पराजय का क्षण (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Prajay Ka Kshan (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena

अभी-अभी पोस्टमैन इसे मुझे दे गया है। दीपावली के अवसर पर भेजे गए इस स्नेह- उपहार को मैंने खोल लिया है, और इसे चुपचाप देख रहा हूँ। मैं हँसना चाहता हूँ । कृतज्ञता के भाव से इसे स्वीकार करना चाहता हूँ । उछलकर उठ खड़ा होना चाहता हूँ, और दो-एक कपड़े बैग में डाल लपककर स्टेशन पहुँच, पहली ट्रेन पकड़ लेना चाहता हूँ। फिर मैं यह सब करता क्यों नहीं ? यह प्रश्न मैं अपने लिए पूछता हूँ, और इसके उत्तर में केवल अपनी आँखें डबडबायी हुई पाता हूँ ।

क्या मैं भावुक हो उठा हूँ ? भावुक तो जीवित आदमी होता है। वह नहीं, जो नित्य अपने सम्बन्धों का निर्वाह करते हुए एक मृत्यु मरता है। अपनी हर मृत्यु को मैं दीपावली के इस शुभ अवसर पर कायदे से सजाता हूँ, क्योंकि सजावट ही इस पर्व की मूल ध्वनि है, और हर सजावट अपनी सीमाओं के भीतर होती है। मृत्यु, केवल मृत्यु ही जब सीमा बन गयी हो, तो सजावट इतर कैसे हो सकेगी ?

मृत्यु से तुम क्या समझते हो ? शारीरिक मृत्यु ? वह तो बहुत नगण्य चीज है - ईश्वर की इस सृष्टि की सबसे साधारण घटना । दीपावली का वह उपहार मेरे सामने है, और मैं एक मृत्यु मर रहा हूँ। सुन्दर शब्द- अनन्त शान्ति का द्योतक । लेकिन यह मृत्यु दूसरी है।

एक बार फिर मैं अपने को नए सिरे से दोहरा रहा हूँ। साधारण सुख-दुख, राग-द्वेष से ऊपर उठकर कहना चाहता हूँ, 'मेरा अन्धकार भी तुम्हें प्रकाश दे।' मैं ईसा और बुद्ध नहीं हूँ, कि मेरा यह साधारण वाक्य भी एक असाधारण अर्थ देता। क्योंकि मैं अपने घर को अँधेरा देख रहा हूँ- उदास, सिर झुकाए उस रोते हुए बच्चे की तरह, जो चारों ओर बच्चों की जमात से चिढ़ाए जाने के लिए घिरा हुआ हो। अभी चारों ओर के घरों में दीपों की पंक्तियाँ झिलमिला उठेंगी। और मेरा घर ...

यह मेरे लिए खुशी की बात होनी चाहिए। मुझे दूसरों के आलोक से अपने को आलोकित समझना चाहिए। इन कोटि-कोटि घरों में जो प्रकाश जलेगा, वह मेरा है, क्योंकि सब मेरे हैं। इस वाक्य को मैं बार-बार दोहराता हूँ - "यह सारा प्रकाश मेरा है, क्योंकि सब मेरे हैं, सब मेरे हैं।" और बार-बार अकेला और अकेला होता जाता हूँ, और अन्त में ऐसे गहन एकान्त में छूट जाता हूँ, जहाँ इस वाक्य की केवल एक ही परिणति है, एक ही अर्थ है - "कोई प्रकाश मेरा नहीं है, क्योंकि मेरा कोई नहीं है, मेरा कोई नहीं है।" ईश्वर साक्षी है, कि मैं इस सत्य तक नहीं पहुँचना चाहता। मैं ऊपर उठना चाहता हूँ - मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर, साधारण सुख-दुख, राग-द्वेष से ऊपर, बहुत ऊपर। लेकिन नहीं उठ पाता, और यही वह मृत्यु है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है, जिसे मैं नित्य अपने सम्बन्धों का निर्वाह करते हुए मरता हूँ, और दीपावली के इस उपहार को देखकर, जो पोस्टमैन मुझे दे गया है, इस समय भी मर रहा हूँ ।

