Purudhan (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

पुरुधान (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

5. पुरुधान
देश : ऊपरी स्वात
जाति : हिन्दी-आर्य
काल : २००० ई० पू०

1.

वह सुवास्तु का बायाँ तट अपने हरे-भरे पर्वतों, बहते चश्मों, दूर तक फैले खेतों में लहराते गेहूँ के पौधों के कारण अत्यन्त सुन्दर था। किन्तु आर्यों को सबसे अधिक अभिमान था, अपनी पत्थर की दीवारों तथा देवदारु के पल्लों से छाई वस्तुओं-घरों-का, तभी तो उन्होंने इस प्रदेश को यह (सुन्दर घरों वाला प्रदेश, स्वात) नाम दिया। वक्षुतट पार करते आर्यों ने पामीर और हिन्दुकुश से दुर्गम डाँडों, तथा कुनार, पंज.कोरा जैसी नदियों को कितनी मुश्किल से पार किया। इसकी स्मृति शायद उन्हें बहुत दिन तक रही, और क्या जाने आज जो मंगलपुर (मंगलोर) में इन्द्र-पूजा की भारी तैयारी है, वह इन्हीं दुर्गम पथों से सकुशल निकाल लाने वाले अपने इन्द्र के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए।

आज मंगलपुर के पुरुओं ने अपने अपने सुन्दर गृहों को देवदारु की हरी शाखाओं और रंग-बिरंगी इंडियों से सजाया है। पुरुधान को एक खास तरह की लाल झंडियाँ लगाते हुए देख, एक को हाथ में ले उसके पड़ोसी सुमेध ने कहा-

"मित्र पुरु ! यह तुम्हारी इंडियाँ बड़ी हल्की और चिकनी हैं। हमारे यहाँ तो ऐसे वस्त्र नहीं बनते, यह दूसरी ही तरह की भेड़ें होंगी!"

"यह भेड़ों का ऊन नहीं है, सुमेध !"

"तो फिर ?"

"यह ऐसा ऊन है जो वृक्ष पर उगता है।

"हमारे यहाँ जैसे भेड़ों के शरीर पर ऊन उगता है, उसी तरह यह ऊन जंगल में वृक्ष पर उगता है।"

"ऐसा ही सुना जाता है, मित्र ! मैने स्वयं उस वृक्ष को नहीं देखा।”

सुमेध ने तकले को जॉघ से रगड़ कर घूमने के लिए फेंक ऊन की नई प्यूनी लगाते हुए कहा-"कितने भाग्यवान होंगे वे लोग जिनके जंगल के वृक्षों में ऊन जमता है ! क्या हमारे यहाँ यह वृक्ष नहीं लगाये जा सकते ?"

"सो मालूम नहीं। सर्दी-गर्मी को वह वृक्ष कितना बर्दाश्त कर सकता है, इसे हम नहीं जानते; किन्तु सुमेध ! माँस तो वृक्ष पर नहीं पैदा होता ?"

"जब किसी देश में ऊन वृक्ष पर पैदा होता है, तो किसी में मॉस भी हो सकता है। और इसका दाम ?"

"दाम ऊनी कपड़े से बहुत कम, किन्तु ऊन के बराबर यह ठहरता नहीं ।”

"कहाँ से खरीदा ?"

"असुर लोगों के पास से। यहाँ से पचास कोस पर उनका देश है, वह लोग इसी का कपड़ा पहनते हैं।"

"इतना सस्ता है, तो हम लोग भी इसे क्यों न पहने ?"

"किन्तु इससे जाड़ा नहीं जा सकता।"

"फिर असुर कैसे पहनते हैं ?"

"उनके यहाँ सर्दी कम पड़ती है, बरफ तो देखने को नहीं मिलती।"

"तुम वाणिज्य के लिए पूर्व, उत्तर, पश्चिम न जा दक्खिन को ही क्यों जाते हो ?"

