पहला आदमी (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू

Pehla Aadmi (French Novel in Hindi) : Albert Camus

पहला आदमी कामू का अंतिम उपन्यास है। यह एक प्रकार से उनकी आत्मकथात्मक कृति है। दुनियाँ की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित इस उपन्यास को फ्रेंच से सीधे हिन्दी में भाषांतर किया है डॉ. शरद चन्द्रा ने।
1960 में हुई एक कार-दुर्घटना में जब कामू की मृत्यु हुई तो उनके हाथ में थमे ब्रीफकेस में इस उपन्यास की पांडुलिपि थी; काफी कुछ अधूरी और असंशोधित।

कामू की पत्नी ने इसे प्रकाशित नहीं होने दिया था। कई वर्ष बाद 1993 में अपनी माँ के निधन के बाद कामू की पुत्री कैथरीन ने पहला आदमी बिना किसी संशोधन के प्रकाशित करने का निर्णय लिया। चूँकि लिखने के दौरान कामू द्वारा पांडुलिपि पर अंकित टिप्पणियाँ और परिवर्तन के लिए स्वयं को दी गई हिदायतें भी प्रकाशित की गईं इसलिए यह उपन्यास कामू के शोधार्थियों के लिए अमूल्य दस्तावेज और विश्व साहित्य की एक महत्वपूर्ण घटना साबित हुआ। पहला आदमी ने कामू के उन आलाचकों को भी शांत कर दिया। जो कहते थे कि प्लेग के बाद कामू की सर्जनात्मक क्षमता चुक गई थी। पहला आदमी में अपने पिता की खोज करता हुआ चालीस वर्षीय नायक जाक कारमॅरी अपने अतीत पर एक गहरी निगाह डालता है और अपनी अभाव से भरी ज़िन्दगी में भी जीवित रहने की गहरी इच्छा का परिचय देता है। कामू इस कृति में आत्मकथा के जरिए गरीबी का सामाजिक इतिहास रचते चले जाते हैं।

उपन्यास दो भागों में विभक्त हैः ‘पिता की खोज’, और ‘पुत्र’। वह पिता जिसकी खोज नायक कर रहा है, कामू के पिता की तरह ही पहले विश्वयुद्ध में मारा जा चुका है। कारमॅरी की माँ का अनपढ़, बहरा, मितभाषी होना और चुपचाप यातनाएँ झेलते रहना पिता की खोज में उसी तरह बाधा डालता है जैसे कामू की माँ के स्वभाव ने उसके वास्तविक जीवन में बाधा डाली थी।

नायक अपने पिता की समाधि पर उनके बारे में कुछ जानने की इच्छा से पहुँचता है लेकिन सिवाय इसके कुछ पता नहीं लगा पाता कि उन्होंने 29 वर्ष की उम्र में उस देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिए थे जिसे वे जानते तक न थे। बेहद निराश वह उन्हें कभी अपने स्कूल मास्टर में ढूँढ़ता है तो कभी विश्वविद्यालय में अपने दर्शन के प्राध्यपक में।
इस उपन्यास का शीर्षक पहला आदमी चर्चा का विषय है। कौन है पहला आदमी-पिता, पुत्र या वह अल्जीरिया-निवासी, फ्रांसीसी या अरब कोई भी।–वह निर्धन आदमी जिसकी मृत्यु के साथ उसका नाम-निशान तक मिट जाता है, कुछ शेष नहीं रहता ? यह उपन्यास आपको भी यह उत्तर ढूँढ़ने के लिए प्रेरित करेगा।

निवेदन

चार जनवरी उन्नीस सौ साठ की दोपहर को जब एक कार दुर्घटना में कामू की आकस्मिक मृत्यु हुई, उनके निश्चेष्ट हाथों में एक ब्रीफकेस जकड़ा हुआ पाया गया। इस हतभाग्य बैग में कागजों का वही पुलिंदा बंद था जो 1994 में उनकी पुत्री ने पहला आदमी शीर्षक से प्रकाशित किया और जिसने छपते ही समूचे विश्व के साहित्य जगत् में एक अभूतपूर्व हलचल मचा दी। यूँ तो उनके जीवन काल में 1941 में प्रकाशित ल एथोंजेर् (अजनबी) ने भी कोई कम तवज्जो हासिल नहीं की थी, लेकिन पहले आदमी द्वारा उत्तेजित साहित्यिक ‘हड़कंप’ बीसवीं शती का ही नहीं, संसार भर के साहित्य में समय-समय पर उभरते कौतूहलों में से छँटी हुई अत्यंत असाधारण घटनाओं में से एक रहा। आज तीन साल बाद भी इस रचना के प्रति साहित्य-प्रेमियों का आकर्षण कम नहीं हुआ है।

