फिर धरती पर सरगम गूँजे (बाल कहानी) : कर्मजीत सिंह गठवाला
Phir Dharti Par Sargam Goonje (Hindi Baal Kahani) : Karamjit Singh Gathwala
छोटी-सी लड़की सरगम अपने दादा जी के साथ बगीचे में टहलने निकली । सुबह-सुबह सूरज की हल्की किरणें बगीचे के फूलों पर झिलमिला रही थीं। ओस की बूँदें मोतियों की तरह चमक रही थीं। हवा में गुलाब और चमेली की महक थी, और पेड़ों पर बैठे पक्षी मधुर गीत गा रहे थे। कहीं कोयल की “कू-कू” गूँज रही थी, तो कहीं तोता अपनी तेज़ आवाज़ में बोल रहा था।
सरगम ने चारों ओर देखा — हरे पेड़ों की कतारें, नीला आसमान, फड़फड़ाती तितलियाँ, और तालाब में मस्ती करती बत्तखें। उसने अपने दोनों हाथ फैलाए और बोली —
“दादा जी, ये बगीचा तो जैसे एक जादुई दुनिया है! यहाँ सब गाते हैं, मुस्कुराते हैं।”
दादा जी मुस्कराए —
“हाँ बेटा, यह सच में जादुई है, क्योंकि यह प्रकृति की दुनिया है। यहाँ हर पत्ता, हर फूल, हर पक्षी अपनी भाषा में गाता है।”
सरगम कुछ सोचने लगी। थोड़ी देर बाद उसने पूछा —
“दादा जी, क्या ये सब — पशु, पक्षी, पेड़-पौधे — हमारे दोस्त हैं?”
“हाँ बेटी,” दादा जी बोले, “ये सब हमारे सबसे पुराने दोस्त हैं। पेड़ हमें साँस लेने की हवा देते हैं, फल और फूल देते हैं। पशु हमारा साथ निभाते हैं, हमारी खेती-बाड़ी में मदद करते हैं। और पक्षी — वे तो हमारे संगीतकार हैं, जो हमें हर सुबह जगाते हैं।”
सरगम ने तालाब में झांकते हुए कहा —
“तो फिर लोग इन दोस्तों को क्यों दुख देते हैं? पेड़ काटते हैं, नदियों को गंदा करते हैं, पक्षियों के घर तोड़ देते हैं। क्या हम अपने ही दोस्तों के दुश्मन बन गए हैं?”
दादा जी के चेहरे पर गहरी उदासी उतर आई।
“बेटा,” उन्होंने कहा, “इंसान ने तरक्की की दौड़ में बहुत कुछ हासिल किया, लेकिन अपने सच्चे साथी खो दिए। उसने मशीनें बना लीं, ऊँची इमारतें खड़ी कर लीं, पर पेड़ों की हरियाली और पक्षियों की चहचहाहट को पीछे छोड़ दिया। अगर इंसान समझ जाए कि प्रकृति उसके बिना रह सकती है, पर इंसान प्रकृति के बिना नहीं, तो वह कभी इसका अपमान नहीं करेगा।”
सरगम ने ज़मीन से कुछ सूखे पत्ते उठाए।
“दादा जी, अगर पेड़ बोल सकते, तो क्या कहते?”
दादा जी मुस्कुराए —
“पेड़ कहते — हमें मत काटो। हम तुम्हें साँस देते हैं, छाँव देते हैं, बरसात लाते हैं। जब तुम थकते हो, तो हमारी शाखाओं के नीचे बैठकर चैन पाते हो। अगर हम न हों, तो न हवा होगी, न जीवन।”
सरगम ने आसमान की ओर देखा, जहाँ एक तोता और मैना साथ उड़ रहे थे।
“और अगर पक्षी बोलते?”
