Prabha (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

प्रभा (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

11. प्रभा
काल : ५० ईसवी

1.

साकेत (अयोध्या) कभी किसी राजा की प्रधान राजधानी नहीं बना। बुद्ध के समकालीन कोसलराज प्रसेनजित् का यहाँ एक राजमहल जरूर था; किन्तु राजधानी थी श्रावस्ती (सहेटमहेट), वहाँ से छै योजन दूर । प्रसेनजित् के दामाद अजातशत्रु ने कोसल की स्वतंत्रता का अपहरण किया, उसी वक्त श्रावस्ती का भी सौभाग्य लुट गया। सरयू-तट पर बसा साकेत पहले भी नौ-व्यापार का ही नहीं, बल्कि पूरब (प्राची) से उत्तरापथ (पंजाब) के सार्थ-पथ पर बसा रहने से स्थल-व्यापार का भी भारी केन्द्र था। यह पद उसे बहुत समय तक प्राप्त रहा। विष्णुगुप्त चाणक्य के शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध के राज्य को पहले तक्षशिला तक, फिर यवनराज शैलाक्ष (सेल्यूकस) को पराजित कर हिन्दुकुश पर्वतमाला (अफगानिस्तान) से बहुत पश्चिम हिरात और आमू दरिया तक फैलाया। चन्द्रगुप्त और उसके मौर्य वंश के शासन में भी साकेत व्यापार- केन्द्र से ऊपर नहीं उठ सका। मौर्य-वंश ध्वंसक सेनापति पुष्यमित्र ने पहले-पहल साकेत को राजधानी का पद प्रदान किया; किन्तु शायद पाटलिपुत्र की प्रधानता को नष्ट करके नहीं । वाल्मीकि ने अयोध्या नाम का प्रचार किया; जब उन्होंने अपनी रामायण को पुष्यमित्र या उसके शुंग वंश के शासन-काल में लिखा। इसमें तो शक ही नहीं कि अश्वघोष ने वाल्मीकि के मधुर काव्य का रसास्वादन किया था। कोई ताज्जुब नहीं, यदि वाल्मीकि शुंग वंश के आश्रित कवि रहे हों, जैसे कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के और शुंग वंश की राजधानी की महिमा को बढ़ाने ही के लिए उन्होंने जातकों के दशरथ की राजधानी वाराणसी से बदलकर साकेत या अयोध्या कर दी और राम के रूप में शुंग सम्राट् पुष्यमित्र या अग्निमित्र की प्रशंसा की-वैसे ही, जैसे कालिदास ने ‘रघुवंश’ के रघु और ‘कुमारसम्भव’ के कुमार के नाम से पिता-पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और कुमारगुप्त की। सेनापति पुष्यमित्र अपने स्वामी का वध कर सारे मौर्य साम्राज्य को नहीं ले सका। पंजाब सारा यवन राजा मिनान्दर के हाथ में चला गया; और एक बार तो उसने साकेत पर भी घेरा डाल दिया था; जैसा कि पुष्यमित्र के पुरोहित ब्राह्मण पतंजलि ने लिखा है। इससे यह भी पता लगता है कि पुष्यमित्र के शासन-काल के आरम्भिक दिनों में भी साकेत का खास महत्त्व था; यह भी कि पतंजलि और पुष्यमित्र के समय अयोध्या नहीं, साकेत ही इस नगर का नाम था।

पुष्यमित्र, पतंजलि और मिनान्दर के समय से हम दो सौ साल और पीछे आते हैं। इस समय भी साकेत में बड़े-बड़े श्रेष्ठी (सेठ) बसते थे। लक्ष्मी का निवास होने से सरस्वती की भी थोड़ी-बहुत कद्र होना जरूरी था और फिर धर्म तथा ब्राह्मणों का गुड़चींटे की तरह आ मौजूद होना भी स्वाभाविक था। इन्हीं ब्राह्मणों में एक धन-विद्या-सम्पन्न कुल था, जिसके स्वामी का नाम काल ने भुला दिया; किन्तु स्वामिनी का नाम उसके पुत्र ने अमर कर दिया। ब्राह्मणी का नाम था सुवर्णाक्षी, उसके नेत्र सुवर्ण जैसे पीले थे। उस वक्त पीले-नीले नेत्र ब्राह्मणों और क्षत्रियों के आम तौर पर पाये जाते थे, और पीली आँखों का होना दोष नहीं समझा जाता था। ब्राह्मणी सुवर्णाक्षी का एक पुत्र उसी की भाँति सुवर्णाक्ष, उसी की भाँति पिंगल केश और उसी की भाँति सुगौर था।

2.

वसन्त का समय था। आम की मंजरी चारों ओर अपनी सुगन्धि को फैला रही थी। वृक्ष पुराने पत्तों को छोड़ नये पत्तों का परिधान धारण किये हुए थे। आज चैत्र शुक्ला नवमी तिथि थी। साकेत के नर-नारी सरयू के तट पर जमा हो रहे थे-तैराकी के लिए। तैराकी द्वारा ही साकेत-वासी वसन्तोत्सव मनाया करते थे। तैराकी में तरुण-तरुणी दोनों भाग लेते थे और नंगे बदन एक घाट पर। तरुणियों में कितनी ही कर्पूर-श्वेते यवनियाँ (यूनानी स्त्रियाँ) थीं, जिनका सुन्दर शरीर यवन चित्रकार-निर्मित अनुपम मर्मर-मूर्ति जैसा था, जिसके ऊपर उनके पिंगल या पाण्डुर केश बड़े सुन्दर मालूम होते थे। कितनी ही नील या पीतकेशधारिणी सुवर्णाक्षी ब्राह्मण-कुमारियाँ थीं, जो सौन्दर्य में यवनियों से पीछे न थीं। कितनी ही घनकृष्णकेशी गोधूमवर्णा वैश्य-तरुणियाँ थीं, जिनका अचिरस्थायी मादक तारुण्य कम आकर्षक न था। आज सरयू तट पर साकेत के कोने-कोने की कौमार्य रूपराशि एकत्रित हुई थी ! तरुणियों की भाँति नाना कुलों के तरुण भी वस्त्रों को उतार नदी में कूदने के लिए तैयार थे। उनके व्यायाम- पुष्ट परिमंडल सुन्दर शरीर कपूर से गोधूम तक के वर्ण वाले थे। उनके केश, मुख, नाक पर खास-खास कुलों की छाप थी। आज के तैराकी के महोत्सव से बढ़कर अच्छा अवसर किसी तरुण-तरुणी को सौन्दर्य परखने का नहीं मिल सकता था। हर साल इस अवसर पर कितने ही स्वयंवर सम्पन्न होते थे। माँ-बाप तरुणों को इसके लिए उत्साहित करते थे। उस वक्त का यह शिष्टाचार था।

नाव पर सरयू-पार जा तैराक तरुण-तरुणियाँ जल में कूद पड़े। सरयू के नीले जल में कोई अपने सवर्ण, पाण्डु, रजत या रक्त दीर्घ कचों को प्रदर्शित करते और कोई अपने नीले-काले केशों को नील जल में एक करते दोनों भुजाओं से जल को फाड़ते आगे बढ़ रहे थे। उनके पास कितनी ही क्षुद्र नौकाएँ चल रही थीं, जिनके आरोही तरुण-तरुणियों को प्रोत्साहन देते तथा थक जाने पर उठा लेते थे-हजारों प्रतिस्पर्खियों में कुछ का हार स्वीकार करना सम्भव था। सभी तैराक शीघ्र आगे बढ़ने के लिए पूरी चेष्टा कर रहे थे। जब तट एक-तिहाई दूर रह गया, तो बहुत से तैराक शिथिल पड़ने लगे। उस वक्त पीछे से लपकते हुए केशों में एक पिंगल था और दूसरा पाण्डुश्वेत । तट के समीप आने के साथ उनकी गति और तीव्र हो रही थी, नाव पर चलने वाले साँस रोककर देखने लगे। उन्होंने देखा कि दो पिंगल और पाण्डुश्वेत केश सबसे आगे बढ़कर एक पाँती में जा रहे हैं। तट और नजदीक आ गया। लोग आशा रखते थे कि उनमें से एक आगे निकल जायेगा; किन्तु देखा, दोनों एक ही पाँती में चल रहे हैं ! शायद नौका-रोहियों में से किसी ने उन्हें एक-दूसरे को आगे जाने के लिए जोर देते सुना भी।

दोनों साथ ही तीर पर पहुँचे। उनमें एक तरुण था और दूसरी तरुणी। लोगों ने हर्ष-ध्वनि की। दोनों ने कपडे पहने। खुली शिविकाओं पर उनकी सवारी निकाली गई। दर्शकों ने फूलों की वर्षा की। तरुण-तरुणी एक-दूसरे को नजदीक से देख रहे थे। लोग उनके तैरने के कौशल ही को नहीं, सौन्दर्य की भी प्रशंसा कर रहे थे। किसी ने पूछा-"कुमारी को तो मैं जानता हूँ; किन्तु तरुण कौन है, सौम्य ?"

"सुवर्णाक्षी-पुत्र अश्वघोष का नाम नहीं सुना ?"

"नहीं, मैं अपने पुरोहित के ही कुल को जानता हूँ। हम व्यापारी इतना जानने की फुर्सत कहाँ रखते हैं।"

तीसरे ने कहा-"अरे अश्वघोष की विद्या की ख्याति साकेत से दूर-दूर तक पहुँच गई है। यह सारे वेदों और सारी विद्याओं में पारंगत है।"

पहला-"लेकिन इसकी उम्र तो चौबीस से अधिक की न होगी।"

तीसरा-"हाँ, इसी उम्र में। और इसकी कविताएँ लोग झूम-झूम कर पढ़ते-गाते हैं।"

दूसरा-"अरे, यही कवि अश्वघोष है, जिसके प्रेमगीत हमारे तरुण-तरुणियों की जीभ पर रहते हैं !"

