प्राचीन भारतीय रंगमंच की एक अनुपम नृत्त-नाट्य विधि (आलोचनात्मक निबन्ध) : वासुदेव शरण अग्रवाल

प्राचीन भारतीय-जीवन नृत्य, गीत, वाद्य और नाट्य के अनेक रुचिर प्रयोगों से भरा हुआ था। मातृभूमि की वंदना करते हुए अथर्ववेद के पृथिवी-सूक्त में कवि ने पृथिवी पर होने वाले नृत्य-गीतों के इन मनोहर नेत्रोत्सवों का इस प्रकार उल्लेख किया है।

यस्यां गायंति नृत्यंति भूम्यां मर्त्याव्यैलवाः
(अथर्व 12-11-41)

'आनंद भरी किलकारी से अपने कंठ को निनादित करने वाले मानव जिस भूमि में उमंग से गाते और नाचते हैं'—भारत-भूमि का यह यथार्थ चित्रण है। लगभग पाँच सहस्र वर्षों से भूमि के नदी-तट और गिरिकंदर, अरण्य और क्षेत्र और नगर नृत्य और गीत से भरे रहे थे। स्त्रियों के सुरीले कंठ और पुरुषों के घन-गाव शरीर, नृत्य और गीत का जो अपूर्व मंगल रचते थे उनसे यहाँ के जनपदों का वातातपिक जीवन, स्वस्थ विनोद और सुख सौहार्द से भरा हुआ था। प्राचीन साहित्य और शिल्प दोनों भारत की इस आनंद-विधायिनी जीवन-पद्धति के साक्षी हैं। जिस प्रकार प्रकृति ने अपने सौंदर्य से मातृभूमि के शरीर को चतुरस्रशोभी बनाया था उसी प्रकार मनुष्य ने भी चारों खूटों में छाए हुए अपने जीवन को नृत्य और संगीत के आनंद से सींच दिया। नृत्य और गीत की उस राष्ट्रीय गंगा के तटों पर आज पहले-सा जनमंगल नहीं दिखाई देता। यह सूनापन क्यों है और कब तक बना रहेगा? राजा और ऋषियों के, सती स्त्रियों और वीर पुरुषों के श्लाघ्य चरित्रों को अपने शरीरों की प्रदीप्त प्राणशक्ति से क्या हम नाट्य-रूप में पुनः प्रत्यक्ष न करेंगे? क्या हमारे बीच प्राचीन समाज नामक उत्सवों के प्रेक्षागारों में होनेवाले प्रेक्षणों के, पर्वोत्सवों में होने वाले नृत्य और गीतों के वे रमरणीय अध्याय पुनः आरंभ न होंगे? भारतीय रंगमंच कबतक नाट्यों के उस विधान से फिर श्री-संपन्न न बनेगा, जिसे महाकवि कलिदास ने 'चाक्षुप-यज्ञ' कहा था। गुप्त-युग में लिखते हुए कवि की वाणी थी-

न पुनरस्माकं नाट्य प्रति मिथ्या गौरवम्
(मालविकाग्नि.)

अर्थात् नाट्य को जो हम अपने जीवन में इतना गौरव देते हैं उसमें सत्य है, उसके पीछे जीवन की साधना है, कृत्रिमता नहीं। आज नाट्य-लक्ष्मी के भवन सूने पड़े हैं। भारतीय प्राकाश के नीचे नृत्य, गीत और नाट्य के बिना मनुष्य जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है। इस देश में यह महान सत्य है कि जबतक रंगमंच का उद्धार न होगा तबतक साहित्य में जीवन की सचाई न आ सकेगी, जनता से उसका संपर्क न बनेगा और वह शक्तिशाली भी न हो सकेगा।

प्राचीन भारत के प्रेक्षागृहों का ध्यान करते हुए हमें जैन-साहित्य के राज-प्रश्नीय आगम-ग्रंथ के उस प्रकरण का ध्यान आता है जिसमें महावीर के जीवन-चरित को नृत्य-प्रधान नाट्य (डांस- ड्रामा) में उतारा गया। इस नाट्य में रंगमंच की पूर्वविधि के रूप में नृत्य के कितने ही भिन्न-भिन्न रूपों का प्रदर्शन किया गया। इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो हम प्राचीन भारत के किसी प्रेक्षागृह में जा बैठे हों जहाँ नाट्य-रूपी चाक्षुप-यज्ञ का विस्तार हो रहा हो और जिसमें कला के अनेक चिह्नों को नृत्य के रूप में उतारा जा रहा हो।

