रात की रानी और लाल गुलाब (कहानी) : डॉ रामकुमार वर्मा

Raat Ki Rani Aur Lal Gulab (Hindi Story) : Dr. Ram Kumar Verma

'रात की रानी' के पत्ते पीले पड़ने लगे थे और भीनी गंध से भरी उसकी मंजरी जैसे अब सपनों के देश में जाने की तैयारी कर रही थी। कैची लेकर मैं उसकी फैली हुई भुजाओं को काटने लगा, उसे फिर से पल्लवित-पुष्पित करने के लिए। सहसा मन के किसी कोने में सोई हुई कोमलता जाग उठी-यह कैसा सत्य है कि क्रूरता में से मृदुलता और विनाश में से नवजीवन का उदय होता है कि...तभी पड़ोस की दीवार के पीछे से किसी ने सिर उठाकर कहा, 'ओह, आपको फूलों का शौक है, लेकिन भाई जान, फूलों के साथ काँटे भी रहते हैं और इस 'रात की रानी' को देखिए, रूप का इसमें संकेत भी नहीं है, लेकिन इसकी गंध! मैं नहीं जानता कि इससे बढ़कर मोहक-मादक गंध इस विश्व में है या नहीं। सुध-बुध खो जाती है।'

मैंने सहसा उनकी ओर देखा। मुख पर सौम्यता, आँखों में दीप्त प्रकाश, गौर वर्ण; सौंदर्य और क्या होता है! मुसकराकर कहा, 'आप ठीक कहते हैं। सुगंध के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि उसका आवरण भी सुंदर हो। आप शायद इस मकान में अभी आए हैं?'

उन्होंने उत्तर दिया, 'जी हाँ! चार-पाँच दिन हो गए। रोज आपको काम करते देखता था, लेकिन आपकी तन्मयता भंग करने को मन नहीं चाहा।'
मैंने कहा, 'नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। बातें करना मुझे भी अच्छा लगता है।'

वह जैसे हँस आए। रात की रानी' के पास रखे हुए रक्तवर्णी गुलाब को क्षण भर देखते रहे। उद्दाम यौवन से उन्मत्त एक पुष्प, आगत भविष्य की सुगंध से मोहित दो-तीन कलियाँ। वह बोल उठे, 'यह गुलाब कितना सुंदर है, परंतु सुगंध से एकदम वंचित है।' कहते-कहते उनकी आँखों में एक छाया उठी, एक छाया मिटी। क्षण के सहसवें भाग में यह सब हो गया। प्रफुल्लित हो बोले, 'आपने अभी क्या कहा था, आपको बातें करना अच्छा लगता है। तब तो भाई जान, आपकी और हमारी खूब निभेगी।' और हँस पड़े, 'अच्छा, आप अपनी वाटिका को सँभालिए, मैं भी तनिक अपने संसार की सार-संभाल कर आऊँ।'

वह जैसे आए थे, वैसे ही लौट गए। न जाने पुष्पा कब पास आकर खड़ी हो गई थी। बोली, 'यह आपके पड़ोसी बड़े विचित्र जीव हैं। बड़े घर के बेटे हैं। माँ-बाप के पास मान, धन किसी वस्तु की कमी नहीं है, लेकिन.... 'लेकिन...'
'लेकिन सबकुछ त्याग चुके हैं।'
'त्याग चुके हैं? ओह, तभी।'

पुष्पा ने पूछा, 'तभी क्या? कुछ मनोविज्ञान का प्रयोग करने का विचार है? लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं, बहुत भले आदमी हैं और बच्चों से बहुत स्नेह करते हैं। सच तो यह है कि वह स्नेह ही करना जानते हैं। अभी पाँच ही दिन तो हुए हैं, मोहल्ले भर के बच्चे उनको धेरै रहते हैं। और वह सुनाते रहते हैं उनको कहानियाँ, ऐसी कहानियाँ, जो हम जैसों को भी रस-सिक्त कर देती हैं।'

मैंने कहा, 'तब तो खतरा है।'
पुष्पा बोली, 'हाँ, खतरा है, लेकिन किसी और को।'
मैं हँस पड़ा, 'घबराइए नहीं, मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है।'
पुष्पा सहसा उदास हो आई। जैसे कृष्णवर्णी कोई शिशु-मेघ चंद्रमा के ऊपर से होकर चला गया। व्याकुल मन मैंने पूछा, 'क्या हुआ, पुष्पा?'
एक दीर्घ नि:श्वास लेकर पुष्पा बोली, 'बेचारे।'
'पुष्पा! क्या बात है?'
पुष्पा ने कहा, 'इनकी पत्नी बहुत ही सौम्य, सुशीला और उदार है।'
मैं हतप्रभ बोल उठा, तो क्या तुम चाहती थी कि वह...'
धीमे से वह बोली, 'सुनो तो, हृदय जितना विशाल है, रूप उतना ही कुरूप है।'

