पंजाब का भाषा-सर्वेक्षण (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Punjab Ka Bhasha-Sarvekshan (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi

पंजाब सरकार के भाषा विभाग और पंजाबी विश्वविद्यालय ने मिलकर पंजाब राज्य में बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों के तथा उसके सांस्कृतिक महत्त्व के कार्यों का सर्वेक्षण कराने का निश्चय किया है। यह बहुत ही उत्तरदायित्वपूर्ण और पवित्र कार्य है। इसके लिए अधिक से अधिक सावधानी और वैज्ञानिक तटस्थ बुद्धि की आवश्यकता होती है।

हमारे देश में भाषाओं के अध्ययन का कार्य बहुत पुराना है। हमारे वैयाकरणों ने समय-समय पर विभिन्न प्रदेशों में बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों के बारे में कुछ उल्लेख योग्य काम किया। परन्तु 'लिंग्विस्टिक सर्वे' उनसे भिन्न श्रेणी का काम है। यह केवल कुछ बोलियों के नाम गिनाने या व्याकरण बनाने का काम नहीं है। यह उससे भिन्न भी है और अधिक महत्त्व का काम भी है। आधुनिक युग में हमारे देश के भाषा सर्वेक्षण का कामं उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से शुरू हुआ है। यद्यपि यूरोपीय विद्वानों ने इस देश की भाषाओं की जानकारी प्राप्त करने के लिए थोड़ा-बहुत काम बहुत पहले से ही शुरू कर दिया था, लेकिन सन् 1878 ई. तक कोई ऐसा काम नहीं हुआ था जिसे आधुनिक दृष्टि से एक अच्छा 'केटलाग' भी कहा जा सके। यूरोपियन यात्रियों में जिन लोगों ने भाषा के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न किया, उन्होंने बहुत कुछ अटकल का ही सहारा लिया। किसी-किसी ने इस देश की भाषाओं की संख्या 50-60 बतायी और किसी ने 250 तक। परन्तु 1878 ई. में प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ कल्ट ने पहला शानदार प्रयत्न किया और अपनी खोज का विवरण Modern Languages of the East Indies नामक ग्रन्थ में प्रकाशित कराया।

इस पुस्तक में पहली बार भाषाशास्त्रीय सूझ-बूझ के साथ इस देश की भाषाओं के वर्गीकरण का प्रयत्न किया गया है। उनका यह प्रयत्न अधूरा ही था क्योंकि किसी एक व्यक्ति के लिए चाहे वह कितना भी बड़ा पण्डित हो, सम्पूर्ण भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण एक असम्भव कार्य ही है। फिर भी डॉक्टर कल्ट का काम बहुत ही शानदार था। क्योंकि उसने विद्वानों को और सरकार को इस कार्य के करने की बड़ी प्रेरणा दी।

