फत्तु मिरासी : गुरबचन सिंह भुल्लर
Phattu Mirasi : Gurbachan Singh Bhullar
फत्तु मिरासी, उसकी घरवाली करीमा, उसके दोनों बेटे, यूसफ और हमीदा अचानक एक दिन पाकिस्तान से वापस गाँव में आ गए। सारे गाँव में बस इसी बात की चर्चा होने लगी। लोग फत्तु तथा उसके परिवार को देखने के लिए जुड़ने लगे। फत्तु भी गाँव में एक-एक घर में सभी से मिलने के लिए गया। जैसे अरसे से वह प्यासा था और इसीलिए सभी घरों में जाकर लोगों से गले मिलकर वह अपनी प्यास बुझाता फिर रहा था। वह एक घर से निकलता और बगल वाले घर का दरवाज़ा धकेल कहता, "चाची, माथा टेकता हूँ, सोहन सिंह भाई...सत् सिरी काल...दयाल कौर, यह गुड्डी है? मरजानी मेरे पीछे से कैसी जवान हो गई है।"
गाँव के पुराने मर्द-औरतों के पास वह कितने ही समय तक बैठा रहता, दुख-सुख की, घर-बाहर की, सगे-सम्बन्धियों की बातें पूछता-बताता रहता। लोगों से मिलते हुए अक्सर उसके अंदर से मोह-प्यार की ऐसी लहरें उठतीं कि उसका गला भर्रा जाता।
कई दिनों तक फत्तु गाँव की गलियों में घूमता रहा। करीमा भी गाँव में जाकर बड़ी उम्र की औरतों-बूढ़ियों से मिलती और दुख-सुख की बातें करती।
फत्तु सुखवन्त के गाँव का पुराना मिरासी था। उसका परिवार कई पुश्तों से उस गाँव में मिरासी का काम करता आया था। पाकिस्तान बनने से पहले सुखवन्त जब गाँव के स्कूल में ही पढ़ता था, फत्तु का लड़का यूसफ उसका सहपाठी था। बेशक यूसफ पिछड़ी जाति का था, लेकिन उन दोनों में बड़ी यारी थी। सुखवन्त कई बार उसके साथ उसके घर चला जाता था। जिस दिन यूसफ की सुन्नत हुई थी, उसने उनके घर में ढेर-सारी शक्कर खाई थी। यूसफ अपने ताऊ के लड़कों की भाँति अपने बाप को चाचा ही कहता था। फत्तु सुखवन्त के बापू से भी छोटा था, वह भी उसे चाचा कहकर ही सम्बोधित करता था।
1947 के आरम्भ होते ही, आस-पास बुरी बातें सुनने में आने लगीं। लेकिन लोगों को इन बातों पर यकीन नहीं आता था। यह कैसे हो सकता था भला? आखिर में दंगे-फसाद इस इलाके में भी आरम्भ हो गए।
फत्तु का लड़का बशीरा अपनी ननिहाल गया हुआ था और खबर आई कि वहाँ सभी मुसलमानों का सफाया कर दिया गया, अभी कुछ समय पहले ही ब्याही फत्तु की बेटी नियामत के ससुराल वाले गाँव में भी यही वारदात हुई थी। लेकिन किसी को किसी की खबर लेने की फुरसत ही कहाँ थी?
अफवाहें फैल रही थीं कि दो-चार दिनों में ही इस इलाके के दंगाई गाँव पर धावा बोलने वाले हैं। इस गाँव के कुछ बदमाशों ने अपने गंडासे अभी से तेज करने शुरू कर दिए थे। गाँव के रसूखदार तथा हमदर्द लोगों ने आपस में मशविरा किया कि गाँव के सभी मुसलमानों को अपनी देखरेख में फीरोजपुर से सीमा पार करवाया जाए। बाद में मालूम हुआ, बशीरे के सिर पर पड़ा गंडासा उसकी नाक तक अंदर धंस गया था। नियामत के परिवार वालों को मार-काटकर बदमाश उसे उठा ले गए थे।
उधर से फत्तु तथा गाँव के अन्य मसलमानों की चिट्ठियाँ गाँव में आने लगीं। जल्दी-जल्दी में वे जो भी सामान घरों से लेकर भागे थे, सीमा पार करते ही वह उनसे छीन लिया गया था और 'मोमनों की धरती' पर वह खाली हाथ ही पहुंचे थे।
फत्तु की कई चिट्ठियाँ सुखवन्त के बापू सेवा सिंह को मिली थीं। रस्मी हालचाल के अलावा उनमें बस एक ही बात पूछी जाती-बशीरे तथा नियामत के पते-ठिकाने के बारे में।
जब भी उसे पीछे छूट गए जवान बेटे तथा बेटी का ध्यान आता तो उसके सीने से एक आह निकलती। यह रुदन उसकी हर चिट्ठी से छलकता प्रतीत होता था। उसने हिन्दुस्तान में पीछे रह गए लोगों को वापस लाने वाली पाकिस्तानी पुलिस के पास जाकर कई बार नाक रगड़ी थी कि वह भी उसे अपने साथ ले जाए, ताकि वह अपने जिगर के टुकड़ों को स्वयं ढूँढ़ सके। लेकिन उसे हर बार यही जवाब मिलता कि वह उधर से यह खबर मंगवा दे कि उसके बेटी-बेटा कहाँ हैं। वे वहाँ से उन्हें निकलवा कर अपने साथ ले आएंगे। वह इसीलिए बार-बार सेवा सिंह के आगे विनती करता था कि वह बस एक बार उसके बच्चों के पते-ठिकाने के बारे में पता करके बता दे...
