प्रवाचक का जन्म : नारायण
Pravachak Ka Janm : Narayan
‘‘इनसान हमेशा से पापी रहा है। पापों से होकर उसकी जो निरंतर यात्रा है, वह मुक्ति के लिए है क्या? आदि में उसने पाप किया।’’
शुरू-शुरू में तो चंद्रन ‘मन्नान’ (केरल की एक दलित जाति) की समझ में कुछ आया नहीं, वह सिर्फ सुनता रहा।
बाएँ पैर से लँगड़ाता हुआ, स्लेट से सिर ढके और बारिश में भीगे-भीगे आनेवाले बेटे से बाप ने पूछा, ‘‘क्यों बे, आज भी मास्साब नहीं आए क्या?’’
बेटे ने सिर्फ ‘‘ऊँहूँ’’ कहा।
इधर कई दिनों से बारिश की झड़ी लगी रहती है तो टीला चढ़कर मास्साब कैसे आ पाएँगे? अगर आ पाए तो भी बड़ी उम्रवाली किसी लड़की को गुप्त रूप से कुछ-न-कुछ पढ़ाने में ही उनका मन लगता है। वे खुद पूछते, ‘‘क्यों बे, अक्षर पढ़कर आखिर तुझे क्या मिलने का?’’
दालान में बैठे दुबलाई हुई पिंडली पर हथेली दबाए बारी-बारी से माँ-बाप के चेहरों की ओर देखनेवाले बेटे की आँखों में पीड़ा झलक उठती थी। जैसे दादा का मंतर, वैसे ही उसकी दवाई। दोनों ही बेकार।
उस रोज भी शराब का नशा उतरने से पहले ही चंद्रन ने टीले की चढ़ाई शुरू की थी। रास्ते में वही उपदेशक लोग मिले, जो रोज-रोज वहाँ खड़े होकर धर्मोपदेश सुनाया करते थे।
‘‘तुम्हारे मन पाप से भरे हैं। पाप का इनाम होगा मृत्यु।’’
हाँफ मिटाने के लिए सुस्ताते समय चंद्रन ने सोचा—‘आखिर ये लोग क्यों इतने जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं, यद्यपि सुननेवाला कोई नहीं है? सात बरस के अपने बेटे ने आखिर कौन सा पाप किया? बीवी के साथ मिलकर उसने उसे जो जन्म दिया, यह कोई पाप है क्या? अगर है तो अपने बाप और दादा ने भी यह पाप किया था। यह पाप करने की अजीब-सी ललक होती है। पाप करके इनाम पाती हैं औरतें।’
चंद्रन की बीवी अकसर उससे कहती, ‘‘बच्चे को यूँ पड़ा रहने दोगे तो वह मर जाएगा।’’ सात बरस के उस बालक ने आखिर कौन सा पाप किया है? उसे मरने नहीं देना चाहिए इसलिए, मंतर और दवाई का प्रयोग किया।
सरकंडा खरीदने के लिए घाट पर आनेवाले सज्जन ने कहा कि बेटे को किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाना चाहिए। अच्छा डॉक्टर कौन है, वे कहाँ रहते हैं, आदि बातें उसने बताई।
लँगड़ाते-लँगड़ाते बेटा पास आ गया और उसके कंधे पकड़ लिये—‘‘बाबूजी, मेरा पैर।’’ उसकी कराह सुनते ही चंद्रन का दिल दहल उठता। सरकंडेवाले ने फिर कहा, ‘‘डॉक्टर साहब जरा मन से इलाज करें तो वे इसे जरूर चंगा कर पाएँगे।’’
कई दिनों से बच्चे का इलाज चल रहा था। मजदूरी के पैसे का लगभग आधा हिस्सा उसी के लिए खर्च होता था। फिर भी पैर बराबर दुबलाता जा रहा था। चंद्रन का प्रायः मजदूरी पर जाने को मन ही नहीं करता। वह सोचता, ‘आखिर क्यों?’
