Pravahan (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

प्रवाहण (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

8. प्रवाहण
स्थान : पंचाल (युक्त-प्रान्त)
काल : ७०० ई० पू०

1.

"एक ओर हरा-हरा वन, उसमें फले करौदों की मादक गंध; पक्षियों का मधुर कूजन; दूसरी ओर बहती गंगा की निर्मल धारा, उसकी कछार में चरती हमारी हजारों कपिला-श्यामा गाएँ, जिनके बीच हुँकारते विशाल बलिष्ठ वृषभ-कभी इन दृश्यों से भी आँखों को तृप्त करना चाहिए, प्रवाहण ! तू तो सदा कभी उद्गीथ (साम) के गाने में लगा रहता है और कभी वशिष्ठ तथा विश्वामित्र के मंत्रों की आवृत्ति में ।"

"लोपा, तेरी आँखें वह दृश्य देखती हैं और मैं आँखों को देखकर तृप्त हो जाता हूँ।"

“हिम्म् ? तू बात बनाने में भी चतुर है, यद्यपि जिस वक्त तुझे उन पुराने गानों को श्वान-स्वर में अपने सहपाठियों के साथ दोहराते देखती हूँ तो समझती हूँ कि मेरा प्रवाहण जिन्दगी भर स्तनपायी बच्चा ही रहेगा।"

"सचमुच प्रवाहण के बारे में तेरी यही सम्मति है, लोपा ?"

“सम्मति कुछ भी हो; किन्तु उसके साथ एक पक्की सम्मति है कि प्रवाहण सदा के लिए मेरा है।"

"इसी आशा और विश्वास से, लोपा, मुझे श्रम और विद्या अर्जन करने में शक्ति मिलती है। मैं अपने मन पर जबर्दस्त संयम करने में अभ्यस्त हूँ, नहीं तो कितनी ही बार मेरा मन इन पुरानी गाथाओं, पुराने मंत्रों और पुराने उद्गीथों को रटने से भाग निकलना चाहता है। जिस वक्त परिश्रम से वह थक जाता है। और सब कुछ छोड़ बैठना चाहता है, उस वक्त मुझे और कोई दवा नहीं सूझती, सिवा इसके कि लोपा के साथ बिताने के लिए कुछ क्षण मिलें ।"

"और मैं उसके लिए सदा तैयार रहती हूँ।"

लोपा की पिंगल आँखें कहीं दूर देख रही थीं। उसके पिंगल कोमल केशों को प्रातः समीर कम्पित कर रहा था। जान पड़ता था, लोपा वहाँ नहीं है। प्रवाहण ने लोपा के केशों को अँगुलियों से स्पर्श करते हुए कहा-‘‘लोपा, तेरे सामने मैं अपने को खर्ब समझता हूँ।"

"खर्ब ! नहीं मेरे प्रवाहण'-उसे अपने कपोल से लगाते हुए लोपा ने कहा-‘‘मैं तुझ पर अभिमान करती हूँ। मुझे वह दिन याद है, जब मैंने बुआ के साथ आए आठ वर्ष के उस शिशु को अपने शिशुतर नेत्रों से दिखा था। मैं उस वक्त तीन या चार वर्ष की थी; किन्तु मेरी स्मृति उस बाल-चित्र को अंकित करने में गलती नहीं कर रही। मुझे वह पीत कुञ्चित केश, वह शुक-सी नासा, वह पतले लाल अधर, वह चमकीली नीली बड़ी आँखें, वह तप्त सुवर्णगात्र याद है, और यह भी याद है, माँ ने मुझसे कहा-पुत्री लोपा, यह तेरा भाई है। मैं लजा गई थी; किन्तु माँ ने तेरे मुँह को चूमकर कहा-पुत्र प्रवाहण, यह तेरी मातुल-पुत्री लोपा लजाती है, इसकी लाज हटा।”

"और मैं तेरे पास गया। तूने मामी के सुगन्धित तरुण केशों के पीछे मुँह छिपा लिया। किन्तु छिपाते वक्त मैंने आँखों के लिए, रास्ता खोल रखा था। मैं देख रही थी, तू क्या करता है। सिर्फ माँ की गोद, दासियों या दासियों के बच्चों के सिवा कोई न था। पिता का आचार्य-कुल अभी जन्मा न था। मैं इस घर में अपने को अकेली समझती थी, इसलिए तुझे देखकर मुझे मन-ही-मन आनन्द हुआ।"

"खेलने के लिए। और तभी तू मुझसे छिप गई थी। मैंने तेरे नंगे श्वेत शरीर और गोल-गोल चेहरे को देखा। मेरे शिशु-नेत्रों को वह अच्छा मालूम हुआ। मैंने पास जाकर तेरे कन्धे पर हाथ रखा । तुझे ख्याल है, माँ और मामी ने क्या किया ? दोनों मुस्कुराई और बोलीं-"ब्रह्मा हमारी साध पूरी करे। मुझे उस वक्त साध का अर्थ नहीं मालूम हुआ।"

"मुझे याद नहीं, प्रवाहण ! मेरे लिए इतना ही बहुत है कि मैंने तेरे कोमल हाथ का स्पर्श अपने कन्धे पर अनुभव किया ।"

"और तू संकोच के मारे गोल-मटोल हो गई।

"तूने मेरे हाथ को अपने हाथों में लिया; किन्तु तेरे ओठ सिले-से रहे, तब माँ ने क्या कहा ?"