"उधर नफा अधिक रहता है; और चीजें भी बहुत तरह की मिलती है; लेकिन एक बड़ी तकलीफ है—वहाँ बहुत गर्मी है, मधुर शीतल जल के लिए तो जी तरस जाता है।"

"लोग कैसे होते हैं, पुरुधान ?"

"लोग नाटे-नाटे होते हैं रंग ताँबे-जैसा । बड़े कुरूप। नाक तो मालूम होती है, है ही नहीं-बहुत चिपटी-चिपटी, भौंड़ी-भौंडी। और एक बहुत बुरा रिवाज है वहाँ, आदमी खरीदे-बेचे जाते हैं।"

"खरीदे-बेचे ?"

"उन्हें दास कहते हैं।"

"दासों और स्वामियों की सूरत-शकल में क्या कुछ अंतर होता है ?"

"नहीं! हाँ, दास बहुत गरीब, परतन्त्र होते हैं-उनका तन-प्राण स्वामी के हाथ में होता है।"

"इन्द्र हमारी रक्षा करे, ऐसे लोगों का मुँह देखने को न मिले ।”

"और मित्र सुमेध ! अब भी तुम्हारा तकला चल रहा है, यज्ञ में नहीं चलना है?"

"चलना क्यों नहीं है, इन्द्र की कृपा से पीवर पशु और मधुर सोम मिलता है। उसी इन्द्र की पूजा में कौन अभागा है, जो न शामिल होगा ?"

"और तुम्हारी गृहपत्नी का क्या हाल है ? आजकल तो अखाड़े में उसका पता ही नहीं चलता ?"

"चसक गये हो क्या पुरुधान ?"

"चसकने का सवाल ही क्या है? तुमने तो सुमेध जान-बूझकर बुढ़ापे में तरुणी से प्रणय करना चाहा।”

"पचास में बुढ़ापा नहीं आता ।”

"लेकिन, पचास और बीस में कितना अन्तर होता है ?"

"तो उसने उसी दिन इन्कार कर दिया होता ?"

"उस दिन तो दाढ़ी-मूछ मुड़ाकर अठारह वर्ष के बन गये थे; और उषा के माँ-बाप की नजर पचास वर्ष पर नहीं, तुम्हारे पशुओं पर थी।"

"छोड़ो इस बात को पुरु ! तुम तरुण लोग तो हमेशा...."

"अच्छा छोड़ता हूँ सुमेध ! देखा बाजा बजने लगा है यज्ञ आरम्भ होगा।"

"देर करा दोगे तुम और गाली सुनेगा बेचारा सुमेध ।”

"तो चलो, उषा को भी साथ ले चलें ।"

"वह क्या अब तक घर पर बैठी होगी ?"

"और इस ऊन और तकले को तो लाओ रख चलें ।"

"इसने यज्ञ में बाधा नहीं पड़ने की।"

"इसीलिए तो उषा तुम्हें पसन्द नहीं करती।

"पसन्द तो करती; किन्तु तुम मंगलपुर के तरुण यदि पसन्द करने दो तब न ?"

बात करते दोनों मित्र नगर से बाहर यज्ञ-वेदी की ओर जा रहे थे। जिस तरुण-तरुणी की पुरुधान से चार आँखें होतीं, वह मुस्कुरा उठता। पुरुधान उन्हें आँखों से इशारा कर मुँह फेर लेता। सुमेध की नजरों ने एक बार एक तरुण को पकड़ लिया, फिर क्या था, वह बड़बड़ाने लगा-

"मंगलपुर के कलंक हैं ये तरुण !"

