Puruhut (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

पुरुहूत (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

4. पुरुहूत
देश : वक्षु-उपत्यका (ताजिकिस्तान)
जाति : हिन्दी-ईरानी
काल : २५०० ई० पू०

1.

वक्षु की घर्घर करती धारा बीच में बह रही थी। उसके दाहिने तट पर पहाड़ धारा से ही शुरू हो जाते थे, किन्तु बाई तरफ अधिक ढालुआँ होने से उपत्यका चौड़ी मालूम होती थी। दूर से देखने पर सिवाय धन-हरित उत्तुंग देवदारु-वृक्षों की स्याही के कुछ नहीं दिखलाई पड़ता था; और नजदीक आने पर नीचे ज्यादा लम्बी और ऊपर छोटी होती जाती शाखाओं के साथ उनके बाण जैसे नुकीले श्रृंग दिखलाई पड़ते थे। और उनके नीचे तरह-तरह की वनस्पति, तथा दूसरे वृक्ष भी थे। ग्रीष्म का अन्त था. अभी वर्षा शुरू नहीं हुई थी। यह ऐसा महीना है, जब उत्तरी भारत के मैदानों में लोग गर्मी से सख्त परेशान रहते हैं, किन्तु इस सात हजार फीट ऊँची पार्वत्य उपत्यका में गर्मी मानो घुसने ही नहीं पाती। वक्षु के बाएँ तट से एक तरुण जा रहा था। उसके शरीर पर ऊनी कंचुक जिसके ऊपर कई पर्त लपेटा हुआ कमरबन्द था, नीचे ऊनी सुत्थन और पैरों में अनेक तनियों की चप्पल थी। शिर के कंटोप को उसने उतार कर अपने पीठ की कंडीर पर रख लिया था, और उसके लम्बे चमकीले पिंगल केश पीठ पर बिखरे हवा के हलके झोंकों से जब-तब लहरा उठते थे। तरुण की कमर से चमड़े से लिपटा ताँबे का खड्ग लटक रहा था। उसकी पीठ पर बीरी की पतली शाखाओं की बुनी चोंगानुमा कंडी थी ! जिसमें तरुण ने बहुत-सी चीजें, खुला धनुष तथा बाणों से पूर्ण तर्कश रख रखा था। तरुण के हाथ में एक डंडा था, जिसे कंडी की पेंद में लगाकर खड़ा हो वह कभी-कभी विश्राम करने लग जाता था। अब चढ़ाई कड़ी हो रही थी। उसके सामने छै मोटी-मोटी भेड़ें चल रही थीं, जिनकी पीठ पर सत्तू से भरी घोड़े के बाल की बड़ी-बड़ी थैलियाँ थीं । तरुण के पीछे एक लाल झबरा कुत्ता चल रहा था। कलविंक के मधुर गम्भीर स्वर से पर्वत प्रतिध्वनित हो रहा था, जिसका प्रभाव तरुण पर भी था, और वह मुँह से सीटी बजाता जा रहा था।

अभी एक चट्टान के ऊपर से एक पतली रूपहली धारा के रूप में गिरता चश्मा आ गया। धारा को चट्टान के प्रान्त से खुलकर गिरने के लिए किसी ने लकड़ी की नली लगा दी थी। हॉफती भेड़े नीचे पानी पीने लगीं । तरुण ने पास में फैली अंगूर की लताओं में छोटे अंगूरों के गुच्छे लटकते देखे । बैठकर कंडी को जमीन पर उतार वह अंगूर तोड़ कर खाने लगा। अभी अंगूर में कसैलापन लिये तुर्शी ज्यादा थी। उनके पकने में महीने भर की देर थी; किन्तु तरुण पथिक को वे अच्छे मालूम हो रहे थे, इसलिए वह एक-एक दाने को मुँह में धीरे-धीरे फेंकता जा रहा था। शायद वह प्यासा ज्यादा था और तुरन्त चलकर आये को शीतल पानी हानिकारक होता है, इसीलिए वह देर कर रहा था।

पानी पीकर भेड़ें चारों ओर उगी हरी घासों को चर रही थीं । झबरा कुत्ता गमी अधिक अनुभव कर रहा था, इसलिए उसने न अपने मालिक का अनुकरण किया और न भेड़ों का, वह धार के नीचे फैले पानी में बैठ गया। अब भी उसका पेट भाथी की तरह फूल-पचक रहा था और उसकी लाल लम्बी जीभ खुले मुँह से निकल कर लपलपा रही थी। तरुण ने धार से नीचे मुँह खोला, और गिरती धारा से एक साँस में प्यास बुझा, चुल्लू में पानी भर अगले केशों की जड़ भिगोते हुए मुँह को धोया। उसके अरुण गालों और लाल ओठों को ढाँकने के लिए पिंगल रोम अभी आरम्भिक तैयारी में थे। भेड़ों को बड़े मन से चरते देख तरुण कंडी के पास बैठ गया और कानों को तिरछा कर अपनी ओर ताकते झबरा की आँखों के भावों को परख कर, कंडी में एक ओर से हाथ डाल सूखी भेड़ की रान के एक टुकड़े को कमरबन्द से लटकती चमड़े में बन्द ताँबे की तेज छुरी से काट-काट कर कुछ स्वयं खाने और कुछ झबरे को खिलाने लगा। इसी वक्त लकड़ी की घंटी की खन-खन करती आवाज सुनाई दी। तरुण ने कुछ दूर झाड़ी से आधा छिपे एक गदहे को आते देखा, फिर दूसरे को, और पीछे एक षोडशी बाला अपनी ही जैसी पोशाक तथा पीठ पर कंडी लिए आती देखी; मुँह से आनायास सीटी बजने लगी- जब वह कुछ सोचने लगता तो तरुण के मुँह से सीटी बजने लगना सॉस जैसा स्वाभाविक हो जाता था। षोडशी के कान में सीटी की आवाज एक बार पड़ी जरूर और उसने उस जगह की ओर ताका भी, किन्तु तरुण का शरीर गुल्म से आच्छादित था। यद्यपि तरुण ने ५० हाथ दूर से देखा था किन्तु षोडशी के मुख की एक हल्की किन्तु सुन्दर छाप उसके अन्तस्तल पर पड़ गई थी और उत्सुकता से वह यह जानने की प्रतीक्षा कर रहा था कि वह किधर जा रही है। इधर वक्षु की ऊपर की ओर कोई गाँव नहीं बसा हुआ है, यह तरुण जानता था। इसलिए वह भी उसी की तरह पंथचारिणी है, यह वह समझ सकता था।

षोडशी के सुन्दर किन्तु अपरिचित चेहरे को देखकर झबरा भेंकने लगा। तरुण के "चुप झबरा" कहने पर वह वहीं चुपचाप बैठ गया। षोडशी के गदहे पानी पीने लगे, और जब वह अपनी कंडी उतारने लगी, तो तरुण ने अपनी मजबूत भुजाओं में लेकर उसे नीचे रख दिया। षोडशी ने मुस्कुराहट के रूप में कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा-

“बडी गर्मी है।"

"गर्मी नहीं है, चढ़ाई में चलकर आने से ऐसा ही मालूम होता है। थोड़े-से विश्राम से ही पसीना चला जायेगा।"

"अभी दिन अच्छा है।"

"अभी दस-पन्द्रह दिन और वर्षा का डर नहीं ।”

“वर्षा से मुझे डर लगता है। नालों और बिछली के कारण रास्ते बहुत खराब हो जाते हैं।"

"गदहों के लिए चलना और मुश्किल होता है।"

"घर पर भेड़ें नहीं थी, इसलिए मैंने गदहों को ही ले लिया। अच्छा, तुझे कहाँ जाना है, मित्र !"