"मामी की एक-एक बात मुझे याद है। मामी को क्या भूल सकता हूँ ? माँ मुझे गार्ग्य मामा के पास छोड़कर घर लौट गई; किन्तु मामी के प्रेम ने मुझे माँ की भुला दिया। मामी को मैं कैसे भूल सकता हूँ ?"

प्रवाहण के नेत्रों में आँसू भर आए। उसने लोपा के ओठों को चूमकर कहा-"मामी का मुँह ऐसा ही था, लोपा ! हम दोनों साथ सोये रहते। तेरी तो नहीं, मेरी आँखें कितनी ही बार खुली रहती; किन्तु जब मैं मामी को आते देखता तो आँखों को बन्द कर लेता। फिर मन्द निःश्वास के साथ उनके ओठों के स्पर्श को अपने गालों पर पाता। मैं आँखें खोल देता।"

मामी बोलती-वत्स, जागो ! फिर वह तेरे मुँह को चूमतीं; किन्तु तू बेसुध सोती रहती ?"

लोपा की आँखों में भी आँसू थे। उसने उदास होकर कहा-'माँ को मैं इतना कम देख सकी !"

"हाँ, तो उस समय मुझे तेरे पास मूक खड़ा देख मामी ने कहा-"यह तेरी बहन है, वत्स ! इसके ओठों को चूम और कह कि आ, घोड़ा-घोड़ा खेलें ।”

"हाँ, तो तूने मेरे ओठों को चूमा और फिर घोड़ा-घोड़ा खेलने के लिए कहा। मैंने माँ के केशों से अपने मुँह को बाहर किया। तू वहाँ घोड़ा बन गया। मैं तेरी पीठ पर चढ़ गई ।"

"और मैं उसी वक्त तुझे बाहर ले गया।

"मैं कितनी धृष्ट थी !"

"तू सदा निडर थी, लोपा ! और मेरे लिए तो तू सब कुछ थी। मामा के डर से मैं अपना पाठ याद करने में लगा रहता और जब थक जाता तो तेरे पास आ जाता।"

"और तेरे ही लिए मैं भी तेरे पास बैठने लगी।"

"और मैं समझता हूँ, लोपा ! यदि तू मुझसे आधा भी परिश्रम करती. तो मामा के अन्तेवासियों में सबसे आगे बढ़ जाती ।"

"लेकिन तुझसे नहीं" लोपा ने प्रवाहण की आँखों को एक बार खूब गौर से देखकर कहा-"मैं तुझसे आगे बढ़ना नहीं चाहती ।"

"किन्तु मुझे प्रसन्नता होती।"

"क्योंकि हम दोनों में अलग अपनापन नहीं है।"

"लोपा, तूने मेरे मन में उत्साह ही नहीं, शरीर में बल भी दिया। मैं रात को कितना कम सोता था ! फिर स्वयं रटने और दूसरों को रटाने में खाना-पीना तक भूल जाता था। तू मुझे स्वाध्याय-गृह के अँधेरे से निकाल कर जबर्दस्ती कभी वन, कभी उद्यान और कभी गंगा की धार में ले जाती। मुझे ये चीजें अच्छी लगती हैं, लोपा ! किन्तु साथ ही मैं चाहता हूँ, तीनों वेदों और ब्राह्मणों की सारी विद्याओं को शीघ्र-से-शीघ्र समाप्त कर डालें।"

"किन्तु अब तो तू समाप्ति पर पहुँच चुका है। पिता कहते हैं कि प्रवाहण मेरे समान है।”

"यह मैं भी समझता हूँ। ब्राह्मणों की विद्या पढ़ने को अब बहुत कम रह गई है, किन्तु विद्या ब्राह्मणों ही तक समाप्त नहीं हो जाती।"

"यही मैं तुझसे कहने वाली थी। किन्तु क्या अभी यह तेरा पलाश-दण्ड और रूखा केश चलता ही रहेगा ?

"नहीं, इसकी चिन्ता मत कर, लोपा ! पलाश-दण्ड अब छूटने वाला है। और सोलह साल के इन रूखे केशों में तू सुगंधित तेल डालने को स्वतंत्र होगी।"

"प्रवाहण, मेरी समझ में यह नहीं आता कि रूखे केशों के लिए इतना जोर क्यों ! तूने तो मेरे इन ओठों का चूमना कभी छोड़ा नहीं ।"

"क्योंकि वह बचपन से लगी आदत थी ।

"तो क्या दूसरे आचार्य-कुलों के अन्तेवासी इन कठोर व्रतों का पालन करते हैं ?"