जिस समय वेदिका और तोरणों से सुसज्जित एक महान स्तूप की रचना हो चुकी और उसका दिव्य मंगल प्रारंभ हुआ, उस समय सूर्याभदेव की आज्ञा से एक सौ साठ देवकुमार और देवकुमारियों के अभिनेतृ-दल ने बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि (बत्तिसइ बद्ध णट्टविहि) का प्रदर्शन करने के लिए रंगभूमि में प्रवेश किया। इस नाट्य-विधि के अंतिम बत्तीसवें कार्यक्रम में तीर्थकर सदृश महापुरुषों के जीवन-चरित्र का अभिनय किया जाता था। शेष प्रारंभ की इकत्तीस प्रविभक्तियों में प्राचीन भारतीय नृत्य का ही उदार प्रदर्शन सम्मिलित था यह द्वाविशिक नाट्य-विधि कला की पराकाष्ठा सूचित करती है। इसमें कला के अभिप्रायों को नाट्य द्वारा प्रदर्शित करने की मनोहर कल्पना पाई जाती है।

इस कल्पना के मूल का भाव इस प्रकार है। जिस समय समाज में किसी महापुरुष के जन्म की मंगल-बेला आती है उससे पूर्व ही लोक का जीवन शनै-शनै अनेक प्रकार के मांगलिक रूपों से उसी प्रकार सुंदर बनने लगता है, जिस प्रकार प्रभात में सूर्य के उद्गमन से पूर्व उषा के सुनहले सौंदर्य से दिगंत भर जाते हैं और स्वच्छ जल के मरोवगे में कमल सूर्य का स्वाँगत करने के लिए खिल जाते हैं। नील, पीत, प्रेत, रक्त कमलों का यह उल्लास सूर्योदय को ही एक प्रविभक्ति या छटा है। इसी प्रकार महापुरुष के आगमन के समय दुःखी मानवों के चित्त-रूपी कमल मिमी नई प्रागा से प्रमुदित होते और खिल जाते हैं। इसी प्रकार की काव्यमयी रनाल विस्तत नाट्य-विधि के द्वारा व्यक्त की गई है। प्रंद्रह से उन्नीस तक पाँच प्रविभक्तियो में वर्णमाला के अक्षरों का भी अभिनय दिखाया गया है। वस्तुतः ये अक्षर मनुष्य की वाणी के प्रतिनिधि हैं। महापुरुष का आगमन वर्णों में अपूर्व तेज़ भर देता है। इन सीधे-सादे अक्षरों के अनंत सम्मिलन से लोक का मूक कंठ किस प्रकार मुखरित हो उठता है, इसे महापुरुष के व्यक्तित्व का चमत्कार ही कहना चाहिए। राष्ट्र की वाणी महापुरुष की महिमा से किसी उदात्त तेज़ से भर जाती है। उसमें सत्य का विलक्षण भास्वर रूप प्रकट होने लगता है, मानो किसी सारस्वत लोक से सत्य का शतधार और सहस्रधार झरना उन्मुक्त हो गया हो और प्रत्तिकंठ में उसका अमृत जल बरसने लगा हो। राष्ट्र की वाणी का तेज़ ही साहित्य की वाणी का तेज़ बनता है, और ऐसा तभी होता है जब महान पुरुष उसमें सत्य, धर्म, तप, त्याग, संयम, यज्ञ इत्यादि उदार भावों को भर देता है। धार्मिक विश्वास के अनुसार प्रत्येक मंत्र या धारणी की शक्ति विश्वास के सनातन महान सत्य की ही कोई किरण होती है जो उस मंत्र के अक्षरों में गर्भित हो जाती है। सत्य की शक्ति से ही जीवन के मुरझाए हुए विटप पल्लवित होते हैं। सत्य के बीज में प्ररोहण की महाशक्ति है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर विश्वव्यापी सत्य के किसी न किसी अंश का संकेत करता है।

