रफ़ूगर (पंजाबी कहानी) : देवेन्द्र सत्यार्थी

Rafoogar (Punjabi Story) : Devendra Satyarthi

(1)

आसमान जैसे फटे पशमीने का शामियाना।

नील गगन पे दूधिया मेघ, जैसे मधुबन में मस्त हाथी। हिन्दोस्तान की क़सम। कारवाँ सराय सलामत या इलाही मिट ना जाए दर्द-ए-दिल!

तुरही वाला सफ़ेद घोड़े पर काला शह-सवार।

तुरही बजी... पहले देवगीरी बिलावल फिर माल्कोस!

दूकान की ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ के आई आईना ख़ानम और रफ़ूगर से बोली,

“पहले मेरी शाल रफ़ू कीजिए। पेशगी मज़दूरी।”

पाँच का नोट देकर वो चली गई।

जिसकी चाहो सौगन्द ले लो। कोई राय क़ाएम करनी मुश्किल।

दिल की दिल ही में रही बात न होने पाई।

बरगद की आँख में अबाबील का घोंसला, जहाँ सूरज की पहली किरन दाख़िल होती।

बरगद तले पगली भिकारन बड़बड़ाती,

“कुछ न कहो लोगो, मेरे अ’ली को कुछ न कहो।”

कारवाँ सराय अपनी ख़बर रखती है। महबूब की सरगोशी हो या माँ की लोरी।

जिनके क़दमों के निशान मिट गए, हम उनका कोई पता न लगा सके।

रफ़ूगर अ’ली जू इमाम की गुंबद वाली दूकान। ऊँची सीढ़ियाँ, तीन खिड़कियाँ।

दोस्ताना जज़्बे से चमकती आँखें। जग दर्शन का मेला। कौन गुरू कौन चेला।

तुरही वाला अपनी धुन अलापता रहा।

वही कारवाँ सराय, वही बेगम बाज़ार, वही दौड़ती नज़रें। और वही गुम होती परछाईयाँ। सबकी तवज्जोह का मर्कज़ अ’ली जू इमाम।

ये अ’ली जो तू हुआ, ये अ’ली जू इमाम क्या हुआ?

पीर बावर्ची बिहिश्ती ख़र,

हर फ़न मौला।

कोई उसे अ’ली कहता, कोई इमाम। कोई उस्ताद।

उसके हाथ दुआ’ के लिए ऊपर उठ गए।

या पीर, दस्तगीर, रौशन ज़मीर!

सामने दीवार पर काला रेशम, सुनहरे हुरूफ़, फ़ाख़्ती चौखटे में जड़ा शाइ’र का कलाम, रस्म-उल-ख़त को सलाम,

ढोते ढोते पर्बत ग़म का, पाँव में पड़ गए छाले
बैन करे दीवानी पछुवा, रो दिए मातम वाले

अनहोनी का चाक-ए-गरीबाँ, कौन रफ़ू कर पाए
बोल सपेरे! तुमने अब के, कितने फनीअर पाले

बग़ल वाली दीवार पर लाल सूफ़ी के साथ रफ़ूगर की तस्वीर। दोनों की हँसी हम-आग़ोश। बीस बरसों पहले की यादगार।

लाल सूफ़ी होता तो यहीं से शुरू’ करता अपना सफ़र-नामा,

मैख़ानों का आ’म रवैया, धींगा मुश्ती ताता-थैया,
सिद्धि का चमत्कार

मन के आर-पार
मज़ार-ए-गुल शहीद पर क़व्वाली की रात।

आते-जाते लोग। कारवाँ सराय ख़ुश, महफ़िल में चहल-पहल।
कहानी का क्या कमाल, सपना नहीं अगिया बैताल।

रफ़ूगर की नन्ही-मुन्नी नवासी जुगनी अपनी गुड़िया से खेलते हुए गीत का बोल उछालती,

जाग अरी जन्नत की गुड़िया

जाग अरी जन्नत की चिड़िया
खाले ये पच-मेल मिठाई

ओ री गुड़िया! ओ री चिड़िया

लाल सूफ़ी होता तो जुगनी के साथ सुर में सुर मिलाकर गाता।

पन्नालाल की तान यहीं टूटती कि सब कुत्ते काशी गए तो हंडिया किसने चाटी!