मैं क्यों नहीं घर से गली में निकलता और बच्चे को उठाकर चूम लेता, उनके साथ उछलता कूदता, फुलझड़ियाँ और पटाखे छोड़ता ! क्यों नहीं हर घर में घुस जाता, रसोईघरों में बनी हुई कोई भी चीज उठाकर मुख में रख लेता, हाथों से दीप ले-लेकर पंक्तियाँ सजाता, कन्दीलें लटकाता, और अपने हाथों से हर घर में सजाई हुई आलोक छटा को देखकर खुशी से झूम जाता ? क्यों नहीं, हर आँगन में पहुँचकर मैं सुन्दर महिलाओं को गुदगुदा आता । कहता, “हँसो, खिलखिलाओ, तुम सब खिलखिलाओ। तुम्हारी हँसी के उजाले में ये दीप भले लगते हैं।" मैं क्यों इस तरह चुपचाप अपनी अँधेरी कोठरी में बैठा हुआ हूँ ? क्यों वह मृत्यु मर रहा हूँ जिसे नहीं मरना चाहता ? मैं स्वयं से पूछता हूँ । ज्यों-ज्यों पूछता जाता हूँ, दीवारों को और ऊँचा उठता हुआ देखता हूँ- बेलौस दीवारें, जो सिर पटकने से भी नहीं टूटेंगी, जिनके भीतर हमें दफन होना है, जहाँ परिचित भी अपरिचित दिखाई देते हैं, जिनके भीतर जाते ही मोम का आदमी भी इस्पात का हो जाता है। छोटे-छोटे बाड़ों से घिरा एक विशाल कब्रिस्तान, जो पत्थर की सुन्दर आकर्षक प्रतिमाओं से भरा हुआ है, जिनमें कोई उत्साह नहीं, कोई स्फूर्ति नहीं, जिनका रूप, जिनका आकर्षण एक मुद्रा-मात्र है - जीवन की गति से रहित। जिनको छूना न छूना, जिनको आलिंगन में बाँधना, जिन पर सिर पटकना, जिन पर जलते अधर रखना, जिन्हें आँसुओं से भिगोना, जिन पर अपना सुख-दुख, तन-मन, आत्मा-प्राण, सब कुछ बिखेर देना कोई अर्थ नहीं रखता। जहाँ हर व्यक्ति संदेह, अपरिचय, परायेपन की एक दीवार अपने चारों ओर लिये घूमता है। मेरे सामने एक ऐसी अजनबी दुनिया खिंच जाती है, जिसे मैं आत्मीय मानना चाहूँ, तो भी वह मुझे अजनबी मानती है, क्योंकि यह उसका धर्म है। यहाँ सब अपने नहीं होते। यहाँ कुछ लोग अपने होते हैं, बाकी सब पराये। और इसीलिए दीपावली के इस उपहार के सम्मुख चुपचाप डबडबायी आँखें लिये मैं एक मृत्यु मर रहा हूँ।

यह उपहार मेरी पत्नी का तार है, जिसमें उसने सूचित किया है, कि दीपावली पर नहीं आ सकेगी, और यह जानते हुए भी कि मैं नहीं आ सकूँगा, अपने साथ दीवाली मनाने के लिए उसने मुझे बुलाने की दुनियादारी का निर्वाह किया है। समझदार एक नासमझ के साथ। उसे ऐसा करने का पूरा हक है, क्योंकि हम प्यार की नहीं, समझौते की जिन्दगी जीते हैं। समझौता, सारे समाज, सारे जीवन के साथ ! जब मैं दीपावली की इस शाम को समाज के किसी भी प्राणी के आने की प्रतीक्षा नहीं करता, तो उसके ही आने की प्रतीक्षा क्यों करनी चाहिए? मैं अपने को समझाता हूँ।

लेकिन उसे मेरे बच्चे से मुझे अलग रखने का क्या हक है ? मेरे भीतर का बहुत साधारण आदमी, जिससे मैं घृणा करता हूँ, लेकिन जो मेरे साथ रहता है, जिससे मैं हर क्षण लड़ता हूँ, लेकिन हर क्षण पराजित होता हूँ, चीखकर पूछता है। मेरी पसलियों को वह जोर से दबाता है। मेरे बच्चे का चेहरा मेरे सामने नाचने लगता है, और इसके पहले कि मैं उसकी यातना से फफककर रो उहूँ, मैं उठ खड़ा होता हूँ और उसके खिलौने करीने से कार्निस पर सजाने लगता हूँ। वह होती, तो अभी हम नये खिलौने लेने जाते। साधारण विचारों का एक सिलसिला शुरू होता है, और उस साधारण आदमी की यातना से फिर एक नयी मृत्यु मुझे दबोच लेती है ।

