राजा भरतहरी की कथा : राजस्थानी लोक-कथा
परिचय
जिस प्रकार हर लोक गाथा की शुरुआत देवी–देवता से होती है उसी प्रकार भरतहरी की कथा भी देवी दुर्गा की स्तुति से शुरू होती है। कथा को गद्य और पद्य दोनों में कड़ी-दर-कड़ी गाया जाता है। बीच–बीच में नैतिकता का संदेश देते दोहे बोले जाते हैं। कथा में मुख्य गायक कलाकार (मेडिया) कथा को आगे बढ़ाता है, बाकी सहयोगी गायक हुंकारा लगाते हैं और गीत की पंक्तियों को दोहराते हैं। साथी कलाकार; ढोलक, पूंगी और मंजीरे के संगीत पर गाते हैं। गायिकी को रुचिकर बनाने के लिए गति, ताल और राग में कई फेरबदल किये जाते हैं।
भरतहरी कथा का आयोजन मुख्यतः किसी भी देवता के थान या घर पर भी किया जा सकता है। इसे रात्रि जागरण में ही गाया जाता है। सामान्यतया किसी मनोकामना की पूर्ति या घरेलू संस्कारों के आयोजन के समय इसे गवाया जाता है। भरतहरी कथा का ज्ञान आम जन को होता है लेकिन इसे गाने वाले सिर्फ जोगी जाति के लोग ही होते हैं, जिन्हें निमंत्रण देकर निश्चित शुभ तिथि या विशेष अवसर पर बुलाया जाता है। बदले में भेंट स्वरूप निश्चित धन राशि व आने–जाने का किराया–भाड़ा दिया जाता है। वर्तमान में भरतहरी कथा गाने वाले जोगी राजस्थान के उतर, पूर्व व पूर्व–पश्चिमी जिलों के गांवों में मिल जाते हैं। युवा पीढ़ी में इसके प्रति रूचि कम होती जा रही है। फिल्मी धुनों का प्रभाव गायिकी पर दिखाई देने लगा है और आधुनिक साउंड सिस्टम पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।
भरतहरी की इस संपूर्ण कथा की रिकार्डिंग के लिए जब कई जोगियों को संपर्क किया गया तो उनमें से कईयों ने बिना साउंड सिस्टम के गाने में असर्मथता ज़ाहिर की, सिर्फ बंदा गांव के अंतर जोगी ने ही इस कथा को कड़ी दर कड़ी बिना किसी साउंड सिस्टम के गाने के लिए हामी भरी। अंतर जोगी की प्रतिबद्धता की वजह से ही यह काम संभव हो सका जिसके लिए वह प्रशंसा का पात्र है। अंतर को भरतहरी के अलावा शिव–पार्वती का ब्यावला, राजा गोपीचंद की कथा, रूप बसंत की कथा, दूल्हा दाहड़ी की कथा, नरसी जी की कथा (नैनी बाई को मायरो) कंठस्थ है, जिन्हें वह रात्रि जागरणों में आस–पास के गांवों में गाता है। इन सभी कथाओं में प्रेम, आध्यात्म, वैराग्य, वीरता और कर्तव्यनिष्ठा के तत्व दिखाई देते हैं जो कि मनुष्य को प्रेरित करते हैं और मानव कल्याण के लिए सद्मार्ग पर चलने का संदेश देते हैं।
उदाहरणस्वरुप भरतहरी कथा में एक ओर राजा प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए अपनी लड़की का विवाह कुम्हार की गधी के रेंगटे (बच्चे) से करने को राजी होता है वहीं दूसरी ओर दयालुता व उदारता का प्रतीक राजा भरतहरी बाबा गुरू गोरखनाथ का चेला बनने के लिए काले हिरण का शिकार कर उसकी खाल उनके लिए लाता है और अंत में वह अपना सारा राजपाट त्याग कर उनका शिष्य बन जोगी हो जाता है। कथा में जहां अमर फल का किस्सा प्रेम रस से भरा हुआ है तो दूसरी तरफ भरतहरी द्वारा हिरण के शिकार व वैराग्य धारण का किस्सा करूणा रस से सभी को रुला देने वाला है।
भरतहरी कथा तीन खण्डों में विभाजित की जा सकती है। लेकिन वह इस प्रकार गायी जाती है कि यह एक कथा का ही आभास देती है। कथा एक रात में पूरी हो जाती है। भरतहरी कथा खत्म होने के बाद भैरू जी व अन्य देवी–देवताओं की आरती गाई जाती है व घी का होम किया जाता है। कथा के अंत में देवी–देवताओं को भोग लगाया जाता है और प्रसादी बांटी जाती है। आए हुए जोगियों को भेंट सामग्री व रुपये देकर रवाना किया जाता है। यह सब होते–होते सूर्योदय हो जाता है और लोग अपने घर लौट जाते हैं।
भाग-1
एक समय था जब राजा इन्द्र की परियां पृथ्वी पर नृत्य किया करती थीं। सुबह के समय खुशबूदार पेड़ों से फूल गिरा करते थे। राजा इंद्र अपने बेटे गंधर्वसेन को वचनों में बांधते हुए गधा बनने के लिए कहता है। गंधर्वसेन का जन्म लाखा कुम्हार की गधी से होता है। वह कुछ ही समय में बड़ा हो जाता है और रात के आधे पहर के समय लाखा कुम्हार को आवाज़ लगाता है कि वह अपनी पैपावती नगरी के राजा को जाकर कहे कि वह अपनी लड़की पानदे बाई का विवाह उससे कर दे। लाखा कुम्हार की गधी का रेंगटा हर रात अपनी इसी बात को दोहराते हुए रोज़ लाखा कुम्हार को जगाता है। लेकिन लाखा कुम्हार की हिम्मत नहीं होती कि वह यह बात जाकर अपने राजा से कहे कि वह अपनी बेटी पानदे बाई का विवाह उसकी गधी के रेंगटे से कर दें। ऐसी गलती करने पर निश्चय ही राजा उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देगा व उसकी खाल उतरवा देगा। वह उसे नगर के बाहर भी निकाल देगा।