जैसा कि सामान्यत: कहा जाता रहा है, पहला आदमी कामू का आखिरी असमापित उपन्यास नहीं है, बल्कि कदाचित् कुछ प्रारंभिक परिच्छेदों का पहला प्रारूप मात्र है-उस कृति की पहली रूपरेखा जिसे सदैव वे अपने सृजनात्मक सामर्थ्य की आनेवाली पराकाष्ठा घोषित करते रहे। कामू अपनी रचनाओं को प्रकाशक को सौंपने से पहले बार-बार पढ़ने, काट-छाँट करने, संशोधन, परिष्करण करने के आदी थे। इसी कारण उनकी पत्नी ने अपने जीवन काल में इस सर्वथा अपरिष्कृत प्रति को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी थी। 1979 में उनके निधन के बाद पुत्री कैथरीन ने बहुत सोच-विचार, और कामू के मित्रों से सलाह-मशविरा करने के बाद, इसे नष्ट करने या सदैव के लिए अँधेरी कोठरी में बंद करने रख देने के विपरीत, एक महान लेखक के कार्य पर उसके पाठकों के आने वाली पीढ़ियों के अधिकार का सम्मान करते हुए, ज्यों का त्यों पाठकों के सामने रखना ही उचित समझा।

इसके अतिरिक्त इस पुस्तक का प्रकाशित होना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि यह उन लोगों के दावे का जोरदार खंडन करती है जो कामू के जीवनकाल में ही 1950 के बाद से यह प्रचार करने लगे थे कि कामू की सृजनशक्ति प्लेग के साथ ही चुक गई थी। यह पुस्तक, एक बार फिर, इस बात को पुष्ट करती है कि कामू की कलात्मक क्षमता आखिरी दम तक समृद्ध रही। दूसरे इसमें दिए हुए विवरण पाठकों को उन परिस्थितियों के ज़्यादा निकट लाते हैं जिनमें पल कर कामू बड़े हुए। यह बात नहीं है कि उन्होंने अपने अत्यंत निर्धन परिवार के बारे में कुछ छिपाने की कोशिश की थी। नहीं। सिर्फ इतना था कि वे अपनी रचनाओं में से उन अंशों को निकाल दिया करते थे जो बहुत व्यक्तिगत होते थे और जो उस कृति में कोई सृजनात्मक भूमिका नहीं निभा रहे होते थे। अभाग्यवश इस पुस्तक पर यह काम नहीं हो सका। कामू की नामौजूदगी में उनकी पुत्री का इस कृति को बिना किसी संशोधन या परिवर्तन के प्रकाशित करने का निर्णय, उनकी स्मृति, उनका साहित्यिक मूल्यांकन और सर्वोपरि उनके प्रशंसक पाठकों के प्रति कितना न्यायसंगत था, यह इस पुस्तक को इतनी गर्मजोशी से मिले स्वागत से स्पष्ट हो गया है।

इसमें कोई संदेह नही है कि जिस भी रूप में यह हमारे सामने है पहला आदमी कामू का आत्म-गाथात्मक उपन्यास है। इसका प्रमुख पात्र जाक कारमॅरी कामू के जीवन पर आधारित है। यह उपन्यास दो भागों में विभक्त है: ‘‘पिता की खोज,’’ और पुत्र’’। दोनों में से एक भी पूरे नहीं है। वह पिता जिसकी खोज नायक कर रहा है पहले विश्व युद्ध में मारा जा चुका है, ठीक उसी तरह जैसे कामू के अपने पिता मारे गए थे। कारमॅरी की माँ का अनपढ़ बहरा, मितभाषी होना और चुपचाप यातनाएँ झेलते रहना उसकी पिता की खोज में उसी तरह बाधा डालता है जैसे कामू की माँ का वैसा ही स्वभाव उसके वास्तविक जीवन में उसकी अपनी खोज में डालता रहा।