दादा जी ने उत्तर दिया —
“वे कहते — हमें आज़ाद रहने दो। हमारे घोंसलों के पास ऊँची इमारतें मत बनाओ। हमारी आवाज़ें तुम्हारे लिए संगीत हैं, हमारी उड़ानें तुम्हें आज़ादी सिखाती हैं।”
इतने में पास से एक गाय गुज़री। उसके पीछे उसका छोटा-सा बछड़ा भी था।
“दादा जी, और पशु क्या कहते होंगे?”
दादा जी बोले —
“वे कहते — हमें प्यार से देखो। हम तुम्हारे साथी हैं। हम दूध देते हैं, खेतों में हल चलाते हैं, जंगलों की भूमि को समृद्ध रखते हैं। हमें भी जीवन चाहिए, सुरक्षा चाहिए, दया चाहिए।”
सरगम अब गहरी सोच में थी।
“दादा जी,” उसने धीरे से कहा, “क्या हम सबकी जीवन-लय बिगाड़ नहीं देते? पहले धरती पर सब मिलकर गाते होंगे — पेड़, पक्षी, पशु, और इंसान। अब तो जैसे वह संगीत टूट गया है।”
दादा जी ने सिर हिलाया।
“हाँ बेटा, जब इंसान स्वार्थ में अंधा हो जाता है, तब प्रकृति की वह मधुर लय टूट जाती है। जंगलों के पेड़ काटने से पक्षियों के घर उजड़ जाते हैं, नदियों को गंदा करने से मछलियाँ मर जाती हैं, और ज़मीन पर ज़हर डालने से मिट्टी की जान सूख जाती है; अगर इंसान अपने दिल में फिर से प्यार और संवेदना जगाए, तो यह लय फिर से लौट सकती है।”
सरगम की आँखों में चमक आ गई।
“दादा जी, मैं अब कभी ऐसा नहीं करूँगी। मैं हर दिन एक पेड़ को पानी दूँगी, पक्षियों के लिए दाने रखूँगी, और किसी जानवर को कभी तंग नहीं करूँगी। मैं चाहती हूँ कि हमारी धरती फिर से मुस्कुराए।”
दादा जी ने उसकी पीठ थपथपाई।
“शाबाश, मेरी बेटी! जब हर बच्चा ऐसा सोचेगा, तब इंसान और प्रकृति का रिश्ता फिर से मीठा हो जाएगा — जैसे संगीत में सुर और ताल। तब धरती पर फिर से ‘सरगम’ गूँजेगी — जीवन की सच्ची धुन।”
इतना कहते ही हवा में हल्की सरसराहट हुई। पत्ते झूमने लगे, पक्षियों ने अपनी चहक बढ़ा दी, और तालाब की लहरें सूरज की किरणों में नाचने लगीं। सरगम ने महसूस किया कि जैसे पूरा बगीचा उसकी बात सुन रहा हो।
उसने मुस्कुराकर हाथ जोड़े और कहा —
“धन्यवाद, मेरे प्यारे दोस्तो — पेड़ो, पक्षियो, और पशुओ! मैं वादा करती हूँ कि तुम्हारा ख्याल रखूँगी।”
दादा जी ने उसकी ओर देखा और बोले —
“यही तो असली शिक्षा है, बेटा — किताबों से नहीं, प्रकृति से मिलती है। जो उसकी भाषा समझ लेता है, वह सच्चा ज्ञानी बन जाता है।”
सूरज अब ऊँचा चढ़ आया था। सरगम और दादा जी बगीचे की पगडंडी पर लौट रहे थे। पीछे रह गई थी प्रकृति की वही सरगम —
पत्तों की सरसराहट, पक्षियों की चहचहाहट, हवा की मद्धम गूँज और एक छोटी बच्ची के दिल की मुस्कान —
जो कह रही थी:
“प्रकृति हमारी सच्ची मित्र माँ सी हमको भाये,
हम नवजीवन पाने को इसकी गोद में आये।
पेड़ लगाएँ, जीव बचाएँ, प्रेम-संदेश फैलाएँ,
फिर धरती पर सरगम गूँजे, जीवन-सुर जगाएँ।”
('परियाँ बनी तितलियाँ - कहानी संग्रह' में से)