"डाँडे पर ! आजकल हमारे घोड़े, गायें, भेड़ें वहीं हैं।"

"मैं भी वही जा रही हूँ। सत्तू, दाना, फल, नमक पहुँचाने जा रही हूँ।"

"तेरे पशुओं को कौन देखता है ?"

"मेरा परदादा, और भाई-बहनें भी।"

‘‘परदादा । वह तो बहुत बूढ़ा होगा?"

"बहुत बूढा, उतना बूढ़ा आदमी तो शायद कहीं नहीं मिलेगा।"

"फिर वह पशुओं को क्या देखता होगा?"

"अभी वह बहुत मजबूत है। उसके बाल, भौं सब सफेद है, किन्तु उसके नये दाँत हैं। देखने में पचास-पचपन का मालूम होता है।

"तो उसे घर पर रखना चाहिए ।

"वह मानता ही नहीं, मेरे पैदा होने के पहले से वह गाँव नहीं गया।"

"गाँव नहीं गया ?"

"जाना नहीं चाहता। गाँव से उसको घृणा है। वह कहता है, मनुष्य एक जगह बाँधकर रखने के लिए नहीं पैदा किया गया। बहुत पुरानी बातें सुनाता है। अच्छा तेरा नाम क्या है, मित्र ?"

“पुरुहूत. माद्री-पुत्र पौरव । ।

"और तेरा नाम स्वसर (बहिन) ?"

"रोचना माद्री ।”

"तो तू मेरे मातुल-कुल की है स्वसर ! ऊपरी मद्र या निचला ?

"ऊपरी मद्र ।"

वक्षु नदी के बाएँ तट पर पुरुओं के ग्राम थे लेकिन उनका निचली भाग-जो नीचे के मैदान से मिलता है-मद्रों के हाथ में था, और दायाँ तट ऊपर मद्रों, नीचे परशुओं के हाथ में। भूमि और जनसंख्या की दृष्टि से पुरु मद्रों से कम न थे। पुरुओं के नीचे वाले मद्र निचले मद्र कहे जाते थे। रोचना उपरले मद्र की थी। पुरुहूत के मामा का गाँव भी उपरले मद्र में था। इस बात के जानने पर दोनों कुछ और आत्मीयता का अनुभव करने लगे। पुरुहूत ने फिर बात आरम्भ करते हुए कहा -

"रोचना ! लेकिन आज हम डाँडे पर नहीं पहुँच सकते । तूने अकेले आने का साहस कैसे किया ?"

"हाँ, मैं जानती थी कि रात को चीते से गदहों को बचाना मुश्किल है, लेकिन बाबा के लिए खाने की चीजें लाना जरूरी था-पुरुहूत ! बाबा मुझे बहुत मानता है। मैंने सोचा रास्ते में कोई और भी मिल जायेगा, आजकल डाँडे के जाने वाले बहुत होते हैं। और यह भी ख्याल आया कि आग जला लेने पर काम चल जायेगा।"

"रास्ते चलते आग नहीं जलाई जा सकती। अरणी है तेरे पास, रोचना ?"

"होने पर भी अरणी को रगड़ कर अग्नि-देवता को प्रकट करना आसान नहीं है। खैर, मेरे पास एक पवित्र अरणी है, वह हमारे घर में पितामह के समय से चली आई है। इस अरणी से प्रकट हुई अग्नि द्वारा बहुत से यज्ञ, बहुत-सी देव- पूजाएँ हुई हैं। मुझे अग्नि-देवता का मंत्र भी याद है, इसलिए वे इससे जल्दी प्रकट हो जाते हैं।"

"और पुरुहूत ! अब हम दो हैं, इसलिए चीते को पास आने की हिम्मत न होगी।"

"और हमारा झबरा भी है, रोचना ।"

"झबरा!"

"हाँ, यही लाल श्वक (सम-कुत्ते) है।"

झबरा, झबरा, बोलते ही झबरा खड़ा हो मालिक का हाथ चाटने लगा। रोचना ने भी "झबरा, झबरा !" कहा। वह आकर उसके पैरों को सँघने लगा। फिर जब रोचना ने उसकी पीठ पर हाथ दिया, तो झबरा दुम हिलाते हुए उसके पैरों में बैठ गया।

पुरुहूत ने कहा-"झबरा बहुत समझदार श्वक है रोचना !"

“और मजबूत भी।”

"हाँ, भेड़िया, भालू, चीता किसी से नहीं डरता ।"

भेड़े और गदहे अब काफी घास चर चुके थे, थकावट भी दूर हो गई थी, इसलिए दोनों तरुण-पथिकों ने फिर चलना शुरू किया। झबरा उनके पीछे-पीछे चल रहा था। यद्यपि उनकी पगडंडी तिरछे काटकर जा रही थी, तो भी चढ़ाई तेज थी, इसलिए वे सधे पैर धीरे-धीरे ही आगे बढ़ सकते थे। पुरुहूत कहीं धरती में चिपकी लाल स्ट्राबरियों को तोड़ता, कहीं करोंदों को और रोचना को भी देता। अभी अच्छे-अच्छे फल खूब पकने पर नहीं आये थे, पुरुहूत को इसकी बड़ी शिकायत थी। शाम तक वे इसी तरह बातें करते चढ़ते गए। सूर्यास्त हो रहा था; जब एक घने गुल्म के नीचे से कल-कल करके बहते चश्मे को उन्होंने देखा। पास ही थोड़ी खुली जगह थी, जिसमें लकड़ी के अधजले कुन्दे, राख और घोड़ों की लीद पड़ी थी। पुरुहूत ने झुककर राख को कुरेदा, उसमें आग दबी हुई थी। उसने बहुत खुश होकर कहा-