उपन्यास नायक के जन्म के वास्तविक विवरण के साथ खुलता है जिसमें उसके पिता को मंडोवी में एक अंगूर के बगीचे के नवनियुक्त सुपरवाइजर के रूप में परिचित कराया गया है। इसे छोड़कर उपन्यास के दोनों भाग ‘‘वह’’ शैली में लिखे गए हैं लेकिन नायक की दृष्टि से। वह चालीस वर्ष की उम्र में अपने पिता की समाधि पर उनके बारे में कुछ जानने की इच्छा से पहुँचता है लेकिन सिवाय इसके कि उन्होंने 29 वर्ष की उम्र में उस देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिए थे जिसे वे जानते तक न थे, और कुछ नहीं जान पाता। अत्यंत निराश वह उन्हें कभी अपने स्कूल मास्टर लुई जरमाँ में ढूँढ़ता है, कभी विश्वविद्यालय में दर्शन के प्राध्यापक, जौं ग्रोनियर् में।

इस उपन्यास का शीर्षक ‘पहला आदमी’ चर्चा का विषय रहा है। कौन पहला आदमी है, पिता, पुत्र या वह अल्जीरिया निवासी-फ्रांसीसी या अरब कोई भी-वह निर्धन आदमी जिसकी मृत्यु के साथ उसका नाम, निशान और बाकी सब कुछ मिट जाता है, कुछ शेष नहीं रहता ? इस अनवरत होती खोज ने पहले आदमी को शोधकर्ताओं के लिए कामू की अमूल्य और अत्यंत महत्त्वपूर्ण कृति बना दिया है। इसीलिए यह अनुवाद उन्हें समर्पित है।
यह कृति अब तक विश्व की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित हो चुकी है। किन्हीं अपरिहार्य कारणों से इसे हिन्दी में इतने विलंब से रख पा रही हूँ उसके लिए क्षमा, याचना, और इसके रचयिता अल्बैर् कामू की पवित्र आत्मा को एक बार फिर श्रद्धा से नमन।

शरद चन्द्रा

संपादक की ओर से

हम आज पहला आदमी प्रकाशित कर रहे हैं। यह वह कृति है जिस पर कामू उस समय काम कर रहे थे जब उनकी मृत्यु हुई। इसकी पाण्डुलिपि 4 जनवरी 1960 को उनके ब्रीफकेस से प्राप्त हुई थी। ये कामू के 144 हस्तलिखित पृष्ठ हैं, जो बहुत मुश्किल से पढ़े जा सके हैं। लगता है एक बार लिखे जाने के बाद न ये कभी दुबारा पढ़े गए हैं, न सुधारे गए हैं।

यह पुस्तक हमने उसी हस्तलिखित पांडुलिपि और उसकी फ्रोंसीन कामू द्वारा टंकित की गई पहली कॉपी से तैयार की है। पाठकों की सुविधा के लिए जहाँ-तहाँ विरामादि लगा दिए गए हैं। दुविधात्मक शब्द कोष्ठकों में दिए गए हैं और उन शब्दों या वाक्यांशों का स्थान जो साफ-साफ पढ़े नहीं जा सके, कोष्ठक में रिक्त छोड़ दिए गए है। पाठ की विभिन्नता या काटपीट, उसी पृष्ठ पर तारक चिह्न द्वारा, हाशिए में लिखे शब्द अक्षरांकन द्वारा और संपादन की टीका सांख्याकन द्वारा पाद-टिप्पणी के रूप में दे दिए गए हैं।

वे पृष्ठ (जिन्हें हमने एक से पाँच तक की संख्या से अंकित किया है) जो या तो पांडुलिपि के बीच-बीच में (पृष्ठ 1, चौथे अध्याय से पहले, पृष्ठ 2 छठे अध्याय से पहले), या पांडुलिपि के अंत में पृष्ठ 3,4,5 लगे हुए थे, परिशिष्ट में उपलब्ध हैं।
उस पतली-सी चौखाने वाली स्पाइरल डायरी की सामग्री भी जिसमें ‘पहला आदमी’ शीर्षक के नीचे कुछ संक्षिप्त विवरण और ढाँचे दिए गए थे, पुस्तक के अंत में जोड़ दी गई है जिससे पाठकों को उस रूप की एक झलक मिल सके जो लेखक इस कृति को देना चाहता था।

पहला आदमी पढ़ने के बाद ही आप यह समझ पाएँगे कि हमने वह पत्र जो कामू ने अपने स्कूल मास्टर लुई जरमाँ को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद और लुई जरमाँ का कामू को लिखा आखिरी पत्र, परिशिष्ट में क्यों दिया है।
हम ओदेत दियायंई केआश, रोज़ेर् ग्रोनियर् और रोजेर् गालिमार् के प्रति उनके उदार और अनवरत सहयोग के लिए हृदय से आभारी हैं।