जैसे मलयानिल के प्रकोष्ठ में रौरव की झंझा भर उठी। एकाएक उत्तर न दे पाया, लेकिन तभी मेरी दृष्टि उनके खुले आँगन की ओर गई तो क्या देखता हूँ कि पड़ोसी मुक्त मन से हँस रहे हैं, हँसे जा रहे हैं।

फिर किसी से कोई बात नहीं हुई, परंतु दिन भर उनका वह मुक्त हास्य मेरे मन को मथता रहा, विचलित करता रहा। संध्या को उत्सुकता लिये घर को लौटा तो मार्ग में एक मित्र मिल गए। बोले, 'प्रकाश बाबू, आप रोहित बाबू से मिले हैं?'
'कौन रोहित बाबू?'

'अरे, आप नहीं जानते, आपके नए पड़ोसी! सच भाई, क्षण भर में किसी को भी ऐसा बना लेते हैं, जैसे युग-युग से परिचित चले आ रहे हों।'

दूसरे मित्र बोले, 'बाल-मनोविज्ञान के तो वह विशेषज्ञ हैं और हृदय उनका इतना विशाल है कि थाह ही नहीं मिलती। किसी पर कष्ट पड़ा और रोहित वहाँ पहुँचे नहीं। राकेश बाबू की माताजी की तबीयत कल बहुत खराब थी और उनके घर में कोई नहीं था। पूरा दिन और पूरी रात वह उनके सिरहाने बैठे रहे, जैसे उनकी अपनी माँ हों।'

कहते-कहते उन मित्र का कंठ भर आया और साथ ही भीग आई हम सबकी आँखें। फिर तो प्रतिदिन मैं यही सुनता था, 'रोहित बाबू ने मेरे बच्चे को ताल में डूबने से बचाया। रोहित बाबू किशोर के भाई को तरत अस्पताल ले गए। वह कार के नीचे आ गया था। रोहित बाबू ने दीन की लड़की की परीक्षा फीस के लिए रुपए दिए। रोहित बाबू ने यह किया, रोहित बाबू ने वह किया, रोहित बाबू बड़े कुशल डॉक्टर हैं।' इत्यादि।

मुझे बड़ा अचरज हुआ। मैंने पुष्पा से पूछा, 'क्या रोहित बाबू डॉक्टर हैं?'

पुष्पा बोली, 'हाँ, नियमानुसार कॉलेज में रहकर प्रथम श्रेणी में डॉक्टर की डिग्री ली है, लेकिन बने हैं एजेंट।'

मैं कुछ कहूँ, इससे पहले ही रोहित बाबू ने 'रात की रानी' के पास से झांकते हुए कहा, 'मिस्टर प्रकाश, सुनिए तो।'

मैंने देखा कि एक सुंदर डलिया में बढ़िया-बढ़िया अमरूद लिये वह खड़े हैं। बोले, 'मिस्टर प्रकाश, कल ही इलाहाबाद से आए हैं। और आप जानते हैं कि इलाहाबाद के अमरूद...'
मैंने कहा, 'आज क्यों कष्ट कर रहे हैं?'

वह हँस पड़े, 'कष्ट...अरे भाई जान! पिताजी ने भेजे, रेल यहाँ तक ले आई और अब पत्नी की आज्ञा हुई कि आपको दे आऊँ। हाँ, वहाँ से उठाकर यहाँ आपको देने तक का कष्ट अवश्य हुआ है। सो विश्वास कीजिए कि किसी दिन ब्याज सहित चुका लूँगा।' फिर जोर से हँस पड़े, 'भाई जान! जनतंत्र का युग है, लेकिन हमारा अभी स्वभाव सामंती ही है। अब देखिए, इलाहाबाद का अमरुद ही मुझे बहुत पसंद हो-यह बात नहीं; संतरा नागपुर से मँगाता हूँ और जब तक बंबई से लँगड़ा आम न आए, तब तक मन ही नहीं भरता। और आम तो मैंने मैसूर में खाए। ओफ ओह! बादाम-पाक का रस अब तक मुंह में घुला हुआ है। सेब मुझे कश्मीर और कुल्लू-दोनों के पसंद हैं। भाई जान! एजेंट इसीलिए बना है। कन्याकुमारी से लेकर ठेठ हिमालय में गोमुख तक घूम आया हूँ। और उसके मार्ग का क्या वर्णन करूँ! स्वर्ग का कहीं वर्णन हो सकता है!'

