लाभ का धंधा (कहानी) : गाय दी मोपासां
Profitable Business (French Story) : Guy de Maupassant
वह अपने आपको साधु- संत तो बिलकुल नहीं मानता था और न ही नैतिकता का ढोंग करता था , फिर भी अपने बारे में उसकी उतनी ही अच्छी राय थी जितनी किसी और के बारे में , बल्कि शायद और भी अच्छी और वह भी बिलकुल निष्पक्ष; जिसमें आवश्यकता से अधिक आत्म- प्रेम नहीं था , जिसमें उसे अपने ऊपर अहंकारी होने का आरोप लगाने की जरूरत नहीं थी । वह अपने साथ न्याय करता था बस । वह अच्छे, नैतिक सिद्धांतों को मानता था और अगर सच- सच बताना ही हो तो , उनका प्रयोग वह केवल दूसरों के आचरण की परख करने के लिए नहीं , बल्कि अपने खुद के आचरण को सुधारने के लिए भी करता था , क्योंकि अगर वह अपने बारे में यह नहीं सोच पाता तो बहुत परेशान हो जाता कि कुल मिलाकर, मैं वह हूँ जिसे लोग एक पूरा इज्जतदार आदमी कहते हैं ।
किस्मत की बात थी कि अपने बारे में जो उसकी बहुत अच्छी राय थी, उस पर शक करने का मौका उसे कभी नहीं ( ओह ! कभी नहीं ) मिला था । इस राय को वह अपनी लच्छेदार बातों के विस्तार के क्षणों में इस तरह व्यक्त करना पसंद करता था — मेरी पूरी जिंदगी मुझे अपने आपसे हाथ मिलाने का अधिकार देती है ।
कोई सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक होता तो उसे उसकी फौलादी आत्म - साधुता में जरूर कुछ खोट दिखाई देता , जो अपने आपमें पाखंडी के तौर पर संतुष्ट थी । जैसे यह बिलकुल तय था कि हमारे दोस्त को अपने पड़ोसियों की बुराइयों या बदकिस्मती से फायदा उठाने में कोई गुरेज नहीं था , बशर्ते कि वह अपनी ही राय में वह व्यक्ति न हो , जो उनके लिए अकेले या खास तौर पर जिम्मेदार था , लेकिन कुल मिलाकर यह इसे समझने का केवल एक तरीका था । इस विषय पर कुतर्कपूर्ण बहस करने के लिए सामग्री की कोई कमी नहीं थी । इस तरह की चर्चा ऐसे साधारण स्वभावों के लिए खास तौर पर अरुचिकर थी , जैसा स्वभाव उस योग्य व्यक्ति का था । शायद मनोवैज्ञानिक से उसने यही कहा होता कि जो हो ही नहीं सकता, उसे करने की कोशिश क्यों ? तुम देख सकते हो कि मैं पूरा ईमानदार हूँ ।
यह विश्वास नहीं कीजिएगा कि यह पूरी ईमानदारी उसे ऊँचेविचार रखने से रोकती थी । उसे इसलिए अपने आप पर गर्व था कि कल्पना और अदृष्ट उसकी कमजोरी थी । हालाँकि उसे बेईमान कहे जाने पर तो बुरा लगता ही, तब उसे और भी अधिक चोट पहुँचती , अगर कोई उसे मध्यम वर्ग की रुचियों वाला बताता ।
जहाँ तक दिल का मामला था तो व्यभिचार पर वह अत्यंत नैतिक भय व्यक्त करता था , क्योंकि अगर वह उसका दोषी होता तो अपने बारे में कसम खाकर यह नहीं कह पाता, आह! मैं खुशी- खुशी यह कह सकता कि मैंने किसी के साथ बुरा नहीं किया! जो उसके जमीर के लिए इतना सुखद था ।
दूसरी ओर , उसे उन सुखों से संतुष्टि नहीं थी, जिनके लिए घंटे के हिसाब से पैसा देना पड़ता है और जो दिल की बेहद नेक ख्वाहिशों को एक जिस्मानी जरूरत की अश्लील संतुष्टि के निचले स्तर पर ले आते हैं । उसे जो चाहिए था , वह आसमान की तरफ अपनी आँखें उठाकर इस प्रकार कहता था मुझे ऐसा कुछ पाने की तमन्ना है, जो इससे भी अधिक आदर्श हो!