"मजबूरी होने पर, नहीं तो, लोपा, यह सब मान प्रतिष्ठा के लिए किया जाता है ! लोग इसे ब्राह्मण-कुमारों की कठिन तपस्या समझते हैं।"

"और फिर कुरुराज पिता को गाँव, हिरण्य-सुवर्ण, दास-दासी और बड़वा (घोड़ी)- रथ देते हैं। मेरे घर में पहले ही से दासियाँ काफी थीं। अब जो हाल में कुरुराज ने तीन और भेजी हैं, उनके लिए यहाँ काम ही नहीं है।"

“बेच दे, लोपा ! तरुणी हैं, एक-एक से तीस-तीस निष्क (अशर्फियाँ) मिल जायेंगे।"

"अफसोस ! हम ब्राह्मण हैं, हम दूसरों से ज्यादा पठित और ज्ञानी भी होते हैं, क्योंकि हमें उसके लिए सुभीता है। किन्तु जब मैं इन दासों के जीवन को देखती हैं, तो मुझे ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण सारे अपने देवताओं, वशिष्ठ, भरद्वाज, भृगु, अंगिरा सारे ऋषियों और अपने पिता-जैसे आज, के सारे श्रोत्रिय ब्राह्मण महाशालों (महाधनियों) से घृणा हो जाती है। सभी जगह व्यापार, सौदा, लाभ, लोभ आदि दिखलाई पड़ते हैं। उस दिन काली दासी के पति को पिता ने कोशल के उस बनिये के हाथ पचास निष्क में बेच डाला। काली मेरे पास रोती-गिड़गिड़ाती रही। मैंने पिता से बहुत कहा, किन्तु उन्होंने कहा—सारे दासों को घर में रख छोड़ने से जगह नहीं रहेगी और यदि रख ही छोड़ा जाय, तो वह धन काहे का ? विदाई के दिन की पहली रात दोनों कितना रोते रहे ! और उनकी वह छोटी दो वर्ष की बच्ची-जिसका चेहरा, सभी कहते हैं, पिता से मिलता है- सबेरे के वक्त उठकर कितना चिल्ला रही थी ! लेकिन काली का पति बेच दिया गया। जैसे वह आदमी नहीं, पशु था; ब्रह्मा ने गोया उसे और उसकी सैकड़ों पीढ़ियों को इसीलिए बनाया है। यह मैं नहीं मान सकती, प्रवाहण ! तेरे जितना मैंने तीनों वेदों को याद नहीं किया है; किन्तु उनको समझते हुए सुना है। वहाँ सिर्फ आँखों को न दिखलाई देने वाली वस्तुओं, लोकों और शक्तियों का प्रलोभन या भय-मात्र दिखलाया गया है।"

प्रवाहण ने लोपा के आरक्त कपोलों को अपनी आँखों में लगाकर कहा-"हमारा प्रेम मतभेद रखने ही के लिए हुआ है।"

"और मतभेद हमारे प्रेम को और पुष्ट करता है।

"ठीक कहा, लोपा ! यदि इन्हीं बातों को कोई दूसरा कहता, तो मैं कितना गरम हो जाता; किन्तु यहाँ जब तेरे इन अधरों से अपने सारे देवताओं, ऋषियों, आचार्यों के ऊपर प्रखर वाण छोड़े जाते देखता हूँ, तो बार-बार इन्हें चूमने की इच्छा होती है। क्यों ?"

"क्योंकि हमारे अपने भीतर भी दो तरह के विचारों के द्वन्द्व अक्सर चलते रहते हैं, और हम उनके प्रति सहिष्णुता रखते हैं, इसीलिए कि वह हमारे अभिन्न अंग हैं।"

"तू भी मेरा अभिन्न अंग है, लोपा !"

2.

"तूने शिवि के इन दुशालों को कभी नहीं ओढ़ा और काशी के चंदन तथा सागर के मोतियों से अपने को कभी नहीं विभूषित किया। प्रिये, इनसे इतनी उदासीनता क्यों ?"

"क्या मैं इनमें ज्यादा सुन्दर लगूँगी ?"

“मेरे लिए तू सदा सुन्दर है।”

“फिर इन बोझों को लादकर शरीर को साँसत देने से लाभ क्या ? सच कहती हूँ, प्रिय ! मुझे बड़ा बुरा लगता है, जब तू उस भारी बोझ को अपने सर पर मुकुट के नाम से उठाता है।"

"किन्तु दूसरी स्त्रियाँ तो वस्त्र-आभूषण के लिए मार करती हैं।"

"मैं वैसी स्त्री नहीं हूँ।"

"तू पंचाल-राज के हृदय पर शासन करने वाली स्त्री है।"

"प्रवाहण की स्त्री हूँ, पंचालों की रानी ।”

"हाँ प्रिये ! हमने कब इस दिन की कल्पना की थी। मामा ने हमसे बिल्कुल छिपा रखा था कि मैं पंचाल-राज का पुत्र हूँ।"

"उस वक्त पिता और क्या करते ? पंचाल-राज की सैकड़ों रानियों में एक मेरी बुआ भी थीं, और पंचाल-राज के दस पुत्र तुझसे बड़े थे, इसलिए कौन आशा रख सकता था कि तू एक दिन पंचालों के राजसिंहासन का अधिकारी होगा ?"

"अच्छा, किन्तु तुझे यह राज-भवन क्यों नहीं पसन्द आता लोपा ?"

"क्योंकि मैं गार्ग्य ब्राह्मण महाशाल के प्रासद से ही तंग आ गई थी। हमारे लिए वह प्रासाद था; किन्तु वहाँ के दास-दासियों के लिए ? और वह राज-प्रासाद तो उस महाशाल के प्रासाद से हजार गुना बढ़-चढ़कर है। यहाँ मुझे और तुझे छोड़कर सारे दास-दासी हैं। दो अ-दासों के कारण दासों से भरा यह भवन अ-दास-भवन नहीं हो सकता। किन्तु मुझे आश्चर्य होता है. प्रवाहण, तेरा हृदय कितना कठोर है !"