चंद्रन ने फैसला किया कि अब सरकंडेवाले के बताए डॉक्टर के पास जाएगा। जहाँ-तहाँ से उसे पैसे मिलने थे। उसने सब ले लिये। बेटे को कंधे पर उठाए हुए चंद्रन निकल पड़ा। रास्ते में जिस किसी ने भी उसे देखा, कोई खास पूछताछ नहीं की, क्योंकि यह जाना-पहचाना दृश्य था।
देर तक प्रतीक्षा करने पर बस, जो कभी-कभार ही उस रास्ते से गुजरती थी, आई। किसी तरह वह अंदर घुस गया। ऊपर की सलाख पकड़कर खड़ा रहना भी मुश्किल था। आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ जो खिंचाव था, उसके बीच संतुलन खोए बिना बच्चे को सही-सलामत थामे हुए किसी तरह वह खड़ा रहा।
अपने कंधे पर चिपटे-ठिठुरते हुए बच्चे को लिए जब वह बाहर निकला, तब उसकी जान-में-जान आई।
पुरानी टेबुल के पीछे बैठी महिला से उसने परची बनवा ली और डॉक्टर से मिलनेवाली लंबी कतार के आखिर में खड़ा हो गया। मंद गति से आगे बढ़ती कतार से बेखबर बेटा लँगड़ाता हुआ घूम-घूमकर आसपास के नजारे देख रहा था।
भीतर जाने पर चंद्रन को लगा कि डॉक्टर के चेहरे पर बेरुखी-सी झलक रही है। लपेटा हुआ नोट खोलकर उसने टेबुल पर रख दिया और कहा, ‘‘बच्चे को ठीक से देख लीजिएगा डास्साब।’’
मुसकराते हुए डॉक्टर ने देखा। उस अधखुले नोट पर और उसे मेज पर रखनेवाले के चेहरे पर कहीं कोई फंदे का निशान तो नहीं, जब उन्हें लगा कि नहीं, नोट उन्होंने मेज की दराज के भीतर कर लिया। ‘‘क्यों भई, इतनी देर क्यों लगाई इसे लाने में?’’ डॉक्टर के सवाल में मानो उदारता झलक पड़ती थी। चंद्रन खामोश खड़ा था कि डॉक्टर की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘दस दिन यह दवाई लेने के बाद फिर आना।’’
परचा देखकर फार्मेसिस्ट ने फरमाया, ‘‘इधर का स्टॉक खत्म हो गया। अब तुम बाहर से खरीद लो।’’ बाहर जिस दुकान पर दवाई मिलती थी, उसका नाम भी उन्होंने बतला दिया।
सभी दवाइयों के दाम बढ़े हुए थे। दवाई खरीदकर चंद्रन ने अपनी जेब टटोली तो पाया कि बस का किराया और कुछ फुटकर पैसा ही बाकी रह गया था। जान-पहचान का कोई चेहरा देखने को उसका जी मचल उठा, ताकि उससे पैसा उधार माँगे।
उसने बेटे के लिए केले का फ्राइ और चाय खरीदकर दे दी।
टीला चढ़ते-चढ़ते जब घर पास आ गया, तब बेटा खिसककर नीचे उतर आया और आसपास के कंकड़ और पेड़-पौधे सबका मुआयना करके सबको छू-छूकर लँगड़ाता हुआ आगे बढ़ने लगा। उसने बाबूजी से कई सवाल किए। जैसे डॉक्टर के कंधे पर लटकती नली का क्या नाम है, घुटने पर उँगली से ठोंग क्यों लगाई, आँखें और मुँह खुलवाकर उनके अंदर रोशनी क्यों फेंकी, आदि अनेक सवाल। ‘‘पता नहीं।’’ बाबूजी के इस जवाब ने उसे चिड़चिड़ा दिया—‘‘यह कैसा बाबूजी, जिसे कुछ भी पता नहीं!’’