तीसरा-"हाँ, यह वही अश्वघोष है! और कुमारी का क्या नाम है, सौम्य?"

पहला-"साकेत में हमारे यवन-कुल के प्रमुख तथा कोसल के विख्यात सार्थ-वाह दत्तमित्र की पुत्री प्रभा।"

दूसरा-"तभी तो ! ऐसी सुन्दरता दूसरों में बहुत कम पाई जाती है। देखने में शरीर कितना कोमल मालूम होता है; किन्तु तैरने में कितना दृढ़ !"

पहला-"इसके माँ-बाप दोनों बड़े स्वस्थ-बलिष्ठ हैं।"

नागरोद्यान में जो विशेष सम्मान प्रकट करते हुए लोगों को दोनों तैराकों का परिचय दिया गया, और उन दोनों ने भी लज्जावनत सिर से एक-दूसरे का परिचय किया।

3.

साकेत का पुष्पोद्यान सेनापति पुष्यमित्र के शासन का स्मारक था। सेनापति ने इसके निर्माण में बहुत धन और श्रम लगाया था और यद्यपि अब न पुष्यमित्र के वंश का राज्य रहा, न साकेत कोई दूसरी श्रेणी की भी राजधानी तो भी नैगम (नगर-सभा) ने उसे साकेत का गौरव समझ उसी तरह सुरक्षित रखा, जैसा कि वह दो सौ वर्ष पूर्व पुष्यमित्र के शासन-काल में था। बाग के बीच में एक सुन्दर पुष्करिणी थी, जिसके नील विशुद्ध जल में पद्म सरोज, पुण्डरीक आदि नाना वर्णों के कमल खिले तथा हंस-मिथुन तैर रहे थे। चारों ओर श्वेत पाषाण के घाट थे, जिनके सोपान स्फटिक की भाँति चमकते थे। सरोवर के किनारे पर हरी दूब की काफी चौड़ी मगजी लगी थी। फिर कहीं गुलाब; जूही, बेला, आदि फूलों की क्यारियाँ थीं और कहीं तमाल-बकल-अशोक-पंक्तियों की छाया। कहीं लता-गुल्मों से घिरे पाषाण-तल वाले छोटे-बड़े लतागृह थे और कहीं कुमार-कुमारियों के कन्दुक-क्षेत्र। उद्यान में कई पाषाण, मृत्तिका और हरित वनस्पति से आच्छादित रम्य क्रीड़ा-पर्वत थे। कहीं-कहीं जलयंत्र (फव्वारे) जल-शीकर छोड़ वर्षा का अभिनय कर रहे थे।

अपराह्न में अक्सर एक लतागृह के पास साकेत के तरुण-तरुणियों की भीड़ देखी जाती। यह भीड़ उनकी होती, जो भीतर स्थान न पा सके होते। आज भी वहाँ भीड़ थी; किन्तु चारों ओर की नीरवता के साथ। सभी के कान लतागृह की ओर लगे हुए थे। और भीतर? शिलाच्छादित फर्श पर वह तरुण है, जिसने एक मास पहले तैराकी में विजय प्राप्त करने से इन्कार कर दिया था। उसके शरीर पर मसृण (चिकने) सूक्ष्म दुकूल का कंचुक है। उसके दीर्घ पिंगल केश सिर के ऊपर जूट की तरह बँधे हुए हैं। उसके हाथ में मुखर वीणा है, जिस पर तरुण की अँगुलियाँ अप्रयास थिरकती मन-माना स्वर निकाल रही हैं। तरुण अर्द्धमुद्रित नेत्रों के साथ लय में लीन कुछ गा रहा है-दूसरे के नहीं, अपने ही बनाये गीत । उसने अभी "वसन्त-कोकिला” का गीत संस्कृत में समाप्त किया। संस्कृत के बाद प्राकृत गीत गाना जरूरी था, क्योंकि गायक कवि जानता है, उसके श्रोताओं में प्राकृत-प्रेमी ज्यादा हैं। कवि ने अपनी नवनिर्मित रचना ‘उर्वशी-वियोग" सुनाई- उर्वशी लुप्त हो गई और पुरुरवा अप्सरा (पानी में चलने वाला) कहकर उर्वशी को सम्बोधित करते पर्वत, सरिता, सरोवर, वन गुल्म आदि में हूँढ़ता-फिरता है। वह अप्सरा का दर्शन नहीं कर पाता; किन्तु उसके शब्द उसे वायु में सुनाई देते हैं। पुरुरवा के आँसुओं के बारे में गाते वक्त गायक के नेत्रों से आँसू गिरने लगे; और सारी श्रोतृ-मण्डली ने उसका साथ दिया।

संगीत-समाप्ति के बाद लोग एक-एक करके चलने लगे। अश्वघोष जब बाहर निकला, तो कुछ तरुण-तरुणी उसे घेर कर खड़े हो गये। उनमें सजे आरक्त नयनों के साथ प्रभा भी थी। एक तरुण ने आगे बढ़कर कहा-"महाकवि !"

"महाकवि ! मैं कवि भी नहीं हैं, सौम्य !"

"मुझे अपनी श्रद्धा के अनुसार कहने दो, कवि ! साकेत के हम यवनों की एक छोटी-सी नाट्यशाला है।"

"नृत्य के लिए ? मुझे भी नृत्य का शौक है।"

"नृत्य के लिए ही नहीं, उसमें हम अभिनय भी किया करते हैं।"

"अभिनय !"

"हाँ, यवन-रीति का अभिनय एक विशेष प्रकार का होता है, कवि ! जिसमें भिन्न-भिन्न काल तथा स्थान के परिचायक बड़े-बड़े चित्रपट रहते हैं और सभी घटनाओं को वास्तविक रूप में दिखलाने की कोशिश की जाती है।"

"मुझे कितना अफसोस है, सौम्य ! साकेत में जन्म लेकर भी मैंने ऐसे अभिनय को नहीं देखा।”

"हमारे अभिनयों के दर्शक यहाँ के यवन- परिवारों तथा कुछ इष्टमित्रों तक ही सीमित हैं, इसलिए बहुत-से साकेतवासी यवन-अभिनय..."

"नाटक कहना चाहिए, सौम्य ?"

"हाँ, यवन नाटक को। आज हम लोग एक नाटक करने वाले हैं। हम चाहते हैं कि तुम भी हमारे नाटक को देखो।"

"खुशी से। यह आप मित्रों का बहुत अनुग्रह है।"

अश्वघोष उनके साथ चल पड़ा। नाट्यशाला में रंग के पास उसे स्थान दिया गया। अभिनय किसी यवन (यूनानी) दुःखान्त नाटक का था और प्राकृत भाषा में किया गया था। यवन कुलपुत्रों और कुलपुत्रियों ने हर एक पात्र का अभिनय किया था। अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों की पोशाक यवन-देशीयों जैसी थी। भिन्न-भिन्न दृश्यों के चित्रपट भी यवन-रीति से बने थे। नायिका बनी थी प्रभा, अश्वघोष की परिचिता। उसके अभिनय-कौशल को देखकर वह मुग्ध हो गया। नाटक के बीच में एक उचित अवसर देखकर पूर्व-परिचित यवन तरुण ने 'उर्वशी-वियोग' गाने की प्रार्थना की। अश्वघोष बिना किसी हिचक के वीणा उठा रंगमंच पर पहुँच गया। फिर उसने अपने गाने से स्वयं रो, दूसरों को लाया। उस वक्त एक बार उसकी दृष्टि प्रभा के कातर नेत्रों पर पड़ी थी।

नाटक समाप्त हो जाने पर नेपथ्य में सारे अभिनेता कुमार-कुमारियों का कवि से परिचय कराया गया। अश्वघोष ने कहा-‘साकेत में रहते हुए भी मैं इस अनुपम कला से बिल्कुल अनभिज्ञ रहा। आप मित्रों का मैं बहुत कृतज्ञ हैं, कि आपने मुझे एक अज्ञात प्रभालोक का दर्शन कराया !"

"प्रभालोक" कहते समय कुछ तरुणियों ने प्रभा की ओर देखकर मुस्करा दिया। अश्वघोष ने फिर कहा-“मेरे मन में एक विचार आया है। तुमने जैसे यवन नाटक के प्राकृत- रूपान्तर का आज अभिनय किया, मैं समझता हूँ, उसी ढंग के अनुसार हम अपने देशों की कथाओं' को ले अच्छे नाटक तैयार कर सकते हैं।"

"हमें भी पूरा विश्वास है, यदि कवि ! तुम करना चाहो, तुम मूल यवन नाटक से भी अच्छी नाटक तैयार कर सकते हो।"

"इतना मत कहो, सौम्य ! यवन-नाटककार का मैं शिष्य-भर ही होने लायक हूँ। अच्छा, यदि मैं उर्वशी-वियोग पर एक नाटक लिखूँ?"

"हम उसका अभिनय करने के लिए तैयार हैं; लेकिन साथ ही पुरुरवा का पार्ट तुम्हें लेना होगा।"

"मुझे उज्र न होगा, और मैं समझता हूँ, थोड़ा- सा अभ्यास कर लेने पर मैं उसे बुरा न करूँगा।"

"हम चित्रपट भी तैयार करा लेंगे।"

“चित्रपट पर हमें पुरुरवा के देश के दृश्य अंकित करने होंगे। मैं भी चित्र कुछ खींच लेता हूँ। अवसर मिलने पर उसमें मैं कुछ मदद करूंगा।"

"तुम्हारे आदेश के अनुसार दृश्यों का अंकित होना अच्छा होगा। पात्रों की वेश-भूषा का निर्देश भी, सौम्य, तुम्हें ही देना होगा ! और पात्र ?"

