प्रायश्चित (नाटक) : जयशंकर प्रसाद
Prayshchit (Hindi Play) : Jaishankar Prasad
पात्र-सूची
जयचन्द
मंत्री
सेनापति
मुहम्मदगोरी
शफक।
चर
गोरी के दरबारी
दो विद्याधारियाँ - विहारिणी, विलासिनी
प्रथम दृश्य
[समय - रात्रि; स्थान - कगार, नदी का किनारा - रण-भूमि](दो विद्याधरियों का प्रवेश।)
पहली - “क्यों री विहारिणी ! आज कहां घूमने आयी है। यह तो बड़ा भयानक दृश्य है। कोई रण-भूमि है क्या ?"
दूसरी - “विलासिनी ! तुझे तो अपने गन्धमादन-विलास से छुट्टी ही नहीं। क्या मालूम कि संसार में क्या हो रहा है ?"
प. - "मुझे तो सचमुच इधर का हाल कुछ भी नहीं मालूम। हाँ री सखी ! भला यह सब क्या हुआ है ?"
दू. - "हां ! तुझ से क्या कहें, और तुझे इतना भी नहीं ज्ञात है कि हिन्दू-साम्राज्य सूर्य इसी रण-भूमि-अस्ताचल में डूबा है। चौहान कुल-भूषण पृथ्वीराज का इसी युद्ध में सर्वस्वान्त हुआ ?"
प. - "विहारिणी ! भला कह तो, यह वीर कैसे गिराया गया ? क्या उसके हाथ में लोहे की कमान नहीं थी ? क्या उसका साहस क्षीण हो गया था ? आश्चर्य! जिस पृथ्वीराज के भुजबल से अनेक बार यवनसमूह पराजित हुआ है, उसका यह परिणाम ?"
दू. - "विलासिनी ! यदि भाई का शत्रु, भाई न हो - यदि शैलवासिनी सरिता ही श्रृंग को न तोड़े - तो भला दूसरा क्या कर सकता है।"
प. - "क्या किसी नीच भारतवासी का ही काम है ?"
दू. - "हाँ, पृथ्वीराज के श्वसुर जयचन्द का।"
प. - “भला सखी ! मैंने तो सुना था कि जयचन्द ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण उनके साथ करा दिया और फिर कोई वैमनस्य न रहा, तब ऐसा क्यों हुआ ?"
दू. - “प्रतिहिंसा आत्मसम्मान और दुर्दमनीय वृत्ति के वशीभूत होकर यह सब हुआ है। स्वयं लड़ नहीं सकता था, लड़ने के लिए साधन चाहिए। और फिर किसके साथ ! जामाता से प्रकाश्य युद्ध कैसे हो, इसलिये यवन बुलाये गये और आर्य साम्राज्य का नाश किया गया।"
प. - “सखी ! हिंसा कैसी बुरी वस्तु है। देख इसने कैसा भयंकर कार्य, किया।"
दू. - "सीधी ! इस रही-सही ‘प्रतिहिंसा’ को भी भारतवासियों के लिए ईश्वर की दया समझ। जिस दिन इसका लोप होगा, उस दिन से तो इनके भाग्य में दासत्व करना लिखा ही है।"
प. - "विहारिणी ! तेरी बातें तो सब बे सिर-पैर की होती हैं। भला, प्रतिहिंसा भी कोई अच्छी वस्तु है, जिस पर तू इतना कह गई है।"
दू. - "विलासिनी ! जिस दिन से कोई जाति, अपने आत्मगौरव के शत्रु से बदला लेना भूल जाती है, उसी दिन उसका मरण होता है! सब, जब अपने व्यक्तिगत सम्मान की रक्षा करते हैं, तब उस समष्टि रूपी जाति या समाज की रक्षा स्वयं हो जाती है, और नहीं तो अपमान सहते-सहते उसकी आदत ही वैसी पड़ जाती है। फिर शक्ति का उपयोग और नहीं हो सकता, और शक्ति के उपयोग न होने से वह धीरे-धीरे उत्पन्न हो जाती है। इसलिए मैं कहती हूँ कि यह थोड़ी बची हुई प्रतिहिंसा यदि जागृत रही, तो फिर भी मनुष्य अपने को समझ सकता है।"
प. - "तू तो ज्ञान छाँटने लगती है और ऐसी रूखी बन जाती है कि दया का लेश भी छू नहीं जाता। देख, वह प्यास से एक आहत तड़प रहा है। चल, उसे नदी का जल पिला कर तृप्त करें।"
दू. - "ठहर; देख, यह कौन है। अरे यह तो दुष्ट जयचन्द ही है। सखी, तू भी अन्तरिक्ष में हो जा और मैं भी अन्तरिक्ष होकर चाण्डाल से कुछ प्रायश्चित कराया चाहती हूँ। उसी ओर चले।"