बाप-बेटे को आते देखकर माँ आँगन में उतर आई। ‘‘यह लो दवाई। ई जो लाल गोली है, सुबह दो-दो देने का और सफेद गोली एक-एक करके शाम को दे देना।’’ चंद्रन की हिदायत के जवाब में उसकी बीवी के मुँह से निकल गया—‘‘हे दैया, कम-से-कम ई दवाई से बिटवा का पैर ठीक करवा दे।’’
जब भी मजदूरी मिलती, चंद्रन शराबखाने में घुस जाता और खाली हाथ घर लौटता।
गोली खानेवाले बेटे का हाल देखकर चंद्रन का मन भारी हो गया। बेटे का लँगड़ाना और तेज हो गया और उसका पाँव जमीन पर घिसटता जाता। जब दर्द बढ़ जाता, तब वह किसी चीज के सहारे खड़े होकर भारी आँखों से चुपके-चुपके बिसूरता। उसकी माँ मणि की आँखें भी भर आतीं और वह अपने पति को याद दिलाती, ‘‘ऊडॉक्टर को कुछ और पैसे दे दो, तब वे अच्छी दवाई दे देंगे।’’ चंद्रन की अकिंचनता से भली-भाँति परिचित मणि ने अपने गले में पहनी माला उतारकर दे दी—‘‘अब इसे बेचकर या गिरवी रखकर पैसा जुटाओ। जैसे भी हो, बिटवा को अस्पताल ले जाना ही होगा।’’
माला की जाँच करनेवाले साहूकार ने उसे गिरवी के रूप में लेने से इनकार कर दिया, ‘‘चला जा यहाँ से, वरना पुलिस के हवाले कर दूँगा।’’ हक्का-बक्का खड़े चंद्रन से फिर उसने कहा, ‘‘अरे वो तो मुलम्मे का गहना है। किसने यह तुझे बेच दिया? खबरदार जो किसी और के यहाँ ले गया तो! हवालात में बंद हो जाओगे।’’
‘‘स्साली ये रही तेरी माला।’’ घर आकर चंद्रन ने पत्नी के मुँह पर माला फेंक दी।
‘‘क्या हुआ, इसे बेचा नहीं क्या?’’ पत्नी के इस सवाल से चंद्रन तिलमिला उठा। वह चिल्लाया, ‘‘वो सोना नहीं मुलम्मा है री।’’ ‘‘यह किसने कहा? अपने बाबूजी की दी हुई दौलत है।’’ चंद्रन फिर झुँझलाया, ‘‘लौटा दे ई दौलत बुढ़वा को।’’
जान-पहचान के कुछ दूसरे लोगों से चंद्रन ने पैसे उधार माँगे। पैसे को कागज में लपेटकर पुलिंदा बनाया और कमर में खोंस दिया। ऊपर से शर्ट पहन लिया और धोती तह करके फिर उसके ऊपर चढ़ा लिया। बेटे को कंधे पर उठाए वह टीले से नीचे की ओर चल पड़ा। आजकल तो लोग छोटी सी दूरी भी पैदल तय करने के मूड में नहीं हैं। बस आने पर धक्कम-धुक्की करके अंदर घुसने के इंतजार में खड़े हैं। ‘‘कहाँ चल पड़े बच्चे को लेकर?’’ किसी ने पूछा। ध्यान से देखकर फिर सवाल किया, ‘‘अभी इसका पैर ठीक नहीं हुआ क्या?’’ चंद्रन ने कहा, ‘‘नहीं।’’
भीड़-भरी बस से वह अस्पताल के फाटक पर उतरा तो चैन पड़ी। बेटे को नीचे उतार दिया और अपनी कमर टटोली। कमर में बँधे हिस्से के पास धोती कट गई थी। चंद्रन को मानो काठ मार गया। पैसे का पुलिंदा गायब! उसके मुँह से चीख निकल गई, ‘‘हाय दैया!’’ कलेजा थामकर वह सड़क किनारे बैठ गया। उसके बदन पर हाथ लगा-लगाकर बेटा उसे पुकारने लगा। चंद्रन उसके चेहरे की ओर तथा दुबलाए पैर की ओर दीनतापूर्ण नजरों से देखता रहा। अब कैसे डॉक्टर से मिलूँगा और दवाई खरीदूँगा? और लौट जाना भी है। किसी अज्ञात व्यक्ति के प्रति प्रतिशोध की भावना लिये वह राह चलते लोगों की ओर देखकर यूँ ही बैठा रहा। ‘‘बाबूजी, बाबूजी!’’ लड़के की पुकार से चंद्रन झुँझला उठा, ‘‘अबे चुप! पैदा हुआ सत्यानासी बीमारी लेकर और मरने का नाम भी नहीं लेता।’’ बाप के झुँझलाने से बेटा सुबकने लगा। उसे देखकर बाप का दिल पसीज उठा। ‘‘रोओ नहीं बेटे।’’ उसने बेटे के आँसू पोंछकर उसे अपने शरीर से सटाकर दुलराया, ‘‘हमारा पैसा किसी ने चुरा लिया बेटे।’’
सड़क किनारे बेसहारा बैठ रोनेवाले बाप-बेटे को देखकर सफेद कपड़े पहना एक आदमी उनके पास आया। चंद्रन ने उस सज्जन को, जोकि टीले पर प्रवचन सुनाने आया करता था, पहचान लिया। यही सज्जन रट लगाया करता था कि पाप का इनाम होता है और वह इनाम है मौत। उसने पूछा, ‘‘तुम्हारा ही नाम चंद्रन है न?’’ चंद्रन ने ‘हाँ’ कहा।
उस सज्जन ने चंद्रन का सारा हाल-चाल पूछ लिया। सहानुभूति के साथ उन्होंने कहा, ‘‘मेरे साथ चलो भाई। कोई चिंता मत करना।’’
चलते-चलते वे सब डॉक्टर के पास पहुँचे। उस सज्जन ने डॉक्टर से जाने क्या कुछ कह दिया।
डॉक्टर ने बच्चे की जाँच की और दस दिन की दवाई और लिख दी। उस सज्जन ने ही दवाई खरीद दी थी। खाने का खर्च और बस का किराया भी उसने दिया। अहसान जताते हुए चंद्रन ने कहा, ‘‘यह अहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा साहब! हफ्ते भर के अंदर किसी तरह मैं इसे...’’