लाल सूफ़ी को औलाद अहमद और वारिस मा’सूम का सलाम। उसका एक और नाम गुल शहीद।

ख़लील और रहमान ने ये कह कर दम लिया कि लाल सूफ़ी तो जवानी में बुढ़ापे का मज़ा लेता रहा।

“अल्लाह मेघ दे रे अल्लाह मेघ दे!”, गुनगुनाते हुए औलाद अहमद रफ़ूगर की दूकान में आया और एक कोने में बैठ गया।

चंचल सिंह और पन्नालाल का वही मज़ाक़ कि आ रही है चाय दार्जिलिंग से,

आचार्य महादेव “दस आए दस गए!” कहते हुए किताब महल की तरफ़ चल दिए।

गुल आईना ख़ानम की मोड़ पर बूढ़ा बरगद, रफ़ूगर का पड़ोसी। अमीर ख़ुसरो की कह-मुकरनी।

उस्ताद से पूछा, “आपकी उ’म्र?”

बोले, “बरगद से पूछ लो।”

बरगद की दाढ़ी हँसने लगी। जैसे हवा कह रही हो कि बूढ़ा बरगद सब जानता है।

जुगनी से पूछा, “तुम्हारी उ’म्र?”

“मेरी गुड़िया से पूछ लो।”, वो हँस पड़ी।

आगे चलते हैं, पीछे की ख़बर नहीं... का’बा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे...

जो सबसे पीछे रहना चाहता है, उसी को सबसे आगे बढ़ाती है कारवाँ सराय। एक ही दा‌व में पासा पलट सकता है।

वो ख़ुदसिताई कभी न करता। गाहक से यही कहता, “शायद मेरा काम आपको पसंद न आ सके!”

अगर किसी को उसका काम पसंद न आता तो वो झगड़े में पड़ने की बजाए साफ़-साफ़ कह देता, “आप कुछ भी न दीजिए और रफ़ू की हुई अपनी अचकन लेते जाईए।”

पन्नालाल जुगनी को चिड़िया कह कर छेड़ता तो वो कहती,

“वो चिड़िया जापान गई!”

रफ़ूगर के अब्बा दस्तगीर की मौत पर चंचल सिंह अफ़सोस करते हुए कहता,

“आगे मरना पीछे मरना, फिर मरने से क्या डरना!”

किसी के हाथ में कई तहों में लिपटा हुआ काग़ज़।

किसी की बात चॉकलेट और बिस्कुट के बीच।

किसी की नज़र एक कोने में पड़ी जुगनी की लहंगे वाली गुड़िया पर।

पत्थर की दीवार पर रंग बिरंगे पोस्टर,

“सच को सूली।”

“आँख का पानी मर गया।”

“ढाई दिन की बादशाही।”

“पाँव में सनीचर।”

“सफ़र-नामा इब्न-ए-बतूता।”

“चूड़ियाँ पहन लो।”

“सफ़ेद घोड़े पर काला शह-सवार।”

अमृत गेस्ट हाऊस के आगे मुग़ल-ए-आ’ज़म होटल। और बेगम पुल से आगे तुर्कमान दरवाज़ा।

भूल-भुलय्याँ और बारह-दरी के बीच किताब महल।

बुकलैंड प्रैस की बग़ल में लिबर्टी कैंटीन।

कहीं ऊपरकोट, कहीं नीचा नगर।

कहीं उशा डीलक्स, होटल, कहीं मटिया महल।

कारवाँ सराय का नाम बदल कर पांडूलिपि रख दिया।

ये और बात है कि लोगों की ज़बान से कारवाँ सराय नहीं उतरती।

वाह री कारवाँ सराय,

नदिया में मछली जाल

भिकारन फटे हाल

नाम बनफूल बाई।

उसकी हथेली पर पाँच पैसे का सिक्का रखना न भूलता अ’ली जू इमाम। और हथेली में गुदगुदी होने लगती।

कल की नर्तकी आज की भिकारन। सोने-चांदी के सिक्कों की खनक उसके पाँव चूमती थी।

पाँच पैसे का सिक्का लेते वक़्त आज उसकी आँखें पाँव की तरफ़ झुक जातीं।

कौन सी दास्तान सुनोगे? कुछ सुनाएँगे, ज़रा और क़रीब आ जाओ।

दो नैनों की एक कहानी
माँ की लोरी एक निशानी

जो गुज़रोगे उधर से, मेरा उजड़ा गाँव- देखोगे

शिकस्ता एक मस्जिद है, पुराना एक मंदिर है

“उ’म्र-भर कौन महव-ए-रक़्स रहा?”, रफ़ूगर ने रफ़ू करते हुए पूछा।

नग़्मे की सौग़ात। क़व्वाली की रात। सही गए, सलामत आए।

शिलालेख के रूप में किस युग की रचना आगे आई।

नन्ही-मुन्नी जुगनी और उसकी बड़ी बहन नसीम।

“तो नसीम की बहन है जुगनी?”, पन्नालाल ने पूछा।

“नहीं नसीम मेरी बहन है।”, वो हँस पड़ी।

कहाँ तक चुप रहें, जब सर से ऊपर हो गया पानी!