फिर भी वह बहुत देर तक प्रकृति के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते रहे और मैं मुक्त होकर उनकी ओर देखता रहा, सुनता रहा। सोचता रहा, यह असाधारण व्यक्ति क्या सचमुच ही असाधारण है?

अचानक एक दिन पुष्पा मुझे उनकी गृहस्थी की कहानी सुना बैठी। मैं जब सोने का उपक्रम कर रहा था तो पुष्पा धीर-गंभीर स्वर में बोली, 'रोहित बाबू ने ऐश्वर्य को लात मारकर हेम को सँभाला है, क्या यह बात आश्चर्यजनक नहीं है?'

फिर वह क्षण भर के लिए रुक गई, मानो मुझसे कुछ सुनना चाहती हो, लेकिन मैं तो स्वयं सुनना ही चाहता था। सो उसकी ओर देखता बैठा रहा। वह बोली, 'रोहित एक बहुत बड़े परिवार का लड़का है और जैसा होता है, उस बहुत बड़े परिवार की छाया में एक छोटा सा परिवार भी पलता था। उस परिवार की विवाह-योग्य बड़ी कन्या कुरूपता की साक्षात् प्रतिमा थी। इसी कारण वह परिवार उस कन्या को लेकर बहुत चिंतित हो उठा। और आप जानते ही हैं कि एक की चिंता दूसरे के मखौल का कारण बन जाती है। ऐसे सलाहकारों की कोई कमी नहीं थी, जो बार-बार दीर्घ निश्श्वास खींचकर कुटिल निश्चय के साथ सहानुभूति प्रकट किया करते थे और कहते रहते थे कि इसका विवाह होना बड़ा कठिन है, लेकिन हिंदू कन्या का विवाह तो होता ही है। आप चिंता न कीजिए, मेरे एक मित्र हैं। बस, उनमें एक ही दोष है, यदि आप उसे दोष मानें तो, उनकी आयु पचास के आस-पास है और उनके चार-पाँच बच्चे भी हैं, लेकिन आप जानते हैं कि आजकल...।'

एक दूसरे सज्जन कहते, 'मेरे एक मित्र हैं कृष्ण वर्ण, देखने में बहुत अच्छे नहीं लगते, लेकिन बहुत ही सुशील और सहदय हैं। और आप जानते हैं कि पुरुष का रूप किसी ने देखा है। बस, किसी रोग में उनकी एक आँख जाती रही।'

इसी प्रकार बहुत से शुभचिंतक बहुत सी बातें करते। लड़की सुनती और व्यथा से तड़प उठती। समय पाकर वही व्यथा घृणा में परिणत हो गई; अपने से घृणा, लेकिन उसका दुर्भाग्य। यह अधिकार भी उसे नहीं था। उसके माता-पिता कन्यादान के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे, इसीलिए उन्होंने अधेड़ उम्र के व्यक्ति को अपनी मुक्ति के लिए चुना। अग्नि-प्रदक्षिणा तक सबकुछ ठीक होता रहा, लेकिन जैसे ही कन्या की पुकार हुई, वर पक्षवालों ने कहा, 'हम कन्या का मुख देखेंगे।' अनभ्र वज्रपात! कन्या आधे मार्ग से ही अंदर लौट गई। समझौते की अनथक कोशिशों के बावजूद वह विवाह न हो सका। अग्नि व्यर्थ ही धधकती रही। तभी सहसा कन्या पक्ष की ओर से एक युवक बोल उठा, 'वर महोदय, आपने अपना मुख भी दर्पण में देखा है?'

यह अग्नि में घी की आहुति देना था। वर पक्षवाले विवृत हो उठे। कन्या पक्षवाले शायद इसके लिए तैयार न थे, लेकिन वे कुछ कर सकें, इससे पूर्व ही वर की ओर मुड़कर उस युवक ने कहा, 'मैं कहता हैं, आप जितनी जल्दी यहाँ से जा सकें, चले जाइए।' वर जैसे विस्मित-विमूढ़ सहम गया हो। युवक का आक्रोश-भरा स्वर और भी उत्तेजित हो उठा, 'आप जा नहीं रहे हैं क्या? क्या एक-एक का कान पकड़कर बाहर निकालना होगा?'