‘‘बेफिक्र होकर चले जाना भाई। पैसा तो जरूरत पूरी करने के लिए है। जब वह मेरे पास है तो मेरा और जब तुम्हारे पास रहे तो तुम्हारा हो जाता है।’’
‘‘मेरे पास से छिन गया पैसा आखिर किसका हो सकता है?’’ इसके बारे में चंद्रन ने सोचा, मगर बोला कुछ नहीं।
जरूरत के समय मदद करनेवाले उस नेक इनसान से संबद्ध नेक विचार मन में लिये चंद्रन टीला चढ़ने लगा।
बिना पूर्व सूचना के आई टोली देखकर मणि हैरान रह गई। टोली में छह-सात औरतें थीं। जो नीली किनारीदार सफेद साड़ी और घुटनों को ढकती बाँहोंवाले ब्लाउज पहने थीं। सभी मर्दो की पोशाकें भी सफेद रंग की थीं। प्रायः सबों के हाथ में काली जिल्दवाली पुस्तकें थीं। मर्द आँगन में ही खड़े रहे, जबकि स्त्रियों ने ‘बहनजी’ कहकर अंदर रसोई में प्रवेश किया। उन्होंने कहा, ‘‘ये चीजें ऐसे नहीं रखते। पीने का पानी ढककर रखना चाहिए।’’ जब एक औरत झाड़ू लेकर कूड़ा साफ करने लगी तो मणि ने खुद वह काम पूरा कर दिया।
परिवार के सदस्यों की संख्या और आमदनी आदि के बारे में उन्होंने जानकारी हासिल की। चंद्रन, जो उस वक्त कहीं से लौट आया था, आँगन में खड़ी भीड़ देखकर पहले कुछ सकपकाया। उसकी मदद करनेवाला सज्जन भी उस टोली में शामिल था। उस दिन दी हुई रकम कहीं वे माँग बैठें तो? इस समय वह उसे लौटा नहीं पाएगा।
‘‘अरे, यह तो अपने चंद्रन भैया हैं न? कहाँ गए थे आप? घर आए मेहमानों का पता नहीं चला क्या?’’ उसमें से एक व्यक्ति ने पूछा। खिसियाया हुआ-सा चंद्रन हँस दिया। उसके चारों ओर ऐसे व्यक्ति थे, जिनके चेहरे पर नया शिकार पाने से उत्पन्न खुशी झलक रही थी। क्या देकर इनका स्वागत-सत्कार करूँ? यह चिंता उसे सताने लगी। नाम बताकर वे सब अपना-अपना परिचय देने लगे।
घरवाले ने मेहमानों के लिए दालान में चटाई बिछाई। एक स्त्री चंद्रन के बीमार बालक को गोद में लेकर बीच में बैठ गई और बोली, ‘‘इस बच्चे को चंगा करने के लिए हम प्रार्थना करेंगे भाई-बहनो!’’ मणि भी उसके साथ आकर बैठ गई।
तहेदिल से की गई प्रार्थना के बाद टोली के नेता ने कहा, ‘‘बिल्कुल चिंता मत करना भाई। करुणामय देवपुत्र यीशु पर विश्वास रखो। उसके नाम पर मैं कहता हूँ कि यह बच्चा चंगा हो जाएगा। इस परिवार को सर्वशक्तिमान प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त है।’’ मन्नान स्त्री-पुरुष अपने बच्चों समेत हाल-चाल जानने के लिए आते रहे। उनकी ओर देखकर मुसकराते हुए टोली के नेता ने कहा, ‘‘हे परमेश्वर की अच्छी संतानो, सुनो। हमारी परीक्षा लेने के लिए ही परमेश्वर सचमुच हमें मुसीबतें प्रदान करते हैं, क्योंकि सभी मनुष्यों ने पाप किए हैं। पापों से मुक्ति और देवराज्य की प्राप्ति के लिए देवपुत्र सर्वशक्तिमान परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे। मनुष्यों के पापों की मुआफी के लिए उसने सूली पर चढ़कर मृत्यु का वरण जो किया। चलो, हम सब मिलकर उनका भजन गाएँ। आमीन!’’