"पात्र तो, सौम्य सभी अभी नहीं बतलाए जा सकते। हाँ, उनकी संख्या कम रखनी होगी।"

"कितनी रखनी चाहिए?"

"सोलह से बीस तक को हम आसानी से तैयार कर सकते है।

"मैं सोलह तक ही रखने की कोशिश करूंगा।"

"पुरुरवा, तो सौम्य ! तुम्हें बनना होगा और उर्वशी के लिए हमारी प्रभा कैसी रहेगी ? आज तुमने देखा उसके अभिनय को।"

"मेरी अनभ्यस्त आँखों को तो वह निर्दोष मालूम हुआ।"

"तो प्रभा को ही उर्वशी बनना होगा। हमारी मण्डली में जो काम जिसको दिया जाता है, वह उससे इन्कार नहीं कर सकता।"

प्रभा के नेत्र कुछ संकुचित होने लगे थे, किन्तु प्रमुख तरुण के "क्यों प्रभा !" कहने पर उसने जरा रुक कर "हाँ" कर दिया।

4.

अश्वघोष ने प्रमुख यवन तरुण-बुद्धप्रिय–के साथ कुछ यवन-नाटकों के प्राकृत- रूपान्तरों को पढ़ा और उनके स्थान आदि के संकेत के बारे में बातचीत की। नाटक के चित्रपटों का नामकरण उसने यवन (यूनानी) कला के स्मरण के रूप में यवनिका रखा। नाटक को संस्कृत-प्राकृत, गद्य-पद्य दोनों में लिखा। उस समय की प्राकृत संस्कृत के इतना समीप थी कि सम्भ्रान्त परिवारों में उसे आसानी से समझा जाता था। यही 'उर्वशी वियोग' प्रथम भारतीय नाटक था, और अश्वघोष था प्रथम नाटककार । कवि का यह पहला प्रयास था, तो भी वह उसके 'राष्ट्रपाल' 'सारिपुत्र' आदि नाटकों से कम सुन्दर नहीं था।

रंग की तैयारी तथा अभिनय के अभ्यास में तरुण-कवि को खाना पीना तक याद नहीं रहता था। इसे वह अपने जीवन की सुन्दरतम् घड़ियाँ समझता था। रोज घण्टों वह और प्रभा साथ तैयारी करते थे। तैराकी के दिन उनके हृदयों में पड़ा प्रेम- बीज अब अंकुरित होने लगा था। यवन तरुण-तरुणी अश्वघोष को आत्मीय के तौर कर देखना चाहते थे, इसलिए वह इसके सहायक होना अपने सौभाग्य की बात समझते थे। एक दिन घड़ियों के तूलिका-संचालन के बाद अश्वघोष नाट्यशाला के बाहर क्षुद्रोद्यान में रखी आसन्दिका पर जा बैठा। उसी समय प्रभा भी वहाँ आ गई। प्रभा ने अपने स्वाभाविक मधुर स्वर में कहा-"कवि, तुमने उर्वशी-वियोग गीत बनाते वक्त अपने सामने क्या रखा था ?"

"उर्वशी और पुरुरवा के कथानक को।"

"कथानक तो मैं भी जानती हूँ। उर्वशी को अप्सरा करके तुमने बार-बार संबोधित किया था।"

"उर्वशी थी ही अप्सरा।"

"फिर उसमें पुरुरवा को उर्वशी के वियोग में सरिता, सरोवर, पर्वत, वन सब में ढूँढने में विहल चित्रित किया था।"

"पुरुरवा की उस अवस्था में यह स्वाभाविक था।"

“फिर उर्वशी-वियोग के गायक ने लतागृह में अश्रुधारा को वीणा की भाँति गीत का संगी बना दिया था।

"गायक और अभिनेता को तन्मय हो जाना चाहिए, प्रभा !"

"नहीं, तुम मुझे साफ बतलाना नहीं चाहते।"

“तुम क्या समझती हो ?"

"मैं समझती हूँ तुमने किसी पुरानी उर्वशी के वियोग का गान नहीं गाया था।"

"और फिर?"

"तुम्हारी उर्वशी-उर-वसी (हृदय में बसी)-थी, वह अप्सरा अप-सरयू के जल में, सरा=तैरने वाली थी।"

"और फिर ?"

"इस उर्वशी का पुरुरवा किसी हिमालय-जैसे पर्वत, वनखंड, सरिता, सरोवर और गुल्म में नहीं, बल्कि साकेत की सरयू, पुष्पोद्यान के सरोवर, क्रीड़ा- पर्वत, वन और गुल्म को ढूँढ़ता फिरता था।"

"और फिर ?"

"उसके आँसू किसी पुराने पुरुरवा की सहानुभूति में नहीं, बल्कि अपनी ही आग को बुझाने के लिए निकले थे।"

"और एक बात मैं कहूँ, प्रभा !"

"कहो, अब तक मैंने ही अधिक कहा।”

"और उस दिन लतागृह से निकलते वक्त मैंने तुम्हारे इन मनहर नीले नयनों को आरक्त और अधिक सूजे देखा था।"

"तुमने अपने गान से रुलाया था।"

"तुमने अपने वियोग से वह गीत प्रदान किया था।"

"किन्तु तुम्हारे गीत की उर्वशी कोई पाषाणी थी, कवि ! कम से कम तुमने उसे वैसा ही चित्रित किया था।"

“क्योंकि मैं व्याकुल और निराश था।"

"क्या समझकर ?"

"मैं उस अचिर प्रभा (बिजली) के दर्शन का सौभाग्य न प्राप्त कर सकूँगा ! वह कब की मुझे भूल गई होगी।"

"तुम इतने अकिंचन थे, कवि ?”

"जब तक आत्म-विश्वास का कोई कारण न हो, तब तक आदमी अकिंचन छोड़ अपने को और क्या समझ सकता है।"

"तुम साकेत ही नहीं, हमारे इस विस्तृत भूखंड के महिमा-प्राप्त कवि हो। तुम साकेत के सरिता-तरुण के विजेता हो। तुम्हारी विद्या की प्रशंसा हर साकेतवासी की जिह्वा पर है। और नारी की दृष्टि से देखो, तो साकेत की सुन्दरियाँ तुम्हें अपनी आँखों का तारा बनाकर रखने को तैयार हैं।" किन्तु इससे क्या ? मेरे लिए तो अपनी उर्वशी सब-कुछ थी। मैंने जब दो सप्ताह उसे नहीं देखा, तो जीवन निस्सार मालूम होने लगा। सच कहता हूँ, प्रभा ! मैंने अपने चित्त को कभी इतना निर्बल नहीं पाया था । यदि एक सप्ताह और न तुम्हें देख पाया होता, तो न जाने क्या कर डालता।"

“कवि ! तुम इतने स्वार्थी न बनो। तुम अपने देश के शाश्वत गायक हो। तुमसे अभी वह क्या-क्या आशा रखता है। तुम्हारे इस 'उर्वशी-वियोग' नाटक का जानते हो, कितना बखान हो रहा है ?"

"मैंने नहीं सुना"

"पिछले सप्ताह मेरे बन्धु एक यवन व्यापारी भरुकच्छ (भड़ौच) से यहाँ आये थे। भरुकच्छ में यवन नागरों की भारी संख्या रहती है। हमारे साकेत के यवन (यूनानी) तो हिन्दू हो गये हैं, किन्तु भरुकच्छ वाले अपनी भाषा को भूले नहीं हैं। भरुकच्छ में यवन देश से व्यापारी और विद्वान् आया करते हैं। हमारे यह बन्धु यवन साहित्य के बड़े मर्मज्ञ हैं। उन्होंने तुम्हारे नाटके की उपमा एम्पीदोकल और युरीपिद्-श्रेष्ठ यवन नाटककारों की कृतियों से दी। वह इसे उतरवाकर ले गये हैं। कहते थे-मिस्र का राजा तुरमाय (तालिमी) बड़ा नाट्य- प्रेमी है, उसके पास यवन भाषान्तर कर इसे भेजेंगे। भरुकच्छ से मिस्र को बराबर जलपोत आया-जाया करते हैं। जिस वक्त मैं उनके वार्तालाप को सुन रही थी, उस वक्त मेरा हृदय अभिमान से फूल उठा था।"

"मेरे लिए तुम्हारे हृदय का अभिमान ही सब-कुछ है, प्रभा !"

"कवि ! तुम अपना मूल्य नहीं जानते।"

"मेरे मूल्य की कसौटी तुम थीं, प्रभा ! अब मैं उसे जानता हूँ।"

"नहीं, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए ! तुम्हें प्रभा के प्रेमी अश्वघोष और युग के महान् कवि अश्वघोष को अलग-अलग रखना होगा। प्रभा के प्रेमी अश्वघोष को चाहे जो कुछ कहो-करो; किन्तु महान् कवि को उससे ऊपर, सारी वसुन्धरा का समझना होगा।"

"तुम जैसा कहोगी, इस बात में मैं तुम्हारा अनुसरण करूँगा।"

"मैंने अपने को इतनी सौभाग्यशालिनी होने की कभी आशा ने की थी।"

"क्यों ?'

"सोचती थी, तुम मुझे भूल चुके होगे।"

"तुम इतनी साधारण थीं ।"

"तुम्हारे सामने थी और अब भी हूँ।"

"तुमसे मुझे कविता का नया वर मिला है। मैं अपनी कविताओं में अब नई प्रेरणा, नई स्फूर्ति पाता हूँ। ‘उर्वशी-वियोग' गीत तुम्हारी प्रेरणा से प्रकट हुआ और यह नाटक भी। नाटक को मैं देश की अपनी चीज बना रहा हूँ, प्रभा ! किन्तु तुमने कैसे समझा कि मैं तुम्हें भूल जाऊँगा?"

