पुतलों का कमाल : बिहार की लोक-कथा

Putlon Ka Kamaal : Lok-Katha (Bihar)

बहुत समय पहले की बात है। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक महाराजा चंद्रगुप्त थे। वे बड़े दानी और न्यायी राजा थे। एक बार की बात है। उनके साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में दरबार लगा हुआ था। सभी सभासद अपनी-अपनी जगह पर, अर्थात नियत स्थान पर विराजमान थे। महामंत्री चाणक्य दरबार की कार्यवाही का संचालन कर रहे थे।

राजदरबार की कार्यवाही चल रही थी, इसी बीच एक दरबान ने आकर सूचना दी कि एक सौदागर महाराज से मिलना चाहता है। सौदागर का यह दावा है कि महाराज या किसी ने भी आज तक ऐसे खिलौने नहीं देखे होंगे और न कभी देखेंगे। महाराज के मन में यह सुनकर बहुत उत्सुकता हुई उस सौदागर से मिलने की।

महाराज को खिलौने का बहुत शौक़ भी था। उन्हें हर रोज़ एक नया खिलौना चाहिए होता था। आज भी वह जानना चाहते थे कि नया क्या है, इसी बीच दरबान सौदागर की ख़बर दे गया।

महाराज ने सौदागर को सभा में बुलाने की आज्ञा दी। सौदागर आया और अभिवादन पश्चात् अपने पिटारे से तीन पुतले निकाल कर महाराज के सामने रखते हुए कहा, “अन्नदाता! इन तीनों पुतलों की ख़ासियत अलग-अलग है। तीनों अपने-आप में बहुत विशेष हैं। देखने में भले एक जैसे लगते हों, पर वास्तव में बहुत निराले हैं। पहले पुतले का मूल्य एक लाख मोहरें हैं, दूसरे का मूल्य एक हज़ार मोहरें हैं और तीसरे पुतले का मूल्य केवल एक मोहर है।”

महाराज ने तीनों पुतलों को बड़े ध्यान से देखा। देखने में तो कोई अंतर नहीं मालूम पड़ रहा था, फिर भी तीनों के मूल्य में आख़िर इतना अंतर क्यों? यह सवाल चंद्रगुप्त के दिमाग़ को मथ रहा था। थक-हारकर उसने सभासदों के समक्ष पुतलों को रखवाया और कहा कि इनमें क्या अंतर है, मुझे बताओ। वहाँ मौजूद सभासदों ने भी तीनों पुतलों को घुमा-फिराकर बड़े ध्यान से देखा, मगर किसी को भी इस गुत्थी को सुलझाने का सूत्र समझ में नहीं आया । महाराज चंद्रगुप्त ने जब देखा कि सभी चुप हैं, किसी को कुछ नहीं समझ आ रहा है तो उन्होंने वही प्रश्न अपने महामंत्री चाणक्य से पूछा।

महामंत्री ने पुतलों को बड़े ध्यान से देखा और दरबान को तीन तिनके लाने की आज्ञा दी। दरबान दौड़ा-दौड़ा तिनके ले आया। चाणक्य ने पहले पुतले के कान में तिनका डाला। सबने देखा कि तिनका सीधे पेट में चला गया। थोड़ी देर बाद पुतले के होंठ हिले और फिर बंद हो गए।

अब चाणक्य ने दूसरे पुतले के कान में तिनका डाला। सबने देखा कि तिनका दूसरे पुतले के कान से बाहर आ गया और पुतला ज्यों का त्यों खड़ा रहा। यह देखकर वहाँ मौजूद सभी सभासदों की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि आगे क्या होगा। अब चाणक्य ने तीसरे पुतले के कान में तिनका डाला। सबने देखा कि तिनका मुँह से बाहर आ गया है और पुतले का मुँह एकदम खुल गया है। पुतला बराबर हिल रहा है, जैसे कुछ कहना चाहता हो।

महामंत्री चाणक्य ने सारी बातों-परिस्थितियों पर ग़ौर किया। काफ़ी मंथन के बाद इन पुतलों के अलग-अलग मूल्यों का कारण बताया। उन्होंने कहा कि राजन! चरित्रवान व्यक्ति सदा सुनी-सुनाई बातों को अपने तक ही रखते हैं तथा उन बातों की पुष्टि करने के बाद ही अपना मुँह खोलते हैं। यही उनकी महानता है। पहले पुतले से हमें यही ज्ञान मिलता है और यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य एक लाख मोहरें हैं।

कुछ लोग हमेशा अपने-आप में मग्न रहते हैं। वे हर बात को अनसुना कर देते हैं। उन्हें अपनी वाह-वाही की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे लोग किसी को भी हानि नहीं पहुँचाते हैं। दूसरे पुतले से हमें यही ज्ञान मिलता है। यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य एक हज़ार मोहरें हैं।

और जहाँ तक तीसरे पुतले की बात है, वह भी दिलचस्प है। कुछ लोग कान के कच्चे और पेट के हल्के होते हैं। कोई भी बात सुनी नहीं कि सारी दुनिया में शोर मचा देते हैं। इन्हें झूठ-सच का कोई ज्ञान नहीं होता, बस मुँह खोल भड़-भड़ करते रहते हैं। यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य केवल एक मोहर है।

यही ज्ञान लो तुम इन पुतलों से, इंसान को तुम पहचानो ज़रा,
अंदर से कुछ-बाहर से कुछ, इस भेद को तुम अपनाओ ज़रा।

इस तरह से महामंत्री चाणक्य ने अपनी बुद्धिमत्ता से केवल महाराज चंद्रगुप्त की ही जिज्ञासा शांत नहीं की बल्कि सभी सभासद भी उनके इस उत्तर से संतुष्ट हो गए।

(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)

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