पहले चंद्रन की सहायता करनेवाले सज्जन ने भजन के बाद उससे कहा, ‘‘हम फिर आएँगे भाई। हम सब मिलकर इस इलाके के घरों का दौरा करेंगे। आपको मंजूर है न?’’ चंद्रन ने कहा, ‘‘जी हाँ, मंजूर।’’
उस दिन उन लोगों की संख्या कुछ ज्यादा थी। कुछ तो बरतन, कपड़े और खाद्य वस्तुओं के पैकेट लिये हुए थे। उनमें से एक स्त्री ने मणि से कहा, ‘‘यह सब आपके लिए है बहन।’’ इतनी महँगी चीजें देखकर मणि की आँखें चमक उठीं। पहले कभी उसने ऐसी चीजें देखी नहीं थीं और अब वे ही चीजें उसे मुफ्त में मिल रही हैं। सहसा उस बहनजी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘इस परिवार का हाल प्रभु को मालूम है। चलो, हम खाना बनाकर सबको खिलाएँ।’’
उनके साथ एक डॉक्टर भी था। उन्होंने चंद्रन के बीमार बच्चे की धैर्यपूर्वक विस्तृत जाँच की। ‘‘इस बच्चे के इलाज का सारा इंतजाम मैं करूँगा। इसे दवाइयों और दैवी कृपा की जरूरत है। प्रभु के आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करनी है।’’ उसके बाद बच्चे के माँ-बाप से डॉक्टर ने यूँ कहा, ‘‘बेटे के इलाज के लिए तुम्हें एक पैसा भी खर्च नहीं करना है। अस्पताल जाने के लिए टीले के नीचे गाड़ी आई है, तुम लोग चलो मेरे साथ।’’
उस रोज के भोजन के लिए प्रभु का शुक्रिया अदा करके टोली के लोग भी उस परिवार के साथ खाने बैठे। फिर चंद्रन को साथ लेकर भजन गाते हुए वे पड़ोस के घरों में गए।
मुफ्त में मिली समृद्धि से मणि की आँखें चौंधिया गईं। उसका पति लोगों के बीच से उत्साहित नजरों से उसकी ओर देख रहा था। उसे पक्का विश्वास हो गया कि अब कोई-न-कोई चमत्कार होनेवाला है।
टीले की तराई से चंद्रन सपरिवार जीप में सवार हो एक नए अस्पताल में पहुँच गया। डॉक्टर, जिनके सभी बाल पक गए थे, ने बच्चे की जाँच की। कुछ देर सोचने के बाद वे बोले, ‘‘अब कुछ दिनों के लिए अपने मुन्ने को यहीं पड़ा रहने दो।’’ नीली किनारीदार सफेद साड़ी पहनी सिस्टर ने खाट पर चादर बिछाकर बच्चे को लिटाया और चंद्रन से कहा, ‘‘ईश्वर की कृपा से बच्चा जल्दी ठीक हो जाएगा। अगर घर पर कोई काम है तो आप जा सकते हैं। आपकी बीवी यहाँ सही सलामत रहेगी। बीमार बच्चे को माँ की सेवा-टहल जरूरी है न!’’