"कहीं से भी मैं अपने को तुम्हारे पास पहुँचने लायक नहीं पाती थी। एक-एक कर जब मैं तुम्हारे गुणों से पूर्णतया परिचित हो गई, तो उससे निराश ही होती गई। साकेत की एक-से-एक सुन्दरियों को मैंने तुम्हारे नाम पर बावली होते देखा, इससे भी आशा नहीं हो सकती थी। फिर सुना, तुम उच्च कुल के ब्राह्मण हो। यद्यपि मैं ब्राह्मणों के बाद उच्च स्थान रखने वाले राजपुत्र यवन की कन्या हूँ, तो भी कुलीन ब्राह्मण-जो माता-पिता की सात पीढ़ियों तक की छान-बीन किये बिना ब्याह नहीं करता-कैसे मेरे प्रेम का स्वागत करेगा ?"

"मुझे खेद है, प्रभा ! जो अश्वघोष ने तुम्हारे चित्त को इस तरह दुखाया।"

"तो तुम-"प्रभा कहते - कहते वह रुक गई।

"अश्वघोष ने प्रभा के बाष्पपूर्ण नेत्रों को चूम कण्ठ से लगाकर कहा-"प्रभा, अश्वघोष सदा तुम्हारा रहेगा। काल भी तुम्हें उससे पराई नहीं बना सकता।"

प्रभा के नेत्रों से छलछल ऑसू बह रहे थे और अश्वघोष कण्ठ से लगाये उसके आँसुओं को पोंछ रहा था।

'उर्वशी-वियोग' बहुत अच्छा खेला गया और एक से अधिक बार ।साकेत के सभी सम्भ्रान्त नागरिकों ने उसे देखा। उन्हें कभी ख्याल भी न था कि अभिनय की कला इतनी पूर्ण, इतनी उच्च हो सकती है। अश्वघोष ने अन्तिम यवनिकापात के समय कई बार दोहराया था कि मैंने सब कुछ यवन-रंगमंच से लिया है; किन्तु उसके नाटक इतने स्वभूमिज थे कि कोई उन पर किसी प्रकार के विदेशी प्रभाव की गन्ध भी नहीं पाता था।

जिस तरह अश्वघोष के संस्कृत-प्राकृत गीत और कविताएँ साकेत और कोसल की सीमा पार कर गए थे, उसके नाटक उससे भी दूर तक फैल गए। उज्जयिनी, दशपुर सुप्पारक, भरुकच्छ, शाकला (स्यालकोट). तक्षशिला, पाटलिपुत्र जैसे महानगरों में-जहाँ कि यवनों की काफी संख्या और उनकी नाट्यशालाएँ थीं-उसके नाटक रंग-मंच पर बहुत जल्द पहुँचे; और फिर सारे ही सामन्तों और व्यापारियों में वह बहुत प्रिय हुए।

5.

अश्वघोष का रंगमंच पर अभिनय और यवन-कन्या से प्रेम उसके माता-पिता से छिपा नहीं रह सकता था। इसे सुनकर पिता खास तौर से चिन्तित हुए। ब्राह्मण ने सुवर्णाक्षी को पहले समझाने के लिए कहा। माता ने जब कहा कि हमारे ब्राह्मण-कुल के लिए ऐसा सम्बन्ध अधर्म है, तब ब्राह्मणों के सारे वेद-शास्त्रों के ज्ञाता अश्वघोष ने माँ को पुराने ऋषियों के आचरणों के सैकड़ों प्रमाण दिए (जिनमें से कुछ को पीछे उसने अपनी 'वज्रच्छेदिका' में जमा किया, जो आज भी 'वजच्छेदिकोपनिषद्’ के नाम से उपनिषद्-गुटका में सम्मिलित है)। किन्तु माँ ने कहा-"यह तो सब ठीक है, बेटा, किन्तु आज के ब्राह्मण उस पुराने आचरण को नहीं मानते।"

"तो ब्राह्मणों के लिए मैं एक नया सदाचार उपस्थित करूँगा।"

माँ अश्वघोष की युक्तियों से सन्तुष्ट नहीं हो सकती थी; किन्तु जब उसने कहा कि प्रभा और मेरे प्राण अलग नहीं रह सकते, तो वह पुत्र के पक्ष में हो गई और बोली-"पुत्र, मेरे लिए तू ही सब कुछ है।" अश्वघोष ने एक दिन प्रभा को माँ के पास भेजा। माँ ने रूप के समान ही गुण और स्वभाव में भी आगरी इस कन्या को देख आशीर्वाद दिया। किन्तु ब्राह्मण इसे मान नहीं सकता था। उसने एक दिन अश्वघोष से सीधे कहा-"पुत्र ! हमारा श्रोत्रियों का श्रेष्ठ ब्राह्मण-कुल है। हमारी पचासों पीढ़ियों से सिर्फ कुलीन- ब्राह्मण-कन्याएँ ही हमारे घर में आया करती हैं। आज यदि इस सम्बन्ध को तुम स्वीकार करते हो, तो हम और हमारी आगे आने वाली सन्तान सदा के लिए जाति भ्रष्ट हो जायेंगे; हमारी सारी मान- मर्यादा जाती रहेगी।"

अश्वघोष के लिए प्रभा का त्याग अचिन्तनीय था।

ब्राह्मण ने फिर प्रभा के माता-पिता से अनुनय-विनय की; किन्तु वह असमर्थ थे। अन्त में उसने प्रभा के सामने पगड़ी रखी। प्रभा ने इतना ही कहा कि मैं अश्वघोष से आपकी बात कहूँगी।

6.

प्रभा और अश्वघोष अभिन्न सहचर थे। चाहे सरयू-तीर हो चाहे पुष्पोद्यान, यात्रोत्सव, नृत्यशाला, नाट्यशाला या दूसरी जगह, एक के होने पर दूसरे का वहाँ रहना जरूरी था। प्रभा सूर्य-प्रभा की भाँति अश्वघोष के हृदय-पद्म को विकसित रखती थी। दूध-सी छिटकी चाँदनी के प्रकाश में दोनों अकसर सरयू की रेत में जाते और प्रणय-लीला में ही अपना समय नहीं बिताते, बल्कि वहाँ कितनी ही बार जीवन की दूसरी गम्भीर बातें भी छिड़ जातीं । एक दिन उस चाँदनी में सरयू की काली धारा के पास श्वेत- सिकता पर बैठी प्रभा के रूप का चित्र वह अपने मन में खींचने लगा। एकाएक उसके मुँह से उद्गार निकल आया-

"प्रभा, तुम मेरी कविता हो। तुम्हारी ही प्रेरणा को पाकर मैंने ‘उर्वशी-वियोग’ लिखा। तुम्हारी यह रूपराशि मुझसे कितने ही काव्य-सौन्दर्य की रचना करायेगी। कविता भीतर की अभिव्यक्ति बाहर नहीं है, बल्कि वह बाहर की अभिव्यक्ति भीतर है, इस तथ्य को मुझे तुमने समझाया, प्रिये !"

प्रभा अश्वघोष की बात को सुनते-सुनते शीतल सिकतातल पर लेट रही। उसके दीर्घ अम्लान केशों को बालू पर फैलते देख अश्वघोष ने उसके सिर को अपनी गोद में ले लिया। नेत्रों को ऊपर की ओर करके प्रभा अश्वघोष के मुख की रूपरेखा देख रही थी। अश्वघोष की बात की समाप्ति पर पहुँचते देख प्रभा ने कहा-

"मैं तुम्हारी सभी बातें मानने के लिए तैयार हूँ। काव्य वस्तुतः साकार सौन्दर्य से प्रेरित हुए बिना पूर्ण नहीं होता। मैं भी तुम्हारा काव्यमय चित्रण करती, और मूक चित्रण मैं करती भी हैं, किन्तु कविता मेरे बस की बात नहीं है। मैंने उस दिन कहा था कि तुम्हें अपने भीतर दो अश्वघोषों को देखना चाहिए, जिनमें युग के महान् कवि शाश्वत अश्वघोष को ही ख्याल मुख्य होना चाहिए, क्योंकि वह एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि विश्व की महानिधि है। कालकाराम के उस विद्वान् भिक्षु की बात याद है न, जिसे हम परसों देखने गए थे ?"

"वह अद्भुत मेधावी मालूम होता है।"

"हाँ, और बहुत दूर-दूर तक घूमा भी। उसका जन्म मिस्र की अलसन्दा (सिकन्दरिया) नगरी का है।"

"हाँ, मैंने सुना है, एक बात मुझे समझ में नहीं आती, प्रिये ! यवन सारे ही बौद्ध धर्म को क्यों मानते हैं ?"

"क्योंकि वह उनकी मनोवृत्ति और स्वतंत्र प्रकृति के अनुकूल मालूम होता है।"

"लेकिन बौद्ध सब को विरागी, तपस्वी और भिक्षु बनाना चाहते हैं ?"

"बौद्धों में गृहस्थों की अपेक्षा भिक्षु बहुत कम होते हैं और बौद्ध गृहस्थ जीवन का रस लेने में किसी से पीछे नहीं रहते।"

"इस देश में और भी कितने ही धर्म हैं, आखिर यवनों का बौद्धधर्म पर इतना पक्षपात क्यों ? यह फिर भी समझ में नहीं आता।"

"यहाँ बौद्ध ही सबसे उदार धर्म है। जब हमारे पूर्वज भारत में आए तो सब म्लेच्छ कहकर हमसे घृणा करते थे। आक्रमणकारी यवनों की बात मैं नहीं करती हैं; यहाँ बस जाने वाले अथवा व्यापार आदि के सम्बन्ध से आने वाले यवनों के साथ भी यही बर्ताव था किन्तु बौद्ध उनसे कोई घृणा नहीं करते थे। यवन वस्तुतः अपने देशों में भी बौद्धधर्म से परिचित हो गए थे !"

"अपने देश में भी ?"