सच में , आदर्श की खोज में उसे बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ती थी । उसे बस घोषित बदनाम ठिकानों से और बाजारू जिस्मफरोश औरतों से बचना होता था ।
इसके लिए उसे खास तौर पर औरतों के साथ शिष्टाचार बरतने की कोशिश करनी होती थी , अपने आपको यह समझाने की कोशिश करनी होती थी कि वे उसे उसी की खातिर पसंद करती थीं और उन औरतों को अधिक पसंद करना होता था , जिनके रंग -ढंग, कपड़ों और शक्ल - सूरत में अनुमानों और रूमानी भ्रमों की गुंजाइश होती थी , जैसे कि उसे एक छोटी कामकाजी लड़की समझा जा सकता है , जो अब भी शरीफ है । नहीं , मैं तो सोचता हूँ कि वह एक किस्मत की मारी विधवा है । क्या पता वह नकली भेष में कोई अच्छे घर की महिला हो ! और ऐसी ही दूसरी मूर्खतापूर्ण बातें , जिनके बारे में उसे पता था कि वे बोलने में बेतुकी थीं , लेकिन जिनका काल्पनिक स्वाद उसके लिए फिर भी बहुत सुखद था ।
ऐसी रुचियों वाले उस चटोरे व्यक्ति के लिए स्वाभाविक ही था कि वह बड़ी दुकानों में और भीड़भाड़ वाली जगहों पर औरतों का पीछा करता और उनके साथ धक्का-मुक्की करता ; खास तौर पर चालू औरतों की तलाश में रहता, क्योंकि उन अधखुले किवाड़ों से अधिक रोमांचक और कुछ नहीं होता, जिनके पीछे से एक अस्पष्ट सा चेहरा दिखाई देता है और जिनमें से एक लुकी -छिपी दबी सी आवाज सुनाई देती है ।
वह अपने मन में कहता , कौन है वह ? क्या वह जवान और खूबसूरत है ? क्या वह कोई बूढ़ी औरत है, जो अपने धंधे में कुशल है, लेकिन अब सबके सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाती ? क्या वह कोई नई - नवेली है , जिसमें अभी तक पुरानी औरतों वाली निडरता नहीं आई है? कुछ भी हो, यह वही अज्ञात है; शायद मेरा आदर्श है - कम- से - कम तब तक के लिए तो है ही , जब तक मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने का रास्ता नहीं मिल जाता । और जब वह सीढ़ियाँ चढ़ता तो उसका दिल हमेशा वैसे ही धड़कता जैसे कि किसी प्रियतमा से पहली बार मिलने पर धड़कता
उसने ऐसी मजेदार कँपकँपी कभी महसूस नहीं की थी, जैसी उस दिन मेनिलमोंटा की अंधी गली के उस पुराने मकान में घुसते समय महसूस की । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा, क्योंकि वह पहले भी उस तथाकथित प्यार की तलाश में अकसर इससे भी ज्यादा अनजान जगहों में जा चुका था , लेकिन इस समय उसे अकारण ही यह शंका हो रही थी कि उसका सामना किसी अनहोनी से होने जा रहा है । इससे उसे एक खुशगवार अहसास हुआ ।
जिस औरत ने उसे इशारे से बुलाया था , वह तीसरी मंजिल पर रहती थी । जैसे - जैसे वह सीढ़ियाँ चढ़ रहा था , उसका रोमांच बढ़ता जा रहा था और जब वह सीड़ियों के छोर पर पहुँचा तो उसका दिल जोर- जोर से धड़क रहा था । सीढ़ियाँ चढ़ते समय उसे एक अजीब सी गंध आई, जो तेज और तेज होती चली गई । हालाँकि उसने उसे समझने की कोशिश की , फिर भी वह बस इतना ही तय कर पाया कि यह किसी केमिस्ट की दुकान जैसी महक रही थी ।
जैसे ही उसने सीड़ियों के छोर पर कदम रखा, गलियारे के अंत में दाहिनी ओर जो दरवाजा था , वह खुला और उस औरत ने धीमे से कहा, अंदर आ जाओ, जानेमन ।
खुले दरवाजे से एक तेज गंध उसके नथुनों में आई और वह चिहुँककर बोला, कितना मूर्ख हूँ मैं भी ! अब पता चला यह क्या है; यह कार्बोलिक एसिड है न ?
हाँ । उस औरत ने जवाब दिया , तुम्हें यह अच्छी नहीं लगती क्या , मेरी जान ? बहुत काम की है यह , समझे!
वह औरत बदसूरत नहीं थी , हालाँकि जवान भी नहीं थी ; उसकी आँखें बहुत अच्छी थीं, हालाँकि उनमें उदासी थी और वे गड्ढों में धंसी हुई थीं । साफ था कि वह अभी- अभी बहुत ज्यादा रोई थी और उससे उसकी वह हलकी सी मुसकान कुछ खास मजेदार हो गई थी , जो उसने और भी मिलनसार दिखने की गरज से ओढ़ ली थी । __ अपने रूमानी विचारों में डूबे हुए और अभी थोड़ी देर पहले की आशंका के प्रभाव में उसने सोचा और इस विचार ने उसे आनंद से भर दिया कि यह कोई विधवा है, जिसकी गरीबी ने उसे अपने आपको बेचने पर मजबूर कर दिया है ।
कमरा छोटा था , लेकिन बहुत साफ - सुथरा था, जिससे उसके अनुमान की पुष्टि हो गई और इसे पक्का करने के लिए वह तीन कमरों में गया, जो एक - दूसरे में खुलते थे। सबसे पहले सोने का कमरा आया; उसके बाद एक तरह की बैठक आई और फिर खाने का कमरा था , जिसे देखने से साफ था कि यह रसोई का काम भी करता था , क्योंकि इसके बीच में डच टाइलों वाला एक स्टोव रखा था , जिस पर कोई तरकारी खदक रही थी । कार्बोलिक एसिड की गंध उस कमरे में और भी तेज थी । उसने इसे कह दिया और हँसते हुए यह भी जोड़ दिया कि क्या तुम इसे अपने शोरबे में डालती हो ?