परेशान होकर लाखा कुम्हार अपनी पत्नी से गांव छोड़कर चलने को कहता है। लाखा अपने घर का सारा सामान गधों पर लाद कर घने जंगल को पार करते हुए निकल जाता है। रास्ते में उसे गांव के लोग मिलते हैं। वे अचंभित हो उससे उसके गांव छोड़कर जाने का कारण पूछते हैं। वे कहते हैं, ‘‘अरे लाखा! ऐसा क्या दुख पड़ गया, क्या विपदा आ गई, ऐसी क्या बात हो गई जो तू गांव छोड़कर जा रहा है? अगर तू चला गया तो हम अकेले यहां रहकर क्या करेंगें? हम तेरे बिना किससे मटकी और मिट्टी के बर्तन लाएंगें?” वे उसे वापस गांव लौटने के लिए कहते हैं। पंच–पटेलों का निवेदन सुनकर लाखा इस बात पर वापस गांव चलने को राज़ी होता है कि उन्हें एक रात उसके घर बितानी पड़ेगी। जिसके लिए वे तुरंत तैयार हो जाते हैं।
आधी रात का जब पहर होता है तो गधी का रेंगटा लाखा को वही आवाज़ लगाता है कि वह जाकर अपने राजा से कहे कि वह अपनी बेटी का विवाह उससे कर दे। पंच–पटेल रेंगटे की मांग को सुनकर स्तब्ध रह जाते हैं। उनकी हिम्मत नहीं होती की वे यह बात राजा को किसी तरह कह दें। इसलिए वे भी लाखा के साथ गांव छोड़कर जाने का निर्णय करते हैं। सभी गांव छोड़कर चल देते हैं। यह बात राजा पैपसिंह को उसके महल में मालूम हो जाती है तो वह अपने घोड़े पर बैठकर गांव वालों के समक्ष आता है और उनके जाने का कारण पूछता है, ‘‘अरे बस्ती के लोगों! ऐसी क्या बात हो गई जो तुम गांव छोड़कर जा रहे हो? तुम्हारे बिना मैं किस पर राज करूँगा? और कैसे इस नगर का राजा कहलाऊंगा?” गांव वाले जवाब देते हैं कि वह इसका कारण लाखा से पूछें। राजा जब लाखा कि ओर देखता है तो वह ढळ–ढळ–ढळ रोने लगता है और कहता है कि कारण जानने के लिए राजा खुद उसके घर एक रात सो कर देखे। गांव वाले भी कहते हैं कि अगर राजा एक रात बिताने के लिए राजी हो जाए तो वे भी वापस गांव लौट जाएंगें।
राजा उनकी बात मान लेता है। आधी रात होती है और गधी का रेंगटा लाखा को वही आवाज़ लगाता है कि वह महल में जाकर राजा को कहे कि वह उसकी बेटी पानदे का विवाह उससे कर दे। राजा पैपसिंह यह बात सुन लेता है। यह सुनकर वह अचंभित रह जाता है कि गधी के रेंगटे का विवाह वह अपनी बेटी पानदे से कैसे कर सकता है। इस संकट से बचने के लिए वह एक शर्त रखता है कि अगर गधी का रेंगटा उसकी नगरी का परकोटा एक रात में पीतल–तांबे का खिंचवा दे तो वह उसका विवाह अपनी बेटी से कर देगा। यह कहकर राजा अपने महल को लौट जाता है। पीछे से लाखा का दिल घबराने लग जाता है। शर्त सुनकर रेंगटे के भी कान खड़े हो जाते हैं। वह लाखा से कहता है कि वह उसकी पीठ पर दोनों तरफ थैले लटका दे। एक में पीली मिट्टी भर दे और दूसरी में काली मिट्टी भर दे। इसके पश्चात वह उसे नगरी का फेरा लगवा दे। विवश हो लाखा उसकी बात मानते हुए नगरी का फेरा लगवा देता है। एक रात में परकोटा तांबे–पीतल का हो जाता है।
सूरज उगते ही महल में राजा को जैसे ही यह खबर लगती है उसका दिल घबरा जाता है। वह अपनी रानी से कहता कि उसे अपने वचन को निभाने के लिए अपनी बेटी की शादी गधी के रेंगटे से करनी पड़ेगी। लेकिन शादी के बाद वह रेंगटे को महल में ही घरजंवाई बना कर रख लेगा। वह अपने नाई को बुलाकर उसके हाथ लाखा कुम्हार के यहां लग्न भिजवा देता है। लग्न आते देख लाखा गांव वालों को आवाज़ लागाता है कि वे उसके घर आकर लग्न झिला जाएं। यह सब कार्य बड़ी शोभा से हो जाता है। लाखा बारात ले जाने की तैयारी में जुट जाता है। वह बिना किसी बैंड–बाजे के बारात को लेकर चल देता है। लाडा रेंगटा बारात में नाचते हुए लोगों पर रुपये लुटाता चलता है। बारात जब राजा के यहां पहुंचती है तो महल में से उतर कर घर की महिलायें तोरण द्वार पर मंगल गीत गाती हुई आती हैं और दूल्हे का स्वागत करती हैं। रानी आरती करती है। दोनों के गठजोड़ा जोड़कर पंडित उनके फेरे लगवाता है। पहले फेरे में राजा–रानी अन्न का दान करते हैं। दूसरे में छल्ला–अंगूठी, तीसरे में पांच बर्तन, चौथे में पांच कपड़े, पांचवें में सोने का दान, छठे में गज–इष्ट्या (हाथी और घर के देवताओं) का दान और सातवें में गौ माता का दान करते हैं।