"रोचना ! रात के ठहरने के लिए इससे अच्छी जगह आगे नहीं मिलेगी। पास में पानी है. घास की अधिकता है, सूखे लक्कड़ पड़े हैं, और फिर आज सवेरे यहाँ से जाने वाले पथिक ने आग को राख के नीचे दबा दिया है।"

'हाँ, पुरुहूत ! इससे अच्छी जगह नहीं मिलेगी। आज यहीं ठहरें, अगले चश्मे तक पहुँचने में अँधेरा हो जाएगा।"

पुरुहूत ने बैठकर झट अपनी कंडी को पत्थर के सहारे धरती पर रख दिया. फिर रोचना की कंडी को उतारा। दोनों ने मिलकर गदहों के बोझ को अलग किया और उनकी काठी खोल दी। गदहों ने दो-तीन लोट लगाई फिर घास में चले गये। भेड़ों की लादियों को उतारने में कुछ देर लगी क्योंकि भेडों को जबर्दस्ती पकड कर लाना पड़ता था। रोचना मशक ले चश्मे पर पानी भरने गई। पुरुहूत ने पत्ते और छोटी लकड़ियाँ डाल आग को बाल दिया, और फिर बड़ी लकड़ियों को लगा बड़ी आग तैयार कर दी। जब रोचना पानी भरकर लौटी, तो पुरुहूत ताँबे की पतीली सामने रख गाय की चौथाई टाँग को चाकू से काट रहा था, रोचना को देखकर बोला-

"कल शाम तक हम ऊपर पहुँच जाएँगे रोचना ! तेरा गोष्ठ बहुत दूर तो न होगा ?”

"जहाँ हम डाँडे पर पहुँचते हैं, वहाँ से तीन कोस पूरब है।"

"और मेरा छै कोस पूरब। तब तो बाबा का गोष्ठ रोचना ! मेरे रास्ते पर ही पड़ेगा।"

"तो, तू बाबा को देख पायेगा। मैं सोचती थी बाबा की तुझसे कैसे भेंट हो।"

"एक ही दिन तो और है, इसीलिए एक चौथाई रान काफी है। यह पिछली रान है रोचना ! बेहद् (बहिला) की ।"

"मेरे पास बछेड़े की आधी टाँग है, आजकल माँस ज्यादा देर होने पर बसाने भी तो लगता है ?”

"नमक डालकर माँस को पकाना कैसा रहेगा ?"

"बहुत अच्छा और मेरे पास गोड़ी भी है पुरुहूत ! मांस, गोड़ी और पीछे थोड़ा-सा सत्तू मिलाने पर अच्छा सूप तैयार हो जायेगा, सोते वक्त सूप तैयार मिलेगा।”

"मैं अकेला होता तो रोचना ! सूप न बनाता, बहुत देर लगाती है; किन्तु तब तक हम पशुओं को बाँधने, बातचीत करने में लगे रहेंगे।"

“बाबा मेरे सूप को बहुत पसन्द करता है, पुरुहूत ! और यह ताँबे की पतीलो।”

"हाँ, ताँबा बहुत महँगा है रोचना ! इस पतीली पर एक घोड़े का दाम खर्च हुआ है, किन्तु रास्ते में यह अच्छी रहती है।"

"तो तेरे घर बहुत पशु होंगे पुरुहत ?"

और बहुत धान्य भी रोचना ! इसलिए यह एक घोड़े-मूल्य की पतीली है। अच्छा, यह ले मैंने माँस काट दिया। पानी और नमक डाल तू तो माँस को आग पर चढ़ा और मैं उस ओर भी लकड़ी की आग तैयार करता हूँ। फिर थोड़ी-सी घास काट गदहों और घोड़ों को बीच में यहाँ बाँधना है। जानती है न चीते को गदहे का माँस उससे भी अधिक मीठा कि हमें बछिया का। और झब्बर ! तब तक तू भी इस पर जीभ चला।”-कह जरा-सी माँस लगी एक हड्डी को झबरा के सामने फेंक दिया। झबरा पूँछ हिलाता हड्डी को पैर में दबा दाँतों से तोड़ने की कोशिश करने लगा। पुरुहूत ने ऊपर का कंचुक और कमरबन्द हटा दिया। बिना बाँह की कुरती के नीचे उसकी चतुरस्त्र छाती और पृथुल बाँहें बतला रही थी कि इस बीस वर्ष के तरुण के शरीर में कितनी ताकत है। काम करते वक्त पुरुहूत का रोआँ-रोआँ नाचता था। कंडी में से दराती निकाल उसने बात की बात में घास का एक ढेर जमा कर दिया, फिर कान पकड़ गदहों को ला बँटा गाड़ कर बाँध सामने घास डाल दिया। इसी तरह भेड़ों को भी।

और काम से निवृत्त हो, अब पुरुहूत भी आग के पास आ बैठा। रोचना पतीली से उबले माँस-खंडों को निकाल कर चमडे पर रखती जा रही थी। पुरुहूत ने कंडी में से एक चर्म-खंड निकाल बाहर बिछा दिया, फिर एक काठ का सुन्दर चषक (प्याला) तथा झिल्ली में रखा पेय निकाल बाहर रखा; उसी के साथ बाँसुरी भी निकल कर जमीन पर गिर पड़ी। मालूम हुआ जैसे कोई कोमल शिशु गिर पड़ा है और चोट के डर से माँ तड़प रही है; उसने जल्दी से बाँसुरी को उठाकर कपड़े से पोंछा और चूम कर उसे कंडी में रखने लगा। रोचना देख रही थी वह बीच में बोल उठी-

"पुरुहूत ! तू बंशी बजाता है ?"

"यह बंशी मुझे बहुत प्यारी है, रोचना ! जान पड़ता है, मेरा प्राण इसी बंशी में बसता है।

"मुझे बंशी सुना, पुरुहूत ।

"अभी या खाने के बाद !!"

