पेमी के बच्चे : सन्त सिंह सेंखों

Pemi Ke Bachche : Sant Singh Sekhon

बीसेक साल पहले की बात है। मैं सात बरस का था और मेरी बड़ी बहन ग्यारह साल की। हमारा खेत घर से कोई मील भर की दूरी पर था। बीचोंबीच एक बड़ी सड़क गुज़रती थी जिस पर पठानों, कबाइलियों और परदेसियों का आना-जाना बहुत लगा रहता था। हम सब बच्चे जिन्हें कबाइलियों, पठानों से घर बैठे भी डर लगता था, इस सड़क पर किसी सयाने व्यक्ति के बग़ैर आते-जाते बहुत भय खाते थे। पर मुसीबत यह थी कि दिन में एक-दो बार हमें खेत पर बापू के साथ-साथ खेत-मजूरों की रोटी पहुँचाने के लिए अवश्य जाना पड़ता था और हर रोज़ हमारी दशा एक दुर्गम घाटी में से गुज़रने जैसी होती थी।

आमतौर पर हम घर से तो हिम्मत करके अकेले ही चल पड़ते थे, परन्तु जब सड़क दो तीन फर्लांग की दूरी पर रह जाती तो रजबहे को पार करते समय रुक जाने वाले मेमनों की तरह खड़े होकर इधर-उधर देखने लगते ताकि गाँव आने-जाने वाले किसी सयाने व्यक्ति की शरण लेकर हम इस भय-सागर को पार करने में सफल हो जाएँ।

हमें धार्मिक शिक्षा भी कुछ इस प्रकार की मिल रही थी कि ऐसे भय हमारे स्वभाव का हिस्सा बन गए थे। प्रतिदिन संध्या के समय हम घर पर बड़ों से स्वर्ग-नरक की कहानियाँ सुना करते। स्वर्ग तो हमें खेल के अलावा और कहीं कम ही प्राप्त होता, पर हर स्थान पर नरक अनगिनत मिलते। सबसे बड़ा नरक मदरसा था और अगर उससे किसी दिन छूट जाते तो खेत पर रोटी देने जाने का नरक सामने आ जाता। गरज यह कि हमारे अनजाने रास्ते के हर मोड़ पर नरक घात लगाए खड़ा होता। शायद, इस सड़क का भय-सागर लांघने के कारण हमें खेत की ओर जाना नरक लगता था या खेत पर रोटी ले जाते समय इस नरक को पार करना पड़ता था इसलिए यह हमें भय-सागर दिखाई देता था, मैं इस संबंध में यकीन से कुछ नहीं कह सकता। यह मुझे पता है कि खेत स्वर्ग था और रोटी ले जाने की परेशानी नरक और वह बड़ी सड़क - बीच में पड़ने वाला भय-सागर !

जाड़ों के दिन थे। हम दोनों बहन-भाई दोपहर को रोटी लेकर खेत की ओर चल पड़े। सुहानी धूप थी और हम चलते हुए भी मानो जाड़े की धूप में नींद की गरमाई ले रहे थे। लेकिन, दिल में सड़क पार करने का डर चूहे की तरह हमें कुतर रहा था।

हमने अपने भय को दबाने का एक आम तरीका प्रयोग में लाना चाहा। बहन मुझे एक कहानी सुनाने लगी, ''एक राजा था। उसकी रानी मर गई। मरते समय रानी ने राजा से कहा, तुम मुझे एक वचन दो। राजा ने पूछा - क्या ?''
मैंने कहानी की ओर से ध्यान हटा कर पीछे गाँव की ओर देखा कि कहीं कोई आदमी हमारे रास्ते से ही जाने वाला तो नहीं आ रहा।
''तू सुन नहीं रहा, भाई,'' बहन ने मेरे कंधे को हिला कर कहा।
''नहीं, मैं सुन रहा हूँ।'' मैंने भाइयों वाली गुस्ताखी के साथ जवाब दिया।
''अच्छा, जब वह रानी मरने लगी तो उसने राजा को बुला कर कहा - तुम मुझसे इकरार करो। राजा ने पूछा - क्या ? रानी ने कहा - तुम दूसरा ब्याह मत करना। सच, मैं बताना भूल गई, रानी के दो बेटे और एक लड़की थी।''

हमें राजा और रानी माता-पिता जैसे ही लगते थे। अगर हमारी माँ मरने लगे और हमारे पिता को यही वचन देने के लिए कहे, यह ख़याल हमारे अवचेतन में काम कर रहा होगा। मुझे वह लड़की अपनी बहन लगी और उसका बेटा, मैं स्वयं।
मेरी बहन गाँव की ओर देख रही थी। ''सुना भी आगे...'' मैंने उसे पहले की तरह ही सख्त लहजे में कहा।
''रानी ने कहा - मेरे बेटों और बेटी को सौतेली माँ दु:ख देगी।'' बहन ने बहुत मीठे ढंग से एक औरत की तरह कहा, ''इसलिए उसने राजा से यह वचन मांगा। राजा ने कहा- अच्छा, मैं वचन देता हूँ।''
जैसे राजा यह इकरार न करता तो रानी मरने से इन्कार कर देती।
भले ही हम दोनों को पता था कि दिन में कहानियाँ सुनाने से राही राह भूल जाते हैं, हमने एक दूसरे को यह बात स्मरण नहीं कराई और इस जानकारी का अपने दिल और दिमाग पर असर नहीं होने दिया।
''पर, राजा ने जल्दी ही दूसरा विवाह कर लिया।''
''हूँ।''

पिछले मोड़ पर हमें एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। हमने चैन का साँस लिया और उसे अपने साथ मिलाने के लिए रुक कर खड़े हो गए। हमारी कहानी भी रुक गई। लेकिन वह आदमी किसी दूसरी ओर जा रहा था, हमारी तरफ नहीं आया।

जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमने इस कहानी का पाखंड रचा था, वह पूरा नहीं हो सका। हमारा विचार था कि कहानी में खो कर हम अनायास ही सड़क के पार हो जाएँगे। पर अब जब सड़क कोई एक फर्लांग दूर रह गई तो हमारी कहानी भी ठिठक कर खड़ी हो गई और किसी सयाने साथी के आ मिलने की आशा भी टूट गई। हम दोनों सहमकर खड़े हो गए।
दस बीस कदम और चले तो हमारा डर और बढ़ गया। सड़क पर एक तरफ काले सूफ की बास्कट और पठानों जैसी ढीली-खुली सलवार पहने एक आदमी लेटा था।
''वह देख, पठान लेटा हुआ है।'' मैंने कहा।
उस आदमी ने करवट बदली।
''वह तो हिल रहा है, लगता है, जाग रहा है।'' मेरी बहन ने सहमकर कहा, ''अब क्या करें ?''
''यह हमें पकड़ लेगा ?''
''और क्या।'' उसने जवाब दिया।

हम रात को घर से बाहर तो कम ही निकलते थे, पर हमने यह सुना हुआ था कि अगर डर लगे तो वाहेगुरू का नाम लेना चाहिए। ऐसा करने से डर दूर हो जाता है। हमारी माँ हमें हमारे मामा की बात सुनाया करती थी। एक बार हमारे मामा और एक ब्राह्मण कहीं रात में किसी गाँव के श्मसान के पास से गुज़र रहे थे कि उनके पैरों पर बड़े-बड़े दहकते हुए अंगारे गिरने लगे। ब्राह्मण ने हमारे मामा से पूछा, ''क्या करें ?'' उन्होंने कहा, ''पंडित जी! वाहेगुरू का नाम लो।'' हमारा मामा वाहेगुरू-वाहेगुरू करने लगा और पंडित राम-राम। अंगारे गिरते तो रहे, पर उनसे दूर। हमें इस बात की वजह से अपने मामा पर बड़ा गर्व था।
''हम भी वाहेगुरू करें।''
''वाहेगुरू से तो भूत-प्रेत ही डरते हैं, आदमी नहीं डरते।'' मेरी बहन ने कहा।
मैं मान गया। सड़क के किनारे लेटा हुआ पठान तो आदमी था, वह रब से क्यों डरेगा भला ?
''तो अब फिर क्या करें ?''

हम पाँच-सात मिनट तक भयभीत-से खड़े रहे। अभी भी हमारे दिलों को यह आस थी कि कोई आदमी इस पठान को डराने के लिए हमारे संग आ मिलेगा। पर, हमें यह आशा पूरी होती दिखाई न दी।

हम एक-दूजे के चेहरे देखते रहे। लेकिन, ऐसे समय में हम उस वक्त एक-दूसरे के चेहरों में क्या ढूँढ़ रहे थे ? कुछ देर बाद मेरा रोना निकल गया।
मेरी बहन ने दुपट्टे के एक छोर से मेरे आँसू पोंछते हुए कहा, ''न भाई, रोता क्यूँ है ? हम यहीं खड़े रहते हैं। अभी गाँव से कोई न कोई आ जाएगा।''
हमने कुछ कदम आगे बढ़ाये, फिर खड़े हो गए और फिर वैसे ही पाँच कदम पीछे लौट आए।
आख़िर, मेरी बहन ने कुछ सोचकर कहा, ''हम कहेंगे, हम तो पेमी के बच्चे हैं, हमें न पकड़।''
उसके मुँह से 'पेमी' शब्द बहुत मीठा निकला करता था और अब जब वह मेरी ओर झुक कर मुझे और अपने आप को दिलासा दे रही थी, वह स्वयं पेमी बनी हुई थी।
मेरे दिल को ढाढ़स मिली। पठान को जब पता चलेगा कि हम पेमी के बच्चे हैं तो वह हमें कुछ नहीं करेगा, पकड़ेगा भी नहीं।
जैसे धकधक करता हुआ हृदय और काँपते हुए पैर 'वाहेगुरू-वाहेगुरू' करते हुए श्मसान भूमि में से गुज़र जाते हैं, जैसे हिंदू गऊ की पूँछ पकड़कर भव-सागर तर जाता है, हम दोनों पेमी का नाम लेकर सड़क पार कर गए। पठान उसी तरह वहीं पड़ा रहा।

(अनुवाद : सुभाष नीरव)