प्रेमाश्रम (उपन्यास) (भाग-2) : मुंशी प्रेमचंद

Premashram (Novel) (Part-2) : Munshi Premchand

7.

जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर दिया था। वर्षान्तर पर उन्होंने बड़ी निर्दयता से लगान वसूल किया। एक कौड़ी भी बाकी न छोड़ी । जिसने रुपये न दिये या न दे सका, उस पर नालिश की, कुर्की करायी और एक का डेढ़ वसूल किया। शिकमी असामियों को समूल उखाड़ दिया और उनकी भूमि पर लगान बढ़ाकर दूसरे आदमियों को सौंप दिया। मौरूसी और दखलीकार असामियों पर भी कर-वृद्धि के उपाय सोचने लगे। वह जानते थे कि कर-वृद्धि भूमि की उत्पादक-शक्ति पर निर्भर है और इस शक्ति को घटाने-बढ़ाने के लिए केवल थोड़ी-सी वाकचतुरता की आवश्यकता होती है। सारे इलाके में हाहाकार मच गया। कर-वृद्धि के पिशाच को शान्त करने के लिए लोग नाना प्रकार के अनुष्ठान करने लगे। प्रभात से सन्ध्या तक खाँ साहब का दरबार लगा रहता! वह स्वयं मसनद लगाकर विराजमान होते। मुन्शी मौजीलाल पटवारी उनके दाहिनी ओर बैठते और सुक्खू चौधरी बायीं ओर। यह महानुभाव गाँव के मुखिया, सबसे बड़े किसान और सामर्थी पुरुष थे। असामियों पर उनका बहुत दबाव था, इसलिए नीतिकुशल खाँ साहब ने उन्हें अपनी मन्त्री बना लिया था। यह त्रिमूर्ति समस्त इलाके के भाग्य विधायक थी।

खाँ साहब पहले अपने अवकाश का समय भोग-विलास में व्यतीत करते थे। अब यह समय कुरान का पाठ करने में व्यतीत होता था। जहाँ कोई फकीर यहा भिक्षुक द्वार पर खड़ा भी न होने पाता था, वहाँ अब अभ्यागतों को उदारपूर्ण सत्कार किया जाता था। कभी-कभी वस्त्रदान भी होता। लोकि सिद्धि ने परलोक बनाने की सदिच्छा उत्पन्न कर दी थी!

अब खाँ साहब को विदित हुआ कि इस इलाके को विद्रोही समझने में मेरी भूल थी। ऐसा विरला ही कोई असामी था जिसने उसकी चौखट पर मस्तक न नवाया हो। गाँव में दस-बारह घर ठाकुरों के थे। उनमें लगान बड़ी कठिनाई से वसूल होता था। किन्तु इजाफा लगाने की खबर पाते ही वह भी दब गये। डपटसिंह उनके नेता थे। वह दिन में दस-पाँच बार खाँ साहब को सलाम करने आया करते थे। दुखरन भगत शिवजी को जल चढ़ाने जाते समय पहले चौपाल का दर्शन करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे। बस, अब समस्त इलाके में कोई विद्रोही था तो मनोहर था और कोई बन्धु था तो कादिर। वह खेत से लौटता तो कादिर के घर जा बैठता और अपने दिनों को रोता। इन दोनों मनुष्यों को साथ बैठे देखकर सुक्खू चौधरी की छाती पर साँप लोटने लगता था। वह यह जानना चाहते थे कि इन दोनों में क्या बातें हुआ करती हैं। अवश्य मेरी ही बुराई करते होंगे। उन्हें देखते ही दोनों चुप हो जाते थे, इससे चौधरी के सन्देह की और भी पुष्टि हो जाती थी। खाँ साहब ने कादिर का नाम शैतान रख छोड़ा था और मनोहर को काला नाग कहा करते थे। काले नाग का तो उन्हें बहुत भय नहीं था, क्योंकि एक चोट से उसका काम तमाम कर सकते थे, मगर शैतान से डरते थे। क्योंकि उस पर चोट करना दुष्कर था। उस जवार में कादिर का बड़ा मान था। वह बड़ा नीतिकुशल, उदार और दयालु था। इसके अतिरिक्त उसे जड़ी-बूटियों का अच्छा ज्ञान था। यहाँ हकीम वैद्य, डॉक्टर जो कुछ था वही था। रोग-निदान में भी उसे पूर्ण अभ्यास था। इससे जनता की उसमें विशेष श्रद्धा थी। एक बार लाला जटाशंकर कठिन नेत्र-रोग से पीड़ित थे। बहुत प्रयत्न किये, पर कुछ लाभ न हुआ, कादिर की जड़ी-बूटियों ने एक ही सप्ताह में इस असाध्य रोग का निवारण कर दिया। खाँ साहब को भी एक बार कादिर के ही नुस्खे ने प्लेग से बचा लिया था। खाँ साहब इस उपकार से तो नहीं, पर कादिर की सर्वप्रियता से सशंक रहते थे। वह सदैव इसी उधेड़बुन में रहते थे कि इस शैतान को कैसे पंजे में लाऊँ।

किन्तु कादिर निश्चिंत और निश्शंक अपने काम में लगा रहता था। उसे एक क्षण के लिए भी यह भय न होता था कि गाँव के ज़मींदार और कारिन्दा मेरे शत्रु हो रहे हैं और उनकी शत्रुता मेरा सर्वनाश कर सकती है। यदि इस समय भी दैवयोग से खाँ साहब बीमार पड़ जाते, तो वह उनका इशारा पाते ही तुरन्त उनके उपचार और सेवा-शुश्रूषा में दत्तचित्त हो जाता। उसके हृदय में राग और द्वेष के लिए स्थान न था और न इस बात की परवाह थी कि मेरे विषय में कैसे-कैसे मिथ्यालाप हो रहे हैं! वह गाँव में विद्रोहाग्नि भड़का सकता था; खाँ साहब उनके सिपाहियों की खबर ले सकता था। गाँव में ऐसे उद्दंड नवयुवक थे, जो इस अनिष्ट के लिए आतुर थे, किन्तु कादिर उन्हें सँभाले रहता था। दीन-रक्षा उसका लक्ष्य था, किन्तु क्रोध और द्वेष को उभाड़कर नहीं, वरन् सद्व्यहार तथा सत्प्रेरणा से।

मनोहर की दशा इसके प्रतिकूल थी। जिस दिन से वह ज्ञानशंकर की कठोर बातें सुनकर लौटा था, उसी दिन से विकृत भावनाएँ उसके हृदय और मस्तिष्क में गूँजती रहती थीं। एक दीन मर्माहत पक्षी था, जो घावों से तड़प रहा था! वह अपशब्द उसे एक क्षण भी नहीं भूलते थे। वह ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहता था। वह जानता था कि सबलों से बैर बढ़ाने में मेरा सर्वनाश होगा, किन्तु इस समय उसकी अवस्था उस मनुष्य की सी हो रही थी, जिसके झोंपड़े में आग लगी हो और वह उसके बुझाने में असमर्थ होकर शेष भागों में भी आग लगा दे कि किसी प्रकार विपत्ति का अंत हो। रोगी अपने रोग को असाध्य देखता है, तो पथ्यापथ्य की बेड़ियों को तोड़कर मृत्यु की और दौड़ता है। मनोहर चौपाल के सामने से निकलता तो अकड़कर चलने लगता। अपनी चारपाई पर बैठे हुए कभी खाँ साहब या गिरधर महाराज को आते देखता, तो उठकर सलाम करने के बदले पैर फैलाकर लेट जाता। सावन में उसके पेड़ों के आम पके, उसने सब आम तोड़कर घर में रख लिये, ज़मींदार का चिरकाल से बँधा हुआ चतुर्थांश न दिया, और जब गिरधर महाराज माँगने आये तो उन्हें दुत्कार दिया। वह सिद्ध करना चाहता था कि मुझे तुम्हारी धमकियों की जरा भी परवाह नहीं है, कभी-कभी नौ-दस बजे रात तक उसके द्वार पर गाना होता, जिसका अभिप्राय केवल खाँ साहब और सुक्खू चौधरी को जलाना था। बलराज को अब वह स्वेच्छाचार प्राप्त हो गया, जिसके लिए पहले उसे झिड़कियाँ खानी पड़ती थीं। उनके रंगीले सहचरों का यहाँ खूब आदर-सत्कार होता, भंग छनती, लकड़ी के खेल होते, लावनी और ख्याल की तानें उड़ती डफली बजती। मनोहर जवानी के जोश के साथ इन जमघटों में सम्मिलित होता। ये ही दोनों पक्षों के विचार- विनिमय के माध्यम से। खाँ साहब की एक-एक बात की सूचना यहाँ हो जाती थी। यहाँ का एक-एक शब्द वहाँ पहुँच जाता था। यह गुप्त चालें आग पर तेल छिड़कती रहती थीं। खाँ साहब ने एक दिन कहा, आजकल तो उधर गुलछर्रे उड़ रहे हैं, बेदखली का सम्मन पहुँचेगा तो होश ठिकाने हो जायेगा। मनोहर ने उत्तर दिया– बेदखली की धमकी दूसरे को दें, यहाँ हमारे खेत के मेडों पर कोई आया तो उसके बाल-बच्चे उसके नाम को रोयेंगे।

एक दिन सन्ध्या समय, मनोहर द्वार पर बैठा हुआ बैलों के लिए कड़वी छाँट रहा था और बलराज अपनी लाठी में तेल लगाता था कि ठाकुर डपटसिंह आकर माचे पर बैठ गये और बोले, सुनते हैं डिप्टी ज्वालासिंह हमारे बाबू साहब के पुराने दोस्त हैं! छोटे सरकार के लड़के थानेदार थे, उनका मुकदमा उन्हीं के इलजाम में था। वह आज बरी हो गये।

मनोहर– रिश्वत तो साबित हो गई थी न?

डपटसिंह– हाँ, साबित हो गई थी। किसी को उनके बरी होने की आशा न थी। पर बाबू ज्ञानशंकर ने ऐसी सिफारिस पहुँचायी कि डिप्टी साहब को मुकदमा खारिज करना पड़ा।

मनोहर– हमारे परगने का हाकिम भी तो वही डिप्टी है।

डपट– हाँ, इसी की तो चिन्ता है। इजाफा लगान का मामला उसी के इलजाम में जायेगा और ज्ञान बाबू अपना पूरा जोर लगायेंगे?

मनोहर– तब क्या करना होगा?

डपट– कुछ समझ में नहीं आता।

मनोहर– ऐसा कोई कानून नहीं बन जाता कि बेसी का मामला इन हाकिमों के इजलास में न पेश हुआ करे। हाकिम लोग आप भी तो ज़मींदार होते हैं, इसलिए वह जमींदारों का पक्ष करते हैं। सुनते हैं, लाट साहब के यहाँ कोई पंचायत होती है। यह बातें उस पंचायत में कोई नहीं कहता?

डपट– वहाँ भी तो सब ज़मींदार होते हैं, काश्तकारों की फरयाद कौन करेगा?

मनोहर– हमने तो ठान लिया है कि एक कौड़ी भी बेसी न देंगे।

बलराज ने लाठी कन्धे पर रखकर कहा, कौन इजाफ़ा करेगा, सिर तोड़ के रख दूँगा।

मनोहर– तू क्यों बीच में बोलता है? तुझसे तो हम नहीं पूछते। यह तो न होगा कि साँझ हो गयी है, लाओ भैंस दुह लूँ, बैल की नाद में पानी डाल दूँ। बे बात की बात बकता है। (ठाकुर से) यह लौंडा घर का रत्ती भर काम नहीं करता। बस खाने भर का घर से नाता है, मटरगसत किया करता है।

डपट– मुझसे क्या कहते हो मेरे यहाँ तो तीन-तीन मूसलचन्द हैं।

मनोहर– मैं तो एक कौड़ी बेसी न दूँगा, और न खेत ही छोड़ूँगा। खेतों के साथ जान भी जायेगी और दो-चार को साथ लेकर जायेगी।

बलराज– किसी ने हमारे खेतों की ओर आँख भी उठायी तो कुशल नहीं।

मनोहर– फिर बीच में बोला?

बलराज– क्यों न बोलूँ, तुम तो दो-चार दिन के मेहमान हो, जो कुछ पड़ेगी। वह तो हमारे ही सिर पड़ेगी। ज़मींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करे और वह मुँह न खोलें। इस जमाने में तो बादशाहों का भी इतना अख्तियार नहीं, ज़मींदार किस गिनती में हैं! कचहरी दरबार में कहीं सुनायी नहीं है तो (लाठी दिखलाकर) यह तो कहीं नहीं गयी है।

डपट– कहीं खाँ साहब यह बातें सुन लें तो गजब हो जाय।

बलराज– तुम खाँ साहब से डरो, यहाँ उनके दबैल नहीं हैं। खेत में चाहे कुछ उपज हो या न हो, बेसी होती चली जाय, ऐसा क्या अन्धेर है? ‘सरकार के घर कुछ तो न्याय होगा, किस बात पर बेसी मंजूर करेगी।

डपट– अनाज का भाव नहीं चढ़ गया है?

बलराज– भाव चढ़ गया है तो मजदूरों की मजदूरी भी चढ़ गयी है, बैलों का दाम भी तो चढ़ गया है, लोहे-लक्कड़ का दाम भी तो चढ़ गया है, यह किसके घर से आयेगा?

इतने में तो कादिर मियाँ घास का गट्ठर सिर पर रखे हुए आकर खड़े हो गये। बलराज की बातें सुनीं तो मुस्कुराकर बोले– भाँग का दाम भी तो चढ़ गया है। चरस भी महँगी हो गई है, कत्था-सुपारी भी तो दूने दामों बिकती है, इसे क्यों छोड़ जाते हो?

मनोहर– हाँ, कदारि दादा, तुमने हमारे मन की कही।

बलराज– तो क्या अपनी जवानी में तुम लोगों ने बूटी-भाँग न पी होगी? या सदा इसी तरह एक जून चबेना और दूसरी जून रोटी-साग खाकर दिन काटे हैं? और फिर तुम ज़मींदार के गुलाम बने रहो तो उस जमाने में और कर ही क्या सकते थे? न अपने खेत में काम करते, किसी दूसरे के खेत में मजदूरी करते। अब तो शहरों में मजूरों की माँग है, रुपया रोज खाने को मिलता है, रहने को पक्का घर अलग। अब हम जमींदारों की धौंस क्यों सहें, क्या भर पेट खाने को तरसें?

कादिर– क्यों मनोहर, क्या खाने को नहीं देते?

बलराज– यह भी कोई खाना है कि एक आदमी खाय और घर के सब आदमी उपास करें? गाँव में सुक्खू चौधरी को छोड़कर और किसी के घर दोनों बेला चूल्हा जलता है? किसी को एक जून चबेना मिलता है, कोई चुटकी भर सत्तू फाँककर रह जाता है। दूसरी बेला भी पेट भर रोटी नहीं मिलती।

कादिर– भाई, बलराज बात तो सच्ची कहता है। इस खेती में कुछ रह नहीं गया, मजदूरी भी नहीं पड़ती। अब मेरे ही घर देखो, कुल छोटे-बड़े मिलाकर दस आदमी हैं, पाँच-पाँच रुपये भी कमाते तो सौ रुपये साल भर के होते। खा-पी कर पचास रुपये बचे ही रहते। लेकिन इस खेती में रात-दिन लगे रहते हैं, फिर भी किसी को भर पेट दाना नहीं मिलता।

डपट– बस, एक मरजाद रह गयी है, दूसरों की मजूरी करते नहीं बनती, इसी बहाने से किसी तरह निबाह हो जाता है। नहीं तो बलराज की उमिर में हम लोग खेत के डाँढ़ पर न जाते थे। न जाने क्या हुआ कि जमीन की बरक्कत ही उठ गयी। जहाँ बीघा पीछे बीस-बीस मन होते थे, वहाँ चार-पाँच मन से आगे नहीं जाता।

मनोहर– सरकार को यह हाल मालूम होता तो जरूर कास्तकारों पर निगाह करती।

कादिर– मालूम क्यों नहीं है? रत्ती-रत्ती का पता लगा लेती है।

डपट–  (हँसकर) बलराज से कहो, सरकार के दरबार में हम लोगों की ओर से फरियाद कर आये।

बलराज– तुम लोग तो ऐसी हँसी उड़ाते हो, मानो कास्तकार कुछ होता ही नहीं। वह ज़मींदार की बेगार ही भरने के लिए बनाया गया है; लेकिन मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिखा है कि रूस देश में कास्तकारों का राज है, वह जो चाहते हैं करते हैं। उसी के पास कोई और देश बलगारी है। वहाँ अभी हाल की बात है, कास्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया है और अब किसानों और मजूरों की पंचायत राज करती है।

कादिर– (कुतूहल से) तो चलो ठाकुर! उसी देश में चलें वहाँ मालगुजारी न देनी पड़ेगी।

डपट– वहाँ के कास्तकार बड़े चतुर और बुद्धिमान होंगे तभी राज सँभालते होंगे!

कादिर– मुझे तो विश्वास नहीं आता।

मनोहर– हमारे पत्र में झूठी बातें नहीं होती।

बलराज– पत्रवाले झूठी बातें लिखें तो सजा पा जायें ।

मनोहर– जब उस देश के किसान राजा का बन्दोबस्त कर लेते हैं, तो क्या हम लोग लाट साहब से अपना रोना भी न रो सकेंगे?

कादिर– तहसीलदार साहब के सामने तो मुँह खुलता नहीं, लाट साहब से कौन फरियाद करेगा?

बलराज– तुम्हारा मुँह न खुले, मेरी तो लाट साहब से बातचीत हो, तो सारी कथा कह सुनाऊँ।

कादिर– अच्छा, अबकी हाकिम लोग दौरे पर आयेगे, तो हम तुम्हीं को उनके सामने खड़ा कर देंगे।

यह कहकर कादिर खाँ घर की ओर चले। बलराज ने भी लाठी कन्धे पर रखी और उनके पीछे चला। जब दोनों कुछ दूर निकल गये तब बलराज ने कहा– दादा, कहो तो खाँ साहब की (घूँसे का इशारा करके) कर दी जाय।

कादिर ने चौंककर उसकी ओर देखा– क्या गाँव भर को बँधवाने पर लगे हो? भूलकर भी ऐसा काम न करना।

बलराज– सब मामला लैस है, तुम्हारे हुकुम की देर है।

कादिर– (कान पकड़कर) न! मैं तुम्हें आग में कूदने की सलाह न दूँगा। जब अल्लाह को मंजूर होगा तब वह आप ही यहाँ से चले जायेंगे।

बलराज– अच्छा तो बीच में न पड़ोगे न?

कादिर– तो क्या तुम लोग सचमुच मार-पीट पर उतारू हो क्या? हमारी बात न मानोगे तो मैं जाकर थाने में इत्तला कर दूँगा। यह मुझसे नहीं हो सकता कि तुम लोग गाँव में आग लगाओ और मैं देखता रहूँ।

बलराज– तो तुम्हारी सलाह है नित यह अन्याय सहते जायें!

कादिर– जब अल्लाह को मन्जूर होगा तो आप-ही-हाप सब उपाय हो जायेगा।

8.

जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ही एक अन्य प्रकार के जन्तु देहातों में निकल पड़ते हैं और अपने खेमों तथा छोलदारियों से समस्त ग्राम-मण्डल को उज्जवल कर देते हैं। वर्षा के आदि में राजसिक कीट और पतंग का उद्भव होता है, उसके अन्त में तामसिक कीट और पतंग का। उनका उत्थान होते ही देहातों में भूकम्प-सा आ जाता है और लोग भय से प्राण छिपाने लगते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित होकर होते हैं। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्यायप्रार्थी के द्वार तक पहुँचना, प्रजा के दुःखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना। यदि यह अर्थ सिद्ध होते तो यह दौरे बसन्तकाल से भी अधिक प्राण-पोषक होते, लोग वीणा, पखावज से, ढोल-मजीरे से उनका अभिवादन करते किन्तु जिस भाँति प्रकाश की रश्मियाँ पानी में वक्रगामी हो जाती हैं, उसी भाँति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवीय दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है! अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भाँति इस सुख काल के दिन गिना करते हैं। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है तो बहुत कम! वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोंटे पर होते या किसी दीन किसान की गर्दन पर! जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मांस-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों की यहाँ केवल जिह्वा और बाहु के बल से रेल-पेल हो जाती है। जितना खा सकते हैं, खाते हैं, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते हैं। घी से भरे हुए कनस्तर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती हैं। घरवाले हर्ष से फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते हैं, क्योंकि अब दुःख के दिन गये और सुख के दिन आये। उनकी तरी वर्षा के पीछे आती है, वह खुश्की में तरी का आनन्द उठाते हैं। देहातवालों के लिए वह बड़े संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते है; दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।

अगहन का महीना था, साँझ हो गयी थी। कादिर खाँ के द्वार पर अलाव लगी हुयी थी। कई आदमी उसके इर्द-गिर्द बैठे हुए बातें कर रहे थे। कादिर ने बाजार के तम्बाकू की निन्दा की, दुखरन भगत ने उनका अनुमोदन किया। इसके बाद डपटसिंह पर्थर और बेलन के कोल्हुओं के गुण-दोष की विवेचना करने लगे, अन्त में लोहे ने पत्थर पर विजय पायी।

दुखरन बोले– आजकल रात को मटर में सियार और हरिन बड़ा उपद्रव मचाते हैं। जाड़े के मारे उठा नहीं जाता।

कादिर– अब की ठण्डी पड़ेगी। दिन को पछुआ चलता है। मेरे पास तो कोई कम्बल भी नहीं, वही एक दोहर लपेटे रहता हूँ। पुवाल न हो गया होता तो रात को अकड़ जाता।

डपट– यहाँ किसके पास कम्बल है। उसी एक पुराने धुस्से की भुगुत है। लकड़ी भी इतनी नहीं मिलती कि रात भर तापें।

मनोहर– अब की बेटी के ब्याह में इमली का पेड़ कटवाया था। क्या सब जल गयी?

डपट– नहीं बची तो बहुत थी, पर कल डिप्टी ज्वालासिंह के लश्कर में चली गयी। खाँ साहब से कितना कहा कि इसे मत ले जाइए, पर उनकी बला सुनती है। चपरासियों को ढेर दिखा दिया। बात की बात में सारी लकड़ी उठ गयी?

मनोहर– तुमने चपरासियों से कुछ कहा नहीं?

डपट– क्या कहता, दस-पाँच मन लकड़ी के पीछे अपनी जान साँसत में डालता! गालियाँ खाता, लश्कर में पकड़ा जाता, मार पड़ती ऊपर से, तब तुम भी पास न फटकते। दोनों लड़के और झपट तो गरम हो पड़े थे, लेकिन मैंने उन्हें डाँट दिया। जबरदस्त का ठेंगा सिर पर।

कादिर– हाकिमों का दौर क्या है, हमारी मौत है! बकरीद में कुर्बानी के लिए जो बकरा पाल रखा था, वह कल लश्कर में पकड़ा गया। रब्बी बूचड़ पाँच रुपये नगद देता था, मगर मैंने न दिया था। इस बखत सात से कम का माल न था।

मनोहर– यह लोग बड़ा अन्धेर मचाते हैं। आते हैं इंतजाम करने, इन्साफ करने; लेकिन हमारे गले पर छुरी चलाते हैं। इससे कहीं अच्छी तो यही था कि दौरे बन्द हो जाते। यही न होता कि मुकदमे वालों को सदर जाना पड़ता, इस साँसत से तो जान बचती।

कादिर– इसमें हाकिमों का कसूर नहीं। यह सब उनके लश्करवालों की धाँधली है। वही सब हाकिमों को भी बदनाम कर देते हैं।

मनोहर– कैसी बातें कहते हो दादा? यह सब मिलीभगत है। हाकिम का इशारा न होता तो मजाल है कि कोई लश्करी परायी चीज पर हाथ डाल सके। सब कुछ हाकिमों की मर्जी से होता है और उनकी मर्जी क्यों न होगी? सेंत का माल किसको बुरा लगता है?

डपट– ठीक बात है। जिसकी जितनी आमद होती है वह उतना ही और मुँह फैलाता है।

दुखरन– परमात्मा यह अन्धेर देखते हैं, और कोई जतन नहीं करते। देखें बिसेसर साह को अबकी कितनी घटी आती है।

डपट– परसाल तो पूरे तीन सौ की चपत पड़ी थी। वही अबकी समझो, अगर जिन्स ही तक रहे तो इतना घाटा न पड़े, मगर यहाँ तो इलायची, कत्था, सुपारी, मेवा और मिश्री सभी कुछ चाहिए और सब टके सेर। लोग खाने के इतने शौकीन बनते हैं, पर यह नहीं होता कि वे सब चीजें अपने साथ रखें।

मनोहर– शहर में खरे दाम लगते हैं, यहाँ जी में आया दिया न दिया।

कादिर– कल लश्कर का एक चपरासी बिसेसर के यहाँ साबूदाना माँग रहा था। बिसेसर हाथ जोड़ता था, पैरों पड़ता था कि मेरे यहाँ नहीं है, लेकिन चपरासी एक न सुनता था, कहता था जहाँ से चाहो मुझे लाकर दो। गालियाँ देता था, डण्डा दिखाता था। बारे बलराज पहुँच गया। जब वह कड़ा पड़ा तो चपरासी मियाँ नरम पड़े, और भुनभुनाते चले गये ।

दुखरन– बिसेसर की एक मरम्मत हो जाती तो अच्छा होता। गाँव भर का गला मरोड़ता है, यह उसकी सजा है।

डपट– और हम-तुम किसका गला मरोड़ते हैं?

मनोहर ने चिन्तित भाव से कहा– बलराज अब सराकीर आदमियों के मुँह आने लगा। कितना समझा के हार गया मानता नहीं।

कादिर– यह उमिर ही ऐसी होती है।

यही बातें हो रही थीं कि एक बटोही आकर अलाव के पास खड़ा हो गया। उसके पीछे-पीछे एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अलाव से दूर सिर झुकाकर बैठ गयी।

कादिर ने पूछा– कहो भाई, कहाँ घर है?

घर तो देवरी पार, अपनी बुढ़िया माता को लिये अस्पताल जाता था। मगर वह जो सड़क के किनारे बगीचे में डिप्टी साहब का लश्कर उतरा है, वहाँ पहुँचा तो चपरासी ने गाड़ी रोक ली और हमारे कपड़े-लत्ते फेंक-फाँक कर लकड़ी लादने लगे, कितनी अरज-बिनती की, बुढ़िया बीमार है, रातभर का चला हूँ, आज अस्पताल नहीं पहुँचा तो कल न जाने इसका क्या हाल हो! मगर कौन सुनता है? मैं रोता ही रहा, वहाँ गाड़ी लद गयी! तब मुझसे कहने लगे, गाड़ी हाँक। क्या करूँ अब गाड़ी हाँक सदर जा रहा हूँ। बैल और गाड़ी उनके भरोसे छोड़कर आया हूँ जब लकड़ी पहुँचा के लौटूँगा तब अस्पताल जाऊँगा। तुम लोगों को हो सके तो बुढ़िया के लिए खटिया दे दो और कहीं पड़ रहने का ठिकाना बता दो। इतना पुण्य करो, मैं बड़ी विपत्तियों में हूँ।

दुखरन– यह बड़ा अन्धेर है। यह लोग आदमी काहे के, पूरे राक्षस हैं, जिन्हें दयाधरम का विचार नहीं।

डपट– दिन-भर के थके-माँदे बैल हैं, न जाने कहाँ गाड़ी ले जानी पड़ेगी और न जाने जब लौटोगे। तब तक बुढ़िया अकेली पड़ी रहेगी। जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े! हम लोग कितने भी हों, हैं तो पराये ही, घर के आदमी की और बात है।

मनोहर– मेरा तो ऐसा ही जी चाहता है कि इस दम डिप्टी साहब के सामने जाऊँ और ऐसी खरी-खरी सुनाऊँ कि वह भी याद करें। बड़े हाकिम की पोंछ बने हैं। इन्साफ तो क्या करेंगे, उल्टे और गरीबों को पीसते हैं। खटिया की तो कोई बात नहीं है और न जगह की ही कमी है, लेकिन यह रहेंगी कैसे?

बटोही– कैसे बताऊँ? जो भाग्य में लिखा है। वही होगा।

मनोहर– यहाँ से कोई तुम्हारी गाड़ी हाँक ले जाय तो कोई हरज है?

बटोही– ऐसा हो जाय तो क्या पूछना। है कोई आदमी?

मनोहर– आदमी बहुत हैं, कोई न कोई चला जायेगा।  

कादिर– तुम्हारा हलवाहा तो खाली है, उसे भेज दो।

मनोहर– हलवाहे से बैल सधे न सधे, मैं ही चला जाऊँगा।

कादिर– तुम्हारे ऊपर मुझे विश्वास नहीं आता। कहीं झगड़ा कर बैठो तो और बन जाय। दुखरन भगत, तुम चले जाओ तो अच्छा हो।

दुखरन ने नाक सिकोड़कर कहा– मुझे तो जानते ही, रात को कहीं नहीं जाता। भजन-भाव की यही बेला है।

कादिर– चला तो मैं जाता, लेकिन मेरा मन कहता है कि बूढ़ी को अच्छा करने का जस मुझी को मिलेगा। कौन जाने अल्लाह को यही मंजूर हो। मैं उन्हें अपने घर लिये जाता हूँ। जो कुछ बन पड़ेगा करूँगा। गाड़ी हसनू से हकवाये देता हूँ। बैलों को चारा-पानी देना है, बलराज को थोड़ी देर के लिए भेज देना।

कादिर के बरौठे में वृद्धा की चारपाई पड़ गयी। कादिर का लड़का हसनू गाड़ी हाँकने के लिए पड़ाव की तरफ चला। इतने में सुक्खू चौधरी और गौस खाँ दो चपरासियों के साथ आते दिखाई दिये। दूसरी ओर से बलराज भी आकर खड़ा हो गया।

गौस खाँ ने कहा– सब लोग यहाँ बैठे गलचौड़ कर रहे हो, कुछ लश्कर की भी खबर है? देखो, यही चपरासी लोग दूध के लिए आये हैं, उसका बन्दोबस्त करो।

कादिर– कितना दूध चाहिए?

एक चपरासी– कम-से-कम दस सेर।

कादिर– दस-सेर! इतना दूध तो चाहे गाँव भर में न निकले। दो ही चार आदमियों के पास भैंसे हैं और वह दुधार नहीं हैं। मेरे यहाँ तो दोनों जून में सेर भर से ज्यादा नहीं होता।

चपरासी– भैंसे हमारे सामने लाओ, दूध तो हमारा चपरासी निकालता है। हम पत्थर से दूध निकाल लें। चोरों के पेट तक की बात निकाल लेते हैं, भैंसे तो फिर भी भैंसे हैं। इस चपरास में वह जादू है, कि चाहे तो जंगल में मंगल कर दे। लाओ, भैंसें यहाँ खड़ी करो।

गौस खाँ– इतने तूल-कलाम की क्या जरूरत है? दूध का इन्तजाम हो जायेगा। दो सेर सुक्खू देने को कहते हैं। कादिर के यहाँ दो सेर मिल ही जायेगा, दुखरन भगत दो सेर देंगे; मनोहर और डपटसिंह भी दो-दो सेर दे देंगे। बस हो गया।

कादिर– मैं दो-चार सेर का बीमा नहीं लेता। यह दोनों भैंसें खड़ी हैं। जितना दूध दे दें उतना ले लिया जाय।

दुखरन– मेरी तो दोनों भैंसे गाभिन हैं। बहुत देंगी तो आधा सेर। पुवाल तो खाने को पाती हैं और वह भी आधा पेट। कहीं चराई हैं नहीं, दूध कहाँ से हो?