फेरे लगने के बाद बारात लौटने की तैयारी करती है। विदाई में महिलायें गाली–गीत गाती हैं। मालिन फूलों के हार बना कर लाती है। पहली माला गणेश जी को अर्पण की जाती है, दूसरी लाखा ब्याई को और तीसरी अपने नए जंवाई साहब को पहनाई जाती है। बारात लौट जाती है लेकिन बेटी और जंवाई को महल में ही रोक लिया जाता है। उन्हें महल के तलघर में खर्चा–पानी देकर रहने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है। जब दिन ढलने के बाद रात होती है तो रेंगटा गंधर्वसेन बन जाता है। हर रात को वह मनुष्य देह में तब्दील हो जाता है और सुबह होते ही वापस गधा बन जाता है। कुछ समय पश्चात पानदे गर्भवती हो जाती है। वह एक के बाद एक चार बच्चों को जन्म देती है जिसमें सबसे बड़ा भरतहरी, उससे छोटा विक्रमादीत, उससे छोटी मेणावंती और चौथे स्थान पर सबसे छोटा भाई सलीमादीत जन्म लेता है। चारों बहन–भाई महल के तलघर में खेलते–कूदते हैं।
एक दिन राजा पैपसिंह की रानी को अपनी बेटी की याद आती है। उसके हाल–चाल जानने के लिए वह अपनी दासियों को तलघर में भेजती है। वे जाकर देखती हैं कि पानदे हाथ में क़िताब लिये पढ़ रही है और चारों बच्चे मस्ती में खेल रहे हैं। दासियों से मिलकर वह कहती है कि वे जाकर उसकी मां से कह दें कि उसने तो अपनी बेटी का विवाह गधे से किया था लेकिन उसके चार बच्चों का जन्म हुआ है। इतने में रेंगटा भी घास चरकर वापस लौट आता है। रात का वक्त होता है, रेंगटा अपनी खाल उतार कर गंधर्वसेन बन जाता है। खाल को खूंटी पर टांग देता है। यह राज़ जानने के बाद मौका देखकर रानी दासियों को तेल देकर भेजती है कि वे जाकर रेंगटे की खाल को जला दें। रानी सोचती है कि ऐसा करने से रेंगटा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा और बदले में मनुष्य रूपी गंधर्वसेन बच जाएगा। खाल को दासियां जैसे ही आग लगाती हैं, गंघर्वसेन पानदे से कहता है, ‘‘अरे मेरी खाल में किसी ने आग लगा दी है, मेरा पूरा शरीर जल रहा है। तू तुरंत इस नगर को छोड़कर जंगल में चारों बच्चों को लेकर निकल जा। मैं बदला लेने के लिए आज इस नगर को तहस–नहस कर दूंगा।’’
पानदे चारों बच्चों को लेकर महल छोड़ जंगल में पहुंच जाती है। वहां घने जंगल का भयावह दृश्य देख जोर–जोर से रोने लगती है। उसे रोता देख चारों बच्चे भी रोने लगते हैं। सलीमादीत गोद में होता है। जंगल में खाने–पीने को कुछ नहीं मिलता। भूख के मारे आंचल में दूध आना भी बंद हो जाता है। छोटा बालक सलीमादीत भूखा मरने लगता है। इतने में सामने से नाहर और नाहरणी का जोड़ा आता दिखाई देता है। भरतहरी अपनी मां से कहता है कि नाहर–नाहरणी उन सब का शिकार कर खा जाएंगे इसलिए वह छोटे भाई को वहां छोड़कर आगे चले जाएं। पानदे सलीमादीत को नरसल पेड़ के नीचे रखकर बाकी तीनों बच्चों को लेकर वहां से चल देती है।
घनी रात का समय होता है। आगे चलकर वे ढोबा प्याड़ पर पहुंचते हैं। रात का पहरा लगाने के लिए पहले पहर में विक्रमादीत जागता है। ढोबा प्याड़ के पास स्थित बावड़ी के बड़ में काले सांप का वास होता है। विक्रमादीत को बड़ के पेड़ में चकवा–चकवी दिखाई देते हैं। विक्रमादीत की मौजूदगी से अनभिज्ञ वे आपस में बतियाते हैं कि अगर उनमें से कोई चकवे को मार कर खा जाए तो वह धारा नगरी का राजा बन जाएगा और चकवी कहती है कि अगर कोई उसे मारकर खा जाए तो वह रोज़ एक सोने की मोहर उगलेगा। चकवे–चकवी की बात सुनकर विक्रमादीत सोचता है कि वह दोनों का शिकार कर खुद चकवी को खा जाए तो रोज़ एक सोने की मोहर मिलेगी और भाई भरतहरी को चकवा खिला देगा तो उसे धारा नगरी का राज मिल जाएगा। दोनों का शिकार कर वह भरतहरी को जगाता है।
भरतहरी अपने भाई की बात सुन कर चकवे को खा लेता है और विक्रमादीत चकवी को खा जाता है। आधी रात का पहरा भी पूरा हो जाता है। इसके बाद पहरा देने की बारी भरतहरी की आती है, अब विक्रमादीत गहरी नींद सो जाता है। इतने में जिस बड़ के पेड़ में तीर से चकवा–चकवी का शिकार किया था उसमें से काला नाग नीचे उतरता है और विक्रमादीत को डस लेता है। विक्रमादीत की वहीं मृत्यु हो जाती है उसके मुंह पर चींटियां चढ़ने लगती हैं। सूरज उगता है तो पता चलता है कि उसकी मृत्यु हो चुकी है। पानदे अपने दूसरे बेटे को खोने के दुख में रोने लगती है। जिंदा बचे हुए भरतहरी और उसकी बहन भी जोर-जोर से रोने लगते हैं। मां विलाप करती है कि भगवान ने उसके भाग्य में यह सब दुख क्यों लिखे हैं।
अपने भाई की अंत्येष्टि के लिए खप्पन (क़फ़न) लाने के लिए भरतहरी शहर की ओर निकल जाता है। घना जंगल पार करते हुए वह धारा नगरी पहुंचता है जिसके दरवाज़े उसे बंद मिलते हैं। दरवाजे बंद देख भरतहरी दुखी होता है। उस समय धारा नगरी का कोई राजा नहीं होता क्योंकि जो भी राजगद्दी पर बैठता है उसे वहां का राक्षस व कामाख्या देवी खा जाते थे। भरतहरी को देख नगरवासी उसे राजा बनने का प्रस्ताव देते है। दुखी भरतहरी जवाब देता है कि वह तो अपने भाई की अंत्येष्टि के लिए खप्पन लेने आया है। लेकिन आखिर में उसे नगरवासियों का निवेदन स्वीकार करना पड़ता है। धारा नगरी का राजा बनने के पश्चात वह अपने भाई–बहन और मां को भूल जाता है।