अचानक दरवाजा खोलकर वह मेरे सामने आ खड़ा होता है, दुबला-पतला, गंदे, तार-तार कपड़ों में, जो चूने और मिट्टी से लथपथ हैं। हल्की दाढ़ी और मूँछ के बीच से पीले दाँत निकालकर, अपनी भदेस भाषा में जो वह कहता है, उससे मैं समझता हूँ कि वह जाना चाहता है, क्योंकि कमरे की सफेदी का काम वह पूरा कर चुका है।

उसे देखकर मुझे बल मिलता है। ऐसा साथी, जो मेरी तरह अकेला है, जिसका कोई नहीं है। दीपावली की इस शाम को, जो मुझसे भी अधिक दीन और अकेला मेरे सामने खड़ा है- दर्पण में मेरे ही प्रतिरूप की तरह, लेकिन मुझसे असहाय, अधिक जर्जर ।

"कहाँ जाओगे ?"

"घर ।"

"घर पर कौन है ?"

"कोई नहीं ।"

"बीवी-बच्चे ?"

"अपने घर हैं।"

मैं प्रसन्न होता हूँ, क्योंकि अपने अकेलेपन को और गहन रूप में उसके अकेलेपन में देखता हूँ। वह गरीब आदमी है। शायद अपनी बीवी-बच्चों के पास जाने के लिए उसके पान पैसे न हों। मैंने सोचा कि उस पर दया कर सकता हूं और उसके बीवी-बच्चों से मिलाकर उसका अकेलापन दूर कर, उन सबसे प्रतिशोध ले सकता हूँ, जिन्होंने मुझे अकेला छोड़ रखा है। उपकार कर सकने की एक झूठी भावना भी मेरे अन्दर आयी। एक झूठा तर्क, जिसका उद्देश्य उन सबसे मात्र अपने को बड़ा सिद्ध करना था, जो मेरे अकेलेपन के लिए जिम्मेदार थे, जो अपनी दीवारों के भीतर अपनी खुशी में डूबे हुए थे, जिन्हें मेरे पास आने की इच्छा नहीं थी ।

"उनका घर कहाँ है ?"

"बाराबंकी।"

“तुम चले जाओ। आने-जाने का खर्च मुझसे लो। चिराग जलते-जलते दो-तीन घंटे में पहुँच जाओगे। बस कहाँ मिलती है, जानते हो ?”

“हाँ, साहब।”

"जाओ, बीवी-बच्चे खुश होंगे।"

मैं स्वयं खुश न होकर भी दूसरे को खुश कर रहा हूँ। एक पवित्र आदर्श का झूठा विचार भी मेरे अन्दर था, क्योंकि मैं अपने दुनियावी तर्कों द्वारा, जिन्हें मैं खुद नहीं मानता, उसे नाना रूप से जाने के लिए विवश-सा करने लगा, जिसका मुझे कोई हक न था !

कथोपकथन के बीच की कड़ियाँ कोई महत्त्व नहीं रखतीं, क्योंकि अन्त में अपनी उसी भदेस भाषा में उसने कहा, कि वह जाकर क्या करेगा।

"जो जहाँ खुश, वहाँ खुश।”

कितनी सरलता से उसने यह कह दिया, जो इतने बड़े मन्थन के बाद भी मैं नहीं कह पाया था। अभी तक मैं अपने भीतर के साधारण आदमी से हारता था, आज क्या बाहर के एक साधारण आदमी से हारना पड़ेगा ? नहीं, नहीं। यह वाक्य कहते समय व्यथा की कोई एक हल्की-सी रेखा उसके मुख पर, पीड़ा का एक हल्का-सा कुहासा उसकी छोटी निस्तेज आँखों में होना चाहिए। मैं उसके चेहरे को ध्यान से देख रहा था, और वह पीले दाँत निकाले, निर्लिप्त भाव से हँस रहा था। जैसे वह मेरी पराजय समझ रहा हो ।

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