"मित्र-वित्र नहीं, मुझको देखकर हँसते हैं।"

"यह बदमाश है मित्र, तुम तो जानते ही हो, इसकी बात को क्या लिये हो।"

"मुझे तो मंगलपुर में भलामानुष कोई दिखलायी ही नहीं पड़ता।"

यज्ञ-वेदी के पास विस्तृत मैदान था, जिसमें जहाँ-तहाँ मंच और देवदारु के पत्तों वाले खम्भों पर तोरण बन्दरवार टॅगे थे, ग्राम के बहुत से स्त्री-पुरुष वेदी के आस-पास जमा थे, किन्तु अभी वह बड़ा जमावड़ा शाम से होने वाला था, जबकि सारे पुरुजन के नर-नारियों का भारी मेला मंगलपुर में लगेगा और जिसमें स्वात नदी के दूसरे तट के मद्र भी शामिल होंगे।

उषा ने दोनों जोड़ीदारों को आते देखा और वह सुमेध के पास आकर उसके हाथ को अपने हाथों में ले तरुण-तरुणियों का-सा प्रेमाभिनय करते बोली-

“प्रिय सुमेध ! सवेरे से ढूंढती-ढूँढ़ती मर गई. तुम्हारा कहीं पता नहीं !"

"मैं क्या कहीं मर गया था ?"

"ऐसा वचन मुँह से मत निकालो, सुमेध ! जीते-जी मुझे विधवा न बनाओ।"

"विधवाओं को पुरुओं में देवरों की कमी नहीं।"

"और सधवाओं को क्या देवर विष लगते है ?”–पुरुधान ने कहा।

"हाँ, ठीक कहा पुरु ! यह मुझको चराने आई है। सवेरे से ही घर से निकली है, न जाने कितने घर न्योते बाँटे होंगे और शाम को एक कहेगा मेरे साथ नाच, दूसरा कहेगा मेरे साथ झगड़ा होगा, खून-खराबी होगी और इस स्त्री के लिए बदनाम होगा सुमेध ।"

उषा ने हाथ को छोड़ आँखों और स्वर की भावभंगी को बदलते हुए कहा-"तो, उषा को तुम पिटारी में बन्द करके रखना चाहते हो ? जाओ तुम चूल्हे-भाड़ में, मैं भी अपना रास्ता लेती हूँ।"

उषा ने एकान्त पा पुरुधान को देख मुस्कुरा दिया, और वह वेदी के गिर्द की भीड़ में गायब हो गई।

साल में सिर्फ आज का ही दिन है जब स्वात की उपत्यका में पुराने इन्द्र को वक्षु-तट की भाँति सबसे मोटे अश्व का माँस खाने को मिलता है, घोड़े के लिए सारे जन में चुनाव होता है। वैसे स्वात उपत्यका में घोड़ा नहीं खाया जाता; किन्तु इन्द्र की इस वार्षिक प्रथा के यज्ञ-शेष को सभी भक्तिभाव से ग्रहण करते हैं। जन के महापितर-जिन्हें यहाँ जनपति कहा जाता है–आज अपने जन-परिषद् के साथ इन्द्र को वह प्रिय बलि देने के लिए मौजूद हैं। जनपति को बलिदान का सारा विधि-विधान याद है; वह सारे मन्त्र याद है, जिनसे स्तुति करते हुए वक्षु-तटवासी इन्द्र को बलि दिया करते थे। बाजे और मन्त्रस्तुति के साथ अश्व के स्पर्श, प्रोक्षण से लेकर आलम्भन (मारने) तक सारी क्रिया सम्पन्न हुई। फिर अश्व के चमड़े को अलग कर उसके शरीर के अवयवों को अलग-अलग रखकर, कितने को कच्चा और कितने को बघार कर, अग्नि में आहुति दी गई। यज्ञशेष बँटते-बँटते शाम होने को आई। तब तक सारा मैदान नर-नारियों में भर गया। सभी अपने सुन्दरतम वस्त्रों और आभूषणों में थे। स्त्रियों के शरीर में रंगीन सूक्ष्म कम्बल कामदार भिन्न-भिन्न रंगों के कमरबन्द से बँधा हुआ था, जिसके भीतर सुन्दर कंचुक था। कानों में अधिकांश के सोने के कुण्डल थे। वसन्त समाप्त हो रहा था, उपत्यका में बहुत तरह के फूल, मानो आज के लिए ही फूले हुए थे। तरुण-तरुणियों ने अपने लम्बे केशों को उनसे खूब सँवारा था और आज इन्द्रोत्सव में उन्हें स्वच्छन्द प्रणय का पूरा अधिकार था। शाम को जब बनी-ठनी उषा पुरुधान के हाथ को अपने हाथ में लिए घूम रही थी, तो सुमेध की नजर उन पर पड़ी। उसने मुँह फेर लिया। क्या करता बेचारा । इन्द्रोत्सव के दिन गुस्सा भी नहीं कर सकता था। पिछले ही साल इसके लिए जनपति ने उसे फटकारा था ।