कैथरीन कामू

पहला आदमी : 1. पिता की खोज

मध्यस्थ: विधवा कामू
तेरे लिए जो इस पुस्तक को
कभी पढ़ न पाएगी। (भूवैज्ञानिक अनामता जोड़ना। जल और थल)

शाम के झुटपुटे में पथरीले रास्ते से गुज़रती गाड़ी के ऊपर मँड़राते बड़े-बड़े घने बादल पूरब की तरफ चले जा रहे थे। अटलांटिक महासागर के ऊपर खूब फूलने के बाद, पश्चिमी हवाओं के लिए तीन दिन तक रुके रहकर अब वे शरद ऋतु के स्फुरदीप्त पानी के ऊपर से चल पड़े थे, शुरू में धीमे-धीमे फिर तेज़ गति से, मोरक्को के पर्वत-शिखरों पर बिखरकर (सॉलफेरिनो), अल्जीरिया के पठारों तक पहुंचते-पहुंचते फिर से सिमट जाते हुए ट्यूनीशिया की सरहद पर आकर अब टायरीनयन समुद्र की तरफ बढ़ने की कोशिश में ताकि अपने-आपको उसमें समा सकें। इस अपरिमित दिखते द्वीप पर उत्तर में बहते पानी और दक्षिण में जमी रेत के टीलों से सुरक्षित इस अनामी जमीन के ऊपर युगों से गुज़रते राज्यों और जन-समूहों की चाल से मुश्किल से ही ज़रा ज़्यादा तेज़ चलकर हज़ारों किलोमीटर की यात्रा तय करने के बाद उनकी गति अब शिथिल हो गई थी और उनमें से कुछ उन चार यात्रियों के सिर पर तने मोमजामे की छत पर रुक-रुककर टप-टप करती बारिश की बड़ी-बड़ी मोटी बूँदों में घुल रहे थे।

वह रास्ता जिस पर गाड़ी चमरमाती हुई चली जा रही थी दिखता तो था लेकिन पक्का बना हुआ नहीं था। उस पर रगड़ खाकर पहियों की रिम या घोड़ों की टाप से कभी कोई चिनगारी निकलकर उड़ जाती थी, कभी कोई पत्थर छिटककर गाड़ी की लकड़ी से जा टकराता था या फिर नाले की कीचड़ में फद से जा गिरता था। गाड़ी को खींचते दोनों घोड़े जिनके सीने उस सामान भरी गाड़ी को खींचने से फूल रहे थे बीच-बीच में ठिठकते हुए अपनी-अपनी चाल से लगातार आगे बढ़े जा रहे थे। उनमें से एक कभी-कभी ज़ोर से नाक से साँस बाहर निकालता और लड़खड़ा जाता था। तभी गाड़ी हाँकता हुआ अरब उसकी पीठ पर लीर-लीर (लम्बे समय के इस्तेमाल से) हुआ चाबुक खींच के मारता, और वह जानवर फिर से पूरा दम लगाकर लय में चलने लगता।

आगे की सीट पर कोचवान के बराबर बैठा आदमी, लगभग तीस वर्ष का एक फ्रांसीसी, ताल से ऊपर उठती उन दो पीठों को, अपनी भावशून्य आँखों से एकटक देख रहा था। मझोले कद का, गठीला लंबायमान चेहरा, ऊंचा, चौड़ा मस्तक, मज़बूत जबड़ा और नीली आँखें। हालाँकि मौसम अच्छा होता जा रहा था पर उसने तीन बटन वाला ड्रिल कोट पहना हुआ था जो उस समय के फैशन के मुताबिक गले पर बंद था और उसके छोटे-छोटे कटे बालों पर एक टोपी (या फैल्ट हैट) लगी थी जब पानी उनके ऊपर लगे मोमजामे से चूकर सिर पर टपकने लगा तो उसने झाँककर पूछा, ‘‘ठीक हो तुम ?’’ पीछे की सीट पर आगे की सीट और पीछे चिने ट्रंकों के बीच फटे-पुराने कपड़े पहने परंतु एक मोटे गर्म शॉल में लिपटी जीर्णशीर्ण महिला ने दुर्बलता से मुस्कुराकर संकोच भरी आवाज में जवाब दिया, ‘‘हाँ, हाँ, बिलकुल ठीक।’’

