पियारा बुआ (कहानी) : भैरव प्रसाद गुप्त
Piyara Bua (Hindi Story) : Bhairav Prasad Gupta
उस दिन सुबह की सफ़ेदी अभी धपी भी नहीं थी कि इमली-तले के तीनदरे से पियारा बुआ के रेघा-रेघाकर रोने की आवाज़ सारे मोहल्ले में गूँज उठी। रुलाई में ऐसा दर्द कि पिछले पहर के नींद में माते सन्नाटे का सीना चाक-चाक हो रहा था। आदमियों की नींद तो हवा हो ही गयी, इमली पर बसेरा लेनेवाले पंछी और उसके नीचे खूँटों से बँधे हुए चौपाये भी ऐसे चीखने और डकराने लगे कि जैसे यह दर्द उनसे भी सहा न जा रहा हो। और सब के ऊपर तो पियारा बुआ की बछिया के डकराने की आवाज़ थी, ऐसा लगता था, जैसे उसकी गर्दन पर कोई क़साई छुरी फेर रहा हो।
सारे मोहल्ले में जगरम हो गया और जो जैसे था, वैसे ही पियारा बुआ के तीनदरे की ओर भाग खड़ा हुआ। सोये बच्चों की चिन्ता न होती तो बहुएँ भी वहाँ जाने से अपने को न रोक पातीं। फिर भी वे अपने-अपने दरवाज़े पर खड़ी हो, उत्सुकता और आकुलता से भरकर तीनदरे की ओर मुँह किये, कान रोपे उधर से आनेवाली आवाज़ों को सुनने की कोशिश करने लगीं।
आँख, गाल और मुँह से हमेशा हँसती रहनेवाली पियारा बुआ कभी रोती न हों, ऐसी बात नहीं। महीने-दो-महीने में एक-आध बार वह ज़रूर रोतीं। उनकी रुलाई में दर्द भी कम न होता। लेकिन आज की रुलाई तो जैसे सौ रुलाइयों में एक रुलाई हो, जैसे पियारा बुआ सच में आज ही बेवा हुई हों।
देखते-देखते तीनदरे के सामने छोह-भरे लोगों का ठठ्ठ लग गया। ओसारे में नाक तक मारकीन की धोती का घूँघट खींचे, पाँवों पर बेहाल सी बैठी, गर्दन झुकाये, बायें हाथ पर गाल टेके रेघा-रेघाकर पियारा बुआ रो रही थीं—आ रामा! इहे दिनवा दिखावे खातिर तू हमके छोडि़ गइलऽ हो रामा! अ-ह-ह ...
दाबे पर धरमुआ एक हत्यारे की तरह सिर झुकाये बैठा था और दालान में उसकी औरत। पियारा बुआ को चारों ओर से घेरकर औरतें बैठी थीं और उन्हें छू-छूकर या उनके कन्धे या सिर पर हाथ रख-रखकर उन्हें चुप कराने की कोशिश करती रोने का सबब पूछ रही थीं। लेकिन पियारा बुआ का सिर तो जैसे उठना ही भूल गया था। मनुहार पाकर उनकी रुलाई जैसे और भी अगरा गयी थी।
अगराने की बात ही थी। पियारा बुआ को आँख दिखानेवाले यह जान तो लें कि उन्हें जानने-माननेवाले कितने हैं! मोहल्ले और गाँव की बात कौन चलावे, बाहर के आने-जाने वाले पन्थी भी जितना पियारा बुआ को जानते-मानते थे, उतना कितनों के नसीबों में न होता है! जो कोई भी वहाँ आता या जहाँ-कहीं भी वह जातीं, ‘पियारा बुआ-पियारा बुआ’ कहते लोगों की ज़बान घिसती। बहुओं और औरतों को तो तीज-त्यौहार भी बिना उनके हुँकारी पारे न होता। ऐसी कोई बहू नहीं, जो पियरी पहने और उनके पाँव छूकर असीस न ले। ऐसी कोई औरत नहीं, जो कोई गहना बनवाये और उनसे राय न ले। किसी बच्चे के दाँत उठें तो घुट्टी वो तैयार करें, किसी की आँख आये तो रुखरा वो पारें। किसी के नाक-कान छेदने हों तो पियारा बुआ! बियाह-शादी, पूजा-पाठ में वो गीत कढ़ावें, तो गीत शुरू हो। किसी के भी रंज-ग़म में सबसे आगे वो। किसकी इज़्ज़त उन्होंने नहीं ढँकी, किसकी ज़रूरत पर वह काम न आयीं, किसके घर की लगी को बुझाने में उन्होंने मदद नहीं की, किसकी बिगड़ी उन्होंने नहीं बनायी! मर्द भी उनका मुँह जोहते, बिना उनकी राय लिये कोई क़दम न उठाते। घर के सामने रास्ते से गुज़रनेवाले किसी पन्थी को बिना दो घड़ी बिलमाये और मीठा-पानी पिलाये वह चले जाने दें, ऐसा कभी हुआ नहीं।