इसी प्रकार और भी अनेक अभिप्रायों से इस सुंदर नाट्य-विधि का निर्माण समझना चाहिए। प्राचीन भारतीय कला के अलंकरण ही नाट्य के अभिप्राय बनाए गए। कला के अलंकरणों को भी भावों की अभिव्यक्ति की वारह-खडी कहना चाहिए। पूर्ण वट, स्वस्तिक, धर्मचक्र, शंख आदि अभिप्रायों के पीछे अर्थों की गहरी व्यंजना है। उन प्रविभक्तियों या नाट्यागों का क्रमशः उल्लेख किया जाता है :

(1) पहली प्रविभक्ति में स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, पूर्णकलश, मीन युगल, दर्पण, इन आठ मांगलिक चिह्नों के आकारों का नृत्य में प्रदर्शन किया गया। इसे मंगल भक्ति-चित्र कहते थे।

(2) दूसरे भक्तिचित्र में आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, सौवस्तिक, वर्धमानक, मत्स्यांडक, मकरांडक, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागर-तरंग, वासंतीलता, पद्मलता आदि कलात्मक अभिप्रायों का नाट्य के द्वारा रूप खडडा किया गया है। श्रेणी, प्रश्रेणि को प्राकृत में सेढी, पसेढि कहा गया है। हिंदी का सीढ़ी शब्द इसी से बना है। नृत्य में सेढि की रचना किस प्रकार की होती होगी इसका एक उदाहरण भरहुत स्तूप से मिले हुए एक शिलापट्ट के दृश्य के रूप में देख सकते हैं। इस समय वह इलाहाबाद संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें एक प्रस्तार (पिरेमिड) का निर्माण किया गया है। नीचे की पंक्ति में आठ अभिनेता हाथों को कधों के ऊपर उठाए हुए खड़े हैं। दूसरी पंक्ति में चार व्यक्ति हैं जिनमें से प्रत्येक के पैर नीचे वाले दो व्यक्तियों के हाथों पर रुके हैं। तीसरी पंक्ति में दो व्यक्ति हैं और सबसे ऊपर उनके हाथों पर केवल एक पुरुष उसी प्रकार अपने दोनों हाथ ऊँचे उठाए हुए खड़ा है। नाट्य के ये प्रकार संप्रदाय-विशेष की संपत्ति न होकर विशाल भारतीय जीवन के अंग थे।

(3) तीसरे भक्तिचित्र में ईहामृग, वृषभ, तुरग, नर, मकर, विहग, व्याल, किन्नर, रुंभ, भरभ, चमर, कुंजर, वनलता, पद्मलता का रूप अभिनय में उतारा गया।

(4) चौथी भक्ति में तरह-तरह के चक्रवाल या मंडलों का अभिनय किया गया है। मथुरा के जैन स्तूप से प्राप्त आयाग-पट्टों पर इस प्रकार के चक्रवाल मिले हैं जिनमें दिक्-कुमारियाँ मंडलाकार नृत्य करती हुई दिखाई गई हैं।

(5) आवलि संज्ञक पाँचवीं प्रविभक्ति में चंद्रावली, सूर्यावली, वलयावली, हसावली, एकावली, तारावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली इन स्वरूपों का नृत्य-नाट्यात्मक प्रदर्शन किया गया है।