मणि ने पति के कानों में फुसफुसाया, ‘‘अपने पास पैसे कुछ भी नहीं हैं। यहाँ कुछ भी देना नहीं है, फिर भी बिना पैसे के यहाँ कैसे रहेंगे? ’’
चंद्रन ने कहा, ‘‘हाँ, देखता हूँ कि कोई काम मिलेगा या नहीं।’’
टीले की तराई में बस से उतरते समय चंद्रन को नहीं लगा कि खास कुछ हुआ है। घर पहुँचने पर बिरादरी के कुछ लोगों ने बेटे के बारे में पूछा, जो उसके लिए बिल्कुल नया अनुभव था। पहले जो लोग सामने पड़ जाने पर बोलने से कतराते थे, वे अब कुशल-क्षेम पूछ रहे थे। लीला ने कहा कि मणि बहन का साथ देने के लिए वह आने को तैयार है। उसका चरित्र संदेहास्पद था, इसलिए चंद्रन ने कृतज्ञतापूर्वक वह प्रस्ताव ठुकरा दिया।
कुछ मन्नान स्त्रियाँ, जो यह कहकर कि हम शहर जा रही हैं, मुखिया के साथ जातीं और दो-तीन दिन बाद ही लौटतीं, वे नए कपड़े पहने होतीं। उनके पास पैसे भी होते थे। वे बिना लाज-शर्म के दूसरे मर्दों के सामने शृंगार की चेष्टाएँ करतीं। विरोध करनेवालों को उनकी गालियाँ सुननी पड़तीं। शराब और गाँजे का सेवन करके घर-परिवार के लिए बोझ बने हुए लोग भी थे, जो हाथी-दाँत और चंदन की तस्करी में कभी डाकुओं और वन-विभाग के कर्मचारियों के बीच बिचौलिए का काम भी करते थे। इन सब लोगों में एक प्रकार का मन परिवर्तन-सा हुआ है। आखिर किसने इन सबका मन बदल दिया है?
गर्भ गिराना असल में किसी बेगुनाह की हत्या के बराबर है। दूसरों की दौलत चुराना, पड़ोसी की औरत के प्रति कामुकता दिखाना, झूठ बोलना आदि नरक के द्वार खोलनेवाले कार्य हैं, इसलिए उस रास्ते मत जाना भाई। पहले जब बिना किसी सहायता के इस प्रकार के उपदेश मिलते थे, तब लोग उन्हें निरा मजाक समझते थे।
कुछ मन्नान स्त्री-पुरुष अस्पताल आए। बच्चे के लिए वे फल और मिठाइयाँ लेकर आए थे। लाड़-प्यार से उसके चारों ओर खड़े होकर प्रार्थना भी की। मणि और चंद्रन हैरान रह गए कि उपदेश सुनने के लिए आनेवालों में कुछ उसके अपने गाँव के लोग भी थे।
‘‘पल भर के लिए भी किसी का किसी दूसरे के पास अपना शरीर बेचना पाप है। किसी दूसरे की औरत और जमीन पर लालच करना पाप है भाइयो! दैवी कृपा से अनुगृहीत अपने गाँव से कोई भी बहन व्यभिचार के लिए न जाए। शराब और अन्य नशीली चीजों का सेवन करके आपस में झगड़ना मत। तहेदिल से जमीन पर मेहनत करोगे तो मिट्टी सोना उगलेगी। चलो, हम लोग प्रतिज्ञा करें कि एक-दूसरे पर लाँछन लगाए बिना प्यार-मुहब्बत के साथ, एक-दूसरे की सहायता करते हुए
परमेश्वर की इष्ट-प्रजा बनकर जीवन बिताएँगे। हम अपने अनुगृहीत घरों को स्वच्छ रखेंगे। अपने पास जो कुछ है, उसका एक हिस्सा गरीब पड़ोसी को देकर बचा-खुचा हिस्सा ही स्वयं खा लो।’’
‘‘अगर मेरा पड़ोसी दुःखी है तो मैं उससे सहानुभूति रखूँगा। उसके सुख के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा।’’ सब लोग इन प्रार्थना-वचनों को फुसफुसाती आवाज में दुहरा रहे थे। दैवी कृपा के लिए उपवास और सामूहिक प्राथनाएँ की गईं।
चंद्रन का बेटा अपनी माँ का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलते हुए वहाँ आया था। अपने माँ-बाप की तरह वह भी अच्छे कपड़े पहने था। उस दिन डॉक्टर ने उस टोली से कहा, ‘‘बच्चा जल्दी ठीक हो जाएगा। सब ईश्वर की कृपा है।’’
