प्रतिशोध (कहानी) : हजारीप्रसाद द्विवेदी
Pratishodh (Hindi Story) : Hazari Prasad Dwivedi
काशी के रास्ते में देखा गया, एक बैलगाड़ी जा रही है । गाड़ी में सिर्फ दो आदमी बैठे हैं, एक गाड़ीवान और दूसरा उसी गाड़ी का मालिक मालिक की पोशाक देखकर जान पड़ता है कि वे एक बड़े सेठ-बड़े सौदागर हैं। सेठजी का नाम था पांडु ।
जरा पहले अच्छी वर्षा हो गयी है, इसलिए रास्ता कीचड़ से बहुत खराब हो गया है- फिसलने लायक । गाड़ी खींचने में बैलों को बड़ी तकलीफ हो रही है। लेकिन उन्हें जितना भी कष्ट क्यों न हो, गाड़ी उन्हें खींचनी ही पड़ेगी- उनकी ओर देखता कौन है ? गाड़ी चलते-चलते एक चढ़ाव की जगह पर आ गयी, इसीलिए बैलों की चाल भी धीमी हो गयी। वे किसी तरह, जितना हो सकता है, धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं। सेठजी ने यहीं पर एक संन्यासी को देखा । संन्यासी का सिर मुंड़ा हुआ है और उनके पहनावे में नारंगी रंग का एक कपड़ा और चादर बड़ी खूबी से पहने गये हैं। इन कपड़ों से सारा शरीर ढक गया है। उनका मुंह खूब खूब सुंदर, शांत और प्रफुल्ल है। संसार के मंगल के लिए बुद्धदेव जो रास्ता दिखा गये हैं, संन्यासी उसी पथ के पथिक हैं। इसीलिए लोग उन्हें बौद्ध संन्यासी या बौद्ध भिक्षु कहा करते थे ।
जिस समय की बात हो रही है, उस समय देश में बहुत बौद्ध संन्यासी थे । इस संन्यासी को लोग श्रमण नारद कहकर पुकारते । संन्यासी को देखकर ही सेठ के मन में भक्ति जगी । उनसे बातचीत होते सेठजी ने जब जाना कि वे भी काशी ही जा रहे हैं, तो उन्होंने अपनी गाड़ी में बैठकर चलने के लिए उनसे अनुरोध किया । संन्यासी पैदल ही जा रहे थे, रास्ते की मेहनत से बहुत थक गये थे । इसीलिए सेठजी को धन्यवाद देकर उसी गाड़ी में सेठजी के साथ ही जाने लगे। दोनों के रास्ते का समय आनंद से कटने लगा ।
कुछ दूर जाने पर गाड़ी एक खूब ढालुवां रास्ते में आकर जरा रुकी । देखा गया, सामने एक दूसरी गाड़ी का धुरा खुल जाने से उसका एक पहिया जमीन पर गिर गया है। उसका गाड़ीवान अकेला ही था, बेचारा बड़ी देर से कोशिश करके भी कुछ कर नहीं सका था, बिल्कुल घबरा गया था । वह स्थान भी ऐसा था कि उस गाड़ी को बिना हटाये दूसरी गाड़ी के जाने का रास्ता ही नहीं था। गाड़ी एक साधारण किसान की थी, उसका नाम देवल था । देवल अपनी गाड़ी में कई बोरे चावल लादकर बेचने के लिए काशी ही जा रहा था । रास्ते बेचारे की यह दुर्दशा हो गयी !
