पवित्रता (हिन्दी निबंध) : सरदार पूर्ण सिंह
Pavitarta (Hindi Essay) : Sardar Puran Singh
ब्रह्मकान्ति
अनेक सूर्य आकाश के महामण्डल में घूम रहे हैं, अनन्त ज्योति इधर उधर और हर जगह विखर रहे हैं। सफेद सूर्य, पीले सूर्य, नीले सूर्य और लाल सूर्य, किसी के प्रेम में अपने अपने घरों में दीपमाला कर रहे हैं । समस्त संसार का रोम-रोम अग्नियों की अग्नि से प्रज्वलित हो रहा है । परमाणु श्री ब्रह्मकान्ति से मनोहर रूपों में सजे हुए, ज्योति से लदे हुए, जगमग कर रहे हैं । परमाणु सूर्यरूप हो रहे हैं और सूर्य परमाणु- रूप है । सुन्दरता, सारी लज्जा को त्याग, घर वार छोड़, अनन्त पर्दों को फाड़ खुले मुँह दर्शन दे रही है । बालकों, नारियों और पुरुषों के मुखों की लाली और सफेदी झड़ रही है । गुलाब, सेब और अंगूर के नरम नरम और लाल लाल कपोलों से फूट फूट कर निकल रही है । प्रातःकाल के रूप में सिर पर नरम नरम और सफेद सफेद रुई का टोकरा उठाए हुए किस अन्दाज से वह आ रही है। सायंकाल होते अपने डुपट्टे के सुर्ख फूलों से फिर कुल संसार से होली खेलती हुई वह जा रही है । जल झरनों, चश्मों और नदी नालों में नाच रही है । हिमालय की बर्फों में लोट रही है। सजे धजे जंगल और रूखे सूखे बियावानों की सनसनाहट में लोट रही है । युवति कन्या के रूप में जवानी की सुगन्ध फैलाती हुई वही चल रही है। नरगिस (एक फूल) की आँख में किस भेद से छिपी हुई है कि प्रत्यक्ष दर्शन हो रहे हैं । बालक की बोलचाल में, चेहरे में, क्या झाँक झाँक कर सबको देख रही है । खुला दरबार है । ज्योति का आनन्द नृत्य, सब दिशाओं में हो रहा है। मीठी वायु दर्शनानन्द से चूर हो मारे खुशी के लोटती पोटती, लड़खड़ाती, नाचती चली जा रही है । इस ब्रह्मकान्ति के जोश में बादल गरज रहे हैं । बिजली चमक रही है। अहाहा ! सारा संसार कृतार्थ हुआ । जाग उठा । हाथी चिंघाड़ रहे हैं। दौड़ रहे हैं । शेर गरज रहे हैं, कूद रहे हैं । मृग फलाँग रहे हैं । कोयल और पपीहे, बटेर, वैये (बया), कुमरी और चण्डूल नंगे हो नहा रहे हैं । दर्शन दीदार को पा रहे हैं । तीतर गा रहे हैं । मुर्ग अपनी छाती में आनन्द को पूरा भरकर कुक रहे हैं । ई, ई, ऊ, ऊ, कृ, कू, हू, हू में वेद- ध्वनि, ओ३म् का आलाप हो रहा है। पर्वत भी मारे आनन्द के हवा में उछल उछल नीले आकाश को फाँद रहे हैं । वद्रीनाथ, केदारनाथ, जमनोत्तरी, गङ्गोत्तरी, कञ्चनजंगा की चोटियाँ हँस रही हैं । वृक्ष उठ खड़े हुए हैं, इन सब की सन्ध्या हो चुकी है ।
था जिनकी खातिर नाच किया जब मूरत उनकी आएगी ।
कहीं आप गया कहीं नाच गया और तान कहीं लहराएगी ।।
अर्थात् सबकी नमाज़ क़ज़ा हो गई । प्यारा नज़र आया । सबकी ईद है। ब्रह्मर्षि “सर्वे खल्विदं ब्रह्म" पुकार उठा, चीख उठा, योगनिद्रा खुल गई । ब्रह्मकान्ति के आकर्षण ने दशवाँ द्वार फोड़कर प्राणों को अपनी ही गति फिर दे दी । मारे परमानन्द के हृदय बह गया, यहाँ गिर गया, वहाँ गिर गया । अत्यन्त ज्योति के चमत्कार से साधारण आँखें फूट गईं । प्रेम के तूफान ने सिर उड़ा दिया। हवनकुण्ड से स्याह, नीले रङ्ग का ब्रह्म, कमलों से जड़ा हुआ ब्रह्म, मोतियों से सजा हुआ किसी ने कन्धों पर रख दिया, ब्रह्मयज्ञ हो चुका । मनुष्यजन्म सफल हुआ । जय ! जय !! जय !!! ॥ भक्त की जिह्वा बन्द हो गई । बाहु पसार जा मिला । कुछ न बोल सका । कुछ न बोला, ब्रह्मकान्ति में लीन हो गया । उसकी सितार की तारें टूट गईं । नारद की बीणा चुप हो गई । कृष्ण की बाँसुरी थम गई । ध्रुव का शंख गिर पड़ा । शिव का डमरू बन्द हो गया !! महात्मा पण्डित जी जा रहे हैं, छकड़ा पुस्तकों से लदा साथ जा रहा है। परन्तु पण्डितजी ये अमूल्य पुस्तकें छकड़े समेत अपने सिर पर उठाई हुई हैं। वह क्या हुआ क्या नजर आया ? अमूल्य पुस्तकें-वेद, दर्शन इत्यादि, पंडितजी के सिर से गिर पड़ीं ? छकड़ा लड़खड़ाता गङ्गा में बह गया ? सब कुछ जल में प्रवाह कर दिया । पंडितजी का साधारण शरीर, वायु में मानों घुल गया । नाचने लग गए । चाँद के साथ, सूर्य के साथ हाथ पकड़े । नृत्य करते हुए वायु समान समुद्र की लहरों में ब्रह्मकान्ति के साथ जा मिले ।
हल चलाता चलाता किसान रह गया । बकरी भैंस चराता २ वह और कोई भी उसी तरह लीन हुआ। जूते गाँठता २ एक और कोई दे मरा । भोग विलास की चीजें पास पड़ी हैं। ऊँचे महलों से निकल, सुनहरी पलङ्गों से गिर वह रेत में कौन लोट गया ! सिर से ताज उतार नंगे सिर नंगे पाँव यह अलख कौन जगाता फिरता है ? मोर मुकुट उतार यह सिर पर काँटे धरे शूली की नंगी धार पर वह मीठी नींद कौन सा राम लाड़ला सोता है ? तारों की तरह कभी मैं टूटा और कभी तू टूटा ! कभी इसकी बारी और कभी उसकी बारी आई । मीराँबाई ब्रह्मकान्ति का अमूल्य चिह्न हो गई । गार्गी ने ब्रह्मकान्ति की लाट को अपनी आँख में धारण किया । वेद ने ब्रह्मकान्ति के दर्शनरूप को अपनी आँख लिया ।
हाय ! ब्रह्मकान्ति के अनन्त प्रकाश में भी मेरे लिए अँधेरा हुया ?! अत्यन्त अत्याचार है–गङ्गाजल तौ हो शीतल, परन्तु मेरा मन अपवित्रता के भावों से भरा हुआ मार्गशीर्ष और पौष की ठंढी रातों में भी अपने काले काले संकल्प के नागों से डसा हुआ जल रहा हो, तड़प रहा हो ?? अपवित्रता का पर्दा जब आँख पर आ जावे तो भला घासों के जङ्गल, किस तरह देखे कोई ? हिमालय की बर्फ हो शुद्ध सफेद और मेरा मन काला ! हरी २ घास भी हो नरम और मेरा दिल हो कठोर ! पत्थर, रेत, कुशा, जल ये भी हों पवित्र, पर उन जैसी भी न हो मेरी स्थिति ? फूल भी हो सुगन्धित, मिट्टी भी सुगन्धित पर मेरे नेत्र और बाणी और अन्य अङ्ग हों दुर्गन्धित ? पत्थरों के पहाड़, पानी के झरनों को देखकर तौ महर्षि भी बोल उठे “सर्वे खल्विदं ब्रह्म' पर मुझे देख उसको भी कभी २ शक हो जावे और प्रश्न उसके हृदय में भी उठे कि ब्रह्म को कैसे भूल गया ?
