पुलोवर (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Pullover (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena

सुखद और पुनीत स्मृतियों को जिलाए रखने की कला मुझे नहीं आती । निश्चय ही यह एक कला है। मैंने लोगों को छोटी से छोटी चीज बहुत सहेज-सँभालकर रखते हुए देखा और उसे दिखाते समय उनकी आँखों में एक तरल चमक भी देखी है और डूबते स्वरों में यह कहते सुना है, यह अमुक की अन्तिम निशानी है। और हर ऐसे क्षण मुझे लगा है कि मैं एक भावनाहीन प्राणी हूँ !

अपने अन्तिम दिनों में मेरी माँ ने रोग-शैया पर पड़े-पड़े जो बाद में उसकी मृत्यु शैया बन गयी, मेरे लिए पूरे गले और पूरी बाँहों का एक पुलोवर बुना था। और उसे देते हुए अपनी निस्तेज मुखाकृति से दीन स्वर में उसने कहा था, "बेटा, इसे किसी को मत दे डालना। कौन जाने, यह मेरी आखिरी निशानी हो, हाथ नहीं चलते, आँखों के सामने अँधेरा छा छा जाता है, तू नहीं समझ सकता, मैंने इसे कितनी कठिनाई से बुना है।"

मुझे पुलोवर पहनाकर देखते समय, मेरे शरीर पर अपने काँपते हाथों से उसका स्पर्श करते समय, जो अपार सुख और सन्तोष उसके मुख पर दीखा था, उससे उसकी कठिनाई का अन्दाजा मुझे लगा भी था । और मैंने निश्चय भी किया था कि यदि उसे नहीं तो उसके उस पुलोवर को तो मैं अपने जीवन भर अपने पास रख सकूँगा ।

फिर माँ की मृत्यु हो गयी। सर्दियों के दिन आए। जब तक बन पड़ा, खाली एक कमीज पहने विश्वविद्यालय जाता रहा। कोट था नहीं और बनवा सकने की हैसियत भी नहीं थी। माँ की मृत्यु से उसकी थोड़ी-बहुत जो सम्भावना हो सकती थी, वह भी खत्म हो गयी थी। फिर एक दिन नहीं रहा गया। सर्दी के जोर ने मुझे कमजोर कर दिया। मैंने उसे पहन कर माँ की गोद की गर्मी का अनुभव किया और अपने को उचित ठहराते हुए कहने लगा- 'माँ के पुलोवर बुनने का उद्देश्य ही यही था कि मैं सर्दी से बचूँ। इसे न पहनकर मैं उसकी इच्छा की अवहेलना कर रहा हूँ। यह उसके प्रति प्रेम का द्योतक नहीं है, बल्कि प्रेम के एक ऐसे झूठे प्रदर्शन का भाव है जिसे वह कभी स्वीकार नहीं करती। हर प्रेम की सार्थकता उसके उद्देश्य की पूर्ति में है। उद्देश्यरहित प्रेम नहीं होता और अगर होता है तो वह अर्थहीन है।'

और फिर दो-चार दिनों नाजुक काँच के कपड़े की तरह और बाद में फिर साधारण कपड़ों की तरह उसे पहनने लगा बिल्कुल सहज ढंग से । विश्वविद्यालय के जीवन में चार-पाँच वर्षों तक उसे सर्दियों में निरन्तर पहनता रहा और वह पुलोवर मेरे व्यक्तित्व के साथ इतना जुड़ गया कि दूसरे के लिए उसके बिना मुझे सोच पाना कठिन हो गया। परिणाम यह हुआ कि सर्दियों से मेरा वह एकमात्र रक्षक चल बसा। पहले कोहनियाँ फटीं, और देखते-देखते इतनी जल्दी फट गयीं कि मरम्मत के लिए किसी को देना चाहा तो उसने कहा, “मुश्किल है, ऊन भी काफी कमजोर है और घिस गई है, मोह छोड़िए।"

लेकिन मोह सहज कहाँ छूटता है। मैंने काफी सोच-विचार के बाद उसकी बाँहें निकलवा दीं। बाँहें अलग जुड़ी हुई थीं, अतः आसानी से निकल भी गयीं। और अब वह पुलोवर बिना बाँहों का हो गया। एक बार उसे रख देने का मोह हुआ, लेकिन आने वाले वर्षों ने सर्दियों में फिर उसकी जरूरत सिद्ध की और मेरा वह भुजाविहीन रक्षक फिर रक्षा के लिए तैयार हो गया और मेरी सेवा करने लगा।

कई वर्षों के बाद मेरे पास एक नया कोट हो गया। उसे मुक्ति मिली लेकिन उस समय जब उसकी हालत काफी खस्ता हो गयी थी । गले की ऊन गल गयी थी। छाती कई जगह से चलनी हो गयी थी। लेकिन मरम्मत की सुविधा के कारण कई रंगों की ऊन से उसे जींघकर बिल्कुल स्मृति के रूप में सहेजकर रख लिया। और वह कोई सात-आठ वर्ष तक रखा रहा । उसे देखकर मुझे माँ की याद तो कम आती, एक विचित्र प्रकार का गर्व जरूर होता । प्रेम के पाने और प्रेम को कठिनतम परिस्थितियों में निभा ले जाने का भी तो एक गर्व होता है। वह गर्व जो गहनतम व्यथा के क्षणों में भी चरम सुख को स्पर्श करता प्रतीत होता है।

