प्रबोध कुमार – जो दूसरों की कथा सुनाते रहे (संस्मरण) : शर्मिला जालान
Prabodh Kumar-Jo Doosron Ki Katha Sunate Rahe (Sansmaran) : Sharmila Jalan
प्रबोध जी से मेरी पहली मुलाकात सोलह लार्ड सिन्हा रोड में 1996 में श्री अशोक सेकसरिया के कमरे में हुई थी। जितनी याद है,जाती हुई सर्दियों के दिन थे। वे अशोक जी को ध्यान से सुन रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि वे धीरे-धीरे बोलने वाले कोमल और शांत व्यक्ति हैं। दोनों के बीच में तसलीमा नसरीन पर बात हो रही थी।
‘तसलीमा नसरीन अपने पिता को बाबा कहती है, तो यह उसकी पसंद है। मैं अपने पिता को बाबूजी कहता था। आलोक अमृतराय को मामा कहता था। मेरे फुफेरे भाई अपने पिता को जीजा कहते थे। आलोक की लड़कियां उन्हें भुल्लू कहती हैं। मेरे छोटे भाई के बच्चे उन्हें अब्बू कहते थे।’
मैं यह समझ नहीं पाई कि बांग्ला में पिता को ‘बाबा’ ही तो कहा जाता है तो ‘तसलीमा अपने पिता को बाबा कहती है’ का क्या अर्थ हुआ? मैंने उनसे पूछा नहीं और यह सोचा कि शायद यह उनके बोलने का कोई खास तरीका होगा या मेरे आने से पहले कोई बात हो रही होगी।
दोनों मित्रों में अनौपचारिक सहज और खुलकर बातें हो रही थीं। वे लोग जो तसलीमा नसरीन के साहित्य को कम पसंद करते हैं, उनके बारे में बोलते हुए वे अशोक जी से बोले- ‘तसलीमा नसरीन को मैं सबसे दामी प्रतीक के रूप में देखता हूँ- इस्लामी रूढ़िवादिता के खिलाफ। मैं, तुम या कोई अन्य हिंदूजब हिंदूरूढ़िवादिता के विरोध में कुछ कहता है तो उसके पीछे दस बीस, पचास सौ समान विचार वालों के सहयोग की आश्वस्ति होती है। इसी स्थिति में एक मुसलमान स्वयं को कितना अकेला, कितना असहाय पाता है इसकी कल्पना मात्र से सिहरन होती है। सलमान रुश्दी,तसलीमा नसरीन, तोफिल मुहम्मद मीरान, शम्शुल इस्लाम यहां तक कि नासिरा शर्मा भी अकेले के बल-बूते पर धर्मांधता की चूलें हिला रहे हैं। बस साहित्य के आधार पर उन्हें नापास नहीं किया जाना चाहिए। बिना यह सोचे कि वे कुछ और भी कर रहे हैं,सिर पर कफ़न बांधकर घूमना क्या बस कथा कहानी में पढ़ी कोई टुच्ची-सी बात लगती है। क्या सचमुच?’