लेकिन सेवा सिंह का हौसला नहीं हुआ कि वह उसे एक बार भी सच लिख भेजे। उसने जवाब में यही लिख भेजा था कि उन दोनों के गाँवों में कुछ मुसलमान मारे गए थे और बाकी बचे हुए कहीं भाग गए थे। बशीरे तथा लड़की के बारे में कुछ मालूम नहीं हो सका कि उनका क्या हुआ...
फिर उसकी चिट्ठियाँ आनी बंद हो गईं।
आसमान पर चढ़ी आंधी थम गई थी। लोग अपने किए पर पछताने लगे थे। फत्तु मिरासी जैसे बंदों को लोग अक्सर याद करने लगे। सुखवन्त भी अपने मित्र यूसफ को भूल नहीं सका था। वर्ष बीतते गए और बँटवारे से पहले की बातें, उसके बाद की बातें, लोगों की यादों से मिटने लगीं।
सुखवन्त जब भी फत्तु के घर के आगे से गुजरता तो जैसे उसके पैर रुक जाते। उनका घर अभी तक किसी को अलाट नहीं किया गया था। इस गाँव के सारे मुसलमानों के घर तथा जमीनें पाकिस्तान से आए लोगों को अलाट हो गई थीं, लेकिन ऐसे गाँवों में न कोई 'पाकिस्तानी' आया और न मुसलमानों के इन घरों का कुछ बना। ऐसे घर या तो निकट पड़ोसियों ने ले लिए या सुनसान पड़े-पड़े गिर गए थे तथा लोगों ने वहाँ कूड़ा-करकट डालना आरम्भ कर दिया था। फत्तु के घर की ईंटें-पत्थर धीरे-धीरे इधर-उधर हो गए और अब वहाँ खुला मैदान सा बन गया था, जहाँ आमतौर पर पशु बैठकर जुगाली करते रहते।
जब फत्तु मिरासी अपने परिवार के साथ वापस गाँव आया तो घर की बजाए खुला मैदान देखकर एक बार तो वह मायूस हो गया, लेकिन लोगों ने उसे हौसला दिया। अब जब वह यहाँ रहने आ ही गया था तो फिक्र करने की कोई बात नहीं थी। सभी उसके साथ थे और हर संभव सहायता तथा रुपए-पैसे से मदद करने के लिए तैयार थे।
कहीं से कच्ची ईंटें, कहीं से पक्के रोड़े, कहीं से शहतीर, कड़ियाँ इकट्ठी कर, फत्तु मिरासी ने दो कोठरियाँ डाल बाहर से दीवार निकाल ली। कई दिनों तक वह प्रत्येक घर से खाने की तथा अन्य जरूरत की चीजें लाता रहा।
कोठरियाँ बनाने से फुरसत पा उसने नई जगह पर तब्दील होकर आए किसी कर्मचारी की तरह अपनी पोजीशन सँभाल ली। गाँव में कोई भी विवाह होता या मौत, वह अल्लाखैर कह भीतर आँगन में जा बैठता। उससे जो भी काम कहा जाता, वह भाग-भाग कर करता। उसे जहाँ से भी किसी व्यक्ति को संदेशा देने या बुलाने के लिए कहा जाता, वह भागदौड़ कर काम पूरा करता।
उसका छोटा लड़का हमीदा, जिसने पाकिस्तान में नाई का काम सीख लिया था, शहर में एक हज्जाम के पास नौकरी करने लगा था। उसका बड़ा बेटा यूसफ ब्याह-शादी की खुशखबरी या गमी की खबरें देने लोगों की रिश्तेदारियों में उनके गाँवों में जाने लगा था।
फसल पकने के लिए तैयार थी। अब तक फत्तु ने कुछ पैसे स्वयं जोड़ लिए थे और कुछ रकम उसने घरों से इकट्ठी कर ली और एक टट्टू तथा एक टायर खरीद लिए। फसलें काटते हुए किसानों से उसने अनाज माँगा तथा भूसे से अपना गुजर-बसर कर लिया और वह पहले की तरह ही खुशी के दिन गुजारने लगा।