(6) छठी प्रविभक्ति में सूर्योदय और चंद्रोदय के बहुरूपी उद्गमनोद्गमनों का चित्रण किया गया। भारतीय आकाश में सूर्य और चंद्र का उदित होना प्रकृति की नित्य रमणीय घटनाएँ हैं। उनके दर्शन के लिए मनुष्य क्या देवों के नेत्र भी उत्सुक रहते हैं। कवि और साहित्यकार उनके लिए अनेक ललित कल्पनाओं से समन्वित सुंदर शब्दावली का अर्ध्य अर्पित करते हैं। अपने सूर्योद्गम और चंद्रोद्गम के दिव्य अपरिमित सौंदर्य को हमें जीवन की भाग-दौड़ में भूल नहीं जाना है। बत्तीस नाट्य-विधि की कल्पना करने वाले नाट्याचार्यों के मन उनके प्रति जागरूक थे। विशाल गगनागरण में सुनहले रथ पर बैठे हुए उप कालीन सूर्य समस्त भुवन को आलोक और तन्य के नवीन विधान से प्रतिदिन भर देते हैं। कितने पक्षी अपने कलरव से उनका स्वाँगत करते हैं, कितने पुष्प उनके दर्शन के लिए अपने नेत्र खोलते हैं, कितने चराचर जीर उनकी प्रेरणा से जीवन के सहस्रमुखी व्यापारों में प्रवृत्त हो उठते हैं—ये कल्पनाएँ सूर्योदय के नाट्याभिनय में मूर्तिमती हो उठती होगी। चंद्र-सूर्य के आकाश में उगने, चढ़ने, ढलने और छिपने का पूरा कौतुक नृत्य में उतारा जाता था। आगे की तीन भत्तियों में क्रमशः यही दिखाया गया है।

(7) चंद्रागमन और सूर्यागमन प्रविभक्ति। इसमें चंद्र और सूर्य के प्राची दिशा में चलकर ग्रावाम-मध्य में उठने के रूप का अभिनय किया जाता था।

(8) सूर्यावरण-चंद्रावरण। इसमें सूर्य और चंद्र के ग्रह-गृहीत होने का दृश्य दिखाया जाता था। प्रकाश से आलोकित सूर्य और ज्योत्स्ना से उद्योतित चंद्र मनुष्य की बुद्धि और मन के विकास का ही प्रदर्शन करते हैं; किंतु महापुरुष की सात्विक प्रेरणा से विकसित हुए मन बीच में आसुरी अंधकार या तमोगुण की छाया से किस प्रकार हतप्रभ हो जाते हैं और फिर किस प्रकार उस बाधा को हटाकर अंधकार पर प्रकाश की विजय होती है, यही संघर्ष इस नृत्य-विधि में दिखाया जाता था।

(9) सूर्यास्तमन-चंद्रास्तमन। सूर्य और चंद्र का स्वाभाविक विधि से अस्त हो जाना यह इस नाट्य-विधि का दृश्य था।

(10) दशवी विभक्ति में चंद्रमंडल, सूर्यमंडल, नागमंडल, यक्षमंडल, भूत-मंडल, राक्षस-मंडल, महोरंग-मंडल, गंधर्व-मंडल, इन नाना रूपों का प्रदर्शन किया जाता था। ये देव-योनियाँ नानाविध स्वभाव वाले मानवों की प्रतिरूप हैं।

(11) ग्यारहवें स्थान पर अनेक प्रकार की गतियों का प्रदर्शन किया जाता था। जैसे ऋषभ-ललित, सिंह-ललित, हयविलवित, गजविलवित, मत्त हयविलसित, मत्त गजविलवित, मत्त हयविलवित आदि प्राकृतियों से सुशोभित द्रुतविलवित नामक नाट्य-विधि का प्रदर्शन किया गया।

(12) बाहरवीं प्रविभक्ति में सागर प्रविभक्ति, नागर प्रविभक्ति का प्रदर्शन हुआ।

(13) तेरहवें स्थान में नंदा प्रविभक्ति, चंपा विभक्ति का प्रदर्शन किया गता। यह नंदा और चंपा नामक लताओं की अनुकृति-मूलक नाट्य-विधि थी।

(14) चौदहवें स्थान में मत्स्यांडक प्रविभक्ति, मकरांडक प्रविभक्ति, जार-प्रविभक्ति और मार प्रविभक्ति की नाट्य-विधि का अभिनय हुआ। इनमें से कई नामों का यथार्थ स्वरूप इस समय स्पष्ट नहीं होता, किंतु नाट्य की प्रतिभा से नाट्याचार्यों को इनकी पुनः कल्पना करनी होगी, अथवा साहित्य के ही किसी अंग से इनपर प्रकाश पड़ना संभव है। इसके अनंतर पाँच प्रविभक्तियों में वर्णमाला का प्रदर्शन किया गया।