"जरा-सा अभी।"

"अच्छा-"कह पुरुहूत ने बंशी को ओंठ में लगा जब आठों उँगलियों को उसके छिद्रों पर फेरना शुरू किया, तो विशाल वृक्षों की छाया से निकल कर पैर फैलाते संध्या-अन्धकार की स्तब्धता में दिगन्त को प्रतिध्वनित करने वाली उस मधुर ध्वनि ने चारों ओर जादू सा फैला दिया। रोचना सब सुध-बुध भूल तन्मय हो उस ध्वनि को सुन रही थी। पुरुहूत किसी उर्वशी के वियोग में व्याकुल पुरुरवा के व्यथापूर्ण गान को बंशी में गा रहा था। गान बन्द होने पर रोचना को मालूम हुआ, वह स्वर्ग से एकाएक धरती पर रख दी गई । उसने आँखों में आनन्दाश्रु भरकर कहा-

"पुरुहूत ! तेरा बंशी का गान बहुत मधुर है, बड़ा ही मधुर। मैंने ऐसी वंशी नहीं सुनी। कितनी प्यारी है यह लय। "

"लोग भी ऐसा ही कहते हैं, रोचना ! किन्तु मैं उसे नहीं समझ सकता। बंशी के ओठों में लगाते ही मैं सब कुछ भूल जाता हैं। यह बंशी मेरे पास रहे, फिर मुझे दुनिया में किसी चीज की चाह नहीं रह जाती।"

"अच्छा आ, पुरु ! अब माँस ठंडा हो जायेगा।"

"और रोचना ! माँ ने चलते वक्त यह द्राक्षा-सुरा दी थी। थोड़ा है, किन्तु मॉस के साथ पीने में अच्छी होगी।"

“सुरा प्रिय है, तुझे पुरु?"

"प्रिय नहीं कह सकता, रोचना ! प्रिय तृप्ति नहीं होती; किन्तु मै तो आँखों में हल्की लाली उछलने के बाद एक बूंट भी नहीं पी सकता।”

"यह हाल मेरा भी है, पुरु ! नशे में चूर आदमी को देखकर मुझे बड़ी घृणा होती है।”-रोचना ने अपने काष्ठ-चषक को निकाल कर नीचे रख दिया।

तीन भाग में एक भाग माँस झब्बर को दिया गया। दोनों ने देर में खान-पान समाप्त किया। चारों ओर अँधेरे की घनी चादर तन गई थी। मोटे लक्कड़ों की धधकती आग की लाल रोशनी और उसके आस पास की थोड़ी-सी जगह के सिवा वहाँ और कुछ दिखाई नहीं देता था। हाँ, कुछ ध्वनियाँ उस वक्त सुनाई देती थीं, जो कीड़े तथा दूसरे क्षुद्र जन्तुओं की मालूम होती थीं। बात और बीच-बीच में बंशी की तान चलती रही। आखिर सत्तू डालकर कई घंटे में पका सूप भी तैयार हो गया। दोनों ने अपने चषकों से गर्मा-गर्म सूप पिया। बड़ी रात जाने पर सोने का प्रस्ताव हुआ। रोचना चमड़े का बिछौना तैयार कर अपने कपड़ों को उतारने में लगी; पुरुहूत ने आग पर और लकड़ियाँ सजा दीं, पशुओं के सामने घास डाल दी, फिर वन के देवताओं की प्रार्थना कर कपड़ों को उतार सो गया!

दूसरे दिन सबेरे उठे तो दोनों अनुभव करते थे, रात भर ही में जैसे उन्होंने सगे बहिन-भाई पा लिये। रोचना के उठने पर पुरुहूत अपने को रोक नहीं सका और बोला-

"मेरा मन तेरा मुख चूमने को करता है, स्वसर (बहिन) !"

"और मेरा भी पुरु ! इस जगत् में हमने बहिन-भाई पाये। पुरुहूत ने उसके बिखरे बालों को पीछे की ओर सँभालते हुए रोचना के दोनों गालों को चूम लिया। दोनों के मुख प्रसन्न और नेत्र गीले थे। मुख धोकर वे थोड़ा सत्तू और सूखा माँस खाकर पशुओं को लाद चल पड़े। बीच-बीच में दो-तीन जगह वे बैठे भी, किन्तु बातचीत में समय इतना जल्दी बीता कि उन्हें मालूम नहीं हुआ, कब डॉडे पर पहुँचे और कब माद्र बाबा के पास। रोचना ने परिचय दिया और बाबा ने पुरुओं की वीरता की प्रशंसा करते हुए पुरुहूत का स्वागत किया।

2.

इस डाँडे पर मद्रों का छोटा-सा गाँव बस गया था, जिसके घर तम्बू या फूस के झोपड़ों के थे। जहाँ नीचे की ओर ढालू या खड़ी पहाड़ी भूमि पर घने देवदारु का जंगल ही जंगल दिखलाई पड़ता था, वहाँ यहाँ डाँडे के ऊपर वृक्षों का नाम नहीं था। जमीन अधिकतर चौरस थी, जिस पर हरी घास का मोटा फर्श बिछा हुआ था। इसी हरे मैदान में कहीं भेड़ें, कहीं गायें और कहीं घोड़े चर रहे थे, जिनके बीच में कहीं-कहीं छोटे-छोटे बछड़े और बछेड़े छलाँग मार कर खेल दिखला रहे थे। इसी भूमि को देखकर तो माद्र बाबा का कहना था, "मनुष्य एक जगह बाँध कर रखने के लिए नहीं पैदा किया गया।” माद्र बाबा का तम्बू इस मास में यहाँ है। जब घास कम हो जाएगी, तो वह दूसरी जगह चला जायेगा। दूध, दही, मक्खन, माँस की यहाँ अधिकता है। तम्बू के भीतर यही चीजें भरी हुई हैं। हर पन्द्रह- बीस दिन पर गाँव से आदमी आता है और यहाँ से मक्खन तथा माँस ले जाता है। जाड़ों में इस डॉडे पर बर्फ पड़ जाती है। बाबा की चले तो वे तब भी यहीं रहें किन्तु पशु बर्फ खाकर तो नहीं रह सकते, इसीलिए घूम-घुमैवे रास्ते से वे थोड़ा नीचे जंगल वाले प्रदेश में चले आते हैं, और पशु सब नीचे गाँव में । बाबा गाँव पर चलने का नाम लेने पर मारने दौड़ते हैं।

अभी दिन था, जब दोनों पथिक बाबा के तम्बू पर पहुँचे थे, इसलिए सामान उतारने के बाद जहाँ बाबा ने हँसते हुए घोड़ों के दूध की सुरा (कूमिस) का काष्ठ कुप्पा और प्याला सामने रखा, कि तीन-चार प्याले में ही रास्ते की सारी थकावट दूर हो गई। शाम को बछेड़ों और बछड़ों के लिये रोचना के भाई-बहिन तथा गाँव के दूसरे तरुण चरवाहे भी आ गये। इधर रोचना ने बाबा से पुरुहूत की बंशी का गुण बखाना था। फिर बाबा जैसे मौजी जीव पुरुहूत को कैसे छोड़ते । उन्हें और गोत्र (गोष्ठ) के सारे तरुणों को बंशी बहुत पसन्द है। रात को जब नृत्य हुआ तो पुरुहूत ने वहाँ भी अपनी करामात दिखलाई ।

सवेरे पुरुहूत ने जाने का नाम लिया, किन्तु बाबा इतनी जल्दी क्यों जाने देने लगे। दोपहर के भोजन के बाद बाबा ने अपनी कथा शुरू की और कथा शुरू हुई कड़ी के पास रखी ताँबे की पतीली को देखकर। बाबा ने कहा-

"इस ताँबे और खेतों को देखकर मेरा दिल जल जाता है। जबसे ये चीजें वक्षु के तट पर आईं, तब से चारों ओर पाप-अधर्म बढ़ गया, देवता भी नाराज हो गये, अधिक महामारी पड़ने लगीं, अधिक मार-काट भी।"

"तो पहले ये चीजें नहीं थी बाबा ?"-पुरुहूत ने कहा।।

"नहीं बच्चा ! ये चीजें मेरे बचपन में जरा-जरा आई। मेरे दादा ने तो इनका नाम तक न सुना था। उस वक्त पत्थर, हड्डी, सींग, लकड़ी के ही सारे हथियार होते थे।"

“तो लकड़ी कैसे काटते थे, बाबा !"