आचार्य महादेव ये कहते हुए महल में आए कि सौ सुनार की, एक लोहार की।

“सोने से महंगी घड़ाई!”, वारिस मा’सूम ने थाप लगाई।

“राम दुहाई राम दुहाई!”, सबकी मिली जुली आवाज़।

“वो अपना दामन छुड़ा कर चली गई। कामरूप के पास जा कर रुकेंगे उसके क़दम।”, औलाद अहमद ने कहा। इशारा बनफूल बाई की तरफ़।

बरात-ए-आशिक़ाँ बर-शाख़-ए-आहू... हिरन के सींग पर आशिक़ों की बरात।

कुछ और पूछिए, ये हक़ीक़त न पूछिए!

फूलों जैसे बाज़ू, थकन से चूर!

अपनी गुड़िया का ब्याह रचाई, जुगनी गाती रही,

धूईं-धूईं तू घर को जा

तेरी माँ ने ख़ीर पकाई!

बनफूल को देखकर रफ़ूगर बादशाह बन जाता। गोया उसके हाथों में अशर्फ़ियाँ खनकने लगतीं।

तीस दिन, चालीस मेले
मेले में सब लोग अकेले

हम कहाँ सबसे अलग?
आज पुरवइय्याँ चली पछुवा के बा’द

मरने वाले की नहीं, जीने वाले की मौत!
ऐ रोशनी-ए-तबा’ तू बरमन बिला शुदी

“मैं तो बनफूल को चित्रलेखा से कम नहीं मानता।”, पन्नालाल का ऐ’लान।

वो सोचता एक दिन बनफूल सड़क पर चलते चलते ढेर हो जाएगी। और उसकी अर्थी के साथ-साथ चलती हुई भीड़ कंधे बदलती रहेगी।

कारवाँ सराय का यही एहसास कि अ’ली जू इमाम जिसका भी काम करता है, बड़ी ईमानदारी से और दिन रात एक कर के।

वो तो गाहक को अन्नदाता मानता था।

उसकी नज़र परिंदों के अस्पताल पर, जिसका संग-ए-बुनियाद लाल सूफ़ी ने रखा था।

चंचल सिंह बात को घेर-घार कर लाहौर तक ले आया,

“लाहौर शहर”,

गुरबानी का शबद... जाने कौन सा इशारा

“यहीं रहना है, जब तक सूई धागे का साथ है।”, रफ़ूगर का अपना अंदाज़।

“तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला!”, औलाद अहमद ने अपनी किताब का हवाला दिया।

“सौ साल जिएँ, सौ साल देखें।”, आचार्य महादेव की तान यहीं टूटती कि मंदिर में देवता जागे।

चंचल सिंह ये कह कर दम लेता कि वो पानी मुल्तान रह गया!

औलाद अहमद के ज़ोर-ए-क़लम का नतीजा, “अधूरा आदमी, आधी किताब।”

पन्नालाल का क़द... सवा तीन फ़ुट मगर उसका यही दा’वा,

“मैं लंका से आया!”

जैसे वो अपने आपको बावन गज़ा मानता हो।

गली आईना ख़ानम की शान... नौ-गज़े की ज़ियारत, सब पर मेहरबान।

गुड़िया से बातें करते करते जुगनी बोल उठी,

“अल्लाह अल्लाह लोरियाँ, दूध-भरी कटोरियाँ!”

राग रागनी हाथ बाँधे खड़ी रहती।

“पाँव तले पुरखों की हड्डियाँ।”, आचार्या महादेव ज्ञान बघारते।

सर-कटे धड़ को दफ़ना कर मज़ार-ए-गुल शहीद का नाम दिया गया।

लाल सूफ़ी का एक और नाम... गुल शहीद।

औलाद अहमद की किताब का इंतिसाब... गुल शहीद के नाम।

“लोगों के दिमाग़ भी रफ़ू होने चाहिएँ!”, रफ़ूगर मुस्कुराया।

आँख की पुतली... पुतली बाई... कार-ए-जहाँ दराज़ है

मोतीझील ग़ाइब... अब वहाँ चित्रलेखा कॉलोनी की चहल-पहल।

गांधी गार्डन... कंपनी बाग़ का नया नाम।

कभी आवाज़ का चेहरा, कभी पहचान चेहरे की

ख़ुश्बू से कहो ये कि हमारी तरफ़ आए!