डपट सिंह– सुक्खू चौधरी जितना देते हैं, उसका आधा मुझसे ले लीजिए। हैसियत के हिसाब से न लीजिएगा।

गौस खाँ– तुम लोगों की यह निहायक बेहूदी आदत है कि हर बात में लाग-डाँट करने लगते हो। शराफत और नरमी से आधा भी न दोगे, लेकिन सख्ती से पूरा लिये हाजिर हो जाओगे। मैंने तुमसे दो सेर कह दिया है; इतना तुम्हें देना होगा।

डपट– इस तरह आप मालिक हैं, भैंसें खेल ले जाइए, लेकिन दो सेर दूध मेरे यहाँ न होगा।

गौस खाँ– मनोहर तुम्हारी भैंसें दुधार हैं?

मनोहर ने अभी जवाब न दिया था कि बलराज बोल उठा– मेरी भैंसें बहुत दुधार हैं, मन भर दूध देती हैं, लेकिन बेगार के नाम से छटाँक भर भी न देंगी।

मनोहर– तू चुपचाप क्यों नहीं रहता? तुमसे कौन पूछता है? हमसे जितना हो सकेगा देंगे, तुमसे मतलब?

चपरासी ने बलराज की ओर अपमान-जनक क्रोध से देखकर कहा– महतो, अभी हम लोगों के पंजे में नहीं पड़े हो। एक बार पड़ जाओगे तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। मुँह से बातें न निकलेंगी।

दूसरा चपरासी– मालूम होता है, सिर पर गरमी चढ़ गयी है तभी इतना ऐंठ रहा है। इसे लश्कर ले चलो तो गरमी उतर जाय।

बलराज ने मर्माहत होकर कहा– मियाँ, हमारी गरमी पाँच-पाँच रुपल्ली के चपरासियों के मान की नहीं है, जाओ, अपने साहब बहादुर के जूते सीधे करो, जो तुम्हारा काम है; हमारी गरमी के फेर में न पड़ो; नहीं तो हाथ लग जायेंगे। उस जन्म के पापों का दण्ड भोग रहे हो, लेकिन अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं?

बलराज ने यह शब्द ऐसी सगर्व गम्भीरता से कहे कि दोनों चपरासी खिसिया– से गये । इस घोर अपमान का प्रतिकार करना कठिन था। यह मानो वाद को वाणी की परिधि से निकालकर कर्म के क्षेत्र में लाने की ललकार थी। व्यंगाघात शाब्दिक कलह की चरम सीमा है। उसका प्रतिकार मुँह से नहीं हाथ से होता है। लेकिन बलराज की चौड़ी छाती और पुष्ट भुजदण्ड देखकर चपरासियों को हाथापाई करने का साहस न हो सका। गौस खाँ से बोला, खाँ साहब, आप इस लौंडे को देखते हैं, कैसा बढ़ा जाता है? इसे समझा दीजिए, हमारे मुँह न लगे। ऐसा न हो शामत आ जाय और छह महीने तक चक्की पीसनी पड़े। हम आप लोगों का मुलाजिमा करते हैं, नहीं तो इस हेकड़ी का मजा चखा देते।

गौस खाँ– सुनते हो मनोहर, अपने बेटे की बात? भला सोचो तो डिप्टी साहब के कानों में यह बात पड़ जाय तो तुम्हारा क्या हाल हो? कहीं एक पत्ती का साया भी न मिलेगा।

मनोहर ने दीनता से खाँ साहब की ओर देखकर कहा– मैं तो इसे सब तरह से समझा-बुझा कर हार गया। न जाने क्या हाल करने पर तुला है? (बलराज से) अरे, तू यहाँ से जायेगा कि नहीं?

बलराज– क्यों जाऊँ, मुझे किसी का डर नहीं है। यह लोग डिप्टी साहब से मेरी शिकायत करने की धमकी देते हैं। मैं आप ही उनके पास जाता हूँ। इन लोगों को उन्होंने कभी ऐसा नादिरशाही हुक्म न दिया होगा कि जाकर गाँव में आग लगा दो। और मान लें कि वह ऐसा कड़ा हुक्म दे भी दें, तो इन लोगों को तो पैसे के लोभ और चपरास के मद ने ऐसा अन्धा बना दिया है कि कुछ सूझता ही नहीं। आज उस बेचारी बुढ़िया का क्या हाल होगा, मरेगी कि जियेगी; नौकरी तो की है पांच रुपये की, काम है बस्ते ढोना, मेज साफ करना, साहब के पीछे-पीछे खिदमतगारों की तरह चलना और बनते हैं रईस!

मनोहर– तू चुप होगा कि नहीं?

एक चपरासी– नहीं, इसे खूब गालियाँ दे लेने दो, जिसमें इसके दिल की हवस निकल जाय। इसका मजा कल मिलेगा। खाँ साहब, आपने सुना है, आपको गवाही देनी पड़ेगी। आपका इतना मुलाजिमा बहुत किया। होगा, दूध का कुछ इन्तजाम करते हैं कि हम लोग जायें?

गौस खाँ– नहीं जी, दूध लो, और दस सेर से सेर भर ज़्यादा। यही लोग झख मारेंगे और देंगे। क्या बताएँ आज इस छोकड़े की बदौलत हमको तुम लोगों के सामने इतना शर्मिन्दा होना पड़ा। इस गाँव की कुछ हवा ही बिगड़ी हुई है। मैं खूब समझता हूँ। यह लोग जो भीगी बिल्ली बने बैठे हुए हैं, इन्हीं के शह देने से लौंडे को इतनी जुर्रत हुई है; नहीं तो इसकी मजाल थी कि यों टर्राता। बछड़ा खूँटे के ही बल कूदता है। खैर, अगर मेरा नाम गौस खाँ है तो एक-एक से समझूँगा।

इस तिरस्कार का आशातीत प्रभाव हुआ। सब दहल उठे। वह अभिनय-शीलता, जो पहले सबके चेहरे से झलक रही थी, लुप्त हो गयी। मनोहर तो ऐसा सिटपिटा गया, मानो सैकड़ों जूते पड़े हों। इस खटाई ने सबके नशे उतार दिये।

कादिर खाँ बोल– मनोहर, जाओ, जितना दूध है सब यहाँ भेज दो।

गौस खाँ– हमको मनोहर के दूध की जरूरत नहीं है।

बलराज– यहाँ देता ही कौन है?

मनोहर खिसिया गया। उठा खड़ा हुआ और बोला– अच्छा ले अब तू ही बोल, जो तेरे जी में आये कर, मैं जाता हूँ। अपना घर-द्वार सँभाल मेरा निबाह तेरे साथ न होगा। चाहे घर को रख, चाहे आग लगा दे।

यह कहकर वह सशंक क्रोध से भरा वहाँ से चल दिया। बलराज भी धीरे-धीरे अपने अखाड़े की ओर चला। वहाँ इस समय सन्नाटा था। मुगदर की जोड़ी रखी हुई थी। एक पत्थर की नाल जमीन पर पड़ी हुई थी, और लेजिम आम की डाल से लटक रहा था। बलराज ने कपड़े उतारे और लँगोट कसकर अखाड़े में उतरा लेकिन आज व्यायाम में उसका मन न लगा। चपरासियों की बात एक फोड़े का भाँति उसके हृदय में टीस रही थी। यद्यपि उसने चपरासियों को निर्भय होकर उत्तर दिया था, लेकिन इसे इसमें तनिक भी सन्देह न था कि गाँव के अन्य पुरुषों को, यहाँ तक कि मेरे पिता को भी, मेरी बातें उद्दंड प्रतीत हुईं। सब-के-सब कैसा सन्नाटा खींचे बैठे रहे। मालूम होता था कि किसी के मुंह में जीभ ही नहीं है, तभी तो यह दुर्गति हो रही है! अगर कुछ दम हो तो आज इतने पीसे-कुचले क्यों जाते? और तो और, दादा ने भी मुझी को डांटा। न जाने इनके मन में इतना डर क्यों समा गया है? पहले तो ये इतने कायर न थे। कदाचित् अब मेरी चिन्ता इन्हें सताने लगी। लेकिन मुझे अवसर मिला तो स्पष्ट कह दूँगा कि तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। मुझे परमात्मा ने हाथ-पैर दिए हैं। मिहनत कर सकता हूँ और दो को खिलाकर खा सकता हूँ। तुम्हें अगर अपने खेत इतने प्यारे हैं कि उनके पीछे तुम अत्याचार और अपमान सहने पर तैयार हो तो शौक से सहो, लेकिन मैं ऐसे खेतों पर लात मारता हूँ। अपने पसीने की रोटी खाऊँगा और अकड़कर चलूँगा। अगर कोई आँख दिखायेगा तो उसकी आँख निकाल लूँगा। यह बुड्ढा गौस खाँ कैसी लाल-पीली आँख कर रहा था, मालूम होता है इनकी मृत्यु मेरे ही हाथों लिखी हुई है। मुझ पर दो चोट कर चुके हैं। अब देखता हूँ कौन हाथ निकालते हैं। इनका क्रोध मुझी पर उतरेगा। कोई चिन्ता नहीं, देखा जायेगा। दोनों चपरासी मन में फूले ही न समाये होंगे की सारा गाँव कैसा रोब में आ गया, पानी भरने को तैयार है। गाँव वालों ने भी लल्लो-चप्पो की होगी, कोई परवाह नहीं। चपरासी मेरा कर ही क्या सकते हैं? लेकिन मुझे कल प्रातःकाल डिप्टी साहब के पास जाकर उनसे सब हाल कह देना चाहिए। विद्वान-पुरुष हैं। दीन जनों पर उन्हें अवश्य दया आयेगी। अगर वह गाड़ियों के पकड़ने की मनाही कर दें तो क्या पूछना? उन्हें यह अत्याचार कभी पसन्द न आता होगा। यह चपरासी लोग उनसे छिपाकर यों जबरदस्ती करते हैं। लेकिन कहीं उन्होंने मुझे अपने इजलास से खड़े-खड़े निकलवा दिया तो? बड़े आदमियों को घमण्ड बहुत होता है। कोई हरज नहीं, मैं सड़क पर खड़ा हो जाऊँगा और देखूँगा कि कैसे कोई मुसाफिरों की गाड़ी पकड़ता है! या तो दो-चार का सिर तोड़ के रख दूँगा या आप वहीं मर जाऊँगा। अब बिना गरम पड़े काम नहीं चल सकता। वह दादा बुलाने आ रहे हैं।

बलराज अपने बाप के पीछे-पीछे घर पहुँचा। रास्ते में कोई बात-चीत नहीं हुई। बिलासी बलराज को देखकर बोली– कहाँ जाके बैठ रहे? तुम्हारे दादा कब से खोज रहे हैं। चलो रोटी तैयार है।

बलराज– अखाड़े की ओर चला गया था।

बिलासी– तुम अखाड़े मत जाया करो।

बलराज– क्यों?

बिलासी– क्यों क्या, देखते नहीं हो, सबकी आँखों में चुभते हो? जिन्हें तुम अपना हितू समझते हो, वह सब के सब तुम्हारी जान के घातक हैं। तुम्हें आग में ढकेल कर आप तमाशा देखेंगे। आज ही तुम्हें सरकारी आदमियों से भिड़ाकर कैसा दबक गये?

बलराज ने इस उपदेश का कुछ उत्तर न दिया। चौके पर जा बैठा। उसके एक ओर मनोहर था और दूसरी ओर जरा हटकर उसका हलवाहा रंगी चमार बैठा हुआ था। बिलासी ने जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ, बथुआ का शाक और अरहर की दाल तीनों थालियों में परस दीं। तब एक फूल के कटोरे में दूध लाकर बलराज के सामने रख दिया।

बलराज– क्या और दूध नहीं है?

बिलासी– दूध कहाँ है, बेगार में नहीं चला गया?

बलराज– अच्छा, यह कटोरा रंगी के सामने रख दो।

बलराज– तुम खा लो, रंगी एक दिन दूध न खाएगा तो दुबला न हो जायेगा।

बलराज बेगार का हाल सुनकर क्रोध से आग हो रहा था। कटोरे को उठाकर आँगन की ओर जोर से फेंक दिया। वह तुलसी के चबूतरे से टकराकर टूट गया। बिलासी ने दौड़ कर कटोरा उठा लिया और पछताते हुऐ बोली– तुम्हें क्या हो गया है? राम, राम, ऐसा सुन्दर कटोर चूर कर दिया। कहीं सनक तो नहीं गये हो?

बलराज– हाँ, सनक ही गया हूँ।

बिलासी– किस बात पर कटोरे को पटक दिया?

बलराज– इसीलिए कि जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए। हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहुत हो, वह सबके सामने आना चाहिए। अच्छा खाँय तो सब खाँय बुरा खाँय तो सब खाँय लेकिन तुम्हें न जाने क्यों यह बात भूल जाती है? अब याद रहेगी। रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं है, घर का आदमी है। वह मुँह से चाहे न कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़कर काम मैं करूँ और मूछों पर ताव देकर खाँय यह लोग। ऐसे दूध-घी खाने पर लानत है।

रंगी ने कहा– भैया, नित तो दूध खाता हूँ, एक दिन न सही। तुम हक-नाहक इतने खफा हो गये।

इसके बाद तीनों आदमी चुपचाप खाने लगे। खा-पीकर बलराज और रंगी ऊख की रखवाली करने मण्डिया की तरफ चले। वहाँ बलराज ने चरस निकाली और दोनों ने खूब दम लगाये। जब दोनों ऊख के बिछावन पर कंबल ओढ़कर लेटे तो रंगी बोला–  काहे भैया आज तुमसे लश्कर के चपरासियों से कुछ कहा सुनी हो गयी थी क्या?

बलराज– हाँ, हुज्जत हो गयी। दादा ने मने न किया होता तो दोनों को मारता।

रंगी– तभी दोनों बुरा-भला कहते चले जाते थे। मैं उधर से क्यारी में पानी खोलकर आता था। मुझे देखकर दोनों चुप हो गये। मैंने इतना सुना; अगर यह लौंडा कल सड़क पर गाड़ियाँ पकड़ने में कुछ तकरार करे तो बस चोरी का इलजाम लगाकर गिरफ्तार कर लो। एक पचास बेंत पड़ जायें तो इसकी शेखी उतर जाय।’

बलराज– अच्छा, यह सब यहाँ तक मेरे पीछे पड़े हुए हैं। तुमने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया, मैं कल सवेरे ही डिप्टी साहेब के पास जाऊँगा।

रंगी– क्या करने जाओगे भैया। सुनते हैं। अच्छा आदमी नहीं है। बड़ी कड़ी सजा देता है। किसी को छोड़ना तो जानता ही नहीं। तुम्हें क्या करना है? जिसकी गाड़ियाँ पकड़ी जायेंगी वह आप निबट लेगा।

बलराज– वाह,लोगों में इतना ही बूता होता तो किसी की गाड़ी पकड़ी ही क्यों जाती? सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है। यह चपरासी भी तो आदमी ही है!

रंगी– तो तुम काहे को दूसरे के बीच में पड़ते हो? तुम्हारे दादा आज उदास थे और अम्माँ रोती रहीं।

बलराज– क्या जाने, क्यों रंगी, जब से दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ, मुझसे अन्याय नहीं देखा जाता। जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते देखता हूँ तो मेरे बदन में आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि चाहे अपनी जान रहे या जाय, इस जबरे का सिर नीचा कर दूँ। सिर पर एक भूत-सा सवार हो जाता है। जानता हूँ कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर मन काबू से बाहर हो जाता है।

इसी तरह की बातें करते दोनों सो गये। प्रातः काल बलराज घर गया, कसरत की, दूध पिया और ढीला कुर्ता पहन, पगड़ी बाँध डिप्टी साहब के पड़ाव की ओर चला। मनोहर जब तक उससे रूठे बैठे थे, अब जब्त न कर सके। पूछा, कहाँ जाते हो?

बलराज– जाता हूँ डिप्टी साहब के पास।

मनोहर– क्यों सिर पर भूत सवार है? अपना काम क्यों नहीं देखते।

बलराज– देखूँगा कि पढ़े-लिखे लोगों का मिजाज कैसा होता है?

मनोहर– धक्के खाओगे, और कुछ नहीं!

मनोहर– धक्के तो चपरासियों के खाते हैं, इसकी क्या चिन्ता? कुत्ते की जात पहचानी जायेगी।

मनोहर ने उसी ओर निराशापूर्ण स्नेह की दृष्टि से देखा और कन्धे पर कुदाल रख कर हार की ओर चल दिया। बलराज को मालूम हो गया कि अब यह मुझे छोड़ा हुआ साँड़ समझ रहे हैं, पर वह अपनी धुन में मस्त था। मनोहर का यह विचार कि इस समय समझाने का उतना असर न होगा, जितना विरक्ति-भाव का, निष्फल हो गया। वह ज्योंही घर से निकला, बलराज ने भी लट्ठ कन्धे पर रखा और कैम्प की ओर चला। किसी हाकिम के सम्मुख जाने का यह पहला ही अवसर था। मन में अनेक विचार आते थे। मालूम नहीं, मिलें या न मिलें, कहीं मेरी बातें सुनकर बिगड़ न जायें, मुझे देखते ही सामने से निकलवा न दें, चपरासियों ने मेरी शिकायत अवश्य की होगी। क्रोध में भरे बैठे होंगे। बाबू ज्ञानशंकर से इनकी दोस्ती भी तो है। उन्होंने भी हम लोगों की ओर से उनके कान खूब भरे होंगे। मेरी सूरत देखते ही जल जायेंगे। उँह, जो कुछ हो, एक नया अनुभव तो हो जायेगा। यही पढ़े-लिखे लोग तो हैं जो सभाओं में और लाट साहब के दरबार में हम लोगों की भलाई की रट लगाया करते हैं, हमारे नेता बनते हैं। देखूँगा कि यह लोग अपनी बातों के कितने धनी हैं।

बलराज कैम्प में पहुँचा तो देखा कि जगह-जगह लकड़ी के अलाव जल रहे हैं, कहीं पानी गरम हो रहा है, कहीं चाय बन रही है। एक कूबड़ बकरे का मांस काट रहा है दूसरी ओर बिसेसर साह बैठे जिन्स तौल रहे हैं। चारों ओर घड़े हाँडियाँ टूटी पड़ी थीं। एक वृक्ष की छाँह में कितने ही आदमी सिकुड़े बैठे थे, जिनके मुकदमों की आज पेशी होने वाली थी, बलराज पेड़ों की आड़ में होता हुआ ज्वाला सिंह के खेमे के पास जा पहुँचा। उसे यह धड़का लगा हुआ था कि कहीं उन दोनों चपरासियों की निगाह मुझ पर न पड़ जाय। वह खड़ा सोचने लगा कि डिप्टी साहब के सामने कैसे जाऊँ? उस पर इस समय एक रोब छाया हुआ था। खेमे के सामने जाते हुए पैर काँपते थे। अचानक उसे गौस खाँ और सुक्खू चौधरी एक पेड़ के नीचे आग तापते दिखाई पड़े। अब वह खेमे के पीछे खड़ा न रह सका। उनके सामने धक्के खाना या डाँट सुनना मर जाने से भी बुरा था। वह जी कड़ा करके खेमे के सामने चला गया और ज्वालासिंह को सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया।

बाबू ज्वालासिंह एक न्यायशील और दयालु मनुष्य थे, किन्तु इन दो-तीन महीनों के दौरे में उन्हें अनुभव हो गया था कि बिना कड़ाई के मैं सफलता के साथ कर्त्तव्य का पालन नहीं कर सकता। सौजन्य और शालीनता निज के कामों से चाहे कितनी ही सराहनीय हो, लेकिन शासन-कार्य में यह सद्गुण अवगुण बन जाते हैं। लोग उनसे अनुचित लाभ उठाने लगते हैं, उन्हें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लेते हैं। अतएव न्याय और शील में परस्पर विरोध हो जाता है। रसद और बेगार के विषय में भी अधीनस्थ कर्मचारियों की चापलूसियाँ उनकी न्याय-नीति पर विजय पा गयी थीं, और वह अज्ञात-भाव से स्वेच्छाचारी अधिकारियों के वर्तमान साँचे में ढल गये थे। उन्हें अपने विवेक पर पहले से ही गर्व था, अब इसने आत्मश्लाघा का रूप धारण किया था। वह जो कुछ कहते या करते थे उसके विरुद्ध एक शब्द भी न सुनना चाहते थे। इससे उनकी राय पर कोई असर न पड़ता था। वह निस्पृह मनुष्य थे और न्याय-मार्ग से जौ भर भी न टलते थे। उन्हें स्वाभाविक रूप से यह विचार होता था, किसी को मुझसे शिकायत नहीं होनी चाहिए। अपने औचित्य-पालन का विश्वास और अपनी गौरवशाली प्रकृति उन्हें प्रार्थियों के प्रति अनुदार बना देती थी। बलराज को सामने देखकर बोले, कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो?

बलराज ने झुक कर सलाम किया। उसकी उद्दण्डता लुप्त हो गयी थी। डरता हुआ बोला– हुजूर, से कुछ बोलना चाहता हूँ। ताबेदार का घर इसी लखनपुर में है।

ज्वालासिंह– क्या कहना है?

बलराज– कुछ नहीं, इतना ही पूछना चाहता हूँ कि सरकार को आज कितनी गाड़ियों की जरूरत होगी?

ज्वालासिंह– क्या तुम गाड़ियों के चौधरी हो?

बलराज– जी नहीं, चपरासी लोग सड़क पर जाकर मुसाफिरों की गाड़ियों को रोकते हैं और उन्हें दिक करते हैं। मैं चाहता हूँ कि सरकार को जितनी गाड़ियाँ दरकार हों, उतनी आस-पास के गाँवों से खोज लाऊँ। उनका सरकार से जो किराया मिलता हो वह दे दिया जाय तो मुसाफिरों को रोकना न पड़े।

ज्वालासिंह ने अपना सामान लादने के लिए ऊँट रख लिए थे, किन्तु यह जानते थे कि मातहतों और चपरासियों को अपना असबाब लादने के लिए गाड़ियों की जरूरत होती है। उन्हें इसका खर्चा सरकार से नहीं मिलता। अतएव वे लोग गाड़ियाँ न रोकें, तो उनका काम ही न चले। यह व्यवहार चाहे प्रजा को कष्ट पहुँचाए, पर क्षम्य है।

उनके विचार में यह कोई ऐसी ज्यादती न थी। सम्भव था कि यही प्रस्ताव किसी सम्मानित पुरुष ने किया होता, तो वह उस पर विचार करते, लेकिन एक अक्खड़ गँवार, मूर्ख देहाती को उनसे यह शिकायत करने का साहस हो, वह उन्हें न्याय का पाठ पढाने का दावा करे, यह उनके आत्मभिमान के लिए असह्य था। चिढ़कर बोले– जाकर रिश्तेदार से पूछो।

बलराज– हुजूर ही उन्हें बुलाकर पूछ लें। मुझे वह न बतायेंगे।

ज्वालासिंह-मुझे इस सिर-दर्द की फुर्सत नहीं है।

बलराज के तेवर पर बल पड़ गये। शिक्षित समुदाय की नीति-परायणता और सज्जनता पर उसकी जो श्रद्धा थी, वह क्षण-मात्र में भंग हो गयी। इन सद्भावों की जगह उसे अधिकार और स्वेच्छाचार का अहंकार अकड़ता दीख पड़ा। अहंकार के सामने सिर झुकाना उसने न सीखा था। उसने निश्चय किया कि जो मनुष्य इतना अभिमानी हो और मुझे इतना नीच समझे, वह आदर के योग्य नहीं है। इनमें और गौस खाँ या मामूली चपरासियों में अन्तर ही क्या रहा? ज्ञान और विवेक की ज्योति कहाँ गयी? निःशंक होकर बोला– सरकार इसे सिर-दर्द समझते हैं। और यहाँ हम लोगों की जान पर बनी हुई है। हुजूर धर्म के आसन पर बैठे हैं, और चपरासी लोग परजा को लूटते फिरते हैं। मुझे आपसे यह विनती करने का हौसला हुआ, तो इसलिए कि मैं समझता था, आप दीनों की रक्षा करेंगे। अब मालूम हो गया कि हम अभागों का सहायक परमात्मा के सिवा और कोई नहीं।

यह कहकर वह बिना सलाम किये ही वहाँ से चल दिया। उसे एक नशा-सा हो गया था। बातें अवज्ञापूर्ण थीं, पर उनमें स्वाभिमान और सदिच्छा कूट-कूट कर भरी हुई थी। ज्वालासिंह में अभी तक सहृदयता का सम्पूर्णतः पतन न हुआ था। क्रोध की जगह उनके मन में सद्भावना का विकास हुआ। अब तक इनके यहाँ स्वार्थी और खुशामदी आदमियों का ही जमघट रहता था। ऐसे एक भी स्पष्टावादी मनुष्य से उनका सम्पर्क न हुआ था। जिस प्रकार मीठे पदार्थ खाने से ऊबकर हमारा मन कड़वी वस्तुओं की ओर लपकता है, उसी भाँति ज्वालासिंह को ये कड़वी बातें प्रिय लगीं। उन्होंने उनके हृदय-नेत्रों के सामने से पदाभिमान का पर्दा हटा दिया। जी में तो आया कि इस युवक को बुलाकर उससे खूब बातें करूँ, किन्तु अपनी स्थिति का विचार करके रुक गये। बहुत देर तक बैठे हुए इन बातों पर विचार करते रहे। अन्तिम शब्दों ने उसकी आत्मा को एक ठोंका दिया था और वह जाग्रत हो गयी थी। मन में अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लेने के बाद उन्होंने अहलमट साहब को बुलाया। सैयद ईजाद हुसेन ने बलराज को जाते देख लिया था। कल का सारा वृत्तान्त उन्हें मालूम ही था। ताड़ गये कि लौंडा डिप्टी साहब के पास फरियाद लेकर आया होगा। पहले तो शंका हुई, कहीं डिप्टी साहब बातों में न आ गये हों। लेकिन जब उसकी बातों से ज्ञात हुआ कि डिप्टी साहब ने उल्टे और फटकार सुनाई तो धैर्य हुआ। बलराज को डाँटने लगे। वह अपने अफसरों के इशारे के गुलाम थे और उन्हीं की इच्छानुसार अपने कर्त्तव्य का निर्माण किया करते थे।

बलराज इस समय ऐसा हताश हो रहा था कि पहले थोड़ी देर तक वह चुपचाप खड़ा ईजाद हुसेन की कठोर बातें सुनता रहा। अन्त में गंभीर भाव से बोला– आप क्या चाहते हैं कि हम लोगों पर अन्याय भी हो और हम फरियाद भी न करें?''

ईजाद हुसेन-फरियाद का मजा तो चख लिया। अब चालान होता है तो देखें कहाँ जाते हो। सरकारी आदमियों से मुहाजिम होना कोई खाला जी का घर नहीं है। डिप्टी साहब को तुम लोगों की सरकशी का रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। बाबू ज्ञानशंकर ने सारा कच्चा चिट्ठा उनसे बयान कर दिया है। वह तो मौके की तलाश में थे। आज शाम तक सारा गाँव बँधा जाता है। गौस खाँ को सीधा पा लिया है, इसी से शेर हो गये। अब सारी कसर निकल जाती है। इतने बेंत पड़ेगे कि धज्जियाँ उड़ जायेंगी।

बलराज– ऐसा कोई अँधेर है कि हाकिम लोग बेकसूर किसी को सजा दे दें।

ईजाद हुसेन– हाँ हाँ, ऐसा ही अँधेर है। सरकारी आदमियों को हमेशा बेगार मिली है और हमेशा मिलेगी। तुम गाड़िया न दोगे तो वह क्या अपने सिर पर असबाब लादेंगे? हमें जिन-जिन चीजों की जरूरत होगी, तुम्हीं से न जायेंगी। हँसकर दो रोकर दो। समझ गये...।

इतने में एक चपरासी ने कहा– चलिए आपको सरकार याद करते हैं। आज़ाद हुसेन पान खाए हुये थे। तुरन्त कुल्ली की, पगड़ी बाँधी और ज्वालासिंह के सामने जाकर सलाम किया।

ज्वालासिंह ने कहा– मीर साहब, चपरासियों को ताकीद कर दीजिए कि अब से कैम्प के लिए बेगार में गाड़ियाँ न पकड़ा करें। आप लोग अपना सामान मेरे ऊँटों पर रखा कीजिए। इससे आप लोगों को चाहे थोड़ी-सी तकलीफ हो, लेकिन यह मुनासिब नहीं मालूम होता कि अपनी आसाइश के लिए दूसरों पर जब्र किया जाय।

ईजाद हुसेन– हुजूर बजा फरमाते हैं। आज से गाड़ियाँ पकड़ने की सख्त मुमानियत कर दी जायेगी। बेशक यह सरासर जुल्म है।

ज्वालासिंह– चपरासियों से कह दीजिए कि मेरे इजलास के खेमे में रात को सो रहा करें। बेगार में पुआल लेने की जरूरत नहीं। गरीब किसान यहीं पुआल काट-काट कर जानवरों की खिलाते हैं, इसलिए उन्हें इसका देना नागवार गुजरता है।

ईजाद हुसेन-हुजूर का फरमाना बजा है। हुक्काम को ऐसा ही गरीब परवार होना चाहिए। लोग ज़मींदारों की सख्तियों से यों ही परेशान रहते हैं। उस पर हुक्काम की बेगार तो और भी सितम हो जाती है।

ज्वालासिंह के हृदय में ज्ञानशंकर के ताने अभी तक खटक रहे थे। यदि थोड़े से कष्ट से उन पर छीटें उड़ाने को सामग्री हाथ आ जाय तो क्या पूछना! ज्वाला सिंह इस द्वेष के आवेग को न रोक सके। एक बार गाँव में जाकर उनकी दशा आँखों से देखने का निश्चय किया।

आठ बज चुके थे, किन्तु अभी तक चारों ओर कुहरा छाया हुआ था, लखनपुर के किसान आज छुट्टी-सी मना रहे थे। जगह-जगह अलाव के पास बैठे हुए लोग कल की घटना की आलोचना कर रहे थे। बलराज की धृष्टता पर टिप्पणियाँ हो रही थीं। इतने में ज्वालासिंह चपरासियों और कर्मचारियों के साथ गाँव में आ पहुँचे। गौस खाँ और उनके दोनों चपरासी पीछे-पीछे चले आते थे। उन्हें देखते ही स्त्रियाँ अपने अधमँजे बर्तन छोड़-छोड़ कर घरों में घुसीं। बाल-वृद्धा भी इधर-उधर दबक गये। कोई द्वार पर कूड़ा उठाने लगा, कोई रास्ते में पड़ी हुई खाट उठाने लगा। ज्वालासिंह गाँव भ्रमण करते हुए सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में आकर खड़े हो गये। सुक्खू चारपाई लेने दौड़े। गौस खाँ ने एक आदमी को कुरसी लाने के लिए चौपाल दौड़ाया। लोगों ने चारो ओर से आ-आकर ज्वालासिंह को घेर लिया। अमंगल के भय से सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

ज्वालासिंह– तुम्हारी खेती इस साल कैसी है?