ऐसे कैसे निभैगी -हाय मुझमें यह अपवित्रता कहाँ से आ गई ! क्यों आ गई ! ब्रह्म को भी कलंकित कर रही है। ब्रह्मकान्ति की अटल शोभा को भी एक ज़रा से बादल ने ढाँप दिया। एक मोतियाविंद के दाने ने गुप्त कर दिया । अपवित्रता को आँखों में रख कैसे हो सकता है वह विद्यादर्शन ? कैसे सफल हो मनुष्यजन्म राजदुलारे! अहो क्या हुआ कि सारी की सारी सलतनत राज्य छूट गया, दर दर गली गली धक्के खाता हूँ; कोई लात मारता है, कोई ढेला, कभी यहां चोट लगती है, कभी वहाँ, कभी इस रोग ने मारा, कभी उस रोग ने मारा । सारा दिन और सारी रात रोग के पलंग पर भी पड़ा रहना क्या जीवन हुआ । मरने से पहले ही हजार बार मौत के डर से मरते रहना भी क्या जीवन है ? सदा आशा तृष्णा के जाल में फड़क २ न जीना और न मरना, भला जी क्या सुख हुआ ?
कौन सा कलियुग मेरे मन में भूत की तरह आ समाया है कि मुझे सब कुछ भुला दिया । खुश हो २ कर जुआ खेलने लग गया। अपनी आत्मा को भी हार बैठा । अपनी आँखें आप ही फोड़ अब रोते हो क्यों ? अब तो तुम्हारी प्रार्थना सुननेवाला कोई नहीं। इस अपवित्रता के अँधेरे को जैसे तैसे सफेद करना है। इस कलङ्क को धोना है । इस मोतियाविन्द को निकलवाना है । मैं भारतनिवासी कैसे हो सकता हूं? जिसने अपने तीर्थों में भी, जिन तीर्थों की यात्रा से सुनते हैं अपवित्रता का कलङ्क दूर हो जाता था, काले सङ्कल्पों के नाग हर किसी को डसने के लिये छोड़ रखे हैं और इसे लीला मानकर रोते समान हँस रहा हूं।
ये तिमिर के बादल कब उड़ेंगे ? पवित्रता का सूर्य मेरे अन्दर कब उदय होगा ! मेरे कान में धीमी सी आवाज आई कि भारत उदय हुआ । हाय भारत का कब उदय हुया ! जब मेरे दिल में अभी अपवित्रता की रात है जब अभी मैंने हिमालय, गङ्गा, विन्ध्याचल, सतपुड़ा और गोवर्द्धन को अपनी आँख के अँधेरे से ढाँप रक्खा है । भारत तो सदा ही ब्रह्मकान्ति में वास करता है, भारत तो ब्रह्मकान्ति का एक चमकता दमकता सूर्य है । जब ब्रह्मकान्ति के दर्शन न हुए तो भारत का कहाँ पता चलता है । भारत की महिमा पवित्रता के आदर्श में है । ब्रह्मचारी पवित्र, गृहस्थ पवित्र, वानप्रस्थ पवित्र, संन्यासी पवित्र; ब्रह्मकान्ति को देखना और दिखाना भारत का जीवन है । पवित्रता का देश, भारतनिवासियों का देश है, जहाँ ब्रह्मकान्ति का भान होता है खुले दर्शन दीदार होते हैं । भला हड्डी, मांस और चाम के शरीरों और हजारों मील लम्बी चौड़ी मुर्दा की हुई (Sterilised laid) जमीन से भी कभी भारत बनता है ! मखौल के चचोलों से क्या लाभ होता है ! भारत तो केवल दिल की बस्ती है ! ब्रह्मकान्ति का मानो केंद्र है ? भारत निवासियों का राज्य तो आध्यात्मिक जगत् पर है । अगर यह राज्य न हुआ तो ( Sterilised Past ) मुर्दा भूमि के ऊपर राज्य किस काम का ? जल न जायँ वह महल जहाँ ब्रह्मकान्ति से रोशनी न हो । गोली न लग जाय उन दिलों को जहाँ प्रेम और पवित्रता के अटल दीपक नहीं जगमगाते ऐसे बेरस बेसूद फलों के इन्तजार से क्या लाभ, जो देखने में तो अच्छे और जब जतन से बाग लगाए, फल पकाए तो खाने को वे काँटे बन गए चलो चलें अपने पवित्रता सच्चे देश को, इस बिदेश में रहना, जूते खाने से क्या लाभ ? अपने घर को मुख मोड़ो ? बाहर क्या दौड़ रहे हो ?
पवित्रता का स्वरूप
पवित्रता का चिंतन करते हुए ये मेरे मन के कमरे की दीवारों पर जो चित्र लटक जाते हैं उनका वर्णन करना ही लेखक के लिये तो पवित्रता का स्वरूप जतलाना है । लेखक इस कमरे में कई बार घण्टों इन चित्रों के चरणों में बैठा है- इन चित्रों की पूजा की और इनसे पवित्रता के स्वरूप को जितना हुआ अनुभव किया । चित्रों का जो लेखक ने अपने इस बुतखाने में रखे हैं, वर्णन तो इस लेख में हो नहीं सकता परन्तु जितना हो सकता है उतना संक्षेप से अर्पण करता है :-
(१) ऊँचा पर्वत है, आसपास सुहाने देवदारु के जङ्गल नीचे तक खड़े हैं । मीलों लम्बी बर्फ पड़ी है, इसके चरणों में नदियाँ किलोल कर रही हैं । इसके सिर पर एक दो, कोई एक एक मील लम्बे, पिघली बर्फ के कुएड भी हैं । ऊपर नीला आकाश झलक रहा है । पूर्णिमा का चाँद छिटक रहा है । ठंडक, शांति और सत्वगुण बरस रहा है। सुख आसन में बैठे ताड़ी लगा खुली आँखों, मैं इस शोभा को देख रहा हूं। आँखें खुली ही हुई जुड़ गई हैं । पलक फरकाने तक की फुर्सत नहीं, मुख खुला ही रह गया है । बन्द करने का अवकाश नहीं मिला। प्राणों की गति का पता नहीं। इस अपने ही चित्र के समय घड़ियों ब्यतीत हो जाती हैं । पाठक ? बैठ जाओ, मेरी जगह अपने आपको बिठा लो और देखो जब तक आपका जी चाहै ।
(२) गङ्गा का किनारा है, एक शिला पर भर्तृहरिजी बैठे हैं। पद्मासन लगाए हुए हैं । ब्रह्मचिन्तन में लीन हैं । उनकी मुँदी हुई आँखों से एक दो प्रेम के अश्रु निकलकर उनके तेज भरे कपोलों पर ढलककर जम गए हैं । मृग जंगल से दौड़ते आए, और उनके शरीर को भी शिला जान अपने सींग खुजलाने लग गए । आकाश से एक प्यासी चिड़िया उड़ती आई है और इस लाल शिला पर गङ्गाजल की बूँदों को देख अपनी पीली चोंच से पी रही है । इतने में भर्तृहरिजी की समाधि खुली । भोलापन आनन्द आश्चर्य से भरी हुई-पता नहीं कहाँ को देख आई है । मुझे और आस पास की चीजों को तो कदापि नहीं देख रही थी उनके कण्ठ से स्वाभाविक ही शिव २ की ध्वनि हुई । मैं पास बैठा हूँ। उनके दर्शन करते २ मेरे रोम २ में शीतलता और सत्वगुण की बहार हो गई; मानो गङ्गास्नान से मेरी दरिद्रता दूर हो गई । उनकी ध्वनि की प्रतिध्वनि बहती गङ्गा के आलाप से सुनाई दे रही है । अद्भुत समय है । देखो इस चित्र को, बैठ जाओ।
(३) एक हरे २ घास के लम्वे चौड़े मैदान के मध्य में दूध के रंग की एक नदी बह रही है । इसका जल साफ है। छोटे २ स्याह और काले, पीले और नीले, बड़े और छोटे शालग्राम गोता लगाए बैठे हैं । कैई एक बालक नंगे हो हो के ध्वनि प्रतिध्वनि करते २ किनारे से कूद कूदकर स्नान कर रहे हैं कोई तैर रहे हैं। उनके सफ़ेद २ पीले २ शरीरों पर कुछ तौ जल की रोशनी है और कुछ सूर्य की ज्योति की झलक है । इन शरीरों से सुगन्ध आ रही है । मुझसे न रहा गया । कपड़े उतार मैंने भी नंगे होकर कूदना शुरू कर दिया । पाठक ! अगर तेरा भी मन चाहे कपड़े उतार दे और इस ठंडे जल में कूद पड़, उन बालकों की तरह स्नान कर । मैं भी कभी २ बाहर आकर नरम रेत के बिस्तर पर लोटता था कुछ शरीर पर मलता था कुछ अपने केशों पर डालता था कभी धूप में बैठा, कभी गोता लगाया । बताओ तौ अब अवस्था क्या है ?
