पतझर में टूटी पत्तियाँ : रवीन्द्र केलकर-अनुवाद : माधवी सरदेसाई
Patjhar Mein Tootee Pattiyan : Ravindra Kelekar
गाँधीवादी विचारक, कोकणी एवं मराठी के शीर्षस्थ लेखक और पत्रकार रवीन्द्र केलेकर के प्रेरक प्रसंगों का अद्भुत संकलन है ‘पतझर में टूटी पत्तियाँ’। केलेकर का सम्पूर्ण साहित्य संघर्षशील चेतना से ओतप्रोत है। ‘पतझर में टूटी पत्तियाँ’ में लेखक ने निजी जीवन की कथा-व्यथा न लिखकर जन-जीवन के विविध, पक्षों,मान्यताओं और व्यक्तिगत विचारों को देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। अनुभवजन्य टिप्पणियों में अपने चिन्तन की मौलिकता के साथ ही, इनमें विविध प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से मानवीय सत्य तक पहुँचने की सहज चेष्टा है। इस दृष्टि से देखा जाय तो यह कृति अपने पाठकों के लिए मात्र पढ़ने-सुनने की नहीं, एक जागरूक एवं सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा देती है। ये आलेख कोंकणी में प्रकाशित केलेकर की कृति ‘ओथांबे’ से चुनकर अनूदित किये गये हैं। अनुवाद किया है माधवी सरदेसाई ने,जो गोवा विश्वविद्यालय के कोंकणी विभाग में भाषा-विज्ञान की वरिष्ठ अध्यापिका हैं। यह महत्वपूर्ण कृति हिन्दी पाठकों को समर्पित करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।
प्राक्कथन
जिस बात को कहने के लिए दूसरों को एक पूरी
पुस्तक लिखनी
पड़ती है-फिर भी वे कभी-कभी वह नहीं कह पाते जो वे कहना चाहते हैं, उसी
बात को दस पंक्तियों में लिखने की महत्त्वाकांक्षा सामने रखकर जर्मन
दार्शनिक फ्रेडेरिक नित्शे ने ‘Twilight of Idols और
‘Anti-Christ’ जैसी पुस्तकें लिखीं। मैंने ये
पुस्तकें पढ़ीं
तब लगा-जिसे कहने के लिए मैं पूरा एक निबन्ध लिखकर पाठकों के सामने रखता
आया हूँ, वह भले ही दस पंक्तियों में न हो, पर डायरी के एक दो पृष्ठों में
तो लिखने की कोशिश करके देखनी ही चाहिए। प्रसार माध्यमों की वृद्धि की वजह
से आजकल शब्दों का काफी अवमूल्यन हुआ है। शब्दों का कम-से-कम उपयोग करके
ज्यादा से ज्यादा कहने की कोशिश में शब्दों का मूल्य बढ़ता है या नहीं यह
देखना चाहिए। और मैं इस तरह के चिन्तन लिखता रहा।
इन चिन्तनों में से कुछ चुनकर कोंकणी में ‘ओथांबे’
नाम की एक
पुस्तक पाँच साल पहले लिखी थी। उसी पुस्तक का यह हिन्दी अनुवाद मेरी बेटी
चि. माधवी रसदेसाई ने किया है। मैंने यह अनुवाद देखा है और मुझे उससे
सन्तोष है।
सावन में जब कभी बारिश जाने के बाद पेड़ों के पत्तों से टपक-टपक कर जो
बूँदें गिरती हैं उन्हें कोंकणी में ‘ओथांबे’ कहते
हैं।
‘ओथांबे’ के लिए हिन्दी में क्या शब्द है यह न तो चि.
माधवी
को सूझा, न मुझे। इसलिए पुस्तक का नाम ‘पतझर में टूटी
पत्तियाँ’ रख दिया, अच्छा लगा।
जो कुछ कहना था, पुस्तक में कह दिया है। हिन्दी-जगत् इसका किस तरह स्वागत
करता है यह देखने की अब उत्सुकता है।
रवीन्द्र केलकर
1
शुद्ध सोना अलग है और गिन्नी का सोना अलग।
गिन्नी के सोने
में थोड़ा-सा ताँबा मिलाया हुआ होता है, इसलिए वह ज्यादा चमकता है और
शुद्ध सोने से मजबूत भी होता है। औरतें अकसर इसी सोने के गहने बनवा लेती
हैं।
फिर भी होता तो वह है गिन्नी का ही सोना।
शुद्ध आदर्श भी शुद्ध सोने के जैसे ही होते हैं। चन्द लोग उनमें
व्यावहारिकता का थोड़ा-सा ताँबा मिला देतें हैं और चलाकर दिखाते हैं। तब
वह लोग उन्हें ‘प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट’ कहकर उनका
बखान करते
हैं।