"पत्थर के कुल्हाड़े से ।”

"बहुत देर लगती होगी; और इतनी अच्छी तो नहीं कटती होगी ?

"इसी जल्दी ने सारा काम चौपट किया। अब अपने दो महीने के खाने तथा आधी जिन्दगी के चढ़ने के एक अश्व को देकर एक अयः (ताँबे का) कुल्हाड़ा लो, फिर जंगल का जंगल काट-उजाड़ दो अथवा गाँव के गाँव को मार डालो। लेकिन गाँव जंगल के वृक्षों की तरह निहत्था नहीं है, उसके पास भी उसी तरह का तेज कुल्हाड़ा है। इस अयः कुठार ने युद्ध को और क्रूर बना दिया। इसके घाव से जहर पैदा हो जाता है। पहले वाण के फल पत्थर के होते थे, वे इतने तीक्ष्ण नहीं थे, ठीक है; किन्तु चतुर हाथों में ज्यादा कारगर होते थे। अब इन ताँबे के फलों से दुधमुँहें बच्चे भी बाघ का शिकार करना चाहते हैं। अब काहे कोई निष्णात धनुर्धर होना चाहेगा ?"

"बाबा ! मैं तेरी एक बात से सहमत हूँ, मनुष्य एक जगह बाँधकर रखने के लिए नहीं पैदा किया गया।"

"हाँ वत्स ! पहले दिन के किये पाखाने पर रोज-रोज पाखाना करना हो तो कितना बुरा लगेगा ? हमारा तम्बू आज यहाँ है, पशु यहाँ के तृण खा लेंगे। इसके आस पास मनुष्यों और पशुओं के पेशाब और पाखाने दिखलाई पड़ने लगेंगे, उस समय हम इस जगह को छोड़ दूसरी जगह चले जाएँगे। वहाँ नये हरे-हरे तृण अधिक होंगे, वहाँ धरती, पानी, हवा अधिक शुद्ध होगी।"

"हाँ बाबा ! मैं भी ऐसी ही धरती को पसन्द करता हूँ। ऐसी धरती पर मेरी बंशी ज्यादा सुरीली आवाज निकालती है।"

"ठीक कहा वत्स ! पहले हम इन्हीं तम्बुओं के झुंड को ग्राम कहते थे और ये झुंड एक ही जगह साल भर क्या, तीन महीने भी नहीं रहते; किन्तु आज के गाँव पुत्र-पौत्र सौ पीढ़ी के लिए बनते हैं। पत्थर, लकड़ी, मिट्टी की दीवारें उठाते हैं, जिनसे हवा भीतर नहीं आ सकती। पत्थर, लकड़ी, फूस की छत पाटते हैं, जिसके भीतर हवा क्या जायगी ? आज कहने के लिए अग्नि को देवता, वायु को देवता कहते हैं, किन्तु आज उनके लिए हमारे हृदय में वह सम्मान नहीं है। इसीलिए आज कितनी नई-नई बीमारियाँ होती हैं। हे मित्र ! हे नासत्य ! हे अग्नि ! तुम जो इन मानवों पर कोप दिखलाते हो, सो ठीक ही करते हो।"

"किन्तु बाबा ! इन अयः- कुठारों, अयः-खड्गों, अयः- शल्यों को छोड़कर हम जिन्दा कैसे रह सकते हैं ? इन्हें छोड़ दें तो शत्रु हमें एक दिन में खा जाये ?"

“मैं मानता हूँ, वत्स ! दो महीने को भोजन या आधी जिन्दगी की सवारी वाले घोड़े को खुशी-खुशी बेंचकर लोगों ने अयः- खणग नहीं खरीदा। वक्षु - माता की कोख में दाग लगाया, निचले मद्रों और पशुओं ने वक्षु रोद (नदी) कहाँ तक जाता है, मैं नहीं जानता, कोई नहीं जानता। ऐसे ही झूठ बकने वाले कहते हैं कि पृथ्वी के छोर पर जो अपार पानी है, उसमें जाता है। हाँ, यह मालूम है, मद्रों और पर्शुओं की भूमि के खतम होते ही वक्षु-रोद पहाड़ छोड़ मैदान में चला जाता है और आगे झूठ बोलने वाले देवशत्रुओं की भूमि है। कहते हैं, वहाँ बड़ी-बड़ी टाँगों वाले छोटे-मोटे पहाड़ जैसे जन्तु होते हैं, क्या कहते हैं बच्चा ? अब स्मृति क्षीण होती जा रही है।"

"उष्ट्र (शुतुर, ऊँट) बाबा ! लेकिन वह पहाड़ जितना नहीं होता। एक दिन एक निचला माद्र उष्ट्र का बच्चा लाया था। छै महीने का बतलाता था, वह हमारे घोड़ों के बराबर था।"

"हाँ वत्स ! जो बाहर के देशों से घूमकर आते हैं, वे झूठ बोलना बहुत सीख जाते हैं। कहते थे-क्या कहते हैं ?

"उष्ट्र।"

"हाँ, उष्ट्र की गर्दन इतनी लम्बी होती है, कि वह वक्षु के इस तट पर खड़ा हो उस तट की घास चर सकता है। यह भी झूठ है न बच्चा ?"