इसी गाँव में वह पचास पार करने को आयीं। उन्हें ‘पियारा’ कहके पुकारने वाले गाँव में अब इने-गिने ही रह गये हैं। कभी-कभी बात चलने पर उनमें से कोई बताता है।
आज पियारा को देखकर कौन कह सकता है कि यह सुन्दर शरीर लेकिन फूटा करम लेकर दुनिया में आयी थी। ब्याह की डोली चढक़र गयी, तो तीन महीने के अन्दर ही भंगाके (विधवा होकर) वापस आ गयी। और यहाँ छ: महीने के अन्दर ही बेबाप की हो गयी। छोटा इकलौता भाई धरमुआ उस वक़्त बारह का था और माँ ऐसी बकलोल (मूर्ख) कि इस दोहरे सदमें से उसका दिमाग ही चल गया। उसके रोने और हँसने में कोई फरक ही नहीं रह गया। पियारा का देवर क्रिया-करम में आया, तो उसने पियारा को ले जाने की इच्छा प्रकट की। पियारा का एक दयाद (पट्टीदार) माँ-भाई को अपने यहाँ रखने को तैयार हो गया। लेकिन पियारा बोली—मेरी जो गति अब होनी होगी, यहीं होगी। तुम लोग खोज-खबर लेते रहना, और मैं कुछ नहीं चाहती।
और पियारा की देह पर जो मारकीन की धोती चढ़ी तो फिर कोई दूसरा कपड़ा किसी ने कभी भी नहीं देखा। और जो उसका घूँघट भौंहों के नीचे झुका तो तब से किसी मर्द ने उसकी आँखें न देखीं। कोई कहता, पियारा, तू गाँव की बेटी है, यह घूँघट काहे को काढ़े रहती है? तो वह कहती, भैया, इसी की सरम बची रहे!
बाप पोत पर लेकर एक बैल से खेती करता था। क्रिया-करम में बैल बिक गया था। पियारा से खेती क्या होती। वह एक पिसनहारी के साथ मिलकर घर की जाँत पर दिन-रात कनिक (आटा) पीसने लगी। बाज़ार के दिन वह धामी (टोकरी) में कनिक सजा माथे पर ले पिसनहारी के साथ कस्बे बेचने जाती। थोड़े ही दिनों में उनकी कनिक बाजार में मशहूर हो गयी। फिर धरमू के माथे भी वह कनिक ले जाने लगी। सत्तू चाट-चाटकर तीन बरस तक उसने गुजर किया। फिर एक दिन देखा गया कि उसके ओसारे में कुरुई और मउनी सज रही हैं। मालूम हुआ कि वह कनिक के साथ-साथ मर-मसाले की दुकान भी खोलने जा रही है।
कहते हैं, पियारा का तभी से दिमाग खुल गया। एक दिन वह था और एक दिन यह है। पियारा ने तीनदरा बनवा लिया, धरमू की शादी रचायी। अपने मीठे व्यवहार, परोपकारी स्वभाव और परिश्रम की कमाई की बदौलत उसने मोहल्ले और गाँव को जीत लिया। और सब की प्यारी ‘पियारा बुआ’ बन गयी। और भैया, मारकीन की धोती और भौहों के नीचे तक घूँघट में उसे आज देखो, तो क्या तुम कह सकोगे कि वह पचास पार करने को आयी? ऐसी मजबूत काठी और मेहनत की बनी तन्दुरुस्ती कि उसे देखकर मुश्किल-से-मुश्किल काम भी दहल जाय!
लेकिन भैया, जब से धरमू की शादी हुई है, रह-रहकर कभी-न-कभी बरतन बज ही उठते हैं। बेचारी पियारा लड़ाई-झगड़ा क्या जाने, वह नाक तक घूँघट खींचकर बस रोने लगती है। और उसकी रुलाई का दर्द किसी से सहा नहीं जाता। और तो और, पियारा की बछिया ऐसे डकारने लगती है कि जैसे उसकी गर्दन पर कोई कसाई छुरी फेर रहा हो। कभी-कभी डर लगता है, भैया, कि कहीं बछिया पगहा न तुड़ा ले। पियारा के देवर अब भी साल-छै महीने में खोज-खबर लेने आते हैं। कहीं कसाई धरमुआ और उसकी औरत के कारण पियारा मोहल्ला-गाँव छोडक़र अपनी ससुराल चली गयी तो ...
और कहनेवाले बूढ़े की कुचकुची आँखों से लोर ढरकने लगता है।
लेकिन सुननेवाला एक अजीब मुस्कान होंठों पर लाकर कहता है—बाबा! मोहल्ला-गाँव धरमुआ से कहीं बड़ा है, वह अपनी पियारा बुआ को कहीं भी नहीं जाने देगा! यह खूँटा कोई वैसा कमजोर नहीं!