भरतहरी को जब राक्षस की बात पता चलती है तो वह उसे रिझाने के लिए नगर के गेट से महल की राजगद्दी तक फूल बिछवा देता है और ऊपर से सुगंधित इत्र का छिड़काव करवा देता है। जैसे ही राक्षस महल में प्रवेश करता है वह मादक महक से मोहित हो जाता है। कामाख्या देवी भी भरतहरी से खुश हो जाती हैं। दोनों खुश होकर भरतहरी को वरदान देते हैं कि धारा नगरी पर अब वही राज करेगा। जंगल में पानदे अपने दोनों बच्चों और विक्रमादीत की लाश के साथ भाई के लिए खप्पन लेने गए भरतहरी का इंतजार करती बैठी रहती है। पानदे के दुख को देख शंकर भोलेनाथ प्रकट होते हैं और अपना नाद बजाते हैं। काला नाग पेड़ से उतर कर विक्रमादीत के शरीर का सारा ज़हर चूस लेता है। शंकर द्वारा अमृत जल के छींटे देते ही वह उठ खड़ा होता है। विक्रमादीत को जिंदा कर शंकर अपनी धूनी पर वापस चले जाते हैं।
एक दिन धारा नगरी में चोरी हो जाती है जिसमें डकैत गायों को चोरी कर के ले जाते हैं। बस्ती गायों को छुड़ाने के लिए भरतहरी से निवेदन करती है। भरतहरी अपने घोड़े पर सवार हो डैकतों के पास जाता है और देखता है कि डकैत हरी–पीली रंगीन जाजमों पर बैठे हुए हैं। उन हजार डकैतों का सरदार गणपतसिंह भी वहीं बैठा होता है। भरतहरी गणपतसिंह को ललकारते हुए गायों को छोड़ने के लिए कहता है। गणपतसिंह जवाब देता है कि अगर भरतहरी को जान बचानी है तो वह वहां से वापस लौट जाए। दोनों तरफ से युद्ध छिड़ जाता है। गणपतसिंह डकैत को हरा कर भरतहरी गायों को छुडा कर उसकी बेटी श्यामदे को ब्याह लाता है। भरतहरी श्यामदे को लेकर महल में आ जाता है। श्यामदे महल को देखकर पूछती है कि इतने बड़े महल में क्या वह अकेले ही रहते हैं। अगर उनकी छोटी बहन और भाई होते वह उनका लाड़ लड़ाती और अगर उनकी सास होती तो वह उनके पांव दबाती।
यह सब सुनकर भरतहरी को अपनी मां और भाई–बहन याद आ जाते हैं। उसे याद आता है कि वह सांप द्वारा डसे अपने भाई को वन में मृत छोड़ कर खप्पन लेने आया था। वह अपनी माता व छोटी बहन को जंगल में रोता छोड़ कर आया था। भरतहरी को उनकी याद सताने लगती है और वह उनसे मिलने के लिये व्याकुल हो जाता है। वह तुरंत जंगल की ओर लौट जाता है जहां उसने उन्हें आखिरी बार छोड़ा था। जंगल में पहुंच कर वह रोने लगता है। उसे रोता देख शंकर फिर से प्रकट होते हैं और उसके रोने का कारण पूछते हैं। भरतहरी का दुख सुनकर उसे आश्वस्त करते हैं कि उसे जल्द ही उसकी बिछड़ी मां व बहन–भाई वापस मिल जाएंगे। शंकर के कहे अनुसार भरतहरी को अपनी मां, भाई विक्रमादीत व बहन मेणावंती वापस एक ही जगह पर मिल जाते हैं। सब गले मिलते हैं। भरतहरी सभी को लेकर धारा नगरी के महल में लौट जाता है और फिर से वहां राज करने लगता है।
भाग-2
एक बार राजा भरतहरी चूचक शहर में गायों को डकैतों से छुड़ाने के गये। वहां उसने शंकर को बारह बरस की भक्ति करने के लिए वचन दिया था। इसलिए वह धारा नगरी का राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादीत को सौंप बारह बरस के लिए धारा नगरी छोड़ देता है। राजा भरतहरी का राज-पाट इतना शांतूपर्ण और खुशहाल रहता है कि वहां नाहर और बकरी एक ही कुण्ड से पानी पीते थे। ऐसा ही राज करने के लिए वह विक्रमादीत को सीख देता है और फिर भरतहरी घने जंगल की ओर प्रस्थान कर जाता है।
भरतहरी के जाने के पश्चात श्यामदे अपनी दासी को नौकर को बुलाने के लिए भेजती है। वह दासी को सिखाती है कि वह नौकर के पास जाकर यह बहाना बनाए कि महल में काला सांप आ गया है। नौकर के महल में आने के बाद रानी उसे अपने साथ प्रेम संबंध बनाने के लिए उकसाती है। एक दिन विक्रमादीत दोनों को महल में साथ–साथ देख लेता है। नौकर घबरा जाता है। नौकर को घबराते देख रानी कहती है कि उसे घबराने की ज़रूरत नहीं है। वह कहती है, ‘‘मैं ऐसा खेल रचूंगी कि अपने देवर को देश निकाला दिलवाऊंगी, उस पर काला दाग लगाऊंगी। थोड़े ही दिन में भरतहरी के बारह बरस पूरे होने वाले है। तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है।”