"हाँ, बाबा ! उस बच्चे की गर्दन घोड़े से जरूर बड़ी थी, किन्तु घास चरने की बात बिलकुल झूठ।"

"इन्हीं झूठे मद्रों और पशुओं ने अयः- कुठार, अयः-खड्ग की बीमारी फैलाई। पर्शुओं ने हम उत्तर मद्रों पर इन हथियारों से हमला किया, यह बाप के समय की बात है। दो-दो घोड़े देकर एक-एक अयः- कुठार निचले मद्रों से हमारे लोगों ने खरीदा।”

"अयः- कुठार के सामने पाषाण-कुठार बेकार थे न बाबा ।”

"हाँ, बेकार थे वत्स ! इसीलिए मजबूर होकर अयः-शस्त्र लेने पड़े और जब पुरुओं पर निचले मद्रों ने आक्रमण किया, तो तुम्हारे लोगों ने हम मद्रों से अयः-शस्त्र खरीदे । उत्तर मद्रों और पुरुओं में भी झगड़ा नहीं सुना गया वत्स । किन्तु पशु और निचले मद्र सदा से दस्यु का काम करते आये हैं, सदा से पुराने धर्म को छोड़ नई बातें करते आये है और उनके कारण हमारे लोगों को भी अपनी प्राणरक्षा के लिए वैसा करना पड़ा। मैं समझता हूँ, जब तक निचले मद्र और पशु भी अयः-शस्त्रों को नहीं छोड़ते, तब तक हम ऊपर वालों का उन्हें छोड़ना आत्महत्या करना है। किन्तु अयः (ताँबा) का इतना प्रसार बुरा है, इसमें तो शक नहीं वत्स ! इस पाप के प्रचारक यही दोनों जन हैं, उनको कभी देवों को आशीर्वाद नहीं मिलेगा। घोर अन्धकार वाले पाताल में चले जाएँगे, जरूर जाएँगे। इन्हीं की देखा-देखी, इन्हीं के डर से हमारे मिटटी-पत्थर वाले ग्राम बसे। पहले ऐसे ही तम्बुओं वाले--आज यहाँ कल वहाँ रहने वाले ग्राम वक्षु की कुक्षि में थे। किन्तु इन मद्रों ने, इन पर्शुओं ने यह बात तोड़ दी। कहाँ से देखकर धरती माता की छाती चीरी, इन्होंने इन्हीं अयः-शस्त्रों से । ऐसा पाप कभी किसी ने नहीं किया। धरती को माता कहते हैं न वत्स !"

"हाँ, बाबा ! धरती को माता कहते हैं, देवी कहते हैं, उसकी पूजा करते हैं।"

"और उस धरती माता की छाती को अपने हाथों से इन पापियों ने चीरा ! और क्या किया-नाम भूलता हूँ, स्मृति काम नहीं करती वत्स !"

"कृषि, खेती।"

"हाँ, कृषि और खेती चलायी। गेहूं बोया, व्रीहि (चावल) बोया, जौ बोया, आज तक कभी यह सुना नहीं गया। हमारे पूर्वजों ने कभी धरती माता की छाती नहीं चीरी, देवी का अपमान नहीं किया। धरती माता हमारे पशुओं के लिए घास देती थी। उसके जंगलों में तरह-तरह के मीठे फल थे, जो हमारे खाने से खत्म नहीं होते थे। किन्तु इन मद्रों के पाप और उनकी देखा-देखी किये गये हमारे पाप के कारण वह पोरिसा भर उगने वाली घासें कहाँ हैं ? अब पहले जैसी मोटी गायें-जिनमें से एक सारे मद्र जन के एक दिन के भोजन को पर्याप्त होतीं-कहाँ हैं ? न वे गायें, न वे घोड़े, न वे भेड़े हैं। जंगल के हरिन और भालू भी अब उतने बड़े नहीं होते। आदमी भी उतने दिन नहीं जीते। यह सब पृथ्वी देवी के कोप के कारण है, वत्स ! और कुछ नहीं।"

"बाबा ! आपने कितने शरद (जाड़े) देखे हैं ?"

"सौ से ऊपर वत्स ! उस वक्त हमारे गाँव के दस तम्बू थे, अब मिट्टी-पत्थर की दीवारों वाले सौ घर हो गये हैं। जब खेत नहीं थे, तब उनके चलते-फिरते घर, चलते-फिरते ग्राम होते थे; जब खेत हो गये, तो उनके गेहूँ को हरिनों से बचाओं, दूसरे पशुओं से बचाओ। खेत क्या, मनुष्य के बाँधने के लिए बँटे हो गये। लेकिन वत्स ! मनुष्य एक जगह बाँधकर रहने के लिए नहीं पैदा किया गया। जो बात देवों ने मानवों के लिए नहीं बनाई. उसे इन मद्रों और पशुओं ने बनाकर दिखाया।"

"किन्तु बाबा ! क्या अब इस खेती को हम चाहें तो छोड़ सकते हैं ? आज हमारा आधा भोजन धान्य है।"

"हाँ, यह मानता हूँ वत्स ! किन्तु धान्य हमारे पूर्वज नहीं खाते थे। यहाँ से पच्चीस कोस दक्खिन गेहूँ का जंगल है। वहाँ गेहूँ अपने आप जमता, अपने आप फलता, अपने आप झेर जाता है। उसे गायें खार्ती, उनका दूध बढ़ जाता है, घोड़े खाते हैं और खूब मोटे हो जाते हैं। हर साल हमारे पशु वहाँ जाते हैं। धरती माता ने धान्यों को आदमी के लिए नहीं पैदा किया—उनके दाने हमारे खेत वाले गेहूँ से छोटे-छोटे होते हैं-धरती ने इन्हें पशुओं के लिए बनाया था। मुझे डर लगता है कि कहीं जंगली गेहूँ नष्ट न हो जायें। हमारे खाने के लिए वत्स ! ये गायें हैं, घोड़े हैं, भेड़-बकरियाँ हैं, जंगल में भालू, हिरन, सूअर कितने ही तरह के शिकार हैं, द्राक्षा आदि कितने तरह के फल हैं। यह सब आहार धरती माता हमें खुशी से देती थी, किन्तु बुरा हो इन मद्रों, पर्शुओं का, इन्होंने पुराना सेतु तोड़ नया रास्ता बनाया, जिससे मानवों पर देवों का कोप उतरा। अभी वत्स ! न जाने वक्षु -वासियों के भाग्य में क्या-क्या बदा है। मैं तो पच्चीस साल से डाँडा छोड़ ग्राम में नहीं गया। जाड़ों में थोड़ा नीचे एक झोपड़ी में चला जाता हूँ। क्या जाऊँ, सभी लोग पूर्वजों के बॉधे सेतु को तोड़ फेंकना चाहते हैं। पूर्वजों के मुँह से निकली वाणी का भी मैं इतने दिनों से गोप रहा हूँ, अब भी जिसको सीखना होता है, वह यहाँ मेरे पास आता है। किन्तु उस वाणी के न मानने वाले बहुत होते जा रहे हैं। अब सुनते हैं मद्रों पर्शुओं का खेती से भी पेट नहीं भर रहा है। अब वे वक्षु वालों के आहार-परिधान को ढो-ढोकर कहाँ दे रहे हैं, और उनकी जगह क्या मिलता है-देखो यही एक घोड़े को देकर खरीदी पतीली, भूखे मरने लगे तो क्या इसे पतीली के खाने से पेट भरेगा ? अब पुरुओं को पेट के आहार तथा शरीर को वस्त्र रहित पाओगे, और उनकी जगह उनके घरों में पाओगे इन पतीलियों को ।”