"हाँ, चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक के समय कितने ही बौद्ध-भिक्षु यवन लोक (यूनानी लोकों) में पहुँचे थे। हमारे धर्मरक्षित इस देश में आकर भिक्षु नहीं बने। वह मिस्र में अलसन्दा (सिकन्दरिया) के विहार में भिक्षु हुए थे।"

"मैं उनसे फिर मिलना चाहता हूँ, प्रभा !"

"जरूर मिलना चाहिए। वह तुम्हें और गंभीर बातें बतलाएँगे- बौद्धधर्म के बारे में ही नहीं, यवन-दर्शन के बारे में भी।"

"यवन भी दार्शनिक हुए हैं ?"

"अनेक महान् दार्शनिक, जिनके बारे में भदन्त धर्मरक्षित तुम्हें बतलाएँगे। किन्तु प्रिय, कहीं बौद्ध-दर्शन सुन प्रभा से वैराग्य न कर लेना ।" -कह प्रभा ने अपनी बाँहों में अश्वघोष को बाँध लिया, मानों उसे कोई छीने लिये जा रहा हो।

"कुछ बातें तो कालकाराम की मुझे भी बहुत आकर्षक मालूम हुई। ख्याल आता था, यदि हमारा सारा देश कालकाराम- जैसा होता।"

प्रभा ने बैठकर कहा-"नहीं, प्रिय ! कहीं तुम मुझे छोड़कर कालकाराम में न चले जाना।"

"तुम्हें छोड़ जाना जीते-जी ! असम्भव, प्रिये ! मैं कह रहा था वहाँ की भेद-भाव शून्यता के बारे में । देखो, वहाँ यवन धर्मरक्षित, पार्शव (पर्सियन) सुमन जैसे देश-देशान्तर के विद्वान् भिक्षु रहते हैं और साथ ही हमारे देश के ब्राह्मण से चण्डाल तक सारे कुलों के भिक्षु एक साथ रहते, एक साथ खाते - पीते और एक साथ ज्ञान अर्जन करते हैं। कालकाराम के उन बूढ़े काले-काले भिक्षु का क्या नाम है?"

"महास्थविर धर्मसेन। वह साकेत के सभी विहारों के भिक्षुओं के प्रधान हैं।"

"सुना है, उनका जन्म-कुल चण्डाल है। और उनके सामने मेरे अपने चचा भिक्षु शुभगुप्त उकड़ूँ बैठ प्रणाम करते हैं। ख्याल करो, कहाँ शुभगुप्त एक समृद्ध श्रोत्रिय ब्राह्मण-कुल के विद्वान् पुत्र और कहाँ चाण्डाल-पुत्र धर्मसेन !"

“किन्तु महास्थविर धर्मसेन भी बड़े विद्वान् हैं।"

"मैं ब्राह्मणों के धर्म की दृष्टि से कहता हूँ, प्रभा ! क्या उनका बस चलता, तो धर्मसेन मनुष्य भी बन सकते थे, देवता बनकर पूजित होने की तो बात ही और ?"

"बुद्ध ने अपने भिक्षु- संघ को समुद्र कहा है। उस संघ में जो भी जाता है, वह नदियों की भाँति नाम-रूप छोड़ समुद्र बन जाता है।" "और बौद्ध गृहस्थ भी, प्रिये ! वैसा ही क्यों नहीं करते ?"

"बौद्ध गृहस्थ देश के दूसरे गृहस्थों से छिन्न-भिन्न होकर रह नहीं सकते। आखिर उनके ऊपर परिवार का बोझ होता है।"

"मैं तो बहुत अच्छा समझता, यदि कालकाराम के भिक्षुओं की भाँति सारे पुर और जनपद (देहात) के लोग भेद-शून्य हो जाते—न कोई जाति का भेद होता, न कोई वर्ण का।"

"एक बात मैंने तुमसे नहीं कही, प्रिय ! तुम्हारे पिता ने एक दिन मेरे सामने पगड़ी रख दी, और कहने लगे कि प्रभा ! अश्वघोष को तू मुक्त कर दे।"

"गोया तुम्हारे मुक्त करने पर वह अपने पुत्र को पा सकेंगे ! तुमने क्या कहा, प्रभा ?"

"मैंने कहा, आपकी बात मैं अश्वघोष से कहूँगी।"

"और तुमने कह दिया। मुझे ब्राह्मणों के पाखण्डों से अपार घृणा है। घृणा से सारा गात्र जलता है। एक ओर वह कहते हैं कि हम अपने

वेद-शास्त्र को मानते हैं। मैंने बड़े परिश्रम और श्रद्धा से उनकी सारी विद्याएँ पढ़ीं; किन्तु वह क्या मानते हैं, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता। शायद वह केवल अपने स्वार्थ को मानते हैं। जब किसी को उनके पुराने ऋषियों के वचनों से निकाल कर दिखलाया, तो कहते हैं-इसका आजकल रिवाज नहीं है। रिवाज को ही मानो या ऋषि-वाक्यों को ही। यदि पुरानी वेद-मर्यादा को किसी ने तोड़ा, तभी न नया रिवाज चला ? कायर, डरपोक, स्वार्थी ऐसों को ही कहते हैं। बस, इन्हें मोटे बछड़ों का माँस और अपनी भूयसी दक्षिणा चाहिए; यह कोई भी ऐसा काम करने के लिए तैयार हैं, जिसमें इनके आश्रयदाता राजा और सामन्त प्रसन्न हों ।"

"गरीबों और जिनको यह नीच जातियाँ कहते हैं, वह सभी गरीब हैं-उनके लिए इनके धर्म में कोई स्थान नहीं है।"

"हाँ, यवन, शक, आभीर दूसरे देशों से आई जातियों को इन्होंने क्षत्रिय, राजपुत्र मान लिया; क्योंकि उनके पास प्रभुता थी, धन था। उनसे इन्हें मोटी-मोटी दक्षिणा मिल सकती थी। किन्तु अपने यहाँ के शूद्रों, चण्डालों, दासों को इन्होंने हमेशा के लिए वहीं रखा। जिस धर्म से आदमी का हृदय ऊपर नहीं उठता, जिस धर्म में आदमी का स्थान उसकी थैली या डंडे के अनुसार होता है, मैं उसे मनुष्य के लिए भारी कलंक समझता हूँ। संसार बदलता है; मैंने ब्राह्मणों के पुराने से आज तक के ग्रन्थों में आचार-व्यवहारों को पढ़कर वहाँ साफ परिवर्तन देखा है, किन्तु आज इनसे बात करो, तो वह सारी बातों को सनातन, स्थिर मनवाना चाहते हैं। यह केवल जड़ता है, प्रिये !"

"मैं तो कारण नहीं हो रही हूँ इन उद्गारों के लिए, मेरे घोष !"

"कारण होना प्रशंसा की बात है, मेरी प्रभा ! तुमने मेरी कविता में नया प्राण, नई प्रेरणा दी है। तुम मेरी अन्तर्दृष्टि में भी नया प्राण, नई प्रेरणा दे मेरा भारी हित कर रही हो। किसी वक्त समझता था कि मैं ज्ञान के छोर पर पहुँच गया। ब्राह्मण इस झूठे अभिमान के बहुत आसानी से शिकार हो जाते हैं, किन्तु अब जानता हूँ कि ज्ञान ब्राह्मणों की श्रुतियों, उनकी ताल तथा भुर्जपत्र की पोथियों तक ही सीमित नहीं है; वह उनसे कहीं विशाल है।"

"मैं एक स्त्री-मात्र हूँ।"

"और जो स्त्री - मात्र होने से किसी को नीच कहता है, उसे मैं घृणा की दृष्टि से देखता हूँ।"

"यवनों में स्त्रियों का सम्मान तब भी दूसरे से ज्यादा है। उनमें आज भी चाहे निस्सन्तान मर जाय; किन्तु एक स्त्री के रहते दूसरे से ब्याह नहीं हो सकता।"

"और यह ब्राह्मण सौ-सौ ब्याह कराते फिरते हैं, सिर्फ दक्षिणा के लिए, छिः! मैं खुश हैं, जो कोई यवन ब्राह्मण-धर्म को नहीं मानता।"

"बौद्ध होने पर भी पूजा-पाठ के लिए हमारे यहाँ ब्राह्मण आते हैं।"

"जब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए यवनों को क्षत्रिय स्वीकार कर लिया है, तो उतना क्यों नहीं करेंगे-दक्षिणा की जो बात ठहरी।"

"तो क्या मैं तुम्हारे ब्राह्मणत्व के अभिमान को दूर करने में कारण तो नहीं बनी ?"

"बुरा नहीं हुआ। यदि ब्राह्मण-अभिमाने मुझमें और तुममें भेद डालना चाहता है, तो वह मेरे लिए तुच्छ, घृणास्पद वस्तु है।"

"यह जानकर मुझे कितनी खुशी है कि तुम मुझे प्रेम करते हो, घोष !"

"अन्तस्तम से प्रिये ! तुम्हारे प्रेम से वंचित अश्वघोष निष्प्राण जड़ रह जायेगा।"

"तो मेरे प्रेम का पुरस्कार, वरदान भी देना चाहते हो ?"

"उसी एक प्रेम को छोड़ कर सब कुछ ।"

"मेरा प्रेम यदि मेरे शाश्वत अश्वघोष, युग के महान् कवि अश्वघोष को जरा भी हानि पहुँचा सका, तो उसे धिक्कार है।"

"साफ कह, प्रिये !"

"प्रेम में मैं बाधा नहीं डालना चाहती; किन्तु मैं उसे तुम्हारे शाश्वत निर्माण में सहायक देखना चाहती हूँ। और यदि मैं न रही-"

अश्वघोष ने विक्षिप्त की भाँति खड़े हो प्रभा को उठाकर जब दृढ़तापूर्वक अपनी छाती और गले से लगाया, तो प्रभा ने देखा, उसके गाल भीगे हुए हैं। वह अश्वघोष को बार-बार चूमती और बार-बार दुलराती रही-“मेरे घोष !" फिर थोड़ा शान्त होने पर प्रभा ने कहा-“सुनो प्यारे, मेरा प्रेम तुमसे कुछ बड़ी चीज माँगना चाहता है, उसे तुम्हें देना चाहिए।"

"तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, प्रिये !"