(४) एक और चित्र लटक रहा है इसके देखते ही क्या पता क्या हुआ ? काली रात हो गई। हाथ पसारे भी कुछ प्रतीत नहीं होता था परन्तु जरा सी देर के बाद तारों की मध्यम २ ज्योति चित्रकार के हाथ से झड़ी पड़ती है । ऊपर का आकाश, गहनों से लदी हुई दुलहन की तरह इस एकान्त में आन खड़ा है। इस चित्रकार की प्रशंसा करते २ मैं ठहर गया और कई घण्टे ठहरा रहा । इस चित्रकार के ब्रुश से एक और भी अद्भुत चित्र साथ ही साथ देखा । ब्रुश का कोई ऐसा इशारा हुआ कि इस दूसरे चित्र में काली अँधेरी रात भागती प्रतीत होने लगी और कोई ऐसा विद्याकला का गोला चला कि कुल तारागण अपनी २ पालकियों में सवार हो बड़े जोर से भाग रहे हैं। मैं यह लीला देख ही रहा था कि अचानक रात थी ही नहीं और पर्बतों के पीछे से लाल २ सूर्य निकल आया था । प्रातःकाल हो गया, गजर बज गए, फूल खिले, हवा चली । पक्षी अपनी सितारें ले मध्य आकाश में आशा अलापने लगे। पशु नीचे सिर किए हुए ओस से भरी हरी २ घास को खाने लग गए । नदियाँ मानो एकदम अपने घरों से बह निकलीं, मैं और मेरी पत्नी साथ २ जा रहे हैं । और कभी इस शोभा को और कभी एक दूसरे को देखते हैं । पाठक ! उठो अब तो भोर हो गई ।
(५) कुछ एक सामग्री का ढेर लगा है । मनों ही पड़ी थी। अग्नि प्रज्वलित हुई। हवन कुण्ड में से लम्बी २ ज्वालाएं निकलने लगी, हम दोनों देख रहे हैं । ऐसी पवित्रता का उपदेश हमने किसी गिरजे मन्दिर में कभी नहीं सुना ।
(६) अभी ज़रा मेरे नेत्र जो फिरे तो क्या देखता हूँ कि एक टूटे फूटे मिट्टी के किनारों वाला कुण्ड है उस पर सबज़ काह उग रही है । और कुछ एक प्रकार के पेड़ अपनी लम्बी २ डालियों से तालाब के बाज़ हिस्सों को छाता लगा रहे हैं। परन्तु सारे तालाब पर कमल फूल अपने चौड़े २ हरे २ पत्तों के सिंहासन पर सारी दुनियां के राज सिंहासनों को मात करते हुए अपने सौरभ्य गौरव में प्रसन्न मन विराज रहे हैं। जो पवित्रता के स्वरूप को देखना है तो, पाठक ! क्यों नहीं प्रातःकाल इन कमलों को देखते ? पुस्तकों में और मेरे लेखों में क्या धरा है !
(७) वाह रे चित्रकार ! शाबाश है तेरी अद्भुत कला को, जिसने इस चित्र में पता नहीं किस तरह बिराट स्वरूप भगवान् को आनकर लटकादिया ! सारे का सारा विराट्स्वरूप जगत् दर्शाया है। और यह भी किसी की आँख में, परन्तु किस कला से दर्शाया है, न तो आँख नज़र आती है, और न आंखवाले के कहीं दर्शन होते हैं, केवल बिराट् स्वरूप ही देख पड़ता है। मुझे कृष्णजी महाराज का खयाल आया, उनके मुख को देखा, पर उनका चित्र ऐसी कला संयुक्त नहीं। क्योंकि साथ ही साथ देखनेवाला भी नज़र आ रहा है। इस अद्भुत चित्र के अन्दर ही अन्दर २ गुप्त प्रकार से लिखा है "पवित्रता” इस शब्द को ढूँढ़ना है। जब तक यह न ढूँढ़ लूँ, इस चित्र को कैसे छोड़ सकता हूँ । यक्ष पास खड़ा है। चित्रकार ने अपने इस चित्र के दर्शन का यह मूल्य रखा है अगर आगे बढ़ता हूँ तौ सास घुटी जाती है। ऐसा न हो कि युधिष्ठिर राजोधिराज के भाइयों की तरह इस चित्र देखने का मूल्य मृत्यु ही हो ! मुझे अवश्य इस गुप्त शब्द को ढूंढ़ना है, न ढूँढूँ तौ मृत्यु हो जायगी, दुःख होगा | भला ऐसे चित्र को देखना और उसके दर्शन की शर्त को न बजा लाना ऐसा ही पाप है कि मृत्यु हो जाय !
ऊपर के आए हुए चित्र तौ साधारण तौर पर कुछ कठिन भी हों । और यदि पवित्रता का स्वरूप भी भान हो तौ नीचे और चित्रों के दर्शन से मैंने कै एक को पवित्रता का अनुभव होते वास्तव में देखा है।
(८) एक टूटा फूटा कच्ची ईंटों का मकान है। दीवारें इसकी मिट्टी से लिपी हुई हैं। इसकी छत्त घास के तिनकों से बनी है । किसी पक्षी का घोंसला नहीं । यह अच्छा बड़ा है। दरवाजा इसका बहुत छोटा है । ज़रा अपनी लम्बाई को कम करके जाना पड़ेगा । सर झुकाकर अन्दर घुसना पड़ेगा। इसके अन्दर क्या प्रभुज्योति से चमकती हुई एक देवी बैठी है। उसने मुझे नहीं देखा और न आपको । बैठ जाइए, इसकी गोद में एक छः महीने का, चाँद से मुखवाला बालक जिसके सफ़ेद २ कपोलों पर काले बाल लिपट रहे हैं । यह बच्चा दूध पीते २ सो गया है । यह विद्या सुन्दरता से भूषित–सुन्दरी, इस अमूल्य बालक की माता है । अपने अत्यन्त प्रेम को दिल से बहा २ कर आंखों द्वारा इस सोते बालक पर सफेद ज्योति की किरणों के समान बारिस कर रही है। इस प्रेम नूर की झड़ी साफ बरसती प्रतीत होतो है । यह मरी और क्राइस्ट है, इस मरी ने घर २ अवतार लिया है । घर २ यह अमूल्य ईसा इस तरह अपनी मां की गोद में सोया है । रफील (Raphael) जैसे वैद्य, और सर्वकलासंयुक्त चित्रकारों ने अपने सर्वस्व को इस चित्र को पवित्रता के चिन्तन में हवन कर दिया है। आयु इसकी प्रशंसा करते २ व्यतीत कर दी । माता की इस पवित्रता स्वरूप निगाह, ध्यान करते २ मातावत् पवित्र हृदय हो गई। माता के इस रूप में लाखों पुरुषों ने जीवन का बपतिस्मा लिया, इस चित्र के नीचे लिखा है “पवित्रता का नमूना” पाठक ! मेरे लेख में आगे क्या धरा है ! जरा अपना बिस्तर खोल दो, जल्दी पढ़ने को मत करो। इस झोपड़ी में दिन रात रहो तो सही ? हो सके तौ और कहाँ जाना है ? इस देवी के चरणों में बैठ जाओ। इस पवित्र भाव की रज को अपने अन्दर के शरीर पर लगाओ। अपने मन को यही विभूति लगा लो । शिवरूप हो जाओगे ? (Medomia Christ) मरियम और उसके बच्चों की तस्वीर को हज़ार बार देखा होगा । परन्तु अब बैठ जायो । हर झोंपड़ी के अन्दर देखो कौन बैठा है ?
(९)यह मरी का लाड़ला बच्चा माँ का दूध पी, माँ का अत्यन्त प्रेम पान करके जवान हो गया। लटा इसके कन्धों पर लटक रही हैं । इसके रूप पर अद्भुत तेज है । इसके नेत्र आकाश को उठे हैं। पता नहीं किसको देख रहे हैं । इसका मस्तक चमक रहा है । पहचानो तौ यह कौन सपूत है ?