सेठजी ने जब देखा कि देवल की गाड़ी को रास्ते से हटाये बिना उनकी गाड़ी के जाने का कोई उपाय नहीं है तो वे बड़े झुंझला गये । उन्होंने अपने नौकर को हुक्म दिया, “जा, उसकी गाड़ी के बोरों को उठाकर नीचे फेंक दे और गाड़ी को एक तरफ खींचकर हमारी गाड़ी आगे निकाल ले चल ।”
किसान ने गिड़गिड़ाकर विनय के साथ कहा, “ सेठजी, एक मामूली खेतिहर हूं-बहुत ही गरीब हूं । वर्षा के पानी से रास्ता कीचड़ से भर गया है। बोरे अगर नीचे गिरेंगे तो हमारा सारा चावल खराब हो जायेगा । आप ज़रा रुकिये, मैं जिस तरह से होगा उसी तरह अभी अपनी गाड़ी को इस ढाल से हटाकर आपके लिए रास्ता कर देता हूं ।” किसान की कातर प्रार्थना सेठजी के कानों में नहीं घुसी। और भी बिगड़कर उन्होंने नौकर को कड़ा हुक्म दिया, “अबे, देखता क्या है, हमारा हुक्म बजा ! चल, उसका बोरा - बस्ता फेंककर गाड़ी को आगे बढ़ा ।" नौकर गाड़ी पर से बोरों को नीचे फेंककर गाड़ी को एक तरफ ठेलकर अपनी गाड़ी निकाल ले गया ।
श्रमण नारद गाड़ी से कूदकर बोले, “सेठजी, माफ कीजिए, मैं और आपके साथ नहीं जा सकता। मैं और भी आपके साथ जाता, पर अब नहीं । आप जिस किसान की गाड़ी उलटकर आगे जा रहे हैं, उसके साथ आपका नजदीकी रिश्ता है । अपनी गाड़ी में मुझे जगह देकर आपने मेरा बहुत उपकार किया है। इसीलिए मैं आपका ऋणी हूं। आपके इस ऋण को मुझे चुकाना होगा। इस आपके निकट संबंधी किसान की सहायता करके मैं इस ऋण को चुकाऊंगा । इसकी यदि कुछ भलाई मैं कर सका, इसे कुछ भी फायदा दिलवा सका, तो सेठजी, इससे आपका भी उपकार होगा। आपने इस किसान को बहुत नुकसान पहुंचाया है, इससे आपका भी बड़ा नुकसान हुआ है। इसीलिए आपको इस नुकसान से बचाने के लिए हमें भरसक कोशिश करनी पड़ेगी।” सेठ जी के कानों में ये बातें नहीं गयीं । उनकी गाड़ी आगे निकल गयी।
श्रमण नारद देवल के पास गये। दोनों जने मिलकर, बोरों को उठाकर, उनमें से भीगा चावल एक जगह और बचा हुआ दूसरी जगह ठीक करके बांधने लगे। गाड़ी को भी दोनों ने पकड़ करके उठाया। ठीक करके बोरों को चढ़ाया। देवल ने सोचा कि निश्चय ही यह संन्यासी एक परोपकारी महापुरुष हैं। इसीलिए उनका यथोचित सम्मान करके पूछा, “महाशय, मुझे जहां तक याद है वहां तक देखता हूं, मैंने तो कभी इन सेठजी की कुछ भी बुराई नहीं की । मुझसे कुछ भी इनका नुकसान नहीं हुआ। फिर भी उन्होंने मेरे साथ यह अन्याय क्यों किया ?” नारद बोले, “सुनो भाई, इस समय तुम जो कुछ भोग रहे हो, वह तुम्हारे पहले के किये कर्मों का फल है। मनुष्य जैसा बोता है, फसल भी वैसी ही काटता है।”
देवल गाड़ी मरम्मत करके चला ; नारद भी साथ-ही-साथ पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर दोनों बैल भड़क उठे । देवल सामने सांप की तरह की एक लंबी चीज देखकर डरा । नारद ने नजदीक जाकर अच्छी तरह देखकर कहा, “यह एक लंबा थैला है, देखो इसमें अशर्फियां भरी हैं ।" देखकर वे समझ गये कि यह सेठजी का थैला है। यह कब गिर पड़ा, सेठजी यह भी नहीं समझ पाये हैं। थैले को उठाकर देवल के हाथ में देकर उन्होंने कहा, “जब तुम काशी पहुंचना तो खोजकर सेठजी के हाथ में इसे दे देना । उनका नाम पांडु सेठ है और उनके नौकर का नाम महादत्त । उनसे कहना कि वे तुम्हारे साथ जो अन्याय कर गये हैं उसे मन में न लायें । कहना कि मैं उस बात को भूल गया हूं।' देवल, तुम सेठजी के सभी अपराध क्षमा करना ।”