‘‘पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा को प्रणाम।’’
चंद्रन और मणि को दिव्य ज्ञान मिला कि अपना परिवार अनुगृहीत हुआ है। संतोष और कृतज्ञता भरे मन से दोनों ने टोली की ओर देखा और भक्तिपूर्ण नयनों से आकाश की ओर देखकर प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े। जब लोग दैवी कृपा से चंगा हुए बच्चे को छूकर उसकी पीठ थपथपा रहे थे, तब बड़े पास्टर ने सवाल किया, ‘‘क्या तुम पापों से मुक्ति चाहते हो?’’ दैवी जमात में अनुभव-कथन करने को तैयार कुछ लोग वहाँ उपस्थित थे। छोटे पास्टर ने चंद्रन और मणि की देह पर पवित्र तेल का लेप किया और सिर पर जल छिड़का। चंद्रन को दानियेल, मणि को मरिया और उनके पुत्र को सामुअल कहकर नए सिरे से नामकरण किया गया।
स्वच्छ मन और शरीर लिये हुए जब दानियेल और परिवार टीले पर पहुँचे तो प्रथम पुरुष वर्षा पानी से मिट्टी पुलक उठी थी। मुरझाई पड़ी झाड़ियों में नया उत्साह भर गया था। चारों ओर नए-नए कोपल फूट पड़े थे। मरिया ने घर और आँगन साफ किया। शाम को बेटे को बीच में बिठाकर नया-नया सीखा भजन गा लिया। इससे पहले भी शामें नियमित रूप से आती थीं, मगर किसी को पता ही नहीं चलता था।
दैवी कृपा से खुशहाली के दिन एक-एक करके बीतते गए। पादरी ने कहा कि बपतिस्मा करके विमुक्ति के लिए सब तैयार रहें। उस दिन जो कपड़े पहनने थे, उन्हें खरीदने के लिए पहले सहायता करनेवाला वह सज्जन दानियेल को अपने साथ ले गया।
टीले की तराई में से बहती नदी में जा मिलनेवाले नाले के किनारे छोटी से भीड़ इकट्ठी हो गई। उनमें से कुछ के हाथों में गाजे-बाजे थे। टीले को घेरे नीचे आसमान की ओर देखकर हाथ जोड़कर खड़े प्रार्थना सुनाने के बाद दानियेल और परिवार पानी में उतर आए। पास्टर ने उनके सिरों पर पानी उड़ेल दिया। तब किनारे पर बाजे बज उठे।
विमुक्त दानियेल को दिव्य से पता चला कि टीले पर बहुत बड़ा घाव है और उसे धोकर साफ करके सुखा देना चाहिए। मरियम तथा अन्य लोगों के साथ उसने वहाँ के घरों का दौरा किया। प्रवाचक और कीर्तन-गायकों द्वारा भरसक उच्च स्वर में दैवी महत्त्व का आलाप करते हुए कोलाहल ने टीले में कंपन पैदा किया। छोटा सामुअल, जिसका पैर अब ठीक हो गया था, शहर के एक विद्यालय में पढ़ने लगा। वह नई पुस्तकें पढ़ता और माँ-बाप के सामने आज्ञाकारी और अनुशासनशील पुत्र बना रहा। उसकी आँखों में आशा और विश्वास की किरणें झलकने लगीं। टीले के विश्वासियों के परिवारों के लिए सामूहिक प्रार्थना और कर्मयोजना पर विचार के लिए सामान्य मंच की जरूरत महसूस हुई। सप्ताह में एक बार जानेवाले पादरी की जगह कोई स्थायी पादरी भी जरूरी हो गया। टीले की ऊँचाई पर दानियेल का मकान था। एक इतवार के दिन टोली को संबोधित करके उसने कहा, ‘‘देवपुत्र के लिए देवमंदिर बनाने के लिए जरूरी जमीन मैं दूँगा।’’ उस प्रस्ताव का सहर्ष स्वागत हुआ।
देवमंदिर बनाने के लिए चुनी गई जमीन एक चट्टान के ऊपर थी। बिना माँगे ही दानियेल को जमीन की कीमत मिल गई। अच्छी कीमत। आस-पास सुगमता से मिलनेवाले बाँस, सरकंडा और घास की मदद से एक छोटा सा गिरजाघर बना। पास्टर ने आकर विधिवत् उसका उद्घाटन किया और उसमें प्रार्थना शुरू की। गिरजाघर की ओर जानेवाली सड़क पर पत्थर बिछाकर विश्वासियों ने उसे पक्की और साफ-सुथरी बना लिया।