"तभी तो वह कठोर वाग्वाणों को सह सकता है।"

"नहीं, मानव को ऐसा नहीं होना चाहिए ।

"मैंने मानव बनने की नहीं, योग्य बनने की कोशिश की, प्रिये ! यद्यपि उस योग्यता-अर्जन के समय मुझे कभी यह ख्याल न आया था कि एक दिन मुझे इस राज-भवन में आना होगा।"

"तू पछताता तो नहीं, प्रवाहण ! मेरे साथ प्रेम करके ?"

"मैंने तेरे प्रेम को मातृ-क्षीर की तरह अप्रयास पाया और वह अपने-पन का अंग बन गया। मैं संसारी पुरुष हैं, लोपा ! किन्तु मैं तेरे प्रेम के मूल्य को समझता हूँ। मन का प्रवाह सदा एक-सा नहीं रहता। जब कभी मन में अवसाद आता है, तो मेरे लिए जीवन दुर्भर हो जाता है, उस वक्त तेरा प्रेम और सुविचार मुझे हस्तावलम्ब देते हैं।"

"किन्तु मैं जितना अवलम्ब देना चाहती हूँ, उतना नहीं दे सकती, प्रवाहण ! इसका मुझे अफसोस है।”

"क्योंकि मैं राज्य करने के लिए पैदा किया गया हूँ।"

“लेकिन कभी तू महाब्राह्मण बनने की धुन में था ।"

“उस वक्त मुझे पता न था कि मैं पंचालपुर (कन्नौज) के राजभवन का अधिकारी हूँ ?"

"किन्तु राज-काज से बाहर जो तू हाथ डाल रहा है, इसकी क्या आवश्यकता ?"

"अर्थात् ब्रह्मा से आगे ब्रह्म तक की उड़ान ? किन्तु लोपा, यह राज-काज से अलग चीज नहीं है। राज्य को अवलम्ब देने ही के लिए यह हमारे पूर्वज राजाओं ने वशिष्ठ और विश्वामित्र को उतना सम्मानित किया था। वह ऋषि, इन्द्र, अग्नि और वरुण के नाम पर लोगों को राजा की आज्ञा मानने के लिए प्रेरित करते थे। उस समय के राजा जनता में विश्वास-सम्पादन के लिए इन देवताओं के नाम पर बड़े-बड़े खर्चीले यज्ञ करते थे। आज भी हमें यज्ञ करते हैं और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं। यह इसलिए कि जनता देवताओं की दिव्य शक्ति पर विश्वास करे । और यह भी समझे कि हम जो यह गंधशाली का भात, गो-वत्स का मधुर माँस-सूप, सूक्ष्म वस्त्र और मणि-मुक्तामय आभूषण का उपयोग करते हैं, वह सब देवताओं की कृपा है।"

"तो यह पुराने देवता काफी थे, अब इस नये ब्रह्म की क्या आवश्यकता थी ?"

"पीढ़ियों से किसी ने इन्द्र, वरुण, ब्रह्मा को नहीं देखा। अब कितनों के मन में संदेह होने लगा है।"

"तो ब्रह्म में क्या संदेह न होगा ?"

"ब्रह्म का स्वरूप मैंने ऐसा बतलाया है कि कोई उसके देखने की माँग नहीं पेश करेगा । जो आकाश की भाँति देखने-सुनने का विषय नहीं; जो यहाँ-वहाँ सर्वत्र है, उसके देखने का सवाल कैसे उठ सकता है ? सवाल तो उस साकार देवता के बारे में उठता था।”

"तू जो आकाश-आकाश कहकर साधारण नहीं, बल्कि उद्दालक, आरुणि-जैसे ब्राह्मणों को भी भरमा रहा है, क्या वह प्रजा को भ्रम में रखने ही के लिए ?"

"लोपा ! तू मुझे जानती है, तुझसे मैं क्या छिपा सकता हूँ ? इस राजभोग को हाथ में रखने के लिए यह जरूरी है, कि संदेह पैदा करने वालों की बुद्धि को कुंठित कर दिया जाय, क्योंकि हमारे वास्ते आज सबसे भयंकर शत्रु हैं देवताओं और उनकी यज्ञ-पूजा के प्रति संदेह पैदा करने वाले ।”

"किन्तु तू ब्रह्म की सत्ता और उसके दर्शन की बात भी तो करता है ?"

"सत्ता है, तो दर्शन भी होना चाहिए। हाँ, इन्द्रियों से नहीं क्योंकि इन्द्रियों से दर्शन होने की बात कहने पर संदेहवादी फिर उसे दिखलाने के लिए कहेंगे। इसलिए मैं कहता हूँ कि उनके दर्शन के लिए दूसरी ही सूक्ष्म इन्द्रिय है, और उस इन्द्रिय को पैदा करने के लिए मैं ऐसे-ऐसे साधन बतलाता हूँ कि लोग छप्पन पीढ़ी तक भटकते रहें और विश्वास भी न खो सकें। मैंने पुरोहितों के स्थूल हथियार को बेकार समझकर इस सूक्ष्म हथियार को निकाला है। तूने शबरों के पास पत्थर और ताँबे के हथियार देखे हैं, लोपा ?"