आज सचमुच मधु-क्षीर- मिश्रित सोम (भंग) रस की नदियाँ बह रही थीं। गाँव-गाँव के लोगों की ओर से बछड़े या बेहद के स्वादिष्ट माँस और सोमरस के घट आकर रखे हुए थे। अभिनव प्रणय में मस्त तरुण-तरुणियों को हर जगह स्वागत था। वह मॉस-खंड मुँह में डालते, सोम का प्याला पीते, इच्छा होने पर बाजे-जो बजते या हर वक्त बजने के लिए तैयार रहते थे-पर कुछ नाचते और फिर दूसरे ग्राम के स्वागत-स्थान को चल देते। सारे जन की ओर से बड़े पैमाने पर तैयारी की गई थी, यहाँ का नाचने का अखाड़ा भी बहुत बड़ा था।

इन्द्रोत्सव मुख्यतः तरुणों का त्योहार था। इस एक दिन-रात के लिए तरुण सारे बन्धनों से मुक्त हो जाते थे।

2.

ऊपरी स्वात का यह भाग पशु और धान्य से परिपूर्ण है, इसीलिए यहाँ के लोग बहुत सुखी और समृद्ध हैं। उनको जिन वस्तुओं का अभाव है, उनमें मुख्य हैं ताँबा और शौक की चीजों में सोना-चाँदी तथा कुछ रत्न, जिनकी माँग दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। इन चीजों के लिए हर साल स्वात और कुभा (काबुल) नदियों के संगम पर बसे असुर-नगर हैं। जान पड़ता है, इस असुर-नगर को पीछे आर्य लोग पुष्कलावती (चारसद्दा) के नाम से पुकारने लगे और हम भी यहाँ इसी नाम को स्वीकार कर रहे हैं। जाड़े के मध्य में स्वात, पंजकोरा तथा दूसरी उपत्यकाओं में रहने वाली पहाड़ी जातियाँ-पुरु-कुरु, गान्धार, मद्र, मल्ल, शिवि, उशीनर आदि अपने घोड़ों, कम्बलों तथा दूसरी विक्रेय वस्तुओं को लेकर पुष्कलावती के बाहर वाले मैदान में डेरे डालती थीं। यह असुर व्यापारी उनकी चीजों को ले बदले में इच्छित वस्तुएँ देते थे। सदियों से यह क्रम अच्छी तरह चला आता था। अब के साल पुरुओं का सार्थ (कारवाँ) पुरुधान के नेतृत्व में पुष्कलावती गया। इधर कई वर्षों से पहाड़ी लोगों में शिकायत थी कि असुर उनको बहुत ठग रहे हैं। असुर नागरिक व्यापारी इन पहाड़ियों से ज्यादा चतुर थे, इसमें तो शक ही नहीं। साथ ही वह इन्हें निरे उजड्ड जंगली समझते थे, जिनमें कुछ सभ्यता भी थी, किन्तु पीले बालों, नीली आँखों वाले आर्य घुड़सवार कभी अपने को असुर नागरिकों से नीच मानने के लिए तैयार न थे। धीरे-धीरे जब आर्यों में से पुरुधान जैसे कितने ही आदमी असुरों की भाषा समझने लगे, और उन्हें उनके समाज में घूमने का मौका मिला, तो पता लगा कि असुर आर्यों को पशु-मानव मानते हैं। यह आरम्भ था दोनों जातियों में वैमनस्य के फूट निकलने का।