सुक्खू चौधरी को नेतृत्व का पद प्राप्त था। ऐसे अवसरों पर वही अग्रसर हुआ करते थे। पर वह अभी तक घर में से चारपाई निकाल रहे थे, जो वृहदाकार होने के कारण द्वार से निकल न सकती थी। इसलिए कादिर खाँ को प्रतिनिधि का आसन ग्रहण करना पड़ा। उन्होंने विनीत भाव से उत्तर दिया– हुजूर अभी तक अच्छी है, आगे अल्लाह मालिक है।

ज्वालासिंह– यहाँ मुझे आबपाशी के कुएँ बहुत कम नजर आते हैं, क्या ज़मींदार की तरफ से इसका इन्तज़ाम नहीं है?

कादिर– हमारे ज़मींदार तो हजूर हम लोगों को बड़ी परवस्ती करते हैं, अल्लाह उन्हें सलामत रखें। हम लोग आप ही आलस के मारे फिकर नहीं करते।

ज्वालासिंह– मुंशी गौस खाँ तुम लोगों की सरकशी की बहुत शिकायत करते हैं। बाबू ज्ञानशंकर भी तुम लोगों से खुश नहीं हैं, यह क्या बात है? तुम लोग वक्त पर लगान नहीं देते और जब तकाजा किया जाता है, तो फिसाद और असादा हो जाते हो। तुम्हें मालूम है कि ज़मींदार चाहे तो तुमसे एक के दो वसूल कर सकता है।

गजाधर अहीर ने दबी जबान से कहा, तो कौन कहे कि छोड़ देते हैं।

ज्वालासिंह– क्या कहते हो? सामने आकर कहो।

कादिर– कुछ नहीं हुजूर, यही कहता हैं कि हमारी मजाल है जो आपके मालिक के सामने सिर उठायें। हम तो उनके ताबेदार हैं, उनका दिया खाते हैं, उनकी जमीन में बसते हैं, भला उनसे सरकशी करके अल्लाह को क्या मुँह दिखायेंगे? रही बकाया, जो हुजूर जहाँ तक होता है साल तमाम तक कौड़ी-कौड़ी चुका देते हैं हाँ, जब कोई काबू नहीं चलता तो कभी थोड़ी बहुत बाकी रह भी जाती है।

ज्वालासिंह ने इसी प्रकार से और भी कई प्रश्न किये, किन्तु उनका अभीष्ट पूरा न हो सका। किसी की जबीन से गौस खाँ या बाबू ज्ञानशंकर के विरुद्ध एक भी शब्द न निकला। अन्त में हार मानकर वह पड़ाव को चल दिये।

9.

अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर दिया। लखनपुर मोसल्लम उनके हिस्से में दे दिया और घर की अन्य सामग्रियाँ भी उन्हीं की मर्जी के मुताबिक बाँट दीं। बड़ी बहू की ओर से विरोध की शंका थी, लेकिन इस एहसान ने उनकी जबान ही नहीं बन्द कर दी, वरन् उनके मनोमालिन्य को भी मिटा दिया। प्रभाशंकर अब बड़ी बहू से नौकरों से, मित्रों से, संबंधियों से ज्ञानशंकर की प्रशंसा किया करते और प्रायः अपनी आत्मीयता को किसी-न किसी उपहार के स्वरूप में प्रकट करते। एक दुशाला, एक चाँदी का थाल, कई सुन्दर चित्र, एक बहुत अच्छा ऊँनी कालीन और ऐसी ही विविध वस्तुएँ उन्हें भेंट कीं। उन्हें स्वादिष्ट पदार्थों से बड़ी रुचि थी। नित्य नाना प्रकार के मुरब्बे चटनियाँ, अचार बनाया करते थे। इस कला में प्रवीण थे। आप भी शौक से खाते थे और दूसरों को खिलाकर आनन्दित होते थे। ज्ञानशंकर के लिए नित्य कोई-न-कोई स्वादिष्ट पदार्थ बनाकर भेजते। यहाँ तक कि ज्ञानशंकर इन सद्भावों से तंग आ गये। उनकी आत्मा अभी तक उनकी कपट-नीति पर उनको लज्जित किया करती थी। यह खातिरदारियाँ उन्हें अपनी कुटिलता की याद दिलाती थीं। और इससे उनका चित्त दुखी होता था। अपने चाचा की सरल हृदयता और सज्जनता के सामने अपनी धूर्तता और मलीनता अत्यन्त घृणित दीख पड़ती थी।

लखनपुर ज्ञानशंकर की चिरभिलाषाओं का स्वर्ग था। घर की सारी सम्पत्ति में ऐसा उपजाऊ, ऐसा समृद्धिपूर्ण और कोई गाँव नहीं था जो शहर से मिला हुआ, पक्की सड़क के किनारे और जलवायु भी उत्तम। यहाँ कई हलों की सीर थी, एक कच्चा पर सुन्दर मकान भी था और सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ इजाफा लगान की बड़ी गुन्जाइश थी। थोड़े उद्योग से उनका नफा दूना हो सकता था। दो-चार कच्चे कुएँ खुदवाकर इजाफे की कानूनी शर्त पूरी की जा सकती थी। बँटवारे को एक सप्ताह भी न हुआ था कि ज्ञानशंकर ने गौस खाँ को बुलवाया, जमाबन्दी की जाँच की, इजाफा बेदखली की परत तैयार की और असामियों पर मुकदमा दायर करने का हुक्म दे दिया। अब तक सीर बिलकुल न होती थी। इसका प्रबन्ध किया। वह चाहते थे कि अपने हल, बैल, हलवाहे रखे जायें और विधिपूर्वक खेती की जाये। किन्तु खाँ साहब ने कहा, इतने आडम्बर की जरूरत नहीं, बेगार में बड़ी सुगमता से सीर हो सकती है। सीर के लिए बेगार ज़मींदार का हक है, उसे क्यों छोड़िए?

लेकिन सुव्यवस्था रूपी मधुर गान में एक कटु स्वर भी था, जिससे उसका लालित्य भंग हो जाता था। यह विद्यावती का असहयोग था। उसे अपने पति की स्वार्थपरता एक आँख न भाती थी। कभी-कभी मतिभेद विवाद और कलह का भी रूप धारण कर लेता था।

फागुन का महीना था। लाला प्रभाशंकर धूमधाम से होली मनाया करते थे। अपने घरवालों के लिए, नये कपड़े लाये, तो ज्ञानशंकर के परिवार के लिए भी लेते आये थे। लगभग पचास वर्षों से वह घर भर के लिए नये वस्त्र लाने के आदी हो गये थे। अब अलग हो जाने पर भी उस प्रथा को निभाते रहना चाहते थे। ऐसे आनन्द के अवसर पर द्वेष-भाव को जाग्रत रखना उनके लिए अत्यन्त दुःखकर था। विद्या ने यह कपड़े तो रख लिये, पर इसके बदले में प्रभाशंकर के लड़कों लड़कियों, और बहू के लिए एक-एक जोड़ी धोती की व्यवस्था की। ज्ञानशंकर ने यह प्रस्ताव सुना तो चिढ़कर बोले– यदि यही करना है तो उनके कपड़े लौटा क्यों नहीं देतीं?

विद्या– भला कपड़े लौटा दोगे तो वह अपने मन में क्या कहेंगे? वह बेचारे तो तुमसे मिलने को दौड़ते हैं और तुम भागे-भागे फिरते हो। तुम्हें रुपये का ही ख्याल है न? तुम कुछ मत देना; मैं अपने पास से दूँगी।

ज्ञान– जब तुम धन्ना सेठों की तरह बातें करने लगती हो तो बदन में आग सी लग जाती है! उन्होंने कपड़े भेजे तो कोई एहसान नहीं किया। दूकानों का साल भर का किराया पेशगी लेकर हड़प चुके हैं। यह चाल इसलिए चल रहे हैं कि मैं मुँह भी न खोल सकूँ और उनका बड़प्पन भी बना रहे। अपनी गाँठ से करते तो मालूम होता।

विद्या– तुम दूसरों की कीर्ति को कभी-कभी ऐसा मिटाने लगते हो कि मुझे तुम्हारी अनुदारता पर दुःख होता है। उन्होंने अपना समझकर उपहार दिया, तुम्हें इसमें उनकी चाल सूझ गयी।

ज्ञान– मुझे भी घर में बैठे सुख-भोग की सामग्रियाँ मिलती तो मैं तुमसे अधिक उदार बन जाता। तुम्हें क्या मालूम है कि मैं आजकल कितनी मुश्किल से गृहस्थी का प्रबन्ध कर रहा हूँ? लखनपुर से जो थोड़ा बहुत मिला उसी में गुजर हो रहा है। किफायत से न चलता तो अब तक सैकड़ों का कर्ज हो गया होता। केवल अदालत के लिए सैकड़ों रुपये की जरूरत है। बेदखली और इजाफे के कागज-पत्र तैयार हैं, पर मुकदमे दायर करने के लिए हाथ में कुछ भी नहीं। उधर गाँव वाले भी बिगड़े हुए हैं, ज्वालासिंह ने अब के दौरे में उन्हें ऐसा सिर चढ़ा दिया कि मुझे कुछ समझते ही नहीं। मैं तो इन चिन्ताओं में मरा जाता हूँ और तुम्हें एक खुराफात सूझा करती है।

विद्या– मैं तुमसे रुपये तो नहीं माँगती!

ज्ञान– मैं अपने और तुम्हारे रुपयों में कोई भेद नहीं समझता। हाँ, जब राव साहब तुम्हारे नाम कोई जायदाद लिख देंगे तो समझने लगूँगा।

विद्या– मैं तुम्हारा एक पैसा नहीं चाहती।

ज्ञान– माना, लेकिन वहाँ से भी तुम रोकड़ नहीं लाती हो। साल में सौ-पचास रुपये मिल जाते होंगे, इतने पर ही तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते। छिछले ताल की तरह उबलने लगती हो।

विद्या– तो क्या चाहते हो कि वह तुम्हें अपना घर उठाकर दे दें?

ज्ञान– वह बेचारे आप तो अघा लें, मुझे क्या देंगे? मैं तो ऐसे आदमी को पशु से गया गुजरा समझता हूं जो आप तो लाखों उड़ाए और अपने निकटतम संबंधियों की बात भी न पूछे। वह तो अगर मर भी जायें तो मेरी आँखों में आँसू न आये।

विद्या– तुम्हारी आत्मा संकुचित है, यह मुझे आज मालूम हुआ।

ज्ञान– ईश्वर का धन्यवाद दो कि मुझसे विवाह हो गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। लाला बरसों तक दही-दही हाँकते रहे, पर कोई सेंत भी न पूछता था।

विद्यावती इस मर्माघात को न सह सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा।

वह झमककर वहाँ से चली जाने को उठी कि इतने में महरी ने एक तार का लिफाफा लाकर ज्ञानशंकर के हाथ में रख दिया। लिखा था–  

‘‘पुत्र का स्वर्गवास हो गया, जल्द आओ।’’

ज्ञानशंकर ने तार का कागज जमीन पर फेंक दिया और लम्बी साँस खींच कर बोले, हाँ! शोक! परमात्मा, यह तुमने क्या किया!

विद्या ठिठक गयी।

ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– विद्या हम लोगों पर वज्र गिर पड़ा हमारा...

विद्या ने कातर नेत्रों से देखकर कहा– मेरे घर पर तो कुशल है।

ज्ञानशंकर– हाय प्रिये, किस मुँह से कहूँ कि सब कुशल है! वह घर उजड़ गया उस घर का दीपक बुझ गया! बाबू रामानन्द अब इस संसार में नहीं हैं। हा, ईश्वर!!

विद्या के मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी। विह्वल होकर भूमि पर गिर पड़ी और छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगी। श्रद्धा दौड़ी महरियाँ जमा हो गयीं। बड़ी बहू ने रोना सुना तो अपनी बहू और पुत्रियों के साथ आ पहुँची। कमरे में स्त्रियों की भीड़ लग गयी। मायाशंकर माता को रोते देखकर चिल्लाने लगा। सभी स्त्रियों के मुख पर शोक की आभा थी और नेत्रों में करुणा का जल। कोई ईश्वर को कोसती थी, कोई समय की निन्दा करती थी। अकाल मृत्यु कदाचित् हमारी दृष्टि में ईश्वर का सबसे बड़ा अन्याय है। यह विपत्ति हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाश कर देती है, हमें ईश्वर-द्रोही बना देती है। हमें उनकी सहन पड़ गयी है। लेकिन हमारी अन्याय पीड़ित आँखें भी यह दारुण दृश्य सहन नहीं कर सकतीं। अकाल मृत्यु हमारे हृदय-पट पर सबसे कठोर दैवी आघात है। यह हमारे न्याय-ज्ञान पर सबसे भयंकर बलात्कार है।

पर हा स्वार्थ संग्राम! यह निर्दय वज्र-प्रहार ज्ञानशंकर को सुखद पुष्प वर्षा के तुल्य जान पड़ा। उन्हें क्षणिक शोक अवश्य हुआ, किन्तु तुरन्त ही हृदय में नयी-नयी आकाँक्षाएँ तरंगें मारने लगीं। अब तक उनका जीवन लक्ष्यहीन था। अब उसमें एक महान् लक्ष्य का विकास हुआ। विपुल सम्पत्ति का मार्ग निश्चित हो गया। ऊसर भूमि में हरियाली लहरें मारने लगीं। राय कमलानन्द के अब और कोई पुत्र न था। दो पुत्रियों में एक विधवा और निःसंतान थी। विद्या को ही ईश्वर ने संतान दी थी और मायाशंकर अब राय साहब का वारिस था। कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानशंकर को यह शोकमय व्यापार अपने सौभाग्य की ईश्वर कृत व्यवस्था जान पड़ती थी। वह मायाशंकर को गोद में ले कर नीचे दीवानखाने में चले आये और विरासत के संबंध में स्मृतिकारों की व्यवस्था का अवलोकन करने लगे। वह अपनी आशाओं की पुष्टि और शंकाओं का समाधान करना चाहते थे। कुछ दिनों तक कानून पढ़ा था, कानूनी किताबों का उनके पास अच्छा संग्रह था। पहले, मनु-स्मृति खोली, सन्तोष न हुआ। मिताक्षरा का विधान देखा, शंका और भी बड़ी याज्ञवल्क्य ने भी विषय का कुछ सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण न किया। किसी वकील की सम्मत्ति आवश्यक जान पड़ी। वह इतने उतावले हो रहे थे कि तत्काल कपड़े पहन कर चलने को तैयार हो गये। कहार से कहा, माया को ले जा, बाजार की सैर करा ला। कमरे से बाहर निकले ही थे कि याद आया, तार का जवाब नहीं दिया। फिर कमरे में गये, संवेदना का तार लिखा, इतने में लाला प्रभाशंकर और दयाशंकर आ पहुँचे, ज्ञानशंकर को इस समय उनका आना जहर-सा लगा। प्रभाशंकर बोले– मैंने तो अभी सुना। सन्नाटे में आ गया। बेचारे रायसाहब को बुढ़ापे यह बुरा धक्का लगा। घर ही वीरान हो गया।

ज्ञानशंकर– ईश्वर की लीला विचित्र है!

प्रभाशंकर– अभी उम्र ही क्या थी! बिलकुल लड़का था। तुम्हारे विवाह में देखा था, चेहरे से तेज बरसता था। ऐसा प्रतापी लड़का मैंने नहीं देखा।

ज्ञानशंकर– इसी से तो ईश्वर के न्याय-विधान पर से विश्वास उठ जाता है।

दयाशंकर– आपकी बड़ी साली के तो कोई लड़का नहीं है न?

ज्ञानशंकर ने विरक्त भाव से कहा– नहीं।

दयाशंकर– तब तो चाहे माया ही वारिस हो।

ज्ञानशंकर ने उनका तिरस्कार करते हुए कहा– कैसी बात करते हो? यहाँ कौन सी बात, वहाँ कौन सी बात! ऐसी बातों का यह समय नहीं है।

दयाशंकर लज्जित हो गये । ज्ञानशंकर को अब यह विलम्ब असह्य होने लगा। पैरगाड़ी उठाई और दोनों आदमियों को बरामदे में ही छोड़कर डॉक्टर इरफानअली के बँगले की ओर चल दिये, जो नामी बैरिस्टर थे।

बैरिस्टर साहब का बँगला खूब सजा हुआ था। शाम हो गयी थी, वह हवा खाने जा रहे थे। मोटर तैयार थी, लेकिन मुवक्किलों से जान न छूटती थी, वह इस समय अपने आफिस में आराम कुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे थे और अपने छोटे टेरियर को गोद में लिये उसके सिर में थपकियाँ देते जाते थे। मुवक्किल लोग दूसरे कमरे में बैठे थे। वह बारी-बारी से डॉक्टर साहब के पास आकर अपना वृत्तांत कहते जाते थे। ज्ञानशंकर को बैठे-बैठे आठ बजे गये। तब जाकर उनकी बारी आयी। उन्होंने ऑफिस में जाकर अपना मामला सुनाना शुरू किया। क्लर्क ने उनकी सब बातें नोट कर लीं। इसकी फीस ५ रुपये हुई। डॉक्टर साहब की सम्मति के लिए दूसरे दिन बुलाया। उसकी फीस ५०० रुपये थी। यदि उस सम्मति पर कुछ शंकाएँ हों तो उसके समाधान के लिए प्रति घण्टा २०० रुपये देने पड़ेगे। ज्ञानशंकर को मालूम न था कि डॉक्टर साहब के समय का मूल्य इतना अधिक है। मन में पछताये कि नाहक इस झमेले में फँसा। क्लर्क की फीस तो उसी दम दे दी और घर से रुपये लाने का बहाना करके वहाँ से निकल आये, लेकिन रास्ते में सोचने लगे, इनकी राय जरूर पक्की होती होगी, तभी तो उसका इतना मूल्य है। नहीं तो इतने आदमी उन्हें घेरे क्यों रहते। कदाचित इसीलिए कल बुलाया है। खूब छान-परताल करके तब राय देंगे। अटकल-पच्चू बातें कहनी होतीं तो अभी न कह देते। अँग्रेजी नीति में यही तो गुण है कि दाम चौकस लेते हैं, पर माल खरा देते हैं। सैकड़ों नजींरे देखनी पड़ेगी, हिन्दू शस्त्रों का मन्थन करना पड़ेगा, तब जाके तत्व हाथ आयेगा, रुपये का कोई प्रबन्ध करना चाहिए। उसका मुँह देखने से काम न चलेगा। एक बात निश्चित रूप से मालूम तो हो जायेगी। यह नहीं कि मैं तो धोखे में निश्चित बैठा रहूँ और वहाँ दाल न गले, सारी आशाएँ नष्ट हो जायें। मगर यह व्यवसाय है उत्तम। आदमी चाहे तो सोने की दीवार खड़ी कर दे। मुझे शामत सवार हुई कि उसे छोड़ बैठा, नहीं तो आज क्या मेरी आमदनी दो हजार मासिक से कम होती? जब निरे काठ के उल्लू तक हजारों पर हाथ साफ करते हैं तो क्या मेरी न चलती? इस जमींदारी का बुरा हो। इसने मुझे कहीं का न रखा!

वह घर पहुँचे तो नौ बजे चुके थे। विद्या अपने कमरे में अकेले उदास पड़ी थी महरियाँ काम-धन्धे में लगी हुई थीं और पड़ोसिनें बिदा हो गयी थीं। ज्ञानशंकर ने विद्या का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और गद्गद स्वर से बोले– मुँह देखना भी न बदा था।

विद्या ने रोते हुए कहा– उनकी सूरत एक क्षण के लिए भी आँखों ले नहीं उतरती। ऐसा जान पड़ता है, वह मेरे सामने खड़े मुस्करा रहे हैं।

ज्ञान– मेरा तो अब सांसारिक वस्तुओं पर भरोसा ही नहीं रहा। यही जी चाहता कि सब कुछ छोड़छाड़ के कहीं चल दूँ।

विद्या– कल शाम की गाड़ी से चलो। कुछ रुपये लेते चलने होंगे। मैं उनके षोड़शे में कुछ दान करना चाहती हूँ।

ज्ञान– हाँ, हाँ, जरूर। अब उनकी आत्मा को सन्तुष्ट करने का हमारे पास वही तो एक साधन रह गया है।

विद्या– उन्हें घोड़े की सवारी का बहुत शौक था। मैं एक घोड़ा उनके नाम पर देना चाहती हूँ।

ज्ञान– बहुत अच्छी बात है। दो-ढाई सौ में घोड़ा मिल जायेगा।

विद्यावती ने डरते-डरते यह प्रस्ताव किया था। ज्ञानशंकर ने उसे सहर्ष स्वीकार करके उसे मुग्ध कर दिया।

ज्ञानशंकर इस अपव्यय को इस समय काटना अनुचित समझते थे यह अवसर ही ऐसा था। अब वह विद्या का निरादर तथा अवहेलना न कर सकते थे।

10.

राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थे। यद्यपि उनकी पत्नी का देहान्त उनकी युवावस्था में हो गया, पर उन्होंने दूसरा विवाह न किया था। मित्रों और हितसाधकों ने बहुत घेरा पर वह पुनर्विवाह के बन्धन में न पड़े। विवाह उद्देश्य सन्तान है और जब ईश्वर ने उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियां प्रदान कर दीं तो फिर विवाह करने की क्या जरूरत? उन्होंने अपनी बड़ी लड़की गायत्री का विवाह गोरखपुर के एक बड़े रईस से किया। उत्सव में लाखों रुपये खर्च कर दिये। पर जब विवाह के दो ही साल पीछे गायत्री विधवा हो गई। उसके पति को किसी घर के ही प्राणी ने लोभवश विष दे दिया– तो राय साहब ने विद्या को किसी साधारण कुटुम्ब में ब्याहने का निश्चय किया, जहाँ जीवन इतना कंटकमय न हो। यही कारण था कि ज्ञानशंकर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वर्गीय बाबू रामानन्द अभी तक कुँवारे ही थे। उनकी अवस्था बीस वर्ष से अधिक हो गई थी, पर राय साहब उनका विवाह करने को कभी उत्सुक न हुए थे। वह उनके मानसिक तथा शारीरिक विकास में कोई कृतिम बाधा न डालना चाहते थे। पर शोक! रामानन्द घुड़दौड़ में सम्मिलित होने के लिए पूना गये हुए थे। वहाँ घोड़े पर से गिर पड़े, मर्मस्थानों पर कड़ी चोट आ गई। लखनऊ पहुँचने के दो दिन बाद उनका प्राणान्त हो गया। राय साहब की सारी सद-कल्पनाएँ विनष्ट हो गयी, आशाओं का दीपक बुझ गया।

किन्तु राय साहब उन प्राणियों में न थे, जो शोक-सन्ताप के ग्रास बन जाते हैं। इसे विराग कहिए चाहे प्रेम-शिथिलता, या चित्त की स्थिरता। दो ही चार दिनों में उनका पुत्र-शोक जीवन की अविश्रान्त कर्म-धारा में विलीन हो गया।

राय साहब बड़े रसिक पुरुष थे। घुड़दौड़ और शिकार, सरोद और सितार से उन्हें समान प्रेम था। साहित्य और राजनीति के भी ज्ञाता थे। अवस्था साठ वर्ष के लगभग थी, पर इन विषयों में उनका उत्साह लेशमात्र भी क्षीण न हुआ। अस्तबल में दस-बारह चुने हुए घोड़े थे, विविध प्रकार की कई बग्गियाँ, दो मोटरकार, दो हाथी। दर्जनों कुत्तें पाल रखे थे। इनके अतिरिक्त बाज, शिकरे आदि शिकारी चिड़ियों की एक हवाई सेना भी थी। उनके दीवानखाने में अस्त्र-शस्त्र की श्रृंखला देखकर जान पड़ता था, मानो शास्त्रालय है। घुड़दौड़ में वह अच्छे-अच्छे शहसवारों से पाला मारते थे। शिकार में उनके निशाने अचूक पड़ते थे। पोलो के मैदान में उनकी चपलता और हाथों की सफाई देख कर आश्चर्य होता था। श्रव्य कलाओं में भी वह इससे कम प्रवीण न थे। शाम को जब वह सितार लेकर बैठते तो उनकी सिद्धि पर अच्छे-अच्छे उस्ताद भी चकित हो जाते थे। उनके स्वर में अलौकिक माधुर्य था। वे संगीत के सूक्ष्म तत्त्वों के वेत्ता थे। उनके ध्रुपद की अलाप सुनकर बड़े-बड़े कलावन्त भी सिर धुनने लगते थे। काव्यकला में भी उनकी कुशलता और मार्मिकता कवियों को लज्जित कर देती थी, उनकी रचनाएँ अच्छे-अच्छे कवियों से टक्कर लेती थी। संस्कृत, फारसी, हिन्दी उर्दू, अँग्रेजी सभी भाषाओं के वे पण्डित थे। स्मरणशक्ति विलक्षण थी। कविजनों के सहस्रों शेर, दोहे, कवित्त, पद्य कठस्थ थे और बातचीत में वह उनका बड़ी सुरुचि से उपयोग करते थे। इसीलिए उनकी बातें सुनने में लोगों को आनन्द मिलता था। इधर दस-बारह वर्षों से राजनीति में भी प्रविष्ट हो गये थे। कौंसिल भवन में उनका स्थान प्रथम श्रेणी में था। उनकी राय सदैव निर्भीक होती थी। वह अवसर या समय के भक्त न थे। राष्ट्र या शासन के दास न बनकर सर्वदा अपनी-शक्ति से काम लेते थे। इसी कारण कौंसिल में उनकी बड़ी शान थी। यद्यपि यह बहुत कम बोलते थे, और राजनीति भवन से बाहर उनकी आवाज कभी न सुनाई देती थी, किन्तु जब बोलते थे तो अच्छा ही बोलते थे। ज्ञानशंकर को उनके बुद्धि-चमत्कार और ज्ञान विस्तार पर अचम्भा होता था। यदि आँखों देखी बात न होती तो किसी एक व्यक्ति में इतने गुणों की चर्चा सुनकर उन्हें विश्वास न होता। इस सत्संग से उनकी आँखें खुल गयीं। उन्हें अपनी योग्यता और चतुरता पर बड़ा गर्व था। इन सिद्धियों ने उसे चूर-चूर कर दिया। पहले दो सप्ताह तक तो उन पर श्रद्धा का एक नशा छाया रहा। राय साहब जो कुछ कहते वह सब उन्हें प्रामाणिक जान पड़ता था। पग-पग पर, बात-बात में उन्हें अपनी त्रुटियाँ दिखाई देतीं और लज्जित होना पड़ता। यहाँ तक कि साहित्य और दर्शन में भी, जो उनके मुख्य विषय थे, राय साहब के विचारों पर मनन करने के लिए उन्हें बहुत कुछ सामग्री मिल जाती थी। सबसे बड़े कुतूहल की बात तो यह थी कि ऐसे दारूण शोक को बोझ के नीचे राय साहब क्योंकर सीधे रह सकते थे। उनके विलास उपवन पर इस दुस्सह झोंके का जरा भी अवसर न दिखाई देता था।

किन्तु शनैःशनैः ज्ञानंशकर को राय साहब की इस बहुज्ञता से अश्रद्धा होने लगी। आठों पहर अपनी हीनता का अनुभव असह्य था। उनके विचार में अब राय साहब का इन अमोद-प्रमोद विषयों में लिप्त रहना शोभा नहीं देता था। यावज्जीवन विलासिता में लीन रहने के बाद अब उन्हें विरक्त हो जाना चाहिए था। इस आमोद-लिप्सा की भी कोई सीमा है? इसे सजीविता नहीं कह सकते, यह निश्चलता नहीं, इसे धैर्य कहना ही उपयुक्त है। धैर्य कभी सजीवता और वासना का रूप नहीं धारण करता। वह हृदय पर विरक्ति, उदसीनता और मलीनता का रंग फेर देता है। वह केवल हृदयदाह है, जिससे आँसू तक सूख जाता है। वह शोक भी अन्तिम अवस्था है। कोई योगी, सिद्ध, महात्मा भी जवान बेटे का दाग दिल पर रखते हुए इतना अविचलित नहीं रह सकता। यह नग्न इंद्रियोपासना है अहंकार ने महात्मा का दमन कर दिया, ममत्व ने हृदय के कोमल भावों का सर्वनाश कर दिया है। ज्ञानशंकर को अब रायसाहब की एक-एक बात में क्षुद्र विलासिता की झलक दिखाई देती। वह उनके प्रत्येक व्यवहार को तीव्र समालोचना की दृष्टि से देखते।

परन्तु एक महीना गुजर जाने पर भी ज्ञानशंकर ने कभी बनारस जाने की इच्छा नहीं प्रकट की। यद्यपि विद्यावती का उनके साथ जाने पर राजी न होना उनके यहाँ पड़े रहने का अच्छा बहाना था, पर वास्तव में इसका एक दूसरा ही कारण था, जिसे अन्तःकरण में भी व्यक्त करने का उन्हें साहस न होता था। गायत्री के कोमल भाव और मृदुल रसमई बातों का उनके चित्त पर आकर्षण होने लगा था। उसका विकसित लावण्यमय सौंदर्य अज्ञात रूप से उनके हृदय को खींचता जाता था, और वह पतंग की भाँति, परिणाम से बेखबर इस दीपक की ओर बढ़ते चले जाते थे। उन्हें गायत्री प्रेमाकांक्षा और प्रेमानुरोध की मूर्ति दिखाई देती थी, और यह भ्रम उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहता था। घर में किसी बड़ी-बूढ़ी स्त्री के न होने के कारण उनका आदर-सत्कार गायत्री ही करती थी और ऐसे स्नेह और अनुराग के साथ कि ज्ञानशंकर को इसमें प्रेमादेश का रसमय आनन्द मिलता था। सुखद कल्पनाएँ मनोहर रूप धारण करके उनकी दृष्टि के सामने नृत्य करने लगती थीं। उन्हें अपना जीवन कभी इतना सुखमय न मालूम हुआ था। हृदय सागर में कभी ऐसी प्रबल तरंगे न उठी थीं। उनका मन केवल प्रेमवासनाओं का आनन्द न उठाता था। वह गायत्री की अतुल सम्पति का भी सुख-भोग करता था। उनकी भावी उन्नति का भवन निर्माण हो चुका था, यदि वह इस उद्यान से सुसज्जित हो जाये तो उसकी शोभा कितनी अपूर्व होगी! उसका दृश्य कितना विस्तृत, कितना मनोहर होगा।

ज्ञानशंकर की दृष्टि में आत्म-संयम का महत्त्व बहुत कम था। उनका विचार था कि संयम और नियम मानव-चरित्र के स्वाभाविक विकास के बाधक हैं वही पौधा सघन वृक्ष हो सकता है जो समीर और लू, वर्षा और पाले में समान रूप से खड़ा रहे। उसकी वृद्धि के लिए अग्निमय प्रचण्ड वायु उतनी ही आवश्यक है, जितनी शीतल मंद समीर; शुष्कता उतनी ही प्राणपोषक है, जितनी आर्द्रता। चरित्रोन्नति के लिए भी विविध प्रकार की परिस्थितियाँ अनिवार्य हैं। दरिद्रता को काला नाग क्यों समझें। चरित्र-संगठन के लिए यह सम्पति से कहीं महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य में दृढ़ता और संकल्प, दया और सहानुभूति के भाव उदय करती है। प्रत्येक अनुभव चरित्र के किसी न किसी अंग की पुष्टि करता है, यह प्राकृतिक नियम है। इसमें कृत्रिम बाधाओं के डालने से चरित्र विषम हो जाता है। यहाँ तक कि क्रोध और ईर्ष्या, असत्य और कपट में भी बहुमूल्य शिक्षा के अंकुर छिपे रहते हैं। जब तक सितार का प्रत्येक तार चोट न खाये, सुरीली ध्वनि नहीं निकल सकती। मनोवृत्तियों को रोकना ईश्वरीय नियमों में हस्तक्षेप करना है इच्छाओं का दमन करना आत्म-हत्या के समान है। इससे चरित्र संकुचित हो जाता है। बन्धनों के दिन अब नहीं रहे; यह अबाध, उदार, विराट उन्नति का समय है। त्याग और बहिष्कार उस समय के लिए उपयुक्त था, जब लोग संसार को असार, स्वप्नवत् समझते थे। यह सांसारिक उन्नति का काल है, धर्माधर्म का विचार संकीर्णता का द्योतक है। सांसारिक उन्नति हमारा अभीष्ट है। प्रत्येक साधन जो अभीष्ट सिद्धि में हमारा सहायक हो ग्राह्य है। इन विचारों ने ज्ञानशंकर को विवेक-शून्य बना दिया था। हाँ वर्तमान अवस्था का यह प्रभाव था कि निंदा और उपहास से डरते थे, हालाँकि यह भी उनके विचार में मानसिक दुर्बलता थी।