(प्रस्थान)
द्वितीय दृश्य
[स्थान - रणभूमि का ही एक हिस्सा। श्मशान - बुझती हुई चिता, अन्धकार]
(जयचन्द का प्रवेश)
जयचन्द - "ह ह ह ह ह, मैं आज पिशाचों की क्रीड़ा देखने आया हूँ। और इस बुझती हुई पृथ्वीराज की चिता को देखकर अपनी हिंसा की आग भी बुझाना चाहता हूँ (ठहर कर) उसके मस्तक को तो नहीं पा सकता, पर उसकी राख को मैं अवश्य अपने पैरों से कुचलूंगा।"
(आकाश से शब्द) - “हाँ रे हाँ, पृथ्वीराज के साथ अपनी त्रैलोक्यसुन्दरी, कन्या की राख को भी तू कुचलेगा।"
जयचन्द - (भीत होकर - साहस के साथ) नहीं, मैं तो अपने शत्रु की राख को बिखेरना चाहता हूँ।"
(आकाश से) - "भला, यह तो बता, तूने अपनी कन्या को कैसा सुख दिया।"
जयचन्द - (गर्व से) “अरे तू है कौन, जो व्यर्थ बक-बक करता है। वह, जब तक कुमारी रही, फूलों में पली, जब युवती हुई, योग्य पति को वरण किया, इससे बढ़कर स्त्री को कौन सुख मिलेगा ?"
(आकाश से) - "नराधम ! अब उसकी क्या दशा है ?"
जयचन्द - "जो आर्य ललनाओं की होती है। सुन चुकी होगी, तो मर गई होगी, नहीं तो सुनते ही प्राणत्याग करने का उद्योग करेगी।"
(आकाश से) - "दुष्ट इसी चिता की धूलि में उस फूल का भी पराग मिला हुआ है, जिसे तू कुचलेगा।"
जयचन्द - (करुणार्द स्वर से) "क्या संयोगिता सती हो गयी ?"
(आकाश से) - "हाँ, तूने ही तो अपने हाथ से उसके सती होने की तैयारी की थी।"
जयचन्द - "क्षत्राणी थी। यह ठीक भी था। पर हाय संयोगिते! तू अभी बिना कली की आशालता थी, यही दुःख है - (मोह)”
(आकाश से) - "क्यों अब रोने लगा ? कुचल, उस राख को कुचल, अपनी छाती ठंढी कर !"
जयचन्द - (आकाश की ओर देखकर) “हाय, संयोगिते ! मैंने तुझे कुछ भी सुख न दिया ! अपने स्वार्थ के लिए अपनी जिघांसावृत्ति की तृप्ति के लिए, अपने पाले हुए हरिणशावक पर ही शर-सन्धान किया।"
(आकाश से) - "अभी क्यों रोता है, अभी तो तुझे बहुत रोना पड़ेगा। तू ही नहीं, तेरे इस कार्य से सारे भारतवासियों को रोना पड़ेगा। और उनके घृणा-प्रकाश करने पर तेरी आत्मा सदा रोती रहेगी। पहले, अपने लगाये हुए विष-वृक्ष के फल को चख, फिर तू उसी लकड़ी से जलाया जायगा कि नहीं, इसकी खोज पीछे करना। अपनी प्रतिहिंसा से तृप्त हो जा। इस राख को, जिसमें संयोगिता और पृथ्वीराज की राख मिली हुई है, अपने पवित्र चरणों से पवित्र तो कर दे।"
जयचन्द - "भाई तुम कौन हो, क्यों मुझे सता रहे हो।"
(आकाश से) - "अभी तो तू यहाँ पिशाचों की क्रीड़ा देखने आया था और मैंने भी सोच रक्खा था, कि तू भी किसी नरपिशाच से कम नहीं। देखें किसकी क्रीड़ा अच्छी होती है। पृथ्वीराज की खोपड़ी एक पिशाच के हाथ में दे और संयोगिता की तू ले। दोनों लड़ा कर देख, कौन फूटती है।"
जयचन्द - "हाय-हाय ! मुझ से घोर दुष्कर्म हुआ।"
(आकाश से) - “और तुझे घोर प्रायश्चित भी करना होगा।
जयचन्द - (हाथ जोड़कर) “तुम सच में कोई देवदूत हो। कृपाकर यह बतलाओ कि इसका क्या प्रायश्चित है। मैं उसे अवश्य करूंगा।
(आकाश से) - "जामातृवध के लिए शत्रु वध, और देशद्रोह के लिए आत्मवध।"
(जयचन्द मूर्छित होता है। एक मन्द प्रकाश के साथ पटाक्षेप)
तृतीय दृश्य
(राजभवन-कन्नौज)
जयचन्द - "मन्त्रिवर, उस छली यवन ने क्या विजित भूमि देना अस्वीकार किया ?"