सन् 1886 ई. में वियना में ओरियण्टल कांग्रेस की ऐतिहासिक बैठक हुई। डॉ. कल्ट इस कांग्रेस के सदस्य थे। इसी कांग्रेस में सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. बइलर ने प्रस्ताव किया जिसे प्रोफेसर बेकर ने समर्थन दिया। इस प्रस्ताव में भारत सरकार से अनुरोध किया गया था कि वह भारतवर्ष की भाषाओं का ' A deliberate Systematic Survey कराये। कांग्रेस में यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ जिसका भारत सरकार पर बड़ा प्रभाव पड़ा। कोई आठ वर्ष के विचार-विमर्श और सलाह-मशविरे के बाद सन् 1884 ई. में भारत सरकार ने इस महान् कार्य के लिए दृढ़ संकल्प किया। उस समय भारतवर्ष की आबादी उन्तीस करोड़, चालीस लाख कूती गयी थी, जिसमें बाईस करोड़ चालीस लाख लोग ब्रिटिश इण्डिया के ही निवासी थे। इस सर्वेक्षण का काम प्रसिद्ध विद्वान् सर जार्ज ग्रियर्सन को सौंप दिया गया। इस प्रकार वर्षों के कठिन परिश्रम से भारतवर्ष का पहला सर्वांगीण भाषा-सर्वेक्षण प्रस्तुत हुआ । इस सर्वेक्षण के आधार पर पता चला कि भारतवर्ष में 169 भाषाएँ और 544 बोलियाँ हैं। परन्तु यह सर्वेक्षण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हुए भी त्रुटिहीन नहीं कहा जा सकता। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद कई बार यहाँ अनुभव किया गया कि भाषा-सर्वेक्षण का काम फिर से और नये सिरे से करना चाहिए । परन्तु नयी परिस्थितियों में भाषा के साथ भावावेग, अनुचित आसक्ति और राजनीतिक हानि-लाभ की भावना इतनी जुड़ गयी है कि वैज्ञानिक तटस्थ दृष्टि बनने में बराबर कठिनाई अनुभव की जाती रही है। परन्तु कठिनाई कितनी भी क्यों न हो, भाषा-सर्वेक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य स्थगित नहीं किया जा सकता। कुछ न कुछ राजनीतिक लाभ-हानि की भावना और भावावेग तो हमेशा बना ही रहेगा। ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण पर भी यह आरोप लगाया गया था कि उसमें तत्कालीन भारत सरकार की साम्राज्यवादी नीति काम कर रही थी। आवश्यकता है यथाशक्ति शुभ बुद्धि, निष्पक्ष वैज्ञानिक दृष्टि और सच्चे ज्ञान के प्रति अटूट निष्ठा की। जिसके भीतर ये बातें होंगी, वही इस कार्य को ठीक-ठीक कर सकेगा। भारतवर्ष अब स्वाधीन हुआ है। अब हमारी सभी भाषाएँ और सभी बोलियाँ अपनी हैं। हमारा पक्षपात हो तो सभी भाषाओं और बोलियों के साथ होना चाहिए और होगा। इसी शुभ बुद्धि से इस महान् कार्य को हाथ में लेना चाहिए।

