पुष्पक (बांग्ला कहानी) : विभूतिभूषण मुखोपाध्याय

Pushpak (Bangla Story) : Bibhutibhushan Mukhopadhyay

दादाठाकुर का अचानक हार्ट फेल हो गया है। शाम को ही यह समाचार हम लोगों को मिला। आज उमापद कि सुहागरात थी। हम लोग सभी वहीँ पर थे, सभी लोग काम में व्यस्त थे। अचानक इस दुखदायक समाचार के मिलते ही सब को गहरा सदमा लगा, सबके हाथ रुक गए।

पूरे गांववालों के दादाठाकुर थे वे। बहुत पहले यहां पर एक स्कूल में एक अध्यापक बन कर वे आये थे। जल्दी ही वे साधारण से असाधारण बन गए। बहुत से अध्यापक आये और गए, पर दादाठाकुर नहीं गए। वे इसी गांव के रंग में रंग कर हमलोगों के गले का हार बन कर रह गए। दादाठाकुर की वाणी देव वाणी हो गयी, जो एक बार कह दे सब को मान्य था। उनका स्नेह स्वर्गीय स्नेह था, सब के लिए सुलभ था। कहीं किसी की किसी से लड़ाई हो गयी, कहीं किसी ने किसी को मार दिया, चले दादाठाकुर के पास शिकायत करने। यहाँ तक कि किसी की माँ ने, किसी के पिता ने अपने बच्चे को डांट दिया, मार दिया, वह चला दादा ठाकुर के पास फैसला करवाने। हम लोगों के इस छोटे से गांव में दादा ठाकुर का स्थान सर्वोच्च था पर वहां तक पहुँच सर्वसुलभ थी।

समाचार सुन कर सब को गहरा घाव लगा। सब लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे। जैसे इस में किसी को कुछ संशय था, जैसे इस के अर्थ ही कुछ अस्पष्ट था।

देवेश ने प्रश्न किया - 'फिर आज दादाठाकुर नहीं रहेंगे इस उत्स्व में?'

उमापद की सुहागरात और दादा ठाकुर नहीं रहेंगे, दोनों में जैसे मेल ही नहीं खा रहा था।

बलाई ने कुछ लड़कों से कहा - 'जा, गांव में जहाँ-जहाँ फूल मिलें, एक-एक कर के चुन-चुन कर ले आ। सब लोग दौड़ कर चले गए।'

बात यह है कि कौन-कौन श्मशान जायेंगे और कौन-कौन यहाँ पर रहेंगे? हम लोग इस विषय में विचार कर ही रहे थे कि इतने में उमापद आ कर उपस्थित हो गया, उसका स्वभाव ही कुछ विचित्र सा था। वह कब क्या करेगा तथा कब क्या कहेगा इसका अंदाज़ लगाना कठिन था।

हीरेन ने प्रश्न किया -'क्या कर रहा था अंदर?'

उमापद ने कहा - 'सजाना देख रहा था।'

हीरेन ने पूछा - 'घर सजाना?'

उमापद ने कहा - 'दुल्हिन, घर दोनों।'

फिर उसने अत्यंत सहज भाव से पूछा - 'दादाठाकुर चले गए?'

'हाँ, वही तो हम लोग कह रहे थे, ऐसे दिन में गए।' हीरेन ने कहा।

उमापद ने कहा - 'अच्छा ही तो हुआ, कितना अच्छा दिन है, नाती की सुहागरात के दिन। इससे अच्छा दिन उनके लिए कौनसा होता?’

सुरेश ने कहा - 'आज का यह प्रोग्राम दो दिन बाद ....।'

उमापद ने कहा - ऐसा नहीं हो सकता कल तो मेरी केवल लोगों को दिखाने की शादी थी, असली शादी तो आज ही है, फिर यह पीछे कैसे हटाई जा सकती है?'