नारद यही कहकर चले गये; देवल अपनी गाड़ी लेकर आगे बढ़ा।
काशी में मल्लिक नामक एक सौदागर थे। पांडु सेठ काशी में इन्हीं की आढ़त में कारोबार करते थे । इसीलिए दोनों में खूब प्रेम था। पांडु जब इनके पास आये तो ये रोते-रोते बोले, “भाई, हम भारी बिपत में पड़ गये हैं। तुम्हारे साथ आगे मैं कारोबार कर सकूंगा, ऐसी आशा मुझे नहीं है। राजमहल में खुद राजा के लिए चावल पठाने का मैंने वादा किया है। कल सवेरे ही मुझे सारा चावल देना पड़ेगा, किंतु आज मेरे हाथ में चावल का एक दाना भी नहीं है । इसी शहर में एक बड़े व्यापारी हैं, उनके साथ मेरी होड़ रहती है। उन्होंने राजमहल मेरे वादे की बात किसी तरह जानकर शहर के आसपास के सभी अच्छे चावल महंगे दाम पर खरीद लिये हैं। मैं और अधिक दाम देने पर भी कहीं कुछ नहीं पा रहा हूं। यही सोचता हूं कि कल चावल कैसे दूंगा। जान पड़ता है, अब इज्जत नहीं रहेगी। हमारा अब कुशल नहीं है । अगर विधाता किसी तरह कल तक एक गाड़ी चावल जुटा दे तो बच जाऊं, नहीं तो मुझे अब मरना होगा।”
मल्लिक के यह बात कहते ही पांडु को अपने अशर्फियों के थैले की बात याद आयी । वे व्यस्त होकर गाड़ी में जो कुछ था, एक-एक करके खोज गये, किंतु पाया कुछ भी नहीं । उन्हें शक हुआ कि उनके नौकर महादत्त ने चोरी की है। बेचारा महादत्त पुलिस के हाथ में पड़ा । वह कितना भी क्यों न कहे कि उसने अशर्फियों का थैला नहीं लिया, मगर पुलिस छोड़नेवाली नहीं थी । जितना हो सका, उसने मारपीट शुरू कर दी। मगर जब उसने सचमुच ही चोरी नहीं की थी तो कैसे स्वीकार कर लेता कि उसी ने लिया है ! वह सोचने लगा- 'हाय, मैंने ऐसा कौन-सा खराब काम किया है, जिसके फलस्वरूप मेरी यह दुर्गति हो रही है ! भाई किसान, मैंने सेठजी की बात मानकर बिना कारण तुम्हें कष्ट दिया है, तुम मुझे क्षमा करो !'
पुलिस जिस समय महादत्त को लेकर मारपीट रही थी, उसी समय देवल वहां आ गया। पांडु पहले से ही वहां थे । देवल ने अशर्फियों का थैला उनके पास रख कर बताया कि किस प्रकार उसने उसे पाया था। पुलिस महादत्त को अधिक देर तक नहीं अटका सकी, उसने महादत्त को छोड़ दिया। देवल भी वहां और न ठहरकर चला गया।
इधर मल्लिक को खबर मिली की देवल के पास एक गाड़ी अच्छा चावल है। उन्होंने उसी समय देवल को खूब अच्छा दाम देकर चावल खरीद लिया और राजमहल में पठवा दिया । देवल भी आशा से अधिक दाम पाकर आनंद के साथ अपने गांव को रवाना हुआ ।
पांडु ने जब देखा कि उनका खोया हुआ थैला मिला है और उनके आढ़तदार मल्लिक भी विपत्ति से उद्धार पा गये हैं, तो उनका हृदय आनंद से भर गया। वे सोचने लगे, 'अगर आज यह किसान न आता तो न मैं मोहरों का थैला पाता और न मल्लिक की विपत्ि जाती । मैंने इस किसान के साथ कैसा खराब व्यवहार किया । इसे कितना कष्ट दिया है, किंतु इसने मेरे साथ कैसा अच्छा व्यवहार किया ! वे सब बातें आज इसके मन में हैं ही नहीं। यह खूब भलामानस है । एक साधारण किसान कैसे इतना भला आदमी हुआ ? मालूम होता है, उस संन्यासी के गुण से ही ऐसा हुआ है । पारसमणि के सिवा लोहे को कौन सोना कर सकता है !' यह सब सोचकर पांडु के मन में उस संन्यासी से एक बार भेंट करने की प्रबल इच्छा हुई । वे उन्हें खोजने लगे, पर संन्यासी कहीं भी दिखायी नहीं पड़े ।