बेशक फत्तु अब पूर्णरूप से संतुष्ट था, जैसे कोई देश निकाला भोगकर वापस आया व्यक्ति हो सकता है, लेकिन बशीरे तथा नियामत की याद उसके सीने में नासूर बनी अभी तक टीसती थी। कई बार वह घर के आँगन की दीवार से टेक लगाकर बैठ जाता और हुक्के की नली मुँह में ले आँखें मूंद लेता। उसे लगता जैसे बशीरा तथा नियामत आँगन में खेल रहे हों, गली में दौड़ रहे हों। जैसे बशीरा बस्ता उठाकर स्कूल जा रहा हो और नियामत, करीमा के साथ काम में हाथ बंटा रही हो। फिर उसे वे दहशत भरे दिन याद आने लगते।
उसके बाद उससे कुछ सोचा न जाता। हुक्के की नाल उसके होठों से बाहर निकल जाती और दो धाराएँ उसकी आँखों से बह उसकी दाढ़ी में समाने लगतीं। वह मन को दिलासा देता तथा कुरते से आँखें पोंछ संभल जाता और काम-धंधों में स्वयं को खपा जैसे वह सब कुछ भूल जाने का यत्न करता रहता।
एक दिन मंडी में जाते सुखवन्त को रास्ते में फत्तु मिल गया और उसने उसके ताऊ के बेटे के ब्याह की तारीख पूछी। सात दिन बाद बताने पर उसने कहा, "अच्छी बात है, तब तक मैं बरगद वाली ढाब खुदवा लूंगा। ऐसे लगता है जैसे मेरे बाद नगर वाले ढाब खोदना ही भूल गए हों। बारिश होगी, खुदे हुए गड्ढे में भैंसें आराम से तो बैठेंगी। साथ ही ढाब किनारे के सारे पीपल-बरगद के आस-पास से मिट्टी निकल जाने से उनकी जड़ें नंगी हो गई हैं।"
पाकिस्तान बनने से पहले हर साल फत्तु यत्न करता और बरगद के पास वाली ढाब को खोदा जाता। उसका ढोल गूंजता, और जोर से गूंजता...कुदालें और भी गहरी, और भी गहरी धंसती जातीं। ढाब के चारों ओर खड़े वृक्षों के नीचे चबूतरे बन जाते। इतने वर्षों में एक-दो बार ढाब की मिट्टी तो निकाली गई, लेकिन न के बराबर।
सुखवन्त ने कहा, "चाचा, तुम्हारे बिना यदि ढाब को खोदा भी गया, तो वह भी न के बराबर। तुम ही हिम्मत करो, ताकि कोई बात बने।"
और फिर फत्तु ने ढाब खोदे जाने का ऐलान कर दिया। अगले ही दिन लोग कुदालें लेकर जुट गए। फत्तु ढोल बजाते हुए कभी ढाब खोदते लोगों को जोश दिलाता और कभी गाँव में चक्कर लगाकर अन्य लोगों को घरों से निकालता तथा बूढ़ियों से गुड़-चाय तथा दूध भेजने के लिए कहता।
कल से वह सुखवन्त के ताऊ के शादी वाले घर में लटू समान घूमता फिर रहा था। इस शादी में लिखा-पढ़ी का, हिसाब-किताब का सारा काम सुखवन्त के जिम्मे था। कल चारपाइयाँ-बिस्तरे इकट्ठे किए गए थे। फत्तु दो कामगारों को साथ ले सात-आठ घरों से पूछ कर आता और वापस आकर एक-एक चारपाई-बिस्तरे पर सुखवन्त से उसके मालिक के नाम की पर्ची ले लगा देता। आज रात भोजन तथा शगुन आदि देने-लेने की बारी थी। सुखवन्त ने ताऊ से मिलकर उन सभी घरों की सूची बना ली, जिनके साथ उनका देना-लेना चलता रहता था।
फत्तु ने सुखवन्त से कहा कि वह उसे एक दिशा के पंद्रह-बीस घरों के बारे में बता दे। इधर का काम खत्म कर, वह दूसरी दिशा में घरों के बारे में पूछकर वहाँ चला जायेगा।