"हाँ, जब मैं तेरे साथ दक्षिण के जंगल में गई थी।"

"हाँ, यमुना के उस पार। शबरों के वह पत्थर और ताँबे के हथियार क्या हमारे कृष्ण-लौह (असली लोहे) के इन हथियारों का मुकाबला कर सकते हैं ?"

"नहीं।”

"इसी तरह वशिष्ठ और विश्वामित्र के ये पुराने देवता और यज्ञ शबरों जितनी बुद्धि रखने वालों को ही संतुष्ट कर सकते हैं; और समझ रखने वाले इन संदेहवादियों की तीक्ष्ण बुद्धि के सामने वह व्यर्थ हैं।"

"उनके सामने तो यह मेरा ब्रह्म भी कुछ नहीं है। तू ब्राह्मण ज्ञानियों को शिष्य बना ब्रह्मज्ञान सिखलाता फिरता है, और मैं तेरे घर में ही तेरी बात को सरासर झूठ-फरेब मानती हूँ।"

“क्योंकि तू असली रहस्य (उपनिषद्) को जानती है ?"

"ब्राहाण समझदार होते, तो क्या तेरे रहस्य को नहीं जान पाते ।"

"वह भी तू देखती ही है। कोई-कोई ब्राह्मण रहस्य की परख कर सकते हैं; किन्तु वह मेरे इस रहस्य (उपनिषद्) हथियार को अपने लिए बहुत उपयोगी समझते हैं। उनकी पुरोहिती, गुरुआई पर लोगों को अविश्वास हो चला था। जिसको परिणाम होता उस दक्षिणा से वंचित होना, जिससे उन्हें चढ़ने को बड़वा-रथ, खाने को उत्तम आहार, रहने को सुन्दर प्रासाद और भोगने को सुन्दर दासियाँ मिलती हैं।"

"यह तो व्यापार हुआ ?"

"व्यापार, और ऐसा व्यापार जिसमें हानि का भय नहीं। इसलिए उद्दालक-जैसे समझदार ब्राह्मण मेरे पास हाथ में समिधा लेकर शिष्य बनने आते हैं, और मैं ब्राह्मणों के प्रति गौरव प्रदर्शित करते हुए उपनयन किए बिना-विधिवत् गुरु बने बिना-उन्हें ब्रह्मज्ञान प्रदान करता हूँ।"

"यह बहुत निकृष्ट भावना है, प्रवाहण !"

"मानता हूँ; किन्तु हमारे उद्देश्य के लिए यह सबसे अधिक उपयोगी साधन है; वशिष्ठ और विश्वामित्र की नाव ने हजार वर्ष भी काम नहीं दिया; किन्तु जिस नाव को प्रवाहण तैयार कर रहा है, वह दो हजार वर्ष आगे तक राजाओं और सामन्तों-परधन-भोगियों-को पार उतारती रहेगी; यज्ञ-रूपी नाव को, लोपा ! मैंनें अदृढ़ समझा। इसीलिए इस दृढ़ नाव को तैयार किया है जिसे ब्राह्मण और क्षत्रिय मिलकर ठीक से इस्तेमाल करते हुए ऐश्वर्य भोगते रहेंगे। किन्तु लोपा ! इस "आकाश" या ब्रह्म से भी बढ़कर मेरा दूसरा आविष्कार है।"

"कौन ?"

"मरकर फिर इसी दुनिया में लौटना-‘पुनर्जन्म' ”

"यह सबसे भारी जाल है !"

"और सबसे कार्यकारी भी। जिस परिमाण में हम सामन्तों, ब्राह्मणों और बनियों के पास अपार भोग-राशि एकत्रित होती गई है, उसी परिमाण में साधारण प्रजा निर्धन होती गई। इन निर्धनों, शिल्पियों, कृषकों और दास-दासियों को भड़काने वाले पैदा होने लगे हैं, जो कहते हैं-‘तुम अपनी कमाई दूसरों को देकर कष्ट उठाते हो; वह धोखे में रखने के लिए तुम्हें झूठे ही विश्वास दिलाते हैं कि तुम इस कष्ट, त्याग, दान करने के लिए मरकर स्वर्ग में जाओगे। किसी ने स्वर्ग में मृत जीवों के उन भोगों को देखा नहीं है। इसी का जवाब है; यहाँ संसार में जो नीच-ऊँच के भाव छोटी-बड़ी जातियों, निर्धन-धनिक आदि के भेद पाये जाते हैं, वह सब पहले जन्म के कर्मों ही के कारण। हम इस प्रकार पहले के सुकर्म-दुष्कर्म का फ़ल प्रत्यक्ष दिखलाते हैं।"

"ऐसे तो चोर भी अपने चोरी के माल को पूर्वजन्म की कमाई कह सकता है?"