असुरों के नगर सुन्दर थे। उनमें पक्की ईंटों के मकान, पानी बहने की मोरियाँ, स्नानागार, सड़के, तालाब आदि होते थे। आर्य भी पुष्कलावती की सुन्दरता से इंकार नहीं करते थे। किन्हीं किन्हीं असुर तरुणियों के सौदर्य को-नाक, केश, कद की शिकायत रखते भी-वे मानने के लिए तैयार थे; किन्तु यह कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, कि देवदारों से आच्छादित पर्वत मेखला के भीतर काष्ठ की चित्र-विचित्र अट्टालिकाओं से सुसज्जित, स्वच्छ गृह पंक्तियों वाला मंगलपुर किसी तरह भी पुष्कलावती से कम है। पुष्कलावती में महीना भर काटना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता था और बार-बार अपनी जन भूमि याद आती थी। यद्यपि वही स्वात नदी पुष्कलावती के पास भी बह रही थी, किन्तु वह देखते थे, उसके जल में वह स्वाद नहीं है। उनका कहना था, असुरों का हाथ लगने से ही वह पवित्र जल कलुषित हो गया है। कुछ भी हो आर्य असुरों को किसी तरह भी अपने बराबर मानने के लिए तैयार नहीं थे, खासकर जब कि उन्होंने उनके हजारों दास-दासियों, और कोठों पर बैठकर अपने शरीर को बेचने वाली वेश्याओं को देखा।

लेकिन व्यक्ति के तौर पर आर्यों के असुरों में और असुरों के आर्यों में कितने ही मित्र पैदा हो गये थे। असुरों का राजा पुष्कलावती से दूर सिन्धु तट के किसी नगर में रहता था। इसलिए पुरुधान ने उसे नहीं देखा था। हाँ, राजा के स्थानीय अफसर को उसने देखा था। वह नाटा, मोटा और भारी आलसी था, सुरा के मारे उसकी मोटी पपनियाँ सदा मूंदी रहा करती थीं। उसके सारे शरीर में दर्जनों रूपे-सोने के आभूषण थे। कानों को फाड़कर उसने कंधे तक लटका लिया था। यह अफसर पुरुधान की दृष्टि में कुरूपता और बुद्धिहीनता का नमूना था। जिस राज्य का ऐसा प्रतिनिधि हो उसके प्रति पुरुधान जैसे आदमी की अच्छी सम्मति नहीं हो सकती थी। पुरुधान ने सुना था कि वह असुर राजा का साला है और इसी एक गुण के कारण वह इस पद पर पहुँचा है।

कई साल के अस्थायी सहवास के कारण पुरुधान को असुर समाज भीतर की बहुत-सी निर्बलताएँ मालूम हो गयी थीं। उच्च वर्ग के असुर चाहे जितने चतुर हों, किन्तु उनमें कायर अधिक पाये जाते हैं। यह अपने अधीनस्थ भटों और दासों के बल पर शत्रु से मुकाबला करना चाहते हैं। निर्बल शत्रु के सामने ऐसी सेना ठहर नहीं सकती। असुरों के शासक-राजा, सामन्त--अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य भोग-विलास समझते थे। हरेक सामन्त की सैकड़ों स्त्रियाँ और दासियाँ होती थीं। स्त्रियों को भी वह दासियों की भांति रखते थे। हाल में असुर राजा ने कुछ पहाड़ी (आर्य) स्त्रियों को भी बलात् अपने रनिवास में दाखिल किया था, जिसके लिए आर्य जनों में बहुत उत्तेजना फैली हुई थी। खैरियत यही थी कि असुर राजधानी सीमान्त से बहुत दूर थी और वहाँ तक आर्यों की पहुँच अभी नहीं थी, इसीलिए लोग आर्य स्त्रियों की बात को दन्तकथा समझते थे।