सुखवन्त ने फत्तु को एक दिशा में अठारह घरों के बारे में बता दिया। उसने एक ही बार में उन सभी घरों का नक्शा अपने दिमाग में बना लिया। फिर अपनी तरतीब अनुसार उसने सभी अठारह घर सुखवन्त को एकदम गिना दिए-चार घर ठेकेदारों के, तीन घर सरपंच के, तीन घर नंगे-पैर वालों के, दो घर चिड़ीमारों के, सुरजन का, गोधे का, मक्खन सिंह का, दरबार सिंह का, दयाले का, और सुरते का। फिर बाएँ कंधे पर अपना गमछा ठीक कर नीम के साथ लगी अपनी लाठी उठाकर तेजी से चला गया।
सुखवन्त फत्तु के और मिरासी जात की बढ़िया याददाश्त के बारे में सोचता नीम, से टेक लगाकर बैठ गया।
पाकिस्तान बनने से पहले खुशी-गमी के सभी मौकों पर संदेशा पहुँचाने मिरासी लोग ही जाते थे। बस उन्हें एक बार बात बता दो, घरों के बारे में समझा दो, बंदों के बारे में बता दो, क्या मजाल जो उनसे कभी कोई गलती हो जाए। ना अपने काम से टलना, न थकना और न खीझना।
कुछ दिन पहले जब सुखवन्त गुरुद्वारे अखबार पढ़ने गया था, तो वहाँ के भाई जी (पुजारी) भी फत्तु से कह रहे थे, "मरदाने-जैसे तेरे बगैर हमने बहुत मश्किल से दिन काटे। अपने गाँव के तो कीर्तन करने वाले सिंहों को ही एकत्रित करना किसी योद्धा का ही काम है। तुम्हारे बाद चौकीदार से कहते थे, उसे तो जैसे साँप सूंघ जाता था। हर बार यही कहा करता भाईजी, एक कीर्तन करने वाला सिंह गाँव के एक सिरे, दूसरा दूसरे ही सिरे, तीसरा कहीं और...मेरे तो घुटनों में दर्द होने लगता है।"
बँटवारे से पहले फत्तु, जिसके घर में 'आसा की वार' का कीर्तन होता वह सुबह मुर्गों की पहली बाँग के साथ उठ जाता। वह सारे कीर्तन करने वालों को घर-घर से जाकर लाता और फिर बाजा बजाने वाले नेत्रहीन नंद सिंह को हाथ से पकड़ कर स्वयं उसके घर तक पहुँचा कर आता।
फत्तु उन अठारह घरों में न्यौता देकर लौटा, देखा रास्ते में पड़ते सत्ते नाई के दरवाजे में अपने मायके मिलने आई उसकी बहन हरकौर बैठी थी। बाकी परिवार अंदर था। राजी-खुशी पूछकर फत्तु हरकौर की चारपाई के पास नीचे जमीन पर ही बैठ गया। वह बीते समय की उस राख को टटोलने लगे, जो कभी भभकती आग की लपटों जैसी उठी थी और बीते समय की चोटों के साथ, अब बुझी राख जैसी हो गई थी। उठते समय, फत्तु अपनी कमीज की बाँह ऊपर की ओर लपेटते हुए बोला, "अब तो हरकुर, चाँदी भी झलकने लगी है। एक बार इधर सभी कुछ छोड़ा, दूसरी बार उधर सभी कुछ छोड़ा, लेकिन गुरुसर के मेले से लाया तुम्हारा चाँदी का ताबीज अभी भी मेरे कंधे से बंधा हुआ है।"
इसके बाद उससे कोई और बात करना उसे सूझा नहीं। वह वहाँ से उठ तेज-तेज कदमों से सुखवन्त के घर की ओर चल दिया।
अल्ला-खैर कह फत्तु सुखवन्त के सामने जा खड़ा हुआ, "लो बेटा, उन सभी घरों में मैं न्यौता दे आया हूँ। कापी खोल-खोलकर मिलान कर लो, कहीं किसी और से तो नहीं कह आया मैं" और उसने फटाफट सभी घर गिनवाने शुरू कर दिए, “चार घर दफेदारों के, तीन घर सरपंचों के..."