"किन्तु उसके लिए हमने पहले ही से देवताओं, ऋषियों और जन-विश्वास की सहायता प्राप्त कर ली है, जिसके कारण चोरी के धन को पूर्वजन्म की कमाई नहीं माना जाएगा। इस जन्म में परिश्रम बिना अर्जित धन को हम पहले देवताओं की कृपा से प्राप्त बतलाते थे; किन्तु जब देवताओं और उनकी कृपा पर संदेह किया जाने लगा, तो हमें कोई दूसरा उपाय सोचना जरूरी था। ब्राह्मणों में यह सोचने की शक्ति नहीं रह गई। पुराने ऋषियों के मंत्रों और वचनों को रटने में ही वह चालीस- पैंतालीस की आयु बिता देते हैं। वह दूसरी कोई गम्भीर बात कहाँ से सोच निकालेंगे ?"

"किन्तु तूने भी तो, प्रवाहण ! रटने में बहुत-सा समय लगाया था?"

“सिर्फ सोलह वर्ष । चौबीस वर्ष की उम्र के बाद मैं ब्राह्मण की विद्याओं को पार कर बाहर के संसार में आ गया था। यहाँ मुझे ज्यादा पढ़ने को मिला। मैंने राज-शासन की बारीकियों में घुसने के बाद देखा कि ब्राह्मणों की बनाई पुरानी नाव आज के लिए अदृढ़ है।"

"इसलिए तूने दृढ़ नाव बनाई ?"

"सत्य या असत्य से मुझे मतलब नहीं, मेरा मतलब है उसके कार्योपयोगी होने से। लोपा ! संसार में लौटकर जन्मने की बात आज नयी मालूम होती है और मुझे उसके भीतर छिपा हुआ स्वार्थ भी मालूम है: किन्तु मेरे ब्राह्मण चेले अभी से उसे ले उड़े हैं। पितरों और देवताओं के रास्ते (पितृ-यान, देव-यान) को समझने के लिए अभी ही लोग बारह-बारह साल गाय चराने को तैयार हैं ! लोपा ! मैं और तू नहीं रहेंगे; किन्तु वह समय आएगा जबकि सारी दरिद्र प्रजा इस पुनरागमन के भरोसे सारे जीवन की कटुता, कष्ट और अन्याय को बर्दाश्त करने के लिए तैयार हो जाएगी। स्वर्ग और नरक को समझाने के लिए यह कैसा सीधा उपाय निकाला लोपा?"

"लेकिन यह अपने पेट के लिए सैकड़ों पीढ़ियों को भाड़ में झोंकना है।"

"वशिष्ठ और विश्वामित्र ने भी पेट के लिए ही वेद रचे; उत्तर-पंचाल (रुहेलखण्ड) के राजा दिवोदास् के कुछ शबर दुर्गों की विजय पर कविता पर कविता बनाई। पेट का प्रबन्ध करना बुरा नहीं है, और जब हम अपने पेट के साथ हजार वर्षों के लिए अपने बेटे- पोतों, भाई-बन्धुओं के पेट का भी प्रबन्ध कर डालते हैं१ , तो हम शाश्वत यश के भागी होते हैं ? प्रवाहण वह काम कर रहा है, जिसे पूर्वज ऋषि भी नहीं कर पाये-जिसे धर्म की रोटी खाने वाले ब्राह्मण भी नहीं कर सके ।"

"तू बड़ा निष्ठुर है, प्रवाहण !"

"किन्तु मैंने अपने काम को योग्यतापूर्वक पूरा किया ।"

(१. त्वं तदुक्थमिन्द्र वर्हणा कः प्रयच्छता सहसा शूर दर्ष ।
अब गिरेर्दासं शंबरं हन् प्रावो दिसोदासं चित्राभिरूती ।।
ऋग्वेद ६|२६५ ।।)

3.

प्रवाहण मर चुका था। उसके ब्रह्मवाद, उसने पुनर्जन्म या पितृयानवाद की विजय-दुन्दुभी सिंधु से सदानीरा (गंडक) के पार तक बज रही थी। यज्ञों का प्रचार अब भी कम नहीं हुआ था, क्योंकि ब्रह्मज्ञानी उन्हें करने में खास तौर से उत्साह प्रदर्शन करते थे। क्षत्रिय प्रवाहण के निकाले ब्रह्मवाद में ब्राह्मण बहुत दक्ष हो गये थे, और इसमें कुरु के याज्ञवल्क्य की बड़ी ख्याति थी कुरु-पंचाल में-जिसने किसी वक्त मंत्रों के कर्ता और यज्ञों के प्रतिष्ठाता वशिष्ठ, विश्वामित्र और भरद्वाज को पैदा किया था-याज्ञवल्क्य और उसके साथी ब्रह्मवादियों-ब्रह्मवादिनियों की धूम थी। ब्रह्मवादियों की परिषद् रचाने में यज्ञों से भी ज्यादा नाम होता था। इसीलिए राजा राजसूय आदि यज्ञों के साथ या अलग ऐसी परिषदें कराते थे, जिनमें हजारों गायें, घोड़े और दास--दासियाँ (दासी खासतौर से, क्योंकि राजाओं के अन्तःपुर में पली दासियों को ब्रह्मवादी विशेष तौर से पसंद करते थे) वाद-विजेता को पुरस्कार में मिलते थे। याज्ञवल्क्य कई परिषदों में विजयी हो चुका था। अबकी बार उसने विदेह (तिर्हत) के जनक की परिषद् में भारी विजय प्राप्त की, और उसके शिष्य सोमश्रवा ने हजार गायें घेरी र्थी । याज्ञवल्क्य विदेह से कुरु तक उन गायों को हाँककर लाने का कष्ट क्यों उठाने लगा। उसने उनको वहीं ब्राह्मणों में बाँट दिया। ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य की भारी ख्याति हुई। हाँ, हिरण्य (अशर्फी), सुवर्ण, दास-दासी और अश्वतरी (खचरी) रथ को वह अपने साथ कई नावों में भरकर कुरु देश लाया।