उस दिन उन्होंने गेरुआ कुरता और सफ़ेद पायजामा पहन रखा था। वे बहुत विनम्रता, जिज्ञासा और उत्सुकता से मुझसे बात करने लगे। आज ऐसा लग रहा है, ये कल की ही बात है।
"दोनों मित्रों के बीच में ऐसी मित्रता थी, जिसमें विनोद भाव बना रहता था। वे एक दूसरे से विविध विषयों- राजनीति, साहित्य, क्रिकेट, अनुवाद आदि पर न सिर्फ बात किया करते,बल्कि नियमित पत्र भी लिखा करते थे।"
वे अशोक जी को अपने परिवार की बात बताते रहते थे। एक बार लिखा –‘तुम्हें विजय चौहान के छोटे भाई और मेरे बहनोई, अशोक की मृत्यु का समाचार देना है। दिल्ली में उनकी दो लड़कियां हैं, जिनसे मिलने वे सपत्नीक आए हुए थे। यहीं उनके दिमाग की नस फट गई और कुछ दिन गंगाराम अस्पताल में कष्ट भोगने के बाद इसी महीने की 18 को मृत्यु हो गई। सुभद्राकुमारी चौहान के बच्चों में अब केवल सबसे छोटी लड़की, ममता बची है जो अमेरिका में रहती है।’
अशोक जी उनके सभी पत्र मुझे पढ़ने देते। मैं पत्र में पढ़ी हुई बात घर आकर अपनी कॉपी में नोट कर लेती। जिस दिन पहली बार मैं उनसे मिली उनके बारे में इतना ही जानती थी कि वे अशोक जी के मित्र हैं। बाद में यह जाना कि वे एंथ्रोपोलोजिस्ट हैं। मुंशी प्रेमचंद के नाती, जिन्हें साहित्य से लगाव विरासत में मिली है।उन्होंने सन 50-60 के दौरान पचास से ज्यादा कहानियाँ लिखीं जो उस दौर की खास पत्रिकाओं ‘कल्पना’, ‘कृति’, ‘कहानी’ के अलावा ‘वसुधा’, ‘समवेत’, ‘राष्ट्रवाणी’ आदि पत्रिकाओं में छपीं। उन दिनों अशोक सेकसरिया ‘गुणेन्द्र सिंह कम्पानी’ के नाम से लिखते थे। इनकी मंडली में महेंद्र भल्ला और रमेश गोस्वामी थे ।
कमलेश्वर उनके कहानी संग्रह – ‘सी सॉ’(*रोशनाई प्रकाशन) की लंबी भूमिका- ‘कैवल्य का संगीत’ में लिखते हैं- ‘उन दिनों ‘कृति’ इस लेखन का मंच थी, उसमें भी निर्मल वर्मा की कहानियों के साथ प्रबोध कुमार की कहानियों का मुख्य स्थान था ।..प्रबोध कुमार की कहानियों में घटनाएं कई स्तरों पर घटित हो रही होती हैं। वे पाठक के मन में परत-दर परत खुलती जाती हैं। घटनाएं इतनी बड़ी भी नहीं होतीं, एक तरह से तो कोई घटना ही नहीं होती। भाषा के स्तर पर ही भाषा के साथ-साथ कथा का आस्वाद मिलता रहता है। यह आस्वाद लेते हुए पाठक आगे बढ़ता हुआ आत्मतोष प्राप्त करता है। कहानियां ऊपर से यथार्थपरक होती हैं। उनमें दैनंदिन जीवन की प्रकृति का, राह चलते संयोगवश मिल गए लोगों का, पक्षियों का वर्णन होता है।’
यह भी मुझे बाद के वर्षों में मालूम हुआ कि वे भौतिक नृतत्त्व शास्त्र में शोधकार्य के लिए विदेश चले गए। कई वर्ष पोलैंड में रहे, फिर कुछ समय जर्मनी और आस्ट्रेलिया में।भारत वापस लौटने के बाद विश्वविद्यालयों में भौतिक-नृतत्त्वशास्त्र का अध्यापन करते रहे। अनेक वर्ष पंजाब विश्वविद्यालय में रहते हुए बीसियों शोधकर्ता तैयार किए।उनका सारा कार्य ‘जेनेटिक्स’ में रहा।साहित्य से उनका ध्यान बिलकुल हट गया था।