"और बाबा ! एक और सुना है, निचले मद्रों की स्त्रियों ने कानों और गलों में पीले सफेद आभूषण पहनने शुरू किये हैं। एक कान के आभूषण में एक घोड़े का दाम लग जाता है, बाबा ! उसे अयः नहीं. हिरण्य (सोना) कहते हैं और सफेद को रजत ।"

"कोई मार नहीं देता इन अधर्मियों को । ये सारे वक्षु- जन-मण्डल का सत्यानाश करके छोड़ेंगे। ये हमारे आहार-परिधान के लिए जो कुछ बेच रहा है, उसे भी नहीं छोड़ेंगे। हमारी स्त्रियाँ भी उनकी देखा-देखी दो घोड़े के दाम का कुंडल कानों में पहनेंगी । हे कृपालु अग्नि ! अब अधिक दिन मानवों में मत रखों, मुझे पितरों के लोक में ले चलो।"

"एक और भारी पाप, बाबा। मद्र और पशु कहीं से आदमी पकड़ लाये हैं, उनसे अयः-खड्ग, अयः- कुठार बनवाते हैं। वे बड़े चतुर शिल्पी हैं, बाबा ! किन्तु, माद्र-पशुं उन्हें पशु की तरह जब चाहते हैं, रखते हैं; जब चाहते, बेच देते हैं। खेती का काम, कम्बल बुनने का काम और क्या-क्या दूसरे काम ये लोग इन्हीं पकड़कर रखे लोगों-जिन्हें वे दास कहते हैं-से कराते हैं।"

"मनुष्य का खरीदना बेचना ! हम तो आहार-परिधान का बेचना ये भी बुरा मानते थे, किन्तु हमारे पूर्वज पितरों को यह आशा न थी, कि ये मद्र-लंक इतने नीचे गिर जायेंगे। जब अँगुली सड़ने लगे तो उसकी दवा है, काट फेंकना, नहीं तो सारा शरीर सड़ जायेगा ! इन मद्रों-पर्शुओं को वक्षु -तट पर रहने देना पाप है, पुत्र ! मैं अब ज्यादा दिन तक देखने के लिए नहीं रहूँगा।”

माद्र बाबा की कहानियाँ बड़ी मनोरंजक होती थीं, किन्तु पुरुहूत इतना समझने की भी शक्ति रखता था कि जो हथियार आ गये हैं, उन्हें छोड़कर मनुष्य तथा पशु-शत्रुओं के बीच जिया नहीं जा सकता। तीसरे दिन जब वह विदा होने लगा, तो वृद्ध ने उसके ललाट और भ्रू को चूमकर आशीर्वाद दिया। रोचना उसे दूर तक पहुँचाने गई और अलग होते वक्त दोनों ने एक-दूसरे के गालों को अश्रु-बिन्दुओं से प्रक्षालित किया।

3.

माद्र बाबा की बात ठीक हुई, यद्यपि पच्चीस वर्ष बाद निचले मद्र और पशु दिन पर दिन ऊपर वाले पुरुओं और मद्रों को दबाते ही गये। जहाँ इन ऊपर वाले जनों में कपड़ा, कम्बल बनाने वाले स्वतंत्र स्त्री-पुरुष होते, जिनके खाने - कपड़े पर खर्च ज्यादा पड़ता, जिससे उनके हाथ की बनी वस्तु अच्छी होते भी अधिक महँगी पड़ती, वहाँ नीचे के मद्रों और पशुओं के पास दास थे, जिनकी बनाई चीजें उतनी अच्छी नहीं होतीं, तो भी सस्ती पड़तीं। जब वहाँ के व्यापारी इन सभी चीजों को बाहर के देशों में ऊँट या घोड़े पर लादकर ले जाते, तो बहुत बिकतीं । ऊपरी जनों को भी अब ताँबे की वस्तुएँ अधिकाधिक संख्या में जरूरी थीं-एक तो हर साल वह कुछ न कुछ सस्ती होती जाती थीं; दूसरे मिट्टी- काठ की चीजों से वे चिरस्थायी होतीं । जहाँ पच्चीस साल पहले ताँबे की पतीली एकाध घरों में दिखाई पड़ती, वहाँ अब उससे बिरले ही घर खाली थे, सोने-चाँदी का भी रिवाज बढ़ने लगा था और इन सबके बदले इन जनों को आहार-कम्बल, चमड़ा, घोड़े या गायें बेचनी पडतीं, जिससे उनकी अवस्था गिरती जा रही थी। ऊपर के जनों के कुछ लोगों ने भी सीधे व्यापार करने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें सन्देह होने लगा था, कि उनको नीचे के पड़ोसी ठग रहे हैं; लेकिन वक्षु के नीचे जाने का रास्ता उन्हीं की जन्म-भूमि से होकर था, जिसे मद्र खोलना नहीं चाहते थे। कई बार इसको लेकर छोटे-मोटे झगड़े भी हुए। कितनी ही बार उत्तर मद्रों और पुरुओं ने बाहर के देशों में जाने के लिए दूसरे रास्ते निकालने चाहे, किन्तु उसमें वे सफल नहीं हुए। नीचे ऊपर के जनों के इस संघर्ष में एक खास बात यह थी, कि जहाँ नीचे वाले आपस में मेल नहीं रख सकते थे, वहाँ ऊपर वाले जन मिलकर आक्रमण-प्रत्याक्रमण कर सकते थे। इन युद्धों में अपनी वीरता और बुद्धिमानी के कारण पुरुहूत अपने जन का प्रिय हो गया था, और तीस साल की छोटी आयु में पुरु जन ने उसे अपना महापितर चुन लिया था।

पुरुहूत को साफ दीख रहा था कि यदि मद्रों के इस व्यापारिक अन्याय को रोका नहीं गया, तो ऊपरी जनों के लिए कोई आशा नहीं ताँबे का प्रचार कम होने की जगह दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था; हथियार, बर्तन और आभूषण के लिए ही नहीं, अब तो लोग विनिमय के लिए मनों माँस या कम्बल ले जाने की जगह ताँबे की तलवार या छुरी ले जाना पसन्द करते थे। पुरुहूत ने अपने जन की बैठक के सामने अपने दुःखों का कारण इन नीचे के जनों का व्यापारिक अन्याय बतलाया। सभी सहमत थे कि मार्गकंटक मद्रों को हटाये बिना वे उनके हाथ की कठपुतली बन जायेंगे। शायद वे दिन भी आयें, जबकि वे उनके दासों जैसे हो जायें । पुरु और उत्तर मद्र के महापितरों की इकट्ठा बैठक में भी लोग इसी निष्कर्ष पर पहुँचे। दोनों जनों ने मिलकर युद्ध-संचालन के लिए पुरुहूत को अपना एक सम्मिलित सेनापति चुना और उसे इन्द्र की उपाधि दी। इस प्रकार पुरुहूत प्रथम इन्द्र था।