(१०) समुद्र बीच में है, किसी की प्यारी बहन अपने देश में समुद्र के किनारे खड़ी है, और प्यारा वीर किसी जहाज़ को लेकर अन्य देशों में गया हुआ है । परन्तु यह बहन हर रोज उसके जहाज को देखने की आशा में समुद्र के विशाल विस्तार को घंटों देखती रहती है। ज़रा इसकी आँख को पूरे अनुभव से देखना। कभी २ उस एक आँसू को भी देखना जो आंखों से झड़कर समुद्र के जल में लीन हो जाता है। हो सके तो इसको अपनी बहन जानकर अब अपने हृदय को भी आजमाना । यह भी पिघलता है कि नहीं ? वह जहाज़ आया । सीटी बजी । लंगर गिरा। भाई ने दूर से अपने रूमाल को लहरा २ कर हृदय में प्यारी बहन को नमस्कार की। बहन ने भी दूर से अपने पतले २ बाहु पसार अपने सुन्दर हाथों से अपने बीर का स्वागत किया। न्योछावर हुई । इतने में भाई बहन दोनों एक के गले लगकर रो पड़े। इस चित्र के नीचे लिखा था “पवित्रता का बादल" छम छम छम छम, रम झम, रम झम ।
(११) दूर दराज से पिता सफर तै करके घर आया है । वह पुत्री दौड़ती बाहर आई है । साड़ी इस कन्या की सिर से उतर गई है, इस तेजी से दौड़ी है कि खुले केश पीछे २ रहे जाते हैं । मुख खुला है । बोल कुछ नहीं सकती। इतने में पिता उसे गले लगाकर ज्यों ही अपनी पुत्री के सिर पर प्यार देने झुका तो आंखों से मोतियों का हार झलककर उसके केशो पर बिखर गया । यह मोतियों का हार इस चित्र में क्या सुहावना लगता है ?
(१२) सीताजी अयोध्याजी में अपने महल की सीड़ियों पर खड़ी हैं, और श्री लक्ष्मणजी धनुष बाण कन्धे पर रक्खे, सर झुकाए हाथ जोड़े पास खड़े हैं, इनके चरणों की ओर देख रहे हैं, और श्री सीताजी के मनोरञ्जनदायक वाक्य और आज्ञा को सुन रहे हैं ।
(१३) जङ्गल बियावान (निर्जन्तुक) है । लम्बे २ पेड़ खड़े हैं । कोई सूखे हैं कोई हरे । श्री सत्यवन्तजी, कुल्हाड़ा कन्धे पर रक्खे आगे २ जा रहे हैं । देवी सावित्री पीछे पीछे जा रही है। एक जगह दोनों बैठ गए हैं । वे इनको देखती हैं, ये उनको देखते हैं। वे उनकी गोद में और ये इनकी गोद में लेट रहे हैं ।
(१३) नदी पर एक एकान्त स्थान में बहुत सी कन्यायें, स्त्रियाँ, देवियाँ स्नान कर रही हैं। श्री शुकदेव जी पास से गुज़र रहे हैं । उनको कोई भय नहीं हुआ । वे वैसे की वैसे ही खुल्लमखुल्ला नंगी नहा रही हैं । नदी का जल मारे आनन्द के कूद रहा है । ये उछल रही हैं।
(१५) वह राजबालक ध्रुव, ताड़ी (समाधि) बाँधे जंगल में शेरों के मुख में अपने हाथ को दे रहा है, खेल कर रहा है । प्रतीत होता है लड़ रहा है।
(१६) छोटे २ बहुत से बच्चे बैठे हैं, पुस्तक हाथ में है और पढ़ रहे हैं, काँय २ हो रही है ।
(१७) एक नौजवान है फटी हुई बिना बटन की कमीज गले में है । शिर नंगा है । पाँव नंगा है । किसी की तलाश में है, चारों ओर देखता है कभी इस पेड़ के और कभी उस पेड़ के पास जा खड़ा होता है, रोता है । वृक्ष भी उसके साथ रो उठते हैं। प्रेम की मदहोशी में वह गिर पड़ा है आँसू चल रहे हैं। पृथ्वी की रज उसके बालों में विभूति की तरह लग गई है। कभी गिरता है, कभी उठता है । कभी बादल को देख उसे जाते २ खड़ा कर लेता है, शायद किसी को पत्र भेज रहा है । नदी से, पत्थरों से, पक्षियों से, पशुओं से बातें करता जा रहा है । अभी यहाँ था, अब नहीं है ।
(१८) दमयन्ती राजहंसों के पास पड़ी है। नल का इन्तजार कर रही है। आप भी पास बैठ जाइए । आपकी माता है, बह्न है, देवी है।
(१९) एक अनाथ अजनवी अभी अपने प्राणों को त्याग, दरख़्त के नोचे सड़क किनारे वह नींद सो रहा है, जिससे कभी नहीं जागेगा अपना शरीर आपके हवाले कर गया। उसका मृत्यु संस्कार आपने करना है।
(२०) राजा जनक की सभा लगी है। ऋषि लोग बैठे हैं । ब्रह्मवादिनी गार्गी आंखों में कपिलवाली लाली लिए हुए आन खड़ी हुई है । सब आश्चर्यवत् हो गए। गार्गी नंगी है, पर बिजली के ज़ोर से यह देवी कह उठी-जानो अभी सब शूद्र हैं चमार हैं । वह जा रही है । आकाश प्रणाम करता है, पृथिवी काँप रही है।
(२१) सफेद ऊन के कोट पहने ये छोटी २ भेड़ें इस टप्पर में दर्शन दे रही हैं। कोई खड़ी, कोई बैठी और कोई फलाँग रही है।
(२२) क्या सुहावना अरबी घोड़ा खड़ा है, काठी लगाम से सजा हुआ है। सवार लड़ाई में शहीद हो गया है । यह घरवाले सम्बन्धियों को खबर करने अकेला ही चला आया है । दुलदुले वेयार सामने खड़ा है। कौन इस अनाथ घोड़े को देख नहीं रो उठेगा। पाठक ! क्या हृदयगम्य उद्देश को लिए कुल जगत् में एक ही अपनी मिसाल आप खड़ा है । मुख नीचा किए हुए किसी दर्द से पीड़ित हो रहा है।
(२३) मालवा देश की महारानी, भारतवर्ष की जान, मीराबाई राज छोड़कर रज पर बैठी है। उसके दिव्य नेत्र खुले हैं । साधारण जगत् कुछ भी नहीं देख रहा है। इतने में राजाजी ने मस्त हाथी दौड़ाया कि इस देवी को कुचल डाले । मैं पास बैठा हूँ । क्या देखता हूँ कि देवी के पास आन हाथी की मस्ती खुल गई। उनके चरणों में नमस्कार की और चल दिया। जब कभी मेरा हृदय विक्षिप्त होता है, मैं यहां आनकर इस देवी के चरणों की रज को ले अपने मस्तक और नाभि, दिल और चक्षु और सिर में लगा पवित्र करता हूँ।
(२४) राजों के राज्य, राजधानियों को राजधानियाँ नष्ट हो गईं वह तख्त जिस पर बैठते थे तख्ते हो गए, मिट्टी में मिल गए परन्तु समय के प्रभाव को देखिए-सब भारतवर्ष की महारानी नूरजहाँ रावी नदी के किनारे लाहौर शहर के उस तरफ मामूली धरती की गुफा में लेटी है, कभी २ उठकर एक निगाह इस सारे देश पर करती है । सबज़ काही रोज़ जा जाकर उसके चरणों पर नमस्कार करती है । ग्रीष्म ऋतु, रंग विरंग के पत्ते इसके ऊपर बरसाती है। वसंत ऋतु जब कभी आती है उसके सिर पर फूलों की वर्षा करती है। इस भारत की महारानी के स्थान की यात्रा यहाँ आन होती है। मुझे आप आशीर्वाद देते हैं । और अपनी मलका का दर्शन कर मैं अजीब भावों से भर अपने पाठक के मुख को देखता हूँ।