उस समय कन्या की क्या स्थिति थी, न जाने किस आशा के आधार पर अभी नाड़ी धड़क रही थी। सहसा उस युवक ने कहा, 'पंडितजी, आपको जाने की आवश्यकता नहीं है। मंत्र पदिए, वर मैं हूँ।'

आगे पुष्पा को कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं रही। मैं सहसा चिल्ला उठा, 'तो रोहित ने इस प्रकार हेम को पाया है? आवेश और आदर्श के चक्रव्यूह में फंसकर माँ-बाप का प्रेम, जीवन का ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा और प्रभाव, सबका उसने तिरस्कार किया है, केवल अपने उस क्षणिक उद्वेग की रक्षा के लिए।'

पुष्पा जैसे कुछ समझी नहीं। द्रवित, कोमल स्वर में बोली, 'हेम बार-बार इस कहानी को कहती है और रो पड़ती है-सखी, जी में आता है कि सदा उन्हें पलकों पर बिठाए रखूँ।'
लेकिन मैंने अब उसकी बातों में रुचि नहीं ली। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा और मैंने निश्चय किया कि कल रोहित से बातें करूँगा।
लेकिन वह कल नहीं आई। रोहित उसी रात को बाहर चले गए थे।

फिर कई दिन बीत गए, वह नहीं लौटे। न जाने क्यों, मैं चिंतित हो उठा, पर हेम तो एकदम आश्वस्त थी, 'वह तो जाते ही रहते हैं। लौट आएँगे।' मैंने पाया कि आसपास के बालक अब भी सदा की तरह उनके घर में आते हैं और उनको न पाकर लौट जाते हैं। एक दिन देखा, उन्हीं बालकों में से एक के हाथ में एक कापी है। अनायास ही मैंने उस कापी को खोलकर देखा। ठगा सा रह गया। वह रोहित की डायरी थी। मैंने उसे पढ़ना चाहा, लेकिन तभी सहसा जैसे वह स्वयं बोल उठा हो, 'भाई जान! जीते जी किसी की डायरी पढ़ना पाप है।'

और मैंने उस डायरी को छिपाकर रख दिया, लेकिन मेरी अवस्था उस चोर जैसी थी, जो चोरी का माल अपने घर में रखे रहता है। परिणामस्वरूप प्रतिक्षण मेरे अंतर का द्वंद्व बढ़ने लगा। और एक क्षण आया, जब वह मेरे लिए असत्य हो उठा। तब मन के सब बंधन छिन्न-भिन्न करके मैंने उस डायरी को पढ़ना शुरू किया।

७ जनवरी, १९३५ : आज फिर उद्विग्न हो उठा हूँ। रुदन जैसे मेरे अंतर को दाह से भर रहा है। जैसे अपने से ही घृणा करने लगा हूँ। जानता हूँ, साल भर पहले जो कुछ घटित हुआ, उसका दायित्व मुझपर ही है, लेकिन न जाने क्यों, रह-रहकर मेरे मन में उठ आता है कि मेरी शय्या पर निद्वत होकर सोई हुई इस कुरूपा का गला घोंट दूँ। सच कहता हूँ, कई बार काँपते हुए हाथों को उसके कंठ तक ले भी गया है, लेकिन जैसे उसकी कुरूपता ही उसका कवच बन गई हो। छि:! इस कुरूपा की हत्या करके अपने हाथों को कलंकित करूं? इस कुरूपा के लिए मैंने ऐश्वर्य और संपदा का बलिदान किया, क्या इस कुरूपा के लिए मैं अपने जीवन का भी बलिदान करूँ? छिः।

८ जनवरी, १९३५ : कल न जाने किस अज्ञात ने मेरा हाथ थाम लिया, पाप होते-होते रह गया। पाप क्या है? कुरूपता इस संसार में क्यों है? प्रेम और सौंदर्य की तुलना में इनका मूल्य क्या है? जो कुरूप हैं, वे आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते? उन्हें क्या अधिकार है कि वे सौंदर्य और रूप के संसार में अशांति की आग प्रज्वलित करें?