भुस में आग लगा के जमालो दूर खड़ी!

“कहीं भी आग लगे, बेचारी जमालो बदनाम”

आसाम से आया कामरूप, जिसे बनफूल ने अलख निरंजन मान लिया।

पैरों में घुंघरू बाँधे, वो उसके आगे नाचती रहती।

पागल भिकारन की और बात, जो सड़क पर खड़ी आने जाने वालों को दुआ’एँ देती रहती।

कामरूप को देखकर आसाम सामने आ जाता।

ऊपरकोट... सरगोशियाँ ही सरगोशियाँ।

बनफूल के जोड़े पर गजरे की ख़ुश्बू।

गुफ़्तगू... गुल शहीद के मज़ार तक।

अ’ली जू इमाम ये बताना न भूलता कि वो सूरज उगने से पहले ही पैदा हुआ और उसी रोज़ उस कोठरी में अबाबील का बच्चा अंडे से बाहर निकला।

आचार्य महादेव जब कभी “कश्मीरी बे-पीरी!” कह कर छेड़ते तो रफ़ूगर कहता,

“महाराज मैं तो आपको भी बे-पीर मानता हूँ।”

वक़्त का एहसास जैसे जंगली कबूतर की उड़ान। उड़ता ही जाए बस उड़ता ही जाए।

दंगे फ़साद शुरू’ हो गए तो कामरूप मारा जाएगा। और उसे अलख निरंजन मान कर पैरों में घुंघरू बाँधे उसके आगे नाचने वाली बनफूल की झंकार भी ख़त्म हो जाएगी।

कभी म्यूज़िक कान्फ़्रैंस, कभी किताबों की नुमाइश, कभी ऑल इंडिया मुशाइ’रा।

हीरालाल का बेटा मोतीलाल और मोतीलाल का बेटा पन्नालाल तीनों बौने। मगर नफ़रत के ख़िलाफ़ जिहाद, उनका ईमान, जैसे बिसमिल्लाह ख़ाँ की शहनाई या पन्नालाल का बाँसुरी वादन।

पठान का पूत... कभी औलिया, कभी भूत।

मुग़ल की और बात।

अब क्या शाहाना आन-बान!

तातारी का क़िस्सा ख़त्म!

लाल सूफ़ी... तातारी सौदागर के ख़ानदान की आख़िरी कड़ी

“बर्फ़ के फूल से उठता है धुआँ देर तलक!”

“रफ़ूगर रफ़ू करते-करते गुनगुनाता रहा।”

इतिहास गोस्वामी का नाम आते ही, मिस फ़ोकलोर और गुलहिमा का नाम आए बग़ैर न रहता।

गुलहिमा या’नी बर्फ़ का फूल।

इतिहास गोस्वामी की “नील यक्षिणी” में लाल सूफ़ी को श्रद्धांजलि दी गई।

बहार आई है जो बन पर उभार आया।

पीछे रह गया भटियारी का रंग-महल।

नाक के सीधे चले जाओ तो किताब महल का रीडिंग रुम।

कभी गर्मी का रोना कि चील अंडा छोड़े!

कभी कड़ाके की ठंड कि बुलबुलें मर गईं अकड़ के तमाम!

(2)

एक रोज़ अचार्य महादेव बस पर सवार होने से पहले नींद की चौदह गोलियाँ खा गए और बस से उतर कर कारवाँ सराय के बारह टूटी चौक में नीला गुंबद के फ़ुट-पाथ पर गिरते ही बे-होश हो गए।

किसी ने टैगोर अस्पताल को फ़ोन कर दिया। अस्पताल की वैन आई और अचार्य महादेव को ले गई।

वहाँ उन्हें मुर्दा समझ कर मुर्दा घर में भेज दिया गया।

अगले रोज़ उनका पोस्टमार्टम होना था।

सुब्ह चार बजे आचार्य महादेव को होश आया तो उसके साथ कई मुर्दे।

अपने आपको मुर्दा घर में पाकर उनके मुँह से चीख़ निकल गई । बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर क़ाबू पा सके।

दरवाज़ा खुला था।

वो सरकते-सरकते बाहर अँधेरे में जा पहुँचे और पहरेदारों से बचते-बचाते अस्पताल के अहाते से बाहर।