जिन दिनों उनसेमिलना हुआ था वे तसलीमा नसरीन की कविताओं का अनुवाद कर रहे थे।अनुवाद करते हुए दोनों मित्रों में एक-एक शब्द को लेकर खूब पत्र लिखे जाते। कविता में एक जगह ‘दीब्बो’ (दिव्य) शब्द आया – ‘छेलेटि दीब्बो हासते हासते चोले गेल’ उसको लेकर दोनों में बातहोती रही।‘दिव्य हँसी को कोई कुटिल कह सकता है और कोई मनोहारी। अनुवाद के जरिए मैं वाक्य विन्यास के वैकल्पिक तरीके और प्रचलितशब्दों (माया,दिव्य)के नए अर्थ (हिंदी वालों के लिए) देने की कोशिश कर रहा हूँ।’
वे ‘साक्षात्कार’ पत्रिका नियमित रूप से देखते थे। तसलीमा नसरीन की जिन कविताओं का उन्होंने अनुवाद किया वे उन्नीस सौ सतानवे के ‘साक्षात्कार’ के शायद अक्तूबर अंक में छपे थे। उन्होंने लिखा –‘मुझे ख़ुशी है कि रमेश(गोस्वामी) और शम्सुल इस्लाम की पत्नी, निर्मला शर्मा को कविताएं और उनके अनुवाद दोनों अच्छे लगे।’ अनुवाद की कॉपी अशोकजी को भेजते हुए लिखा- ‘अशोक, तसलीमा नसरीन की कविताओं के अनुवाद भेज रहा हूँ। चलो, किसी एक जगह तो हम दोनों के नाम साथ-साथ आएँ। मोहन कृष्ण बोहरा की किताब ‘तसलीमा के हक़ में ‘कहीं मिली तो ले लूंगा । समीक्षा अच्छी है उसकी।’
उनके लेख और अनुवाद से उनके मित्र या संपादक कोई शब्द हटा देते तो वह उन्हें अच्छा नहीं लगता था। उनका कहना था कि अनावश्यक बातें लिखने की उन्हें आदत नहीं है ।अच्छा हो या बुरा वे जो भी लिखते हैं उसमें एक भाव संसार रचने की कोशिश करते हैं और किसी प्रकार की काट-छांट उस भाव को नष्ट करती है।
एक बार मुझे लिखा-‘साक्षात्कार के (दिसंबर-जनवरी) समकालीन मराठी साहित्य विशेषांक में लक्ष्मण लोंढे की कहानी ‘महर्षि’ पढ़कर बताना कि क्या तुम्हें भी ऐसा लगा कि उनके लिखने का ढंग काफी कुछ अशोक सेकसरिया जैसा है।’
‘प्रबोध जी उन दिनों जो भी पढ़ रहे होते मुझे भी बताते – ‘मैं तुमसे यह जानना चाहूंगा कि शरतचंद्र , रवींद्रनाथ, आशापूर्णा देवी, टॉलस्टॉय और पास्तरनाक की रचनाओं में ऐसा क्या है कि उन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है, जबकि विश्व साहित्य में महान रचनाओं की कमी नहीं है। शरत बाबू की परिणीता (दत्ता) अभी ख़त्म करूं तो अगले ही क्षण फिर शुरू से पढ़ने की इच्छा क्यों हो? क्या मैं उनका बंधुआ पाठक हूँ।’
बेबी पाल के बारे में पहली बार उन्होंने सितंबर 2000 के महीने में लिखा–‘बर्दवान जिले के दुर्गापुर के पास के एक गांव की बेबी पाल का विवाह तेरह वर्ष की आयु में हो गया था। अब वह तुम्हारी उम्र की है और पति को गांव में छोड़ अपने तीन बच्चों के साथ डी एल एफ में रह, मेरे यहां काम कर रही है। सांतवीं तक उसने बांग्ला में पढ़ाई की है। हिंदी ठीक-ठाक बोल लेती है। पढ़ नहीं सकती। तुम यदि चाहती हो कि वह हमलोगों को ढंग का खाना खिलाए तो तुम्हें बांग्ला में छपी पाक कला की कोई अच्छी-सी किताब मुझे भेजनी होगी। अभी हिंदी/अंग्रेजी की किताबों से उसे समझाने में मेरा जो समय खर्च हो रहा है उसमें बचत होगी।’