उस समय काशी में बौद्ध संन्यासियों के ठहरने के लिए बड़े-बड़े मठ थे । इसीलिए पांडु के मन में सहज ही यह बात उठी कि श्रमण नारद इन्हीं में से किसी एक मठ में मिल सकते हैं । मठ का दूसरा नाम विहार है । तब पांडु ने एक विहार से दूसरे में खोजते खोजते श्रमण नारद को देखा और उनको प्रणाम किया। फिर दोनों में कौन कैसा है, कैसा नहीं, इत्यादि नाना बातें हुईं ।
बातों ही बातों में श्रमण नारद ने कहा, “सेठजी, अधिक कहने से आप इस समय नहीं समझेंगे, पीछे समझ सकेंगे। इसीलिए इस समय एक मामूली बात कहता हूं। आप इसे याद रखकर चलें, तो सब ओर से आपका भला होगा। सेठजी, जब आप किसी को दुख पहुंचाने जायें तो अपने मन में पहले यह सवाल कीजिए कि 'अगर दूसरा कोई मुझे ठीक ऐसा ही कष्ट दे तो क्या मुझे अच्छा लगेगा ?' यदि अच्छा लगे तो आप दूसरे को दुख दें और यदि अच्छा न लगे तो आप भी दूसरे को दुख नहीं दे सकते । सेठजी, एक और बात आप मन में पूछें कि 'यदि मेरी कोई सेवा करे तो मुझे अच्छा लगेगा कि नहीं ?' यदि अच्छा लगे तो आप भी दूसरों की सेवा करने के अवसर से नहीं चूकिये । सेठजी, आप जैसा बीज बोयेंगे, वैसा ही फल भी होगा। दूसरे को दुख देकर उससे अपने दुख का बीज लगाया जाता है । इसी तरह दूसरे को सुख देकर अपने सुख का बीज बोया जाता है ।"
पांडु सेठ ने कौशाम्बी में एक बड़ा विहार बनवाया है। सैकड़ों बौद्ध भिक्षु यहां वास करते हैं। बहुत दूर-दूर से बहुत-से लोग यहां विद्या प्राप्त करने आते हैं। लोग यहां धर्म की बातें सुनकर आनंद पाते हैं ।
व्यवसाय- वणिज्य में पांडु सेठ इस समय खूब बड़े हो गये हैं। उनका नाम सभी जानते हैं। एक बार कौशाम्बी के राजा ने आज्ञा दी कि पांडु सेठ के द्वारा एक सोने का मुकुट बनवाना होगा, जिसमें अनेक तरह के हीरा-मोती के काम होने चाहिए जिससे वह खूब सुंदर हो। दाम चाहे जितना भी अधिक क्यों न हो, कोई हर्ज नहीं ।
राजमहल से सेठजी के पास खबर गयी। सेठजी ने भी थोड़े ही दिनों में एक खूब सुंदर मुकुट तैयार कर लिया। जब वे इस मुकुट को लेकर कौशाम्बी जाने लगे तो साथ में और भी कई तरह के जवाहरात ले लिये, क्योंकि वहां इनकी बिक्री सहज ही में हो सकती थी । बहुत रुपये का सामान साथ में होने के कारण सेठजी ने साथ में बीस-पच्चीस सिपाही भी ले लिये, क्योंकि मुमकिन था कि रास्ते में कोई बिपद आ पड़े ।
कौशाम्बी के रास्ते में एक जगह थोड़ी खतरनाक थी। वहां रास्ते के दोनों ओर पहाड़ हैं, रास्ता बीच से होकर जाता है। इसी जगह एक छोटे से गांव में कई डाकू रहते थे । अवसर पाकर राहगीरों को मारपीटकर उनका सामान लूट लेना ही उनका काम था। सेठजी जब इस स्थान पर पहुंचे तो पचास-साठ डाकुओं ने आकर उन्हें घेर लिया। सिपाही उनके साथ खूब लड़े मगर कुछ कर न सके। सेठजी के पास जो कुछ था, डाकू लूटकर ले गये । उनका सब कुछ चला गया । मुकुट के साथ जो जवाहरात लाये थे वह भी गया, कुछ भी नहीं बचा । सिर पर हाथ रखकर वे जमीन पर बैठ गये ।