कई घंटे तक यही एहसास रहा कि मौत दबे-पाँव उनका पीछा कर रही है।

यही ख़दशा लगा रहा कि कहीं सरकार इक़दाम-ए-ख़ुदकुशी के इल्ज़ाम में न धर पकड़े।

पुराने दोस्तों में से, जिससे भी मिले, वही उन्हें भूत समझ कर सहम गया।

अ’ली जू इमाम ने औलाद अहमद और वारिस मा’सूम को साथ लेकर टैगोर अस्पताल से पूछताछ की तो पता चला कि बारह टूटी चौक के फ़ुट-पाथ से लाई गई ला-वारिस लाश को सरकारी ख़र्च पर जला दिया गया।

जब आचार्य महादेव अचानक बुकलैंड प्रैस के प्रूफ़ रीडर पन्नालाल के सामने आए तो वो उन्हें भूत समझ कर इतना ख़ौफ़-ज़दा हुआ कि तीन दिन तक अस्पताल में रहना पड़ा।

“मैं बैरागी भया अनुरागी।”, जाने किस-किस बात पर ज़ोर देते रहे आचार्य महादेव।

चाँद तारों के तले, कौन सा क़िस्सा चले!

हमारी पहचान... रफ़ूगर की दूकान।

भारी डील-डौल, लंबी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी आँखें, आँखों पर चश्मा। हाथ में सूई धागा।

सिगरेट जलाने के लिए माचिस नहीं, लाइटर... गलहिमा की सौग़ात।

“लौंग लो मिस फ़ोकलोर और गुलहिमा ज़िंदाबाद!”

औलाद अहमद ने थाप लगाई।

“कभी तो हँसाए, कभी ये रुलाए... ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय।”

“हम तो हर आदमी को अपने से आगे मानते हैं। उसका प्यार हमें मिले न मिले। वारिस मा’सूम ने जैसे अँधेरे में रौशनी की पगडंडी पर इतिहास गोस्वामी को चलते देखा। दाएँ मिस फ़ोकलोर, बाएँ गुलहिमा।”

अब क्या होगा। किसे ख़बर लोकयान के लिए जीना और मरना इतिहास गोस्वामी का धरम-ईमान।

“प्यार कर के भुलाना न आया हमें।”, रफ़ूगर ने रफ़ू करते करते कहा।

किताब महल बढ़िया लाइब्रेरी है जैसे किसी मुफ़लिस ने पुराने खज़ाने का पता चलाया।

“ये कौन सी पुस्तक थी, जो तुम पढ़ रहे थे।”, पन्नालाल ने चंचल सिंह से पूछा।

जितनी परछाईयाँ, उतनी सीढ़ियाँ... साथ सदियों पुराना है अपना!

“दुखिया क्यों इतना संसार!“, “नज़्म बनफूल का।”

अटपटा सा बोल, “पगला कहीं का!”

अपने धागे, सदा आगे कहीं ख़ैर-मक़दम, कहीं अल-विदा’।

सूनी डगर हो या हो मेला। तशरीफ़ लाइए हुज़ूर!

“रफ़ूगर के लिए ज़रूरी है कि कपड़े में जान हो।”, रफ़ूगर ने रफ़ू करते-करते कहा।

“अब तो अपने आप पर आए न विश्वास।”, चंचल सिंह बोल उठा।

बाल बच्चेदार पन्नालाल नई दुल्हन ब्याह लाया।

दुल्हन ने उसे नया ख़िताब दे डाला।

“च्यूँटियों भरा कबाब!”

गुफ़्तगू होती रही घंटों।

चंचल सिंह को यही बात ना-गवार गुज़रती कि कोई उसे होटल महाराजा समझ कर ही उसका एहतिराम करे।

हम कितना टूट के रोए जब लाल सूफ़ी का धड़ मिला, सर ग़ाइब।

वारिस मा’सूम गुनगुनाता रहा,

क़सीदे से न चलता है, न ये दोहे से चलता है
हुकूमत का है जितना काम, सब लोहे से चलता है

वो कौन था, जो मुस्कुरा के पास से गुज़र गया?

आचार्य महादेव ने जोगी बनने का सपना देखा।

योग आश्रम से लगाव।

शादी से दूर।

उस हिप्पी का नाश हो, जिसकी दोस्ती के कारण उन्हें मेंडिकस की लत पड़ गई। मिट्टी में मिल गया योग का सपना।

हाथ में अख़बार का संडे ऐडिशन।

चर्ख़ ने पेश कमीशन कह दिया इज़हार में
क़ौम कॉलेज में और उसकी ज़िंदगी अख़बार में

अब किस बात का पर्दा, जब नग़्मा गूँज उठा?