सुनकर सबको केवल आश्चर्य ही नहीं क्रोध भी आया, बुरा भी लगा, दुःख भी हुआ। सबसे अधिक दादाठाकुर उमापद को प्यार करते थे। इसके मन में भी दादाठाकुर के लिए अगाथ भक्ति और श्रद्धा थी, फिर आज यही ऐसा कह रहा है? आज दादाठाकुर से बढ़कर उसकी सुहागरात हो गयी?

'तो फिर क्या होगा?' देवेश ने पूछा।

हीरेन ने कहा - 'तो क्या? कुछ लोग यहाँ और कुछ लोग वहां जाएँ। अब प्रश्न यह है कि कौन-कौन यहाँ रहेगा, और कौन-कौन स्मशान जायेगा?

उमापद ने पहले ही कहा - 'हम तो स्मशान जायेंगे।' कह कर वह एक ओर जा कर खड़ा हो गया।

हीरेन ने कहा - 'तू कैसे जाएगा? तेरी आज सुहागरात है और तू जायेगा?'

मंथन ने कहा, एक अच्छीसी चारपाई बनाने के लिए अर्जुन मिस्त्री को कह आया हूँ। बलाई एक पोटली में ताम्बे के छेदे वाले पैसे और निताई एक टोकरी भर कर लाई, रास्ते में छिड़कने के लिए। उमेश बाजे वाले को खबर दे आया। उधर अंदर तक दादाठाकुर की मृत्यु का समाचार नहीं पहुँच पाया था। वे लोग बड़े जोर-शोर से अपने कार्य में लगे हुए थे।

इधर वे लोग दादाठाकुर को श्मशान में जाने की तैयारी में व्यस्त थे, मानो उमापद की सुहागरात और दादाठाकुर की स्मशान यात्रा में होड़ लग गया हो। थे भी तो वे एक दूसरे के अनन्य प्रेमी।

'जितनी भी जल्दी करें, दादाठाकुर का अंतिम संस्कार कर लौटते लौटते सबेरा तो हो ही जायेगा, फिर तू अपनी शैय्या पर कब बिराजेगा?' उमेश ने जरा क्रोधपूर्वक उमापद से पूछा।

उमापद ने उसी प्रकार सहज, सिरल भाव से कहा - 'मेरे लिए मत सोचो, सबेरा होने पर भी मेरा काम चल जायेगा।'

'तू है एक....' उमेश ने अपने को सँभालते हुए कहा, 'खैर, आज के दिन नहीं! कहो, कौन इधर रहेगा, कौन उधर जायेगा?'

उमापद ने कहा, 'जा निताई, जा कर अपनी भाभी से कह आ, मेरी अर्धांगिनी हुई न? कल पुरोहित ने कहा था न? तो फिर वह इधर का काम संभाले मैं उधर दादाठाकुर के साथ जा रहा हूँ।'

निताई ने कहा, - 'यह अशुभ समाचार तू ही जाकर दे आ, मैं नहीं जाता।'

'जो मन में हो सो कर।' - कहकर उमापद ने साइकिल उठायी। अंदर जाने पर निकल नहीं पायेगा, सोच कर एक बच्चे से कहा - 'जा अंदर से एक अंगोछा ले आ।'

इतने में लड़कों का एक झुण्ड आया - 'आकर समाचार दिया - कहीं भी फूल नहीं मिले।'

'फूल नहीं मिले?' सब के कंठ से एक साथ आश्चर्य का स्वर फूट पड़ा। इतना बड़ा गांव, उसमें दादाठाकुर के लिए फूल नहीं हैं?