गायत्री उन स्त्रियों में न थी जिसके लिए पुरुषों का हृदय एक खुला हुआ पृष्ठ होता है। उसका पति एक दुराचारी मनुष्य था, पर गायत्री को कभी उस पर सन्देह नहीं हुआ, उसके मनोभावों की तह तक कभी नहीं पहुँची और यद्यपि उसे मरे हुए तीन साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक आध्यात्मिक श्रद्धा से उसकी स्मृति की आराधना किया करती थी। उसका निष्फल हृदय वासनायुक्त प्रेम के रहस्यों से अनभिज्ञ था। किन्तु इसके साथ ही सगर्वता उसके स्वभाव का प्रधान अंग थी। वह अपने को उससे कहीं ज्यादा विवेकशील और मर्मज्ञ समझती थी, जितनी वह वास्तव में थी। उसके मनोवेग और विचार जल के नीचे बैठनेवाले रोड़े नहीं, सतह पर तैरने वाले बुलबुले थे। ज्ञानशंकर एक रूपवान, सौम्य, मृदुमुख मनुष्य थे। गायत्री सरल भाव से इन गुणों पर मुग्ध थी। वह उनसे मुस्कराकर कहती, तुम्हारी बातों में जादू है, तुम्हारी बातों से कभी मन तृप्त नहीं होता। ज्ञानशंकर के सम्मुख विद्या से कहती, ऐसा पति पाकर भी तू अपने भाग्य को नहीं सराहती? यद्यपि ज्ञानशंकर उससे दो-चार ही मास छोटे थे, पर उसकी छोटी बहन के पति थे, इसलिए वह उन्हें छोटे भाई के तुल्य समझती थी। वह उनके लिए अच्छे-अच्छे भोज्य पदार्थ आप बनाती, दिन में कई बार जलपान करने के लिए घर में बुलाती थी। उसे धार्मिक और वैज्ञानिक विषयों से विशेष रुचि थी। ज्ञानशंकर से इसी विषय की बातें करने और सुनने में उसे हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था। वह साली के नाते से प्रथानुसार उनसे दिल्लगी भी करती उन पर भावमय चोटें करती और हँसती थी। मुँह लटकाकर उदास बैठना उसकी आदत न थी। वह हँस मुख, विनयशील, सरल-हृदय, विनोद-प्रिया रमणी थी, जिसके हृदय में लीला और क्रीड़ा के लिए कहीं जगह न थी।

किन्तु उसका यह सरल-सीधा व्यवहार ज्ञानशंकर की मलिन दृष्टि में परिवर्तित हो जाता था। उज्जवलता में वैचित्र्य और समता में विषमता दीख पड़ती थी। उन्हें गायत्री संकेत द्वारा कहती हुई मालूम होती, ‘आओ, इस उजड़े हुए हृदय को आबाद करो। आओ, इस अन्धकारमय कुटीर को आलोकित करो।’ इस प्रेमाह्वान का अनादर करना उनके लिए असाध्य था। परन्तु स्वयं उनके हृदय ने गायत्री को यह निमन्त्रण नहीं दिया, कभी अपना प्रेम उस पर अर्पण नहीं किया– उन्हें बहुधा क्लब में देर हो जाती, ताश की बाजी अधूरी न छोड़ सकते थे, कभी सैर-सपाटे में विलम्ब हो जाता, किन्तु वह स्वयं विकल न होते, यही सोचते कि गायत्री विकल हो रही होगी। अग्नि गायत्री के हृदय में जलती थी, उन्हें केवल उसमें हाथ सेंकना था। उन्हें इस प्रयास में वही उल्लास होता था, जो किसी शिकारी को शिकार में, किसी खिलाड़ी को बाजी की जीत में होता है। वह प्रेम न था, वशीकरण की इच्छा थी। इस इच्छा और प्रेम में बड़ा भेद है, इच्छा अपनी ओर खींचती है, प्रेम स्वयं खिंच जाता है। इच्छा में ममत्व है, प्रेम में आत्मसर्पण। ज्ञानशंकर के हृदयस्थल में यही वशीकरण-चेष्टा किलोलें कर रही थी।

गायत्री भोली सही, अज्ञान सही, पर शनैःशनैः उसे ज्ञानशंकर से लगाव होता जाता था। यदि कोई भूलकर भी विष खा ले, तो उसका असर क्या कुछ कम होगा। ज्ञानशंकर को बाहर से आने में देर होती, तो उसे बेचैनी होने लगती, किसी काम में जी नहीं लगता, वह अटारी पर चढ़कर उनकी बाट जोहती। वह पहले विद्यावती के सामने हँस-हँस कर उनसे बातें करती थी, कभी उनसे अकेले भेंट हो जाती तो उसे कोई बात ही न सूझती थी। अब वह अवस्था न थी। उसकी बात अब एकान्त की खोज में रहती। विद्या की उपस्थिति उन दोनों को मौन बता देती थी। अब वह केवल वैज्ञानिक तथा धार्मिक तथा धार्मिक चर्चाओं पर आबद्ध न होते। बहुधा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध की मीमांसा किया करते और कभी-कभी ऐसे मार्मिक प्रसंगों का सामना करना पड़ता कि गायत्री लज्जा से सिर झुका लेती।

एक दिन सन्ध्या समय गायत्री बगीचे में आरामकुर्सी पर लेटी हुई एक पत्र पढ़ रही थी, जो अभी डाक से आया था। यद्यपि लू का चलना बन्द हो गया था, पर गर्मी के मारे बुरा हाल था। प्रत्येक वस्तु से ज्वाला-सी निकल रही थी। वह पत्र को उठाती थी और फिर गर्मी से विकल होकर रख देती थी। अन्त में उसने एक परिचारिका को पंखा झलने के लिए बुलाया और अब पत्र को पढ़ने लगी। उसके मुख्तारआम ने लिखा था, सरकार यहाँ जल्द आयें। यहाँ कई ऐसे मामले आ पड़े हैं जो आपकी अनुमति के बिना तै नहीं हो सकते। हरिहरपुर के इलाके में बिल्कुल वर्षा नहीं हुई, यह आपको ज्ञात ही है। अब वहाँ के असामियों से लगान वसूल करना अत्यन्त कठिन हो रहा है। वह सोलहों आने छूट की प्रार्थना करते हैं। मैंने जिलाधीश से इस विषय में अनुरोध किया, पर उसका कुछ फल न हुआ। वह अवश्य छूट कर देंगे। यदि आप आकर स्वयं जिलाधीश से मिलें तो शायद सफलता हो। यदि श्रीमान राय साहब यहाँ पधारने का कष्ट उठायें तो निश्चय ही उनका प्रभाव कठिन को सुगम कर दे। असामियों के इस आन्दोलन से हलचल मची हुई है। शंका है कि छूट न हुई तो उत्पात होने लगेगा। इसलिए आपका जिलाधीश साक्षात करना परमावश्यक है।

गायत्री सोचने लगी, यहीं ज़मींदारी क्या है, जी का जंजाल है। महीने में आध महीने के लिए भी कहीं जाऊँ तो हाय-हाय-सी होने लगती है। असामियों में यह धुन न जाने कैसे समा गयी, कि जहाँ देखो वहीं उपद्रव करने पर तैयार दिखाई देते हैं। सरकार को इन पर कड़ा हाथ रखना चाहिए। जरा भी शह मिली और यह काबू से बाहर हुए। अगर इस इलाके में असामियों की छूट हो गयी तो मेरा २०-२५ हजार का नुकसान हो जायेगा। इसी तरह और इलाके में भी उपद्रव के डर से छूट हो जाये तो मैं तो कहीं की न रहूँ कुछ वसूल न होगा तो मेरा खर्च कैसे चलेगा? माना कि मुझे उस इलाके की मालगुजारी न देनी पड़ती, पर और भी तो कितने ही रुपये पृथक-पृथक नामों से देने पड़ते हैं, वह तो देने ही पड़ेंगे। वह किसके घर से आवेंगे? छूट भी हो जाय, मगर लूँगी असामियों से ही।

पर मेरा जी वहाँ कैसे लगेगा। यह बातें वहाँ कहाँ सुनने को मिलेंगी, अकेले पड़े-पड़े जी उकताया करेगा। जब तक ज्ञानशंकर यहाँ रहेंगे तब तक तो मैं गोरखपुर जाती नहीं। हाँ, जब वह चले जायेंगे तो मजबूरी है। नुकसान ही न होगा? बला से। जीवन के दिन आनन्द से तो कट रहे हैं, धर्म और ज्ञान की चर्चा सुनने में आती है। कल बाबू साहब मुझसे चिढ़ गये होंगे, लेकिन मेरा मन तो अब भी स्वीकार नहीं करता कि विवाह केवल एक शारीरिक सम्बन्ध और सामाजिक व्यवस्था है। वह स्वयं कहते हैं कि मानव शरीर का कई सालों सम्पूर्णतः रूपान्तर हो जाता है। शायद आठ वर्ष कहते थे। यदि विवाह केवल दैहिक सम्बन्ध हो तो इस नियमित समय के बाद उसका अस्तित्व ही नहीं रहता। इसका तो यह आशय है कि आठ वर्षों के बाद पति और पत्नी इस धर्म-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, एक का दूसरे पर कोई अधिकार नहीं रहता। आज फिर यही प्रश्न उठाऊँगी। लो, आप ही आ गये ।

बोली– कहिए कहीं जाने को तैयार हैं क्या?

ज्ञान– आज यहाँ थियेट्रिकल कम्पनी का तमाशा होने वाला है। आपसे पूछने आया हूँ कि आपके लिए भी जगह रिजर्व कराता आऊँ? आज बड़ी भीड़ होगी।

गायत्री– विद्या से पूछा, वह जायेगी?

ज्ञान– वह तो कहती है कि माया को साथ लेकर जाने में तकलीफ होगी। मैंने भी आग्रह नहीं किया।

गायत्री– तो अकेले जाने पर मुझे भी कुछ आनन्द न आयेगा।

ज्ञान– आप न जाएँगी तो मैं भी न जाऊँगा।

गायत्री– तब तो मैं कदापि न जाऊँगी। आपकी बातों में मुझे थिएटर से अधिक आनन्द मिलता है। आइए, बैठिए। कल की बात अधूरी रह गयी थी। आप कहते थे, स्त्रियों में आकर्षण-शक्ति पुरुषों से अधिक होती है पर आपने इसका कोई कारण नहीं बताया था।

ज्ञान– इसका कारण तो स्पष्ट ही है। स्त्रियों का जीवन-क्षेत्र परिमित होता है और पुरुषों का विस्तृत। इसीलिए स्त्रियों की सारी शक्तियाँ केन्द्रस्थ हो जाती हैं और पुरुषों की विच्छिन्न।

गायत्री– लेकिन ऐसा होता तो पुरुषों को स्त्रियों के अधीन रहना चाहिए था। वह उन पर शासन क्योंकर करते?

ज्ञान– तो क्या आप समझती हैं कि मर्द स्त्रियों पर शासन करते हैं? ऐसी बात तो नहीं है। वास्तव में मर्द ही स्त्रियों के अधीन होते हैं। स्त्रियाँ उनके जीवन की विधाता होती हैं। देह पर उनका शासन चाहे न हो, हृदय पर उन्हीं का साम्राज्य होता है।

गायत्री– तो फिर मर्द इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हैं?

ज्ञान– मर्दों पर निष्ठुरता का दोष लगाना न्याय-विरुद्ध है। वह उस समय तक सिर नहीं उठा सकते, जब तक या तो स्त्री स्वयं उन्हें मुक्त न कर दे, अथवा किसी दूसरी स्त्री की प्रबल विद्युत शक्ति उन पर प्रभाव न डाले।

गायत्री– (हँसकर) अपने तो सारा दोष स्त्रियों के सिर रख दिया।

ज्ञानशंकर ने भावुकता से उत्तर दिया– अन्याय तो वह करती हैं, फरियाद कौन सुनेगा? इतने में विद्यावती मायाशंकर को गोद में लिये आकर खड़ी हो गयी। माया चार वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक कोई बच्चा न होने के कारण वह शैशवावस्था के आनन्द को भोगता था।

गायत्री ने पूछा– क्यों विद्या, आज थिएटर देखने चलती हो?

विद्या– कोई अनुरोध करेगा तो चली चलूँगी, नहीं तो मेरा जी नहीं चाहता।

ज्ञान– तुम्हारी इच्छा हो तो चलो, मैं अनुरोध नहीं करता।

विद्या– तो फिर मैं भी नहीं जाती।

गायत्री– मैं अनुरोध करती हूँ, तुम्हें चलना पड़ेगा। बाबू जी, आप जगहें रिजर्व करा लीजिए।

नौ बजे रात को तीनों फिटन पर बैठकर थिएटर को चले। माया भी साथ था। फिटन कुछ दूर आयी तो वह पानी-पानी चिल्लाने लगा। ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– लड़के को लेकर चली थीं, तो पानी की एक सुराही क्यों नहीं रख ली?

विद्या– क्या जानती थी कि घर से निकलते ही इसे प्यास लग जायेगी।

ज्ञान– पानदान रखना तो न भूल गयीं?

विद्या– इसी से तो मैं कहती थी कि मैं न चलूँगी।

गायत्री– थिएटर के हाते में बर्फ-पानी सब कुछ मिल जायेगा।

माया यह सुनकर और अधीर हो गया। रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली। ज्ञानशंकर ने उसे बढ़ावा दिया। वह और भी गला फाड़-फाड़कर बिलबिलाने लगा।

ज्ञान– जब अभी से यह हाल है, तो दो बजे रात तक न जाने क्या होगा?

गायत्री– कौन जागता रहेगा? जाते ही जाते तो सो जायेगा।

ज्ञान– गोद में आराम से तो सो सकेगा नहीं, रह-रहकर चौंकेगा और रोयेगा। सारी सभा घबड़ा जायेगी। लोग कहेंगे, यह पुछल्ला अच्छा लेते आये।

विद्या– कोचवान से कह क्यों नहीं देते कि गाड़ी लौटा दें, मैं न जाऊँगी।

ज्ञान– यह सब बातें पहले ही सोच लेनी चाहिए थीं न? गाड़ी यहाँ से लौटेगी तो आते-आते दस बज जायेंगें। आधा तमाशा ही गायब हो जायेगा। वहाँ पहुँच जायें तो जी चाहे मजे से तमाशा देखना माया को इसी गाड़ी में पड़े रहने देना या उचित समझना तो लौट आना।

गायत्री– वहाँ तक जाकर के लौटना अच्छा नहीं लगता।

ज्ञान– मैंने तो सब कुछ इन्हीं की इच्छा पर छोड़ दिया।

गायत्री– क्या वहाँ कोई आराम कुर्सी न मिल जायेगी?

विद्या– यह सब झंझट करने की जरूरत ही क्या है? मैं लौट आऊँगी। मैं तमाशा देखने को उत्सुक न थी, तुम्हारी खातिर से चली आयी थी।

थिएटर का पण्डाल आ गया। खूब जमाव था। ज्ञानशंकर उतर पड़े। गायत्री ने विद्या से उतरने, को कहा, पर वह आग्रह करने पर भी न उठी। कोचवान को पानी लाने को भेजा। इतने में ज्ञानशंकर लपके हुए आये, और बोले– भाभी, जल्दी कीजिए, घण्टी हो गयी। तमाशा आरम्भ होने वाला है। जब तक यह माया को पानी पिलाती है, आप चल कर बैठ जाइए नहीं तो शायद जगह ही न मिले।

यह कहकर वह गायत्री को लिये हुए पण्डाल में घुस गये। पहले दरजे के मरदाने और जनाने भागों के बीच में केवल एक चिक का परदा था। चिक के बाहर ज्ञानशंकर बैठे और चिक के पास ही भीतर गायत्री को बैठाया। वहीं दोनों जगहें उन्होंने रिजर्व (स्वरक्षित) करा रखी थीं।

गायत्री जल्दी से गाड़ी से उतरकर ज्ञानशंकर के साथ चली आयी थी। विद्या अभी आयेगी, यह उसे निश्चय था। लेकिन जब उसे बैठे कई मिनट हो गये, विद्या न दिखाई दी और अन्त में ज्ञानशंकर ने आकर कहा, वह चली गयी, तो उसे बड़ा क्षोभ हुआ। समझ गयी कि वह रूठकर चली गयी। अपने मन में मुझे ओछी, निष्ठुर समझ रही होगी। मुझे भी उसी के साथ लौट जाना चाहिए था। उसके साथ तमाशा देखने में हर्ज नहीं था। लोग यह अनुमान करते हैं कि मैं उसकी खातिर से आयी हूँ, किन्तु उसके लौट जाने पर मेरा यहाँ रहना सर्वथा अनुचित है। घर की लौंडिया और महरियाँ तक हँसेंगी और हँसना यथार्थ है, दादा जी न जाने मन में क्या सोचेंगे मेरे लिए अब तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान पूजा-पाठ, दान और व्रत है। यह विहार-विलास सोहागिन के लिए है। मुझे अवश्य लौट जाना चाहिए। लेकिन बाबूजी से इतनी जल्द लौटने को कहूँगी तो वह मुझ पर अवश्य झुँझलायेंगे कि नाहक इसके साथ आया। बुरी फँसी। कुछ देर यहाँ बैठे बिना अब किसी तरह छुटकारा न मिलेगा।

यह निश्चय करके वह बैठी। लेकिन जब अपने आगे-पीछे दृष्टि पड़ी तो उसे वहाँ एक पल भी बैठना दुस्तर जान पड़ा। समस्त जनाना भाग वेश्याओं से भरा हुआ था। एक-से-एक सुन्दर, एक-से-एक रंगीन। चारों ओर से खस और मेंहँदी की लपटें आ रही थीं। उनका आभरण और श्रृंगार, उनका ठाट-बाट, उनके हाव-भाव, उनकी मन्द-मुस्कान, सब गायत्री को घृणोत्पादक प्रतीत होते थे। उसे भी अपने रूप-लावण्य पर घमंड था, पर इस सौन्दर्य-सरोवर में वह एक जल-कण के समान विलीन हो गयी थी। अपनी तुच्छता का ज्ञान उसे और भी व्यक्त करने लगा। यह कुलटाएँ कितनी ढीठ, कितनी निर्लज्ज हैं। इसकी शिकायत नहीं कि इन्होंने क्यों ऐसे पापमय, ऐसे नारकीय पथ पर पग रखा। यह अपने पूर्व कर्मों का फल है। दुरवस्था जो न कराये थोड़ा; लेकिन वह अभिमान क्यों? ये इठलाती किस बिरते पर हैं? इनके रोम-रोम से दीनता और लज्जा टपकनी चाहिए थी। पर यह ऐसी प्रसन्न हैं मानो संसार में इनसे सुखी और कोई है ही नहीं। पाप एक करुणाजनक वस्तु है, मानवीय विवशता का द्योतक है। उसे देखकर दया आती है, लेकिन पाप के साथ निर्लज्जता और मदान्धता एक पैशाचिक लीला है, दया और धर्म की सीमा से बाहर।

गायत्री अब पल भर भी न ठहर सकी। ज्ञानशंकर से बोली– मैं बाहर जाती हूँ, यहाँ नहीं बैठा जाता, मुझे घर पहुँचा दीजिए।

उसे संशय था कि ज्ञानशंकर वहाँ ठहरने के लिए आग्रह करेंगे। चलेंगे भी तो क्रुद्ध होकर। पर यह बात न थी। ज्ञानशंकर सहर्ष उठ खड़े हुए। बाहर आकर एक बग्धी किराये पर की और घर चले।

गायत्री ने इतनी जल्द थिएटर से लौट आने के लिए क्षमा माँगी। फिर वेश्याओं की बेशरमी की चर्चा की, पर ज्ञानशंकर ने कुछ उत्तर न दिया। उन्होंने आज मन में एक विषम कल्पना की थी और इस समय उसे कार्य रूप में लाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को इस प्रकार एकाग्र कर रहे थे, मानो किसी नदी में कूद रहे हों। उनका हृदयाकाश मनोविकार की काली घटाओं से आच्छादित हो रहा था, जो इधर महीनों से जमा हो रही थीं। वह ऐसे ही अवसर की ताक में थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थिर कर लिया। लक्षणों से उन्हें गायत्री के सहयोग का भी निश्चय होता जाता था। उसका थिएटर देखने पर राजी हो जाना, विद्या के साथ घर न लौटना, उनके साथ अकेले बग्घी में बैठना इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे। कदाचित् उन्हें अवसर देने के ही लिए वह इतनी जल्द लौटी थीं, क्योंकि घर की फिटन पर लौटने से काम के विघ्न पड़ने का भय था। ऐसी अनुकूल दशा में आगा-पीछा करना उनके विचार में वह कापुरुषता थी, जो अभीष्ट सिद्धि की घातक है। उन्होंने किताबों में पढ़ा था कि पुरुषोचित उद्दंडता वशीकरण का सिद्धमन्त्र है। तत्क्षण उनकी विकृत-चेष्टा प्रज्वलित हो गयी, आँखों से ज्वाला निकलने लगी, रक्त खौलने लगा, साँस वेग से चलने लगी। उन्होंने अपने घुटने से गायत्री की जाँघ में एक ठोंका दिया। गायत्री ने तुरन्त पैर समेट लिए, उसे कुचेष्टा की लेश-मात्र भी शंका न हुई। किन्तु एक क्षण के बाद ज्ञानशंकर ने अपने जलते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी। गायत्री ने चौंककर हाथ खींच लिया, मानो किसी विषधऱ ने काट खाया हो, और भयभीत नेत्रों से ज्ञानशंकर को देखा। सड़क पर बिजली की लालटेनें जल रही थीं। उनके प्रकाश में ज्ञानशंकर के चेहरे पर एक संतप्त उग्रता, एक प्रदीप्त दुस्साहस दिखाई दिया। उसका चित्त अस्थिर हो गया, आँखों में अन्धेरा छा गया। सारी देह पसीने से तर हो गयी। उसने कातर नेत्रों से बाहर की ओर झाँका। समझ न पड़ा कि कहाँ हूँ, कब घर पहुँचूँगी। निर्बल क्रोध की एक लहर नसों में दौड़ गयी और आँखों से बह निकली। उसे फिर ज्ञानशंकर की ओर ताकने का साहस न हुआ। उनसे कुछ कह न सकी। उसका क्रोध भी शान्त हो गया। वह संज्ञाशून्य हो गयी, सारे मनोवेग शिथिल पड़ गये। केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान हृदय को चीर रहा था। उसकी वह वस्तु लुट गयी जो जान से भी अधिक प्रिय थी, जो उसने मन की रक्षक, उसके आत्म-गौरव की पोषक धैर्य का आधार और उसके जीवन का अवलम्ब थी। उसका जी डूबा जाता था। सहसा उसे जान पड़ा कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रही। अब तक उसका ध्यान अपने अपमान के इस बाह्य स्वरूप की ओर नहीं गया था। अब उसे ज्ञात हुआ कि यह केवल मेरा आत्मिक पतन ही नहीं है, उसने मेरी आत्मा को कलुषित नहीं किया, वरन् मेरी बाह्य प्रतिष्ठा का भी सर्वनाश कर दिया। इस अवगति ने उसके डूबते हुए हृदय को थाम लिया। गोली खाकर दम तोड़ता हुआ पक्षी भी छुरी को देखकर तड़प जाता है।

गायत्री जरा सँभल गयी, उसने ज्ञानशंकर की ओर सजल आँखों से देखा। कहना चाहती थी, जो कुछ तुमने किया उसका बदला तुम्हें परमात्मा देंगे। लेकिन यदि सौजन्यता का अल्पांश भी रह गया है तो मेरी लाज रखना, सतीत्व का नाश तो हो गया पर लोक सम्मान की रक्षा करना, किन्तु शब्द न निकले, अश्रु-प्रवाह में विलीन हो गये।

ज्ञानशंकर को भी मालूम हो गया कि मैंने धोखा खाया। मेरी उद्विग्नता ने सारा काम चौपट कर दिया अभी तक उन्हें अपनी अधोगति पर लज्जा न आयी थी पर गायत्री की सिसकियाँ सुनीं तो हृदय पर चोट-सी लगी। अन्तरात्मा जाग्रत हो गयी, शर्म से गर्दन झुक गयी। कुवासना लुप्त हो गयी। अपने पाप की अधमता का ज्ञान हुआ। ग्लानि और अनुपात के भी शब्द मुँह तक आये, पर व्यक्त न हो सके। गायत्री की ओर देखने का भी हौसला न पड़ा। अपनी मलिनता और दुष्टता अपनी ही दृष्टि में ही मालूम होने लगी। हा! मैं कैसा दुरात्मा हूँ। मेरे विवेक, ज्ञान और सद्विचार ने आत्महिंसा के सामने सिर झुका दिया। मेरी उच्चशिक्षा और उच्चादर्श का यही परिणाम होना था! अपने नैतिक पतन के ज्ञान ने आत्म-वेदना का संचार कर दिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा प्रवाहित हो गयी।

दोनों प्राणी खिड़कियों से सिर निकाले रोते रहे, यहाँ तक कि गाड़ी घर पर पहुँच गयी।

11.

आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की जगह आँसुओं का संचार हो रहा था।

आधी रात बीत गयी, पर उसके आँसू न थमें। उसका आत्मगौरव आज नष्ट हो गया। पति-वियोग के बाद उसकी सुदृढ़ स्मृति ही गायत्री के जीवन-सुख की नींव थी। वही साधु-कल्पना उसकी उपास्य थी। वह इस हृदय-कोष को, जहाँ यह अमूल्य रत्न संचित था, कुटिल आकांक्षाओं की दृष्टि से बचाती रहती थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह वस्त्राभूषणों से प्रेम रखती थी, उत्तम भोजन करती थी और सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी, किन्तु इसका कारण उसकी विलासप्रियता नहीं, वरन् अपने सतीत्व का अभिमान था। उसे संयम और आचार का स्वांग भरने से घृणा थी। वह थिएटर भी देखती थी आनन्दोत्सवों में भी शरीक होती थी। आभरण, सुरुचि और मनोरंजन की सामग्रियों का त्याग करने की वह आवश्यकता न समझती थी, क्योंकि उसे अपनी चित्तस्थिति पर विश्वास था। वह एकाग्र होकर अपने इलाके का प्रबन्ध करती थी।

जब उसके आँसू थमे तो वह इस दुर्घटना के कारण और उत्पति पर विचार करने लगी और शनैः-शनैः उसे विदित होने लगा कि इस विषय में मैं सर्वथा निरपराध नहीं हूँ। ज्ञानशंकर कदापि यह दुस्साहस न कर सकते, यदि उन्हें मेरी दुर्बलता पर विश्वास न होता। उन्हें यह विश्वास क्योंकर हुआ? मैं इन दिनों उनसे बहुत स्नेह करने लगी थी। यह अनुचित था। कदाचित् इसी सम्पर्क ने उनके मन में यह भ्रम अंकुरित किया। तब उसे वह बातें याद आतीं जो उन संगतों में हुआ करती थीं। उनका झुकाव उन्हीं विषयों की ओर होता था, जिन्हें एकान्त और संकोच की जरूरत है। उस समय वह बातें सर्वथा दोष रहित जान पड़ती थीं, पर अब उनके विचार से ही गायत्री को लज्जा आती थी। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं अज्ञात दशा में धीरे-धीरे ढाल की ओर चली जाती थी और अगर गहरी खाई सहसा न आ पड़ती, तो मुझे अपने पतन का अनुभव ही न होता। उसे आज मालूम हुआ कि मेरा पति-प्रेम-बन्धन जर्जर हो गया, नहीं तो मैं इन वार्ताओं के आकर्षण से सुरक्षित रहती। वह अधीर होकर उठी और अपने पति के सम्मुख जाकर खड़ी हो गयी। इस चित्र को वह सदैव अपने कमरे में लटकाये रहती थी उसने ग्लानिमय नेत्रों से चित्र को देखा और तब काँपते हुए हाथों से उतार कर छाती से लगाये देर तक खड़ी रोती रही। इस आत्मिक आलिंगन से उसे एक विचित्र सन्तोष प्राप्त हुआ। ऐसा मालूम हुआ कोई तड़पते हुए हृदय पर मरहम रख रहा है और कितने कोमल हाथों से। वह उस चित्र को अलग न कर सकी, उसे छाती से लगाये हुए बिछावन पर लेट गयी। उसका हृदय इस समय पति-प्रेम से आलोकित हो रहा था। वह एक समाधि की अवस्था में थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि यद्यपि पतिदेव यहाँ अदृश्य हैं, तथापि उनकी आत्मा अवश्य यहाँ भ्रमण कर रही है। शनैःशनैः उसकी कल्पना सचित्र हो गयी। वह भूल गयी कि मेरे स्वामी को मरे तीन वर्ष व्यतीत हो गये। वह अकुला कर उठ बैठी। उसे ऐसा जान पड़ा कि उनके वक्ष से रक्त स्रावित हो रहा है और कह रहे हैं, यह तुम्हारी कुटिलता का घाव है। तुम्हारी पवित्रता और सत्यता मेरे लिए रक्षास्त्र थी। वह ढाल आज टूट गयी और बेवफाई की कटार हृदय में चुभ गयी। मुझे तुम्हारे सतीत्व पर अभिमान था। वह अभिमान आज चूर-चूर हो गया। शोक! मेरी हत्या उन्हीं हाथों से हुई जो कभी मेरे गले में पड़े थे। आज तुमसे नाता टूटता है, भूल जाओ कि मैं कभी तुम्हारा पति था।’ गायत्री स्वप्न दशा में उसी कल्पित व्यक्ति के सम्मुख हाथ फैलाये हुए विनय कर रही थी। शंका से उसके हाथ-पाँव फूल गये और वह चीख मार भूमि पर गिर पड़ी।

वह कई मिनट तक बेसुध पड़ी रही। जब होश आया तो देखा कि विद्या लौंडियाँ, महरियाँ सब जमा हैं और डॉक्टर को बुलाने के लिए आदमी दौड़ाया जा रहा है।

उसे आँखें खोलते देखकर विद्या ‘झपटकर उसके गले से लिपट गयी और बोली– बहन तुम्हें क्या हो गया था? और तो कभी ऐसा न हुआ था!