कड़ी मेहनत के फलस्वरूप वहाँ की मिट्टी में काली मिर्च, कहवा आदि की अच्छी फसल तैयार हो गई। केलों के बागानों में केलों के बड़े-बड़े गुच्छे तैयार हो गए। फसल के लिए अच्छा दाम मिलना चाहिए। रहने के लिए अच्छे मकान चाहिए। कम-से-कम सप्ताह में एक बार डॉक्टर को आना चाहिए। इस प्रकार उनकी जरूरतें बढ़ती ही गईं।
सरकारी स्कूल के मास्टर साहब कभी का स्कूल छोड़कर चले गए थे। एक रात जबकि प्रकृति झुँझला उठी थी, साथ आई बारिश और आँधी को रोकने में असमर्थ ट्राइबल स्कूल धराशायी हो गया। उसके दारुण अंत पर अधिकतर लोग खुश थे। नया स्कूल बनाने के लिए तराई में थोड़ी सी समतल जमीन देने को पत्रेस राजी हो गया। बिना मंजूरी लिये मजदूरी करने को दूसरे लोग तैयार हुए। दिल से वे सब आदिवासी जो ठहरे।
नया स्कूल बना। ईश्वरभक्त और मानव-प्रेमी लोग अध्यापक बनकर आए। विश्वासियों ने यह घोषणा की कि नए विद्यालय में जात-पाँत व भेदभाव के बिना कोई भी शिक्षा प्राप्त कर सकता है। बच्चों के लिए कपड़े, पाठ्य-सामग्री तथा मध्याह्न भोजन और महीने में एक बार डॉक्टरी जाँच की व्यवस्था की गई। सबकुछ मुफ्त था। बच्चों के माँ-बाप की भी डॉक्टरों ने जाँच की। जरूरतमंद लोगों को दवाई और उपदेश भी मिलते थे, जिसके एवज में उन्होंने बच्चों के मध्याह्न भोजन के लिए चंदा दिया।
छात्र, जिन्हें अक्षरों की ज्यादा जानकारी प्राप्त हुई, यद्यपि उन्हें ईश्वर की उतनी जानकारी प्राप्त नहीं थी, बेहतर शिक्षा के लिए शहरों में गए। यह क्रम बराबर जारी रहा।
संपन्न लोगों ने फैसला किया कि गिरजाघर के नित्य की मरम्मत में खर्च होनेवाले पैसे से एक पक्का मकान ही बनवाया जाए और हर व्यक्ति उसके लिए अपनी सामर्थ्य के मुताबिक पैसा दे।
सीमेंट, रेत और लकड़ी को कंधे पर लादे, चींटियों की पाँत की तरह विश्वासियों का झुंड टीला चढ़ने लगा। उनके बीच राजमिस्त्री और बढ़ई भी थे। उपलब्धियों के बाद कुछ लोगों का जोश ठंडा पड़ गया। वे फिर शराब और औरत की शरण ढूँढ़ने लगे। गिरजाघर के लिए स्थायी पास्टर की नियुक्ति की घोषणा हुई। उनके स्थानारोहण की वे बेसब्री से इंतजार करने लगे। आगे-आगे लाठी टेककर किसी दूसरे का सहारा लिये वयोवृद्ध पास्टर और उनके पीछे लोगों की भीड़ टीला चढ़कर ऊपर आ गई। बड़े पास्टर ने विश्वासियों की ओर लाठी फैलाकर उन्हें आशीर्वाद दिया।
गिरजाघर में विशेष रूप से तैयार किए गए मंच के सामने दोनों ओर विश्वासी लोग उपविष्ट हुए। सफेद वरदी पहने सामुअल को बड़े पास्टर ने सभा के सामने खड़ा कर दिया और कंपित स्वर में बोले, ‘‘प्रभु की संतानो! यह जो तुममें से एक है, तुम्हारा नया गड़ेरिया है। इसकी बात तुम मान लो।’’
एक बुढ़िया, जो सामुअल को गौर से देख रही थी, ने पास बैठी स्त्री से पूछा, ‘‘अरे यह तो दानियेल और मरियम का बेटा सामुअल है न चिन्नाम्मा?’’
चिन्नम्मा ने कहा, ‘‘हाँ।’’
तब एक सामूहिक सम्मति का स्वर गूँज उठा, ‘‘आमीन।’’
अनुवाद : वी.के. रवींद्रनाथ
(‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका से साभार)
साभार : वंदना टेटे