लड़कों ने कहा - 'आज लड़कियों की पता नहीं कौन-सी पूजा हैं, वे सबेरे ही पूजा करने के लिए सारे फूल ले आयीं हैं। पेड़ पर जो थोड़े फूल बचे थे, सारे के सारे लोग चुन-चुन कर यहाँ उमापद की फूल शैय्या के लिए ले आये हैं। पेड़ में गिनती का एक भी फूल नहीं बचा है।

पूरा गांव ढूंढ डाला, कहीं एक भी फूल नहीं मिला। एक लड़के ने कहा - निताई भैया - दादाठाकुर की सौगंध खाकर कहता हूँ, बहुत ढूंढा, एक भी फूल नहीं मिला।'

निताई ने कहा - 'अब क्या किया जाये?' सिर चकरा गया है, दिमाग काम नहीं कर रहा है। उमापद भी वहां सब के साथ बैठने जा रहा था, निताई ने उसे डांट कर कहा - 'तू यहाँ क्यों बैठ रहा हैं? जा यहाँ से जा कर लालची की तरह दुल्हिन को सजाएं देख, जा जा यहाँ से।'

पता नहीं क्या सोचकर उमापद ने गुस्से में कहा - 'अच्छा जाता हूँ, मैं तुम लोगों के साथ शमशान नहीं जाऊंगा ।'

निताई ने कहा - 'अच्छा तू मत जाना हम लोगों के साथ। भगवान् ने सुबुद्धि दी है तुझे, अब जा यहाँ से।'

उसके चले जाने पर सब लोग गोला बना कर बैठ गए, उमेश ने कहा, -'उसकी बुद्धि का क्या भरोसा है? कहीं जाते समय इधर ही चल दे तो क्या होगा?'

नरेन ने कहा - 'अगर जिद्द करेगा तो कमरे में बंद कर देंगे। आज उसकी सुहागरात हैं, शमशान का नाम सुनते ही सब लोग रोना-धोना शुरू कर देंगी। सुरेश को यहीं छोड़ जायेंगे, वह डांट-डपट कर सब को ठीक कर लेगा।'

लेकिन सब लोग शमशान जाने के लिए उत्सुक थे। यहाँ इस समारोह में रहने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। निताई ने कहा – ‘देवेश, भाभीजी कहां हैं (उमेश की पत्नी)? यह कार्यभार सौंप कर हमलोगों को जाना पड़ेगा। वही इस काम के लिए सर्वथा योग्य हैं, वही अकेली सारे का सारा मैनेज कर लेंगी। तू जाकर एक ओर बुलाकर उन्हें सारी बातें अच्छी तरह समझा दे। और सुन, भाभी को कह देना कि जब हमलोग चलने लगेंगे, भाभी उमपद के दुल्हिन को कमरे में करके कुछ लड़कियां भी उसमें घुसा के चाहे उसे अकेले ही बाहर से सिकरी लगा देंगी, जिससे वह निकल न सके।

सारी तैयारी होते होते रात के दस बज गए थे। जाने से पहले उमेश जा कर अपनी पत्नी से उधर का सारा हाल जान आया। खूब अच्छी तरह उसकी पत्नी ने बड़ी चतुराई से उधर का सारा काम संभाल लिया था। उमापद को भी उधर ही मशगूल कर लिया था। उमेश की पत्नी ने कहा - 'नई दुल्हिन भी बड़ी सयानी है। उमापद को इधर ही आकर्षित करने के लिए जैसे-जैसे वह कहती गयी, वह करती गयी।'

शमशान घाट गांव से काफी दूर है। सब लोग जब दादाठाकुर को लेकर वहां पहुंचे रात के बारह बज गए थे। दादाठाकुर को कंधे से उतार कर उनके सामने बैठ कर कुछ लोग कीर्तन करने लगे, और कुछ लोग चिता सजाने लगे। सब लोग काम में व्यस्त थे। दादाठाकुर हम लोगों को छोड़ कर सदा के लिए जा रहे है, जैसा उन लोगों का बड़ा अवलंब, बहुत बड़ा सहारा अलग हो रहा है।

फूल नहीं मिले, ३-४ अड़हुल के गंधहीन फूल तोड़-तोड़ कर शव के ऊपर मन्मथ बिखरा रहा था, उसकी आँखें सजल थीं। बोला – ‘दादाठाकुर, यह दुःख हम लोगों का कभी नहीं मिटेगा, कभी नहीं। तुम्हें चढ़ाने के लिए हम लोगों को फूल तक न मिले। उमापद इस समय पुष्प शैय्या के विलास में लीन होगा, और दादाठाकुर?'