 उसके पास ही उसका सहारा लिए एक चार साल का लड़का सो रहा था। तीखे नाक-नक्श, छोटी, सुहानी, सीधी नाक, स्पेनिश लोगों जैसे काले, घुँघराले बालों वाले उसके कोमल सरल चेहरे की भूरी आँखों में सहृदयता भरी हुई थी। लेकिन इस चेहरे में कुछ बहुत असाधारण था। अपनी थकान, परेशान, बेचैनी आदि का आवरण चढ़ा लेना नहीं बल्कि एक तरह का अभाव, शून्यता खोयापन जो नासमझी के चेहरे से हमेशा छलकता रहता है लेकिन इस खूबसूरत आकृति को बीच-बीच में उद्वेलित कर रहा था। उन आँखों की आकर्षक सहजता में अचानक अज्ञात का भय तीव्रता से आ मिलता और फिर उसी तेज़ी से चला जाता। वह औरत काम करते रहने के कारण सूखे, गठिआए सख्त हाथों के चपटे हिस्से से अपने पति की पीठ धीरे-धीरे थपथपाती, ‘‘सब ठीक है ! सब ठीक है !’’ और तभी उसके चेहरे से मुस्कान गायब हो जाती और वह गाड़ी की छत के ऊपर से दूर सामने देखने लगती जहाँ सड़क पर बीच-बीच में गड्ढों में भरा पानी अब चमकने लगा था।

वह अरब आदमी की तरफ मुड़ा जो दो पीली पट्टियों वाली पगड़ी पहने अनुद्वग्नि बैठा था। वह अपनी ऊपर से काफी ढीली पैन्ट में, जो घुटनों पर ऊँचे सिकोड़ने से फूल गई थी, काफी मोटा दिख रहा था, ‘‘अभी और दूर है ?’’ अरब अपनी घनी सफेद मूँछों के नीचे मुस्कराया, ‘‘आठ किलोमीटर और तुम पहुंच गए।’’ वह आदमी मुड़ा और अपनी पत्नी की तरफ बिना मुस्कराए ध्यान से देखता रहा। उसकी आँखें अभी सड़क पर जमी हुई थीं। लगाम मेरे हाथों में दो, वह आदमी बोला। ‘‘जैसा तुम चाहो’’, अरब ने जवाब दिया। वह आदमी कूदकर दूसरी तरफ हो गया और अरब उस जगह सरक गया जो उसके उठने से खाली हुई थी। लगाम समेटकर बस दो चाबुक और वे घोड़े उसके हाथ में आ गए, एकदम सीधे तेज़ दौड़ने लगे। ‘‘तुम्हें घोड़े चलाना आता है ?’’ अरब बोला। उसका जवाब बिना मुस्कराए रूखा और छोटा था, ‘‘हाँ।’’

रोशनी पहले ही कम हो चुकी थी, अब एकदम रात हो गई। अरब ने बाएँ हाथ पर लगे चौखटे में से चौकोर लालटेने निकालीं, हाथ की बनी कई रफ तीलियाँ जला-जलाकर उसके अंदर की मोमबत्ती जलाई। और फिर लालटेन को वापस उसकी जगह लगा दिया। धीमी-धीमी बारिश पड़ने लगी थी। गिरती हुई बूँदें लालटेन की मन्द रोशनी में चमक रही थीं और उस घुप घटाटोप अँधेरे में अपनी हल्की थपथपाहट से कुछ जान भर रही थीं। कई बार गाड़ी को सीधी खड़ी झाड़ियों को घूमकर पार करना पड़ता था। छोटे-छोटे पेड़ शुरू में कुछ दूर दिखते ही नहीं थे। लेकिन बाकी समय वह खुले रास्ते में, जो रात के अँधेरे में और चौड़ा हो गया था, आराम से दौड़े जा रही थी। सिर्फ जली हुई घास की खुशबू या अचानक खाद की तेज़ बदबू इस बात का सबूत देती थी कि वे लोग बसी हुई जगह से गुजर रहे हैं। औरत कुछ कहने के लिए अपना मुंह हाँकने वाले आदमी के पीछे पास लाई। वह घोड़ों को ज़रा-सा थामकर पीछे को झुका-
‘‘यहाँ कोई भी नहीं दिख रहा।’’