"बस, बस ठीक है चाचा। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि तुमने किसी और के घर में कह दिया हो।" सुखवन्त ने कहा,"चाय बन रही है चाचा, पीकर जाना। बैठ जा।"
फत्तु उसके सामने ही धरती पर बैठ गया। सुखवन्त फत्तु से बातें करना चाहता था। जब से फत्तु पाकिस्तान से वापस आया था, उसने एक-दो बार यूसफ से बातें की थीं, लेकिन एक सवाल उसके मन में अटका हुआ था। यूसफ से उसे इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला था। सभी फत्तु के पीछे-पीछे ही रहते थे। जैसे वह कहता, वही करते।
यूसफ ने बताया था कि कुछ समय भटकने के बाद पाकिस्तान में सिर ढांपने जैसा घर मिल भी गया था, जिसमें अभी भी थोड़ा-बहुत सामान पड़ा था। उन्होंने अपनी हिम्मत से कमाई कर भरपेट रोटी खानी भी शुरू कर दी थी। फिर यह कैसे हुआ कि फत्तु इतने वर्षों के बाद इधर लौट आया, हमेशा के लिए?
फत्तु से बातें करते-करते उसने यह सवाल उससे पूछ ही लिया, “चाचा, सुना है कि तुमने वहाँ पर अपना काम जमा ही लिया था, फिर अचानक यहाँ कैसे आने की सूझी?"
"बेटा अपने आदमी अपने ही होते हैं।" उसने सीधा उसकी आँखों में देखकर जवाब दिया।
"चाचा ये पुरानी बातें याद कर के दुखी न हो, लेकिन जिन्होंने तुम्हारे बशीरा को मार डाला, तुम्हारी नियामत को मालूम नहीं कहाँ खपा दिया, तुम्हारे अपने आदमी कैसे हुए?" सुखवन्त उसके साथ बीते हादसों को याद कर भावुक हो गया।
फत्तु एकदम उदास हो गया। उसकी आँखें बहने लगीं। वह पैरों पर ही बैठा न रह सका और चौकड़ लगाकर बैठ गया। दो मिनट वह चुपचाप बैठा मिट्टी से खेलता रहा, जसे वह गले में अटक गई किसी शै को नीचे उतार रहा हो या इस मिट्टी में खो चुके बशीरे तथा नियामत के नक्श ढूँढ़ रहा हो। फिर कंधे पर रखे गमछे से आँखें पोंछ स्वयं को सँभालते हुए बोला, 'वह तो बेटा, एक आंधी थी, काली अंधेरी आंधी। सभी की मति मारी गई थी। किसी का क्या दोष। वह तो अल्ला का ही कोई कहर था। आंधी आई और चली गई, अब उसे याद करने से फायदा भी क्या?"
इस जवाब से सुखवन्त की तसल्ली न हुई, "नहीं चाचा, तुम बेशक न मानो, पाकिस्तान में तुम जरूर दिक्कतें झेल रहे होगे। सुना है, वहाँ के लोगों की हालत इधर से भी बदतर है।"
"हाल-चाल तो बेटा, सभी का ऐसा ही है। दिन गुजर ही रहे थे," उसने तिनके से लगी मिट्टी पर अंगुलियों फेरते हुए कहा।
"लेकिन फिर तुम्हें क्या आफत पड़ी थी। एक बार तो यहाँ का बसा-बसाया घर दंगाइयों के डर से छोड़ पाकिस्तान भागना पड़ा। अब दूसरी बार पाकिस्तान में अपना घर-घाट छोड़ यहाँ आ गए?"
सिर झुका फत्तु चुप हो गया। सुखवन्त उसकी ओर ताकता रहा, लेकिन कुछ बोला नहीं। बाद में फत्तु ने उसकी आँखों में अपनी तेज जलती हुई आँखें डाल कहा, "बेटा वह घर-घाट मेरा नहीं था। हिन्दुस्तानियों ने हमें यहाँ रहने नहीं दिया, पाकिस्तान में हमें कोई अपना समझता नहीं था। हम तो 'मुहाजिर' थे, रिफ्यूजी बेचारे।"
फिर उसने अपने सामने से मिट्टी को मुट्ठी में भर आँखें मूंद माथे से लगाया, "बेटा, सच पूछो, मुझे इसके वियोग ने मारा। वहाँ यह नहीं थी।"