ग्रियर्सन ने जब भाषा सर्वेक्षण का काम शुरू किया था तो उस समय के भाषा प्रेमी विद्वानों के सहयोग से कुछ पद्धतियाँ अपनायी गयी थीं। उनकी जानकारी हमारे इस कार्य के लिए आवश्यक होगी। पहली बात यह तय की गयी थी कि एक परिनिष्ठित या स्टैण्डर्ड कहानी दी जाए जिसे भिन्न-भिन्न बोलियों के बोलने वालों से अपनी भाषा में कहलवाया जाए और उसका शुद्ध लेखन किया जाए। यह भी निश्चय किया गया कि उस क्षेत्र में जो लिपि प्रचलित हो, उसी में वह कहानी लिखी जाए और फिर उसे रोमन लिपि में उतार लिया जाए। हर प्रकार की ध्वनि रोमन लिपि में लिखी जा सके, यह प्रयत्न बहुत सावधानी से किया गया। अनेक नये चिह्नों की योजना करके रोमन वर्णमाला को अधिक से अधिक पूर्ण बनाने की कोशिश की गयी। 'स्टैण्डर्ड कहानी' के लिए बाइबल की Parable of Prodigal Son नामक कहानी चुनी गयी। परन्तु भारतीय जनता की रुचि का ध्यान रखते हुए उसमें थोड़ा परिवर्तन भी कर लिया गया। इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सभी वचन, कारक और लिंग आ जाते हैं। क्रियाओं के भी तीनों कालों के रूप आ जाते हैं और अधिकतर सर्वनाम रूप भी इसमें आ जाते हैं। परन्तु आशंका की बात यह थी कि अँग्रेजी न जानने वाले के लिए यह दुर्बोध्य थी। उसे अनुवाद करके हिन्दुस्तानी या अन्य किसी भाषा में समझाना पड़ता था और कहने वाला उस अनुवाद का अनुवाद करता था। इससे मुहावरेदार सहज-स्वाभाविक भाषा का परिचय मिलना कठिन हो जाता था। यद्यपि इस कहानी के अनुवाद से व्याकरण के ढाँचे का तो पता चल जाता था किन्तु उस बोली या भाषा का जीवन्त रूप सामने नहीं आ पाता था। इस कमी को पूरा करने के लिए एक दूसरी पद्धति अपनायी गयी। यह दूसरी पद्धति यह थी कि बोलने वाले से उसी क्षेत्र में प्रचलित कोई लोक-कथा कहलायी गयी। इसमें बोलने वाले को पूरी स्वतन्त्रता थी कि वह अपनी इच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक जो भी कहना चाहे, कहे। इन दोनों बातों के अतिरिक्त एक तीसरी बात और स्वीकार की गयी। सर जार्ज कैम्पबेल ने बहुत पहले भारतीय भाषाओं की एक परिनिष्ठित शब्द-सूची तैयार की थी जो बंगाल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में बहुत पहले प्रकाशित हो चुकी थी। इस सूची में कुछ और शब्द जोड़कर 'A Standard List of Words' बनाया गया। प्रत्येक बोली में इनके लिए कौन-से शब्द प्रयुक्त होते हैं। और इनका उच्चारण किस प्रकार का है, यह जानने की कोशिश की गयी। प्रत्येक जिला अधिकारी और पोलिटिकल ऐजेण्ट को ये सारी बातें अच्छी तरह से समझा दी गयीं । और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं और बोलियों के नमूने इकट्ठे किये गये और भाषा सर्वेक्षण का कार्य सम्पन्न किया गया। इन नमूनों का भाषा-शास्त्रीय विश्लेषण बड़ी सावधानी से किया गया। सारे नमूने जब मिल गये तो देखा गया कि इनमें भाषाओं की संख्या 231 है और बोलियों की 774 । बाद में छानबीन करने पर मालूम हुआ कि यह संख्या ठीक नहीं है क्योंकि कई बोलियाँ दो या अधिक जिलों में बोली जाती हैं। इसलिए कई बोलियों का नाम दो या तीन बार भी आ गया है। इन सबको भाषाशास्त्र की कसौटी पर कसकर देखा गया तो पता चला कि भाषाओं की संख्या वस्तुतः 169 है और बोलियाँ 544 । परन्तु गलती की सम्भावना इसमें भी है। क्योंकि सन् 1921 की जनसंख्या में इन्हीं आधारों पर भाषाओं की संख्या 188 बतायी गयी है।

स्पष्ट है कि जिला अधिकारियों और पोलिटिकल एजेण्टों ने जिन लोगों को इस काम के लिए नियुक्त किया था, वे सभी भाषा शास्त्रीय नियमों के जानकार नहीं थे। इस काम में अधिकतर पटवारियों और पोस्टमैन जैसे लोगों से मदद ली गयी। कई बार तो ऐसी

बोलियों का पता चला जिनको जानने वाला कोई पढ़ा-लिखा आदमी ही नहीं मिला। हिमालय में एक ऐसी बोली का पता चला जो तिब्बती परिवार की थी। उसके बोलने वाले बहुत-थोड़े लोग थे जो तिब्बत से आकर वहाँ बस गये थे। उनकी भाषा आस-पास के लोग बिलकुल नहीं समझते थे। लेकिन उत्साही कार्यकर्ताओं ने उसके नमूने भी पेश कर ही दिये। ग्रियर्सन ने लिखा है कि उस बोली का नाम "Was a solemn procession of weird monosyllobles wandering right across a page" अर्थात् एकाक्षरिक शब्दों की लम्बी कतार थी जो पूरा पन्ना घेरे हुए थी। मूँड मारकर के भी ग्रियर्सन इस नाम का कोई मूल किनारा नहीं खोज सके। दोबारा पूछताछ करने पर रहस्य का पता लगा । पूछने वाले राजकर्मचारी ने उस बोली के बोलने वाले से पूछा कि तुम्हारी बोली का नाम क्या है ? उसने अपनी बोली में उत्तर दिया कि मैं कुछ भी नहीं समझ रहा हूँ कि आप पूछना क्या चाहते हैं "I don't understand what you are driving at ?" कर्मचारी महोदय ने इस पूरे वाक्य को उस बोली का नाम समझ लिया। ऐसी ही कहानियाँ और भी हैं। इस कहानी से आप आसानी से समझ सकते हैं कि कर्मचारी महोदय ने भाषा का नमूना कैसा संग्रह किया होगा। आशा करनी चाहिए कि पंजाब सरकार के कर्मचारी इस प्रकार की गलतियाँ नहीं करेंगे।