“बारह-दरी ने सिद्धार्थ सिनेमा में गोल्डन जुबली मनाई।”

रफ़ूगर को क्या चाहिए? चाक-ए-गरीबाँ या फटा हुआ दामन।

बुलबुलें मरती हैं अपनी बात पर!

लाल सूफ़ी के मज़ार पर फूल चढ़ाकर चंचल सिंह ने दुआ’ मांगी।

दौलत ख़ाँ की दौलत का करिश्मा कहिए या जादू, जो सर चढ़ के बोला।

वो तीन बार लोक सभा का मैंबर चुना गया।

ये तहज़ीब किसने सिखाई हमें।

कौन से रस्म-उल-ख़त में लिखता रहा वारिस मा’सूम।

कॉलेज की किताब पर, जुगनी का इतना ही ए’तिमाद, जितना कि गुड़िया के खेल पर।

धक-धक-धक-धक दिल की डफ़ली
डम-डम-डम-डम डमरू बाजे!

वाह रहे अगिया बैताल!
सामने उस मोड़ पर परिंदों का अस्पताल।

मेहराबों से छन कर आती धूप।

सौ के क़रीब परिंदे हर हफ़्ते इ’लाज के लिए आते। आशियाँ से दूर, बढ़िया इ’लाज।

(3)

कारवाँ सराय गुलहिमा की तरह अपनी ही बाँहों में सिमट जाती और कभी नफ़रत की आंधी पर झुंझलाई सी लगती।

पन्नालाल उस्ताद के लिए चिलम भर लाता।

सवालों की रातें, जवाबों के दिन।

जब आचार्य महादेव अख़बार पढ़ कर सुनाते तो पन्नालाल और औलाद अहमद उन्हें मज़ाक़ का निशाना बनाना न भूलते। टैगोर अस्पताल में एक-बार उन्हें लावारिस लाश मान लिया था।

दंगे फ़साद की ख़बरें सुनते-सुनते कभी रफ़ूगर की सूई से धागा निकल जाता, कभी सूई हाथ में चुभ जाती ख़ून की बूँद छलक जाती।

बादलो! ओ बादलो! ओ बादलो!

मर गया तोता हमारा मर गया!

अ’ली जू इमाम को पसंद करने वालों के ढेर सारे नाम।

“देख मुझे झूम गया नदिया का दर्पन!”, बनफूल का नग़मा।

जाने कौन-कौन सी याद महफ़िल का दामन थामती रही।

चाय आई औलाद अहमद ने थाप लगाई,

चाय आई चाय आई

दुगुने भाव की चाय आई

(4)

आचार्य महादेव ने लाइटर से सिगरेट सुलगाया और कश लेकर गुनगुनाते रहे,

“दूरी न रहे कोई, आज इतने क़रीब आ जाओ!”

“चाँदनी जब मिल गई। हम चाँदनी सौ लिए...”, औलाद अहमद की थाप।

हमने तो हर तरह के फूल हार में पिरो लिए... वारिस मा’सूम की तान।

क़िस्सा पन्नालाल का।

रफ़ू करते-करते अ’ली जू इमाम को जाने क्या ख़याल आया कि उठ कर चले गए।

जाने से पहले जेब से निकाल कर पच्चास का नोट चौकी पर रख दिया। शीशे के पेपरवेट के नीचे।

इतने में पन्नालाल आया और चुपके से नोट उठा कर नौ दो ग्यारह।

औलाद अहमद ने उसे नोट उठाते देख लिया था।

रफ़ूगर वापिस आया तो औलाद अहमद ने पन्नालाल की शिकायत की।

“वो नोट तो उसी के लिए था।”, रफ़ूगर मुस्कुराया।

रहमान ये ख़बर लाया कि दौलत ख़ाँ ने कामरूप और बनफूल के लिए दोनों वक़्त खाने का इंतिज़ाम कर दिया समावाज़ रेस्तोराँ में।

“वोट हासिल करने का नया हथकंडा।”, वारिस मा’सूम हँस पड़ा।

“आज क़िस्से को फफूँदी लग गई...!”, औलाद अहमद गुनगुनाते रहे।

(5)

क़ातिल बड़ा बे-रहम था, जो लाल सूफ़ी का सर काट कर ले गया और धड़ झाड़ियों में छिपा गया।

सवाल पूछो, जवाब देंगे।

“क़त्ल-ए-नाहक़ सूफ़ी मा’सूम का!”, औलाद अहमद की थाप।

ज़रा सी भूल ये रंग लाई।

अब कहाँ वो कथा घाट!