लेकिन इस स्थिति में भी एक व्याघात हुआ। सर्दियों के दिन थे । कुछ कपड़े धूप में सूखने के लिए डाले गए। उनमें वह पुलोवर भी निकल आया। उन दिनों मेरे पास एक छोटा-सा नौकर था कोई दस-बारह साल का वह पुलोवर को सतृष्ण दृष्टि से देखने लगा। धीरे से लेकिन अजीब प्रसन्नता और उत्साह से आँखों में एक विचित्र चमक भरकर वह बोला, "बाबूजी, यह स्वेटर हमको दे दिया जाए। आपके किसी काम का नहीं, पुराना भी हो गया है, फटा भी है। हमारे ठीक आ जाएगा।"

मैंने उसे डाँट दिया, शायद इसलिए कि उसने जिस तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कही थी, उसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। और मैंने उसे फिर सहेजकर बक्स में डाल दिया। लेकिन उसकी बात मेरे मन में गूँजती रही, मथती रही । 'मेरे लिए उसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है, लेकिन उसके लिए वह अभी भी उपयोगी है। उपयोगिता का निर्वाह होता रहे, इससे बड़ा सत्य इस धरती पर और क्या हो सकता है ?' मेरे विवेक ने कहा लेकिन तभी मुझे किसी ने दबोच लिया- 'नहीं, वह मेरी माँ की आखिरी निशानी है, आखिरी और पुलोवर देते समय का, माँ का वह दीन स्वर और उसकी वह निस्तेज मुखाकृति मेरी आँखों के सामने खिंच गयी।

मन में यह संघर्ष कई दिनों तक बना रहा। जब भी वह मेरे सामने आता, मन होता उसे वह स्वेटर जिसे मैं पुलोवर ही कहना चाहता हूँ, महज उसके प्रति सम्मान के कारण निकालकर दे दूँ। परन्तु जो देने से रोकता, वह भी मेरा ही मन था। इनमें कौन-सा मनोभाव श्रेष्ठ है, इसका अंतिम निर्णय कर पाना मेरे लिए उस समय भी कठिन था और आज भी कठिन है ।

एक दिन सुबह मैंने देखा, वह आँगन में बैठा मेरी चाय बनाने के लिए कोयले तोड़ रहा है और ठण्ड के कारण बुरी तरह थर-थर काँप रहा है। उसका इस बुरी तरह काँपना मुझे जड़ से हिलाने लगा। मैं अपनी निगाहों में नीचे गिरने लगा, अपमान और लज्जा से भर गया। प्रेम को निभा पाने के एक झूठे गर्व के कारण मैं इंसानियत से गिर रहा हूँ। माँ के प्रति मेरी सच्ची श्रद्धा का, मेरे सच्चे प्यार का निर्वाह यह नहीं है। उसकी इच्छा यह कदापि नहीं रही होगी कि मेरे लिए इसकी उपयोगिता समाप्त हो जाने पर भी मैं उसे दूसरे को न दूँ। और यदि यह उसकी इच्छा रही भी हो तो भी मुझे इसे नहीं मानना चाहिए। चाहे यह उसकी अन्तिम इच्छा ही क्यों न रही हो; क्योंकि वह मेरी इस सच्ची भावना से बड़ी नहीं है, जो इस समय मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व की आवाज है। जो स्वर सम्पूर्ण अस्तित्व को मथकर निकलता है, उससे बड़ा संसार में कुछ नहीं है और जो उससे बड़ा कुछ मानता है, वह अपने साथ धोखा करता है, आदमी के साथ छल करता है। कल यदि दुनिया मुझसे कहेगी, तुझे अपनी माँ से प्यार नहीं था, तूने उसकी आखिरी निशानी भी दूसरे को दे दी, तो इस नाम पर स्वीकार कर लेना क्या गलत होगा कि मुझे एक सीधी सच्ची भावना से प्यार था, जो इस काँपते बालक के लिए मेरे मन में उठ रही है।

मैंने उसे बुलाया और स्वेटर उसे दे दिया। और अपने अन्दर उस सुख और सन्तोष को देखने लगा, जो मुझे स्वेटर देते समय मेरी माँ के अन्दर था। मैंने भी काफी कठिनाई से बनाया था यह एक भाव, और उसे बनाते समय, हर उस पीड़ा और कष्ट से गुजरा था, जो स्वेटर निर्माण की अवधि में मेरी माँ का यात्रा पथ था। कष्ट झेलकर देने का सुख मुझे भी मिला था, लेकिन क्या वह स्मृति संजोकर रखने के सुख से बड़ा है ? इसका निर्णय कौन करेगा ?

वह नौकर भाग गया और साथ ही उस स्मृति चिह्न को भी लेता गया, स्लेटी रंग का, रेत पर पड़ी काली धारियों जैसा। और अब जब भी मैं किसी को एक बड़ा पुलोवर पहने हुए देखता हूँ, मुझे अपनी माँ की याद आती है। और मैं सोचने लगता हूँ, मैं एक भावनाहीन व्यक्ति हूँ। सुखद और पुनीत स्मृतियों को सहेजकर रखने की कला मुझे नहीं आती।

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