"फिर तुमने मुझे बात भी समाप्त नहीं करने दी ?"

"किन्तु तुम तो वज्र-अक्षर अपने मुंह से निकालना चाहती थीं।"

“लेकिन उस वज्र-अक्षर को शाश्वत अश्वघोष के हित के लिए कहना जरूरी है। मेरा प्रेम चाहता है महान् कवि अश्वघोष अपने शाश्वत कवि-रूप की भाँति प्रभा के प्रेम को शाश्वत समझे, उसे सामने बैठी प्रभा के शरीर से न नापे । शाश्वत अश्वघोष की प्रभा शाश्वत तरुणी, शाश्वत सुन्दरी है। मैं बस इतना ही तुम्हारे मन से मनवाना चाहती हूँ।"

"तो वास्तविक प्रभा की जगह तुम काल्पनिक प्रभा को मेरे सामने रखना चाहती हो ?"

"मैं दोनों को वास्तविक समझती हूँ, मेरे घोष ! फर्क इतना ही है कि उनमें से एक सिर्फ सौ या पचास वर्ष रहने वाली है, दूसरी शाश्वत। तुम्हारी प्रभा तुम्हारे ‘उर्वशी-वियोग' में अमर रहेगी। मेरे प्रेम को अमर रखने के लिए तुम्हें अमर अश्वघोष की ओर ध्यान रखना होगा। और अब रात बहुत बीत गई, सरयू का तीर भी सोया मालूम होता है, हमें भी घर चलना चाहिए !"

"और मैंने अमर प्रभा का एक चित्र अपने मन पर अंकित किया है।"

"प्रियतम ! बस, यही चाहती हूँ।"-कहकर अश्वघोष के कपोलों पर अपने रेशम-जैसे कोमल केशों को लगा वह नीरव खड़ी रही।

7.

एक बड़ा आँगन है, जिसके चारों और बरामदा और पीछे तितल्ले मकान की कोठरियाँ हैं। बरामदों में अरगनों पर पीले वस्त्र सूख रहे हैं। आँगन के एक कोने में एक कुआँ तथा पास ही एक स्नान-कोष्ठक है। आँगन की दूसरी जगहों में कितने ही वृक्ष हैं, जिनमें एक पीपल का है। पीपल के गिर्द वेदी है और फिर हटकर पत्थर का कटघरा: जिस पर हजारों दीपकों के रखने के लिए स्थान बने हुए हैं। प्रभा ने घुटने टेक उस सुन्दर वृक्ष की वन्दना करके कहा-"प्रिये ! इसी जाति का वह वृक्ष था, जिसके नीचे बैठकर सिद्धार्थ गौतम ने अपने प्रयत्न, अपने चिन्तन द्वारा मन की भ्रान्तियों को हटा बोध प्राप्त किया, और तब से वह बुद्ध के नाम से प्रख्यात हुए। सिर्फ उसी मधुर स्मृति के लिए हम इस जाति के वृक्षों के सामने सिर झुकाते हैं।"

“अपने प्रयत्न, अपने चिन्तन द्वारा मन की भ्रान्तियों को हटा बोध प्राप्त करने का प्रतीक ! ऐसे प्रतीक की पूजा होनी चाहिए, प्रिये ! ऐसे प्रतीक की पूजा अपने प्रयत्न-आत्म-विजय-की पूजा है । फिर दोनों भदन्त धर्मरक्षित के पास गये। वह उस वक्त आँगन के एक बकुल वृक्ष के नीचे बैठे थे, जहाँ वनपुष्पित फूलों की मधुर सुगन्धि फैल रही थी। प्रभा ने बौद्ध उपासिका की भाँति पंच-प्रतिष्ठित से (पैर के दोनों पंजों, घुटनों, हाथ की दोनों हथेलियों और ललाट को धरती पर रखकर) वन्दना की। अश्वघोष ने खड़े ही खड़े सम्मान-प्रदर्शन किया। फिर दोनों जमीन पर पड़े चर्म-खंडों को लेकर बैठ गये। भदन्त के शिष्य अश्वघोष को बातचीत करने के लिए आया समझ वहाँ से हट गये।

साधारण शिष्टाचार की बातों के बाद अश्वघोष ने दर्शन की बात छेड़ी। धर्मरक्षित ने कहा-‘ब्राह्मण-कुमार ! दर्शन को भी बुद्धों-ज्ञानियों के धर्म में बन्धन और भारी बन्धन (दृष्टि-संयोजन) कहा गया है।"

"तो भदन्त ! क्या बुद्ध के धर्म में दर्शन का स्थान नहीं है ?"

"स्थान क्यों नहीं, बुद्ध का धर्म दर्शनमय है; किन्तु बुद्ध उसे बेड़े की भाँति पार उतरने के लिए बतलाते हैं, सिर पर उठा कर ढोने के लिए नहीं।"

"क्या कहा, बेड़े की भॉति ?”

"हाँ, बिना नाव वाली नदी में लोग बेड़ा बाँधकर उससे पार उतर जाते हैं; किन्तु पार उतरकर बेड़े की उन लकड़ियों को उपकारी समझ सिर पर ढोते नहीं फिरते ।"

"अपने धर्म के लिए भी जिस पुरुष को इतना कहने की हिम्मत थी, उसने जरूर सत्य और उसके बल को देखा होगा। भदन्त ! बुद्ध के दर्शन की कोई ऐसी बात बतलाएँ, जिसके जानने से हमें अपने मन से भी बहुत-सा समझ जाने में सुभीता हो !"

"अनात्मवाद है, कुमार ! ब्राह्मण आत्मा को नित्य, ध्रुव, शाश्वत तत्त्व मानते हैं, बुद्ध जगत् के भीतर-बाहर किसी ऐसे नित्य, ध्रुव, शाश्वत तत्त्व को नहीं मानते। इसीलिए उनके दर्शन को अनात्मवाद-अनित्यता, क्षण-क्षण उत्पत्ति-विनाश-का दर्शन कहते हैं!"

“मेरे लिए यह एक बात ही काफी है, भदन्त ! बेड़े की भाँति धर्म तथा अनात्मवाद की घोषणा करने वाले बुद्ध को अश्वघोष शतशः प्रणाम करता है। अश्वघोष जिसको हूँढ़ता था, उसे उसने पा लिया। मैं अपने भीतर अनुभव कर रहा था कुछ ऐसी ही लहरों को; किन्तु मैं उसे नाम नहीं दे पाता था। आज बुद्ध की शिक्षा को लोक ने ठीक से माना होता, तो दुनिया दूसरी ही होती ।"

"ठीक कहा, कुमार ! हमारे यवन देश में भी महान् दार्शनिक पैदा हुए हैं, जिनमें पिथागोर, हेराक्लितु तो भगवान् के समय जीवित थे, सुक्रात, देमोक्रितु, अफलातूं, अरस्तु उनसे थोड़ा बाद में हुए। इन यवन दार्शनिकों ने; गम्भीर चिन्तन किया, किन्तु हेराक्लितु को छोड़ सभी शाश्वतवाद-नित्यवाद-से ऊपर नहीं उठ सके। वर्तमान का उन्हें हद से ज्यादा मोह था। यही करण था कि वह भविष्य को भी उससे बाँध रखना चाहते थे। हेराक्लितु अवश्य बुद्ध की भाँति जग को किसी दो क्षण भी वैसा ही नहीं मानता था; किन्तु इसमें उसका एक वैयक्तिक स्वार्थ था।"

"दर्शन-विचार में वैयक्तिक स्वार्थ !"

“पेट सभी के पास होता है, कुमार ! उस वक्त हमारे एथेन्स नगर में गण-बिना राजा का राज्य था। पहले हेराक्लितु के परिवार की तरह के बड़े-बड़े सामन्त गण शासन के सूत्रधार थे, पीछे उनको हटाकर व्यापारियों-सेठोंने शासन-सूत्र अपने हाथ में लिया। इस अवस्था से हेराल्कितु असन्तुष्ट था। वह परिवर्तन चाहता था; किन्तु आगे जाने के लिए नहीं, बल्कि पीछे की ओर लौटने के लिए ।"

"हमें परिवर्तन चाहिए, किन्तु आगे बढ़ने के लिए, पीछे लौटने के लिए नहीं । मैं समझता हूँ, भदन्त ! अतीत मुर्दा है।"

“बिल्कुल ठीक कहा, कुमार ! बुद्ध परिवर्तन चाहते थे और बेहतर जगत् को लाने के लिए। भिक्षु-संघ को उन्होंने उसी भविष्य के जगत् के लिए एक नमूने के तौर पर पेश किया।"

"जहाँ जात-पाँत नहीं, जहाँ ऊँच-नीच नहीं।"

"जहाँ सबके लिए भोग समान है, जहाँ सबके लिए सेवा करना समान है। तुमने हमारे महास्थविर धर्मसेन को बाहर झाडू लगाते देखा होगा ?"

"वह काले-काले?"

"हाँ, वह हममें सबसे श्रेष्ठ हैं। हम रोज पंच-प्रतिष्ठित से उनकी वन्दना करते हैं। सारे कोसल-देश के भिक्षु-संघ के वह नायक हैं।" "सुना है, वह चण्डाल-कुल के हैं?"