एक विचित्र बात यह है कि हिन्दुस्तान की अधिकांश जनता यह नहीं जानती कि वह कौन-सी बोली बोलती है। कम से कम ग्रियर्सन के समय तो यही अवस्था थी। हर बोली का नाम उसके पड़ोसियों का दिया हुआ है। पंजाब के दक्षिण और बीकानेर के उत्तर में एक बोली बोली जाती है, उसका नाम है— 'जंगली' । परन्तु बोलने वाले में से कोई भी अपनी बोली को जंगली कहने को तैयार नहीं हुआ। पड़ोसियों ने ही उसको यह नाम दे रखा था और लिंग्विस्टिक सर्वे में यह नाम भी उजागर हो गया। मेरी अपनी बोली का नाम 'भोजपुरी' है। परन्तु गाँव के लोग यह नहीं जानते थे कि उनकी बोली का नाम भोजपुरी है। यह नाम अँग्रेज सिपाहियों का दिया हुआ है। कुछ लोग एक सामान्य भाषा नाम जानते हैं और इसी से अपनी बोली का भी परिचय दे दिया करते हैं। भाषा सर्वेक्षण का काम करने वालों को सब बातों का सामना करना पड़ेगा। हो सकता है कि Linguistic Survey of India में दिये हुए नामों में अधिकांश कल्पित या बनावटी जान पड़ें। आपको बड़ी सावधानी के साथ संही स्थिति का पता लगाना होगा। पड़ोसियों के दिये हुए नाम कभी-कभी घृणासूचक या उपहाससूचक होते हैं, जैसे बंगाली लोग पूर्वी बिहार वालों की भाषा को 'खोटा भाषा' कहते हैं और स्वयं बिहार वाले मैथिली को 'छिकाछिकी' कहने का मतलब यह है कि केवल दूसरों की बात पर अन्ध भाव से विश्वास करने की जरूरत नहीं है, स्वयं विश्लेषण करके तथ्यों का पता लगाना चाहिए।

भाषा-सर्वेक्षण करने वालों के सामने एक प्रश्न यह भी रहा है कि भाषा और बोली का अन्तर कैसे किया जाए। यूरोपियन विद्वानों में एक मान्यता यह रही है कि बोली विभिन्न क्षेत्रों की घरेलू भाषा है। कई बोलियों के लोग आपसी व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा का व्यवहार करते हैं, जिसे उस क्षेत्र के सभी बोलियों के बोलने वाले समझ जाते हैं। यह मान्यता व्यावहारिक दृष्टि से ठीक कही जा सकती है। पर भाषाशास्त्रीय कसौटी पर ठीक नहीं उतरती। ग्रियर्सन ने कहा है कि लगभग समूचे उत्तरी भारतवर्ष में लोग एक सामान्य भाषा हिन्दी हिन्दुस्तानी को समझ लेते हैं। फिर भी भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से मैथिली, भोजपुरी, कुमायूँनी, गढ़वाली भाषाएँ एक नहीं हैं। उनका परिवार अलग है। साधारणतः क्रियापद, सर्वनाम और वाक्य रचना से परिवार के भेदक लक्षणों का ज्ञान होता है। हमारे संविधान में चौदह (अब अठारह-सम्पादक) भाषाएँ मानी गयी हैं। पर भाषाशास्त्री इसे व्यावहारिक भेद ही कहेगा। भाषा परिचय की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू अलग भाषाएँ नहीं हैं। हिन्दी का लिखा जाने वाला भाषाशास्त्रीय रूप भोजपुरी और अवधी के उतना निकट नहीं है, जितना पंजाबी या गुजराती का रूप । इसी प्रकार बिहार की भाषाएँ बँगला के अधिक निकट हैं। इस बात की अधिक सावधानी से जाँच होनी चाहिए कि विभिन्न बोलियों का असली परिवार कौन है। इस विषय को सामयिक राजनीति से यथासम्भव दूर रखना चाहिए। राजनीति बदलती रहती है, भाषा अधिक स्थायी वस्तु है।

जिस क्षेत्र के भाषा-सर्वेक्षण का कार्य आप करने जा रहे हैं उसका गठन ही भाषा के आधार पर हुआ है। कुछ दिन पूर्व तक 'पंजाब' बहुत बड़ा क्षेत्र था। देश-विभाजन के बाद वह आधे से भी कम रह गया। अब नये सिरे से जिस राज्य को हम पंजाब कहते हैं वह बिलकुल पंजाबी भाषा-भाषी क्षेत्र है। इसके वर्तमान रूप की कहानी आप सबको मालूम है। पर इस तथ्य से आपका काम आसान नहीं हो जाता। पंजाबी यहाँ की मुख्य भाषा है। पर यहाँ और भाषाएँ हैं ही नहीं, यह नहीं समझना चाहिए। जिस भाषा या बोली को बोलने वाले दस आदमी हों वह भी भाषा या बोली ही है। लिंग्विस्टिक सर्वे के कार्यकर्ता उसे भूल नहीं सकते और न उपेक्षा कर सकते हैं। इससे भाषाओं और बोलियों की संख्या बढ़ भी सकती है फिर भी पंजाबी भाषा का महत्त्व उससे घटने वाला नहीं है। भाषा सर्वेक्षण वैज्ञानिक अध्ययन है। व्यवहार के क्षेत्र में उसके सैकड़ों प्रकार के उपयोग हो सकते हैं। उत्तरी अमेरिका की राजभाषा अँग्रेजी है। वही वहाँ की मुख्य भाषा है। पर भाषा सर्वेक्षण से पता चलता है कि वहाँ अँग्रेजी के सिवा लगभग 25 परिवारों की 345 भाषाएँ बोली जाती हैं। केन्द्रीय अमेरिका और मैक्सिको में 20 परिवारों की कोई 84 भाषाएँ हैं और दक्षिणी अमेरिका में लगभग 77 परिवारों की 776 भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें कुल अमेरिका में 122 परिवारों की 1205 भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें अँग्रेजी या अन्य यूरोपीय भाषाओं को नहीं जोड़ा गया है। इससे स्पष्ट है कि भाषा सर्वेक्षण करने वालों ने छोटे से छोटे समुदाय की भाषा को भी छोड़ा नहीं है। पर इस बड़ी संख्या से अंग्रेजी के राजभाषा होने में कोई बाधा नहीं आती। इस विशाल संख्या को देखते हुए भारतवर्ष की 169 भाषाएँ और 544 बोलियाँ बहुत कम दिखती हैं। ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण की चर्चा हम कर चुके हैं। दूसरे देशों में छोटे-छोटे जिलों या तहसीलों को लेकर उनका सर्वेक्षण किया गया है और भाषाओं या बोलियों के एटलस तैयार किये गये हैं। सन् 1821 से पहले श्मेलर ने बबेरियन उपभाषाओं का काम किया था। सन् 1893 में स्कीट नामक अँग्रेजी विद्वान् ने इंग्लिश डायलेक्टोलॉजी सोसायटी की स्थापना की थी और इंगलैण्ड की कई बोलियों का एटलस तैयार किया था। सन् 1876 में जर्मन पण्डित जार्ज बेंकट ने राइन की बोलियों का सर्वेक्षण किया था और बाद में पूरे जर्मनी, सरकारी सहायता से और स्कूली शिक्षकों के उत्सापूर्ण सहयोग से, भाषाओं का बहुत शानदार काम किया था। पर विद्वानों को इस कार्य से सन्तोष नहीं हो सका क्योंकि उत्साह देने वालों में उत्साह तो बहुत था पर इस विषय का प्रशिक्षण नहीं मिला था। और भी बहुत काम हुए हैं। इनका नाम गिनाना यहाँ अभिप्रेत नहीं है । परन्तु 1928-43 के कनाडा के न्यू इंग्लैण्ड का कुरेथ द्वारा बनाये एटलस की चर्चा कर देना उचित समझता हूँ। भारतीय भाषाओं के विभिन्न क्षेत्रों में भी कुछ काम हुए हैं। वस्तुतः क्षेत्रीय भाषा उसके अध्ययन की भाषाशास्त्रीय धारणा (जिसे लिंग्विस्टिक जियाग्रफी या भाषा भूगोल का नाम दिया गया है) काफी महत्त्वपूर्ण बन गयी है ।

अब तक इस विषय पर जिन लोगों ने काम किया है, वे थोड़े-बहुत भेद के साथ मोटे तौर पर एक ही पद्धति से काम करते रहे हैं। जिस क्षेत्र का अध्ययन करना होता है उसे कई विभागों में बाँट लिया जाता है और वहाँ की सामाजिक और अन्य परिस्थितियों की मोटी रूपरेखा बना ली जाती है। यह जरूरी है इसलिए कि जिस क्षेत्र में काम करना हो उसके सामाजिक, धार्मिक विश्वासों, अन्धविश्वासों और रीति-रिवाजों की जानकारी न होने से कार्यकर्ता को कभी-कभी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उस बोली के प्रतिनिधि का विश्वास अर्जन करना पड़ता है। नहीं तो यदि लोग उसे सन्देह की दृष्टि से देखने लगें तो ठीक उत्तर नहीं देते या बिल्कुल सहयोग नहीं करते ।

आज कल इस पद्धति को Field Method कहा जाता है और इस पर अनुभवी लोगों ने पुस्तकें भी लिखी हैं। भाषा का अध्ययन पाँच दृष्टियों से किया जाता है— ध्वनि, रूप, शब्द, अर्थ और वाक्य । ऐसी कहानियाँ लोगों से कहलाने के लिए चुन जानी चाहिए जिनमें भाषा के ये सभी रूप मिलाये जा सकें। यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि जिस व्यक्ति से सूचनाएँ संग्रह की जा रही हैं वह यथासम्भव बाहरी बोलियों या साहित्यिक भाषा से प्रभावित न हो। पहले केवल संग्रहकर्ता के सुनने और ठीक-ठीक लिख सकने की क्षमता पर ध्यान दिया जाता था अब टेप यन्त्रों के आविष्कार के बाद से इसकी सहायता ली जाने लगी है। पर अनुभव से देखा गया है कि कभी-कभी इस यन्त्र को ही भूतों की करामात मान लिया जाता है और संग्रहकर्ता को परेशानी उठानी पड़ती है। पिछड़े इलाकों में इस बात की अधिक आशंका होती है। इसीलिए सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। अब भाषाओं और बोलियों की विभाजक रेखाओं के निश्चय के लिए आइसोग्लास या आइसोफोन पद्धति प्रचलित है। इससे उस विभाजक रेखा का पता चलता है जहाँ से भाषा में परिवर्तन के चिह्न स्पष्ट होने की ओर झुकने लगते हैं। इस विषय के जानकार अब हमारे देश में बहुत तो नहीं, पर मिल जाएँगे। सर्वेक्षण आरम्भ करने के पूर्व हमें 'पूर्ववर्ती' विद्वानों के अनुभव और आधुनिक पद्धतियों पर सावधानी से विचार कर लेना चाहिए। भाषा बोलियों के नक्शों को आजकल बहुत महत्त्व दिया जाता है। ध्वनि, शब्दरूप, वाक्य विन्यास, अर्थ आदि की रेखाएँ प्रायः भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को घेरे लिया करती हैं। फिर भी कुछ ऐसे स्थल होते हैं जहाँ वे प्रायः मिल जाती हैं और पास-पास आ जाती हैं। इन्हीं मिली हुई या सटी हुई रेखाओं से बोलियों का क्षेत्र विभाजित होता है। पर कितनी भी सावधानी क्यों न बरती जाए स्पष्ट विभाजक रेखा प्रायः कल्पित रेखाएँ ही होती हैं। भाषा एक जीवन्त तत्त्व है । उसे भौतिक पद्धतियों से सीमाबद्ध करना कठिन है। प्रायः एक क्षेत्र की विशेषताएँ दूसरे में मिल जाया करती हैं। भाषा-सर्वेक्षण के समय यह सदा याद रखना चाहिए कि बहुत सुकुमार प्राणवन्त वस्तु की जाँच की जा रही है।

पंजाब राज्य कई बार विभाजित हुआ है। पाकिस्तान बनने के समय जो विभाजन हुआ उससे भाषा विषयक उथल-पुथल हुई है और पुरानी परिस्थितियों में बड़ा अन्तर आ गया है। विभिन्न बोलियों के बोलने वाले झुण्ड के झुण्ड लोग इधर से उधर आये गये हैं। पंजाबी भाषा के शब्द के पुराने अर्थों में अन्तर आया है। किसी समय सिराइकी हिन्दकी के लिए इस शब्द का प्रयोग होता था । सिराइकी शब्द का अर्थ है ऊँची भूमि की भाषा। सिरो ऊँची भूमि को कहते हैं। परिनिष्ठित लहँदा, जिसे लायलपुर में अधिक परिनिष्ठित रूप में पाया जाता है, को पंजाबी भाषा के नाम पर समझा जाता था। लहँदा या लहँदी का अर्थ पश्चिमी है । यह सूर्यास्त के अर्थ में प्रयुक्त शब्द है। पूरे पंजाब के पश्चिमी भाग की भाषा को यह नाम दिया गया था । वस्तुतः 'लहँदे दी बोली' अर्थात् पछाँही भाषा से अँग्रेज अधिकारी ने इस शब्द को ले लिया था। कभी हिन्दुओं की भाषा होने के कारण 'हिन्दकी', जाटों की भाषा होने के कारण 'जटकी', उच्च कस्बे के नाम पर इसे ‘उच्ची' दिया गया। ग्रियर्सन ने इसके परिनिष्ठित रूप को सुपरिभाषित नाम दिया। उनके अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या कोई 48 हजार के आस-पास थी । अब कितने लोग हैं, कितने बाहर चले गये हैं और कितने अन्य क्षेत्रों से आकर लहँदा भूमि में बस गये हैं, इसका अभी तक ठीक-ठीक पता नहीं है। आज पंजाबी भाषा का प्रयोग साहित्यिक भाषा के लिए अधिक रूढ़ हो गया है। परिनिष्ठित पंजाबी का शुद्ध भाषा वैज्ञानिक ढाँचा केन्द्रीय पंजाब के मैदानों में है। अमृतसर के आस-पास का इलाका मध्य-भूमि या माझ कहा जाता था। माझ की भाषा माझी के अतिरिक्त जालंधरी, दोआबी, बोवाई, रावी, मालबाई, भट्टियानी ( जिसमें बीकानेरी, राठी, फाजिल्काई, बागड़ी, फीरोजपुरी, राठौरी, हैं) आदि से प्रचुर उपादान लेकर साहित्यिक परिनिष्ठित पंजाबी का गठन हुआ है। विभाजन के बाद इसमें कौन-कौन से नये उपादान आये हैं, यह आपके प्रयत्नों से स्पष्ट होगा। पाकिस्तानी पंजाबी की अनेक बोलियों के बोलने वाले इन प्रदेशों में आ बसे हैं। निश्चय ही भाषा उनके सम्पर्क से प्रभावित हुई होगी।