पुष्कलावती के बाजारों से तरह-तरह के आभूषण, कार्पास वस्त्र, अस्त-शस्त्र और दूसरी चीजें, सुवास्तु क्या, कुनार के उपरले काँठे के खानाबदोशों के झोपड़ों तक पहुँचने लगी थीं। सुवास्तु की स्वर्ण केश सुन्दरियाँ चतुर असुर शिल्पियों के हाथ के बने आभूषणों पर मुग्ध थीं, इसलिए सार्थ के साथ हर साल अधिक से अधिक आर्य स्त्रियाँ पुष्कलावती आने लगी थीं। सुमेध बेचारा सचमुच उषा को विधवा कर चल बसा था, और अब वह अपने चचेरे देवर पुरुधान की पत्नी थी। इस साल वह भी पुष्कलावती आई थी । पुष्कलावती के नगराधिपति के आदमियों ने पीतकेशों के तम्बुओं के भीतर बहुत-सी सुन्दरियों को देख, इसकी खबर अपने स्वामी को दी, और उसने तय किया था, कि जब सार्थ लौटने लगे, तो पहाड़ (अबाजई) में घुसते ही हमला करके उसे लूट लिया जाये। यद्यपि यह काम बुद्धिहीनता का था, क्योंकि पीतकेश कितने लड़ाके होते हैं, इसका पता उसे था, किन्तु नगराधिपति में बुद्धि की गन्ध तक न थी। नगर के बड़े-बड़े सेठ-साहूकार उससे घृणा करते थे। जिस व्यापारी से पुरुधान की मित्रता थी, उसकी सुन्दरी कन्या को हाल ही में नगराधिपति ने जबर्दस्ती अपने घर में डाल लिया था। इसके लिए वह उसका जानी-दुश्मन बन गया था। उषा भी असुर सौदागर के घर कई बार गई थी। यद्यपि वह सौदागर - पत्नी की एक बात को भी नहीं समझती थी। किन्तु पुरुधान के दुभाषियापन तथा सेठानी के व्यवहार के कारण दोनों आर्य-असुर नारियों में सखित्व कायम हो गया था। प्रस्थान करने से दो दिन पहले सौदागर ने अपने भारी ग्राहक पुरुधान की दावत की। उसी वक्त उसने पुरुधान के कान में नगराधिपति के नीचे इरादे की बात कह दी। उसी रात पुरुधान के सारे आर्य सार्थ नायकों को बुलाकर परामर्श किया। जिनके पास अच्छे हथियारों की कमी थी, उन्होंने नये हथियार खरीदे । बेचने के लिए लाये घोड़े तथा दूसरे भारी गट्ठर उनके बिक चुके थे, सिर्फ अपने चढ़ने के घोड़े तथा खरीदे सामान, आभूषण, धातु की दूसरी चीज-हल्के थे, इसलिए इस ओर से उनको कम चिन्ता थी। स्वात की आर्य-स्त्रियों में आभूषण- श्रृंगार का शौक बढ़ रहा था, किन्तु अभी तक उनकी तरुणाई की शिक्षा में गीत-नृत्य के साथ शस्त्र-शिक्षा भी शामिल थी; इसलिए संकट की खबर सुनते ही उन्होंने भी अपने-अपने खड्ग और चर्म-ढाल सँभाल लिये।