पर बात न भूलें की बखान आदर्शों का नहीं होता, बल्कि व्यावहारिकता का होता
है। और जब व्यावहारिकता का बखान होने लगता है तब ‘प्रैक्टिकल
आइडियालिस्टों’ के जीवन से आदर्श धीरे-धीरे पीछे हटने लगते हैं
और
उनकी व्यावहारिक सूझबूझ ही आगे आने लगती है।
सोना पीछे रहकर ताँबा ही आगे आता है।
चन्द लोग कहते हैं, गाँधी जी ‘प्रैक्टिकल
आइडियालिस्ट’ थे।
व्यावहारिकता को पहचानते थे। उसकी कीमत जानते थे। इसलिए वे अपने विलक्षण
आदर्श चला सके। वरना हवा में ही उड़ते रहते। देश उनके पीछे न जाता।
हाँ, पर गाँधी जी कभी आदर्शों को व्यावहारिकता के स्तर पर उतरने नहीं देते
थे। बल्कि व्यावहारिकता को आदर्शों के स्तर पर चढ़ाते थे। वे सोने में
ताँबा नहीं बल्कि ताँबे सोना मिलाकर उसकी कीमत बढ़ाते थे।
इसलिए सोना ही हमेशा आगे आता रहता था।
व्यावहारवादी लोग हमेशा सजग रहते हैं। लाभ-हानि का हिसाब लगाकर ही कदम
उठाते हैं। वे जीवन में सफल होते हैं, अन्यों से आगे भी जाते हैं पर क्या
वे ऊपर चढ़ते हैं ? खुद ऊपर चढ़ें और अपने साथ दूसरों को भी ऊपर ले चलें,
यही महत्त्व की बात है। यह काम तो हमेशा आदर्शवादी लोगों ने ही किया है।
समाज के पास अगर शाश्वत मूल्यों जैसा कुछ ही तो वह आदर्शवादी लोगों का ही
दिया हुआ है। व्यावहारवादी लोगों ने तो समाज को गिराया ही है।
2
सुकरात लोगों से पूछता,
‘‘तुम्हारा जूता टूट जाए तो
उसे जोड़ने के लिए तुम किसके पास जाओगे ?’’
‘‘मोची के पास।’’ लोग जवाब देते।
‘‘मोची के पास ही क्यों ? बढ़ई के पास क्यों नहीं
?’’
‘‘क्योंकि जूते बनाने-जोड़ने का काम मोची का है, बढ़ई
का नहीं।’’ लोग जवाब देते।
‘‘अच्छा, मान लो, तुम्हारी माँ बीमार है। तो दवाई के
बारे में तुम किसकी सलाह लोगे ?’’
‘‘डॉक्टर की।’’ लोग जवाब देते।
‘‘डॉक्टर की ही क्यों ? वकील की क्यों नहीं
?’’
‘‘क्योंकि दवाई की जानकारी डॉक्टरों को ही होती है,
वकीलों को नहीं।’’
सुकरात इस प्रकार, लोगों से एक के बाद एक प्रश्न पूछता था और उनसे जवाब
पाने की कोशिश करता था। फिर हँसता हुआ कहता था,
‘‘सज्जनों,
जूता सिलवाना हो तो तुम मोची के पास जाते हो, मकान बनवाना हो तो मिस्त्री
की मदद लेते हो। फर्नीचर बनवाना हो तो बढ़ई को काम सौंपते हो। बीमार पड़ने
पर डॉक्टरों की सलाह लेते हो। किसी झमेले में फँस जाते हो तब वकीलों के
पास दौड़ते हो। क्यों ? ये सब लोग अपने-अपने क्षेत्र के जानकार हैं इसीलिए
न ? फिर बताओ, राजकाज तुम ‘किसी के भी’ हाथ में कैसे
सौंप
देते हो ? क्या राजकाज चलाने के लिए जानकारों की जरूरत नहीं होती ?
ऐरे-गैरों से काम चल सकता है ?’’
स्वराज्य में हमने लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं में ‘किसी को
भी’ भेज दिया, ‘किसी को भी’ मन्त्री बना
दिया। हमने
उनका अनुभव वगैरह कुछ नहीं देखा। देखी सिर्फ उनकी जाति या उनका धर्म।
नतीजा-मौजूदा सरकार से पहले की सरकार अच्छी थी, उससे अच्छी उससे पहले की
थी, यह कहते-कहते अन्त में सबसे अच्छी अँग्रेजों की थी, इस नतीजे पर आ
पहुँचते हैं।
लोकतन्त्र को बचाना हो तो किसी-न-किसी को समाज में सुकरात की भूमिका
निभानी ही होगी। लोगों से प्रश्न पूछ-पूछकर उन्हें सजग करने का काम करना
होगा। हो सकता है, लोगों को वह असहनीय मालूम हो और लोग उसे जहर पिलाने के
लिए उद्यत हो जाएँ।
लेकिन यह कीमत हमें स्वराज्य और लोकतन्त्र को बचाने के लिए चुकानी ही होगी।
3
मेरे और उनके विचारों में जमीन-आसमान का
अन्तर है। मैं मानता हूँ, ठीक
उससे उल्टा वे मानते हैं। और वे मेरे पड़ोस में रहने आये हैं !