‘मेरे ही देश के मेरे ही जैसे एक नागरिक को परिस्थितियों से विवश हो मेरे यहां काम करना पड़ रहा है, इस ग्लानि के प्रति संभवतः मेरी अतिशय सजगता, तुम्हें विश्वास नहीं होगा मुझसे यह भी कहलवा देती है, बेबी, मैं तुम्हें पैसे अपनी जीवनी लिखने के लिए दे रहा हूँ, घर का काम तो तुम उसी तरह कर रही हो जैसे घर की ही एक लड़की। ‘नौकरानी’ ‘झी’ लिख तो देता हूँ पर चेष्टा करने पर भी संबोधन में इनका व्यवहार नहीं कर पाता।’
बाद में वह दिन जल्दी ही आ गया जब प्रबोध जी ने अपने लिखने के टेबल के ड्रॉवर से एक पेन और कॉपी निकाल बेबी पाल को कहा- ‘तुम इसमें लिखना। लिखने को तुम अपनी जीवन कहानी भी लिख सकती हो। होश संभालने के बाद से अब तक की जितनी भी बातें तुम्हें याद आएं।’
उस दिन बेबी पाल को क्या यह पता था कि ‘पेन और कॉपी’ वह सहारा है जो शायद उसे हर अनाथ क्षणों में संभालता होगा। आज तक मैं जीवन का यह रहस्य समझ नहीं पाई हूँ कि वे कौन सी अलौकिक शक्तियां हैं जो किसी खास क्षणों में जीवन में अप्रत्याशित रास्ते खोल देती हैं। बेबी ने जिन दिनों लिखना शुरू किया होगा वे दिन कैसे आलोकित दिन होंगे।
"बेबी पाल के बारे में वे अक्सर मुझे लिखते रहते – ‘एक दिन मैंने बेबी से पूछा कि स्कूल की बांग्ला किताबों में जिन कवि-लेखकों की रचनाएं उसने पढ़ी थीं उनमें से किसी का नाम क्या उसे याद है, तो उसने रवींद्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय और असंभव आश्चर्य-काज़ी नजरुल इस्लाम का भी नाम लिया। एक ‘झी’ के दिमाग में इन नामों का इतने वर्षों से अटके रहना तुम्हें कितना प्रभावित करेगा यह मैं नहीं जानता, लेकिन मेरे मित्र अशोक की आंखें इन पंक्तियों को पढ़ते-पढ़ते गीली हो उठेंगीं ऐसा मेरा अनुमान है। विश्व साहित्य में कितने हैं ऐसे जिनकी जड़ें इतनी गहरी धंसी हैं?' "
इस बीच बेबी पाल लगातार लिखने लगी थी और उसका लिखा कलकत्ता आने लगा था। दोनों मित्रों में बेबी को लेकर बातें होती रहतीं।
उन्होंने अशोक जी को लिखा– ‘उसकी जीवनी का दूसरा खंड काफी जल्दी-जल्दी बढ़ रहा है और निश्चित रूप से काफी अच्छा बनेगा। लेकिन मुझे अभी से चिंता होने लगी है उसके तीसरे खंड को लेकर, जिसमें मेरे जीवन की न जाने कैसी झांकी होगी। बेबी पाल के हाथ में कलम देते हुए मैं भूल गया था कि उसका शिकार कभी मैं भी हो सकता हूँ। बेबी ने कल ही तुम्हें चिठ्ठी लिख डाली थी। हिज्जों की उसकी भूलें तो दूर होने में समय लेंगी लेकिन उसकी लिपि में हुआ सुधार शायद तुम्हें भी मालूम पड़ेगा। अपना लिखा थोड़ा-सा भी किसी पत्रिका में छपा देखकर उसका उत्साह कितना बढ़ेगा इसका अनुमान तुम सहज ही लगा सकते हो। तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है कि बांग्ला में छपने पड़ ही उसमें आत्मविश्वास आएगा, लेकिन यह कैसे संभव होगा। जया मित्र या जोगिन या तुम्हारे कोई और बंगाली मित्र ही बता सकेंगे कि वाक्यों की अनगढ़ता पर ध्यान न दे केवल हिज्जे सुधारने से क्या बात बनेगी? एक आठ दस पन्नों का टुकड़ा इस तरह छप जाए तो उस पर हुई लेखकों-पाठकों की प्रतिक्रिया से कुछ समझ में आएगा कि उसे और ठीक कैसे किया जा सकता है।एक काम यह भी किया जा सकता है कि गलत शब्दों के साथ सही शब्द कोष्ठकों में दे दिए जाएं। ऐसा करना तब शायद नहीं खटकेगा जब जीवनी के अंश के साथ लेखिका की शैक्षणिक, सामाजिक, पृष्ठभूमि का उसके परिचय में उल्लेख होगा ।’