यह कहते हुए उसने उस दरवाजे का हैंडिल पकड लिया, जो अगले कमरे में खलता था , क्योंकि वह सबकुछ देखना चाहता था । वह कोना भी जो देखने में सामान रखने की आलमारी जैसा था , लेकिन उस औरत ने उसकी बाँह पकड़कर उसे जोर से पीछे खींच लिया ।
नहीं -नहीं! उसने लगभग फुसफुसाते हुए और भर्राई आवाज में याचना सी करते हुए कहा , नहीं , जानेमन , उधर नहीं, उधर नहीं , वहाँ अंदर मत जाना ।
क्यों ? उसने कहा, क्योंकि अंदर जाने की उसकी इच्छा अब और भी प्रबल हो गई थी ।
क्योंकि अगर तुम वहाँ अंदर गए तो मेरे साथ रहने की तुम्हारी इच्छा ही नहीं रहेगी, और मैं चाहती हूँ कि तुम रुको । अगर तुम जान गए तो !
क्यों - क्या ? और उसने बड़ी जोर से उस चमकदार दरवाजे को खोल दिया । कार्बोलिक एसिड की गंध जैसे सीधी उसके चेहरे पर आकर पड़ी । उसने जो देखा, उससे वह और भी सहम गया । क्योंकि लोहे के एक छोटे से पलंग पर वहाँ एक औरत की लाश पड़ी थी, जिस पर एक अकेली मोमबत्ती की अद्भुत रोशनी पड़ रही थी । वह बुरी तरह से डर गया और मुड़ा कि वहाँ से निकलकर भाग जाए ।
रुक जाओ, मेरी जान! उस औरत ने सिसकते हुए कहा और उससे लिपटते हुए उसने बताया कि दो दिन पहले उसकी दोस्त की मौत हो गई और उसके पास उसके कफन - दफन के लिए पैसे भी नहीं हैं । वह रोए जा रही थी । वह बोली, तुम समझ सकते हो कि मैं उसे इज्जत के साथ दफन करना चाहती हूँ । हम एक - दूसरे को कितना चाहती थीं! रुक जाओ, मेरी जान , रुक जाओ। मुझे बस दस फ्रैंक और चाहिए । मत जाओ ।
वे दोनों वापस सोने के कमरे में आ चुके थे और वह उसे रोकने की कोशिश कर रही थी । नहीं! वह बोला, मुझे जाने दो । मैं दस फ्रैंक तुम्हें दे दूंगा, लेकिन यहाँ रुकूँगा नहीं । रुक नहीं सकता मैं ।
उसने जेब से अपना बटुआ निकाला, उसमें से दस फ्रैंक का एक सिक्का लिया और उसे मेज पर रखकर दरवाजे की तरफ बढ़ गया । दरवाजे पर पहुँचकर उसे अचानक एक खयाल आया, जैसे कोई अनजाने में उसे समझा रहा था ।
इन दस फ्रैंकों का नुकसान क्यों उठाओ? क्यों न इस औरत के नेक इरादों से लाभ उठाओ? उसने हिम्मत से काम लिया और अगर मुझे इस बारे में पता न होता तो सचमुच मैं यहाँ से कुछ देर तक तो जाता नहीं ।... तो फिर?
फिर दूसरे और अधिक अस्पष्ट सुझावों ने उसके कान में फुसफुसाया — वह उसकी दोस्त थी ! वे एक - दूसरे को इतना चाहती थीं ! यह दोस्ती थी या प्यार था ? लगता तो यही है कि प्यार था । देखो, यह तो नैतिकता का प्रतिशोध ही होगा अगर इस औरत को उस शैतानी प्यार से बेवफाई करने को मजबूर किया गया । फिर वह उसकी तरफ घूमा और धीमे से, काँपती हुई आवाज में बोला, इधर देखो! अगर मैं तुम्हें दस के बजाय बीस फ्रैंक दे दूँ तो मुझे लगता है , तुम इसके लिए थोड़े फूल भी खरीद सकोगी?
दुखी औरत का चेहरा खुशी और कृतज्ञता से खिल गया ।
क्या तुम सचमुच मुझे बीस फ्रैंक दोगे?
हाँ! उसने जवाब दिया और शायद उससे भी ज्यादा । यह तो तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है ।