कुछ समय पश्चात् भरतहरी की भक्ति के बारह बरस पूरे हो जाते हैं। भरतहरी की भक्ति से खुश हो भगवान शंकर उसे अमर फल देकर भेजते हैं। भरतहरी धारा नगरी में प्रवेश कर घोड़े को अस्तबल में बांध कर महल में प्रवेश करता है। रानी नाराज दिखाई देती है। गुस्से में वह भरतहरी का हाथी दांत का चुड़ला मोड़ देती है। भरतहरी उसकी नाराजगी का कारण पूछता है। वह रानी से कहता है, ‘‘हे रानी! अगर तम्हें ठोकर लगी हो तो पहाड़ों को इस नगर से दूर करवा दूं। अगर पैरों में कांटा लगा हो तो बबूलों को डूंडा करवा दूं और अगर किसी ने तुम्हारे ऊपर उंगली उठाई हो तो मैं उसकी उंगली कटवा दूं। तेरे दिल में जो भी बात है वह तू मुझे बता।” रानी जवाब देती है, ‘‘हे मेरे राजन! मुझे तुम्हारे भाई विक्रमादीत का राज पंसद नहीं आया। तुम चाहो तो अपने नौकर व दासियों से पूछ लो।”
भरतहरी रानी की बात सुनकर विक्रमादीत को बुलाने के लिए भेज देता है। विक्रमादीत बड़े भाई के बारह बरस बाद घर लौटने की खबर सुन कर खुश होता हुआ महल में आता है। विक्रमादीत के महल में प्रवेश करते ही भरतहरी क्रोध में उसके जोर से सोटा लगा देता है और कहता है, ‘‘तुमने कैसा राज किया? मैं ऐसा राज संभला कर गया था क्या तुम्हें?” भाई के क्रोध को देख विक्रमादीत रोने लगता है। क्रोधित भरतहरी अपने भाई को छत के कड़े से उल्टा लटका देता है। नौकर भरतहरी को सलाह देता है कि वो विक्रमादीत को देश निकाला दे दे। भरतहरी उसकी बात मानते हुए अपने भाई को महल छोड़कर जाने का आदेश दे देता है। विक्रमादीत नगर को छोड़कर वहां से चला जाता है।
भरतहरी अपनी रानी पानदे को अमर फल खाने के लिए देता है। कहता है, ‘‘इसको खाने से तुम्हारी काया अमर हो जाएगी। यह भगवान शिव का दिया हुआ अमर फल है।” रानी विचार करती है कि अगर वह अमर फल खाएगी, तो जीवन भर उसे भरतहरी के बोल सुनने पड़ेंगे। रानी अमर फल को अपने नौकर को दे देती है। अमर फल लेकर नौकर सोचता है कि वह उसे खाकर कब तक राजा के घोड़े की लीद झाड़ता रहेगा। नौकर अमर फल राजा के चरवरदार को दे देता है। चरवरदार भी उसे यह सोचकर नहीं खाता कि वह हमेशा के लिए राजा के घोड़ों को घास खिलाता रहेगा। वह दासी को दे देता है। दासी अमर फल लेकर सोचती है कि अगर वह उसे खा लेगी तो जन्म तक वह रानी के कपड़े ही धोती रहेगी। वह भी उसे नहीं खाती और गांव के पुजारी को जाकर दे देती है। वह पुजारी से कहती है कि मंदिर को दान स्वरूप बावन गढ़ों का गढ़पति राजा भरतहरी उसे आधा राज देगा। पुजारी भी उसे यही सोचकर नहीं खाता कि उसे मंदिर में हमेशा के लिए सुबह–शाम आरती ही करते रहनी पड़ेगी। वह कब तक लोहे की झालर बजाता रहेगा। पुजारी अमर फल को राजा भरतहरी को देने का विचार करता है, जिसके बदले में वह सोचता है कि भरतहरी उसे अच्छा दान और इनाम देगा।
अमर फल घूमता फिरता राजा भरतहरी के पास आ जाता है। भरतहरी अमर फल को देखकर रानी से पूछता है कि उसका दिया हुआ अमर फल कहां है। रानी कहती है कि उसने तो उसे तभी खा लिया था। भरतहरी पुजारी को महल में बुलाता है और पूछता है कि उसके पास अमर फल कहां से आया। घबरा कर पुजारी बताता है कि उसे वह अमर फल दासी ने दिया था। राजा दासी से पूछता है तो दासी कहती है कि उसे अमर फल चरवरदार ने दिया था। इसी प्रकार चरवरदार बताता है कि उसे नौकर ने दिया था। नौकर भी सारा राज खोलते हुए रानी का नाम बता देता है। यह अब सच्चाई जानकर भरतहरी महल में दुखी होता है कि रानी ने उसे धोखा दिया और उसकी गलत बातों में आकर भाई विक्रमादीत को दंडित कर महल से निकाल दिया। उसे अपनी गलती का पश्चाताप होता है।
उधर विक्रमादीत देश निकाला मिलने के बाद एक बनिये के यहां नौकरी कर लेता है। बनिये का एक ही बेटा होता है, जो एक आंख से लाचार होता है। उसका रिश्ता एक बनिये की लड़की से तय कर दिया जाता है। लड़की का पिता लड़के वालों को संदेशा भिजवा देता है कि बारात में आंख से लाचार एक भी जना ना आये। इस समस्या का हल निकालने के लिए सेठ तरकीब निकालता है कि वह अपने बेटे की जगह विक्रमादीत के साथ लड़की के फेरे लगवा देगा और बाद में दुल्हन को अपने लड़के के साथ रख लेगा। विक्रमादीत को दूल्हा बना दिया जाता है और सेठ की लड़की के साथ उसके फेरे हो जाते हैं। सेठ की लड़की का नाम पिंगला होता है। विवाह के समय विक्रमादीत उसकी ओढ़नी के पल्ले पर लिख देता है कि वह फेरे तो राजा के कंवर विक्रमादीत के साथ खा रही है लेकिन बाद में उसे सेठ के एक आंख से लाचार लड़के के साथ रहना पड़ेगा।