पुरुहूत ने बड़े जोर से सैनिक तैयारी शुरू की। इन्द्र बनते ही उसने हथियार बनाने का इन्तजाम करने के लिए दो लोहार दासों को अपने यहाँ शरण दी। ऊपरी जन उनके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करते थे, और उनकी सहायता से वह लौह (लाल धातु-ताँबा) शिल्प में निपुणता प्राप्त करने में सफल हुए। इस प्रकार मद्रों और पुरुओं में कितने ही लौह-शिल्पी तैयार हो गये। अपने लोहार दासों को लौटा देने के लिए पड़ोसियों ने जबान ही नहीं बल्कि शस्त्र को भी इस्तेमाल करना चाहा, किन्तु निचले जनों में बनियापन के साथ-साथ योद्धा के पराक्रम की कमी भी आ गई थी। लड़ाई में सफल न होने पर उन्होंने ताँबा देना बन्द कर दिया। किन्तु उन्हें जल्दी ही मालूम हो गया कि इससे उनका व्यापार ही चौपट हो जायेगा-मद्र पुरु तो पिछले समय की खरीदी पतीलियों तथा दूसरे बर्तनों से अपने शस्त्र तैयार करने में एक पीढ़ी के लिए स्वतन्त्र थे।

आखिर इन्द्र और उसके दोनों जनों ने मद्र-पशुओं को मिटा डालने का संकल्प किया। पुरुहूत ने स्वयं भी लोहार का काम सीखा था, और उसके सुझाव के अनुसार खड्ग भाले तथा बाण-फल में कई सुधार हुए। उसने चतुर बलिष्ठ भटों की छातियों को चोट से बचाने के लिए कितने ही ताँबे के वक्ष-व्राण बनवाये । इन्द्र ने तय किया कि पहले सिर्फ एक शत्रु को लिया जाय, और इसके लिए उसने पर्शुओं को चुना। जाड़ों में पर्शु अधिक संख्या में व्यापार के लिए बाहर चले जाते थे, इन्द्र ने इसी समय को सबसे अच्छा समझा। उत्तर मद्र और पुरु के योद्धाओं को उसने युद्ध कौशल सिखलाया। यद्यपि पशुओं और मद्रों की शत्रुता चिर से चली आती थी, किन्तु उनको क्या पता था कि इस तरह अचानक उनके ऊपर शत्रु का ऐसा घातक आक्रमण होगा, जिसके कारण वक्षु-उपत्यका से उनका नाम तक मिट जायेगा । इन्द्र ने स्वयं अपने नेतृत्व में चुने हुए मद्र और पुरु-योद्धाओं के साथ आक्रमण किया। युद्ध के उद्देश्य को पहचानने में देर न हुई, और समझ जाने पर पर्शु प्राणों की बाजी लगाकर बड़ी वीरता से लड़े। किन्तु, उस जल्दी में वे सारे पशु-ग्रामों को एकत्र न कर सके। इन्द्र की सेना ने एक के बाद एक पर्शु-ग्रामों को लेते हजारों पर्शुओं का संहार किया-किसी को बन्दी नहीं बनाया। उधर निचले मद्रों ने जब संकट को समझा, तो समय बीत चुका था। आखिर के कुछ गाँव ही अब रह गये थे, जिनके लिए काफी भटों को छोड़ पुरुहूत इन्द्र कुरु-भूमि में चला आया। निचले मद्रों ने आक्रमण किया, किन्तु उनकी भी वही दशा हुई जो कि पर्शुओं की हुई । निचले मद्र और पर्शु-जनों का जो भी पुरुष-बाल, रुग्ण, बृद्ध-उनके हाथ आया, उसे उन्होंने

जीवित नहीं छोड़ा, स्त्रियों को अपनी स्त्रियों में शामिल कर लिया। हाथ आये दासों में जिन्होंने अपने देश में लौट जाना चाहा, उन्हें लौटा दिया। कुछ निचले मद्र और पशु स्त्री-पुरुष जान बचाकर वक्षु उपत्यका छोड़ पश्चिम की ओर चले गये। उन्हीं की सन्तानें पीछे ईरान की पर्छ (पर्सियन) और मद्र (मिडियन) के नाम से प्रसिद्ध हुई। उनके पूर्वजों पर इन्द्र के नेतृत्व में जो अत्याचार हुआ था, उसे वे भूल नहीं सकते थे। इसीलिए ईरानी इन्द्र को अपना सबसे जबर्दस्त शत्रु मानने लगे। सारी वक्षु-उपत्यका उत्तर मद्रों और पुरुओं के हाथ आई। दोनों ने दाहिनें-बायें तट को आपस में बाँट लिया।

वक्षु वालों ने भरसक कोशिक की कि नई को हटाकर पुरानी बातों की फिर से स्थापना करें किन्तु वे ताम्र को छोड़कर पत्थर के हथियारों को नहीं लौटा सकते थे और ताम्र के लिए वक्षु की पहाड़ी उपत्यका से बाहर व्यापार सम्बन्ध करना जरूरी था।

हाँ, दासता को उन्होंने कभी नहीं स्वीकार किया और न बाहरी लोगों को वक्षु-उपत्यका का स्थायी निवासी बनने का अधिकार दिया। शताब्दियों के बाद जब पुरुहूत इन्द्र को भी लोग भूलने लगे थे या उसे देवता बना सके थे, तो वंश इतना बढ़ गया कि सब का भरण-पोषण वक्षु- नहीं कर सकती थी, इसलिए उनकी कितनी ही सन्तानें दक्षिण की ओर बढ़ने के लिए बाध्य हुईं।

अब से पहले एक जन दूसरे से स्वतन्त्र रहता था, महापितर की प्रधानता होने पर भी वह सब कुछ जन पर निर्भर करता था। किन्तु, वक्षु तट के अन्तिम संघर्ष ने कई जनों के एक सेनापति-इन्द्र को जन्म दिया।

*****

(आज से एक सौ अस्सी पीढ़ी पहले के आर्यजनों की यह कहानी है। इन्हीं जनों में से कुछ की सन्तानें अब भारत की ओर प्रस्थान करने वाली थीं । उस समय कृषि और ताँबे का प्रयोग होने लगा था, आर्य दासता को अस्वीकृत कर उसे फिर से विस्मृत करना चाहते थे।)

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