गायत्री– कुछ नहीं, एक बुरा स्वप्न देख रही थी। लाओ, थोड़ा-सा पानी पीऊँगी, गला सूख रहा है।

विद्या– थिएटर में कोई भयानक दृश्य देखा होगा।

गायत्री– नहीं, मैं भी तुम्हारे आने के थोड़ी ही देर पीछे चली आयी थी। जी नहीं लगा। अभी थोड़ी ही रात गयी है क्या? बाबूजी ध्रुपद अलाप रहे हैं।

विद्या– बारह तो कब के बज चुके, पर उन्हें किसी के मरने-जीने की क्या चिन्ता? उन्हें तो अपने राग-रंग से मतलब है। महरी ने जाकर तुम्हारा हाल कहा तो एक आदमी को डॉक्टर के यहाँ दौड़ा दिया और फिर गाने लगे।

गायत्री– यह तो उनकी पुरानी आदत है, कोई नई बात थोड़े ही है। रम्मन बाबू का यहाँ बुरा हाल हो रहा था और वह डिनर में गये हुए थे। जब दूसरे दिन मैंने बातों-बातों में इसकी चर्चा की तो बोले– मैं वचन दे चुका था और जाना मेरा कर्त्तव्य था। मैं अपने व्यक्तिगत विषयों को सार्वजनिक जीवन से बिलकुल पृथक रखना चाहता हूँ।

विद्या– उस साल जब अकाल पड़ा और प्लेग भी फैला, तब हम लोग इलाके पर गये। तुम गोरखपुर थीं। उन दिनों बाबू जी की निर्दयता से मेरे रोयें खड़े हो जाते थे। असामियों पर गुस्सा उतारते। सौ-सौ मनुष्यों को एक पाँति में खड़ा करके हण्टर से मारने लगते। बेचारे तड़प-तड़प कर रह जाते, पर उन्हें तनिक भी दया न आती थी। इसी मारपीट ने उन्हें निर्दय बना दिया है। जीवन-मरण तो परमात्मा के हाथ है, लेकिन मैं इतना अवश्य कहूँगी कि भैया की अकाल मृत्यु इन्हीं दिनों की हाय का फल है।

गायत्री– तुम बाबू जी पर अन्याय करती हो। उनका कोई कसूर नहीं। आखिर रुपये कैसे वसूल होते! निर्दयता अच्छी बात नहीं, किन्तु जब इसके बिना काम ही न चले तो क्या किया जाय? तुम्हारे जीजा कैसे सज्जन थे, द्वार पर से किसी भिक्षुक को निराश न लौटने देते। सत्कार्यों में हजारों रुपये खर्च कर डालते थे। कोई ऐसा दिन न जाता कि सौ-पचास साधुओं को भोजन न कराते हों। हजारों रुपये तो चन्दे दे डालते थे। लेकिन उन्हें भी असामियों पर सख्ती करनी पड़ती थी। मैंने स्वयं उन्हें असामियों की मुश्कें कसके पिटवाते देखा है। जब कोई और उपाय न सूझता तो उनके घरों में आग लगवा देते थे और अब मुझे भी वही करना पड़ता है। उस समय मैं समझती थी कि वह व्यर्थ इतना जुल्म करते हैं। उन्हें समझाया करती थी, पर जब अपने माथे पड़ गयी तो अनुभव हुआ कि यह नीच बिना मार खाये रुपये नहीं देते। घर में रुपये रखे रहते हैं, पर जब तक दो चार लात-घूँसे न खा लें, या गालियाँ न सुन लें, देने का नाम नहीं लेते। यह उनकी आदत है।

विद्या– मैं यह न मानूँगी। किसी को मार खाने की आदत नहीं हुआ करती।

गायत्री– लेकिन किसी को मारने की भी आदत नहीं होती। यह सम्बन्ध ही ऐसा है कि एक ओर तो प्रजा में भय, अविश्वास और आत्महीनता के भावों को पुष्ट करता है और दूसरी ओर जमींदारों को अभिमानी, निर्दय और निरंकुश बना देता है।

विद्या ने इसका कुछ जवाब न दिया। दोनों बहनें एक ही पलंग पर लेटीं। गायत्री के मन में कई बार इच्छा हुई कि आज की घटना को विद्या से बयान कर दूँ। उनके हृदय पर एक बोझ-सा रखा था। इसे वह हल्का करना चाहती थी। ज्ञानशंकर को विद्या की दृष्टि में गिराना भी अभीष्ट था। यद्यपि उसका स्वयं अपमान होता था, लेकिन ज्ञानशंकर को लज्जित और निदिंत करने के लिए वह इतना मूल्य देने पर तैयार थी, किन्तु बात मुँह तक आकर लौट गयी। थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप पड़ी रहीं। विद्या की आँखें तो नींद से झपकी जाती थीं और गायत्री को कोई बात न सूझती थी। अकस्मात् उसे एक विचार सूझ पड़ा। उसने विद्या को हिलाकर कहा– क्या सोने लगीं? मेरा जी चाहता है कि कल-परसों तक यहाँ से चली जाऊँ।

विद्या ने कहा– इतनी जल्द! भला जब तक मैं रहूँ तब तक तो रहो।

गायत्री– नहीं, अब यहाँ जी नहीं लगता। वहाँ काम-काज भी तो देखना है।

विद्या– लेकिन अभी तक तो तुमने बाबू जी से इसकी चर्चा भी नहीं की।

गायत्री– उनसे क्या कहना है? जाऊँ चाहे रहूँ, दोनों एक ही है।

विद्या– तो फिर मैं भी न रहूँगी, साथ ही चली जाऊँगी।

गायत्री– तुम कहाँ जाओगी? अब यही तुम्हारा घर है। तुम्ही यहाँ की रानी हो। ज्ञानबाबू से कहो, इलाके का प्रबन्ध करें। दोनों प्राणी यहीं सूखपूर्वक रहो।

विद्या– समझा तो मैंने भी यही था, लेकिन विधाता की इच्छा कुछ और ही जान पड़ती है। कई दिन से बराबर देख रही हूँ कि पण्डित परमानन्द नित्य आते हैं। चिन्ताराम भी आते जाते हैं। ये लोग कोई न कोई षड़यन्त्र रच रहे हैं। तुम्हारे चले जाने से इन्हें और भी अवसर मिल जायेगा।

गायत्री– तो क्या बाबू जी को फिर विवाह करने की सूझी है क्या?

विद्या– मुझे तो ऐसा ही मालूम होता है।

गायत्री– अगर यह विचार उनके मन में आया है तो वह किसी के रोके न रुकेंगे। मेरा लिहाज वे करते हैं, पर इस विषय में वह शायद ही मेरी राय लें। उन्हें मालूम है कि उन्हें क्या राय दूँगी।

विद्या– तुम रहतीं तो उन्हें कुछ न कुछ संकोच अवश्य होता।

गायत्री– मुझे इसकी आशा नहीं वहाँ रहूँगी तो कम-से-कम वहाँ देख-रेख तो करती रहूँगी, तीन महीने हो गये, लोगों ने न जाने क्या-क्या उपद्रव खड़े किए होंगे। एक दर्जन नातेदार द्वार पर डटे पड़े रहते हैं। एक-महाशय नाते में मेरे मामू होते हैं, वे सुबह से शाम तक मछलियों का शिकार किया करते हैं। दूसरे महाशय मेरे फूफी के सपुत्र हैं, वह मेरे ससुर के समय से ही वहाँ रहते हैं। उनका काम मुहल्ले भर की स्त्रियों को घूरना और उनसे दिल्लगी करना है। एक तीसरे महाशय मेरी ननद के छोटे देवर हैं, रिश्वत के बाजार के दलाल हैं। इस काम से जो समय बचता है वह भंग पीने-पिलाने में लगाते हैं। इन लोगों में बड़ा भी गुण यह है कि सन्तोषी हैं। आनन्द से भोजन-वस्त्र मिलता जाय इसके सिवा उन्हें कोई चिन्ता नहीं। हाँ, जमींदारी का घमण्ड सबको है, सभी असामियों पर रोब जमाना चाहते हैं, उनका गला दबाने के लिए सब तत्पर रहते हैं। बेचारे किसानों को जो अपने परिश्रम की रोटियाँ खाते हैं, इन निठल्लों का अत्याचार केवल इसलिए सहना पड़ता है कि वह मेरे दूर के नातेदार हैं। मुफ्तखोरी ने उन्हें इतना आत्मशून्य बना दिया है कि चाहे जितनी रुखाई से पेश आओ टलने का नाम न लेंगे। अधिक नहीं तो दस परिवार ऐसे होंगे जो मेरी मृत्यु का स्वप्न देखने में जीवन के दिन काट रहे हैं। उनका बस चले तो मुझे विष दे दें। किसी के यहाँ से कोई सौगात आये, मैं उसे हाथ तक नहीं लगाती। उनका काम बस यही है कि बैठे-बैठे उत्पात किया करें, मेरे काम में विघ्न डाला करें। कोई असामियों को फोड़ता है, कोई मेरे नौकर को तोड़ता है, कोई मुझे बदनाम करने पर तुला हुआ है। तुम्हें सुनकर हँसी आयेगी, कई महाशय विरासत की आशा में डेवढ़े-दूने सूद पर ऋण लेकर पेट पालते हैं। कुछ नहीं बन पड़ता तो उपवास करते हैं, किन्तु विरासत का अभिमान जीविका की कोई आयोजना नहीं करने देता। इन लोगों ने मेरी अनुपस्थिति में न जाने क्या-क्या गुल खिलाये होंगे। अभी मुझे जाने दो। बाबू जी भी जल्द ही पहाड़ पर चले जायेंगे। यदि ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़े तो मुझे पत्र लिखना, चली जाऊँगी।

दो दिन गायत्री ने किस प्रकार काटे। ज्ञानशंकर से फिर बात-चीत की नौबत नहीं आयी। तीसरे दिन विदा हुई। राय साहब स्टेशन तक पहुँचाने आये। ज्ञानशंकर भी साथ थे। गायत्री गाड़ी में बैठी। राय साहब खिड़की पर झुके हुए आम और खरबूजे, लीचियाँ और अंगूर ले-लेकर गाड़ी में भरते जाते थे। गायत्री बार-बार कहती थी कि इतने फल क्या होंगे, कौन-सी बड़ी यात्रा है, किन्तु राय साहब एक न सुनते थे। यह भी रियासत की एक आन थी। ज्ञानशंकर एक बेंच पर उदास बैठे हुए थे। गायत्री को उन पर दया आ गयी। वियोग के समय हम सहृदय हो जाते हैं। चलते चलाते हम किसी पर अपना ऋण छोड़ जायँ, किन्तु ऋण लेकर जाना नहीं चाहते। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो ज्ञानशंकर चौंककर बेंच पर से उठे और गायत्री के सम्मुख आकर उसे लज्जित और प्रार्थी नेत्रों से देखा। उनमें आँसू भरे हुए थे। पश्चात्ताप की सजीव मूर्ति थी। गायत्री भी खिड़की पर आयी, कुछ कहना चाहती थी, पर गाड़ी चलने लगी।

ज्ञानशंकर की विनय-मूर्ति रास्ते भर उसकी आँखों के सामने फिरती रही।

12.

गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये; वह प्राण-पोषक शीतल वायु, वह विस्तृत नभमण्डल और सुखद कामनाएँ लुप्त हो गयी; और वह उसी अन्धकार में निराश और विडम्बित पड़े हुए थे। उन्हें लक्षणों से विदित होता जाता था। वह राय साहब विवाह करने पर तुले हुए हैं और उनका दुर्बल क्रोध दिनोंदिन अदम्य होता जाता था। वह राय साहब की इन्द्रिय-लिप्सा पर क्षुद्रता पर झल्ला-झल्लाकर रह जाते थे। कभी-कभी अपने को समझाते कि मुझे बुरा मानने का कोई अधिकार नहीं, राय साहब अपनी जायदाद के मालिक हैं। उन्हें विवाह करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, वह अभी हृष्ट-पुष्ट हैं, उम्र भी ज्यादा नहीं। उन्हें ऐसी क्या पड़ी है कि मेरे लिए इतना त्याग करें। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि अपने स्वार्थ के लिए उनका बुरा चेतूँ, उनके कुल के अन्त होने की अमंगल-कामना करूँ। यह मेरी घोर नीचता है। लेकिन विचारों को इस उद्देश्य से हटाने का प्रयत्न एक प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लेता था, जो अपने बहाव में धैर्य और सन्तोष के बाँध को तोड़ डालता था। तब उनका हृदय उस शुभ मुहूर्त के लिए विकल हो जाता था, जब यह अतुल सम्पत्ति अपने हाथों में आ जायेगी। जब वह यहाँ मेहमान के अस्थायी रूप से नहीं। स्वामी के स्थायी रूप से निवास करेंगे। वह नित्य इसी कल्पित सुख के भोगने में मग्न रहते थे। प्रायः रात-रात भर जागते रह जाते और आनन्द के स्वप्न देखा करते। उन्नति और सुधार के कितने ही प्रस्ताव उनके मस्तिष्क में चक्कर लगाया करते। सैर करने में उनको अब कुछ आनन्द न मिलता, अधिकार अपने कमरे में ही पड़े रहते। यहाँ तक कि आशा और भय कि अवस्था उनके लिए असह्य हो गयी। इस दुविधा में पड़े जेठ का महीना भी बीत गया और आषाढ़ आ पहुँचा।

राय साहब को अबकी पुत्र-शोक के कारण पहाड़ पर जाने में विलम्ब हो गया था। पहला छींटा पड़ते ही उन्होंने सफर की तैयारी शुरू कर दी। ज्ञानशंकर से अब जब्त न हो सका। सोचा, कौन जाने यह नैनीताल में ही किसी नये विचारों की लेडी से विवाह कर लें। यहाँ कानोंकान किसी को खबर भी न हो, अतएव उन्होंने इस शंका का अन्त करने का निश्चय कर लिया।

सन्ध्या हो गई थी। वह मन को दृढ़ किये हुए राय साहब के कमरे में गये, किन्तु देखा तो वहाँ एक और महाशय विद्यमान थे। वह किसी कम्पनी का प्रतिनिधि था। और राय साहब से उसके हिस्से लेने का अनुरोध कर रहा था। किन्तु राय साहब की बातों से ज्ञात होता था कि वह हिस्से लेने को तैयार नहीं हैं। अंत में एजेंट ने पूछा– आखिर आपको इतनी शंका क्यों है? क्या आपका विचार है कि कम्पनी की जड़ मजबूत नहीं है?

राय साहब– जिस काम में सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरजी शरीक हों उसके विषय में यह संदेह नहीं हो सकता।

एजेण्ट– तो क्या आप समझते हैं कि कम्पनी का संचालन उत्तम रीति न होगा?

राय साहब– कदापि नहीं?

एजेण्ट– तो फिर आपको उसका साझीदार बनने में क्या आपत्ति है? मैं आपकी सेवा में कम-से-कम पाँच सौ हिस्सों की आशा लेकर आया था। जब आप ऐसे विचारशील सज्जन व्यापारिक उद्योग से पृथक रहेंगे तो इस अभागे देश की उन्नति सदैव एक मनोहर स्वप्न ही रहेगी।

राय साहब– मैं ऐसी व्यापारिक संस्थाओं को देशोद्धार की कुंजी नहीं समझता।

ऐजेण्ट– (आश्चर्य से) क्यों?

राय साहब– इसलिए कि सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरजी का विभव देश का विभव नहीं है। आपकी यह कम्पनी धनवानों को और भी धनवान बनायेगी, पर जनता को इससे बहुत लाभ पहुँचने की संभावना नही। निस्संदेह आप कई हजार कुलियों को काम में लगा देंगे, पर यह मजदूर अधिकांश किसान ही होंगे और मैं किसानों को कुली बनाने का कट्टर विरोधी हूँ। मैं नहीं चाहता कि वे लोभ के वश अपने बाल-बच्चों को छोड़कर कम्पनी की छावनियों में जाकर रहें और अपना आचरण भ्रष्ट करें। अपने गांव में उनकी एक विशेष स्थिति होती है। उनसे आत्म-प्रतिष्ठा का भाव जाग्रत रहता है। बिरादरी का भय उन्हें कुमार्ग से बचाता है। कम्पनी की शरण में जाकर वह अपने घर के स्वामी नहीं, दूसरे के गुलाम हो जाते हैं, और बिरादरी के बन्धनों से मुक्त होकर नाना प्रकार की बुराइयाँ करने लगते हैं। कम से कम मैं अपने किसानों को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहता।

एजेण्ट-क्षमा कीजिएगा, आपने एक ही पक्ष का चित्र खींचा है। कृपा करके दूसरे पक्ष का भी अवलोकन कीजिए। हम कुलियों को जैसे वस्त्र, जैसे, भोजन, जैसे घर देते हैं, वैसे गाँव में रह कर उन्हें कभी नसीब नहीं हो सकते। हम उनको दवा दारू का, उनकी सन्तानों की शिक्षा का, उन्हें बुढ़ापे में सहारा देने का उचित प्रबन्ध करते हैं। यहाँ तक कि हम उनके मनोरंजन और व्यायाम की भी व्यवस्था कर देते हैं। वह चाहे तो टेनिस और फुटबाल खेल सकते हैं, चाहे तो पार्कों में सैर कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन गाने-बजाने के लिए समय से कुछ पहले ही छुट्टी दे दी जाती है। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पार्कों में रहने के बाद कोई कुली फिर खेती करने की परवाह न करेगा।

राय साहब– नहीं, मैं इसे कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। किसान कुली बनकर अभी अपने भाग्य-विधाता को धन्यवाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी व्यापार का स्वतन्त्र सुख भोगने के बाद नौकरी की पराधीनता को पसन्द नहीं कर सकता। सम्भव है कि अपनी दीनता उसे कुली बने रहने पर मजबूर करे, पर मुझे विश्वास है कि वह इस दासता से मुक्त होने का अवसर पाते ही तुरन्त अपने घर की राह लेगा और फिर उसी टूटे-फूटे झोंपड़े में अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सन्तोष के साथ कालक्षेप करेगा। आपको इसमें सन्देह हो तो आप कृषक-कुलियों से एकान्त में पूछकर अपना समाधान कर सकते हैं। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह बात कहता हूँ कि आप लोग इस विषय में योरोपवालों का अनुकरण करके हमारे जातीय जीवन के सद्गुणों का सर्वनाश कर रहे हैं। योरोप में इंडस्ट्रियालिज्म (औद्योगिकता) की जो उन्नति हुई विशेष कारण थे वहाँ के किसानों की दशा उस समय गुलामों से भी गई-गुजरी थी, वह ज़मींदार के बन्दी होते थे। इस कठिन कारावास के देखते हुए धनपतियों की कैद गनीमत थी। हमारे किसानों की आर्थिक दशा चाहे कितनी ही बुरी क्यों न हो, पर वह किसी के गुलाम नहीं हैं। अगर कोई उन पर अत्याचार करे तो वह अदालतों में उससे मुक्त हो सकते हैं। नीति की दृष्टि में किसान और ज़मींदार दोनों बराबर हैं।

एजेण्ट– मैं श्रीमान् से विवाद करने की इच्छा तो नहीं रखता, पर मैं स्वयं छोटा-मोटा किसान हूँ और मुझे किसानों की दशा का यथार्थ ज्ञान है। आप योरोप के किसानों को गुलाम कहते हैं लेकिन यहाँ के किसानों की दशा उससे अच्छी नहीं है। नैतिक बन्धनों के होते हुए भी ज़मींदार कृषकों पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और कृषकों की जीविका का और कोई द्वार हो तो वह इन आपत्तियों को भी कभी न झेल सकें।

राय साहब– जब नैतिक व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं तो विदित है कि उनका उपयोग करने के लिए किसानों को केवल उचित शिक्षा की जरूरत है, और शिक्षा का प्रचार दिनों दिन-बढ़ रहा है। मैं मानता हूँ कि ज़मींदार के हाथों किसानों की बड़ी दुर्दशा होती है। मैं स्वयं इस विषय में सर्वथा निर्दोष नहीं हूँ, बेगार लेता हूँ डाँड़-बाँध भी लेता हूँ, बेदखली या इजाफा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता असामियों पर अपना रोब जमाने के लिए अधिकारियों की खुशामद भी करता हूँ, साम, दाम, दण्ड, भेद सभी से काम लेता हूँ पर इसका कारण क्या है? वही पुरानी प्रथा, किसानों की मूर्खता और नैतिक अज्ञान। शिक्षा का यथेष्ट प्रचार होते ही जमींदारों के हाथ से यह सब मौके निकल जायेंगे। मनुष्य स्वार्थी जीव है और यह असम्भव है कि जब तक उसे धींगा-धीगी के मौके मिलते रहे, वह उनसे लाभ न उठाये। आपका यह कथन सत्य है, किसानों को यह बिडम्बनाएँ इसलिए सहनी पड़ती हैं कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बन्द हैं। निश्चय ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें हमेशा जमींदारों का गुलाम बनाये रखेगा, चाहे कानून उनकी कितनी रक्षा और सहायता क्यों न करे। किन्तु यह साधन ऐसे होने चाहिए जो उनके आचार-व्यवहार को भ्रष्ट न करें। उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनों के जाल में न फँसाएँ, उनके आत्मभिमान का सर्वनाश न करें! और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाये और वह अपने गाँव में कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम करते रहें।

एजेण्ट– आपका अभिप्राय काटेज इण्डस्ट्री (गृहउद्योग या कुटीर शिल्प) से है। समाचार-पत्रों में कहीं-कहीं इनकी चर्चा भी हो रही है, किन्तु इनका सबसे बड़ा पक्षपाती भी यह दावा नहीं कर सकता कि इसके द्वारा आप विदेशी वस्तुओं का सफलता के साथ अवरोध कर सकते हैं।

राय साहब– इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। यूरोप-वाले दूसरे देशे से कच्चा माल ले जातें हैं, जहाज का किराया देते हैं। उन्हें मजदूरों को कड़ी मजूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारों को नफा खूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा और कोई कारण नहीं कि उचित संगठन के साथ वह विदेशीय व्यापार पर विजय न पा सके। वास्तव में हमने कभी इस प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया। पूंजीवाले लोग इस समस्या पर विचार करते हुए डरते हैं। वे जानते हैं कि घरेलू शिल्प हमारे प्रभुत्व का अन्त कर देगा, इसीलिए वह इसका विरोध करते रहते हैं।

ज्ञाननशंकर ने इस विवाद में भाग न लिया। राय साहब की युक्तियाँ अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के प्रतिकूल थीं, पर इस समय उन्हें उनका खण्डन करने का अवकाश न था। जब ऐजेण्ट ने अपनी दाल गलते न देखी तो विदा हो गये । राय साहब ज्ञानशंकर को उत्सुक देखकर समझ गये कि यह कुछ कहना चाहते हैं, पर संकोचवश चुप हैं। बोले, आप कुछ कहना चाहते हैं तो कहिए, मुझे फुर्सत है।

ज्ञानशंकर की जबान न खुल सकी। उन्हें अब ज्ञात हो रहा था कि मैं जो कथन कहने आया हूँ, वह सर्वथा असंगत है, सज्जनता के बिलकुल विरुद्ध। राय साहब को कितना दुःख होगा और वह मुझे मन में कितना लोभी और क्षुद्र समझेंगे। बोले, कुछ नहीं, मैं केवल यह पूछने आया था कि आप नैनीताल जाने का कब तक विचार करते हैं?

राय साहब– आप मुझसे उड़ रहे हैं। आपकी आँखें कह रही हैं कि आपके मन में कोई और बात है, साफ कहिए। मैं आपस में बिलकुल सचाई चाहता हूँ।

ज्ञानशंकर बड़े असमंजस में पड़े। अन्त में सकुचाते हुए बोले– यही तो मेरी भी इच्छा है, पर वह बात ऐसी भद्दी है कि आपसे कहते हुए लज्जा आती है।

राय साहब– मैं समझ गया। आपके कहने की जरूरत नहीं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जिन गप्पों को सुनकर आपको यह शंका हुई है कि बिलकुल निस्सार है। मैं स्पष्टवादी अवश्य हूँ, पर अपने मुँह देखे हितैषियों की अवज्ञा करना मेरी सामर्थ्य से बाहर है। पर जैसा आपसे कह चुका हूँ वह किम्वदन्तियाँ सर्वथा असार हैं। यह तो आप जानते हैं कि मैं पिण्डे-पानी का कायल नहीं और न यही समझता हूँ कि मेरी सन्तान के बिना संसार सूना हो जायेगा। रहा इन्द्रिय-सुखभोग उसके लिए मेरे पास इतने साधन हैं कि मैं पैरों में लोहे की बेड़ियाँ डाले बिना ही उसका आनन्द उठा सकता हूँ। और फिर मैं कभी काम-वासना का गुलाम नहीं रहा, नहीं तो इस अवस्था में आप मुझे इतना हष्ट-पुष्ट न देखते। मुझे लोग कितना ही विलासी समझे, पर वास्तव में मैंने युवावस्था से ही संयम का पालन किया है। मैं समझता हूँ कि इन बातें से आपकी शंका निवृत्त हो गयी होगी। लेकिन बुरा न मानिएगा उड़ती खबरों को सुनकर इतना व्यस्त हो जाना मेरी दृष्टि में आपका सम्मान नहीं बढ़ाता। मान लीजिए, मैंने विवाह करने का निश्चय ही कर लिया हो तो यह आवश्यक नहीं कि उससे सन्तान भी हो और हो भी तो पुत्र ही, और पुत्र भी हो तो जीवित रहे। फिर मायाशंकर अभी अबोध बालक है। विधाता ने उसके भाग्य में क्या लिख दिया है, उसे हम या आप नहीं जानते। यह भी मान लीजिए कि वह वयस्क होकर मेरा उत्तराधिकारी भी हो जाय तो यह आवश्यक नहीं कि वह इतना कर्तव्यपरायण और सच्चरित्र हो जितना आप चाहते हैं। यदि वह समझदार होता और उसके मन में यह शंकाएँ पैदा होतीं तो मैं क्षम्य समझता, लेकिन आप जैसे बुद्धिमान मनुष्य का एक निर्मूल और कल्पित सम्भावना के पीछे अपना दाना-पानी हराम कर लेना बड़े खेद की बात है।

इस कथन के पहले भाग से, ज्ञानशंकर को संतोष न हुआ था, अन्तिम भाग को सुनकर निराशा हुई। समझ गये कि यह चर्चा इन्हें अच्छी नहीं लगती और यद्यपि युक्तियों से यह मुझे शान्त करना चाहते हैं, पर वास्तव में इन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया है। इतना ही नहीं, इन्हें यहाँ मेरा रहना अखर रहा है। मुझे यह अपना आश्रित न समझते तो मुझे कदापि इस तरह आड़े हाथों न लेते। उनका गौरवशील हृदय प्रत्युत्तर देने के लिए विकल हो उठा, पर उन्होंने जब्त किया। इस कड़वी दवा को पान कर लेना ही उचित समझा। मन में कहा, आप मेरे साथ दोरंगी चाल चल रहे हैं। मैं साबित कर दूँगा कि कम-से-कम इस व्यवहार में मैं आपसे हेठा नहीं हूँ।

उन्होंने कुछ जवाब न दिया। राय साहब को भी इन बातों के कहने का खेद हुआ। ज्ञानशंकर का मन रखने के लिए इधर-उधर की बातें करने लगे। नैनीताल का भी जिक्र आ गया। उन्होंने अपने साथ चलने को कहा। ज्ञानशंकर राजी हो गये । इसमें दो लाभ थे। एक तो वह राय साहब को नजरबन्द कर सकेंगे दूसरे, वह उच्चाधिकारियों पर अपनी योग्यता का सिक्का बिठा सकेंगे। सम्भव है, राय साहब की सिफारिश उन्हें किसी ऊँचे पद पर पहुँचा दे। यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।

13.

यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौंडे ने डिप्टी साहब पर न जाने क्या जादू कर दिया कि उनकी काया ही पलट गयी। ईधन, पुआल, हाँडी, बर्तन, दूध, दही, मांस-मछली साग-भाजी सभी चीजें बेगार में लेने को मना करते हैं। तब तो हमारा गुजारा हो चुका। ऐसा भत्ता ही कौन बहुत मिलता है। यह लौंडा एक ही पाजी निकला। एक तो हमें फटकारें सुनायीं, उस पर यह और रद्दा जमा गया। चलकर डिप्टी साहब से कह देना चाहिए। आज यह दुर्दशा हुई है, दूसरे गाँव में इससे भी बुरा हाल होगा। हम लोग पानी को तरस जायेंगे। अतएव ज्योंही ज्वालासिंह लौटकर आये सब-के-सब उनके सामने जाकर खड़े हो गये। ईजाद हुसेन को फिर उनका मुख-पात्र बनना पड़ा।

ज्वालासिंह ने रुष्ट भाव से देख कर पूछा– कहिए आप लोग कैसे चले? कुछ कहना चाहते हैं? मीर साहब आपने इन लोगों को मेरा हुक्म सुना दिया है न?