सेठ शादी कर पिंगला को अपने घर ले आता है। वह नई दुल्हन को तो अपने लड़के के पास रख देता है और विक्रमादीत से पूर्व की भांति काम करवाने लग जाता है। सेठ–सेठानी नई दुल्हन को देवी–देवता ढुकाने के लिए ले जाते हैं। विक्रमादीत के लिखे शब्दों को पिंगला पढ़ लेती है और सेठ के लड़के के साथ देवी–देवता ढोकने से मना कर देती है। वह हठ पकड़ लेती है कि वह तो विक्रमादीत के साथ ही रहेगी जिसके साथ उसने फेरे खाए हैं। सेठ–सेठानी राजा के पास जाकर विक्रमादीत की शिकायत करते हैं। राजा के सैनिक विक्रमादीत को पकड़ने के लिए आते हैं और कैद कर राजा भरतहरी के सामने पेश करते हैं। भाई को देख भरतहरी रोने लगता है और अपने गले लगा लेता है। सैनिकों को आदेश देता है कि उसे कैद से आजाद कर दें। दोनों भाई महल में मिलते हैं। भरतहरी अपनी गलती की माफी मांगता है। भरतहरी अपनी गलती का पश्चताप करते हुए रानी श्यामदे को कड़े से उल्टा लटकवा देता है और देश निकाला दे देता है। विक्रमादीत मना करता है, लेकिन वह उसकी एक नहीं मानता।
भरतहरी विक्रमादीत की कुशलक्षेम पूछता है कि वह देश निकाला देने के बाद कैसे रहा, बारह साल कहां व्यतीत किये? विक्रमादीत बताता है कि वह एक बनिये के यहां रहा था व सेठ की लड़की पिंगला से उसने ब्याह किया था। दोनों भाई गले लगते हैं। कुछ समय बाद भरतहरी भी सींगल शहर के राजा प्रक्षित की बेटी पिंगला से शादी कर लेता है। धारा नगरी का नाम बदल कर उज्जैन शहर रख देता है। राजा भरतहरी धर्मावतारी राजा के रूप में प्रसिद्धि पाता है।
भाग-3
गुरु गोरखनाथ के साढ़े चौदह सौ चेले थे। उनके सभी धूणों पर चेले तपते थे, लेकिन एक धूणा खाली पड़ा रहता था। एक दिन चेले गोरखनाथ से पूछते हैं, ‘‘महाराज यह एक धूणा खाली क्यों पड़ा रहता है?” गोरखनाथ जवाब देता है कि इस धूणे पर राजा भरतहरी आकर तपेगा। वह उसी के लिए खाली पड़ा है। चेले फिर से पूछते हैं, ‘‘राजा भरतहरी तो बावन गढ़ों का गढ़पति है, वह क्यों आकर धूणा तपेगा?” गोरखनाथ अपने दो महात्मा चेलों को आदेश देता है कि वे जाकर भरतहरी के द्वार अलख जगाएं और दान में हीरामृग की खाल मांगें। गोरखनाथ का आदेश पाकर महात्मा ऐसा ही करते हैं। भरतहरी उन्हें हीरामृग की खाल लाकर देने के लिए तीन दिन का समय मांगता है।
उधर सत्तर हिरणियों का स्वामी, उनका एक ही पति, हीरामृग होता है। एक दिन हिरणियों ने विचार किया कि वे धर्मावतारी राजा भरतहरी के राज में चली जाएं जहां वे काले माल में चरेंगी और शिप्रा नदी के घाट पर पानी पीएंगी। वहां उनके पतिदेव हीरामृग को कोई नहीं मारेगा। उन्हें नहीं मालूम होता कि राजा भरतहरी तो हीरामृग का दुश्मन बन गया है। इधर राजा भरतहरी शिकार में जाने के लिए अपने घुड़साल से नौलखा घोड़ा निकालता है। राजा भरतहरी की पत्नी पिंगला को आगे–पीछे छह महीने की सारी बातें मालूम होती हैं, वह शिकार पर जाने से भरतहरी को मना करती है। लेकिन राजा भरतहरी नहीं मानता, वह पिंगला से कहता है कि वह शिकार खेलने जाने के लिए तन के पांच कपड़े और उसका भाला दे दे। पिंगला कई बार भरतहरी से हाथ जोड़ कर निवेदन करती है कि वह अशुभ घड़ी को टाल दे। लेकिन भरतहरी जवाब देता है कि एक बार घोड़ी पर सवार होने के बाद वह वापस नीचे नहीं उतरेगा।
भरतहरी काले हिरण का शिकार करने के लिए अपने सैनिकों को लेकर तैयार हो जाता है। रास्ते में कई अपशकुन होते हैं—बायीं ओर उल्लू बोलता दिखाई देता है, दायीं तरफ सियार के रोने की आवाज आती है और पिंगला के हाथ का हाथी दांत का चूड़ा मुड़ जाता है। रानी पिंगला कहती है कि वह विधवा हो जाएगी लेकिन इस सब को नजरअंदाज करते हुए भरतहरी काले हीरामृग का शिकार करने के लिए वन में शिप्रा घाट पर पहुंच जाता है। दिन थोड़ा सा बाकी रह जाता है। राजा भरतहरी शिप्रा नदी के घाट पर तम्बू–डेरे डाल देता है। इतने में काला हिरण व सत्तर हिरणियां नदी के घाट पर पानी पीने आ जाती हैं। आधी हिरणियां पानी पीने लगती हैं, बाकी की आधी राजा भरतहरी की ओर झांकती हुई पूछती हैं कि हैं, ‘‘हे बावन गढ़ों के गढ़पति! आज तुम कैसे अपनी फौज लिए शिप्रा नदी के घाट पर खड़े हो? हमने तो तुम्हारा नाम बड़े धर्मावतारी राजा होने का सुना है, फिर इस फौज की जरूरत कैसे पड़ गई? कहीं तुम घर से नाराज होकर तो नहीं आए हो यहां? क्या तुम अपने मां–बाप या पत्नी से नाराज हो गए हो? ऐसा है तो तुम जिस तरह यहां आए हो, उसी तरह वापस उज्जैन शहर लौट जाओ।” हिरणियों का सवाल सुन कर राजा भरतहरी जवाब देता है, ‘‘हे हिरणियों, मैंने सुना है कि तुम सत्तर हिरणियों का स्वामी एक हीरामृग है। मैं उसका शिकार करने यहां आया हूं।”