(15) क वर्ग प्रविभक्ति।

(16) च वर्ग प्रविभक्ति।

(17) ट वर्ग प्रविभक्ति।

(18) त वर्ग प्रविभक्ति।

(19) प वर्ग प्रविभक्ति।

(20) इस विभाग में अशोक पल्लव, आम्रपल्लव, जंबूपल्लव, कोशांब पल्लव, इन प्रविभक्तियों का प्रदर्शन हुआ।

(21) तदनंतर पद्म-लता, नाग-लता, अशोक-लता, चंपक-लता, आम्र-लता, वामंती-लता, वन-लता, कुंद-लता, प्रतिमुक्त लता, श्याम-लता, इन प्रविभक्तियों के स्त्वरूप का प्रदर्शन अभिनय द्वारा किया गया, जिसे लता-प्रविभक्ति नामक इक्कीसवीं नाट्य-विधि कहते थे।

इसके अनंतर निम्नलिखित दश नृत्य प्रविभक्तियों का प्रदर्शन हुआ।

(22) द्रुत नृत्य।

(23) विलंबित नृत्य।

(24) दूत-विलंबित नृत्य। दशकुमार-चरित में कंदुक-नृत्य के अंतर्गत इसका वर्णन किया गया है।

(25) अंचित नृत्य।

(26) रिभित नृत्य।

(27) अंचित रिभित नृत्य।

(28) आरभट नृत्य (अत्यंत उग्र विधान वाला नृत्य)

(29) भसोल नृत्य (इसका ठीक अर्थ स्पष्ट नहीं। संभवत भसल या भ्रमर नृत्य से इसका संबंध था।)

(30) आरभट-भसोल नृत्य।

(31) उत्पात, निपात, संकुचित, प्रसारित, खेचरित, भ्रांत, संभ्रांत नामक गतियों का प्रदर्शन हुआ।

(32) इसके अनंतर बहुत से देवकुमार और देवकुमारियों ने मिलकर भगवान महावीर के जीवन-चरित की घटनाओं का नाट्य-प्रदर्शन किया, जैसे महावीर का देवलोक में चरित, अवतार, गर्भ-परिवर्तन, जन्म, अभिषेक, बालभाव, यौवन, कामभोग, निष्क्रमण, तपश्चरण, ज्ञानोत्पादन (कैवल्य-ज्ञान), तीर्थ-प्रवर्तन (उपदेश) और परिनिर्वाण आदि लीलाओं का प्रदर्शन किया गया। इस प्रकार यह दिव्य रमणीय तीर्थ कर चरित नामक वत्तीमवी नाट्य-विधि समाप्त हुई। इस नाट्य-विधि के अंतर्गत चार प्रकार के वाद्ययंत्र (तत, वितत, घन, मुपिर) चतुर्विध गीत (उत्क्षिप्त, पादान, मन्दाय, गेचित), चतुर्विध नाट्य (अंचित, रिभित, आरभट, भमोल), एवं चतुर्विध अभिनय (दार्ष्टांतिक, प्रात्यंतिक, सामान्यतो-विनिपात, लोकमध्यावसानित) द्वारा देवकुमार और देवकुमारियों ने अपूर्व रस-सृजन और कला-प्रदर्शन से दर्शकों को मुग्ध कर दिया।

अवश्य ही सुंदर कलात्मक अभिप्रायों के अभिनय से उज्जीवित इस नृत्त-नाट्य में धार्मिक भेदों के लिए अवकाश न था। महावीर के जीवन-चरित का अभिनय हो, राम और कृष्ण चरित हो या बुद्ध का दिव्य चरित हो, वह तो नाटक की अंतिम कड़ी थी। प्रत्येक महापुरुष का चरित एक ही अलौकिक सर्वत्र व्यापक महान सृष्टि-सत्य और चतन्य-तत्त्व की व्याख्या करता है। चरित के अंतर्गत नीति और धर्म के अनेक गुण प्रकट होते हैं। उनका प्रदर्शन मानव मात्र के हृदय को प्रेरणा देने वाला होता है। अतएव द्वात्रिंशिक नाट्य-विधि को सच्चे अर्थों में प्राचीन भारतीय रंगमंच की सार्वजनिक विधि कह सकते हैं। इसके अभिनेताओं में स्त्री-पुरुष समान रूप से भाग लेते थे। उनकी 108 संख्या से ही इसका बृहत् रूप और सभार सूचित होता है।

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