पुरुधान को पता था कि असुर-भट सीमान्त के पहाड़ी दर्रे पर आगे से रास्ता रोककर हमला करेंगे, और उसी वक्त उनकी एक बड़ी टुकड़ी पीछे से भी घेरना चाहेगी । इसके लिए पुरुधान ने पूरी तैयारी कर ली थी, जो कि पहले खबर के मिल जाने से ही सम्भव हुई। वैसे होता. तो पंजकोरा, कुनार और स्वात के सार्थ अलग-अलग बिना एक-दूसरे का ख्याल किये चल देते; किन्तु अब सब तैयार थे। यद्यपि शत्रु को पता न लगने देने के लिए उन्होंने पुष्कलावती से एक-दो दिन आगे-पीछे कूच किया था; किन्तु बात तय हो चुकी थी, कि अब्जा (अबाजई) के द्वार पर सभी एक समय पहुँचेंगे। जब द्वार (दर्रा) कोस-दो- कोस रह गया, तो पुरुधान ने पच्चीस सवार पहले भेजे। जिस वक्त सवार द्वार के भीतर बढ़ने लगे, उसी वक्त असुरों ने उन पर बाण छोड़ने शुरू किये। आक्रमण की बात सच निकली। सवार पीछे हट आये, और उन्होंने अपने सार्थनायक को खबर दी। पुरुधान ने पहले पीछे आने वाले शत्रुओं से निबटना चाहा। इसमें सुभीता भी था, क्योंकि यद्यपि असुर हर साल आर्यों से हजारों की संख्या में घोड़े खरीद रहे थे, किन्तु अभी वह चुस्त सैनिक घुड़सवार नहीं बन सके थे।

सार्थ रुक गया, और रक्षा के लिए कितने ही भटों को वहाँ छोड़ बाकी सवारों के साथ पुरुधान पीछे मुड़ा। असुर-सेना को आशा न थी, कि पीतकेश एकाएक उन पर आ पड़ेंगे। पीतकेशों के लम्बे भालों और खड्गों के सामने वह देर तक न ठहर सके, लेकिन आर्य-दल उन्हें सिर्फ पराजित करके नहीं छोड़ना चाहता था। वह इन निर्नास, काले असुरों को बतलाना चाहता था कि पीतकेशियों पर नजर डालना कितनी खतरे की बात है। सुर-सेना को भागते देख पुरुधान ने सार्थ को सूचना भेजी और अपने सवारों को ले पुष्कलावती पर आ पड़ा। असुर सैनिकों की भॉति उनका नगराधिपति भी इसकी आशा नहीं रखता था। असुर अपनी पूरी शक्ति को इस्तेमाल करने का मौका नहीं पा सके, और आसानी से असुर- दुर्ग तथा नगराधिपति पीतकेशों के हाथ में आ गये। पीतकेश असुरों के इस विश्वासघात से बहुत उत्तेजित थे। उन्होंने बड़ी निर्दयतापूर्वक असुर- पुरुषों का वध किया। नगराधिपति को तो नगर के चौरास्ते पर ले जा असुर- प्रजा के सामने एक-एक अंग काटकर मारा। उन्होंने स्त्रियों, बच्चों और व्यापारियों को नहीं मारा। यदि उस वक्त दास बनाने की इच्छा होती, तो सम्भव है पीतकेश (आर्य) इतना अधिक वध न करते । पुष्कलावती के बहुत से भाग को उन्होंने आग लगाकर जला डाला। यह प्रथम असुर-दुर्ग का पतन था।

असुरों और पीतकेशों के महान् विग्रह-देवासुर-संग्राम-का इस प्रकार प्रारम्भ हुआ। पुरुधान ने लौटकर अब्जा दर्रे में एकत्र असुर सैनिकों को खतम किया और फिर सारे पीतकेश सार्थ अपनी-अपनी जन भूमियों को चले गये। कई सालों के लिए पुष्कलावती का व्यापार मारा गया। पीतकेशों ने असुर-पण्य को लेने से इन्कार किया; किन्तु ताँबे-पीतल का बहिष्कार वह कितनी देर तक कर सकते थे ?

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(आज से दो सौ आठ पीढ़ी आर्य(देव)-असुर संघर्ष हुआ था, उसी की यह कहानी है। आर्यों के इस पहाड़ी समाज में दासता स्वीकृत नहीं हुई थी। ताँबे - पीतल के हथियारों और व्यापार का जोर बढ़ चला था।)

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