दूसरे ने कहा - 'इतना ही नहीं, आज गांव के सारे फूल उसकी शैय्या पर शोभा पा रहे हैं, और दादाठाकुर के लिए एक फूल नहीं। उसको सबसे ज्यादा प्यार करते थे दादाठाकुर।'

देवेश ने उधर से कहा - 'चिता एकदम तैयार है।'

अब दादाठाकुर को उठा कर ले जाओ। सभी लोग उठ कर खड़े हो गए। इतने में साइकिल कि ध्वनि और प्रकाश को देखकर सभी लोग लोभातुर हो एकटक उधर ही देखने लगे। अनिमेष रो रहा था, आंसू पोछता हुआ बोला - नहीं, कभी नहीं, फूल नहीं मिले।' बलाई रोता हुआ दादा ठाकुर के पैरों पर गिर पड़ा। सब लोग शव उठाने ही जा रहे थे इतने में हीरेन ने सब को रोकते हुए कहा - 'जरा रुको तो, उधर से परछाई सी आ रही है।‘

सभी लोग उधर देखने लगे। मानो जिंदगी कि बाज़ी लगा जी जान से दौड़ता हुआ उमापद वहां आ पहुंचा सब लोग उसे देखने लगे, किसी के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। उमापद हांफता हुआ कहता गया - 'ईश्वर को शतशः धन्यवाद, किसी तरह समय से आ पहुंचा। बापरे, कितनी चालाकी करके, सबको धोखा देकर आया हूँ, पर तुम लोग नाराज़ मत होना। एक को छोड़कर किसीको कुछ पता नहीं लगने दिया। अब सब लोग जाने, जानने दो मेरी बला से। अब तो पहुँच ही गया, अब मेरा कौन क्या बिगाड़ सकता है? साइकिल उठाने से सब को मालूम हो जाता, इससे दौड़ता हुआ ही आ गया। भगवान् ने सद्बुद्धि दी थी इसीसे पता नहीं मुझे कैसे यह शॉर्टकट मैदानी रास्ता सूझ गया था।'

एक जगह पत्थर से ठोकर लगने से पैर से खून कि धरा बह रही थी। उसने एक पोटली खोली। बोला – ‘लो कितना फूल लेना है लो’ - कहकर उसने बनारसी ओढ़नी के गांठ खोल कर सारे फूल डाल दिए।

लो सब लोग दादा ठाकुर को चढ़ा दो। गुलाब, बेला, चमेली, गंधराज, रजनी गंधा, जूही, वह एक-एक कर दिखाने लगा। यह है जूही का हार, यह है चमेली की चूड़ियां, यह है बाजूबन्ध, और यह है रजनीगंधा की माल, यह है मुकुट। अरे, लड़की बड़ी सयानी है। पहले तो मुझे बड़ी ही निराशा हुई थी, पर जरासा संकेत मिलते ही सिर दर्द, सिर धोने के बहाने, और भी तरह-तरह के बहाने कर बाहर जा कर सारे गहने उतारकर वही पोटली बांध कर चली गयी, तो मैं पोटली उठा कर भाग आया। सब लोग उमापद के मुँह की ओर आश्चर्य से देखने लगे। उसने कहा – ‘मेरा मुँह क्या देख रहे हो? चलो अब देर मत करो। दादाठाकुर को सारे गहने पहना दो।’ कहकर उमापद खुद ही एक-एक करके दादाठाकुर को फूल के गहने पहनाने लगा और सब की सजल आँखें दादाठाकुर का पुष्प श्रृंगार देख रही थी।

(अनुवाद : शोभा घोष)

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