ईजाद हुसेन– जी हाँ, यही हुक्म सुनकर तो यह लोग घबराये हुए आपकी खिदमत में हाजिर हुए हैं। कल इस गाँव में एक सख्त वारदात हो गयी। गाँव के लोग चपरासियों से लड़ने पर आमादा हो गये। ये लोग जान बचाकर चले न आये होते तो फौजदारी हो जाती। इन लोगों ने इसकी इत्तला करके हुजूर के आराम में खलल डालना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज की मुमानियत सुनकर इनके होश उड़ गये हैं। पहले ही बेगार आसानी से न मिलती थी, अब बानी-मबानी वही नौजवान था जो सुबह हुजूर की खिदमत में हाजिर हुआ था। उसकी कुछ तस्बीह होनी निहायत जरूरी है।

ज्वालासिंह– उसकी बातों से तो मालूम होता था कि चपरासियों ने ही उसके साथ सख्ती की थी।

एक चपरासी– वह तो कहेगा ही, लेकिन खुदा गवाह है, हम लोग भाग न आये होते तो जान की खैर न थी। ऐसी ज़िल्लत आज तक कभी न हुई थी। हम लोग चार-चार पैसे के मुलाजिम हैं, पर हाकिमों के इकबाल से बड़ों-बड़ों की कोई हकीकत नहीं समझते।

गौस खाँ-हुजूर, वह लौंडा इन्तहा दर्जे का शरीर है। उसके मारे हम लोगों का गाँव में रहना दुश्वार हो गया है। रोज एक-न-एक तूफान खड़ा किये रहता है।

दूसरा चपरासी– हुजूर लोगों की गुलामी में उम्र कटी, लेकिन कभी ऐसी दुर्गति न हुई थी।

ईजाद हुसेन– हुजूर की रिआया-परवरी में कोई शक नहीं। हुक्काम को रहम-दिल होना ही चाहिए; लेकिन हक तो यह है कि बेगार बन्द हो जाय तो इन टके के आदमियों का किसी तरह गुजर ही न हो।

ज्वालासिंह– नहीं, मैं इन्हें तकलीफ नहीं देना चाहता। मेरी मंशा सिर्फ यह है कि रिआया पर बेजा सख्ती न हो। मैंने इन लोगों को जो हुक्म दिया है, उसमें उनकी जरूरतों का काफी लिहाज रखा है। मैं यह समझता कि सदर में यह लोग जिन चीजों के बगैर गुजर कर सकते हैं उनकी देहात में आकर क्यों जरूरत पड़ती है।

चपरासी– हुजूर, हम लोगों को जैसे चाहें रखे, आपके गुलाम हैं पर इसमें हुजूर की बेरोबी होती है।

गौस खाँ-जी हाँ, यह देहाती लोग उसे हाकिम ही नहीं समझते जो इनके साथ नरमी से पेश आये। हुजूर को हिन्दुस्तानी समझकर ही यह लोग ऐसी दिलेरी करते हैं। अँग्रेजी हुक्काम आते हैं तो कोई चूँ भी नहीं करता। अभी दो हफ्ते होते हैं, पादरी साहब तशरीफ लाये थे और हफ्ते भर रहे, लेकिन सारा गाँव हाथ बाँधे खड़ा रहता था।

ईजाद हुसेन– आप बिल्कुल दुरुस्त फरमाते हैं। हिन्दुस्तानी हुक्काम को यह लोग हाकिम ही नहीं, समझते, जब तक वह इनके साथ सख्ती न करें।

ज्वालासिंह ने अपनी मर्यादा बढ़ाने के लिए ही अँग्रेजी रहन-सहन ग्रहण किया था। वह अपने को किसी अँग्रेज से कम न समझते थे। रेलगाड़ी में अंग्रेजों के ही साथ बैठते थे। लोग अपनी बोलचाल में उन्हें साहब ही कहा करते थे। हिन्दुस्तानी समझना उन्हें गाली देना था। गौस खाँ और ईजाद हुसेन की बातें निशाने पर बैठ गयीं। अकड़कर बोले, अच्छा यह बात है तो मैं भी दिखा देता हूँ कि मैं किसी अँग्रेज से कम नहीं हूँ यह लोग भी समझेगे कि किसी हिन्दुस्तानी हाकिम से काम पड़ा था। अब तक तो मैं यही समझता था कि सारी खता हमीं लोगों की है। अब मालूम हुआ कि यह देहातियों की शरारत है। अहलमद साहब, आप हल्के के सब-इन्स्पेक्टर को रूबकार लिखिए कि वह फौरन इस मामले की तहकीकात करके अपनी रिपोर्ट पेश करें।

चपरासी– ज्यादा नहीं तो हुजूर इन लोगों से मुचलका तो जरूर ले ही लिया जाय।

गौस खाँ– इस लौंडे की गोशमाली जरूरी है।

ज्वालासिंह– जब तक रिपोर्ट न आ जाय मैं कुछ नहीं करना चाहता।

परिणाम यह हुआ कि सन्ध्या समय बाबू दयाशंकर जी फिर बहाल होकर इसी हलके में नियुक्त हुए थे लखनपुर आ पहुँचे। कई कान्स्टेबल भी साथ थे। इन लोगों ने चौपाल में आसन जमाये। गाँव के सब आदमी जमा किये गये। मगर बलराज का पता न था। वह और रंगी दोनो नील गायों को भगाने गये थे दारोगा जी ने बिगड़कर मनोहर से कहा, तेरा बेटा कहाँ है? सारे फिसाद की जड़ तो वही है, तूने कहीं भगा तो नहीं दिया? उसे जल्द हाजिर कर, नहीं तो वारण्ट जारी कर दूँगा।

मनोहर ने अभी उत्तर नहीं दिया था कि किसी ने कहा, वह बलराज आ गया। सबकी आँखें उसकी ओर उठीं। दो कान्स्टेबलों ने लपककर उसे पकड़ लिया और दूसरे दो कान्स्टेबलों ने उसकी मुश्कें कसनी चाही। बलराज ने दीन-भाव से मनोहर की ओर देखा। उसकी आँखों में भयंकर संकल्प तिलमिला रहा था।

वह कह रही थीं कि यह अपमान मुझसे नहीं सहा जा सकता। मैं अब जान पर खेलता हूँ। आप क्या कहते हैं? मनोहर ने बेटे की यह दशा देखी तो रक्त खौल उठा। बावला हो गया। कुछ न सूझा कि मैं क्या कर रहा हूँ। बाज की तरह टूटकर बलराज के पास पहुँचा और दोनों कान्स्टेबलों को धक्का देकर बोला– छोड़ दो, नहीं तो अच्छा न होगा।

इतना कहते-कहते उसकी जबान बन्द हो गयी और आँखों से आँसू निकल पड़े। सूक्खू चौधरी मन में फूले न समाते थे। उन्हें वह दिन निकट दिखाई दे रहा था, जब मनोहर के दसों बीघे खेत पर उनके हल चलेंगे। दुखरन भगत काँप रहे थे कि मालूम नहीं क्या आफत आयेगी। डपटसिंह सोच रहे थे कि भगवान् करे मार-पीट हो जाये तो इन लोगों की खूब कुन्दी की जाय और बिसेसर साह थर-थर काँप रहे थे। केवल कादिर खाँ को मनोहर से सच्ची सहानुभूति थी। मनोहर की उद्दण्डता से उसके हृदय पर एक चोट-सी लगी। सोचा, मार-पीट हो गयी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी। तुरन्त जाकर दयाशंकर के कानों में कहा– हुजूर हमारे मालिक हैं। हम लोग आप की ही रिआया हैं। सिपाहियों को मने कर दें, नहीं तो खून हो जायेगा। आप जो हुक्म देंगे उसके लिए मैं हाजिर हूँ। दयाशंकर उन आदमियों में न थे, जो खोकर भी कुछ नहीं सीखते। उन्हें अपने अभियोग ने एक बड़ी उपकारी शिक्षा दी थी। पहले वह यथासम्भव रिश्वत अकेले ही हजम कर लिया करते थे। इससे थाने के अन्य अधिकारी उनसे द्वेष किया करते थे। अब उन्होंने बाँटकर खाना सीखा था। इससे सारा थाना उन पर जान देता था। इसके अतिरिक्त अब वह पहले भी भाँति अश्लील शब्दों का व्यवहार न करते थे। उन्हें अब अनुभव हो रहा था कि सज्जनता केवल नैतिक महत्त्व की वस्तु नहीं है, उसका आर्थिक महत्त्व भी कम नहीं है, सारांश यह कि अब उनके स्वभाव में अनर्गलता की जगह गम्भीरता का समावेश हो गया था। वह इस झमेले में सारे गाँव को समेटकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे। कान्स्टेबलों का अत्याचार इस उद्देश्य में बाधक हो सकता था। अतएव उन्होंने सिपाहियों को शान्त किया और बयान लिखने लगे। पहले चपरासियों के बयान हुए। उन्होंने अपना सारा क्रोध बलराज पर उतारा। गौस खाँ और उनके दोनों शहनों ने भी इसी से मिलता-जुलता बयान दिया। केवल बिन्दा महाराज का बयान कुछ कमजोर था। अब गाँववालों के इजहार की बारी आयी। पहले तो इन लोगों ने समझा था कि सारे गाँव पर आफत आनेवाली है, लेकिन विपक्षियों के बयान से विदित हुआ कि सब उद्योग बलराज को फँसाने के लिए किये जा रहे हैं। बलराज पर उसकी सहृदयता के कारण समस्त गाँव जान देता था। पारस्परिक स्नेह और सहृदयता भी ग्राम्य जीवन का एक शुभ लक्षण है। उस अवसर पर केवल सच्ची बात कहने से ही बलराज की जान बचती थी, अपनी ओर से कुछ घटाने या बढ़ाने की जरूरत न थी। अतएव लोगों ने साहस से काम लिया और सारी घटना सच कह सुनायी; केवल बलराज के कठोर शब्दों पर पर्दा डाल दिया। विपक्षियों ने उन्हें फोड़ने में कोई बात उठा न रखी, पर कादिर खाँ की दृढ़ता ने किसी को विचलित न होने दिया।

आठ बजते-बजते तहकीकात समाप्त हो गयी। बलराज को हिरासत में लेने के लिए प्रणाम न मिले। गौस खाँ दाँत पीसकर रह गये। दरोगा जी चौपाल से उठकर अन्दर के कमरे में जा बैठे। गाँव के लोग एक-एक करके सरकने लगे। डपटसिंह ने अकड़ कर कहा, गाँव से फूट न हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। दरोगा जी कैसी जिरह करते थे कि कोई फूट जाय।

दुखरन– भगवान चाहेंगे तो अब कुछ न होगा। मेल बड़ी चीज है।

मनोहर– भाई, तुम लोगों ने मेरी आबरू रख ली, नहीं तो कुशल नहीं थी।

डपटसिंह– लस्करवालों ने समझा था जैसे दूसरे गाँववालों को दबा लेते हैं, वैसे ही इन लोगों को दबा लेंगे।

दुखरन– इस गाँव पर महावीर स्वामी का साया है, इसे क्या कोई खाकर दबायेगा!

मनोहर– कादिर भैया, जब दोनों कान्स्टेबलों ने बालू का हाथ पकड़ा तो मेरे बदन में जैसे आग लग गयी। अगर वह छोड़ न देते तो चाहे जान से जाता, पर एक की तो जान लेकर ही छोड़ता।

डपट– अचरज तो यह है कि बलराज से इतना जब्त कैसे हुआ?

बलराज– मेरी तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गयी थी? मालूम होता था हाथों में दम नहीं है। हाँ, जब वह सब दादा से हाथापाई करने लगे तब मुझसे जब्त न हो सका।

दुखरन– चलो, भगवान की दया से सब अच्छा ही हुआ। अब कोई चिन्ता नहीं। यह बातें करते हुए लोग अपने घर गये। मनोहर अब भोजन करके चिलम पी ही रहा था कि बिन्दा महाराज आकर बैठ गये। यह बड़ा सहृदय मनुष्य था। था तो ज़मींदार का नौकर, पर उसकी सहानुभूति सदैव असामियों के साथ रहती थी। मनोहर उसे देखते ही खाट पर से उठ बैठा, बिलासी घर से निकल आयी और बलराज, जो ऊख की गँडेरियाँ काट रहा था, हाथ में गड़ासा लिये आकर खड़ा हो गया। आजकल ऊख पेरी जाती थी। पहर रात रहे कोल्हू खड़े हो जाते थे।

मनोहर ने पूछा– कहो महाराज, कैसे चले? चौपाल में क्या हो रहा है?

बिन्दा– तुम्हारा गला रेतने की तैयारियों हो रही हैं। दरोगा जी ने गाँव के मुखिया लोगों को बुलाया है और सबसे अपना-अपना बयान बदलने के लिए कहा है। धमका रहे हैं कि बयान न बदलोगे तो सबसे मुचलका ले लेगें। उस पर सौ रुपये की थैली अलग माँगते हैं। डर के मारे सबकी नानी मर रही हैं बयान बदलने पर तैयार हैं। सोचा चलकर तुम्हें खबर तो दे दूँ। ज़मींदार के चाकर हैं तो क्या, पर हैं तो हम और तुम एक।

मनोहर के पाँव तले से जमीन निकल गयी। बिलासी सन्नाटे में आ गयी, बलराज के भी होश उड़ गये। गरीबों ने समझा था, बला टल गई। अपने काम-धन्धे में लगे हुए थे। इस समाचार ने आँधी के झोंके की तरह आकर नौका को डावाँडोल कर दिया। किसी के मुँह से आवाज न निकली।

बिन्दा ने फिर कहा– सबों ने कैसा अच्छा बयान दिया था। मैंने समझा था, वह अपनी बात पर अड़े रहेंगे, पर सब कायर निकले। एक ही धमकी में पानी हो गये।

मनोहर– मेरे ऊपर कोई गरद दशा आई हुई है और क्या? इस लौंडे के पीछे देखें क्या-क्या दुर्गित होती है।

बिन्दा– रात तो बहुत हो गयी है, पर बन पड़े तो लोगों के पास जाओ अरज-विनती करो। कौन जाने मान ही जाएँ।

बलराज ने तनकर कहा– न! किसी भकुए के पास जाने का काम नहीं। यही न होगा, मेरी सजा हो जायेगी। ऐसे कायरों से भगवान् बचाएँ। मुचलके के नाम से जिनके प्राण सूखे जाते हैं, उनका कोई भरोसा नहीं। यहाँ मर्द हैं, सजा से नहीं डरते। कोई चोरी नहीं की है, डाका नहीं मारा है, सच्ची बात के पीछे सजा से नहीं डरते। सजा नहीं गला कट जाय तब भी डरने वाले नहीं।

मनोहर– अरे बाबा, चुप भी रह! आया है बड़ा मर्द बन के! जब तेरी उमिर थी तो हम भी आकाश पर दिया जलाते थे, पर अब वह अकेला कहाँ से लायें?

बिन्दा– इन लड़कों की बातें ऐसी ही होती है। यह क्या जानें, माँ-बाप के दिल पर क्या गुजराती है। जाओ, कहो-सुनो, धिक्कारो, आँखें चार होने पर कुछ-न-कुछ मुरौवत आ ही जाती है।

बिलासी– हाँ, अपनी वाली कर लो। आगे जो भाग में बदा है वह तो होगा ही।

नौ बज चुके थे। प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी। घरों के द्वार बन्द हो चुके थे। अलाव भी ठण्डे हो गये थे। केवल सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा था। कई आदमी भट्ठे के सामने आग ताप रहे थे। गाँव की गरीब स्त्रियाँ अपने-अपने घड़े लिये गरम रस की प्रतीक्षा कर रही थीं। इतने में मनोहर आकर सुक्खू के पास बैठ गया। चौधरी अभी चौपाल से लौटे थे और अपने मेलियों से दरोगा जी की सज्जनता की प्रशंसा कर रहे थे। मनोहर को देखते ही बात बदल दी और बोले– आओ मनोहर, बैठो। मैं तो आप ही तुम्हारे पास आने वाला था। कड़ाह की चासनी देखने लगा। इन लोगों को चासनी की परख नहीं है। कल एक पूरा ताव बिगड़ गया। दरोगा जी तो बहुत मुह फैला रहे हैं। कहते हैं, सबसे मुचलका लेंगे। उस पर सौ की थैली अलग माँगते हैं। हाकिमों के बीच में बोलना जान जोखिम है। जरा-सी सुई का पहाड़ हो गया। मुचलका का नाम सुनते ही सब लोग थरथरा रहे हैं, अपने-अपने बयान बदलने पर तैयार हो रहे हैं।

मनोहर– तब तो बल्लू के फँसने में कोई कसर ही न रही?

सुक्खू– हाँ बयान बदल जायेंगे तो उसका बचना मुश्किल है। इसी मारे मैंने अपना बयान न दिया था। खाँ साहब बहुत दम-भरोसा देते रहे, पर मैंने कहा, मैं न इधर हूँ, न उधर हूँ। न आप से बिगाड़ करूँगा, न गाँव से बुरा बनूँगा। इस पर बुरा मान गये। सारा गाँव समझता है कि खाँ साहब से मिला हुआ हूँ, पर कोई बता दे कि उनसे मिलकर गाँव की क्या बुराई की? हाँ, उनके पास उठता-बैठता हूँ इतने से ही जब मेरा बहुत-सा काम निकलता है तब व्यवहार क्यों तोड़ूँ? मेल से जो काम निकलता है वह बिगाड़ करने से नहीं निकलता हमारा सिर ज़मींदार के पैरों तले रहता है। ऐसे देवता को राजी रखने ही में अपनी भलाई है।

मनोहर– अब मेरे लिए कौन-सी राह निकालते हो?

सूक्खू– मैं क्या कहूँ गाँव का हाल तो जानते ही हो। तुम्हारी खातिर कोई न मानेगा। बस, या तो भगवान का भरोसा है या अपनी गाँठ का।

मनोहर ने सुक्खू से ज्यादा बातचीत नहीं की। समझ गया कि यह मुझे मुड़वाना चाहते हैं। कुछ दरोगा को देंगे, कुछ गौस खाँ के साथ मिलकर आप खा जायेंगे। इन दिनों उसका हाथ बिलकुल खाली था। नई गोली लेनी पड़ी, सब रुपये हाथ से निकल गये। खाँ साहब ने सिकमी खेत निकाल लिए थे। इसलिए रब्बी की भी आशा कम थी। केवल ऊख का भरोसा था लेकिन बिसेसर साह के रुपये चुकाने थे और लगान भी बेबाक करना था। गुड़ से इससे अधिक और कुछ न हो सकता था दूसरा ऐसा कोई महाराज न था जिससे रुपये उधार मिल सकते। वह यहाँ से उठकर डपटसिंह के घर की ओर चला, पर अभी तक कुछ निश्चय न कर सका था कि उनसे क्या कहूँगा। वह भटके हुए पथिक की भाँत एक पगड़ंडी पर चला जा रहा था, बिलकुल बेखबर कि यह रास्ता मुझे कहाँ लिये जाता है, केवल इसलिए कि एक जगह खड़े रहने से चलते रहना अधिक सन्तोषप्रद था। क्या हानि है, यदि लोग मुचलक देने पर राजी हो जायें। यह विधान इतना दूरस्थ था कि वहाँ तक उसका विचार भी न पहुँच सकता था।

डपटसिंह के दालान में एक मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही थी। भूमि पर पुआल बिछी हुई थी और कई आदमी लड़के एक मोटे टाट का टुकड़ा ओढ़े, सिमटे पड़े थे। एक कोने में कुतिया बैठी हुई पिल्लों को दूध पिला रही थी। डपटसिंह अभी सोये न थे। सोच रहे थे कि सुक्खू के कोल्हाड़े से गर्म रस आ जाय तो पीकर सोए। उनके छोटे भाई झपटसिंह कुप्पी के सामने रामायण लिये आँखें गड़ा-गड़ा कर पढ़ने का उद्योग कर रहे थे। मनोहर को देखकर बोले, आओ महतो, तुम तो बड़े झमेले में पड़ गये।

मनोहर– अब तो तुम्हीं लोग बचाओ तो बच सकते हैं।

डपट– तुम्हें बचाने के लिए हमने कौन-सी बात उठा रखी? ऐसा बयान दिया कि बलराज पर कोई दाग नहीं आ सकता था, पर भाई मुचलका तो नहीं दे सकते। आज मुचलका दे दें, कल को गौस खाँ झूठो कोई सवाल दे दे तो सजा हो जाय।

मनोहर– नहीं भैया, मुचलका देने को मैं आप ही न कहूँगा डपटसिंह मनोहर के सदिच्छुक थे, पर इस समय उसे प्रकट न कर सकते थे। बोले, परमात्मा बैरी को भी कपूत सन्तान न दे। बलराज ने कील झूठ-मूठ बतबढ़ाव न किया होता तो तुम्हें क्यों इस तरह लोगों की चिरौरी करनी पड़ती।

हठात् कादिर खाँ की आवाज यह कहते हुए सुनाई दी, बड़ा न्याय करते हो ठाकुर, बलराज ने झूठ-मूठ बतबताव किया था तो उसी घड़ी में डाँट क्यों न दिया? तब तो तुम भी बैठे मुस्कराते रहे और आँखों से इस्तालुक देते रहे। आज जब बात बिगड़ गई है तो कहते हो झूठ-मूठ बतबढ़ाव किया था। पहले तुम्हीं ने अपनी लड़की का रोना-रोया था, मैंने अपनी रामकहानी कही थी। यही सब सुन-सुन कर बलराज भर बैठा था। ज्यों ही मौका मिला, खुल पड़ा। हमने और तुमने रो-रोकर बेगार की, पर डर के मारे मुँह न खोल सके। वह हिम्मत का जवान है, उससे बरदास न हुई। वह जब हम सभी लोगों की खातिर आगे बढ़ा तो यह कहाँ का न्याय है कि मुचलके के डर से उसे आग में झोंक दें?

डपटसिंह ने विस्मित होकर कहा– तो तुम्हारी सलाह है कि मुचलका दे दिया जाय?

कादिर– नहीं मेरी सलाह नहीं है। मेरी सलाह है कि हम लोग अपने-अपने बयान पर डटे रहें। अभी कौन जानता है कि मुचलका देना ही पड़ेगा। लेकिन अगर ऐसा हो तो हमें पीठ न फेरनी चाहिए। भला सोचो, कितना बड़ा अन्धेर है कि हम लोग मुचलके के डर से अपने बयान बदल दें। अपने ही लड़के को कुएँ में ढकेल दें।

मनोहर ने कादिर मियाँ को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो यह कोई देवता है। कादिर की सम्मति जो साधारण न्याय पर स्थिर थी, उसे अलौकिक प्रतीत हुई। डपटसिंह को भी यह सलाह सयुक्तिक ज्ञात हुई। मुचलके की शंका कुछ कम हुई। मन में अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हुए, तिस पर भी मन से यह विचार न निकल सका कि प्रस्तुत विषय का सारा भार बलराज के सिर है। बोले-कादिर भाई, यह तो तुम नाहक कहते हो कि मैंने बलराज को इस्तालुक दिया। मैंने बलराज से कब कहा कि तुम लस्कर वालों से तूलकलाम करना। यह रार तो उसने आप ही बढ़ायी। उसका स्वभाव ही ऐसा कड़ा ठहरा। आज को सिपाहियों से उलझा है, कल को किसी पर हाथ ही चला दे तो हम लोग कहाँ तक उसकी हिमायत करते फिरेंगे?

कादिर– तो मैं तुमसे कब कहता हूँ कि उसकी हिमायत करो। वह बुरी राह चलेगा तो आप ठोकर खाएगा। मेरा कहना यही है कि हम लोग अपनी आँखों की देखी और कानों की सुनी बातों में किसी के भय से उलट-फेर न करें। अपनी जान बचाने के लिए फरेब न करें। मुचलके की बात ही क्या, हमारा धरम है कि अगर सच कहने के लिए जेहल भी जाना पड़े तो सच से मुँह न मोड़ें।

डपटसिंह को अब निकलने का कोई रास्ता न रहा, किन्तु फिर भी इस निश्चय को व्यावहारिक रूप में मानने का कोई सम्भावित मार्ग निकल आने की आशा बनी हुई थी। बोले– अच्छा मान लो हम और तुम बयान पर अड़े रहे, लेकिन बिसेसर और दुखरन को क्या करोगे? वह किसी विध न मानेंगे।

कादिर– उनको भी खींचे लाता हूँ, मानेंगे कैसे नहीं। अगर अल्लाह का डर है तो कभी निकल ही नहीं सकते।

यह कहकर कादिर खाँ चले गये और थोड़ी देर में दोनों आदमियों को साथ लिये आ पहुँचे। बिसेसर साह ने तो आते ही डपटसिंह की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से आँखें नचा कर देखा, मानों पूछना चाहते थे कि तुम्हारी क्या सलाह है, और दुखरन भगत, जो दोनों जून मन्दिर में पूजा करने जाया करते थे। और जिन्हें राम-चर्चा से कभी तृप्ति न होती थी, इस तरह सिर झुकाकर बैठ गये, मानों उन पर वज्रपात हो गया है या कादिर खाँ उन्हें किसी गहरी खोह में गिरा रहे हैं।

इन्हें यहाँ बैठाकर कादिर खाँ ने अपनी पगड़ी से थोड़ी-सी तमाखू निकाली, अलाव से आग लाये और दो-तीन दम लगाकर चिलम को डपटसिंह की ओर बढ़ाते हुए बोले– कहो भगत, कल दरोगा जी के पास चलकर क्या करना होगा।

दुखरन– जो तुम लोग करोगे वही मैं भी करूँगा, हाँ, मुचलका न देना पड़े। कादिर ने फिर उसी युक्ति से काम लिया, जो डपटसिंह को समाधान करने में सफल हुई थी! सीधे किसान वितण्डावादी नहीं होते। वास्तव में इन लोगों के ध्यान में यह बात ही न आयी थी कि बयान का बदलना प्रत्यक्ष जाल है। कादिर खाँ ने इस विषय का निदर्शन किया तो उन लोगों की सरल सत्य-भक्ति जाग्रत हो गयी। दुखरन शीघ्र ही उनसे सहमत हो गये। लेकिन कारबार होता था। डेवढ़ी-सवाई चलती थी, लेन-देन करते थे, दो हल की खेती होती थी, गाँजा-भाँग, चरस आदि का ठीका भी ले लिया था, पर उनका भेष-भाव उन्हें अधिकारियों के पंजे से बचाता रहता था। बोले– भाई, तुम लोगों का साथ देने में मैं कहीं का न रहूँगा, चार पैसे का लेन-देन है। नरमी-गरमी, डाँट-डपट किये बिना काम नहीं चल सकता। रुपये लेते समय तो लोग सगे भाई बन जाते हैं, पर देने की बारी आती है तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता। यह रोजगार ही ऐसा है कि अपने घर की जमा देकर दूसरों से बैर मोल लेना पड़ता है। आज मुचलका हो जाए, कल को कोई मामला खड़ा हो जाए, तो गाँव में सफाई के गवाह तक न मिलेंगे और फिर संसार में रहकर अधर्म से कहाँ तक बचेंगे? यह तो कपट लोक है। अपने मतलब के लिए दंगा, फरेब, जाल सभी कुछ करना पड़ता है। आज धर्म का विचार करने लगूँ, तो कल ही सौ रुपये साल का टिकट बंध जाय, असामियों से कौड़ी न वसूल हो और सारा कारबार मिट्टी में मिल जाय। इस जमाने में जो रोजगार रह गया है इसी बेईमानी का रोजगार है। क्या हम हुए, क्या तुम हुए, सबका एक ही हाल है, सभी सन् की गाँठों में मिट्टी और लकड़ी भरते हैं, तेलहन और अनाज में मिट्टी और कंकर मिलाते हैं। क्या यह बेईमानी नहीं है? अनुचित बात कहता होऊँ तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। तुम लोगो को जैसा गौं पड़े वैसा करो, पर मैं मुचलका देने पर किसी तरह राजी नहीं हो सकता।

स्वार्थ– नीति का जादू निर्बल आत्माओं पर खूब चलता है। दुखरन और डपटसिंह को यह बातें अतिशय न्याय-संगत जान पड़ीं। यही विचार हृदय में भी थे, पर किसी कारण से व्यक्त न हो सके थे। दोनों ने एक-दूसरे को मार्मिक दृष्टि से देखा। डपटसिंह बोले– भाई, बात तो सच्ची करते हो, संसार में रहकर सीधी राह पर कोई नहीं चल सकता। अधर्म से बचना चाहे तो किसी जंगल-पहाड़ में जाकर बैठे। यहाँ निबाह नहीं।

कादिर खाँ समझ गये कि साहु जी धर्म और न्याय का कुछ बस न चलेगा। यह उस वक्त तक काबू में न आयेंगे जब तक इन्हें यह न सूझेगा कि बयान बदलने में कौन-कौन-सी बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। बोले– साहु जी, तुम जो बात कहते हो। संसार में रहकर अधर्म से कहाँ तक कोई बचेगा? रात-दिन तो छलकपट करते रहते हैं! जहाँ इतने पापों का दण्ड भोगना है, एक पाप और सही। लेकिन यहाँ धर्म का ही विचार नहीं है न। डर तो यह है कि बयान बदलकर हम लोग किसी और संकट में न फँस जाएँ। पुलिस वाले किसी के नहीं होते। हम लोगों का पहला बयान दारोगा जी के पास रखा हुआ है। उस पर हमारे दसखत और अँगूठे के निशान भी मौजूद हैं। दूसरा बयान लेकर वह हम लोगों को जालसाजी में गिरफ्तार कर लें तो सोचो कि क्या हो? सात बरस से कम की सजा न होगी। न भैया, इससे तो मुचलका ही अच्छा। आँख से देखकर मक्खी क्यों निगलें?

विसेसर साह की आँखें खुलीं। और लोग भी चकराए। कादिर खाँ की यह युक्ति काम कर गयी। लोग समझ गये कि हम लोग बुरे फँस गये हैं और किसी तरह से निकल नहीं सकते। बिसेसर का मुँह लटक गया मानों रुपये की थैली गिर गई हो। बोले, दारोगा जी ऐसे आदमी तो नहीं जान पड़ते। कितना हो हैं तो हमारे मालिक ही, कुछ-न-कुछ मुलाहिजा तो करेंगे ही, लेकिन किसी के मन का हाल परमात्मा ही जान सकता है। कौन जाने, उनके मन में कपट समा जाये तब तो हमारा सत्यानाश ही हो जाये। तो यही सलाह पक्की कर लो कि न बयान बदलेंगे, न दारोगा जी के पास जायेंगे। अब तो जाल में फँस गये हैं। फड़फड़ाने से फँदे और भी बन्द हो जायेंगे। चुपचाप राम आसरे बैठे रहना ही अच्छा है।

इस प्रकार आपस में सलाह करके लोग अपने-अपने घर गये। कादिर खाँ की व्यवहार पटुता ने विजय पायी।

बाबू दयाशंकर नियमानुसार आठ बजे सोकर उठे और रात की खुमारी उतारने के बाद इन लोगों की राह देखने लगे। जब नौ बजे तक किसी की सूरत न दिखाई दी तो गौस खाँ से बोले– कहिए खाँ साहब, यह सब न आएँगे क्या? देर बहुत हुई?

गौस– खाँ-क्या जाने कल सबों में क्या मिस्कौट हुई। क्यों सुक्खू, रात मनोहर तुम्हारे पास आया था न?

सूक्खू– हाँ, आया तो था, पर कुछ मामले की बातचीत नहीं हुई। कादिर मियाँ बड़ी रात तक सबके घर-घर घूमते रहे। उन्होंने सबों को मन्त्र दिया होगा।

गौस खाँ– जरूर उसकी शरारत है। कल पहर रात तक सब लोग बयान बदलने पर आमादा थे। मालूम होता है जब से लोग यहाँ से गये हैं तो उसे पट्टी पढ़ाने का मौका मिल गया। मैं जानता तो सबों को यहीं सुलाता। यह मलऊन कभी अपनी हरकत से बाज नहीं आता। हमेशा भाँजी मारा करता है।

दया– अच्छी बात है, तो मैं अब रिपोर्ट लिख डालता हूँ। मुझे गाँव वालों की तरह से किसी किस्म की ज्यादती का सबूत नहीं मिलता।

गौस खाँ– हुजूर, खुदा के लिए ऐसी रिपोर्ट न लिखे, वरना यह सब और शेर हो जायेंगे। हुजूर, महज अफसर नहीं है, मेरे आका भी तो हैं। गुलाम ने बहुत दिनों तक हुजूर का नमक खाया है, ऐसा कुछ कीजिए कि यहाँ मेरा रहना दुश्वार न हो जाय। मैं तो हुजूर और बाबू ज्ञानशंकर को एक ही समझता हूँ। मैं यही चाहता हूँ कि बलराज को कम-से-कम एक माह की सजा हो जाये और बाकी से मुचकला ले लिया जाय। यह इनायत खास मुझ पर होगी। मेरी धाक बँध जायेगी। और आइन्दा से हुक्काम की बेगार में जरा भी दिक्कत न होगी।

दयाशंकर– आपका फरमान बजा है, पर मैं इस वक्त न आपके पास आका की हैसियत में हूँ और न मेरा काम हुक्काम के लिए बेगार पहुँचाना है। मैं तशखीम करने आया हूँ और किसी के साथ रू-रिआयत नहीं कर सकता। यह तो आप जानते ही हैं कि मैंने मुफ्त कलम उठाने का सबक नहीं पढ़ा। किसी पर जब्र नहीं करता, सख्ती नहीं करता, सिर्फ काम की मजदूरी चाहता हूँ खुशी से जो मुझसे काम लेना चाहे उजरत पेश करे। और मुझे महज अपनी फिक्र तो नहीं मेरे मातहत और भी तो कितने ही छोटी-छोटी तनख्वाहों के लोग हैं। उनका गुजर कैसे हो? गाँव में आपकी धाक बध जायगी, इससे मेरा फायदा? आप आसामियों को लूटेंगे, मेरी गरज? गाँववालों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं, कसम खा चुका हूँ, कि अब एक सौ से कम की तरफ निगाह न उठाऊंगा, यह रकम चाहे आप दें या काला चोर दे। मेरे सामने रकम आनी चाहिए। गुनाहें बेलज्जत नहीं कर सकता।

गौस खाँ ने बहुत मिन्नत समाअत की। अपनी हीन दशा का रोना रोया, अपनी दुरवस्था का पचड़ा गाया, पर दारोगा जी टस से मस न हुए। खाँ साहब ने लोगों को नीचा दिखाने का निश्चय किया था, इसी में उनका कल्याण था। दारोगा जी के पूजार्पण के सिवा अन्य कोई उपाय न था। सोचा, जब मेरी धाक जम जायेगी तो ऐसे-ऐसे कई सौ का वारा-न्यारा कर दूँगा। कुछ रुपये अपने सन्दूक से निकाले, कुछ सुक्खू चौधरी से लिये और दारोगा जी की खिदमत में पेश किए। यह रुपये उन्होंने अपने गाँव में एक मसजिद बनवाने के लिए जमा किए थे। निकालते हुए हार्दिक बेदना हुई, पर समस्या ने विवश कर दिया था। दयाशंकर ने काले-काले रुपयों का ढेर देखा तो चेहरा खिल उठा। बोले– अब आपकी फतह है। वह रिपोर्ट लिखता हूँ कि मिस्टर ज्वालासिंह भी फड़क जायें। मगर आपने यह रुपये जमीन में दफन कर रखे थे क्या?