"भिक्षु-संघ कुल नहीं देखता कुमार ! वह गुण देखता है। वह अपनी विद्या और अपने गुणों से हमारे नायक हैं, हमारे पिता हैं। उनके भिक्षापात्र में यदि पात्र-चुपड़ने भर की भी कोई चीज मिल जाती है, तो वह बिना साथियों को दिये नहीं खाते। यही बुद्ध की शिक्षा है। पहनने के तीन कपड़ों, मिट्टी के भिक्षा-पात्र, सुई, जलछक्का, अस्तुरा और कमरबन्द के सिवाय हमारी सारी चीजें संघ के हैं। यह घर, बाग, पंच, पीठ आदि सब संघ के हैं। हमारे किसी-किसी विहार में खेत भी हैं, वह भी संघ के हैं। संघ देखकर एक आदमी को भिक्षु बनाता है, किन्तु जो संघ में प्रविष्ट हो गया-भिक्षु बन गया-वह सब के समान है।"

"इस तरह का संघ यदि सारे देश के लिए बनता ?"

"यह कैसे हो सकता है, कुमार ? राजा और धनी कब दूसरों को बराबर होने देंगे ? भिक्षुओं ने एक दास को संघ में दाखिल कर लिया था। संघ में दाखिल होते ही अब अदास-सब के समान था; किन्तु जिसका वह दास था, उसने हल्ला मचाना शुरू किया। दूसरे दास-स्वामी भी उसके साथ शामिल हो गए। राजा स्वयं हजारों दासों के स्वामी होते हैं। वह भी अपनी संपत्ति पर इस तरह का प्रहार कैसे सह सकते ? बुद्ध क्या करते, उन्होंने वचन दिया कि आगे से संघ दास को अपने भीतर नहीं लेगा। हमारा संघ विषमतापूर्ण समुद्र में एक छोटा-सा द्वीप है, इसलिए वह सुरक्षित नहीं है, जब तक कि संसार में इस तरह की गरीबी, इस तरह की दासता है।"

8.

शरत की पूनो थी। शाम से ही चन्द्रमा का थाल पूर्व क्षितिज पर उग आया था; और जैसे-जैसे क्षितिज पर फैली सूर्य की अन्तिम लाल किरणें आकश छोड़ रही थीं, वैसे ही वैसे चन्द्रमा की शीतल श्वेत किरणें प्रसारित हो रही थीं । अश्वघोष अब अधिकतर प्रभा के घर पर रहा करता था। दोनों छत पर बैठे थे, उसी समय प्रभा ने कहा-"प्रियतम ! मुझे सरयू की लहरें बुला रही हैं-वह लहरें, जिन्होंने सब से पहले तुम्हारा स्पर्श मेरे पास पहुँचाया था, जिन्होंने हमें प्रेम-सूत्र में बाँधा था। तब से दो वर्ष हो गए. किन्तु वह दिन आज ही बीता मालूम होता है। हमने कितनी चाँदनी रातें सरयू की रेत पर बिताई। वह कितनी मधुर होती हैं। आज फिर मधु- चाँदनी है ! प्रिय चलो चलें सरयू के तीर ।"

दोनों चल पड़े। धारा नगर से दूर थी। चाँदनी में चमकते सफेद बालू पर वह देर तक चलते गए। प्रभा ने अपने चप्पलों को हाथ में ले लिया था। उसे पैरों के नीचे दबती सिकता का स्पर्श सुखद लगता था। उसने अश्वघोष की कटि को अपने दोनों हाथों से लपेट कर कहा-"प्रिय ! इस सरयू की सिकता का स्पर्श कितना आह्लादक है ?"

"पैरों में गुदगुदी लगती है।”

"जिससे हर्षातिरेक हो रोमांच हो उठता है। प्यारी सरयू सरिता !"

"मैं कई बार सोचता था; प्रिये ! कि हम दोनों भाग चलें । भाग चलें उस देश में, जहाँ हमारे प्रेम की कोई ईर्ष्या करने वाला न हो। जहाँ तुम प्रेरणा दो, मैं गीत बनाऊँ और फिर वीणा पर हम दोनों गावें । यहाँ सिकता पर इस रात्रि में मैं अपनी वीणा नहीं ला सकता। लोग आ पहुँचेंगे, उनमें से कितनों की आँखें ईर्ष्या-कलुषित होंगी।"

"प्रिय ! बुरा न मानना। मैं कभी-कभी सोचती हूँ, जब मैं न रही-"

अश्वघोष ने बाँहों में कसकर प्रभा को छाती से लगा लिया और कहा-"नहीं प्रिये ! कदापि नहीं । हम इसी तरह रहेंगे।"

"मैं दूसरे अभिप्राय से कह रही हूँ, प्रिय ! मान लो, तुम न रहे, मैं अकेली रह गयी। दुनिया में ऐसा होता है कि नहीं ?"

"होता है।"

"अपनी बार तुम नहीं तिलमिलाये, घोष ! तुम्हारे न रहने पर शोक का पहाड़ केवल मेरे ऊपर टूटेगा इसीलिए न ?"

"तुम मेरे साथ कितनी निष्ठुरता दिखला रही हो, प्रभा !"

प्रभा ने ओठों को चूमकर अश्वघोष को हर्षोत्फुल्ल करते हुए कहा-"जीवन की कई दिशाएँ होती हैं। सदा पूर्णिमा ही नहीं, अमावस्या भी आती है। मैं यही कह रही थी कि एक के अभाव में दूसरे को क्या करना चाहिए। तुम्हारे न रहने पर, जानते हो, मैं क्या, करूंगी ?"

मुँह गिराकर लम्बी साँस ले अश्वघोष ने कहा-"कहो ।"

"मैं अपने जीवन का हर्गिज अन्त न करूंगी। भगवान् बुद्ध ने आत्म-हत्या को मूर्खतापूर्ण निन्दीय कर्म कहा है। तुमने देखा न, मैंने इधर वीणा में बहुत सफलता प्राप्त की है।"

"बहुत, प्रभा ! कितनी ही बार तुम्हें वीणा देकर मैं निश्चिंत हो गाता हूँ।"

"हाँ, तो उस वक्त मेरा अशाश्वत अश्वघोष मुझसे छिन जायेगा; किन्तु मैं शाश्वत अश्वघोष-युग-युग के कवि-की आराधना करूंगी। तुम्हारी वीणा पर तुम्हारे गानों को गाऊँगी, सारे जम्बूद्वीप में और उससे बाहर भी, जीवन-भर जब तक कि हमारा जीवन-प्रवाह किसी दूसरे देश-काल में साकार हो फिर न सम्मिलित हो जायेगा। और मेरे न रहने पर तुम क्या करोगे, प्रियतम ?"

इन शब्दों को सुनकर अश्वघोष का अन्तस्तल से लेकर सारा शरीर काँप गया, जिसे प्रभा ने अनुभव किया। अश्वघोष बोलने का प्रयत्न कर रहा था, किन्तु उसका कंठ सूख गया था और उसकी आँखें बरसना चाहती थीं। कुछ क्षण के प्रयत्न के बाद उसने क्षीण-स्वर में कहा-"बड़ी निष्ठुरा होगी वह घड़ी ! किन्तु प्रभो ! मैं भी आत्महत्या न करूंगा। तुम्हारे प्रेम की प्रेरणा जो-जो गीत मेरे उर में पैदा करेगी, उन्हें मैं गाऊँगा। जीवन के अन्त तक। मैं तुम्हारे शाश्वत अश्वघोष ..." अश्वघोष का कंठ रुद्ध हो गया।

"सरयू की धार सो रही है, प्रिय ! चलो. हम भी चलें ।"

9.

ग्रीष्म ऋतु थी। माता सुवर्णाक्षी बीमार हो गई। अश्वघोष दिन-रात माँ के पास रहता था। प्रभा भी दिन-भर वहीं रहती। चिकित्सा का कोई असर न हुआ, और सुवर्णाक्षी की अवस्था बिगड़ती ही गई। पूनो आई, दूध-सी चाँदनी छिटकी। सुवर्णाक्षी ने आज चाँदनी में ऊपर ले चलने को कहा। छत पर उनकी चारपाई पहुँचाई गई। उनका शरीर सिर्फ हड्डियों का कंकाल रह गया था। रह-रहकर अश्वघोष के हृदय में टीस लगती। माँ ने धीमे स्वर, किन्तु स्पष्ट अक्षरों में कहा-"पुत्र ! यह चाँदनी कितनी सुन्दर है !"

उसी वक्त अश्वघोष के कानों में प्रभा के शब्द गूंजने लगे-“मुझे सरयू की लहरें बुला रही हैं।" उसका कलेजा सिहर उठा। माँ ने फिर कहा-"प्रभा कहाँ है, पुत्र !”

"पिता के घर गई हैं, माँ ! शाम तक तो यहीं थी।"

"प्रभो ! मेरी बेटी ! अच्छा पुत्र, उसे कभी न भूलना ..."