मुझे क्या करना चाहिए ? इनके पड़ोस में मुझे रहना नहीं है, कहकर यहाँ से
और कहीं चले जाना चाहिए ? नहीं, मैं बेबस आदमी नहीं हूँ। मुझे यहाँ से
खिसकना नहीं चाहिए। तो क्या, उन्हें मेरे विचारों के अनुरूप ढालने के
प्रयासों में लग जाना चाहिए ? नहीं, मैं बेवकूफ नहीं हूँ। क्या उनसे बोलना
बन्द कर देना चाहिए ? उनसे कोई सम्बन्ध ही न रखना चाहिए ? नहीं, मैं
बुजदिल नहीं हूँ। मेरे सामने एक ही रास्ता है। उनसे दूर भागने, सम्बन्ध
तोड़ने या उन्हें अपने विचारों का बनाने के प्रयास करने के बजाय उनके
पड़ोस में ही रहकर मुझे अपने विचारों को लेकर चलना चाहिए और उन्हें अपने
विचारों से चलने देना चाहिए। हो सके तो उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए।
सौ फीसदी मतभेद तोअपने कट्टर दुश्मनों से भी नहीं होते। दस फीसदी मदभेद
हों तो नब्बे फीसदी ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ हम साथ-साथ काम कर सकते हैं।
मतभेद तो विचारों की दुनिया की शान है।
जैनों का एक सिद्धान्त है, जिसे वे स्याद्वाद कहते हैं। वे कहते हैं कि
सम्पूर्ण सत्य तो किसी को भी पूर्णरूप से दिखाई नहीं देता। किस जगह पर
खड़े रहकर उसकी ओर हम देखते हैं, इसी पर हमारे सत्य का दर्शन निर्भर होता
है। और ऐसी जगहें तो अनगिनत हैं। मान लीजिए किसी सैलानी ने हमसे पूछा,
गोवा किस ओर है ? वह दिल्ली का हो तो हमारा जवाब होगा, गोवा दिल्ली के
दक्षिण की ओर है और वह बैंगलोर का हो तो हम कहेंगे गोवा बैंगलोर के उत्तर
की ओर है। गोवा से अगर पूछें तो वह कहेगा, मुझे जहाँ होना चाहिए मैं वही
हूँ। हाँ, दिल्ली मेरे उत्तर दिशा में है, और बैंगलोर दक्षिण की ओर है।
इनमें से एक भी जवाब झूठा नहीं है। सभी सत्य हैं। लेकिन अलग-अलग जगहों पर
खड़े रहकर उत्तर दिये हुए हैं। इस सत्य की अगर प्रतीति हो जाए तो अनेक
परस्पर विरोधी विचारों के लोग एक-दूसरे के पड़ोस में जरूर रह सकेंगे।
4
जापान में मैंने अपने एक मित्र से पूछा,
‘‘यहाँ के
लोगों को कौन-सी बीमारियाँ अधिक होती हैं ?’’
‘‘मानसिक’’, उन्होंने जवाब दिया,
‘‘यहाँ के अस्सी फीसदी लोग मनोरुग्ण
हैं।’’
‘‘इसकी क्या वजह है ?’’
कहने लगे, ‘‘हमारे जीवन की रफ्तार बढ़ गयी है। यहाँ
कोई चलता
नहीं बल्कि दौड़ता है। कोई बोलता नहीं, बकता है। हम जब अकेले पड़ते हैं,
तब अपने आपसे लगातार बड़बड़ाते रहते हैं।...अमरीका से हम प्रतिस्पर्धा
करने लगे। एकमहीने में पूरा होने वाला काम एक दिन में ही पूरा करने की
कोशिश करने लगे। वैसे भी दिमाग की रफ्तार हमेशा तेज ही रहती है। उसे
‘स्पीड’ का इंजन लगाने पर वह हजार गुना अधिक रफ्तार
से दौड़ने
लगता है। फिर एक क्षण ऐसा आता है, जब दिमाग का तनाव बढ़ जाता है और पूरा
इंजन टूट जाता है।...यही कारण है, जिससे मानसिक रोग यहाँ बढ़ गये
हैं।...’’
शाम को वह मुझे एक ‘टी सेरेमनी’ में ले गये। चाय पीने
की यह एक विधि है। जापानी में उसे चा-नो-यू कहते हैं।
वह एक छ: मंजिली इमारत थी, जिसकी छत पर दफ्ती की दीवारोंवाली और तातामी
(चटाई) की जमीनवाली एक सुन्दर पर्णकुटी थी। बाहर बेढब-सा एक मिट्टी का
बर्तन था। उसमें पानी भरा हुआ था। हमने अपने हाथ-पाँव इस पानी से धोये।
तौलिए से पोंछे और अन्दर गये। अन्दर ‘चाजीन’ बैठा था।
हमें
देखकर वह खड़ा हुआ। कमर झुकाकर उसने हमें प्रणाम किया। दो...झो (आइए,
तशरीफ लाइए) कहकर स्वागत किया। बैठने की जगह हमें दिखायी। अँगीठी सुलगायी।
उस पर चायदानी रखी। बगल के कमरे में जाकर कुछ बर्तन ले आया। तौलिये से
बर्तन साफ किये। सभी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण ढंग से कीं कि उसकी हर
भंगिमा से लगता था मानो जयजयवन्ती के सुर गूँज रहे हों। वहाँ का वातावरण
इतना शान्त था कि चायदानी के पानी का बदबदाना भी सुनाई दे रहा था।
चाय तैयार हुई। उसने वह प्यालों में भरी। फिर वे प्याले हमारे सामने रख
दिये गये। वहाँ हम तीन मित्र ही थे। इस विधि में शान्ति मुख्य बात होती
है। इसलिए वहाँ तीन से अधिक आदमियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। प्याले में
दो घूँट से अधिक चाय नहीं थी। हम ओठों से प्याला लगाकर एक-एक बूँद चाय
पीते रहे। करीब डेढ़ घण्टे तक चुसकियों का यह सिलसिला चलता रहा।
पहले दस-पन्द्रह मिनट तो मैं उलझन में पड़ा। फिर देखा, दिमाग की रफ्तार
धीरे-धीरे धीमी पड़ती जा रही है। थोड़ी देर में बिलकुल बन्द भी हो गयी।
मुझे लगा, मानों अनन्तकाल में मैं जी रहा हूँ। यहाँ तक कि सन्नाटा भी मुझे
सुनाई देने लगा।
अकसर हम या तो गुजरे दिनों की खट्टी-मीठी यादों में उलझे रहते हैं या
भविष्य के रंगीन सपने देखते रहते हैं। हम या तो भूतकाल में रहते हैं या
भवि्ष्यकाल में। असल में दोनों काल मिथ्या हैं। एक चला गया है, दूसरा आया
नहीं है। हमारे सामने जो वर्तमान क्षण है, वही सत्य है। उसी में जीना
चाहिए। चाय पीते-पीते उस दिन मेरे दिमाग से भूत और भविष्य दोनों काल उड़
गये थे। केवल वर्तमान क्षण सामने था। और वह अनन्तकाल जितना विस्तृत था।
जीना किसे कहते हैं, उस दिन मालूम हुआ।
झेन परम्परा की यह बड़ी देन मिली है जापानियों को !
5
बस स्टॉप पर मैं अपनी बस की प्रतीक्षा कर रहा
था। वहीं
‘भैया, बच्चे को कुछ दे दो’ कहकर एक भिखारिन ने मेरे
सामने
हाथ फैलाया। मैंने अपनी जेब टटोली। एक रुपये का सिक्का मिला। मैंने उसे दे
दिया।
मेरे साथ एक मित्र कतार में खड़े थे। कहने लगे,
‘‘भिखारियों
को पैसे देने की यह आदत अच्छी नहीं है। भीख माँगना आजकल अच्छा-खासा धंधा
बन गया है। ऐसे लोगों से काम करने को कहना चाहिए।’’
मेरे पास जवाब था, लेकिन देने की इच्छा नहीं हुई। खामखाँ रास्ते पर ही बहस
छिड़ जाती।
मन बरसों पीछे चला गया।
मैं मुंबई से दिल्ली जा रहा था। दोपहर के समय ट्रेन एक बड़े स्टेशन पर
रुकी। बीस मिनट का पड़ाव था। वहीं मेरी थाली आयी। खाना शुरू करने ही जा
रहा था कि ‘भैया, बच्चे को कुछ दे दो’ कहकर एक
भिखारिन हाथ
फैलाये खिड़की के सामने आकर खड़ी हो गयी। ‘कम्बख्त, ठीक इसी
वक्त
आयी है’ कहकर मैंने उसे मन ही मन कोसा। दिल कठोर करके उसे आगे
जाने
को कहा और खिड़की बन्द कर दी।
लेकिन गले के नीचे कौर उतरे तब न ! थोड़ी देर उधेड़बुन में पड़ा रहा। मन
ही मन मैंने अपने को कोसते हुए कहा-बेचारी लाचार है, इसीलिए भीख माँग रही
है। उसका यह धन्धा थोड़ी ही है ! समाज उसे काम नहीं दे सका इसलिए उसके
सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं रहा...काम मिलता तो भीख कौन माँगता ? उसे
‘आगे जाओ’ कहकर मैंने खिड़की बन्द कर दी थी, इस बात
पर मुझे
अब शर्म महसूस होने लगी। दूसरे ही क्षण मैंने निर्णय ले लिया। एक रोटी पर
थोड़ी सब्जी अपने लिए अलग रख ली और बाकी की सारी थाली भिखारिन को देने की
सोची। खिड़की खोल दी। बाहर वह भिखारिन नहीं दिखी। मैं उसे ढूँढ़ने
प्लेटफॉर्म पर उतरा। वह कहीं नजर नहीं आयी। मैं अपना-सा मुँह लेकर डिब्बे
में लौट आया। अपने लिए अलग रखी हुई रोटी और सब्जी फिर से थाली में रख दी
और थाली सीट के नीचे सरका दी।
गाड़ी छूटने के समय वेटर आया। वह पैसे और थाली दोनों ले गया।
मेरी बगल में एक नवजवान बैठा था। इण्टरव्यू के लिए दिल्ली जा रहा था। बड़ा
बातूनी था। ऐन रैण्ड की पुस्तक पढ़ रहा था। उसके साथ देर शाम तक बातें
करता रहा।
ट्रेन तेज रफ्तार से दौड़ रही थी। रात को एक बड़ा स्टेशन आया, जहाँ वह रुक
गयी। वहाँ मेरी थाली आयी। मैं खाने जा ही रहा था कि मुझे उस भिखारिन की
वही आवाज फिर से सुनाई दी-‘भैया, बच्चे को कुछ दे
दो।’
‘अच्छा ! तो यह हमारे साथ ट्रेन में ही है !’ मैंने
आश्चर्यचकित होकर अपने आपसे कहा और अपनी थाली उसे देने को हुआ। अचानक मेरी
नजर भिखारिन के चेहरे पर पड़ी। हक्का-बक्का होकर उसे देखने लगा। मैं
बुदबुदाया, ‘‘तुम ? भीख माँग रही हो ? नहीं...मैं जब
तक
जिन्दा हूँ तुम्हें इस हालत में कभी नहीं पड़ने दूँगा....कभी
नहीं...।’’ यह कहकर मैं सिसकियाँ लेने लगा।
मैंने स्वप्न में अपनी माँ को भीख माँगते देखा था।
ट्रेन छुक-छुक-छुक-छुक करके दौड़ रही थी।
तब से किसी भी भिखारिन को ‘आगे जाओ’ कहने की हिम्मत
मुझे नहीं होती। जेब में जो कुछ हाथ आता है, निकालकर दे देता हूँ।
6
बरसों से हम इसी रास्ते को, जिस पर हम चल रहे
हैं, सही
मानते आये। अब मालूम हुआ कि यह सही रास्ता नहीं, बल्कि गलत है। जिस मंजिल
पर पहुँचना चाहते हैं वहाँ ले जाने वाला नहीं है। मगर, यकायक उसे छोड़
कैसे दें, इस उलझन में उसी रास्ते पर हम अब भी चल रहे हैं।
गाँधीजी के रास्ते चलते, तो गरीबों को कम से कम दो रोटियाँ तो हम मुहैया
करा ही देते। गरीबी कुछ हद तक कम हो जाती। पर हमने इस रास्ते को पुराना,
सोलहवीं सदी का माना और उसे छोड़ दिया। बदले में जवाहरलाल नेहरू का चार
रोटियाँ देने की इच्छा रखने वाला ‘आधुनिक’ रास्ता
अपनाया। इस
रास्ते पर चलते अब हमें पचास साल से ज्यादा हो गये। गरीबों को आधी रोटी भी
हम मुहैया नहीं करा सके। इस प्रतीति के बाद भी हम यह रास्ता छोड़ना नहीं
चाहते। इसी रास्ते पर चलने की ख्वाहिश रखते हैं।
हमने गलत रास्ता अपनाया है, यह कबूल करने की नैतिक हिम्मत देश के
कर्णधारों में नहीं है।
हम सारी दुनिया को धोखा दे सकते हैं। अपने आपको कैसे देंगे ?
जहाँ नींद खुल जाती है, वहीं से हमारी सुबह शुरू होती है। इस अर्थ का एक
मुहावरा गुजराती भाषा में है-‘जाग्या त्यॉथी सवार।’
गोवा से
मुम्बई जाने के लिए निकला हुआ आदमी मंगलूर पहुँच जाए तो कहना चाहिए, वह
गलत रास्ते जा रहा है। और इसी रास्ते आगे जाने की वह जिद ठान ले तो उसे
बताना चाहिए, ‘भाई, तुम इसी रास्ते आगे बढ़ोगे तो कोचीन पहुँच
जाओगे, कन्याकुमारी पहुँचोगे।’ यहाँ तक कि दक्षिण ध्रुव तक भी
जा
सकते हो मगर मुम्बई नहीं पहुँचोगे। गलत रास्ते से चलनेवाले के कदम सही
रास्ते पर कभी नहीं पड़ते। अपनी तय की हुई मंजिल पर वह कभी नहीं पहुँच
सकता। इसने साल हम इसी रास्ते चलते आये, अब उसे कैसे छोड़ सकते हैं, यह
कहना बुद्धिमानी का लक्षण नहीं है। गलत रास्ता छोड़ देने में ही
बुद्धिमानी है। एक बार निर्णय लेना पड़ेगा-‘हम गलत रास्ते पर
नहीं
चलेंगे...नहीं यानी नहीं, कभी नहीं। बस, सारी उधेड़-बुन दूर हो जाएगी और
जिस रास्ते चलना चाहिए, उसी रास्ते पर कदम पड़ते रहेंगे।
अपना रास्ता गलत था यह जवाहरलाल को आखिर में महसूस हो गया था। पर रास्ता
बदलने का निश्चय करने के पहले ही वे चल बसे। दुर्भाग्य से उनके
उत्तराधिकारी भी उसी गलत रास्ते चलते रहे। नतीजा-समाजवाद के स्वर्ग में
जाने के लिए निकले हुए हम लोग विश्व बैंक के मुक्त बाजार की दलदल में फँस
गये।
7
यूँ तो हम सब समान हैं। लेकिन मैं जिस तरह से
सोचता हूँ उस
तरह से दूसरा नहीं सोचता। हर एक के सोचने का ढंग अलग होता है। हर एक की
रुचि अलग होती है। हर एक की कार्यपद्धति अलग होती है। क्योंकि हर एक के
संस्कार अलग होते हैं। इसलिए दो अन्तरंग मित्रों के बीच भी मतभेद होते
हैं। यही नहीं, दोनों के बीच कभी-कभी गलतफहमियाँ भी हो जाती हैं।
आज की सभ्य दुनिया में औचित्य के बारे में कुछ गलत धारणाएँ प्रचलित हैं।
अपने अन्तरंग मित्र के बारे में मन में कोई शंका पैदा हो जाए तो मैं
निखालिसता के साथ उसे बताता नहीं। उसे बुरा न लगे इस डर से मैं बताने से
हिचकिचाता हूँ। लेकिन तीसरे किसी को बिना दुविधा के बता देता हूँ। कभी-कभी
किसी दूसरे नाम से लिख भी डालता हूँ और अखबारों में भी भेज देता हूँ।
अनुभव यह है कि मैं जो तीसरे से कहता हूँ, वह उसे मालूम हो ही जाता है।
अखबारों में देता हूँ तो वह किसने लिखा है, यह भी उसे पता चल ही जाता है।
और उसका मन दूषित होता है।
एक नीतिवचन सुना था-
आज का तुम्हारा मित्र कल शत्रु बन सकता है। इसी तरह आज का शत्रु कल मित्र
बन सकता है। आज का मित्र कल शत्रु बनने पर तुम्हारे मर्म दुनिया के सामने
खोल सकता है। इसलिए आज भी तुम उससे इस तरह की सर्तकता से पेश आओ जिससे
तुम्हारे मर्म उसके ध्यान में ही न आ पाएँ। इसी तरह आज का शत्रु कल मित्र
बनने पर शर्म के मारे तुम्हें उसके सामने अपना सिर झुकाना न पड़े, यह
ध्यान में रखकर ऐसा कोई काम न करो जिससे उसे चोट पहुँचे।
ऊपर से देखने पर यह नीति व्यवहार कुशल लोगों की सी लगती है पर गहराई में
उतरने पर इस नीति में आर्यत्व का भी अंश दिखाई देगा।
किसी के भी मर्मस्थान पर हमारे हाथों कोई आघात नहीं पहुँचना चाहिए।
कवि बोरकजी के साथ मेरे अकसर मतभेद हुआ करते थे। लेकिन हम दोनों ने एक
नियम बना लिया था। मन में थोड़ी-सी भी शंका-कुशंका पैदा होते ही हम
एक-दूसरे से मिलते और मन की बात एक-दूसरे को बता देते। हमारे बीच मतभेद
हमेशा रहे, पर गलतफहमी कभी भी पैदा न हो पायी।
दोष हम सबमें हैं। अच्छे से अच्छे माने जाने वाले लोगों में भी हैं। गुण
भी हम सबमें हैं। बुरे से बुरे माने जाने वाले लोगों में भी। गुणों और
दोषों के तानों-बानों से हम सबका जीवनपट बुना हुआ है।
अपने दोष दुनिया के सामने न आएँ इसकी दक्षता हर आदमी प्राप्त करता आया है।
इस इच्छा की हमें कद्र करनी चाहिए और दूसरे के दोष दुनिया के सामने रखने
का प्रयत्न किसी भी संस्कारी आदमी को नहीं करना चाहिए। नियम ही बना लेना
चाहिए कि मन में शंका पैदा हो तो उसे हम उसी को बता देंगे, तीसरे को कभी
नहीं। छद्म नाम से अखबारों में तो कभी नहीं लिखेंगे। पीठ पीछे बुराई करने
वालों को हम चुगलखोर कहते हैं। और चुगलखोर को हमेशा घटिया आदमी मानते आये
हैं।
8
कितनी विसंगतियाँ भरी पड़ी हैं हमारे नीतिशास्त्र में!
वह कहता है, सत्यम् ब्रूयात सच बोलो। हाँ, सच ही बोलना चाहिए हमेशा । झूठ कभी नहीं बोलना चाहिए। फिर झूठ बोलने पर चाहे जो लाभ क्यों न होता हो । लेकिन वह यह भी कहता है, प्रियम् ब्रूयात प्रिय बोलो। जो बोलो वह दूसरों के कानों को मीठा लगना चाहिए। सच मीठा थोड़े ही होता है! वह तो हमेशा कड़वा ही होता है। उसे मीठा बनाना सरासर झूठ का ही एक प्रकार है तब क्या करना चाहिए? तो कहता है, न बूयात् सत्यम् अप्रियम् । अप्रिय सच बिलकुल मत बोलो। यह तो दाम्भिकता है।
समाज में जो झूठ फैला हुआ है उससे लोगों को मुक्त करना हो तो कड़वा सच बोलना ही होगा। कड़वा सच बोलने की हिम्मत हममें होनी ही चाहिए। लोगों को बुरा लगेगा, लगने दो। वे नाराज होंगे, होने दो। उन्हें तकलीफ होगी होने दो। साफ दिल से सच बोलोगे तो उसका परिणाम अच्छा ही होगा। कड़वे सच की ही हमेशा विजय होती आयी है।
समाज में कड़वा सच सुनने की सहिष्णुता न हो तो वह कभी भी ऊँचा नहीं उठ सकेगा।
अभी-अभी एक और नीतिवचन पढ़ने को मिला-
"प्राप्याचलान् अधिकारान् / शत्रुषु मित्रेषु बन्धुवर्गेषु / नाऽपकृतं नोपकृतं न सत्कृतम् / किं कृतं तेन ?'' - तुम्हारे हाथों में आज सत्ता है। यह सत्ता हमेशा तुम्हारे पास रहने वाली नहीं है। आज है तो कल शायद चली भी जा सकती है इसलिए तुम्हें क्या करना चाहिए ? जब तक सत्ता है तब तक दुश्मनों का जितना नुकसान कर सकते हो, करना चाहिए। मित्रों का और अपने लोगों का जितना भला कर सकते हो, करना चाहिए। हाथ में सत्ता होते हुए भी तुमने यह नहीं किया तो सत्ता हाथ में लेकर क्या किया - किं कृतं तेन ।
अब बताइए, इस तरह की नसीहत जिस देश को मिलती रही है, वह देश भ्रष्टाचार से मुक्त भला कैसे हो सकता है ?
हमारे धर्मशास्त्र का ही नहीं, बल्कि नीतिशास्त्र का भी पुनर्मूल्यांकन करके उसे साफ-सुथरा बनाना होगा।
9
शान्तादुर्गा का दर्शन लेकर वह मन्दिर से बाहर आया और सीढ़ियाँ उतरने लगा। तब, सामने ही उसे वह दिखाई दी। वह सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। उसके साथ उसका पति था। इसके साथ इसकी पत्नी ।
"कैसे हो?" उसने पूछा।
इसने स्तम्भित होकर उसकी ओर देखा और कहा, "मैं ठीक हूँ... तुम कैसी हो ?" अपनी पत्नी को आगे करके इसने कहा, "यह मेरी पत्नी है। "
पीछे की ओर खड़े पति को दिखाकर उसने कहा, "यह मेरे पति हैं।"
फिर एक-दूसरे से 'बच्चे कितने हैं... क्या पढ़ते हैं, ' आदि औपचारिक प्रश्न पूछकर दोनों ने अपना-अपना रास्ता लिया।
मैं दोनों को देखता ही रह गया।
पन्द्रह साल पहले दोनों को प्यार में डूबे हुए देखा था। दोनों की शादी करने की इच्छा थी। दुर्भाग्य से कर ही नहीं पाये थे। फिर एक-दूसरे से मिलना भी सम्भव नहीं रहा। क्योंकि वह यहीं रही और यह अमेरिका चला गया।
"पुरानी यादें उमड़ी नहीं क्या ?" मैंने उससे पूछा ।
"उमड़ी थीं," उसने उत्तर दिया, "पर एक क्षण के लिए। दूसरे ही क्षण यह प्रतीत हुआ कि वह वह नहीं है। उसकी माँ है।"
मैंने कहा, "उसको भी शायद यही प्रतीत हुआ होगा। तुम तुम नहीं, उसके पिताजी ही।"
दोनों का रूप पहले के जैसा ही रहता और पन्द्रह साल बाद उनका मिलन होता तो हो सकता है, असफल प्यार की पुरानी जख्में खुल जातीं। पर कालचक्र की यही खूबी है, कि वह पुराने जख्म भी भर देता है। पुराने दुःख भी हल्के कर देता है और पुराने प्यार को भी भुला देता है।
मगर पुराने अपमान और पुराने बैर वह क्यों भुला नहीं देता ? पुराने बैर और अपमान हम आसानी से भूलते नहीं हैं। क्यों? हमारी आयु बढ़ती है पर मानसिकता वही रहती है, इसीलिए न ?
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आश्रम में एक भजन सुना था, 'उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है।' उसकी एक पंक्ति तीर की तरह दिल में पैठ गयी थी, 'जो कल करे सो आज कर ले, जो आज करे सो अब कर ले।' पर जवान था। जीने के लिए सामने कई वर्ष फैले हुए दीख पड़ते थे। चालीस की उम्र तक एक तरह की निश्चिन्तता से ही दिन बिताता रहा। पचासवाँ लगा तब जो काम करने बाकी हैं, उनकी सूची बनायी। लगा, ये काम पूरा करने के लिए कम से कम बीस साल तो चाहिए। आयु के बैंक बैलेंस में इतने साल बचे हैं या नहीं, कौन बताएगा! अब समय बरबाद करने वाले सब काम छोड़ देने चाहिए। छोड़ दिये। साठ पूरे हुए तब हिसाब लगाया। तीसरे हिस्से के भी काम पूरे नहीं हुए थे। साठ के बाद रॉकेट की रफ्तार से वर्ष दौड़ने लगे। इससे पहले इतनी रफ्तार से वे कभी नहीं दौड़े थे। मेरी दुनिया भी अब छोटी बन गयी है। कई साथी चल बसे। आज का काम कल के लिए छोड़ना अब मेरे लिए सम्भव नहीं है। मेरे पास अब समय ही नहीं है।
बुद्ध का 'अनागत भयानि' नामक एक सूत्र है। उसमें कहा गया है, आज तुम जवान हो इसलिए यह मत सोचो कि तुम हमेशा जवान रहोगे। एक दिन तुम बुड्ढे होगे। तुम्हारी इच्छा न होते हुए भी होगे। इसलिए जो अब तक पाया नहीं है वह अभी पा लो। जो अब तक पढ़ा नहीं, अभी पढ़ डालो। जो दुनिया अब तक देखी नहीं, जवानी में ही देख लो। वरना बुढ़ापे में यह पाना, पढ़ना, देखना तुम्हें सम्भव नहीं होगा। और तुम्हें पछतावा होगा। आज जो पाओगे वह बुढ़ापे में भी तुम्हारे काम आएगा। बीमारी में भी काम आएगा। संकट में भी काम आएगा। हर परिस्थिति में काम आएगा। 'अनागत भयानि' यानी जो अभी आये नहीं हैं, पर भविष्य में आने वाले हैं, ऐसे भय । एक बुढ़ापे का दूसरा बीमारी का तीसरा अनपेक्षित संकटों का, चौथा मृत्यु का पाँचवाँ भूल गया हूँ।