गौस खाँ– अब हुजूर कुछ न पूछें। बरसों की कमाई है। ये पसीने के दाग हैं।

दयाशंकर– (हँसकर) आपके पसीने के दाग तो न होंगे, हाँ असामियों के खूने जिगर के दाग हैं।

दस बजे रिपोर्ट तैयार हो गयी। दो दिन तक सारे गाँव में कुहराम मचा रहा। लोग तलब हुए। फिर सबके बयान हुए। अन्त में सबसे सौ-सौ रुपये के मुचलके ले लिये गये। कादिर खाँ का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया।

शाम हो गयी थी। बाबू ज्वालासिंह शिकार खेलने गये हुए थे। फैसला कल सुनाया जाने वाला था। गौस खाँ ईजाद हुसेन के पास आकर बैठ गये और बोले, क्या डिप्टी साहब अभी शिकार से वापस नहीं आये?’

ईजाद हुसेन– कहीं घड़ी रात तक लौटेंगे। हुकूमत का मजा तो दौरे में ही मिलता है। घण्टे आध घण्टे कचहरी की, बाकी सारे दिन मटरगश्ती करते रहे रोजनामचा भरने को लिख दिया, परताल करते रहे।

गौस खाँ– आपको तो मालूम ही हुआ होगा, दारोगा जी ने मुझे आज खूब पथा।

ईजाद– इन हिन्दुओं से खुदा समझें। यह बला के मतअस्सिब होते हैं। हमारे साहब बहादुर भी बड़े मुन्सिफ बनते हैं, मगर जब कोई कोई जगह खाली होती है तो वह हिन्दू को ही देते हैं। अर्दली चपरासी मजीद को आप जानते होंगे। अभी हाल में उसने जिल्दबन्दी की दुकान खोल ली, नौकरी से इस्तीफा दे दिया। आपने उसकी जगह एक गँवार अहीर को मुकर्रर कर लिया। है तो अर्दली चपरासी, पर उसका काम है गायें दुहना, उन्हें चारा-पानी देना। दौरे के चौकीदारों में दो कहार रख लिये हैं। उनसे खिदमतगारी का काम लेते हैं। जब इन हथकण्डों से काम चले तो बेगार की जरूरत ही क्या? हम लोगों को अलबत्ता हुक्म मिला है। बेगार न लिया करो।

सूर्य अस्त हुए। खाँ साहब को याद आ गया कि नमाज का वक्त गुजरा जाता है वजू किया और एक पेड़ के नीचे नमाज पढ़ने लगे।

इतने में बिसेसर साह ने रावटी के द्वार पर आकर अहलमद साहब को अदब से सलाम किया। स्थूल शरीर, गाढ़े की मिर्जई, उस पर गाढ़े की दोहर, सिर पर एक मैली-सी पगड़ी, नंगे पाँव, मुख मलिन, स्वार्थपूर्ण विनय की मूर्ति बने हुए थे। एक चपरासी ने डाँट कर कहा, यहाँ घुसे चले आते हो? कुछ अफसरों का अदब-लिहाज भी है?

बिसेसर साह दो-तीन पग पीछे हट गये और हाथ बाँधकर बोले– सरकार एक बिनती है। हुक्म हो तो अरज करूँ।

ईजाद– क्या कहते हो। तुम लोगों के मारे तो दम मारने की फुर्सत नहीं जब देखो, एक-न-एक आदमी शैतान की तरह सिर पर सवार रहता है।

बिसेसर– हुजूर, बड़ी देर से खड़ा हूँ।

ईजाद– अच्छा, खैर अपना मतलब कहो।

बिसेसर– यही अरज है हुजूर कि मुझसे मुचलका न लिया जाय। बड़ा गरीब हूँ सरकार, मिट्टी में मिल जाऊँगा।

अहलमद साहब के यहाँ ऐसे गरज के बावले, आँख के अन्धे, गाँठ के पूरे नित्य ही आया करते थे। वह उनके कल-पुरजे खूब जानते थे। पहले मुँह फेरा, फिर अपनी विवशता प्रकट की पर भाव ऐसा शीलपूर्ण बनाये रखा कि शिकार हाथ से निकल न जाये। अन्त में मामले पर आये, रुपये लेते हुए ऐसा मुँह बनाया, मानो दे रहें हों। साह जी को दिलासा देकर बिदा किया।

चपरासी ने पूछा– क्या इससे मुचलका न लिया जायेगा?

ईजाद– लिया क्यों न जायेगा? फैसला लिखा हुआ तैयार है। इसके लिए जैसे-सौ, वैसे एक सौ बीस। मैंने उससे यह हर्गिज नहीं कहा कि तुम्हें मुचलका से निजात दिला दूँगा। महज इतना कह दिया कि तुम्हारे लिए अपने इमकान-भर कोशिश करूँगा। उसकी तसकीन इतने से ही हो गयी तो मुझे ज्यादा सर दर्द की क्या जरूरत थी? रिश्वत को लोग नाहक बदनाम करते है। इस वक्त मैं इससे रुपये न लेता, तो इसकी न जाने क्या हालत होती। मालूम नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ता और क्या-क्या करता? रुपये देकर इसके सिर का बोझ हलका हो गया। और दिल पर से बोझ उतर गया। इस वक्त आराम से खायेगा। और मीठी नींद सोयेगा, कल कह दूँगा, भाई, क्या करूँ, बहुत-पैर मारे, पर डिप्टी साहब राजी न हुए। मौका देखूँगा तो एक चाल और चलूँगा। कहूँगा, डिप्टी साहब को कुछ नजर दिए बिना काम पूरा न होगा। सौ रुपये पेश करो तो तुम्हारा मुचलका रद्द करा दूँ। यह चाल चल गयी तो पौ बाहर हैं। इसी का नाम ‘हम खुर्मा व हम सवाब’ है। मैंने कोई ज्यादती नहीं की, कोई जब्र नहीं किया। यह गैबी इमदाद है। इसी से मैं हिन्दुओं के मसलये तनासुख का कायल हूँ। जरूर इससे पहले की जिन्दगी में इस आदमी पर मेरे कुछ रुपये आते होंगे। खुदा ने उसके अदा होने की वह सूरत पैदा कर दी। देखते तो हो, आये दिन ऐसे शिकार फँसा करते हैं, गोया उन्हें रुपयों से कोई चिढ़ है। दिल में उनकी हिमाकत पर हँसता हूँ और अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि ऐसे बन्दे न पैदा करता तो हम जैसों का गुजर क्योंकर होता?

14.

राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ, बहुत-से नौकर। यहाँ वह राजाओं की भाँति शान से रहते हैं। कभी हिमराशियों की सैर, कभी शिकार, कभी झील में बजरों की बहार, कभी पोलो और गोल्फ, कभी सरोद और सितार, कभी पिकनिक और पार्टियाँ, नित्य नए जल्से, नए प्रमोद होते रहते हैं। राय साहब बड़ी उमंग के साथ इन विनोदों की बहार लूटते हैं। उनके बिना किसी महफिल, किसी जलसे का रंग नहीं जमता। वह सभी बरातों के दूल्हें हैं। व्यवस्थापक सभा की बैठकें नियमित समय पर हुआ करती हैं, पर मेम्बरों के रागरंग को देखकर यह अनुमान करना कठिन है कि वह आमोद को अधिक महत्त्व का विषय समझते हैं या व्यवस्थाओं के सम्पादक को।

किन्तु ज्ञानशंकर के हृदय की कली यहाँ भी न खिली। राय साहब ने उन्हें यहाँ के समाज से परिचित करा दिया, उन्हें नित्य दावतों और जलसों में अपने साथ ले जाते, अधिकारियों से उनके गुणों की प्रशंसा करते, यहाँ तक कि उन्हें लेडियों से भी इण्ट्रोड्यूस कराया। इससे ज्यादा वह और क्या कर सकते थे? इस भित्ति पर दीवार उठाना उनका काम था, पर उनकी दशा उस पौधे की-सी थी जो प्रतिकूल परिस्थिति में जाकर माली के सुव्यवस्था करने पर भी दिनों-दिन सूखता जाता है। ऐसा जान पड़ता था कि वह किसी गहन घाटी में रास्ता भूल गये हैं। रत्न जटित लेडियों के सामने वह शिष्टाचार के नियमों के ज्ञाता होने पर भी झेंपने लगते थे। राय साहब उन्हें प्रायः एकान्त में सभ्य व्यवहार के उपदेश किया करते। स्वयं नमूना बन कर उन्हें सिखाते, पुरुषों से क्योंकर बिना प्रयोजन ही मुस्कुराकर बातें करनी चाहिए, महिलाओं के रूप-लावण्य की क्योंकर सराहना करनी चाहिए, किन्तु अवसर पड़ने पर ज्ञानशंकर का मतिहरण हो जाता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि राय साहब इस वृद्धावस्था में भी लेडियों के साथ कैसे घुल-मिल जाते हैं, किस अन्दाज से बातें करते हैं कि बनावट का ध्यान भी नहीं हो सकता, मानों इसी जलवायु में उनका पालन-पोषण हुआ है।

एक दिन वह झील के किनारे एक बेंच पर बैठे हुए थे। कई लेडियाँ एक बजरे पर जल-क्रीड़ा कर रही थीं। इन्हें पहचानकर उन्होंने इशारे से बुलाया और सैर करने की दावत दी। इस समय ज्ञानशंकर की मुखाकृति देखते ही बनती थी। उन्हें इन्कार करने के शब्द न मिले। भय हुआ कि कहीं असभ्यता न समझी जाय। झेंपते हुए बजरे में जा बैठे, पर सूरत बिगड़ी हुई, दुःख और ग्लानि की सजीव मूर्ति। हृदय पर एक पहाड़ का बोझ रखा हुआ था। लेडियों ने उनकी यह दशा देखी, तो आड़े हाथों लिया और इतनी फबतियाँ कसीं, इतना बनाया कि इस समय कोई ज्ञानशंकर को देखता तो पहचान न सकता। मालूम होता था। आकृति ही बिगड़ गयी है। मानो कोई बन्दर का बच्चा नटखट लड़कों के हाथों पड़ गया हो। आँखों में आँसू भरे एक कोने में दबके सिमटे बैठे हुए अपने दुर्भाग्य को रो रहे थे। बारे किसी तरह इस विपत्ति से मुक्ति हुई, जान में जान आई। कान पकड़े कि फिर लेडियों के निकट न जाऊँगा।

शनैः-शनैः ज्ञानशंकर को इन खेल-तमाशों से अरुचि होने लगी। अंगूर खट्टे हो गये। ईर्ष्या, जो अपनी क्षुद्रताओं की स्वीकृति है, हृदय का काँटा बन गयी। रात-दिन इसकी टीस रहने लगी। उच्चाकांक्षाएँ उन्हें पर्वत के पादस्थल तक ले गयी; लेकिन ऊपर न ले जा सकीं। वहीं हिम्मत हारकर बैठ गये और उन धुन के पूरे, साहसी पुरुषों की निन्दा करने लगे, जो गिरते-पड़ते ऊपर चले जाते थे। यह क्या पागलपन है! लोग ख्वाहमख्वाह अँगरेजियत के पीछे लट्ठ लिये फिरते हैं। थोड़ी-सी ख्याति और सत्ता के लिए इतना झंझट और इतने रंग-रोगन पर भी असलियत का कहीं पता नहीं। सब-के-सब बहुरूपिये मालूम होते हैं। अँग्रेज लोग इनके मुँह पर चाहे न हँसे, पर मित्र-मण्डली में सब इन पर तालियाँ बजाते होंगे। और तो और लोग लेडियों के साथ नाचने पर भी मरते हैं। कैसी निर्लज्जता है, कैसी बेहयाई, जाति के नाम पर धब्बा लगाने वालो। राय साहब भी विचित्र जीव हैं। इस अवस्था में आपको भी नाचने की धुन है। ऐसा मालूम होता है मानो उच्छृंखलता सन्देह होकर दूसरों का मुँह चिढ़ा रही है। डॉक्टर चन्द्रशेखर कहने को तो दर्शन के ज्ञाता हैं, पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर लच्छेदार वक्तृताएँ देते हैं, लेकिन नाचने लगते हैं तो सारा पाण्डित्य धूल में मिल जाता है वह जो राजा साहब हैं इन्द्रकुमार सिंह, मटके की भाँति तोंद निकली हुई है। लेकिन आप भी अपना नृत्य-कौशल दिखाने पर उधार खाये हुये हैं और तुर्रा यह कि सब-के-सब जाति के सेवक और देश के भक्त बनते हैं। जिसे देखिए भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाता नजर आता है। यह लोग विलासमय होटलों में शराब और लेमोनेड पीते हुए देश की दरिद्रता और अधोगति का रोना रोते हैं। यह भी फैशन में दाखिल हो गया है।

इस भाँति ज्ञानशंकर की ईर्ष्या देशानुराग के रूप में प्रकट हुई। असफल लेखक समालोचक बन बैठा। अपनी असमर्थता ने साम्यवादी बना दिया। यह सभी रँगे हुए सियार हैं, लुटेरों का जत्था है। किसी को खबर नहीं कि गरीबों पर क्या बीत रही है। किसी के हृदय में दया नहीं। कोई राजा है, कोई ताल्लुकेदार, कोई महाजन, सभी गरीबों का खून चूसते हैं, गरीबों के झोंपड़ों में सेंध मारते हैं और यहाँ आकर देश की अवनति का पचड़ा गाते हैं। भला ही है कि अधिकारी वर्ग इन महानुभावों को मुँह नहीं लगाते। कहीं वह इनकी बातों में आ जाएँ और देश का भाग्य इनके हाथों में दे दें तो जाति का कहीं नाम-निशान न रहे। यह सब दिन दहाड़े लूट खायँ, कोई इन भलेमानसों से पूछे, आप जो लाखों रुपये सैर सपाटों में उड़ा रहे हैं, उससे जाति को क्या लाभ हो रहा है? यही धन यदि जाति पर अर्पण करते तो जाति तुम्हें धन्यवाद देती और तुम्हें पूजती, नहीं तो उसे खबर भी नहीं कि तुम कौन हो और क्या करते हो। उसके लिए तुम्हारा होना न होना बराबर है। प्रार्थी को इस बात से सन्तोष नहीं होता कि तुम दूसरों से सिफारिश करके उसे कुछ दिला दोगे, उसे सन्तोष होगा जब तुम स्वयं अपने पास से थोड़ा सा निकालकर उसे दे दो।

ये द्रोहात्मक विचार ज्ञानशंकर के चित्त को मथने लगे। वाणी उन्हें प्रकट करने के लिए व्याकुल होने लगी। एक दिन वह डॉक्टर चन्द्रशेखर से उलझ पड़े। इसी प्रकार एक दिन राजा इन्द्रकुमार से विवाद कर बैठे और मिस्टर हरिदास बैरिस्टर से तो एक दिन हाथा-पाई की नौबत आ गयी। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने ज्ञानशंकर का बहिष्कार करना शुरू किया, यहाँ तक कि राय साहब के बँगले पर आना भी छोड़ दिया। किन्तु जब ज्ञानशंकर ने अपने विचारों को एक प्रसिद्ध अँग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित कराया तो सारे नैनीताल में हलचल मच गयी। जिसके मस्तिष्क से ऐसे उत्कृष्ट भाव प्रकट हो सकते थे, उसे झक्की या बक्की समझना असम्भव था। शैली ऐसी सजीव, चुटकियाँ ऐसी तीव्र, व्यंग्य ऐसे मीठे और उक्तियाँ ऐसी मार्मिक थीं कि लोगों को उसकी चोटों में भी आनन्द आता था। नैनीताल समाज का एक वृहत चित्र था। चित्रकार ने प्रत्येक चित्र के मुख पर उसका व्यक्तित्व ऐसी कुशलता से अंकित कर दिया था कि लोग मन-ही-मन कटकर रह जाते थे। लेख में ऐसे कटाक्ष थे कि उसके कितने ही वाक्य लोगों की जबान पर चढ़ गये।

ज्ञानशंकर को शंका थी कि यह लेख छपते ही समस्त नैनीताल उनके सिर हो जायेगा, किन्तु यह शंका निस्तार सिद्ध हुई। जहाँ लोग उनका निरादर और अपमान करते थे, वहाँ अब उनका आदर और मान करने लगे। एक-एक करके लोगों ने उनके पास आकर अपने अविनय की क्षमा माँगी। सब-के-सब एक दूसरे पर की गयी चोटों का आनन्द उठाते थे। डॉक्टर चन्द्रशेखर और राजा इन्द्रकुमार में बड़ी घनिष्टता थी, किन्तु राजा साहब पर दो मुँहे साँप की फबती डाक्टर महोदय को लोट-पोट कर देती थी। राजा साहब भी डाक्टर महाशय की प्रौढ़ा से उपमा पर मुग्ध हो जाते थे। उनकी घनिष्ठता इस द्वेषमय आनन्द में बाधक न होती थी। यह चोटें और चुटकियाँ सर्वथा निष्फल न हुईं। सैर-तमाशों में लोगों का उत्साह कुछ कम हो गया। अगर अन्तःकरण से नहीं तो केवल ज्ञानशंकर को खुश करने के लिए लोग उनसे सार्वजनिक प्रस्तावों में सम्मति लेने लगे। ज्ञानशंकर का साहस और भी बढ़ा। वह खुल्लम-खुला लोगों को फटकारें सुनाने लगे। निन्दक से उपदेशक बन बैठे। उनमें आत्मगौरव का भाव उदय हो गया। अनुभव हुआ कि इन बड़े-बड़े उपाधिधारियों और अधिकारियों पर कितनी सुगमता से प्रभुत्व जमाया जा सकता है। केवल एक लेख ने उनकी धाक बिठा दी। सेवा और दया के जो पवित्र भाव उन्होंने चित्रित किये थे, उनका स्वयं उनकी आत्मा पर भी असर हुआ। पर शोक! इस अवस्था का शीघ्र ही अन्त हो गया। क्वार का आरम्भ होते ही नैनीताल से डेरे कूच होने लगे और आधे क्वार तक वह बस्ती उजाड़ हो गयी। ज्ञानशंकर फिर उसी कुटिल स्वार्थ की उपासना करने लगे। उनका हृदय दिनों-दिन कृपण होने लगा। नैनीताल में भी वह मन-ही-मन राय साहब की फजूलखर्चियों पर कुड़बुड़ाया करते थे। लखनऊ आकर उनकी संकीर्णता शब्दों में व्यक्त होने लगी। जुलाहे का क्रोध दाढ़ी पर उतरता। कभी मुख्तार से, कभी मुहर्रिर से, कभी नौकरों से उलझ पड़ते। तुम लोग रियासत लूटने पर तुले हुए हो, जैसे मालिक वैसे नौकर, सभी की आँखों में सरसों फूली हुई है। मुफ्त का माल उड़ाते क्या लगता है? जब पसीना मार कर कमाते तो खर्च करते भी अखर होती। राय साहब रामलीला-सभा के प्रधान थे। इस अवसर पर हजारों रुपये खर्च करते, नौकरों को नई-नई वरदियाँ मिलतीं, रईसों की दावत की जाती, काजगद्दी के दिन ब्रह्मभोज किया जाता ज्ञानशंकर यह धन का अपव्यय देखकर जलते रहते थे। दीपमालिका के उत्सव की तैयारियाँ देखकर वह ऐसे हताश हुए कि एक सप्ताह के लिए इलाके की सैर करने चले गये।

दिसम्बर का महीना था और क्रिसमस के दिन। राय साहब अँग्रेज अधिकारियों को डालियाँ देने की तैयारियों में तल्लीन हो रहे थे। ज्ञानशंकर उन्हें डालियाँ सजाते देख कर इस तरह मुँह बनाते, मानो वह कोई महाघृणित काम कर रहे हैं। कभी-कभी दबी जबान से उनकी चुटकी भी ले लेते। उन्हें छेड़कर तर्क वितर्क करना चाहते। राय साहब पर इन भावों का जरा भी असर न होता। वह ज्ञानशंकर की मनोवृत्तियों से परिचित जान पड़ते थे। शायद उन्हें जलाने के लिए ही वह इस समय इतने उत्साहशील हो गये थे। यह चिन्ता ज्ञानशंकर की नींद हराम करने के लिए काफी थी। उस पर जब उन्हें विश्वस्त सूत्र से मालूम हुआ कि राय साहब पर कई लाख का कर्ज है तो वह नैराश्त से विह्वल हो गये। एक उद्विग्न दशा में विद्या के पास आकर बोले, मालूम होता है यह मरते दम तक कौड़ी कफन को न छोड़ेंगे। मैं आज ही इस विषय में इनसे साफ-साफ बातें करूँगा और कह दूँगा कि यदि आप अपना हाथ न रोकेंगे तो मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा कर डालूँगा।

विद्या– उनकी जायदाद है, तुम्हें रोक-टोक करने का क्या अधिकार है। कितना ही उड़ायेंगे तब भी हमारे खाने भर को बचा ही रहेगा। भाग्य में जितना बदा है, उससे अधिक थोड़े ही मिलेगा।

ज्ञान– भाग्य के भरोसे बैठकर अपनी तबाही तो नहीं देखी जाती।

विद्या– भैया जीते होते तब?

ज्ञान– तब दूसरी बात थी। मेरा इस जायदाद से कोई सम्बन्ध न रहता। मुझको उसके बनने-बिगड़ने की चिन्ता न रहती। किसी चीज पर अपने की छाप लगते ही हमारा उससे आत्मिक सम्बन्ध हो जाता है।

किन्तु हा दुर्दैव! ज्ञानशंकर की विषाद-चिन्ताओं का यहीं तक अन्त न था। अभी तक उनकी स्थिति एक आक्रमणकारी सेना की-सी थी। अपने घर का कोई खटका न था। अब दुर्भाग्य ने उनके घर पर छापा मारा। उनकी स्थिति रक्षाकारिणी सेना की-सी हो गयी। उनके बड़े भाई प्रेमशंकर कई वर्ष से लापता थे। ज्ञानशंकर को निश्चय हो गया था कि वह अब संसार में नहीं हैं। फाल्गुन का महीना था। अनायास प्रेमशंकर का एक पत्र अमेरिका से आ पहुँचा कि मैं पहली अप्रैल को बनारस पहुँच जाऊँगा। यह पत्र पाकर पहले तो ज्ञानशंकर प्रेमोल्लास में मग्न हो गये। इतने दिनों के वियोग के बाद भाई से मिलने की आशा ने चित्त को गदगद कर दिया। पत्र लिये हुए विद्या के पास आकर यह शुभ समाचार सुनाया। विद्या बोली– धन्य भाग! भाभी जी की मनोकामना ईश्वर ने पूरी कर दी! इतने दिनों कहाँ थे?

ज्ञान– वहीं अमेरिका में कृषिशास्त्र का अभ्यास करते रहे। दो साल तक एक कृषिशाला में काम भी किया है।

‘‘विद्या– तो आज अभी २५ तारीख है। हम लोग कल परसों तक यहाँ से चल दें। ज्ञानशंकर ने केवल इतना कहा, ‘हाँ, और क्या’ और बाहर चले गये। उनकी प्रफुल्लता एक ही क्षण में लुप्त हो गयी थी और नई चिन्ताएँ आँखों के सामने फिरने लगी थीं, जैसे कोई जीर्ण रोगी किसी उत्तेजक औषधि के असर से एक क्षण के लिए चैतन्य होकर फिर उसी जीर्णावस्था में विलीन हो जाता है। उन्होंने अब तक जो मनसूबे बाँधे थे, जीवन का जो मार्ग स्थिर किया था, उसमें अपने सिवा किसी अन्य व्यक्ति के लिए जगह न रखी थी। वह सब कुछ अपने लिए चाहते थे। अब इन व्यवस्थाओं में बहुत कुछ काट-छाँट करने की आवश्यकता मालूम होती थी। सम्भव है, जायदाद का फिर से बँटवारा करना पड़े। दीवानखाने में दो परिवारों का निर्वाह होना कठिन था। लखनपुर के भी दो हिस्से करने पड़ेंगे! ज्यों-ज्यों वह इस विषय पर विचार करते थे, समस्या और भी जटिल होती जाती थी, चिन्ताएँ और भी विषम होती जाती थी। यहाँ तक की शाम होते-होते उन्हें अपनी अवस्था असह्य प्रतीत होने लगी। वे अपने कमरे में उदास बैठे हुए थे कि राय साहब आकर बोले– वाह, तुमने तो अभी कपड़े भी न पहने, क्या सैर करने न चलोगे?

ज्ञान– जी नहीं, आज जी नहीं चाहता।

राय– कैसरबाग में आज बैंड होगा। हवा कितनी प्यारी है!

ज्ञान– मुझे आज क्षमा कीजिये।

राय– अच्छी बात है, मैं भी न जाऊँगा। आजकल कोई लेख लिख रहे हो या नहीं?

ज्ञान– जी नहीं, इधर तो कुछ नहीं लिखा।

राय– तो अब कुछ लिखो। विषय और सामग्री मैं देता हूँ। सिपाही की तलवार में मोरचा न लगना चाहिए। पहला लेख तो इस साल के बजट पर लिख दो और दूसरा गायत्री पर।

ज्ञान– मैंने तो आजकल कोई बजट सम्बन्धी लेख आद्योपान्त पढ़ा नहीं, उस पर कलम क्योंकर उठाऊँ।

राय– अजी, तो उसमें करना ही क्या है? बजट को कौन पढ़ता है और कौन समझता है। आप केवल शिक्षा के लिए और धन की आवश्यकता दिखाइये और शिक्षा के महत्त्व का थोड़ा-सा उल्लेख कीजिए, स्वास्थ्य-रक्षा के लिए और धन माँगिये और उसके मोटे-मोटे नियमों पर दो चार टिप्पणियाँ कर दीजिये। पुलिस के व्यय में वृद्धि अवश्य ही हुई होगी, मानी हुई बात है। आप उसमें कमी पर जोर दीजिए। और नयी नहरें निकालने की आवश्यकता दिखाकर लेख समाप्त कर दीजिये। बस, अच्छी-खासी बजट की समालोचना हो गयी। लेकिन यह बातें ऐसे विनम्र शब्दों में लिखिए और अर्थसचिव की योग्यता की और कार्यपटुता की ऐसी प्रशंसा कीजिए की वह बुलबुल हो जायँ और समझें कि मैंने उसके मन्तव्यों पर खूब विचार किया है। शैली तो आपकी सजीव है ही, इतना यत्न और कीजियेगा कि एक-एक शब्द से मेरी बहुज्ञता और पाण्डित्य टपके। इतना बहुत है। हमारा कोई प्रस्ताव माना तो जायेगा नहीं, फिर बजट के लेखों को पढ़ना और उस पर विचार करना व्यर्थ है।

ज्ञान– और गायत्री देवी के विषय में क्या लिखना होगा?

राय– बस, एक संक्षिप्त-सा जीवन वृत्तान्त हो। कुछ मेरे कुल का, कुछ उसके कुल का हाल लिखिये, उसकी शिक्षा का जिक्र कीजिए। फिर उसके पति का मृत्यु का वर्णन करने के बाद उसके सुप्रबन्ध और प्रजा-रंजन का जरा बढ़ाकर विस्तार के साथ उल्लेख कीजिए। गत तीन वर्षों में विविध कामों में उसने जितने चन्दें दिये हैं और अपने असामियों की सुदशा के लिए जो व्यवस्थाएँ की हैं, उनके नोट मेरे पास मौजूद हैं। उससे आपको बहुत मदद मिलेगी! उस ढाँचे को सजीव और सुन्दर बनाना आपका काम है। अन्त में लिखिएगा कि ऐसी सुयोग्य और विदुषी महिला का अब तक किसी पद से सम्मानित न होना, शासनकर्ताओं की गुणग्राहकता का परिचय नहीं देता है। सरकार का कर्त्तव्य है कि उन्हें किसी उचित उपाधि से विभूषित करके सत्कार्यों में प्रोत्साहित करें, लेकिन जो कुछ लिखिए जल्द लिखिए, विलम्ब से काम बिगड़ जायेगा।

ज्ञान– बजट की समालोचना तो मैं कल तक लिख दूँगा लेकिन दूसरे लेख में अधिक समय लगेगा। मेरे बड़े भाई, जो बहुत दिनों से गायब थे, पहली तारीख को घर आ रहे हैं। उनके आने से पहले हमें वहाँ पहुँच जाना चाहिए।

राय– वह तो अमेरिका चले गये थे?

ज्ञान– जी हाँ, वहीं से पत्र लिखा है।

राय– कैसे आदमी हैं?