शब्द समाप्त भी न होने पाये थे कि एक खाँसी आई, और दो हिचकियों के बाद सुवर्णाक्षी का शरीर निश्चल हो गया।

सुवर्णाक्षी गई। सुवर्णाक्षी- पुत्र का हृदय फटने लगा। वह रात-भर रोता रहा।

दूसरे दिन मध्याह्न तक वह माँ के दाहकर्म में लगा रहा। फिर उसे प्रभा याद आई। वह दत्तमित्र-भवन गया। माँ-बाप समझते थे, प्रभा अश्वघोष के पास होगी। अश्वघोष का हृदय रात के प्रहार से जर्जर हो रहा था, अब और चिन्तित हो उठा। वह प्रभा के शयनकक्ष में गया। वहाँ सभी चीजें सँभालकर रखी हुई थी। उसने पंलग पर फैलाई सफेद चादर को हटाया। वहाँ उसने अपने चित्र को देखा । प्रभा ने उसे एक आगन्तुक वनन चित्रकार से तैयार करवाया था, और इसके लिए अनिच्छावश अश्वघोष को कितने ही घण्टों बैठना पड़ा था। चित्र पर एक म्लान जूही की माला पड़ी थी। चित्र के नीचे प्रभा की मुद्रा से अंकित लपेटा तालपत्र-लेख था। अश्वघोष ने उसे उठा लिया। रस्सी के बन्धन पर मुहर लगी काली मिट्टी अभी सूखी न थी। अश्वघोष ने रस्सी को काटकर प्रभा की मुहर लगी मिट्टी को रख लिया। लम्बे पत्ते को फैलाने पर प्रभा के सुन्दर अक्षरों में वहाँ पाँच पंक्तियाँ थीं-

"प्रियतम ! प्रभा विदाई ले रही है। मझे सरय की लहरों ने बलाया है। मैं जा रही हूँ। तुमने मेरे प्रेम के लिए कोई वचन दिया है, याद है ? मै प्रभा के चिर-तारुण्य, उसके सदा एक-से रहने वाले सौंदर्य को दिये जा रही हूँ। अब तुम्हारी आँखों को पके बालों, टूटे दाँतों, बलित कटिवाली प्रभा कभी नहीं देखने को मिलेगी। मेरा प्रेम, यह शाश्वत यौवन तुम्हें प्रेरणा देगा। तुम उस प्रेरणा की अवहेलना न करना। प्रियतम ! यह न ख्याल करना कि मैं तुम्हारे कुटुम्ब की कलह का ख्याल कर आत्महत्या कर रही हूँ-सिर्फ तुम्हें काव्य- प्रेरणा देने के लिए मैं अपने अक्षुण्ण यौवन को प्रदान कर रही हूँ। प्रियतम ! प्रभा तुम्हारा अंतिम मानस आलिंगन और चुम्बन कर रही है।"

कई बार आँखों से आँसुओं को पोंछकर अश्वघोष ने पत्र को समाप्त किया। उसके बाद पत्र उसके हाथ से गिर गया। वह खुद चारपाई पर बैठ गया। उसका हृदय सुन्न हो रहा था। हृदय की गति के रुकने की वह तन्मय हो प्रतीक्षा कर रहा था। वह मिट्टी की मूर्ति की भाँति शून्य आँखों से ताकता रहा। कितनी ही देर तक इन्तजार करने के बाद प्रभा के पिता माता आए। उसकी उस अवस्था को देख वह बहुत शंकित हो गए। फिर पास में पड़े पत्र को उन्होंने पढ़ा। माँ के मुँह से चीत्कार निकली और वह धरती पर गिर पड़ी। दत्तमित्र नीरव अश्रुधारा बहाने लगे। अश्वघोष वैसी ही टकटकी लगाये देखता रहा। प्रभा के माँ-बाप देर तक उसकी यह अवस्था देख चुपचाप चले गए। शाम हुई; रात आई, किन्तु वह वैसे ही बैठा रहा। उसके आँसू सूख गये और हृदय को काठ मार गया था। बड़ी रात गये वह वैसे ही बैठे-बैठे ऊँघकर लेट गया।

सवेरे जब प्रभा की माँ आई तो देखा कि अश्वघोष प्रकृतिस्थ हो किसी चिन्ता में बैठा है। माँ ने पूछा-"मन कैसा है ?"

"माँ ? अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ। प्रभा ने जो काम मुझे सौंपा है, अब मैं वही करूँगा। मैंने नहीं समझा था; किन्तु प्रभा जानती थी। वह मेरे कर्त्तव्य को बतला गई है। आत्म-हत्या नहीं, प्रभा ने आत्म-दान दिया। हाँ, उस आत्म-दान को आत्महत्या में बदलना मेरे हाथ में है; किन्तु मैं ऐसा कृतघ्न नहीं हो सकता।"

"माँ ने अश्वघोष के भाव को समझा । अश्वघोष उठ खड़ा हुआ। माँ ने देखकर पूछा-"कहाँ चले, बेटा ?"

"भदन्त धर्मरक्षित से मिलना चाहता हूँ और सरयू को देखना भी।"

"भदन्त धर्मरक्षित नीचे बैठे हैं, और सरयू देखने मैं भी चलूँगी।" कहते - कहते उसका गला भर आया।

अश्वघोष ने नीचे जा भदन्त धर्मरक्षित को पंच-प्रतिष्ठित से वन्दना करके कहा-"भन्ते ! मुझे अब संघ में शामिल कीजिए।"

"वत्स ! तुम्हारा शोक दारुण है।"

"दारुण है; किन्तु मैं उसके कारण नहीं कह रहा हूँ। प्रभा ने मुझको इसके लिए तैयार किया है। मैं जल्दी नहीं कर रहा हूँ।"

"तो भी तुम्हें कुछ दिन ठहरना होगा, संघ इतनी जल्दी नहीं करेगा।"

"मैं प्रतीक्षा करूंगा, भन्ते ! किन्तु संघ की शरण में रहकर ।"

"पहले तुम्हें अपने पिता से आज्ञा लेनी होगी। माता पिता की आज्ञा के बिना संघ किसी को भिक्षु नहीं बनाता।"

"तो मैं आज्ञा लेकर आऊँगा।"

अश्वघोष घर से निकला। माँ उसके स्वस्थ-मस्तिष्क से ऐसे वचन सुनकर भी शंकित-हृदया थी, इसलिए वह भी पीछे-पीछे चली। सरयू पर नाव कर दोनों ने दिन भर नीचे की ओर धार को ढूँढ़ा; किन्तु कुछ पता नहीं मिला। अगले दिन और नीचे गये; किन्तु कहीं कुछ न था।

अश्वघोष ने घर जा पिता से भिक्षु होने के लिए आज्ञा माँगी; किन्तु इकलौते बेटे को वह क्यों आज्ञा देने लगा ? फिर उसने कहा-"मैं माँ और प्रभा के शोक से पीड़ित हो ऐसा नहीं कर रहा हूँ, तात ! मैंने अपने जीवन के लिए जो कार्य चुना है, उसका यही रास्ता है। तुम देख रहे हो मेरे स्वर, मेरी चेष्टा में किसी प्रकार से चित्त-विकार की छाप नहीं है। मुझे इतना ही कहना है-यदि मुझे जीवित रखना चाहते हो, तो आज्ञा दे दो, तात !"

"अच्छा तो कल शाम तक सोचने का अवसर दो।"

"मैं सात दिन तक इन्तजार कर सकता हूँ, तात !"

दूसरे दिन शाम को पिता ने आँखों में आँसू भरकर उसे भिक्षु बनने की आज्ञा दे दी।

साकेत के आर्य सर्वास्तिवाद संघ ने अश्वघोष को भिक्षु बनाया। महास्थविर धर्मसेन उनके उपाध्याय और भदन्त धर्मरक्षित आचार्य बने । भदन्त धर्मरक्षित उसी समय नाव से पाटलिपुत्र (पटना) जाने वाले थे। उनके साथ ही अश्वघोष ने भी साकेत छोड़ा।

10.

भिक्षु अश्वघोष को पाटलिपुत्र के अशोकाराम (मठ) में रहते दस साल हो गए थे। उन्होंने बौद्धधर्म के साथ बौद्ध-दर्शन तथा यवन-दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया। मगध के महासंघ के विद्वानों में अश्वघोष का बहुत ऊँचा स्थान था। इसी समय पश्चिम से शक सम्राट कनिष्क पूर्व की विजय करते पाटलिपत्र पहँचा। पाटलिपुत्र और मगध इस वक्त बौद्धधर्म के प्रधान केन्द्र थे। कनिष्क की बौद्धधर्म में भारी श्रद्धा थी। उसने भिक्षु संघ से गन्धार ले जाने के लिए एक योग्य विद्वान् माँगा। संघ ने अश्वघोष को प्रदान किया।

राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) में जाकर अश्वघोष ने अपने को एक ऐसे स्थान में पाया जहाँ शक, यवन, तुरुष्क (तुर्क). पारसी तथा भारतीय संस्कृतियों का समागम होता था। यवन-नाट्यकला को अश्वघोष पहले ही भारतीय साहित्य में स्थान दिला चुके थे। यवन-दर्शन के गम्भीर विवेचन के बाद उन्होंने उसकी कितनी ही विशेषताओं, विश्लेषण-शैली तथा अनुकूल तत्त्वों को ले भारतीय दर्शन-विशेषकर बौद्ध-दर्शन-को यवन-दर्शन की देन से समृद्ध किया; अश्वघोष ने बौद्धों के लिए यवन-दर्शन से लेने का रास्ता खोल दिया। फिर तो दूसरे भारतीय विचारक भी मजबूर हुए, और वैशेषिक तथा न्याय इस रास्ते में सबसे आगे बढ़े-परमाणु, सामान्य, द्रव्य गुण, अवयवी आदि तत्त्व उन्होंने यवन-दर्शन से लिये।

प्रभा ने हृदय को विशाल कर दिया था, इसलिए भदन्त अश्वघोष को निज-परक विचार नहीं था। प्रभा की प्रेरणा से उन्होंने अनेक काव्य, नाटक, कथानक लिखे, जिनमें कितने तो लुप्त हो गए। फिर भी प्रकृति उनसे विशेष प्रसन्न मालूम होती है, तभी तो मध्य-एशिया की महावालुका राशि (गोबी) ने उन्नीस सौ वर्ष बाद उनके ‘सारिपुत्र-प्रकरण' (नाटक) को प्रदान किया। उनके 'बुद्धचरित' और 'सौन्दरानंद अमर काव्य हैं। उन्होंने प्रभा के दिए वचन को अच्छी तरह निबाहा, और प्रभा के अम्लान सौन्दर्य ने उनके काव्य को सुन्दरतम बनाया, जन्मभूमि साकेत और माता सुवर्णाक्षी को उन्होंने कभी विस्मृत नहीं होने दिया और अपनी कृतियों में सदा अपने लिए 'साकेतक आर्यसुवर्णाक्षी-पुत्र अश्वघोष' लिखा।

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