९ जनवरी, १९३५ : मैंने निश्चय कर लिया है कि हेम को त्याग दूंगा। अपने-आपको अब और धोखा नहीं दे सकता। मानता हूँ कि वह मुझसे प्रेम करती है, बहुत प्रेम करती है, लेकिन उपकारकर्ता के प्रति प्रेम क्या 'सच्चा प्रेम' होता है? मैंने उसपर दया की है, और दया करना पाप है। नहीं, अब मैं और दया नहीं करूँगा, नहीं करूंगा।

१० जनवरी, १९३५ : मैं आज नहीं, कल जाऊँगा। एक आवेश का यह परिणाम है। आवेश में आकर फिर कुछ करूँगा तो न जाने क्या होगा।

१३ जनवरी, १९३५ : पाँच दिन हो गए इस धर्मशाला में, लेकिन अब और नहीं। कल आगे बढ़ चलूँगा, बढ़ता चला जाऊँगा...कभी न रुकने के लिए। हेम विश्वास किए बैठी होगी कि मैं दो-तीन दिनों में लौट आऊँगा, लेकिन नहीं, मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं इस बार नहीं लौटूंगा। हेम कैसी भोली है, कहती है, 'तुम मेरा त्याग नहीं कर सकते। तुम परमात्मा हो।' हूँ 'परमात्मा! शब्दों का यह कैसा मायाजाल है? किस आलजाल में मनुष्य अपने को फँसाए रहता है? नहीं, नहीं, मैं अब अपने को और पराजित नहीं होने दूंगा। मैं जाऊँगा। वह सिर पटक-पटककर मर जाएगी। उसे मर ही जाना चाहिए।

१४ जनवरी, १९३५ : न जाने क्यों, मन ग्लानि से भरा जा रहा है। न जाने क्यों, मैं अपने में सिकुड़ता जा रहा हूँ, विवश होता जा रहा हूँ। क्या मैं हेम को क्षमा नहीं कर सकता? क्या मैं फिर उसके पास नहीं लौट सकता? लेकिन क्षमा का प्रश्न ही नहीं उठता है? उसने कोई अपराध कहाँ किया है? अपराध मेरा है। हाँ, अपराध मैंने किया है। अपराधी मैं हूँ।

१५ जनवरी, १९३५ : मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं घर जाऊँगा। माँ मुझे देखकर कितनी खुश होगी। अपने आँचल में छिपा लेगी। ओह! उस कुरूपा के लिए मैंने अपनी स्नेहमयी माँ का त्याग किया। नारी निश्चय ही जादूगरनी है। पुरुष को जाल में फंसाने के न जाने कितने तरीके वह जानती है।...नहीं, नहीं, यह गलत है। इसमें उसका कोई अपराध नहीं है। अग्नि को साक्षी करके मैंने ही उसका हाथ पकड़ा है, घोषणा करके मैंने उसको स्वीकार किया है। मैं दूसरे के रूप को देखता हूँ, अपनी कुरूपता को नहीं देखता। मेरे अंतर में रह-रहकर यह कैसी कुरूपता उभर उठती है?

१६ जनवरी, १९३५ : मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं आज हेम के पास लौट जाऊँगा।

*****

पाँच महीने बाद।

६ जून, १९३५ : आज मैंने उसे और भी पास से देखा। सचमुच, वह कितनी सुंदर है। यह सौंदर्य अब तक कहाँ छिपा रहा?

७ जून, १९३५ : आज मैंने उसे और भी पास से देखा। वह कितनी असुंदर है। मन सहसा ग्लानि से उमड़ जाता है, जैसे अंतर का सबकुछ बाहर आना चाहता है। छि:! छि:! मैं इतने दिनों तक उसके साथ कैसे रह सका? इस नाबदान में कैसे अमृत की कल्पना करता रहा?

८ जून, १९३५ : अभी क्लब से लौटा हूँ। जैसे एक नया संसार आँखों में समा गया है। मैंने उस युवती को अब तक क्यों नहीं देखा? यौवन और सौंदर्य दोनों मेरे पास हैं, संपदा भी है। एक युवती को और क्या चाहिए? वह स्वयं भी कितनी सुंदर है। श्रृंगार के पुष्प जैसा उसका रूप, जैसे मदिरा का छलकता प्याला हो। उसके कुंतल केश जैसे स्नेह की रश्मियाँ हों। आज वह कैसे मेरे पास आई, कैसे मुग्ध मन से उसने मुझसे पूछा, 'आप इतने उन्मुक्त कैसे हैं? मुझे आश्चर्य होता है!'
मैंने उसे उत्तर दिया, 'मानव को पाने के लिए उन्मुक्त होना ही पड़ता है।'
वह अनायास बोल उठी, 'मैं भी यही मानती हूँ। मैं भी उन्मुक्त होना चाहती हूँ।'
मैंने मुसकराकर उत्तर दिया, 'तुम तो स्वयं उन्मुक्तता की मूर्ति हो। तुम्हारा कहीं कुछ भी आवरण के भीतर नहीं है।'
उसने प्यार से मेरा हाथ दबा दिया। ऐसे लगा, जैसे मैं उसको अपने में समेट लूँ।
'नहीं, नहीं, मैं उसको नहीं जाने दूँगा। हेम चाहे रहे, चाहे जाए, उसको मैं धन दूंगा, लेकिन अपने को नहीं दे सकता, नहीं दे सकता।'

९ जून, १९३५ : हेम आज कुछ और सी लग रही थी। उसकी आँखों में उदासी थी।
बोली, 'आप कहीं चले जाइए।'
मैं हँस पड़ा, 'क्यों?'
वह बोली, 'यों ही, आपको जाना चाहिए। मैं जानती हूँ कि आपका जाने में ही कल्याण है।'

१० जून, १९३५ : रात के समय मेरे चरण दबाते हुए उसने कहा, 'आपके मुख पर यह कैसे चिंता के भाव मँडराते रहते हैं? आपका उल्लास जैसे छिन्न-भिन्न हो गया है। आज की अँधियारी रात हम दोनों को स्वयं में छिपाना चाहती है।'
मेरा अंतस जैसे तूफान की गति से धधक उठा। मैंने काँपते स्वर में कहा, 'हेम, तुम मुझे छुट्टी दे सकती हो?'
कहकर मैं हत्भाग्य उसकी ओर ऐसे देखने लगा, जैसे मैंने कोई पाप किया हो, लेकिन वह मुसकराई, 'क्यों नहीं? आपके लिए कुछ भी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी, केवल कहना भर होगा।'
जैसे झटका लगा, मैं उठा और मैंने उसके चरण पकड़ लिये, 'मुझे क्षमा कर दो, क्षमा कर दो।'
न जाने यह कब और कैसे हुआ? कब मैं गिरा और कब उसने मुझे अपनी गोद में लिटा लिया। केवल कोमल-कंपित स्वर में इतना ही बोली, 'पाप की छाया भी तुम्हें छू नहीं सकती। पाप और पुण्य के संसार से तुम बहुत परे हो।'
'ओह! वह कितनी सुंदर है।'

डायरी यहीं आकर समाप्त हो गई। और उद्वेलित-उत्तेजित मेरी विचारधारा समुद्र की उत्ताल तरंगों की तरह मुझे मथने लगी। ज्वार अपने पूरे यौवन पर उमड़ उठा। मैंने मन-ही-मन कहा, 'तो यह हैं रोहित बाबू। एक दुर्बल इनसान...कायर...।' तभी सहसा पुष्पा जाग पड़ी, 'बोली, क्या है, प्रकाश? अभी सोए नहीं?'

मैंने उत्तर दिया, 'अभी-अभी एक स्वप्न देखा है।'
'अच्छा, सो जाओ।'

पुष्पा उनींदी थी। जानने का आग्रह उसने नहीं किया। यंत्रवत् मुझे अपनी बाँहों में लपेटते हुए वह न जाने कहाँ खो गई मैं भी दूर, बहुत दूर भटक गया। और जब मैंने अपने-आपको फिर जगते पाया, तो देखता हूँ, पड़ोस के घर से वह अंतहीन हास्य चारों ओर बिखरता आ रहा है और 'रात की रानी' के पीछे से रोहित बाबू सदा की तरह उन्मुक्त कह रहे हैं, 'प्रणाम भाई जान। कैसे हैं?'

जीवन में पहली बार जैसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। कहा, 'अरे, आप कहाँ चले गए थे, रोहित बाबू?'

उत्तर दिया, 'कहाँ चला गया था, भाई जान? आप तो ऐसे कह रहे हैं, जैसे भाग गया होऊँ। जाना तो मेरा काम है, मेरी जीविका है।' फिर एकाएक धीरे से बोले, 'हाँ, इस बार कुछ अधिक समय लग गया, अच्छा नहीं हुआ। अब काफी दिन बाहर जाने की इच्छा नहीं है। और आपकी 'रात की रानी' आजकल खूब फूल रही है। रात में इसकी गंध से हम महक उठे।'

फिर मैंने कुछ नहीं पूछा, लेकिन तब से उनकी डायरी चुराने के प्रयत्न में हूँ। देखो, कब सफलता मिलती है।

(सन् १९६०)

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