा को एक स्वर्ण मुद्रा प्रदान करेगा। हलवाहा राज़ी हो गया और कहा- “ध्यान से सुनो मेरा पहला उपदेश यह है: ‘तुम राजा के पुत्र हो; जब कभी तुम अपने मित्र या किसी से मिलने जाओ तो जब वे आसन या तिपाई या चटाई बैठने के लिए दें तो एकाएक उस पर मत बैठो, बैठने के पूर्व में आसन या तिपाई या चटाई को एक तरफ थोड़ा खिसका दो; यह मेरा पहला उपदेश है, अब मुझे मेरा स्वर्ण मुद्रा दो। इसलिए राजकुमार ने उसे एक स्वर्ण मुद्रा का भुगतना कर दिया। दूसरा उपदेश यह है कि: ‘तुम राजपुत्र हो; जब कभी तुम स्नान करने जाना तो वहां कभी स्नान मत करना जहाँ सर्वसाधारण जनता स्नान करती है अपने लिए एक एकांत स्थान का चयन करना; अब मुझे मेरा स्वर्ण मुद्रा दो, और राजकुमार ने वैसा ही किया। तब उसने तीसरा उपदेश आरम्भ किया, “मेरा तीसरा उपदेश यह है कि ‘तुम राजा के बेटे हो जब लोग तुम्हारे पास परामर्श लेने या विवाद को सुलझाने आयें तो उपस्थित लोगों की राय सुनो की वह क्या कह रहे हैं और अपने सोच-विचार का अनुकरण मत करना, अब मुझे पैसा दो; और राजकुमार ने उसे अंतिम स्वर्ण मुद्रा दे दिया और कहा की उसके पास अब और स्वर्ण मुद्रा नहीं है। “अच्छा,” हलवाहा ने कहा- तुम्हारा पाठ अब समाप्त हो गया है फिर भी मैं निशुल्क एक परामर्श और दूंगा, वह यह है कि ‘तुम एक राजा के पुत्र हो यदि तुम कुछ ऐसा सुनो या कुछ देखो जिससे तुम्हें क्रोध आये तो तुम अपने आक्रोश के ऊपर नियन्त्रण रखना और तब तक कोई कार्रवाई न करना जब तक की स्पष्टीकरण पूरी तरह न सुन लो और इसकी गुरुता का आकलन भलीभाँति न कर लो, तब यदि तुम कोई कारण अनुभूत करते हो तो तुम अपने क्रोध के लगाम को ढीला करो और यदि ऐसा नहीं है तो आरोपी को छोड़ दो।

इसके बाद राजकुमार अपने घर के तरफ प्रस्थान किया, उसका पूरा पैसा खर्च हो गया था और वह पश्चाताप करने लगा की वह इस प्रकार के व्यर्थ के परामर्श पर अपना स्वर्ण मुद्रा का अपव्यय कर दिया। खैर रास्ते में वह कुछ भोजन खरीदने के लिए एक बाजार की तरफ मुड़ गया और बाजार में दूकानदार हर तरफ से शोर मचा रहे थे खरीद लो, खरीद लो, इसलिए वह एक दूकान में चला गया और दुकानदार ने उसे एक गलीचा पर बैठने के लिए कहा; वह उस पर बैठने ही वाला था कि उसी समय उसे गुरु का पहला उपदेश याद आया। इसलिए उसने हटा कर देखा तो पाया की गलीचा एक कुआं के ऊपर बिछाया गया था यदि वह उस पर बैठता तो वह मारा जाता; इसलिए वह अपने शिक्षक के द्वारा दिए गये ज्ञान के उपर भरोसा करने लगा। तब वह अपने रास्ते चला और आगे सड़क पर मुड़ कर वह एक तालाब में स्नान करने चला गया, और राजकुमार को अपने गुरु का उपदेश याद आया की उसे सर्वसाधारण के स्थान पर स्नान करने के बजाय अलग एकांत स्थान का चयन कर स्नान करना चाहिए, स्नान के बाद उसने भोजन किया और अपना यात्रा आरम्भ किया, किन्तु वह अभी ज्यादा दूर नहीं गया था कि उसे याद आया की उसने अपना बटुआ पीछे तालाब के पास छोड़ आया है, इसलिए वह वापस मुड़ा और पाया की जहाँ उसने स्नान किया था बटुआ वहीं पड़ा हुआ था। उसने गुरु के ज्ञान का ताली बजा कर प्रशंसा किया, यदि उसने सर्वसाधारण लोगों के स्थान पर स्नान किया होता तो किसी की दृष्टि उस बटुआ पर पड़ती और वह उसे उठा कर अपने साथ ले जाता। संध्या होने पर वह एक गाँव में गया और प्रधान से उसके बरामदा में सोने के बारे में पूछा, वहां पहले से कोई दूसरा यात्री सो रहा था और प्रातःकाल उसने देखा की यात्री की मृत्यु उसके निद्रावस्था में हो गई है। तब प्रधान ने गाँव वालों से सलाह लिया और उन्होंने यह निर्णय लिया की अब तो कुछ नहीं किया जा सकता है लेकिन शव को फेंक दिया जाय, और यह राजकुमार जो की सहयात्री है उसे यह कार्य करना होगा। पहले तो उसने शव को छूने से मना कर दिया क्योंकि वह एक राजा का पुत्र था, लेकिन गाँव वालों के दृढ़ रहने पर उसे उपदेश याद आया की उसे जनाकांक्षा के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए; इसलिए उसने इसे स्वीकार करते हुए शव को खड्ड में फेंकने के लिए घसीटते हुए ले गया।