(२५) वह कौन बैठे हैं ! कमल के फूल का सिंहासन है, उस पर पद्मासन लगाये निर्वाण समाधि में लीन, कपिलवस्तु का राजा राजकुमार बैठा है। जगत् को जीत चुका है। राजों का राजा है। बुद्ध के पत्थर के गढ़े चित्र तो कैई देखे, वे भी अद्भुत हैं पर शाक्यमुनि बुद्ध आप सबसे अद्भुत हैं । दर्शन दुर्लभ तो नहीं, वह रुकते तो नहीं, उनको तुम्हारी खबर भी नहीं। पर दीदार खुले होते हैं, जहाँ बुद्धजी का चित्र है, वह मन पवित्र है, स्थान पवित्र है ।
(२६) एक किसी गाँव की गली है, किसान लोग रहते हैं, वह कौन आया ! जिसे देखने सब के सब नर नारी बालक बाहर निकल देखने आए । नीली २ विभूति रमाए एक हाथ में भिक्षा-पात्र, दूसरे हाथ में पार्वती को पकड़े साक्षात् शिव पार्वती; आ रहे । अब मंगल होगा । सब को वर मिलेंगे । वह लो-शिवजी ने नाद बजाया । सोने के बर्तन में दूध से भरे गांवों की स्त्रियां भिक्षा देने आई हैं । ठहरते तो नहीं, जा रहे हैं । मङ्गल, आनन्द, सुख की वर्षा करते जा रहे हैं।
(२७) कलकत्ते के पास एक निरक्षर नंगा कालीभक्त है। काली भक्त क्या ? ब्रह्मकान्ति का देखनेवाला फ़क़ीर है । इसके नेत्र और इसका सिर, मेरे तेरे नेत्रों और सिरों से भिन्न हैं। किसी और धातु के बने हुए हैं । मामूली साधु नहीं, जो छू छू करते फिरते हैं । एक कोई स्त्री आई । आप चीखकर उठे। माता कहकर सिर उसके चरणों पर रख दिया । मेरी तेरी निगाहो में यह कंचनी ही थी। पर रामकृष्ण परमहंस की तौ जगत् माता निकली। देखकर मेरी आँखें फूट गई। और मैंने भी दौड़कर उसके चरणों में शीश रख दिया । तब उठाया, जब आज्ञा हुई। दरिद्रो ! क्या तुम दे रहे हो ? मेरे सामने परमहंस ने कुल बिराट् इस माता के चरणों में लाकर रख दिया ? नेत्र खोल दिए । अहिल्या की तरह अपना साधारण शरीर छोड़कर यह देवी आकाश में उड़ गई ? कहोगे-"पूर्ण' तौ मूर्तिपूजक हो गया ? कुछ भी कहो-मेरे मन की कोठरी ऐसी मूर्तियों से भरी है। इस बुतपरस्ती से पवित्रता मिलने के भाग खुलते हैं पवित्रता को अनुभव कर ब्रह्मकान्ति का दर्शन होता है।
कंगाल तो मैं हूँ जरूर और मेरे में कोई चित्र खरीदने का बल नहीं। परन्तु मित्रो ! आकाश से एक दिन अमूल्य चित्रों की बारिस हुई थी। मैंने अपने घर के नीचे ऊपर से, सहन से छत से इकट्ठा करके एकत्र कर लिया था। पहले रखने का स्थान नहीं था परन्तु जब प्रेम से मन की दीवारों पर लगाने लगा तो क्या देखता हूं कि मेरे मन में अनन्त स्थान है और आनन्द चित्र लटक रहे हैं । मित्रो ! सारा विराट लटकाकर मैंने देखा कि अभी मेरा कमरा खाली का खाली ही था |
आजकल के उपदेश किये जा रहे पवित्रता के साधनों पर एक साधारण दृष्टि
प्रिय पाठक ! प्रथम मुझको यह प्रकट करना है, कि इस शीर्षक के नीचे आनकर यदि कई इस देश के बड़े २ आदमी भी कट जाँय, यदि कई एक वेनाम भारतनिवासियों के दिल के खिलोने टूट जाँय, यदि कई एक बाग़ियाना विचार आजकल के कल्पित हिन्दू धर्म के विरुद्ध युद्ध का झंडा उठावें । यदि प्राचीन ऋषियों की आज्ञा का भी कहीं २ पालन न हो, यदि सोमनाथ के मुर्दों और ऋषिकेश एवं हरिद्वार के जीते लोगों के पूजा के शरीरों का अन्त हो जाय । कुछ भी हो, उससे कभी भी यह परिणाम न निकालना कि मेरा अभिप्राय स्वप्न में भी प्राचीन ऋषियों-ब्रह्मकान्ति में रहने वालों की आज्ञा का तिरस्कार करने का है। या उनके उपदेश किए हुए आदर्शों के तोड़ने का है या आक्षेप लगाना स्वीकृत है या कभी भी उनके सम्मुख होकर बिना सिर झुकाए गुज़रना है या किसी प्रकार से अपने देश निवासियों के हृदय को दुखाना है या क्लेश देना है कुछ मेरा अभिप्राय है, परन्तु किसी दशा में भी यह नहीं, मेरा प्रयोजन किसी से भी नहीं ।
"दुनियाँ की छत पर खुश खड़ा हूं तमाशा देखता ।
गाहे ब गाहे देता रहा हूं बहशियों की सी सदा ॥
मेरी तो एक "बहशियों की सी सदा" है। सुनो या न सुनो इससे कुछ प्रयोजन नहीं, ईश्वर की इस लीला में आप वहां रहते हैं, मैं यहाँ रहता हूं। इसलिये क्षमा मांगकर अब मैं अपनी दृष्टि, अपने ऐसे ही माने हुए देश की ओर फेरकर जो देखता हूं वह लाधड़क कहे देता हूँ।
त्याग, वैराग्य और इनके अनर्थ
देश में, पता नहीं, न जाने कहां से किधर से कैसे और क्यों अपवित्रता आ गई है, कि हमारे हाथ ऋषियों का इतना बड़ा आदर्श- त्याग और वैराग्य का आदर्श-मटियामेल हो गया ? महात्मा बुद्ध ने त्याग किया, ईसा ने त्याग किया, शंकर ने त्याग किया, रामकृष्ण परमहंस ने त्याग किया, स्वा० दयानन्द ने त्याग किया, स्वा० राम ने त्याग किया, भर्तृहरि ने त्याग किया, गोपीचन्द ने त्याग किया, पूर्ण भक्त ने त्याग किया, वैराग्य का बाना लिया, बस अब किसान भी हल जोतने को त्याग, उनका सा रूप सँवार चले गंगातट को, चले हृषिकेश को, वहाँ अन्न मुफ्त मिलता है | छोटे २ बालक और नवयुवक भी कुदे । अहह ! आदर्श के दर्शन हुए, कमीज़ और पाजामा उतार दिया, जोश आया, वैराग्य आया, गेरू रंग के वस्त्र धारण किए हुए फिर रहे हैं और दिन कटता ही नहीं रात गुज़रती ही नहीं। जंगल खाता, है, एकान्त भाता ही नहीं । सभाएँ हों, पुलपिट हों, कालिज हों, स्कूल हों, आप अपने आपको दान देने को तय्यार हैं, बलिदान हो चुका, यज्ञ हो गया । स्त्री का मुख देखना पाप है। बड़े २ वैराग्य के ग्रन्थ खोल, गेरू रंगे हम अपनी माता बहिन और कन्याओं को नग्न कर २ के उनके हड्डी मांस की नस २ को गिन २ कर तिरस्कार करते हैं। क्यों भाई ! बिना इसके भला वैराग्य और ब्रह्मचर्य का पालन कब होता है ? वैराग्य और त्याग के उपदेश हो रहे हैं कि बस आत्मिक पवित्रता इसी से आएगी । जगत् बस अभी जीता कि जीता, किला सर हो गया, आपका, बोलवाला हो गया ।
नहीं प्यारे ! जरा थम जावो, जरा अपने शरीर को देखो, जरा बुद्ध के शरीर को देखो, जरा शङ्कर भगवान् के रूपको देखो, जरा बड़े २ महात्माओं के शरीर को देखो, यदि ये शरीर पवित्र हैं तब उनकी माता का शरीर किस लिये अपवित्र मान लिया ! यदि इन सबको पीताम्बर पहनाए पूजते हो तब वैराग्य और त्याग में मस्त लोगो ! भला इनकी माताओं को इनकी बहनों को इनकी कन्याओंको क्यों नग्न कर रहे हो?
