प्रभु की लीला : बिहार की लोक-कथा

Prabhu Ki Lila : Lok-Katha (Bihar)

मृत्यु के देवता अर्थात यमदूत ने अपने एक दूत को पृथ्वी पर भेजा। एक स्त्री की मृत्यु हो गई थी। उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी जुड़वाँ लड़कियाँ—एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी थी। दूसरी चीख़ रही थी, पुकार रही थी और तीसरी रोते-रोते सो गई थी। उसके आँसू उसकी आँखों में ही सूख गए थे। इन तीन छोटी जुड़वाँ बच्चियाँ की माँ की मृत्यु हो गई थी और कोई देखने वाला नहीं था। पति की मौत पहले हो चुकी थी। परिवार में और कोई भी नहीं था। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?

उस देवदूत को इन तीनों नन्ही बच्चियों पर दया आ गई और वह ख़ाली हाथ वापस लौट गया। उसने जाकर अपने प्रधान को कहा, “मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें क्योंकि आपको स्थिति का सही-सही पता नहीं है। तीन जुड़वाँ बच्चियाँ हैं—छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी हुई है, एक रोते-रोते सो गई, तीसरी अभी चीख़-पुकार रही है। हृदय मेरा द्रवित हो गया और मैं न ला सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन दे दिया जाए? कम-से-कम लड़कियाँ थोड़ी बड़ी हो जाएँ तब तक।”

मृत्यु के देवता ने कहा, “तू तो फिर समझदार हो गया, उससे भी ज़्यादा जिसकी मर्ज़ी से मृत्यु होती है और जिसकी मर्ज़ी से जीवन होता है! इस तरह से तूने पहला पाप कर दिया। इसकी तुझे सज़ा मिलेगी और सज़ा यह है कि तुझे पृथ्वी पर जाना पड़ेगा। जब तक तू तीन बार अपनी मूर्खता पर न हँस लेगा तब तक वापस न आ सकेगा।

इसे पहले तुम्हें समझने की ज़रूरत है। तीन बार हँसना अपनी मूर्खता पर क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हँसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हँसते हो, तब अहंकार टूटता है।”

वह दूत राज़ी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी वह अपने आपको सही समझ रहा था। उसे लगा कि सही तो मैं ही हूँ।

दूत को ज़मीन पर फेंक दिया गया। सर्दियों के दिन क़रीब आ रहे थे। एक मोची कुछ रुपए इकट्ठे करके बच्चों के लिए कोट और कंबल ख़रीदने शहर गया था। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही दूत था जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उसको दया आ गई और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े ख़रीदने के, उस आदमी ने उसके लिए कंबल और कपड़े ख़रीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहाँ रुक सके। तब मोची ने कहा, “अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज़ हो—जो कि वह निश्चित रूप से होगी ही, क्योंकि बच्चों के कपड़े ख़रीदने आया था, वह पैसे तो ख़र्च हो गए। वह अगर नाराज़ हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।”

उस दूत को लेकर मोची घर लौटा। न तो मोची को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को लेकर मोची घर में पहुँचा, पत्नी एकदम पागल हो गई। बहुत नाराज़ हुई, बहुत चीख़ी-चिल्लाई। यह देखकर देवदूत पहली दफ़ा हँसा। मोची ने उससे कहा, “तुम हँस रहे हो, बात क्या है?” उसने कहा, “मैं जब तीन बार हँस लूँगा तब बता दूँगा।”

देवदूत हँसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि मोची देवदूत को घर में लेकर आया है, जिसके आते ही घर में हज़ारों ख़ुशियाँ आ जाएँगी। लेकिन आदमी तो ठहरा आदमी वह देख ही कितनी दूर तक सकता है। पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के कपड़े के लिए पैसे नहीं बचे। जो खो गया है वह देख रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज़ा ही नहीं है—मुफ़्त! घर में दूत आ गया है। जिसके आते ही हज़ारों ख़ुशियों के द्वार खुल जाएँगे। तो दूत हँसा। उसे अपनी मूर्खता का आभास हुआ—क्योंकि मोची की पत्नी यह नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!

जल्दी ही देवदूत ने सात दिन में मोची का सब काम सीख लिया और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि मोची महीनों के भीतर धनी हो गया। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में फैल गई कि उस जैसा जूता बनाने वाला कोई भी नहीं। किसी को नहीं मालूम था कि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहाँ बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।

एक दिन सम्राट का आदमी आया। उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत क़ीमती है, आसानी से मिलता नहीं है, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इसी तरह के बनने हैं और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि एक प्रदेश ऐसा है जहाँ जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। मोची ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गई तो हम मुसीबत में फँसेंगे।

लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब मोची ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आग-बबूला हो गया। वह लकड़ी उठाकर उसको मारने को तैयार हो गया कि “तू हमारी फाँसी लगवा देगा। और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर नहीं बनाने हैं, फिर भी स्लीपर किसलिए?”

देवदूत फिर खिलखिलाकर हँसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, “जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गई है।”

भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट ज़िंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह मोची उसके पैर पकड़ कर माफ़ी माँगने लगा, “मुझे माफ़ कर दे, मैंने तेरी बेइज़्ज़ती की है।” पर उसने कहा, “कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूँ।”

लेकिन वह हँसा आज दोबारा। मोची ने फिर पूछा हँसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हँस लूँगा तब बताऊँगा।

दोबारा हँसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएँ करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभिप्साएँ करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम माँगते हैं जो कभी नहीं घटेगा, क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक़्त क़रीब आ रहा है और हम ज़िंदगी का आयोजन करते हैं।

तब देवदूत ने सोचा, “वे बच्चियाँ! मुझे क्या पता, उनका भविष्य क्या होने वाला है। मैं नाहक बीच में आ गया।”

और तीसरी घटना तब घटी जब देवदूत ने एक दिन तीन सुंदर युवतियों को देखा। उन तीनों की शादी हो रही थी। उन तीनों ने जूतों के ऑर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएँ। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आई थी जो बड़ी धनवान थी। देवदूत ने उन तीनों को पहचान लिया, ये वही तीन लड़कियाँ हैं जिनको उसने मृत माँ के पास छोड़ दिया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सभी स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने उस बूढ़ी औरत से पूछा कि आप कौन हो? उस बूढ़ी औरत ने कहा, “ये तीनों मेरी पड़ोसन की लड़कियाँ हैं। ग़रीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वाँ।

वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गई। लेकिन मुझे दया आ गई। मेरे कोई बच्चे नहीं हैं और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाला। अगर माँ ज़िंदा रहती तो ये तीनों बच्चियाँ ग़रीबी, भूख, दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। माँ मर गई, इसलिए ये बच्चियाँ तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। अब मेरी सारी संपदा की ये ही तीनों मालिक हैं और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।”

देवदूत तीसरी बार हँसा। और मोची को उसने सारा हाल कह सुनाया, “भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देखते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकते। जो होने वाला है, वही होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हँस चुका हूँ। मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूँ।” — और इतना कहकर वह देवदूत लौट गया।

(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)

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