शव को फेंकने से पहले उसे स्मरण हुआ की, यह उपयुक्त होगा की शव पर का कपड़ा पृथक कर दिया जाए, और जब वह ऐसा करने लगा तो उसने पाया की शव के मध्‍यांग में कुछ गोल चीज लपेटा हुआ है और वह कपड़ा में लपेटा हुआ सिक्कों का एक गोला था; इसलिए उसने उन सिक्कों को ले लिया और वह पुलकित था कि उसने अपने शिक्षक के परामर्श का अनुकरण कर लाभान्वित हुआ है।

उसी शाम वह अपने राज्य क्षेत्र के सीमा पर पहुँच गया और उसने सोचा की अभी जाने पर घर में भीड़ हो जायेगी यद्यपि अँधेरा हो चूका था; मध्यरात्रि में बिना किसी को जगाये वह अपने महल में अपने पत्नी के कक्ष के दरवाजा पर गया। बाहर दरवाजा पर एक जोड़ा जूता और एक तलवार रखा देखकर वह क्रोधित हो गया और रोष पूर्वक तलवार खिंच हाथ में ले कर बाहर से आवाज दिया, “मेरे कक्ष के अन्दर कौन है?”

वस्तुतः राजकुमारी ने राजकुमार के छोटी बहन को अपने पास सोने के लिए बुला रखा था, और जब लड़की ने राजकुमार की आवाज सूनी तो वह जाग उठी और उसे छोड़ कर जाने लगी; किंतु जब दरवाजा खोलते ही उसने क्रोधित राजकुमार को हाथ में तलवार लिए खड़ा देखा तो वह डर से अपने को कक्ष के अंदर पीछे खींच लिया और उसने अपना परिचय दिया और यह भी विवरण दिया की जूता और तलवार कक्ष के दरवाजा पर बाहर से कोई अन्दर प्रवेश न कर सके इस लिए रखा था; लेकिन राजकुमार अत्यंत क्रोध में होने के कारण यह नहीं सुन सका और उसे जान से मार देने के लिए बाहर आने को कहा।

तब वह अपना सभी कपड़ा उतार दी और राजकुमार ने दरवाजा के दरार से देखने के उपरांत विश्वास किया; और तब उसे अपने गुरु के शिक्षा का ध्यान आया और उसे बहुत आत्मग्लानि हुई क्योंकि उसने अपने क्रोध के ऊपर नियन्त्रण न रख पाने के कारण अपनी बहन को लगभग मार ही दिया था।

यही कारण है कि संताल जब कहीं भोजन करने जाते हैं तो उन्हें बैठने के लिए जो तिपाई दिया जाता है वे उसे थोड़ा खिसका दिया करते हैं।

कहानी का अभिप्राय: ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता है।

(Folklore of the Santal Parganas: Cecil Heny Bompas);

(भाषांतरकार: संताल परगना की लोककथाएँ: ब्रजेश दुबे)

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