प्रवाहण को मरे साठ साल हो गये थे। उस वक्त याज्ञवल्क्य अभी पैदा नहीं हुआ था। किन्तु, सौ वर्ष से ऊपर पहुँची लोपा पंचालपुर (कन्नौज) के बाहर के राजोद्यान में अब भी रहती थी। उद्यान के । आम्र-कदली-जम्बू वृक्षों की छाया में रहना वह बहुत पसंद करती थी।

जीवन में प्रवाहण की बातों का वह बराबर विरोध किया करती थी; किन्तु अब इन साठ वर्षों में प्रवाहण के दोषों को वह भूल चुकी थी उसे याद था केवल प्रवाहण का वह जीवन-भर का प्रेम ! अब भी वृद्धा की आँखों में ज्योति थी, अब भी उसकी प्रतिभा बहुत धूमिल नहीं हुई थी; किन्तु ब्रह्मवादियों से वह अब भी बहुत चिढ़ती थी। उस दिन पंचालपुर में ब्रह्मवादिनी गार्गी वाचक्नवी उतरी। राजोद्यान के पास ही एक उद्यान में गार्गी को बड़े सम्मान के साथ ठहराया गया। जनक की परिषद् में याज्ञवल्क्य ने जिस तरह धोखे से उसे परास्त किया था, गार्गी उसे भूल नहीं सकती थी। 'तेरा सिर गिर जाएगा, गार्गी ! यदि आगे प्रश्न किया तो'—यह कोई बात का ढंग न था। ऐसा उग्र-लोहितपाणि (खून से हाथ रँगने वाले) ही कर सकते हैं, गार्गी सोचती थी।

गार्गी लोपा के पितृ-कुल की कन्या थी। लोपा उससे सुपरिचित थी, यद्यपि ब्रह्मवाद के संबंध में वह उससे बिल्कुल असहमत थी अबकी बार याज्ञवल्क्य ने जिस तरह का ओछा हथियार उसके खिलाफ इस्तेमाल किया था, उससे गार्गी जल गई थी। इसलिए जब अपनी परदादी बुआ के पास गई, तो उसके भावों में जरूर कुछ परिर्वतन था। लोपा ने पास आई गार्गी के ललाट और ऑखों को चूमकर छाती से लगाया और फिर स्वास्थ्य, प्रसन्नता के बारे में पूछा। गार्गी ने कहा-"विदेह से आ रही हूँ, बुआ।”

‘‘मल्लयुद्ध करने गई थी, गार्गी बेटी । ।

"हाँ, मल्लयुद्ध ही हुआ, बुआ ! यह ब्रह्मवादियों की परिषदें मल्लयुद्ध से बढ़कर कुछ नहीं हैं। मल्लों की भाँति ही इनमें प्रतिद्वन्द्वी को छल-बल से पछाड़ने की नीयत होती है।"

"तो कुरु-पंचाल के बहुत से ब्रह्मवादी अखाड़े में उतरे होंगे ?"

“कुरु-पंचाल तो अब ब्रह्मवादियों का गढ़ हो गया है ।"

"मेरे सामने ही इस ब्रह्मवाद की एक छोटी-सी चिनगारी-सो भी अच्छी नीयत में नहीं—मेरे प्रवाहण ने छोड़ी थी, और वह वन की आग बन सारे कुरु-पंचाल को जलाकर अब विदेह तक पहुँच रही है।"

"बुआ, तो तेरी बात की सच्चाई को अब मैं कुछ-कुछ अनुभव करने लगी हूँ। वस्तुतः यह भोग-अर्जन का एक बड़ा रास्ता है । विदेह में याज्ञवल्क्य को लाखों की संपत्ति मिली और दूसरे ब्राह्मणों को भी काफी धन मिला।”.

"यह यज्ञ से भी ज्यादा नफे को व्यापार है, बेटी ! मेरा पति इसे राजाओं और ब्राह्मणों के लिए भोग-प्राप्ति की दृढ़ नौका कहा करता था। तो याज्ञवल्क्य जनक की परिषद् में विजयी रहा। और तू कुछ बोली या नहीं?"

"बोलना न होता तो इतनी दूर तक गंगा में नाव दौड़ाने की क्या जरूरत थी।"

"नाव में चोर-डाकू तो नहीं लगे ?"

"नहीं, बुआ ! व्यापारियों के बड़े-बड़े सार्थों (कारवाँ) में भटों का प्रबन्ध रहता है। हम ब्रह्मवादी इतने मूर्ख नहीं हैं कि अकेले-दुकेले अपने प्राणों को संकट में डालते फिरें ।"

"और याज्ञवल्क्य ने सबको परास्त कर दिया ?"

"उसे परास्त करना ही न कहना चाहिए !"