सेठजी के मन में खूब चोट लगी, किंतु वे चुप रह गये। बाहर कुछ भी प्रकट नहीं होने दिया । उन्होंने सोचा, 'एक दिन मैंने भी कम अत्याचार नहीं किये हैं, कितने लोगों को कितना कष्ट दिया है, यह बात आज मैं समझ रहा हूं; मैंने जो बीज बोया है उसी का यह फल मिल रहा है।' सेठजी ने आज समझा कि दुख क्या वस्तु है। वे समझ गये कि दूसरे को कष्ट देने से उसे कैसा लगता है। पहले के किये हुए बुरे कामों के पछतावे से जल जलकर उनका मन साफ होने लगा। उनके हृदय में इस समय दया का स्रोत दिखायी दिया। अब गरीब हो जाने के कारण उनका कष्ट दूर हो गया।
कौशाम्बी के जिस रास्ते में डाकुओं ने पांडु का धन-रत्न आदि लूट लिया था, उसी रास्ते से एक बौद्ध संन्यासी जा रहे थे। उनके पास एक भिक्षापात्र और एक छोटी पोटली थी । पोटली एक बेशकीमती कपड़े से बंधी थी। इस कपड़े में हाथ की लिखी कई पुस्तकें थीं। इस वस्त्र को किसी भक्त गृहस्थ ने दिया था। यह बेशकीमती कपड़ा ही भिक्षु की विपत्ति का कारण हुआ । डाकुओं ने दूर से ही देखकर सोचा कि इस पोटली में कुछ बेशकीमती चीज है। किंतु उसे लूटकर जब उन्होंने खोलकर देखा तो उन्होंने पोथियों को खोलकर फेंक दिया और लौटती बार भिक्षु को खूब पीटकर चलते बने।
पीड़ा के मारे भिक्षु हिल भी नहीं सकते थे, सारी रात वहीं पड़े रहे। दूसरे दिन सवेरे किसी तरह उठकर फिर धीरे-धीरे रास्ता पकड़कर चलने लगे। जरा आगे बढ़कर ही उन्होंने जंगल में आदमियों की चिल्लाहट और तलवारों की झनझनाहट की आवाज सुनी। वे जरा रुककर खड़े हो गये। जंगल के भीतर से देखा गया कि डाकू ही आपस में लड़ रहे हैं । एक तरफ अकेला आदमी है और दूसरी तरफ और सभी । देखने ही से समझ में आ जाता है कि जो आदमी अकेला लड़ रहा है, वह औरों से कहीं अधिक जोरावर है । फिर भी वह अधिक देर तक नहीं लड़ सका। उसको मुर्दे की तरह पड़ा देखकर धीरे-धीरे और सभी चले गये ।
सब डाकुओं के चले जाने पर भिक्षु धीरे-धीरे घायल आदमी के पास गये और समीप के झरने से थोड़ा-सा जल ले आकर उस के मुंह-आंख आदि में देकर उपचार करने लगे । थोड़ी देर बाद ही उसे चैतन्य हुआ । भिक्षु ने उस समय किसी एक दरख्त की पत्तियां लाकर उनका रस निकालकर उस आदमी के शरीर के क्षत स्थानों पर लगा दिया।
आदमी फिर भी पड़ा ही था। उसने धीरे-धीरे आंख खोलकर भिक्षु की ओर देखा, फिर बोला, “कल अपने साथियों के साथ मैंने एक भिक्षु को खूब मारा था। क्या आप ही वह भिक्षु हैं? आप ही मेरे उन अत्याचारों के बदले में यह उपकार करने आये हैं ? आपके ले आये हुए इस जल से मेरी प्यास जायेगी सही, पर भाई, अब मेरे जीने की कोई आशा नहीं है। मैंने ही अपने उन साथियों को मारने के दाव पेंच सिखाये थे, मगर उन कुत्तों ने मुझसे सीखी हुई विद्या से मुझी को मारा।"
भिक्षु ने कहा, "भाई, जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता भी है। यह बात अक्षरश: ठीक है। तुमने अपने साथियों को मारामारी, लूटपाट वगैरह सिखाया है, वह सीखकर उन्होंने तुम्हें ही मारा है। तुम अगर उनको दया की सीख देते तो तुम्हारे ऊपर वे दया ही करते ।”