मंत्री - "हाँ महाराज ! वह कहता है, कि यदि महाराज को फिर दिल्ली का राज्य मिल जायेगा, तो उसको कई बार दिल्ली विजय करना पड़ेगा। इसलिए वह झंझट नहीं बढ़ाना चाहता।"
जयचन्द - मन्त्रिवर ! क्या सारे पाप का यही परिणाम हुआ ?”
मंत्री - सो तो हुआ महाराज !
जयचन्द - "नहीं मंत्री महाशय, ऐसा नहीं होगा। देखो जब दिल्लीराज ने इस पृथ्वीराज को अपना महाराज्य समर्पित किया था, उसी समय मेरे हृदय-वन में एक विषवृक्ष का बीज, बड़े विषैले कांटे से खोद कर गाड़ा गया। अब उस वृक्ष को उखाड़कर क्या उसका सुख न भोग सकूंगा ?"
मंत्री - "महाराज के हाथों भारत-दुर्भाग्य ने सब कुछ कराया। क्या आश्चर्य है, कि यह भी हो जाय।"
जयचन्द - (खड़ा होकर) "नहीं, नहीं ! खड्गबाल से सहायता मिलेगी। जयचन्द निरा कायर नहीं है। इस थके हुए लुटेरे को, जिसका बल क्षीण हो गया है, विजय कर लेना कौन-सी बड़ी बात है।"
मंत्री - "आप जो न करें सो थोड़ा है। मैं आपको सलाह क्या दे सकता हूँ, पर इतना अवश्य कहूँगा, कि आप भी सन्नद्ध रहिये। यवन भी इसी ध्यान में है कि अभी पृथ्वीराज अधमरा है।"
जयचन्द - "मंत्री महाशय, सैन्य सुसज्जित रखने के लिये सेनापति के पास आज्ञापत्र भेज दो। किन्तु फिर युद्ध... अच्छा (चमक उठता है) हैं, यह क्या ? वह दूर कैसा धुंधला उजाला हो रहा है ? अरे... इसमें कोई आकृति, हां हां वही तो हैं, संयोगिता..."
मंत्री - "महाराज ! क्या आपको भ्रम हो रहा है ? कहां ध्यान है।"
जयचन्द - "भ्रम नहीं, मन्त्रिवर, भ्रम नहीं होता है। मैंने प्रायश्चित करने की प्रतिज्ञा की है।"
मंत्री - "कैसा प्रायश्चित महाराज ?"
जयचन्द - "पाप का। मंत्री, जिसे मैंने किया है। देखो, मन्त्रिवर एक पुच्छ-मर्दिता सिहिनी-मूर्ति प्रायश्चित्त करने को अपनी उँगली उठाकर मुझे चिताती है। देखो, वह..."
मंत्री - "महाराज ! आप कैसी उन्मत्त की-सी बातें कर रहे है ? यह समय धैर्य का है। आप को एक प्रबल शत्रु से सामना करना है, उसके सामने क्या आप इसी तरह से रक्षा करेंगे ?"
जयचन्द - “क्या कहा, शत्रु कहां है। सभी तो हैं। तुम भी हमारे शत्रु हो। क्या तुम नहीं हो ? संसार ही शत्रु है, उससे क्या करें। बोले, कहो कौन मित्र है ?"
मंत्री - "महाराज, सावधान हूजिये, बड़ा विषम समय है।"
जयचन्द - “हां मंत्री, क्या कहा विष ? हां, यह भी तो प्रायश्चित का एक उपकरण है?"