भरतहरी की बात सुन हिरणियां स्तब्ध रह जाती हैं और इसका कारण पूछती हैं। वे कहती हैं, ‘‘हे राजा हमारे पति को क्यों मारते हो? उसके बिना हम सत्तर हिरणियां वन में विधवा डोलेंगी। अरे राजा काले हिरण को फंसाने के लिए किसने घोड़े की हरी घास डाली है? तू चाहे तो हमारे में से दो की जगह चार मार ले लेकिन हमारे भरतार को छोड़ दे।” राजा भरतहरी कहता है कि वह काले हिरण को मारे बिना नही लौटेगा। वे आखरी बार उसके दर्शन कर अपने दिल की बातें उससे कर लें। सुबह होते ही वह हीरामृग का शिकार करेगा। यह सुन कर हिरणियां इधर–उधर भागने–दौड़ने लगती हैं। हिरणियों को भागते देख हीरामृग उन्हें रोकता है। कहता है कि वे डर कर अपनी माता का दूध न लजायें। हीरामृग भरतहरी से कहता है, ‘‘जिस प्रकार तुम पिंगला के पति हो उसी प्रकार मैं भी सत्तर हिरणियों का पति हूं। तेरे जैसे कोई साढ़े तीन सौ लोग मुझे मारने की पहले कोशिश कर चुके हैं। उनकी कोशिश व्यर्थ गई।” यह सुन कर राजा भरतहरी क्रोधित हो जाता है और घोड़े पर चढ़ हीरामृग को मारने के लिए अपना भाला फेंकता है। हीरामृग अपने को बचाते हुए लपक कर जमीन पर चिपक जाता है। भरतहरी घोड़े से गिर जाता है, उसके सभी अस्त्र–शस्त्र भी नीचे गिर जाते हैं। वह घोड़े को दोषी ठहराते हुए कहता है कि उसकी गलती की वजह से हीरामृग जिंदा बच गया।
घोड़ा भरतहरी को राय देता है कि वह धरती माता के तीन ढोक लगाकर फिर से उसकी पीठ पर सवार हो जाए। वह उसे आकाश में ले उड़ेगा। भरतहरी घोड़े की बात मानते हुए ऐसा ही करता है। वापस घोड़े की पीठ पर सवार हो एक और भाला हीरामृग पर छोड़ देता है। भाला हीरामृग का सीना चीरता हुआ उसके प्राण ले लेता है। मरते हुए काला मृग राजा भरतहरी से वचन लेता है। पहला यह कि उसके चारों पांव वह किसी कायर चोर को दे दे जो उसकी जान बचा लेंगे। दूसरा वचन यह मांगता है कि वह उसका कलेजा किसी बनिया सेठ को दे दे जो हमेशा उसे छांव में ही रखेगा। उसके सींग किसी नाथ–जोगी को दे दे जिससे उसकी आवाज घर–घर में गूंजेगी। उसकी आंखें किसी चंचल नारी को दे दे जो हमेशा उन्हें परदे में रखेगी और पांचवा वचन यह मांगता है कि उसकी खाल बाबा गुरू गोरखनाथ को दे दे जिससे उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी। राजा भरतहरी से ये वचन लेकर हीरामृग शिप्रा नदी किनारे अपने प्राण त्याग देता है।
भरतहरी मृत हीरामृग को घोड़े की पीठ पर लाद कर उज्जैन शहर की ओर लौट जाता है। रास्ते में सत्तर हिरणियां उसे चारों ओर से घेर लेती हैं। जैसे सावन भादों में बादल गरजते हैं, उसी प्रकार हिरणियों की आखों से आंसू नही थमते। वे भरतहरी से कहने लगती हैं, ‘‘राजा! तुम हमारे दुश्मन निकले, हम सब को तुमने विधवा बना दिया है। हमारे जीवन में अंधेरा कर दिया है।” बदले में मृग भरतहरी को श्राप देता है कि वह भी अब अपनी पत्नी का साथ छोड़ जोगी बन जाएगा। उधर बाबा गुरू गोरखनाथ की धूणी भी थर्रा जाती है। हिरणियों को रोता छोड़ कर भरतहरी उज्जैन शहर की ओर चल देता है।
रास्ते में बाबा गोरखनाथ धूणा लगाए बैठा मिलता है। गोरखनाथ को देख भरतहरी सोचता है कि वह काले हिरण की इच्छानुसार उसकी खाल गोरखनाथ को भेंट करने से उसके पापों का बोझ कम हो जाएगा। भरतहरी के घोड़े पर मृत हिरण देख गोरखनाथ उसे डांटते हुए कहता है, ‘‘ओ पापी! तू जंगल से यह क्या पाप कमा लाया? सत्तर हिरणियों के पति को मार कर तूने घोर पाप किया है!” भरतहरी जवाब देता है, ‘‘मैंने तो सिर्फ एक हिरण को ही मारा है लेकिन तुम ने तो जंगल के सैंकड़ों हरे पेड़ों को धूणी के हवाले कर दिया है। क्या उसका पाप नहीं लगता? मैं तुम्हें असली जोगी तब मानूं जब तुम मेरे द्वारा मारे गए हीरामृग को जिंदा कर दो।” भरतहरी की बात सुन गोरखनाथ उससे पूछता है कि अगर वह हीरामृग को जिंदा कर दें तो बदले में वह उसे क्या देगा। भरतहरी कहता है कि गोरखनाथ ने अगर ऐसा चमत्कार कर दिया तो वह उसका चेला बन जाएगा व जिंदगी भर उस घने जंगल में उसकी सेवा करेगा।
भरतहरी काले हिरण को घोड़े से उतार लेता है। गोरखनाथ ने जैसे ही नाद बजाया और अमृत जल के छींटे दिये वैसे ही हिरण जिंदा हो गया। बाबा गोरखनाथ का यह चमत्कार देख भरतहरी विचार करता है कि यह ज्ञान तो उसे भी सीखना है जिससे कि उज्जैन शहर में किसी को ऐसा ही कुछ हो जाए तो वह भी उसे जिंदा कर सके। भरतहरी गोरखनाथ के समक्ष अपनी इच्छा जाहिर कर देता है और निवेदन करता है कि वह उसे जल्दी से अपना चेला बना लें। गोरखनाथ भरतहरी की पहली परीक्षा लेते हुए कहता है कि अगर वह अपनी रानी पिंगला को बहन कह कर भिक्षा ले आए तो वह उसे अपना चेला स्वीकार कर लेगा।