12 नवंबर 2000 कोमुझे लिखा- ‘बेबीपाल को लेकर मैं यह सोचता हूँ कि ‘झी’ गिरि से बेहतर क्या यह नहीं होगा कि जीवन को किसी सार्थक उपलब्धि की मरीचिका में नष्ट हो जाने दिया जाए। किताबें देखने मात्र से उसकी आंखों में चमक आ जाती है। बेबी पाल ने अपने जीवन में पहली जो किताब पूरी पढ़ी वह बुद्धदेव गुहा का एक छोटा उपन्यास है। सरल भाषा में एक रोचक कहानी पढ़ने से उसे आत्मविश्वास हुआ कि वह ‘पढ़’ सकती है। दूसरी किताब वह पढ़ रही है ‘आमार मेये बेला’और मैं बता नहीं सकता उसे कितना सुख मिल रहा है। यह ख़त्म करने पर वह आशापूर्णा देवी का ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ शुरू करेगी जिसके पहले पन्ने ने ही उसे मोह लिया है।’
‘बेबी का उपन्यास अब किसी भी दिन ख़त्म हो सकता है, क्योंकि अब वह इस घर में गुजरते समय के बारे में लिख रही है। तुम्हें उसके लेखन में ‘विस्तार’ आवश्यकता से अधिक लग रहा है।उसे मैंने कुछ भी न छोड़ने की सलाह दी थी, इसलिए लेखन में आए अवांछित विस्तार का दोष मुझे स्वीकार करना चाहिए। सोचा था कि ‘ऐसा लिखो’, ‘ऐसा नहीं लिखो’ के चाप में वह कुछ भी लिख नहीं पाएगी, इसलिए उसे अपने मन से लिखने दूंगा और बाद में जो कुछ फालतू होगा उसे निकालने के लिए ‘अशोक जी’ तो हैं ही। बेबी का बड़ा लड़का सुबोध पड़ोस के ही एक सुसंस्कृत परिवार के पास आ गया है। लेकिन इससे ऐसा नहीं है कि उसकी सारी चिंताएं मिट गई हों।’
‘बेबी के उपन्यास का तीसरा खंड लगभग आधा खत्म हो गया है।इतने काम-धाम के बावजूद उसके लिखने में व्यवधान नहीं होता इससे आश्चर्य होता है।अशोक से कहना कि यदि संभव हो तो हर सप्ताह एक बांग्ला अख़बार बुक पोस्ट से बेबी पाल को भेजें।’
‘‘आलो अंधारि’ का हिंदी अनुवाद बांग्ला पांडुलिपि से मिलाने के बाद सर पर से बोझ उतर जाने जैसा लग रहा है।अब केवल टाइपिंग इत्यादि जैसे छोटे-मोटे यांत्रिक काम बचे हैं। बेबी अभी अपनी किताब की पांडुलिपि फेयर करने में व्यस्त है, जैसे ही उसका यह काम खत्म होगा, वह तुम लोगों को लिखना शुरू करेगी।’
वह दिन आ गया जब ‘आलो अंधारि’ रोशनाई प्रकाशन से प्रकाशित हो गई।उसका अप्रत्याशित स्वागत हुआ और वह पुस्तक छा गई। प्रबोध जी बहुत खुश थे। ‘आलो अंधारि’ से जुड़ी बातें उत्साह से बताते रहते।
‘23 जुलाई 2006 को जिस दिन मैं यहां पहुंचा था डी एल एफ की गैलरी अल्टरनेटिव में उर्वशी बुटालिया की उपस्थिति में ‘आलो अंधारि’ के अंग्रेजी संस्करण पर चर्चा हुई। उसी दिन या उसके अगले दिन बेबी ने दैनिक भास्कर और पी टी आई से बात की। उर्वशी बुटालिया से पता चला कि ‘आलो …’ का फ़्रांसिसी अनुवाद अक्तूबर (या जनवरी?) के फ्रैंक फर्ट पुस्तक मेले में उद्घाटित होगा और संभव है कि उस अवसर पर बेबी वहां हो। इस माह या सितंबर में पेन्गुइन कोलकाता में ‘आलो…’ के अंग्रेजी अनुवाद पर कोई उत्सव करने जा रहा है जिसमें बेबी को भी भाग लेना है। उसके लिए दुभाषिए का काम उर्वशी बुटालिया करेंगी। ‘आलो ..’ का तेलुगु अनुवाद लगभग आधा हो चुका है, यह जानकारी श्री बाल शौरी रेड्डी से मिली है। उर्वशी के अनुसार ब्राजील और दक्षिण कोरिया में भी इस किताब का अनुवाद होगा, शायद जापानी में भी। गैंगटॉक के रमन (अर्जुन का दोस्त, अशोक के घर शायद उससे भेंट हुई हो) ने बताया कि उसके पिता नेपाली में इस किताब का अनुवाद करना चाहते हैं। मराठी में भी अनुवाद होगायह तो तुम्हें मालूम ही है। इंग्लैंड के किसी फिल्म निर्माता ने इस किताब को फिल्माने में रुचि दिखलाई है यह जानकारी उर्वशी ने दी। अब गुड़गांव पहुंच कर पता चलेगा इस बीच और कहां कहां बेबी ने झंडे गाड़े।’
"अंग्रेजी संस्करण आने के बाद विदेशी भाषाओं में अनुवाद की यात्रा शुरू हो गई। वह पुस्तक विदेश में पढ़ी जाने लगी। कक्षा ग्यारह की हिंदी पुस्तक ‘वितान’ (एनसीईआरटी) में उस आत्मकथा के अंश शामिल किए गए।किताब ने अपनी अद्भुत यात्रा शुरू कर दी।बेबी हालदार को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली।"
अपने इस कार्य के बाद प्रबोध जी ने ‘निरीहों की दुनिया’ नाम से एक उपन्यास-जिसे ‘पंचतंत्र’ कहा जा सकता है पूरा किया।जिसका बड़ा-सा ब्लर्ब कृष्णा सोबती ने लिखा-
‘प्रबोध कुमार अंतस की गहनतम अभिव्यक्ति को रूपायित करने वाली कहानियों के लिए जाने जाते हैं।‘निरीहों की दुनिया’ उपन्यास में प्रबोध कुमार ने हथियारबंद गिरोहों के चंगुल में फंसे वंचितों के जिस आख्यान के संश्लिष्ट को सहज-सादगी और सूक्ष्म संवेदना से प्रस्तुत किया है वो हमारी चेतना को बौद्धिक रूप से स्पंदितकरता है.वंचितों के इस वृत्तांतमें लेखक की चिंताएं मानवाधिकार, मानवीय मूल्यों से जुड़े मानव कल्याण के संदर्भों को छूती हैं।
विश्व भर की व्यवस्थाओं की छाया में पलते विभिन्न माफियाओं से निरीह नागरिकों को सुरक्षित करने की वैचारिक भूमिका इस गंभीर रचित? की विशेषता है। यह इस धरती पर इंसानी हक की पैरवी है।तंत्र और सत्ता की लापरवाही से दूर पड़ी निरीहों की बेगानी बस्तियां तयशुदा नागरिकों से अलग हैसियत रखती हैं।यहां जनसंख्या है मगर संख्या नहीं।
तभी इस पाठ के मुख्य पात्र हैं कछुआ और कछुई, मुखिया और मुखिनी। कछुए की पीठ सहने के लिए, खरगोश के पांव शिकारी के लिए, संचित संचितों की दुनिया कहकहों के लिए, वंचितों की दुनिया संतानों के लिए, सत्ता की शक्तियां बाहुबलियों के लिए और तंत्र की जटिलताएं निरीहों के लिए।इन गुत्थियों को कौन सुलझाएगा… न्याय के लिए कौन इस अन्याय को खारिज करेगा।‘निरीहों की दुनिया’ मात्र उपन्यास नहीं है। प्रबोधकुमार द्वारा सृजित ये निरीहों के हक में एक विशिष्ट कृति है।’
रोशनाई प्रकाशन के संपादक संजय भारती ने उनकी दोनों पुस्तकें -कहानी संग्रह– ‘सी सॉ’ और उपन्यास- ‘निरीहों की दुनिया’को बहुत प्रेम से छापा और इस तरह हिंदी जगत को उनकी दो पुस्तकें उपलब्ध हुईं ।