मंत्री - "हा शोक !"
(जाता है)
(राजा जयचन्द स्तब्ध बैठ जाता है)
[पट-परिवर्तन]
चतुर्थ दृश्य
(दिल्ली दरबार, मुहम्मद गोरी सिंहासनासीन)
दरबारी - "शाहंशाह को तख्ते हिन्दोस्तान मुबारक हो।"
मुहम्मद - "बहादुर सरदारो ! दीन इस्लाम को तख्ते हिन्दोस्तान मुबारक हो।"
मुहम्मद - “आमीं, आमी ।”
मुहम्मद - "बहादुर शफ़क़त! आज सचमुच हिन्दोस्तान हलाली झंडे के नीचे आ गया। और यह सब तो एक बात है, दर असल खुदाये पाक को अपने पाक मजहब को जीनत देना मंजूर है। नहीं तो भला इन फौलादी देवजादे हिन्दुओं पर फतह पाना क्या मुमकिन था।"
दरबारी - "कभी नहीं, हरगिज नहीं।"
शफ़क़त - "लेकिन हुजूर रायपिथौरा भी एक ही देवसूरत और बहादुर शख्स था। बेहोश होने पर ही कब्जे में आया।"
एक दरबारी - "अजी, क्या उस मूजी की तारीफ करते हो।"
मुहम्मद - "नहीं अनवर ! तुम भूल करते हो । हकीकत में वह शख्स काबिल तारीफ था। और मुसलमानों को भी वैसा ही मजहब का पक्का होना चाहिए। देखो, कितनी बेरहमी से उसका कत्ल किया गया, मगर उस काफिर ने पाक दीन इस्लाम को नहीं कुबूल किया। वाकई बहादुर था।"
दरबारी - (सर झुकाकर) "बजा इर्शाद।"
शफ़क़त - "मगर हुजूर ! कमबख्त, काफिर जयचन्द भी खूब ही छका। उसने समझ रक्खा था कि ‘तख्ते देहली हमीं को मिलेगा।’ आप के जवाब ने तो उस पर कोह ढहा दिया होगा। चकनाचूर कर दिया होगा।"
मुहम्मद - (हँसकर) "एक ही बेवकूफ है। पूरा उल्लू बना। (कुछ सोच कर) मगर शफ़क़त, इस दुश्मन को भी लगे हाथ न कमजोर करेंगे तो यह भारी नुकसान पहुँचावेगा।"
दरबारी - (खड़े होकर तलवार निकालकर) "शाहंशाहे आलम ! जंग ! फतह !!"
मुहम्मद - बहादुर सरदारो। बैठो। आज फतह की खुशी मनाओ। कल इसका बहुत जल्द इन्तजाम होगा।"
(इनाम देता है)
[पटाक्षेप]
पञ्चम दृश्य
(दुर्ग का एक भाग)
(जयचन्द और मंत्री)
जयचन्द - "मंत्री ! उन दुष्ट राजाओं ने क्या उत्तर दिया ?"
मंत्री - "महाराज ! किसी ने कहा कि - ‘क्या महाराज फिर कोई राजसूय यज्ञ करेंगे, जो बुलावा हो रहा है ? अच्छा उपहार की सामग्री एकत्र कर के आता हूँ।’ किसी ने कहा - ‘मैंने महाराज की आज्ञा से सेना घटा दी है। जब सब सेना एकत्र होगी, तब आऊँगा।’ किसी ने उत्तर दिया कि - ‘जहाँ तक हो सकेगा शीघ्र आऊँगा।"
जयचन्द - "कहो, कहो, सत्य और शीघ्र कहो।"
मंत्री - "महाराज ! किसी-किसी ने यह भी कहा है कि हम देशद्रोही का साथ न देंगे। यदि यवन लोग आप से चढ़ आते, तो अवश्य हम उनकी सहायता करते, पर जब उन्होंने स्वयं उसे बुलाया है, तब हम लोग कुछ नहीं कर सकते।"
जयचन्द - "हाँ ! मंत्री ! जयचन्द के अधीन राजाओं और सरदारों को ऐसा कहने का हौसला हो गया ? चलो, अच्छा हुआ। तुमने रक्षा का क्या उपाय सोचा है ?"