द्रौपदी की साढ़ियां उतार २ अपनी पवित्रता के साधन कर रहे हो ? फूक क्यों नहीं डालते उन ग्रन्थों या हिस्सों को जहां तुमको ऐसा बहशी बनाकर पवित्र बनाने के झूठे वचन लिखे हैं । किससे छिपाते हो ज्यों २ द्रौपदी को नग्न करने में लगे हो त्यों २ तुम्हारा वैराग्य और त्याग गंगा में बह रहा है । गेरुवे कपड़े के नीचे वैसे के वैसे न सजे पत्थर की तरह तुम निकले । ऐसा तिरस्कार करना और अपवित्र होना यह तो मन की चंचलता और ध्यान के अद्भुत नियमों को हड़ताल लगाना है । कदाचित् असम्भब सम्भव हो जाय परन्तु ऐसे वैराग्य और त्याग से जिसमें अपनी माताओं बहिनों कन्याओं के नग्न शरीरों को नीलाम करके पवित्रता खरीदनी है तब कदाचित् पवित्रता, न मन में, न दिल में, न आत्मा में, न देश में कभी आयगी ! मेरा विचार है कि कारण चाहै कुछ हो हमारे देश में इस झूठे त्याग और वैराग्य के उपदेश ने पवित्रता अकपटता सचाई का नाश कर दिया है, जिस उपदेश में मेरी माता का मेरी बहिन का, मेरी स्त्री का, मेरी कन्या का तिरस्कार हो और तैसे ही तुम्हारी का भला वह कब मेरे तेरे हम सब के लिये देश भर के लिये कभी कल्याणकारी हो सकता है ? सूर्य चाहे अंध होकर काला हो जाय, परन्तु जहाँ ऐसा तिरस्कार स्त्री जाति का होता है वहाँ अपवित्रता, दरिद्रता दुःख कंगाली झूठ कपट राज्य न करें, चाण्डाल गद्दी पर न बैठे यह कदापि नहीं हो सकता । ए बुद्ध भगवन् ! क्यों न आपने अपने बाद आने वाले बुद्ध के नाम को ले लेकर संसार को अपवित्र बनाने वालों का विचार किया ? क्यों न आपने डंके की चोट से इस अनर्थनिवारणार्थ अपने बाद इस पुरुष की माता, पुत्री, बहिन को, स्त्री को, इस नीचे पुरुष के लिए अपने सामने उच्च सिंहासन पर बिठा इसको आज्ञा दी कि बचपन से लेकर जब तक इसको ब्रह्मकान्ति का महा आकर्षण, स्वाभाविक बुद्ध न बना दे तब तक यह अपना क, ख, ग, घ, और अ, आ, इ, ई इस देवी के सिंहासन के पास बैठकर पढ़े, जो कुछ हो गया या बुद्ध पैदा ही हुआ उसे आपको भिक्षुक होने का उपदेश देने की क्या आवश्यकता थी ? आपको किसने उपदेश दिया था कि आप कपिलवस्तु राजधानी को लात मार युवअवस्था ही में ही ब्रह्मकान्ति की तलाश में-उस अनजानी ज्योति के स्वरूप की तलाश में जङ्गल २ घूम अपने शरीर को सुखा लिया, हड्डियां कर दिया, ए भगवन् ! आकर अब ज़रा देखिये तो सही, आपके बाद आज तक बुद्ध कोई न हुआ। किसी माता को आपकी माता के समान ब्रह्मकान्ति का दर्शन लाभ न हुआ और कोई माता भी ब्रह्मकान्ति को अपने गले में ले बुद्ध को अपने पेट में अनुभव न कर सकी । आपका नाम ही नाम रह गया है जिसके सहारे कई ईंट पत्थर रोड़े के मन्दिर खड़े हो गए । बुत बन गए परन्तु मनुष्य डूब गया । इसके नीचे आ मर गया, मनुष्यता अपवित्रता की कीचड़ में फंसकर मर ही गई। जिसके बचाने के लिए आप आए थे वह न बचा !
ए शङ्कर भगवन् !-आपसे बिनयपूर्वक आज्ञा मांगकर आपकी सेवा में उपस्थित होता हूं - आपको तो हिमालय भाता था, आपको तो वेद श्रुति दर्शनग्रन्थ, ब्रह्मकान्ति के दर्शन, कोई और काम न करने देते थे, आपको कोई और हल न चलाना था। आपके दर्शनों ही से सूर्य और चन्द्र उसी नीली खेती में ज्योति स्वयमेव बोते थे। परन्तु मैं तो एक अपने अपवित्र देशनिवासियों के विरुद्ध अपील लेकर आया हूं, आपके जाने के बाद स[सं]न्यासाश्रम का नाश हो गया। सच कहता हूं, मेरे देश का संन्यास अपवित्र हो गया, क्षुद्र हो गया, आपने तो इन लोगों की खातिर अपने एकान्त के सुख को जो, आचार्य गौड़पाद ने भी न छोड़ा, त्यागकर इनके कल्याण के लिए दिग्विजय किया। काश्मीर से रामेश्वर तक आपने ब्रह्मकान्ति का गायन किया। परन्तु आपके जाने के बाद इस देश में गंगोत्तरी, हृषिकेश, केदारनाथ, बद्रीनारायण को भी अपवित्र कर दिया | गेरू रङ्ग को न तो पवित्र-धरा पर ही रहने दिया और न आपके शरीर पर । अब तो गेरुवा रंग मखमल के तकियों पर चमड़े की बग्घियों पर जागीरों और मठों के एकत्र किए हुए खजानों पर रखा है । दासत्व, कमजोरी, कमीनापन, कपट का पर्दा हो रहा है ।
भगवन् ! तीसरा नेत्र खोलकर ज़रा इस देश के गेरू रंगे उपदेशकों के अन्दर के अंधकार को क्यों नहीं देखते ? सारा देश तो आपके पीछे इनको आपका रूप जानने लगा है। परन्तु ज्यूं २ समय गुज़रता जाता है त्यूँ २ मृत्यु और दुःख भूख और नंगा इस देश में बढ़ रहा है । क्या ब्रह्मज्ञान का फल यही है ? महाराज ? सरस्वती देवी से तो आप ६ महीने हारे रहै, क्यों न आपने हार मान ली और उस देवी को अपने सिंहासन पर बिठाया और क्यों न आप इस देश में इस देवी का राज्य अटल कर गए। आप मेरे देशनिवासियों की माता हैं । फिर स्त्री और कन्या को राजतिलक यदि अपने हाथों दे जाते तब क्या शङ्कर का इस देश में जन्म लेना कभी भी ऐसा असम्भव होता जैसा अब हुआ है । मैं आपका बागी पुत्र आपसे प्रेम की लड़ाई करने आया हूं, आपको यह राज्य अब देना ही पड़ेगा आपके चरण इस पृथ्वी को स्पर्श कर चुके हैं, इस देश की रज को आपका स्वरूप मानकर मैं तो अब लो- यह राज्य दिए देता हूँ।
जब तक आर्यकन्या देश के घरों और दिलों पर राज्य नहीं करती तब तक इस देश में पवित्रता नहीं आती। जबतक देश में पवित्रता नहीं आती, तबतक बल नहीं आता । ब्रह्मचर्य का प्राचीन आदर्श मुख नहीं दिखलाता, देश में पवित्रता लाने का ए भगवन् ! अब तो पहिला संस्कार भारत कन्या को राज्यतिलक देना है।
सच है देश में अपवित्रता, समष्टिरूपसे है एक दो को यदि पवित्रता किन्हीं और साधनों से आ भी गई तो वह साधन क्या हुए जिन्होंने मेरी और तेरी आँख ठीक न की।
ब्रह्मचर्य का उलटा उपदेश
ब्रह्मचर्य का उपदेश इस देश में प्राचीन काल से चला आया और आजकल कोई ही समाज हो, मन्दिर हो, सभा हो, सत्सङ्ग हो जहां इस देश में ब्रह्मचर्य पालन के ऊपर उत्तम से उत्तम व्याख्यान और उपदेश न होते हों, परन्तु अपने दैनिक जीवन को देखो। कल यदि सात फ़ीट लम्बे आदमी थे तब आज ६ फ़ीट रह गए। कल के कालिजों में तो ५ फ़ीट के बालक पढ़ते थे आज ४ फीट के ही रह गये। क्या उलटा परिणाम है । न हृदय में बल, न बुद्धि में शक्ति, न मन में साहस, न उच्च बिचार न पवित्र जीवन, न दया, न धर्म, न धन न माल और इस देश में जहाँ ब्रह्मर्षियों ने संसार के आदि में गाया था :-
तेजोऽसि तेजो मयि धेहि ।
वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि ।
बलमसि बलं मयि धेहि ।
ओजोऽस्योजो मयि धेहि ।
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि ।
सहोऽसि सहो मयि धेहि ।। ९ ।। य० १९ । ९ ।।
और अफ्रीका के बहशी जिनको ब्रह्मचर्य का आदर्श कभी स्वप्न में भी नहीं आया, वे हमसे लम्बे, हमसे चौड़े और हमसे अधिक पराक्रमी हैं।
इंगलैंड (England) में जहां इस पर कभी भी इतना ज़ोर न दिया गया, वहां के आजकल के लड़के भी हम से अधिक लम्बे, चौड़े, बलवान, तेजवान् ज्ञानवान विद्वान, सम्पत्तिमान् बुद्धिमान् हैं । हमारी कन्याएँ दुर्बल, पीले रंग की, जवानी में भी बुड्ढी की समान, और उस देश की माताएँ और कन्याएँ ६-६ फुट ऊँची सुखीं और बल और तेज की हँसी लिए हुए अकेली सारे जगत् को प्रातःकाल चलकर घूमघाम शाम को घर पहुंच जाय ।
जापान को देखो, वहां किसी बालक को कभी भी ब्रह्मचर्य का आदर्श इस ज़ोर से इस अगड़ रगड़ से नलों से नहीं पिलाया जाता-- जैसे यहां, परन्तु सबके सब फूलों के समान खिले चहरेवाले हैं, बलवाले हैं, विद्यावाले हैं महान् अनुभवोंवाले हैं उच्च उद्देश्यवाले हैं । हर कोई कहता है-
डटकर खड़ा हुआ हूं खाली जहान में।
और तसल्ली दिल भरी है मेरी दम में जान में ।
कौन सी प्रलय आ गई कि हमारे देश से ब्रह्मचर्य का आदर्श अमली तौर पर विलकुल नष्ट भ्रष्ट हो गया । नज़र ही नहीं आता; मुझको देखो तुझको देखो, इसको देखो उसको देखो। सब जले भुने सड़े सड़ाए चेहरे लिए हुए आर्यऋषियों का नाम ले रहे हैं । बस महाराज ! ब्रह्मचर्य के इस विचित्र उपदेश को बन्द करो जिसमें तुमने स्त्रीजाति का तिरस्कार किया है । अमली तौर से वैराग्य के घने उपदेशों से स्त्रीजाति का तिरस्कार किया है। ब्रह्मचर्य अब इस अपवित्र देश में विना माता भक्ति के, कन्यापूजा के कभी भी स्थापित नहीं हो सकता । इस देश में क्या, कहीं भी ऐसा नहीं हो सकता । ईसा को ऐसा ही उपदेश करते २ हार हुई । बुद्ध को हार हुई, शङ्कर का दिग्वजय हार में बदल गया ? संन्यासी साधुओं के इस हार ने छक्के छुड़ा दिए। सारी फ़ौज इन स्त्रीजाति के अहित, ब्रह्मचर्य पालन करानेवाले जरनेलों की तित्तर बित्तर हो गई, पता ही नहीं लगता कहां गई?