ज्ञान– इस विषय में क्या कह सकता हूँ? आने पर मालूम होगा कि उनके स्वाभाव में क्या परिवर्तन हुआ है। यों तो बहुत शान्त प्रकृति और विचारशील थे।

राय– लेकिन आप जानते हैं कि अमेरिका की जलवायु बन्धु-प्रेम के भाव की पोषक नहीं है। व्यक्तिगत स्वार्थ वहाँ के जीवन का मूल तत्व है और आपके भाई साहब पर उसका असर जरूर ही पड़ा होगा।

ज्ञान– देखना चाहिए, मैं अपनी तरफ से तो उन्हें शिकायत का मौका न दूँगा।

राय– आप दें या न दें, वह स्वयं ढूँढ़ निकालेंगे। सम्भव है, मेरी शंका निर्मूल हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि निर्मूल हो, पर मेरा अनुभव है कि विदेश में बहुत दिनों तक रहने से प्रेम का बन्धन शिथिल हो जाता है।

ज्ञानशंकर अब अपने मनोभावों को छिपा न सके। खुलकर बोले–  मुझे भी यही भय है। जब छः साल में उन्होंने घर पर एक पत्र तक नहीं लिखा तो विदित ही है कि उनमें आत्मीयता का आधिक्य नहीं है। आप मेरे पितातुल्य हैं, आपसे क्या पर्दा है? इनके आने से सारे मंसूबे मिट्टी में मिल गये। मैं समझा था, चाचा साहब से अलग होकर दो-चार वर्षों में मेरी दशा कुछ सुधर जायेगी। मैंने ही चाचा साहब को अलग होने पर मजबूर किया, जायदाद की बाँट भी अपनी इच्छा के अनुसार की, जिसके लिए चचा साहब की सन्तान मुझे सदैव कोसती रहेगी, किन्तु सब किया-कराया बेकार गया।

राय साहब– कहीं उन्होंने गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर दिया तो आप बड़ी मुश्किल में फँस जायेंगे। इस विषय में वकीलों की सम्मति लिये बिना आप कुछ न कीजिएगा।

इस भाँति ज्ञानशंकर की शंकाओं को उत्तेजित करने में राय साहब का आशय क्या था, इसको समझना कठिन है। शायद यह उनके हृदयगत भावों की थाह लेना चाहते थे अथवा उनकी क्षुद्रता और स्वार्थपरता का तमाशा देखने का विचार था। वह तो यह चिनगारी दिखाकर हवा खाने चल दिये। बेचारे ज्ञानशंकर अग्नि-दाह में जलने लगे। उन्हें इस समय नाना प्रकार की शंकाएँ हो रही थीं। उनका वह तत्क्षण समाधान करना चाहते थे। क्या भाई साहब गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर सकते हैं? यदि वह ऐसा करें, तो मेरे लिए भी निकास का कोई उपाय है या नहीं? क्या राय साहब को अधिकार है कि रियासत पर ऋणों का बोझ लादते जायँ? उनकी फजूलखर्ची को रोकने की कोई कानूनी तदबीर हो सकती है या नहीं? इन प्रश्नों से ज्ञानशंकर के चित्त में घोर अशान्ति हो रही थी, उनकी मानसिक वृत्तियाँ जल रही थीं। वह उठकर राय साहब के पुस्तकालय में गये और एक कानून की किताब निकालकर देखने लगे। इस किताब से शंका निवृत न हुई। दूसरी किताब निकाली, यहाँ तक की थोड़ी देर में मेज पर किताबों का ढेर लग गया। कभी इस पोथी के पन्ने उलटते थे, कभी उस पोथी के, किन्तु किसी प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर न मिला। हताश होकर वे इधर-उधर ताकने लगे। घड़ी पर निगाह पड़ी। दस बजा चाहते थे। किताबें समेटकर रख दीं, भोजन किया, लेटे, किन्तु नींद कहाँ? चित्त की चंचलता निद्रा की बाधक है। अब तक वह स्वयं अपने जीवन-सागर के रक्षा-तट थे। उनकी सारी आकाँक्षाएँ इसी तट पर विश्राम किया करती थीं। प्रेमशंकर ने आकर इस रक्षा– तट को विध्वंस कर दिया था और उन नौकाओं को डावाँडोल। भैया क्योंकर काबू में आयेंगे? खुशामद से? कठिन है, वह एक ही घाघ हैं। नम्रता और विनय से? असम्भव। नम्रता का जवाब सदव्यवहार हो सकता है, स्वार्थ त्याग नहीं। फिर क्या कलह और अपवाद से? कदापि नहीं, इससे मेरा पक्ष और भी निर्बल हो जायेगा। इस प्रकार भटकते-भटकते सहसा ज्ञानशंकर को एक मार्ग दीख पड़ा और वह हर्षोंन्मत्त होकर उछल पड़े! वाह मैं भी कितना मन्द-बुद्धि हूँ। बिरादरी इन महाशय को घर में पैर तो रखने देगी नहीं, यह बेचारे मुझसे क्या छेड़ छाड़ करेंगे? आश्चर्य है, अब तक यह मोटी-सी बात भी मेरे ध्यान में न आयी। राय साहब को भी न सूझी। बनारस आते ही लाला पर चारों ओर से बौछारें पड़ने लगेंगी, उनके वहाँ पैर भी न जमने पायेंगे। प्रकट में मैं उनसे भ्रातृवत व्यवहार करता रहूँगा, बिरादरी की संकीर्णता और अन्याय पर आँसू बहाऊँगा, लेकिन परोक्ष में उसकी कील घुमाता रहूँगा। महीने दो महीने में आप ही भाग खड़े होंगे। शायद श्रद्धा भी उनसे खिंच जाये। उसे कुछ उत्तेजित करना पड़ेगा। धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है। लोकमत का असर उस पर अवश्य पड़ेगा। बस, मेरा मैदान साफ है। इन महाशय से डरने की कोई जरूरत नहीं। अब मैं निर्भय होकर भ्रातृ-स्नेह आचरण कर सकता हूँ।

इस विचार से ज्ञानशंकर इतने उल्फुल्ल हुए कि जी चाहा चलकर विद्या को जगाऊँ, पर जब्त से काम लिया। इस चिन्ता-सागर से निकलकर अब उन्हें शंका होने लगी कि गायत्री की अप्रसन्नता भी मेरा भ्रम है। मैं स्त्रियों के मनोभावों से सर्वथा अपरिचित हूँ। सम्भव है, मैंने उतावलापन किया हो, पर यह कोई ऐसा अपराध न था कि गायत्री उसे क्षमा न करती। मेरे दुस्साहस पर अप्रसन्न होना उसके लिए स्वाभाविक बात थी। कोई गौरवशाली रमणी इतनी सहज रीति से वशीभूत नहीं हो सकती। अपने सतीत्व-रक्षा का विचार स्वभावतः उसकी प्रेम वासना को दबा देता है। ऐसा न हो तो भी वह अपनी उदासीनता और अनिच्छा प्रकट करने के लिए कठोरता का स्वाँग भरना आवश्यक समझती है। शायद इससे उसका अभिप्राय प्रेम-परीक्षा होता है। वह एक अमूल्य वस्तु है! और अपनी दर गिराना नहीं चाहती। मैं अपनी असफलता से ऐसा दबा कि फिर सिर उठाने की हिम्मत ही न पड़ी। वह यहाँ कई दिन रही। मुझे जाकर उससे क्षमा माँगनी चाहिए थी। वह क्रुद्ध होती तो शायद मुझे झिड़क देती। वह स्वयं निर्दोष बनना चाहती थी और सारा दोष मेरे सिर रखती। मुझे यह वाकप्रहार सहना चाहिए था और थोड़े दिनों में मैं उसके हृदय का स्वामी होता। यह तो मुझसे हुआ नहीं, उलटे आप ही रूठ बैठा, स्वयं उससे आँखें चुराने लगा। उसने अपने मन में मुझे बोदा साहसहीन, निरा बुद्धू समझा होगा। खैर, अब कसर पूरी हुई जाती है। यह मानों अन्तः प्रेरणा है। इस जीवन-चरित्र के निकलते ही उसकी अवज्ञा और अभिमान का अन्त हो जायेगा। मान-प्रतिष्ठा पर जान देती है। राय साहब स्वयं गायत्री के भेष में अवतरित हुए हैं। उसकी यह आकांक्षा पूरी हुई तो फूली न समाएगी और जो कहीं रानी की पदवी मिल गयी तो वह मेरा पानी भरेगी। भैया के झमेले से छुट्टी पाऊँ तो यह खेल शुरू करूँ। मालूम नहीं, अपने पत्रों में कुछ मेरा कुशल-समाचार भी पूछती है या नहीं। चलूँ, विद्या से पूछूँ। अबकी वह इस प्रबल इच्छा को न रोक सके। विद्या बगल के कमरे में सोती थी। जाकर उसे जगाया। चौंककर उठ बैठी और बोली, क्या है? अभी तक सोये नहीं?

ज्ञान– आज नींद ही नहीं आती। बातें करने को जी चाहता है। राय साहब शायद अभी तक नहीं आये।

विद्या– वह बारह बजे के पहले कभी आते हैं कि आज ही आ जायेंगे! कभी-कभी एक दो बज जाते हैं।

ज्ञान– मुझे जरा-सी झपकी आ गई थी। क्या देखता हूँ कि गायत्री सामने खड़ी है, फूट-फूट कर रो रही है, आँखें खुल गईं। तब से करवटें बदल रहा हूँ। उनकी चिट्ठियाँ तो तुम्हारे पास आती हैं न?

विद्या– हाँ, सप्ताह में एक चिट्ठी जरूर आती है। बल्कि मैं जवाब देने में पिछड़ जाती हूँ।

ज्ञान– कभी कुछ मेरे हालचाल भी पूछती हैं?

विद्या– वाह, ऐसा कोई पत्र नहीं होता, जिसमें तुम्हारी क्षेम-कुशल न पूछती हों।

ज्ञान– बुलातीं तो एक बार उनसे जाकर मिल आता।

विद्या– तुम जाओ तो वह तुम्हारी पूजा करें। तुमसे उन्हें बड़ा प्रेम है। ज्ञानशंकर को अब भी नींद नहीं आयी, किन्तु सुख-स्वप्न देख रहे थे।

15.

प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट में उन्होंने सभी विज्ञापन पढ़ डाले। चित्त चंचल हो रहा था। बेकार बैठना मुश्किल था। इसके लिए बड़ी एकाग्रता की आवश्यकता होती है। आखिर खोंचे की चाट खाने में उनके चित्त को शान्ति मिली। बेकारी में मन बहलाने का यही सबसे सुगम उपाय है।

जब वह फिर प्लेटफार्म पर आये तो सिगनल डाउन हो चुका था। ज्ञानशंकर का हृदय धड़कने लगा। गाड़ी आते ही पहले और दूसरे दरजे की गाड़ियों में झाँकने लगे, किन्तु प्रेमशंकर इन कमरों में न थे। तीसरे दर्जे की सिर्फ दो गाड़ियाँ थीं। वह इन्हीं गाड़ियों के कमरे में बैठे हुए थे। ज्ञानशंकर को देखते ही दौड़कर उनके गले लिपट गये। ज्ञानशंकर को इस समय अपने हृदय में आत्मबल और प्रेमभाव प्रवाहित होता जान पड़ता था। सच्चे भ्रातृ-स्नेह ने मनोमालिन्य को मिटा दिया। गला भर आया और अश्रुजल बहने लगा। दोनों भाई दो-तीन मिनट तक इसी भाँति रोते रहे। ज्ञानशंकर ने समझा था कि भाई साहब के साथ बहुत-सा आडम्बर होगा, ठाट-बाट के साथ आते होंगे, पर उनके वस्त्र और सफर का सामान बहुत मामूली था। हाँ, उनका शरीर पहले से कहीं हृष्ट-पुष्ट था और यद्यपि वह ज्ञानशंकर से पाँच साल बड़े थे, पर देखने में उनसे छोटे मालूम होते थे, और चेहरे पर स्वास्थ्य की कान्ति झलक रही थी।

ज्ञानशंकर अभी तक कुलियों को पुकार ही रहे थे कि प्रेमशंकर ने अपना सब सामान उठा लिया और बाहर चले। ज्ञानशंकर संकोच के मारे पीछे हट गये कि किसी जान-पहचान के आदमी से भेंट न हो जाये!

दोनों आदमी ताँगे पर बैठे, तो प्रेमशंकर बोले– छह साल के बाद आया हूँ, पर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ से गये थोड़े ही दिन हुए हैं। घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञान– जी हाँ, सब कुशल है। आपने तो इतने दिन हो गये, एक पत्र भी न भेजा, बिल्कुल भुला दिया। आपके ही वियोग में बाबूजी के प्राण गये।

प्रेम– वह शोक समाचार तो मुझे यहाँ के समाचार पत्र से मालूम हो गया था, पर कुछ ऐसे ही कारण थे कि आ न सका! ‘‘हिन्दुस्तान रिव्यू’’ में तुमने नैनीताल के जीवन पर जो लेख लिखा था, उसे पढ़कर मैंने आने का निश्चय किया। तुम्हारे उन्नत विचारों ने ही मुझे खींचा, नहीं तो सम्भव है, मैं अभी कुछ दिन और न आता। तुम पॉलिटिक्स (राजनीति) में भाग लेते हो न?

ज्ञान– (संकोच भाव से) अभी तक तो मुझे इसका अवसर नहीं मिला। हाँ, उसकी स्टडी (अध्ययन) करता रहता हूँ।

प्रेम– कौन-सा प्रोफेशन (पेशा) अख्तियार किया?

ज्ञान– अभी तो घर के ही झंझटों से छुट्टी नहीं मिली। जमींदारी के प्रबन्ध के लिए मेरा घर रहना जरूरी था। आप जानते हैं यह जंजाल है। एक न एक झगड़ा लगा ही रहता है। चाहे उससे लाभ कुछ न हो पर मन की प्रवृत्ति आलस्य की ओर हो जाती है! जीवन के कर्म-क्षेत्र में उतरने का साहस नहीं होता। यदि यह अवलम्बन न होता तो अब तक मैं अवश्य वकील होता।

प्रेम– तो तुम भी मिल्कियत के जाल में फँस गये और अपनी बुद्धि-शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हो? अभी जायदाद के अन्त होने में कितनी कसर है?

ज्ञान– चाचा साहब का बस चलता तो कभी का अन्त हो चुका होता, पर शायद अब जल्द अन्त न हो मैं चाचा साहब से अलग हो गया हूँ।

प्रेम– खेद के साथ? यह तुमने क्या किया। तब तो उनका गुजर बड़ी मुश्किल से होता होगा?

ज्ञान– कोई तकलीफ नहीं है। दयाशंकर पुलिस में है और जायदाद से दो हजार मिल जाते हैं।

प्रेम उन्हें अलग होने का दुःख तो बहुत हुआ होगा। वस्तुतः मेरे भागने का मुख्य कारण उन्हीं का प्रेम था। तुम तो उस वक्त शायद स्कूल में पढ़ते थे, मैं कॉलेज से ही स्वराज्य आन्दोलन में अग्रसर हो गया। उन दिनों नेतागण स्वराज्य के नाम से काँपते थे। इस आन्दोलन में प्रायः नवयुवक ही सम्मिलित थे। मैंने साल भर बड़े उत्साह के काम किया। पर पुलिस ने मुझे फँसाने का प्रयास शुरू किया। मुझे ज्यों ही मालूम हुआ कि मुझ पर अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही हैं, त्यों ही मैंने जान लेकर भागने में ही कुशल समझी। मुझे फँसे देखकर बाबू जी तो चाहे धैर्य से काम लेते, चचा साहब निस्सन्देह आत्म-हत्या कर लेते। इसी भय से मैंने पत्र-व्यवहार बन्द कर दिया कि ऐसा न हो, पुलिस यहाँ लोगों को तंग करे। बिना देशाटन किए अपनी पराधीनता का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता। जिन विचारों के लिए मैं यहाँ राजद्रोही समझा जाता था उससे कहीं स्पष्ट बातें अमेरिका वाले अपने शासकों को नित्य सुनाया करते हैं, बल्कि वहाँ शासन की समालोचना जितनी ही निर्भीक हो, उतनी ही आदरणीय समझी जाती है। इस बीच में यहाँ भी विचार-स्वातन्त्र्य की कुछ वृद्धि हुई है। तुम्हारा लेख इसका उत्तम प्रणाम है। इन्हीं सुव्यवस्थाओं ने मुझे आने पर प्रोत्साहित किया और सत्य तो यह है कि अमेरिका से दिनोंदिन अभक्ति होती जाती थी। वहाँ धन और प्रभुत्व की इतनी क्रूर लीलाएँ देखीं कि अन्त में उनसे घृणा हो गयी। यहाँ के देहातों और छोटे शहरों का जीवन उससे कहीं सुखकर है। मेरा विचार भी सरल जीवन व्यतीत करने का है। हाँ, यथासाध्य कृषि की उन्नति करना चाहता हूँ।

ज्ञान– यह रहस्य आज खुला। अभी तक मैं और घर से सभी लोग यही समझते थे कि आप केवल विद्योपार्जन के लिए गये हैं। मगर आज कल तो स्वराज्य आन्दोलन बहुत शिथिल पड़ गया। स्वराज्यवादियों की जबान ही बन्द कर दी गयी है।

प्रेम– यह तो कोई बुरी बात नहीं, अब लोग बातें करने की जगह काम करेंगे। हमें बातें करते एक युग बीत गया। मुझे भी शब्दों पर विश्वास नहीं रहा। हमें अब संगठन की, परस्पर-प्रेम व्यवहार की और सामाजिक अन्याय को मिटाने की जरूरत है। हमारी आर्थिक दशा भी खराब हो रही है। मेरा विचार कृषि विधान में संशोधन करने का है। इसलिए मैंने अमेरिका में कृषिशास्त्र का अध्ययन किया है।

यों बातें करते हुए दोनों भाई मकान पर पहुँचे। प्रेमशंकर को अपना घर बहुत छोटा दिखाई दिया। उनकी आँखें अमेरिका की गगनस्पर्शी अट्टालिकाओं को देखने की आदी हो रही थीं। उन्हें कभी अनुमान ही न हुआ था कि मेरा घर इतना पस्त है। कमरे में आये तो उसकी दशा देखकर और भी हताश हो गये। जमीन पर फर्श तक न था। दो-तीन कुर्सियों जरूर थीं, लेकिन बाबा आदम के जमाने की, जिन पर गर्द जमी हुई थी। दीवारों पर तस्वीरें नई थीं, लेकिन बिल्कुल भद्दी और अस्वाभाविक। यद्यपि वह सिद्धान्त रूप से विलास वस्तुओं की अवहेलना करते थे, पर अभी तक रुचि उनकी ओर से न हटी थी।

लाला प्रभाशंकर उनकी राह देख रहे थे। आकर उनके गले से लिपट गये और फूट-फूटकर रोने लगे। मुहल्ले के और सज्जन भी मिलने आ गये। दो-ढाई घण्टों तक प्रेमशंकर उन्हें अमेरिका को वृत्तान्त सुनाते रहे। कोई वहाँ से हटने का नाम न लेता था। किसी को यह ध्यान न होता था कि ये बेचारे सफर करके आ रहे हैं, इनके नहाने खाने का समय आ गया है, यह बातें फिर सुन लेगें। आखिर ज्ञानशंकर को साफ-साफ कहना पड़ा कि आप लोग कृपा करके भाई साहब को भोजन करने का समय दीजिए, बहुत देर हो रही है।

प्रेमशंकर ने स्नान किया, सन्ध्या की और ऊपर भोजन करने गये। उन्हें आशा थी कि श्रद्धा भोजन परसेगी, वहीं उससे भेंट होगी, खूब बातें करूँगा। लेकिन यह आशा पूरी न हुई। एक चौकी पर कालीन बिछा हुआ था थाल परसा रखा था, पर श्रद्धा वहाँ पर उनका स्वागत करने के लिए न थी। प्रेमशंकर को उसकी इस हृदय शून्यता पर बड़ा दुःख हुआ। श्रद्धा से प्रेम उनके लौटने का एक मुख्य कारण था। उसकी याद इन्हें हमेशा तड़पाया करती थी उसकी प्रेम-मूर्ति सदैव उनके हृदय नेत्रों के सामने रहती थी। उन्हें प्रेम के बाह्याडम्बर से घृणा थी। वह अब भी स्त्रियों की श्रद्धा, पति-भक्ति, लज्जाशीलता और प्रेमनुराग पर मोहित थे। उन्हें श्रद्धा को नीचे दीवानखाने में देखकर खेद होता, पर उसे यहाँ न देखकर उनका हृदय व्याकुल हो गया। यह लज्जा नहीं, हया नहीं, प्रेम शैथिल्य है। वह इतने मर्माहत हुए कि जी चाहा इसी क्षण यहाँ से चला जाऊँ और फिर आने का नाम न लूँ, पर धैर्य से काम लिया। भोजन पर बैठे। ज्ञानशंकर से बोले, आओ भाई बैठो। माया कहाँ है, उसे भी बुलाओ, एक मुद्दत के बाद आज सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

ज्ञानशंकर ने सिर नीचा करके कहा– आप भोजन कीजिए, मैं फिर खा लूँगा।

प्रेम– ग्यारह तो बज रहे हैं, अब कितनी देर करोगे? आओ, बैठ जाओ। इतनी चीजें मैं अकेले कहाँ तक खाऊँगा? मुझे अब धैर्य नहीं है। बहुत दिनों के बाद चपातियों के दर्शन हुए हैं। हलुआ, समोसे, खीर आदि का तो स्वाद ही मुझे भूल गया। अकेले खाने में मुझे आनन्द नहीं आता। यह कैसा अतिथि सत्कार है कि मैं तो यहाँ भोजन करूँ और तुम कहीं और। अमेरिका में तो मेहमान इसे अपना घोर अपमान समझता।

ज्ञान– मुझे तो इस समय क्षमा ही कीजिए। मेरी पाचन-शक्ति दुर्बल है, बहुत पथ्य से रहता हूँ।

प्रेमशंकर भूल ही गये थे कि समुद्र में जाते ही हिन्दू-धर्म धुल जाता है। अमेरिका से चलते समय उन्हें ध्यान भी न था कि बिरादरी मेरा बहिष्कार करेगी, यहाँ तक कि मेरा सहोदर भाई मुझे अछूत समझेगा। पर इस समय उनके बराबर आग्रह करने पर भी ज्ञानशंकर उनके साथ भोजन करने नहीं बैठे और एक-न-एक बहाना करके टालते रहे तो उन्हें भूली हुई बात याद आ गयी। सामने के बर्तनों ने इस विचार को पुष्ट कर दिया, फूल या पीतल का कोई बर्तन न था। सब बर्तन चीनी के थे और गिलास शीशे का। शंकित भाव से बोले, आखिर यह बात क्या है कि तुम्हें मेरे साथ बैठने में इतनी आपत्ति है? कुछ छूत-छात का विचार तो नहीं है?

ज्ञानशंकर ने झेंपते हुए कहा– अब मैं आपसे क्या कहूँ? हिन्दुओं को तो आप जानते ही हैं, कितने मिथ्यावादी होते हैं। आपके लौटने का समाचार जब से मिला है, सारी बिरादरी में एक तूफान-सा उठा हुआ है। मुझे स्वयं विदेशी यात्रा में कोई आपत्ति नहीं है। मैं देश और जाति की उन्नति के लिए इसे जरूरी समझता हूँ और स्वीकार करता हूँ कि इस नाकेबन्दी से हमको बड़ी हानि हुई है, पर मुझे इतना साहस नहीं है कि बिरादरी से विरोध कर सकूँ।

प्रेम– अच्छा यह बात है! आश्चर्य है कि अब तक क्यों मेरी आँखों पर परदा पड़ा रहा! अब मैं ज्यादा आग्रह नहीं करूंगा। भोजन करता हूँ, पर खेद यह है कि तुम इतने विचारशील होकर बिरादरी के गुलाम बने हुए हो; विशेषकर जब तुम मानते हो कि इस विषय में बिरादरी का बन्धन सर्वथा असंगत है। शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो, न यह कि उसके दबाव से अपने सिद्धान्तों को बलिदान कर दो। यदि तुम स्वाधीन भाव से समुद्र यात्रा को दूषित समझते तो मुझे कोई आपत्ति न होती। तुम्हारे विचार और व्यवहार अनुकूल होते। लेकिन अन्तःकरण से किसी बात से कायल होकर केवल निन्दा या उपहास के भय से उसको व्यवहार न करना तुम जैसे उदार पुरुष को शोभा नहीं देता। अगर तुम्हारे धर्म में किसी मुसाफिर की बातों पर विश्वास करना मना न हो तो मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि अमेरिका में मैंने कोई ऐसा कर्म नहीं किया जिसे हिन्दू-धर्म निषिद्ध ठहराता हो। मैंने दर्शन शास्त्रों पर कितने ही व्याख्यान दिए, अपने रस्म-रिवाज और और वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने में सदैव तत्पर रहा, यहाँ तक कि पर्दे की रस्म की भी सराहना करता रहा; और मेरा मन इसे कभी नहीं मान सकता कि यहाँ किसी को मुझे विधर्मी समझने का अधिकार है। मैं अपने धर्म और मत का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा पहले था– बल्कि उससे ज्यादा। इससे अधिक मैं अपनी सफाई नहीं दे सकता।

ज्ञान– इस सफाई की तो कोई जरूरत ही नहीं क्योंकि यहाँ लोगों को विदेशी-यात्रा पर अश्रद्धा है, वह किसी तर्क या सिद्धान्त के अधीन नहीं हैं। लेकिन इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि हिन्दू-धर्म कुछ रीतियों और प्रथाओं पर अवलम्बित है और विदेश में आप उनका पालन समुचित रीति से नहीं कर सकते। आप वेदों से इनकार कर सकते हैं, ईसा मूसा के अनुयायी बन सकते हैं, किन्तु इन रीतियों को नहीं त्याग सकते। इसमें संदेह नहीं कि दिनों-दिन यह बन्धन ढीले होते जाते हैं और इसी देश में ऐसे कितने ही सज्जन हैं जो प्रत्येक व्यवहार का भी उलंघन करके हिन्दू बने हुए हैं किन्तु बहुमत उनकी उपेक्षा करता है और उनको निन्द्य समझता है। इसे आप मेरी आत्मभीरुता या अकर्मण्यता समझें, किन्तु मैं बहुमत के साथ चलना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। मैं बलप्रयुक्त सुधार का कायल नहीं हूँ मेरा विचार है कि हम बिरादरी में रहकर उससे कहीं अधिक सुधार कर सकते हैं जितना स्वाधीन होकर।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ जवाब न दिया। भोजन करके लेटे तो अपनी परिस्थिति पर विचार करने लगे। मैंने समझा था यहाँ शान्तिपूर्वक अपना काम करूँगा, कम-से-कम अपने घर में कोई मुझसे विरोध न करेगा, किन्तु देखता हूँ, यहाँ कुछ दिन घोर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा। ज्ञानशंकर के उदारतापूर्ण लेख ने मुझे भ्रम में डाल दिया। खैर कोई चिन्ता नहीं, बिरादरी मेरा कर ही क्या सकती है? उसमें रहकर मुझमें कौन-से सुर्खाब के पर लग जायेंगे। अगर कोई मेरे साथ नहीं खाता तो न खाय, मैं भी उसके साथ न खाऊँगा। कोई मुझसे सहवास नहीं करता, न करे, मैं भी उससे किनारे रहूँगा। वाह! परदेश क्या गया, मानो कोई पाप किया; पर पापियों को तो कोई बिरादरी से च्युत नहीं करता। धर्म बेचने वाले, ईमान बेचनेवाले, सन्तान बेचने वाले बँगले में रहते हैं, कोई उनकी ओर कड़ी आँख से देख नहीं सकता। ऐसे पतितों, ऐसे भ्रष्टाचारियों में रहने के लिए मैं अपनी आत्मा का सर्वनाथ क्यों करूँ?

अकस्मात् उन्हें ध्यान आया, कहीं श्रद्धा भी मेरा बहिष्कार न कर रही हो! इन अनुदान भावों का उस पर भी असर न पड़ा हो! फिर तो मेरा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। इस शंका ने उन्हें घोर चिन्ता में डाल दिया और तीसरे पहर तक उनकी व्यग्रता इनती बढ़ी कि वह स्थिर न रहे सके। माया से श्रद्धा का कमरा पूछकर ऊपर चढ़ गये।

श्रद्धा इस समय अपने द्वार पर इस भाँति खड़ी थी, जैसे कोई पथिक रास्ता भूल गया हो। उसका हृदय आनन्द से नहीं, एक अव्यक्त भय से काँप रहा था। यह शुभ दिन देखने के लिए कितनी तपस्या की थी! यह आकांक्षा उसके अन्धकारमय जीवन का दीपक, उसकी डूबती हुई नौका की लंगर थी। महीने के तीस दिन और दिन के चौबीस घण्टे यही मनोहर स्वप्न देखने में कटते थे। विडम्बना यह थी कि वे आकांक्षाएँ और कामनाएँ पूरी होने के लिए नहीं, केवल तड़पाने के लिए थीं। वह दाह और सन्तोष शान्ति का इच्छुक न था। श्रद्धा के लिए प्रेमशंकर केवल एक कल्पना थे। इसी कल्पना पर वह प्राणार्पण करती थी उसकी भक्ति केवल उनकी स्मृति पर थी, जो अत्यन्त मनोरम, भावमय और अनुरागपूर्ण थी। उनकी उपस्थिति ने इस सुखद कल्पना और मधुर स्मृति का अन्त कर दिया। वह जो उनकी याद पर जान देती थी, अब उनकी सत्ता से भयभीत थी, क्योंकि वह कल्पना धर्म और सतीत्व की पोषक थी, और यह सत्ता उनकी घातक। श्रद्धा को सामाजिक अवस्था और समयोजित आवश्यकताओं का ज्ञान था। परम्परागत बन्धनों को तोड़ने के लिए जिस विचारस्वातन्त्र्य और दिव्य ज्ञान की जरूरत थी उससे वह रहित थी। वह एक साधारण हिन्दू अबला थी। वह अपने प्राणों से अपने प्राणप्रिय स्वामी के हाथ धो सकती थी, किन्तु अपने धर्म की अवज्ञा करना अथवा लोक-निन्दा को सहन करना उसके लिए असम्भव न था। जब उसने सुना था कि प्रेमशंकर घर आ रहे हैं, उसकी दशा उस अपराधी की-सी हो रही थी, जिसके सिर पर नंगी तलवार लटक रही हो। आज जब से वह नीचे आकर बैठे थे उसके आँसू एक क्षण के लिए भी न थमते थे। उसका हृदय काँप रहा था कि कहीं वह ऊपर न आते हों, कहीं वह आकर मेरे सम्मुख खड़े न हो जायँ, मेरे अंग को स्पर्श न कर लें! मर जाना इससे कहीं आसान था। मैं उनके सामने कैसे खड़ी हूँगी, मेरी आँखें क्योंकर उनसे मिलेंगी, उनकी बातों का क्योंकर जवाब दूँगी? वह इन्हीं जटिल चिन्ताओं में मग्न खड़ी थी इतने में प्रेमशंकर उसके सामने आकर खड़े हो गये। श्रद्धा पर अगर बिजली गिर पड़ती, भूमि उसके पैरों के नीचे से सरक जाती अथवा कोई सिंह आकर खड़ा हो जाता तो भी वह इतनी असावधान होकर अपने कमरे में भाग न जाती। वह तो भीतर जाकर एक कोने में खड़ी हो गई। भय से उसका एक-एक रोम काँप रहा था। प्रेमशंकर सन्नाटे में आ गये। कदाचित् आकाश सामने से लुप्त हो जाता तो भी उन्हें इतना विस्मय न होता। वह क्षण भर मूर्तिवत् खड़े रहे और एक ठण्डी सांस लेकर नीचे की ओर चले। श्रद्धा के कमरे में जाने, उससे कुछ पूछने या कहने का साहस उन्हें न हुआ इस दुरानुराग ने उनका उत्साह भंग कर दिया, उन काव्यमय स्वप्नों का नाश कर जो बरसों से उनकी चैतन्यावस्था के सहयोगी बने हुए थे। श्रद्धा ने किवाड़ की आड़ से उन्हें जीने की ओर जाते देखा। हा! इस समय उसके हृदय पर क्या बीत रही थी, कौन जान सकता है? उसका प्रिय पति जिसके वियोग में उसने सात वर्ष रो-रो कर काटे थे सामने से भग्न हृदय, हताश चला जा रहा था और वह इस भाँति सशंक खड़ी थी मानो आगे कोई जलागार है। धर्म पैरों को पढ़ने न देता था। प्रेम उन्मत्त तरंगों की भाँति बार-बार उमड़ता था, पर धर्म की शिलाओं से टकराकर लौट आता था। एक बार वह अधीर होकर चली कि प्रेमशंकर का हाथ पकड़कर फेर लाऊँ द्वार तक आई, पर आगे न बढ़ सकी। धर्म ने ललकारकर कहा, प्रेम नश्वर है, निस्सार है, कौन किसका पति और कौन किसकी पत्नी? यह सब माया जाल है। मैं अविनाशी हूँ, मेरी रक्षा करो। श्रद्घा स्तम्भित हो गयी। मन में स्थिर किया जो स्वामी सात समुन्दर पार गया, वहाँ न जाने क्या खाया, क्या पीया, न जाने किसके साथ रहा, अब उससे मेरा क्या नाता? किन्तु प्रेमंशकर जीने से नीचे उतर गये तब श्रद्धा मूर्छित होकर गिर पड़ी। उठती हुई लहरें टीले को न तोड़ सकीं, पर तटों की जल मग्न कर गयीं।

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