मंत्री - "महाराज ! चौहान और राठौर के युद्ध में साहसी शूर और राज-भक्त सेना कट चुकी है, यह तो महाराज को मालूम ही होगा। जो कुछ है, तैयार हो रही है।"
(चर का प्रवेश)
चर - "महाराज की जय हो ! मंत्री महाशय ! अभिवादन करता हूँ।"
मंत्री - "कुशल तो है ? कहो क्या समाचार है ?"
चर - "महाराज ! यवनों की एक बड़ी सेना इसी ओर चुपचाप बढ़ती चली आ रही है। सम्भव है कि पहर-दो-पहर में वह कन्नौज तक पहुँच जाय।"
जयचन्द - “मंत्री ! क्या होगा ?”
मंत्री “महाराज ! आप वीर है, युद्ध के लिए प्रस्तुत होइये।
जयचन्द - (सोचकर) "नहीं मंत्री ! इन मेरी पाप-भूषित भुजाओं में अब वह बल नहीं है कि युद्ध करूं। लो शीघ्र राजकुमार को बुलाओ। यह राज्य उनका है, अब वही इसकी रक्षा करें। मुझसे कोई संसर्ग नही है।"
मंत्री - "महाराज ! वह नये राजकुमार है, भला ऐसे संकट में उनसे रक्षा होगी ?"
जयचंद - "भला मंत्री ! तुम नहीं जानते कि मुझे प्रायश्चित्त करना है। (आकाश की ओर) देखो, देखो, वह कौन मूर्ति है ! हाँ हां, देवि ! क्रुद्ध न हो, मैं अवश्य प्रायश्चित करूँगा। लो मैं जाता हूँ (मंत्री से) मंत्री ! तुम जानो, राजकुमार जाने। कन्नौज राज्य से मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं। मैं प्रायश्चित करने जाता हूँ।"
(प्रस्थान पटाक्षेप)
षष्ट दृश्य
स्थान - गंगा-तट
(जयचन्द और साथी)
जयचन्द - "सैनप ! तुम मेरे साथ क्यों आ रहे हो ? क्या यहां भी कोई सेना है ? जाओ, यदि तुम्हारे किये कुछ हो सके, तो कन्नौज की रक्षा करो। और नहीं तो मरने ही की ठीक प्रतिज्ञा हो, तो चलो। गंगा-तट से बढ़कर कौन-सी भूमि है !"
सैनप - "महाराज, वीरों के लिए रण-गंगा से बढ़कर दूसरा पुण्यतीर्थ नहीं है। परन्तु करूँ क्या, मेरे ऊपर आपकी रक्षा का भार है।"
जयचंद - "ह ह ह ह, पर यह भी जानते हो कि मेरे ऊपर कितने पापों का भार है? भला सब तुम्हारे उठाये उठेगा ? मैं तो प्रायश्चित्त करने जाता हूँ, तुम्हारा तो कोई पापकर्म प्रकट नहीं हैं। फिर तुम क्यों चलते हो ? जाओ, जल्दी अपने देश के कार्य में अपने हाथों को लगाओ !"
सैनप - "महाराज आप !"
जयचन्द - "बोलो मत, मैं एक बार फिर उसी गजेन्द्र पर चढ़कर प्रायश्चित करूँगा, जिस मदान्ध पर चढ़कर मैं भी मदान्ध हो गया था। हाँ सैनप, एक बात कहना मैं भूल गया था। कन्नौज निवासियों से कह देना कि तुम्हारे पापी राजा ने, जिनकी तुम लोगों ने बहुत-सी आज्ञाएँ मानी है, एक अन्तिम प्रार्थना यह की है कि यदि हो सके, तो शहाबुद्दीन का बध करके उसकी रक्तधारा से दो-एक अंजुली, जयचन्द के नाम पर देना, क्योंकि पापियों को नरक में यही पीने को मिलता है। बस, जाओ।"
(सैनप का प्रस्थान, जयचन्द का गजारोहण, और गंगा में धँसना)
जयचंद - बस महाशय ठहरो ! (आकाश की ओर देखकर) देवि ! एक तो मैं नही कर सका; पर दूसरा तो मेरे वश में है, वह प्रायश्चित करता हूँ। देशद्रोह के लिए आत्म-वध। हाँ फिर, इससे बढ़कर दूसरा कहाँ है ? पतित पावनी प्रणाम (कूद पड़ता है)
(पटाक्षेप)