जब यह हार गए तब इनके स्वरूप पर गढ़े हुए आश्रम और समाज स्कूल और कालिज कब जीत सकते हैं ? इन मांक Monk रुण्ड मुण्ड संन्यासी रूप विद्यालयों को क्यों बना रहे हो ? जो बुद्ध और शङ्कर का ईसा और चैतन्य का दर्शन न करा सका वह भला मातृरहित, भक्तिरहित, कन्यारहित B.A. M. A-साधारण अध्यापकों की मिट्टी और ईंट के रूखे सूखे घर कब करा सकते हैं ?
The idea of monastic celibacy has never brought and shall never bring purity into social life. It will ferment & bring impurity. Institutions educational or religious founded on such monastic ideas shall similarly never bring purity into home-life. They shall always encourage insincerity, hypocrisy and vaunt. They shall always turn out but a counterfeit life. The present day Indian imitation of the real & natural monks-The Buddha, the Christ, Newton, Kant, Walt Whitman & Spencer do nothing in their Ashrams but toll the death-knell of social purity. Running away into the caves of Himalayas from the sacred person of woman is disgraceful to the land of Buddh & Ram Krishna Parmahansa. Social purity shall prosper not through avoiding the company of woman, but through reverent worship of her as Goddess in all cases where we take her as mother, as sister, as wife, as daughter nay even as prostitute. ?
(आश्रमबद्ध ब्रह्मचर्य के विचार ने सामाजिक जीवन में न तो कभी पवित्रता उपस्थित की है और न कभी उपस्थित कर सकता है, यह उत्क्रामित होगा और अपवित्रता उत्पन्न करेगा । ऐसे आश्रमबद्ध विचारों पर आधारित शैक्षण या धार्मिक संस्थायें भी इसी प्रकार गार्हस्थ्य जीवन में कभी पवित्रता न प्रस्तुत करेंगी । वे सर्वदा कपट, पाखंड और दम्भ को प्रोत्साहन देंगी, सदैव एक धोखे का जीवन उपस्थित करेंगी | आज वास्तविक और सच्चे सन्तों- बुद्ध, न्यूटन, कांट, वाल्ट व्हिटमैन और स्पेंसर के भारतीय अनुयायी अपने आश्रमों में कुछ नहीं करते, बल्कि सामाजिक पवित्रता की मृतक क्रिया करते हैं । नारी के पवित्र व्यक्तित्व से दूर हिमालय की गुफाओं में भाग जाना बुद्ध तथा रामकृष्ण परमहंस के देश के लिए लज्जाजनक है। सामाजिक पवित्रता नारी के सामीप्य का परित्याग करने से अभिवृद्ध नहीं हो सकती, बल्कि वह उन्नत होगी नारी की उन प्रत्येक अवस्थाओं में उसे देवी के रूप में समझकर सम्मानपूर्ण आराधना करने से, जहाँ हम उसको माता-जैसी, बहन-जैसी, पत्नी-जैसी, पुत्री-जैसी मानते हैं, इतना ही नहीं गणिका के रूप में भी अपनाते हैं।
दान
दान लेना नहीं, दान देना भी एक पवित्रता का साधन माना जाता है परन्तु वह प्राचीन दान देने का भाव तो काफूर की तरह इस देश से उड़ गया है । दान देने से तो अपने पापों को जिनसे धन आजकल कमाया जाता है, उनको छिपाने की ग़रज़ है, पवित्रता के चिन्तन और ग्रहण से क्या प्रयोजन है ? जिस तरह रिश्वत दे देकर धन एकत्रित होता है उसी तरह ईश्वर को भी रिश्वत देकर स्वर्ग लेने की मनशा हो रही है । ऐसा इकट्ठा करके वैसे दे देना, धर्मशाला बनवा देनी, क्षेत्र लगवा देने, ईश्वर की आँखों में नमक डालकर अपने आपको चतुर कहना, भारतवर्ष के आज- कल के जीवन के निघण्टु में दान के अर्थ यही मिलते हैं । बस ! एकदम बन्द कर दो दान देने का और रुपया जमा कर सकते हो तौ करो, किसान की तरह अपना पसीना ज़मीन के अन्दर निचोड़ जो कुछ दाने मिलते हैं उनको खायो, स्वर्ग और ईश्वर को अपने तांबे और चांदी के रुपयों और सोने के डालरों से खरीदने इधर उधर मत भागो । भूखे मर रहे हो, खुद खाओ और अपने बालबच्चा को खिलाओ और कुछ काल के लिये चुप हो जावो । अपने बच्चों को विद्या दान दो, बुद्धि दान दो, यही तुझा [म्हा] रा और यही ईश्वर का स्वर्ग है । कहां हैं तुझा [म्हा] रे साधु, जिनके हुकुम से हाथ बांधे ये कलकत्ते के सेठ या पिशावर के ठेकेदार गुलाम फिर रहे हैं, अगर वे साधु हैं तो क्यों नहीं ब्रह्मतेज से इनका शासन करते ? क्यों नहीं ताड़ते ? उल्लुओं के स्वर्ग क्यों बनने देते हैं ? हे राम ! इनको क्या हो गया है कि सती स्त्रियों के गहने बिचवा २ कर अपना अमूल्य सिर छिपाने के लिये लाख २ रुपयों की कुटिया बनवा रहे हैं जहां मार्कण्डेय ने अपनी सारी आयु तारों की धीमी २ रोशनी के नीचे काट दी। कौनसे क्षेत्रों से ये रोटी खा रहे हैं ? जहां गरीबों का लहू निचोड़ २ ज़ालिम रोटियां बनवा रहे हैं।
तप
बहुत उछले तो पवित्रता के साधन के लिये महाराज पतञ्जलि का ग्रन्थ उठा लिया । होने लगे अब जप तप । माला पकड़ी, आँख मूंद बैठे, ध्यान होने लगा है ! अजी ! ध्यान किस वस्तु का, किस स्वरूप को देखने को आँख मूंदी हैं ? वहाँ तो कुछ नहीं मन कैसे लगे ? एक दो घण्टे मन को वे लगाम दौड़ाकर “शान्तिः शान्तिः शान्तिः” कर योगीजी नज़र ज़मीन पर लगाए हुए हैं। वह किसी अंगरेज के दफ्तर के हैडक्लर्क जा रहे हैं । कलम जब चलती है दूसरों का गला काटती है । लिखते तो ठीक मेलट्रेन की तरह हैं, क्यों न हो ? योग का बल हाथ में है।
पतञ्जलि जी महाराज ने अपना ग्रन्थ मनुष्यों के लिये लिखा था। पशु तौ उसका पाठ भी नहीं कर सकते। पतञ्जलि महाराज की कृपा कटाक्ष से आपको कुछ बुद्धि उत्पन्न हो गई थी। मैंने तो पक्षी और पशुओं को भी जप तप संयमका साधन करते देखा । यह महाग्रन्थ काठके पुतलों के लिये कदापि नहीं लिखा गया जिनके हाथ में माला आई और सहस्रों वर्ष व्यतीत हुए । माला के मनके ही फिर रहे हैं । जप के साधनों का भी अन्त नहीं हुआ, कुटिलता, नीचता, कपटता अन्दर भरी हुई है और माला मनकों के ऊपर से हज़ारोंवार चली जाती है और इतनी सदियाँ हुइँ [हुईं] अब तक चली ही जा रही है । जब तक हम मनुष्य नही बन जाते तब तक न कोई गुरु, न कोई वेद, न कोई शास्त्र, न कोई उपदेश तुह्मा[म्हारे लिए कल्याण का साधन हो सकता है।
इसका सबूत मांगो तो इस बाहर से माने हुए भारत निवासियों के मकान, गली, कूचे, घर का जीवन और सदियों का लम्बा जीवन देख लो। किसी ने इन काठके पुतलों को जो कहा कि तुम ऋषिसन्तान हो, बस ! अब हम ऋषिसन्तान हैं । इसकी माला फिरनी शुरू हुई ! इधर तौ योग प्राप्त न हुआ, कैवल्य का कुछ मुख न देखा, इधर अब माला शुरू हुई है, देखिये ये कब ऋषिरूप होते हैं । हमारी अवस्था भयानक है। मेरे विचार में प्राचीन ऋषियों के साथ आज कल के भारतनिवासी उनकी शूद्रों की श्रेणी से भी कम पदवी के हैं, वे ऋषि अब होते तो सच कहता हूं हमको म्लेच्छ कहकर हमसे धर्म- युद्ध रचते और हमें इस देश से निकाल इस धरती को फिर से आर्य भूमि बनाते । उन्होंने असुरों से युद्ध मचाया ही था और असुरों को परास्त किया ही था। जब असुरों को सहार न सके तो हम मैले कुचैले लोगों को अपने पास कब फटकने देते । क्या असुर, जन्म से उनके पुत्र पौत्र नहीं थे ?
ज्ञान
तप नहीं, दान नहीं, ज्ञान ही सही। हाय ! वह वस्तु जिसको पाकर शाक्यमुनि बुद्ध हो गये । जिसको पाकर मीराबाई हमारे हृदय और बुद्धि को हिला देनेवाले बल में बदल गई । ज्ञान जिसको पाकर एक तरखान का बच्चा आधे जगत् का अधिपति हो गया। जिसको पाकर जुलाहे चमार चण्डाल, ब्राह्मणों से भी उत्तम पदवी को प्राप्त हो गए। जिसके चमत्कार से बालक ध्रुव अटल पदवी को पाकर न हिलनेवाला तारा हो गया । वह ज्ञान जिसकी महिमा गाते २ महाप्रभु चैतन्य अपनी सारी विद्या को भूल गये। जिसके महत्त्व से एक ऊँट लादनेवाला चाकर ऐसा बलवान हुआ कि कुल पृथ्वी उस ज्योतिष्मान् पुरुष के बल से उभड़ उठी। उसके आ जाने से तो और भला क्या वाकी रहा परन्तु नहीं, भारतनिवासियों ने एक प्रकार की पुड़िया और गोली बनाई है जिसको खाते ही चन्द्रमा चढ़ जाता है, ज्ञान हो जाता है । वह हो पास तौ फिर कुछ और दरकार नहीं होता। ओ जगत्वालो ? बड़ी भारी ईजाद हुई है छोड़ दो अपनी पदार्थविद्या, जाने दो यह रेल, यह जहाज़, ये नये २ उड़नखटोले, हवा में तैरनेवाले लोहे के जंजीरे, प्रकृति की क्यों छान वीन कर रहे हो ? इससे क्या लाभ ? हृषीकेश में वह अनमूल्य गोली बिकती हैं, और सिर्फ दो चपाती के दाम, जिस गोली के खाने से सारे जन्म कट जाते हैं, सब पाश टूट जाते हैं, और जीवनमुक्त हो सारे संसार को अपनी उङ्गलियों पर नचा सकोगे, विना नेत्र के, बिना बुद्धि के, बिना विद्या के, बिना हृदय के, बुद्धवाली निवाण, पतञ्जलि वाली कैवल्य, वैशेषिक वाली विशेष, वेदान्तवाली विदेहमुक्ति मिलती है, बेचनेवाले देखा वो जा रहे हैं, तीन चार पुस्तकें हाथ में हैं और तीन चार पुस्तकें बगल में, आपको इन दो पुस्तकों के पढ़ने से ही ब्रह्मकी प्राप्ति हो गई है, ज्ञान हो गया है, एक वेचारा पंजाबी साधु गाता था-
"अगे आप खुदा कहा ऊँ देसां,
हुण बन बैठे खुदा दे प्यो यारो"
जब कि दूसरे ने यह वाक्य उच्चारण किया था-
"सन जोड़े सन कपड़े ये तौ आप खुदा,
जो मूरख नहीं तिसको भया सौदा,"
प्यारे पाठक ! पुस्तकों के ज्ञान से क्या लाभ ? जो अपने जीवन का ही कुछ पता नहीं, पुस्तकें हमारे पास पड़ी हैं, और वह भी अंधेरी रात में । दोनों सोते हैं कोई ज्योति चाहिये, कोई इन्द्र की कला चाहिये- जिसके मरोड़ने से बिजली के लेम्प जल उठे, उस समय तो, अगर जी चाहै तो एक आध पुस्तक का एक आध अक्षर पढ़ने से भी कुछ समझ पड़े और कुछ लाभ हो। बात बहुत लम्बी होती जाती है, इन चचोलों से इन मखोलों से इन स्वप्नों से इस देश में कब पवित्रता आती है, ये तमाशे सारे ही अच्छे हैं, और ऊपर लिखे हुए कई एक साधन अधिक से अधिक पवित्रता के दाता हैं, पवित्रतावर्धक हैं परन्तु किसी २ को तो ये सब रोग के बढ़ाने के कारण होते हैं विद्या कैसी अच्छी चीज है, परन्तु कमीनेपन को [की] विद्या अर्थात् केवल पुस्तकपूजा तो अधिक से अधिक उन्नति देती है, चतुरता आती है, कमीनेपन और नीचता के लिये उत्तम से उत्तम शस्त्र [शास्त्र] और दलील प्रमाण मिल जाते हैं, बल कैसी उत्तम चीज़ है, परन्तु एक ज़ालिम के हाथ यह भी तो नीचता को अधिक करता है, धन इस समय के प्रचलित जीवन में कितना बड़ा संचित ज़ोर है, परन्तु देखो तो सही क्या कर रहा है ?-
इस तरह से हमें साधनों के अच्छे बुरे होने पर कोई पण्डिताई पूर्ण व्याख्या नहीं करनी, मुझे तो अपने देश की अपवित्रता के दूर करने और अपने भाई बहनों को मनुष्य बनाने के साधनों को देखना है, जब हम मनुष्य बन जायेंगे तब तो तलवार भी, ढाल भी, जप भी, तप भी, ब्रह्मचर्य भी वैराग्य भी सब के सब हमारे हाथ के कङ्कणों की तरह शोभायमान होंगे, और गुणकारक होंगे, इस बास्ते बनो पहिले साधारण मनुष्य, जीते जागते मनुष्य, हँसते खेलते मनुष्य, नहाये धोये मनुष्य, प्राकृतिक मनुष्य, जानवाले मनुष्य, पवित्रहृदय पवित्र बुद्धिवाले मनुष्य, प्रेम भरे, रस भरे, दिल भरे, जान भरे, प्राण भरे मनुष्य । हल चलानेवाले, पसीना बहानेवाले, जान गँमानेवाले, सच्चे, कपट रहित, दरिद्रता रहित प्रेम से भीगे हुए, अग्नि से सूखे हुए मनुष्य, आवो सब परिवार मिलकर कुछ यत्न करें।
(इति पूर्वार्द्धम्)
प्रकाशन काल-अगहन-पौष संवत् १९६६ वि.
दिसम्बर १९०९-जनवरी १९१०
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