परिंदों का अस्पताल... कारवाँ सराय की शान।

अस्पताल की नई इ’मारत पर दौलत ख़ाँ ने दौलत निछावर की।

सिद्धार्थ सिनेमा का मालिक... दौलत ख़ाँ। बुकलैंड प्रैस का भी वही प्रोपराईटर।

सिनेमा... बीवी के नाम।

प्रैस... छोटे भाई के नाम।

अस्ल बुनियाद तो अ’क़ीदत है... यही ईमान की हक़ीक़त है।

सिद्धार्थ सिनेमा में नई फ़िल्म “लोग कहते हैं।”

मर गए, खो गए, जाते रहे।

अल्लाह अल्लाह लोरियाँ... दूध-भरी कटोरियाँ।

रिश्वत का एक नाम... चांदी की लगाम।

कारवाँ सराय पर अ’ली जू इमाम की छाप। उसकी दूकान कारवाँ सराय की पहचान।

(6)

पगली भिकारन सूखे पेड़ के तने पर पानी डालती रही।

पेड़ पर नए पत्ते आ गए।

ख़्वाब में हम अपने ही जनाज़े के साथ चलते रहे।

हैं ख़्वाब में हनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में!

पन्नालाल के दिमाग़ पर सवार... बनफूल।

वो मधुमती के किनारे मौजूद रहता, जब बनफूल मधुमती से नहा कर निकलती।

उसने भीगे हुए बालों से जो झटका पानी

झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी

“मैंने पैरों में घुंघरू बाँधे, जितने कहो उतने घुंघरू बोलें।” ,नाचना शुरू’ करने से पहले बनफूल का अपने अलख निरंजन से यही निवेदन।

दौलत ख़ाँ चौथी लोक सभा का इंतिख़ाब जीत गया।

अ’ली जू इमाम की और बात।

आँखों ही आँखों में सब का एहतिराम

हो मुबारक ओ अ’ली जो ओ इमाम

सुख दुख रहते जिसमें मिलकर, झिलमिल बस्ती उसका नाम।

लाल सूफ़ी का सर काट कर ले गया हत्यारा।

आज तक उसका पता न चल पाया।

परिंदों का अस्पताल... उसकी सच्ची यादगार। वो जब तक ज़िंदा रहा, परिंदों पर जान छिड़कता रहा।

मारा गया लाल सूफ़ी... जो नफ़रत को अपने ख़ून से तौलता रहा।

मज़ार में दफ़्न... सर-कटा लाल सूफ़ी।

लोगों का गुल शहीद, जो ज़िंदगी-भर नफ़रत के ख़िलाफ़ लड़ता रहा।

लाल सूफ़ी का मर्सिया... औलाद अहमद की किताब का हर्फ़-ए-आख़िर।
बाँस के पत्ते पर ये शबनम

मातम वाले बोले कम-कम

आँखों से पलकों की बातें
पत्थर ढो-ढो रोते रहे हम

आँसू की क्या आब-ओ-ताब
कैसे पढ़ते रहे किताब

ये ज़िंदा और मुर्दा लोग
आँसू में मोती की आब

कैसा पल्टा है ये मौसम
दम तोड़े पत्तों पर शबनम

वही सवाल और वही जवाब
कहाँ गया वो अपना हमदम

खंडर के पीछे चाँदनी-रात में चमेली के मंडवे तले सो रही थी बनफूल।

उसे नाग ने डस लिया।

उसकी अर्थी के साथ अ’ली जू इमाम दूकान से शमशान तक चवन्नियाँ और अठन्नियाँ निछावर करता रहा।

अब कहाँ बनफूल की झंकार।

औलाद अहमद की ज़बान पर जापान का एक हाइकू।

बस एक तितली... नन्ही जान।

मंदिर के घड़ियाल पर
बे-ख़बर सोती रही

कारवाँ सराय पर ग़म का पहाड़ टूट पड़ा।

बनफूल के अलख निरंजन कामरूप की आत्मा भी पिंजरा ख़ाली कर गई।

कारवाँ सराय अर्थी के साथ-साथ।

छत्तीसगढ़ के चौधरी भी शामिल हुए

“राम-राम सत्त है” के साथ “अल्लाह हू” की आवाज़ भी बुलंद होती रही।

चंचल सिंह ने चंदन की चिता सजाई।

आचार्य महादेव ने चिता को आग दिखाई।

तेरह दिन तक कारवाँ सराय कामरूप का सोग मनाती रही... चूल्हे आग न घड़े पानी।

बच्चों का शोर,

धूईं धूईं तू घर को जा!