‘‘तुम्हें डर लग रहा है ?’’
‘‘क्या ?’’
पति ने अपना प्रश्न दोहराया लेकिन चिल्ला कर।
‘‘नहीं, नहीं, तुम्हारे साथ नहीं।’ लेकिन वह विचलित दिख रही थी।
‘‘तुम्हें तकलीफ हो रही है ?’’ आदमी बोला।
‘‘थोड़ी-सी।’’
उसने घोड़े आगे बढ़ाए और रात एक बार फिर पहियों से झाड़ियाँ कुचले जाने और सड़क पर घोडों की आठ टापों के पड़ने की आवाज से भर गई।
यह 1913 में शरद की एक रात थी। यात्री दो घंटे पहले बोन से चले थे जहाँ वे अल्जीरिया से तीसरे दर्ज़े के डिब्बे की सख्त बेचों पर बैठकर एक रात और एक दिन के सफर के बाद पहुँचे थे। स्टेशन पर उन्हें अरब और गाड़ी इंतज़ार करते मिले थे जिसे लगभग बीस किलोमीटर अंदर घुसकर एक छोटे गाँव के फार्म पर उन्हें ले जाना था जहाँ पति को मैनेजर का पद सँभालना था। उन्हें गाड़ी में अपना ट्रंक और कुछ छिटपुट सामान रखने में समय लग गया था और फिर सड़क खराब होने के कारण और देर हो गई थी। अरब ने, जैसे कि उसे अपने साथी की घबराहट का अंदाज लग गया हो कहा, ‘‘डरिए मत। यहाँ चोर लुटेरे नहीं है।’’ वे हर कहीं होते हैं, वह आदमी बोला, ‘‘लेकिन मेरे पास वह सब है जो होना चाहिए। और उसने अपनी भरी हुए जेबों को थपथपाया। तुम ठीक कह रहे हो, ‘‘ अरब बोला, ‘‘पागल आदमी सब जगह होते हैं।’

 उसी समय औरत ने अपने पति को आवाज़ दी। ‘‘औंरी’’, वह बोली, ‘‘अब दर्द ज़्यादा हो रहा है।’’ उस आदमी ने गाली दी और घोड़ों को और खींचा।अ ‘‘बस हम पहुंचने ही वाले हैं, ‘‘वह बोला। पल भर बाद उसने फिर अपनी पत्नी की तरफ देखा, ‘‘अभी दर्द हो रहा है ?’’ वह उसकी तरफ एक अजीब अन्यमनस्कता से मुस्कराई और ऐसे बोली जैसे बिलकुल दर्द न हो रहा हो, ‘‘हाँ, बहुत। वह उसकी तरफ उसी गंभीरता से देखता रहा। वह माफी-सी माँगती हुई फिर बोली, ‘‘कुछ नहीं है। शायद ट्रेन के सफर से कुछ हो गया हो।’’ ‘‘वो, देखो’’, अरब बोला, ‘‘गाँव आ गया।’’ वास्तव में सड़क की बाईं ओर कुछ सॉलफेरिनों की बत्तियाँ बारिश में धुंधलाई हुई दिख रही थीं। लेकिन तुम दाहिनी तरफ मुड़ों, ‘अरब बोला।

 वह आदमी हिचकिचाया, अपनी पत्नी को देखकर बोला-‘‘कहाँ चलें, घर या गाँव में ?’’ ‘‘ओह ! घर, वह ज़्यादा अच्छा रहेगा। कुछ आगे जाकर गाड़ी दाईं ओर मुड़ गई उस अनजाने घर की तरफ जहाँ उन्हें जाना था। बस एक किलोमीटर और, अरब बोला, तो हम पहुँच गए, अपनी पत्नी की तरफ मुंह करते हुए उस आदमी ने कहा। वह मुँह अपने हाथों में लिए दोहरी पड़ी थी। लूसी, उस आदमी ने पुकारा। वह ज़रा भी नहीं हिली। आदमी ने उसे हाथ से छुआ। वह चुपचाप रो रही थी। वह एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर हाथ से इशारा करते हुए ज़ोर से चिल्लाया, तू वहाँ जाकर लेट जा, मैं अभी डाक्टर को लेकर आता हूँ।’’
हाँ, जाओ, डाक्टर को ले आओ। मेरे खयाल से अब होने वाला है।’’ अरब, चकित उनकी तरफ देख रहा था। इन्हें बच्चा होने वाला है, पति ने कहा, ‘‘गाँव में कोई डाक्टर हैं ?’’
‘‘हां, तुम कहो तो मैं अभी जाकर ले आता हूँ।’’
"नहीं, तुम घर पर ठहरो। ध्यान रखना। मैं ज़्यादा तेज़ जाऊँगा। उसके पास कोई गाड़ी या घोड़ा है ?"

  • मुख्य पृष्ठ : अल्बैर कामू : फ्रेंच कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • फ्रांस की कहानियां और लोक कथाएं
  • भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां