राखी का मूल्य (नाटक) : हरिकृष्ण प्रेमी
Raakhi Ka Mulya (Hindi Play) : Harikrishna Premi
पात्र परिचय
कर्मवती : मेवाड़ की महारानी (महाराणा साँगा की पत्नी)
बाघसिंह : एक योद्धा
हुमायूँ : बादशाह
तातार खाँ : हुमायूँ का मित्र
हिन्दुबेग : हुमायूँ का सेनापति
(जवाहर बाई, क्षत्रिय, दूत एवं पहरेदार)
(प्रथम दृश्य)
चित्तौड़ के राजमहल का दृश्य
(मेवाड़ के महाराणा साँगा की विधवा पत्नी)
कर्मवती : मेवाड़ में ऐसा रंगीन सावन पहले कभी नहीं आया होगा। भाइयो! क्षत्राणियों की राखियाँ सस्ती नहीं होती। राखी के इन धागों का बदला अपना सर्वस्व बलिदान है, जिन्हें प्राण देने का चाव हो, वे ही ये राखियाँ स्वीकार करें।
एक क्षत्रिय : मेवाड़ के क्षत्रियों को यह बात नए सिरे से नहीं समझनी होगी माँ। हम लोग सदियों से हँसते- हँसते प्राण देते आए हैं। हमारी इस अजेय शक्ति का स्रोत आप बहनों की राखियों के धागे ही तो हैं। यही तो हमें बल देते आए हैं।
कर्मवती : धन्य हो वीरों! तुम से यही आशा थी । अच्छा जाओ, राखी की इस मर्यादा में बँधकर प्रतिज्ञा करो कि प्राण रहते मेवाड़ की पताका को झुकने न दोगे ।
सब : यही होगा माँ, यही होगा।
कर्मवती : मेवाड़ के सपूतों! तुम्हीं मेवाड़ के अभिमान हो। तुम्हारी कीर्ति अमर है । जाओ रणभूमि तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है और बहनों, तुम घर जाकर वीरव्रत की तैयारी करो।
(अभिवादन करके राजपूतों का प्रस्थान)
(एक योद्धा का आगमन )
कर्मवती : बाघसिंह जी ! युद्ध का क्या हाल है ?
बाघसिंह : राजपूत वीरता से लड़ रहे हैं महारानी, किन्तु एक तो हमारी संख्या बहुत कम है, दूसरे शत्रुओं का यूरोपियन तोपखाना आग उगल रहा है। उसका मुकाबला तलवारों से तो नहीं हो सकता। हमें मरना है। हम हँसते-हँसते मरेंगे और बहुतों को मारकर मरेंगे। पर दुःख है तो यही कि मरकर भी आन की रक्षा न कर पाएँगे।
कर्मवती : बड़ा कठिन समय है। इस समय मेरे स्वामी नहीं हैं। उनके रहते मेवाड़ की ओर आँख उठाने का किसका साहस था? उनके आतंक से मेवाड़ के बाहर दूर-दूर तक अत्याचारियों के प्राण काँपा करते थे । मेवाड़ की सीमा में तो पैर रखने का साहस ही कौन कर सकता था ! बाघसिंह जी, हमने आपसी वैमनस्य की आग में अपने ही हाथों अपना स्वाहा कर लिया।
बाघसिंह : अब पश्चाताप का समय नहीं है देवि ! अब तो हमें मार्ग बताइए।
कर्मवती : मुझे एक उपाय सूझा है।
बाघसिंह : क्या ?
कर्मवती : मैं बादशाह हुमायूँ को राखी भेजूँगी।
जवाहर बाई : हुमायूँ को! एक मुसलमान को भाई बनाओगी?
कर्मवती : चौंकती क्यों हो? वे भी तो इंसान हैं। उनके भी तो बहनें होती हैं। सोचो तो बहन, क्या उनके हृदय नहीं है? वे ईश्वर को खुदा कहते हैं और मस्जिद में जाते हैं तो क्या ?
बाघसिंह : किन्तु और भी तो बाधाएँ हैं। क्या बादशाह हुमायूँ पुराने बैर भुला सकेगा? सीकरी के युद्ध के जख्मों के निशान क्या आसानी से मिट सकेंगे ?
कर्मवती : हमारी राखी वह शीतल प्रलेप है, जो सारे घाव भर देती है। राखी वह वरदान है, जो सारे बैर- भावों को जलाकर भस्म कर देती है। बहन की राखी पाकर भी क्या कोई बैर-विरोध याद रख सकता है ?
जवाहर बाई : लेकिन वे हमारे शत्रु हैं?
कर्मवती : ऐसा न कहो। हमारी तरह भारत भी तो हुमायूँ की मातृभूमि हो चुकी है! वे हमें अपना समझें और हम उन्हें । यही स्वाभाविक है, यही उचित है। इस विकट अवसर पर मेवाड़ की रक्षा का और कोई उपाय है भी तो नहीं ? बाघसिंह जी, आप ही कुछ बताइए, आपकी क्या राय है?
बाघसिंह : हम तो आज्ञा पालन करना जानते हैं, सम्मति देना नहीं।
कर्मवती : अच्छा तो फिर यही हो। भ्रातृत्व और मनुष्यत्व पर विश्वास करके हुमायूँ की परीक्षा ली जाए! लीजिए यह राखी और यह पत्र, आज ही दूत के हाथ मेरी राखी हुमायूँ के पास भेजिए ।
(राखी और पत्र देती है।)
जवाहर बाई : अच्छी बात है। हम भी देखेंगे कि कौन कितने पानी में हैं? और यह भी प्रकट हो जाएगा कि एक राजपूतानी की राखी में कितनी ताकत है।
(दूसरा दृश्य)
(बिहार के गंगातट पर हुमायूँ का फौजी डेरा)
(बादशाह के खास तम्बू में हुमायूँ और तातार खाँ बैठे है । एक पहरेदार का प्रवेश)
पहरेदार : (अभिवादन करके) जहाँपनाह! खिदमत में मेवाड़ से एक दूत आया है।
हुमायूँ : मेवाड़ से? यहीं भेज दो।
(पहरेदार का प्रस्थान)
हुमायूँ : मेवाड़ का दूत ! मेवाड़ लफ्ज में ही कुछ जादू है। बयाना और सीकरी की लड़ाइयों में मैं भी शहंशाह बाबर के साथ था। राजपूतों से हमारी फौज कैसे खौफ खाती थी । राणा साँगा । उन्हें तो खुदा ने फौलाद से बनाया था। उनकी तिरछी नजर कयामत का पैगाम थी। मेवाड़ पर सुना है आजकल बहादुरशाह ने चढ़ाई कर रखी है।
(दूत का प्रवेश)
हुमायूँ : आओ मेवाड़ के बहादुर!
दूत : स्वर्गीय महाराणा साँगा की महारानी कर्मवती ने आपको यह सौगात भेजी है।
हुमायूँ : (हाथ बढ़ाकर लेते हुए) मेरी किस्मत, सेनापति ! तुम जानते हो कि मैं मेवाड़ की बहुत इज्जत करता हूँ जो एक बहादुर को करनी चाहिए। वहाँ की खाक भी सर पर लगाने की चीज है।
तातार खाँ : दुश्मन की तारीफ करने में जहाँपनाह से बढ़कर..
हुमायूँ : दुश्मन ! हः हः हः । कौन दुश्मन, वे सब हमारे भाई हैं। हम सब एक ही खुदा के बेटे तो हैं न तातार ! हाँ देखूँ तो इसमें क्या लिखा है।
(हुमायूँ पत्र पढ़ते-पढ़ते मग्न हो जाता है।)
सेनापति : जहाँपनाह ऐसे मग्न है महारानी कर्मवती ने क्या जादू का पिटारा भेजा है ?
हुमायूँ : सेनापति उन्होंने सचमुच जादू का पिटारा भेजा है। मेरे सूने आसमान में उन्होंने मुहब्बत का चाँद चमकाया है। मुझे बहन मिल गई है। उन्होंने मुझे राखी भेजकर अपना भाई बनाया है। (दूत से) बहन कर्मवती से कहना, हुमायूँ तुम्हारे सगे भाई से बढ़कर है । कह देना मेवाड़ की इज्जत आज से मेरी इज्जत है, जाओ।
(दूत का प्रस्थान )
तातार खाँ : यह आप क्या कर रहे हैं? आपके अब्बाजान के जानी दुश्मन की औरत ने ..........।
हुमायूँ : अफसोस कि तुम इस राखी की कीमत नहीं जानते । ये दो छोटे-छोटे धागे भी जानी दुश्मन को मुहब्बत की न टूटने वाली जंजीरों में जकड़ देते हैं। यह तो मेरी खुशकिस्मती है कि मेवाड़ की बहादुर रानी ने मुझे अपना भाई बनाया और बहादुरशाह के खिलाफ मेवाड़ की हिफाजत के लिए मेरी मदद चाही है।
तातार खाँ : जहाँपनाह! एक मुसलमान के ऊपर एक हिन्दू को तरजीह.......।
हुमायूँ : अरे! कौन हिन्दू और कौन मुसलमान ? खुदा ने पहले हम सबको इंसान बनाया है। यह जो कुछ मैं कह रहा हूँ खुदा के हुक्म के मुताबिक कह रहा हूँ......। और राखी आ जाने के बाद भी क्या सोच-विचार किया जा सकता है? यह तो आग में कूद पड़ने का न्यौता है । हिन्दुस्तान का इतिहास गवाह है कि इन धागों ने हजारों कुर्बानियाँ कराई हैं। मैं दुनिया को बता देना चाहता हूँ कि हिन्दुओं के रस्मों-रिवाज मुसलमान के लिए भी उतने ही प्यारे और पाक हैं जितने उनके लिए। तुम भूलते हो कि हम सब एक परवरदिगार की औलाद हैं।
तातार खाँ : परन्तु शहंशाह ! जब हम स्वयं युद्ध के मैदान में दुश्मनों के सामने डटे हैं ऐसे विकट समय में शेर खाँ को खुला छोड़कर मेवाड़ की तरफ लौट जाना सल्तनत और दिल्ली के लिए खतरे से खाली नहीं है।
हुमायूँ : अब सोचने का वक्त ही नहीं है। बहन का रिश्ता दुनिया के सारे सुखों, दौलतों, ताकतों और सल्तनतों से बढ़कर है। मैं इस रिश्ते की इज्जत सल्तनत कुर्बान करके भी रखूँगा। मैं दुनिया को यह कहते नहीं सुनना चाहता कि मुसलमान बहन की इज्जत करना नहीं जानते । तख्त से उतरकर भी एक बहन के दिल में जगह पा सकूँ तो अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा खुशकिस्मत इंसान समझूँगा (हाथ पर बँधी राखी को चूमकर) बहन कर्मवती ! तुम्हारी राखी मुझे वही ताकत दे जो राजपूतों को देती आई है । सेनापति ! जल्दी फौज तैयार करो और मेवाड़ की ओर प्रस्थान करो।
(सब का प्रस्थान )