तीर माँ ने ख़ीर पकाई!

(7)

आज मज़ार-ए-गुल शहीद पर क़व्वाली की रात

अपना लाल सूफ़ी... कारवाँ सराय का गुल शहीद

याद रहेगा उसका नग़्मा

वो हिंदू हों कि मुस्लिम एक ही मिट्टी के बर्तन हैं

कोई हैं शैख़-जी इनमें, कोई इनमें बिरहमन हैं

दाएँ रहमान और ख़लील, बाएँ औलाद अहमद और वारिस मा’सूम।

बीच में आचार्य महादेव।

चुप क्यों हो गए? जवाब दो।

अ’ली जू इमाम क्यों न आया हमारे साथ?

रफ़ूगर की दूकान से चल कर वो बेगम पुल से गुज़रे। दाएँ खिचड़ीपूर, बाएँ चित्रलेखा कॉलोनी।

बारह-दरी से हो कर ई’द-गाह मार्ग पर चलते-चलते किताब-महल को पीछे छोड़ा।

झिलमिल बस्ती से आगे मज़ार-ए-गुल शहीद।

शैतान तूफ़ान, अल्लाह निगहबान। हम क़ुर्बान!

उनका यही एहसास कि यहाँ न कोई दोस्त है न दुश्मन। न राजा न भिकारी, न रानी और दासी के बीच कोई दीवार।

जहाँ डर, वहीं हमारा घर।

अब वो ज़माना कहाँ कि सोना उछालते जाओ।

औलाद अहमद की यही शिकायत कि इतिहास गोस्वामी तशरीफ़ न लाए।

झूटी क़सम कौन खाए,

वारिस मा’सूम कह रहा था कि गुलहिमा और मिस फ़ोकलोर ही चली आतीं।

आचार्य महादेव बोले,

अगर मिस फ़ोकलोर को भी फ़ुर्सत न थी तो गुलहिमा ही चली आतीं।

हर तरफ़ जंगल नज़र आने लगा।

वस्ल हो या विसाल हो या रब!

हम क़ुर्बान!

सात क़ुरआन दरमियान!

सबने नहाकर कपड़े बदले!

क़व्वाली की रात!

साज़ों की हम-आहंगी ही संगीत की पहली मंज़िल है।

उस वक़्त की गर्दिश याद करो, जब साज़ मिलाए जाते हैं!

वारिस मा’सूम और औलाद अहमद ये देखकर झूम उठे कि इतिहास गोस्वामी पहले से महफ़िल में मौजूद हैं।

मिट्टी में गुलाब की सुगंध।

आचार्य महादेव ने हाथ जोड़ कर इतिहास गोस्वामी को परनाम किया।

जाने कौन सी अन-बूझी पहेली बूझी जा रही थी।

अपने तो हैं सौ सौ यार

धुनिए, बुनकर और मिनहार

दिल की दुनिया बहुत अँधेरी

अँधियारे में कारोबार

अचानक दरगाह के अंदर एक आदमी आकर चिल्लाया,

“फ़साद शुरू’ हो गया!”

बिखरे बाल, कंधे घायल, सर लहू-लुहान।

चीख़ते चिल्लाते वो गिर पड़ा।

क़व्वाली की महफ़िल दरहम-बरहम।

अब क्या होगा़

ख़लील और रहमान का कहीं पता न था।

औलाद अहमद और वारिस मा’सूम बोले,

“चलो आचार्य महादेव अब भाग चलें।”

वो चलते रहे, गिरते-पड़ते चलते रहे।

अफ़रा-तफ़री, वहशत ग़म का पहाड़।

बुलंद इ’मारतें आग की नज़्र।

गलियाँ लहू-लुहान।

काली सड़कें सुर्ख़ हो गईं।

राहें लाशों से पट गईं।

अपनी ही दूकान की सीढ़ियों पर मारा गया अ’ली जू इमाम।

सफ़ेद घोड़े का काला शह-सवार

उसके आँसू टप-टप गिरते रहे... घोड़े की अयाल पर!

आँसू टप-टप गिरते रहे, गिरते रहे!

मारा गया अ’ली जू इमाम,

एक हाथ में सूई, दूसरे में धागा...!

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