"सो क्यों ?"

"क्योंकि प्रश्नकर्ता याज्ञवल्क्य का उत्तर सुन चुप रह गये ?’

"तू भी ?"

"मैं भी; किन्तु मुझे उसने वाद से नहीं, बकवाद से चुप कर दिया।"

"बकवाद से ?" ।

"हाँ, मैं ब्रह्म के बारे में प्रश्न कर रही थी, और याज्ञवल्क्य को इतना घेर लिया था कि उसको निकलने का रास्ता न था। इसी वक्त याज्ञवल्क्य ने ऐसी बात कही, जिसके सुनने की मुझे आशा न थी।

"क्या बेटी!"

"उसने यह कहकर प्रश्न का उत्तर माँगने से मुझे रोक दिया-तेरा सिर गिर जाएगा, गार्गी यदि आगे प्रश्न किया तो।"

"मुझे आशा न थी. बेटी ! किन्तु मुझे सब आशा हो सकती थी। गार्गी । याज्ञवल्क्य प्रवाहण का पक्का प्रशिष्य सिद्ध हुआ। प्रवाहण के मिथ्यावाद को इसने पूर्णता को पहुँचाया। अच्छा हुआ गार्गी ! जो तूने आगे प्रश्न नहीं किया।"

"तुझे कैसे मालूम हुआ, बुआ।"

"इसी से कि मैं अपनी आँखों से तेरे सिर को कंधे पर देख रही हूँ।"

"तो क्या तुझे विश्वास है, बुआ ! यदि मैं आगे प्रश्न करती, तो मेरा सिर गिर जाता।"

"जरूर। किन्तु याज्ञवलक्य के ब्रह्मबल से नहीं, बल्कि वैसे ही, जैसे औरों के सिर गिरते देखे जाते हैं।"

"नहीं बुआ।"

"तू बच्ची है, गार्गी ! तू जानती है कि यह ब्रह्मवाद सिर्फ मन की उड़ान, मन की कलाबाजी है। नहीं गार्गी, इसके पीछे राजाओं और ब्राह्मणों का भारी स्वार्थ छिपा हुआ है। जिस क्षण यह ब्रह्मवाद पैदा हुआ था, उस समय इसको जन्मदाता मेरी बगल में सोता था। यह राज-सत्ता और ब्राह्मण-सत्ता को दृढ़ करने का भारी साधन है-वैसे ही, जैसे कृष्ण लौह (लोहे) का खड्ग, जैसे उम्र लेहितपाणि भट।"

"बुआ, मैंने ऐसा नहीं समझा था।”

"बहुत से ऐसा नहीं समझते ! मैं नहीं समझती, जनक वैदेह भी इस रहस्य (उपनिषद) को न समझता होगा। किन्तु याज्ञवल्क्य समझता है -वैसे ही, जैसे मेरा पति प्रवाहण समझता था। प्रवाहण को किसी देवता, देवलोक, पितृलोक, यज्ञ और ब्रह्मवाद में विश्वास नहीं था। उसे विश्वास था सिर्फ भाग में, और उसने अपने जीवन के एक-एक क्षण को उस भाग के लिए अर्पण किया। मरने के दिनों से तीन दिन पहले विश्वामित्र कुलीन पुरोहित की सुवर्णकेशी कन्या उसके रनिवास में आई। बचने की आशा न थी, तो भी वह उस बीस वर्ष की सुन्दरी से प्रेम करता रहा।"

"गायों को दान कर विदेहराज की दी हुई सुन्दर दासियों को याज्ञवल्क्य अपने साथ लाया है, बुआ !"

"मैंने अभी कहा कि वह प्रवाहण का पक्का चेला है। देखा न उसका ब्रह्मवाद ? और यह तो तूने दूर से देखा। यदि नजदीक से देखने का मौका मिलता तो देखती बेटी!"

"तो बुआ, तू सचमुच समझती है कि यदि मैं आगे प्रश्न करती, तो मेरा सिर गिर जाता ?"

"निस्संदेहः किन्तु याज्ञवल्क्य के ब्रह्म-तेज से नहीं, बेटी। दुनिया में कितनों के सिर चुपचाप गिरा दिए जाते हैं।"

"मेरा सिर चकराता है, बुआ !"

"आज ? और मेरा सिर तब से चकराता है, जब से मैंने होश सँभाला सारा ढोंग, पूरी वंचना ! प्रजा की मशक्कत की कमाई को मुफ्त में खाने का तरीका है यह राजवाद, ब्रह्मवाद, यज्ञवाद, प्रजा को कोई इस जाल से तब तक नहीं बचा सकता, जब तक कि वह खुद सचेत न हो, और उसे सचेत होने देना इन स्वार्थियों को पसन्द नहीं है।"

"क्या मानव-हृदय हमें इस वंचना से घृणा करने की प्रेरणा नहीं देगा ?"

"देगा बेटी ! और मुझे एकमात्र उसी की आशा है।’’

*****

(आज से १०८ पीढ़ी पहले की यह कहा है, जबकि ऊपरी अन्तर्वेद में उपनिषद् के ब्रह्मज्ञान की रचना आरम्भ हुई थी । उस वक्त तक, उद्यान और असली लोहा भारत में प्रवलित हो चुका था।)

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