भरतहरी अपने नौलखे घोड़े और अस्त्र–शस्त्रों को जंगल में त्याग, भगवा कपड़े धारण कर लेता है। गले में माला पहने, नाद बजाते हुए वह भिक्षा मांगने के लिए निकल जाता है और पिंगला के पास आकर कहता है कि वह अब जोगी हो गया है। पिंगला को माता–बहन संबोधित करते हुए कहता है कि वह उसे भिक्षा दे दे, उसे तो अब बाबा गोरखनाथ के पास भगती करनी है। भरतहरी की ऐसी बात सुन कर पिंगला का दिल टूट जाता है और वह फूट–फूट कर रोने लगती है। पूछती है कि ऐसा उल्टा ज्ञान उसे किसने दे दिया है। अगर उसे ऐसा पहले से पता होता तो वह भरतहरी से कभी विवाह नहीं करती। वह कोसते हुए कहती है कि जिस नाई ने उसकी विवाह रस्म करवाई थी उसको काला नाग डसे और जिस ब्राह्मण ने कांकड़–डोरे बांधे थे उस पर तेज बिजली गिरे। यह सोचते हुए कि अब आगे भविष्य में क्या होगा पिंगला जोर–जोर से विलाप करती है।
राजा भरतहरी कहता है कि वह तो अब धूणी पर तपने के लिए घने जंगल में जाकर अपना धूणा लगाएगा और जोगी बनेगा। वह पिंगला से कहता है कि वह विक्रमादीत को राज संभला देगा जो उसका ख्याल रखेगा, लेकिन रानी इसके लिए राजी नहीं होती। कहती है कि वह उसे गलत बोल बोलेगा। भरतहरी कहता है कि ऐसा है तो वह अपनी बहन के पांच पुत्रों में से किसी एक को राजा बना ले। पिंगला कहती है कि वह कब तक लोगों के बोल झेलेगी कि खुद का कोई पुत्र ना होने की वजह से पराए पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दिया। पिंगला भरतहरी से निवेदन करती है कि वह उसे भी अपने साथ जोगनिया बना कर ले चले। उसके तो अभी दूध के दांत भी नही गिरे हैं वह अपना बचा हुआ जीवन कैसे काटेगी। भरतहरी कहता है कि लोग उसके जोगी होने पर वहम करेंगे और उसे कभी जोगी नहीं मानेंगे। भरतहरी पिंगला से अंतिम विदा लेते हुए जब आगे बढ़ने लगता है तो पिंगला पूछती है कि आज का गया वह कब वापस लौटेगा। भरतहरी कहता है, ‘‘जवानी और माया मेहमान की तरह है, इसे जाते देर नहीं लगती और जो विधाता ने लेख लिख दिए हैं, उसे कोई नहीं टाल सकता।” पिंगला कहती है कि उसके बिना महल सूना हो जाएगा, उज्जैन नगर फीका लगने लगेगा, उस पर कौवै बैठेंगे। उसका श्रृगाल उसे ही खाने दौड़ेगा। रानी पिंगला भरतहरी को बहुत समझाती है, कई निवेदन करती है, लेकिन भरतहरी जोगी बनने के अपने निर्णय पर अडिग रहता है। आखिर में वह भरतहरी को भिक्षा दे देती है। भरतहरी वहां से चल देता है। पीछे से पिंगला विलाप करती हुई रह जाती है।
राजा भरतहरी कानों में मंदरा पहने, गले में सेली और हाथ में सुमरण नाद ले गुरु गोरखनाथ के पास जंगल में आ जाता है। गुरु के चरणों में सिर झुका वह आशीर्वाद पाता है कि उसका नाम हमेशा के लिए अमर हो जाएगा। संसार उसका नाम लेकर गाता रहेगा, बजाता रहेगा और उसकी कथा सुनाता रहेगा। राजा भरतहरी जोगी बन छह महीने तक कुछ नहीं खाता। उसके सत की वजह से एक दिन गोरखनाथ का सिंहासन कांप उठता है। गोरखनाथ उसकी तपस्या से खुश होकर उसे वरदान देता है कि वह अब जोगी बन खूब तपस्या करे, दुनिया में घूमे, सद्मार्ग पर चले व माता–बहन कह कर भिक्षा मांगे।
राजा भरतहरी रमते–रमते अलवर नगर के बाजार में आ जाता है। वहां बारह साल तक एक प्रजापत के घर रहता है। बारह साल में जब एक दिन बाकी रह जाता है तो रमते–रमते वह एक गूजरी के यहां आकर अलख जगाता है और अपना नाद बजाता है। भिक्षा में एक कटोरा दूध पिलाने के लिए कहता है। गूजरी जवाब देती है कि उसका घर चलते रास्ते के पास है, वहां लाखों लोग आते–जाते रहते हैं। इस तरह वह किस–किस को दूध पिलाएगी। उसके पास दूध तो नहीं है लेकिन दो दिन पहले की छाछ जरूर पड़ी है जिसे वह जितना चाहे पी सकता है। दूध तो वह अपने हाली को ही देगी जो दिन रात उसके खेतों पर काम करता है। भरतहरी गूजरी से नाराज होकर आगे चल देता है और गूलर के पेड़ के नीचे आकर धूणी लगा लेता है। अपने झोली–झंडे पेड़ पर टांग देता है। नाराज भरतहरी भैरू को बुला कर गूजरी की गायों को चमका देता है जो खूंटे तोड़ कर पहाड़ी में चली जाती है। गूजरी की गायें–भैसों के थनों में कीलें पड़ जाते हैं। वे खल–कांकड़े खाना छोड़ देती हैं। उसके बैल भी खाना खाना छोड़ देते हैं।
गूजरी को अपनी गलती का एहसास होता है और वह भरतहरी को ढूंढने जंगल की ओर निकल जाती है। तेज बारिश में भीजती गूजरी भरतहरी को चारों तरफ ढूंढती फिरती है। रास्ते में उसे ग्वाले मिलते हैं, जिनसे वह भरतहरी का ठिकाना पूछती है। आखिर में गूजरी भरतहरी को ढूंढ लेती है और उसके चरणों में ढोक लगाती हुई अपनी गलती के लिये क्षमा मांगती है और वचन देती है कि वह हर भादवा की छठ–साते को उसका मेला भरवाएगी व अष्टमी के दिन रसोई कर भोग लगाएगी। यह परम्परा आज भी जारी है। अलवर में गूजरी के परिवार के लोग ही भरतहरी का जागरण करवाते हैं और उन्हीं का सबसे पहले भोग लगता है।
(साभार : मदन मीणा ।
वरिष्ठ कलाकार एवं शोधार्थी, राजस्थान के शिल्पकारो एवं कलाकारों की बीच सक्रिय । मीणा जनजाति की कला विषय पर पीएचडी की उपाधि।)