भाषा का अध्ययन हमारे सांस्कृतिक विकास और आदान-प्रदान को स्पष्ट करता है। यह उचित ही है कि भाषा के सर्वेक्षण के साथ-साथ हम सांस्कृतिक सर्वेक्षण की ओर भी अग्रसर हों। भाषा में प्रयुक्त एक-एक शब्द एक-एक स्वराघात कुछ सूचना देते हैं। व्यक्तियों के नाम, कुलों या खानदानों के नाम, पुराने गाँव के नाम जीवन्त इतिहास के साक्षी हैं। हमारे रीति-रिवाज, पहनावे मेले, नाच-गान, पर्व, त्यौहार, उत्सव हमारे पुराने इतिहास की कथा सुना जाते हैं। यह आश्चर्य और कुतूहल की ही नहीं, उल्लास और आनन्द की बात है कि उपरले स्तर पर जहाँ इतिहास हमें लड़ाई-झगड़े और मार-काट की बात बताते हैं वहीं गहरायी में हमारे शब्द हमारे स्वराघात, हमारे गाँव हमारे त्यौहार, हमारे मेले भुजा उठाकर घोषणा करते हैं कि उपरले स्तर पर जहाँ पर राज्यलिप्सा है, झगड़े हैं, धक्का-मुक्की है वहीं गहरायी में मिलन का मार्ग तैयार होता रहता है। मनुष्य मिल रहा है, ले-दे रहा है, एक हो रहा है। कभी पंजाब में नागों का और आर्यों का कितना भयंकर संघर्ष था, इसका आभास हमें महाभारत के अर्जुन द्वारा किये गये खाण्ड वन दाह और जनमेजय द्वारा अनुष्ठित नागयज्ञ से मिलता है। कब वह संघर्ष कहाँ बिला गया पर नागों के देवता या उनके आठ कुलों में से एक के नेता ककौट या गग्गोट आज भी गूफा पीर या गोगा पीर के नाम से पूजे जा रहे हैं। पुरानी यक्ष सभ्यता पता नहीं कहाँ चली गयी, पर कानेर कोटला (कोटला- कोटर) में शताब्दियों से चली आती हुई यक्ष-रात्रि का उत्सव आज भी मुस्लिम सन्तों के संरक्षण में जी रहा है। हिमालय में दूर-दूर तक फैली हुई खस पर्वत श्रेणी अब कहीं हैं या नहीं, यह पण्डितों के अध्ययन का विषय बना हुआ है। पर खस फ्ल्ली कसौली के रूप में जी रही है और स्मरण दिलाती है कि किसी जमाने में खस यहाँ बसते थे। अम्बाला से जालन्धर तक न जाने कितने गाँव सड़क पर ही मिल जाते हैं जिनके अन्त में आला लगा हुआ है। लुधियाना का पुराना नाम भी कदाचित् लुधियाला ही था और वर्ण व्यत्यय से उसी प्रकार लुधियाना बन गया है, जिस प्रकार नफासत पसन्द लोगों के मुँह से लखनऊ नखलऊ बन जाता है। क्या गाँवों की यह नामावली किसी विशेष सभ्यता की सूचना नहीं देती ? कौन-सी सभ्यता या सभ्यता की स्थिति वह रही होगी । पंजाब के कुलसूचक पदों को सुनकर मेरा मन कुतूहल से भर जाता है। राजपूत जैसी नव क्षत्रिय जाति का नाम 'राजपुत्र' शब्द का विकास है। उस आधार पर मल्हों के वंशज 'मल्हःपुत्र' मल्होत्रा, मिहिरों के वंशज मेहरोत्रा समझ में आ जाते हैं क्योंकि पुराने साहित्य से इनका सन्धान मिल जाता है। पर बहुत से आसाद हमें चुनौती देते हैं। वह आपके बारे में कुछ कह जाते हैं। अपने को उजागर करने के लिए व्याकुल दीखते हैं पर हम सुन नहीं पाते। सुन पाने का प्रयत्न भी नहीं करते। मिहिर शब्द मिहिरपुत्र या मेहरोत्रा से भी अधिक मनोरंजक है। उज्जैन के प्रसिद्ध ज्योतिषी (छठी शताब्दी) के वराहमिहिर के नाम में जो मिहिर शब्द है उसका कोई सम्बन्ध है। मिहिर ही क्या मिसिर है जो आगे चलकर संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में मिश्र और अँग्रेजी प्रभाव से मिश्रा बन जाता है, कौन बताएगा ?

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