डाकू ने पहले जो कुछ खराब काम किये, एक-एक करके सभी उसे याद आने लगे । वह इससे व्याकुल हो उठा और बोला, “मुझे अपने किये का प्रायश्चित करना पड़ेगा । मैंने बहुत पाप किये हैं । सुनिए महाशय, मैं अपनी सारी कथा आपको खोलकर कहता हूं । पांडु नामक एक बड़े सेठ हैं। इनका नाम सभी जानते हैं। मैं उन्हीं का नौकर था । मेरा नाम महादत्त है । वे मुझसे जब जो कुछ करने को कहते थे, मैं उसी काम को तभी, इच्छा न रहने पर भी, यह सोचकर करता था कि मैं उनका नौकर हूं। एक दिन उन्होंने व्यर्थ ही मुझे चोरी के अपराध में पुलिस के हाथ पकड़वा दिया। पुलिस ने उनके सामने मुझे ऐसी मार दी कि जिसका नाम हो ! मैं प्रायः मर ही चुका था। आखिरकार जब सच्ची बात मालूम हो गयी और सबने जान लिया कि मैं चोर नहीं हूं, तब पुलिस ने मुझे छोड़ दिया। सेठजी के ऊपर मुझे बड़ा गुस्सा आया । मैं उनसे कुछ भी न कहकर उसी समय एक ओर बाहर हो पड़ा । बाहर होकर मैं एक डाकुओं के दल में आ मिला। कुछ दिन बाद ही मैं उनका सरदार हो गया । एक दिन खबर मिली की वह सेठ एक बेशकीमती मुकुट और साथ ही बहुत रुपयों के जवाहरात लेकर कौशाम्बी जा रहे हैं । सुनते ही अपना दल-बल लेकर जो कुछ उनके पास था, सभी लूट लिया। आज आप दया करके उनके पास जाइए और मेरी ओर से उनसे कहिए कि आपने जो मेरे ऊपर बिना कारण अत्याचार किया था उसका बदला लेने की इच्छा मेरे मन में बराबर बनी रही। आज मेरे मन से वह सभी कुछ धुल-पुंछ गया है। मैंने आपका सामान लूटकर जो अपराध किया, उसके लिए क्षमाप्रार्थना करता हूं। आप मुझे दया करके क्षमा करें । "
"बाबाजी, मैं जिस समय उनका नौकर था, उस समय वे ही मेरे आदर्श थे। उस समय उनका हृदय पत्थर की तरह कठोर था । उनकी नकल करके मैं भी वैसा ही हो गया था । इधर सुना है, सेठजी अब पहले की तरह नहीं हैं। उनका हृदय इस समय दया से भरा है । दूसरों का उपकार करना ही इस समय उनका काम है। मैं कुछ भी भला काम न कर सका । बाबाजी, जाइए आप जितना शीघ्र हो सके सेठजी के पास जाइए । उनको बता दीजिए कि उनका वह मुकुट और जवाहरात सब पास की इसी गुफा में मिट्टी के नीचे गड़े हैं। मैं और मेरे दो और साथियों के सिवा दूसरा कोई इस बात को नहीं जानता। मेरे वे साथी मर गये हैं । इस समय वे जितना शीघ्र हो सके, आकर इसे ले जायें ।”
यह बात कहते-कहते महादत्त की जीभ बंद हो गयी। वह और कुछ न बोल सका । क्षण भर में ही संन्यासी की गोद में सिर रखकर वह सदा के लिए सो गया । यह संन्यासी हम लोगों के परिचित वही श्रमण नारद के सिवा और कोई नहीं हैं। उन्होंने कौशाम्बी जाकर सेठजी से सारी बातें कह सुनायीं। सुनकर उन्हें महादत्त के लिए बड़ा कष्ट हुआ। इसके बाद अनेक प्यादा-पल्टन आदमी- जन लेकर वे उस गुहा के भीतर से मुकुट और जवाहरात उठा लाये। उनका कारोबार फिर बड़ा हो उठा। उनके लाभ के रुपये का अधिकांश भाग इस समय से नाना प्रकार के अच्छे कामों में खर्च होने लगा ।
सुना जाता है, कालधर्म के अनुसार जब सेठजी की जीवनयात्रा समाप्त हो आयी तो मृत्युशय्या पर सोये सोये उन्होंने अपने बाल-बच्चों को बुलाकर कहा था, "जो दूसरे को दुख देता है वह अपने को ही दुख देता है, और जो दूसरे की भलाई करता है वह अपनी ही भलाई करता है।”