जीवन एक साधना है, हर क्षण जागृति के साथ जीने की। वरना 'अब पछताये क्या होत है जब चिड़िया चुग गयी खेत । '
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हम दुःख नहीं चाहते। लेकिन जिन्दगी में दुःख तो आते ही रहते हैं। बिना बुलाये ही आते हैं। दुःख के कारण हम अन्दर से मजबूत होते हैं। हमारा आन्तरिक जीवन समृद्ध भी होता है।
किसी ने कहा है, दुःख तो हमारा परम धन है। बात सही है।
आमतौर से हमें अपनी शक्तियों का अन्दाजा नहीं होता। दुःखों का हम सामना करते हैं तभी उन शक्तियों की हमें कुछ-कुछ झाँकी मिलने लगती है। इसे एक तरह से हमारा नया जन्म ही कहना चाहिए। जन्म के समय पीड़ाएँ होंगी ही। पर हमारे अन्दर छिपी हुई शक्तियों का अन्दाज आने पर हमें खुशी भी होनी चाहिए।
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स्वराज्य में कई लोग ऊपर चढ़ते ही गिर पड़े।
स्वराज्य में गाँव-गाँव में पाठशालाएँ शुरू हुई। अनपढ़ परिवारों के बच्चे पढ़ने लगे। पढ़कर बड़े हुए तब अपने को अपनों से अलग मानने लगे। अलग ही नहीं, बल्कि बड़े मानने लगे, तब गिर पड़े।
गरीबों को रोजगार के मौके मुहैया हुए। वे कमाने लगे। मालदार बने। मालदार बनते ही दूसरों से अपने को बहुत बड़े मानने लगे, तब गिर पड़े।
मनुष्य जब अपने को दूसरों से बड़ा मानने लगता है तब गिर पड़ता है।
वह ऊपर कब चढ़ता है ? पढ़ा-लिखा मनुष्य जब यह महसूस करता है कि मैंने पढ़ा बहुत कुछ है, फिर भी पढ़ने लायक अभी बहुत कुछ बाकी रह गया है, और नये नये विषय पढ़ता ही रहता है, हमेशा विद्यार्थी ही रहता है, तब चढ़ता है। जो सचमुच में बड़े हैं उनकी ओर देखकर यह महसूस करता है कि इनके पैरों के नीचे की धूल का कण भी मुझसे अधिक मूल्यवान है, तब चढ़ता है। अपने स्वभाव के ऊबड़-खाबड़ अंग दिखाई देने पर अपने को सुधारने की कोशिश में लगता है, तब चढ़ता है।
किसी बड़े मनुष्य को यह मालूम नहीं होता कि वह बड़ा है। जब मालूम हो जाता है तब वह गिर पड़ता है।
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कितना अन्तर पड़ गया है 15 अगस्त, 1947 के पहले के पचास वर्षों में और बाद के पचास वर्षों में!
पहले देश गुलाम था, आज आजाद है। पहले देश में पाँच सौ से अधिक छोटी- बड़ी रियासतें थीं, आज रियासतों का विलय हुआ है और देश अखण्ड है। पहले लोकतन्त्र नहीं था, आज लोकतन्त्र चलता है। पहले अन्तरराष्ट्रीय मंच पर हमारी कोई कीमत नहीं थी, आज हमारा दबदबा है। पहले बाहर से अनाज लाना पड़ता था, आज हम अनाज निर्यात करते हैं। पहले देश में कोई खास उद्योग नहीं थे, आज दुनिया के प्रथम पंक्ति के आठ औद्योगिक देशों में से हम एक हैं। पहले हमें वैज्ञानिकों को बाहर से बुलाना पड़ता था, आज हम वैज्ञानिक बाहर भेजते हैं।
किन्तु —
पहले देश ने हिमालय के शिखरों के समान उत्तुंग व्यक्तित्व के नेता पैदा किये थे, अब बौने पिग्मी नेता हमारे हिस्से आये हैं। और सबसे महत्त्व की बात- पहले बाहर सब जगह अँधेरा फैला हुआ था। पर कइयों के अन्तर में प्रकाश था। आज बाहर पहले की ही तरह अँधेरा फैला हुआ है। और अन्तर का प्रकाश बिलकुल लुप्त हो गया है।
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सरल और दुर्गम ऐसे दो रास्ते सामने हों, तो आमतौर से सभी सरल रास्ता ही पसन्द करेंगे। पर दुर्गम रास्ता पसन्द करने वाला भी दुनिया में कोई न कोई मिल जाता है। दुर्गम रास्ते पर चलने से मनुष्य मजबूत और तेजस्वी बनता है। मजबूत और तेजस्वी बनने की ख्वाहिश कइयों के दिल में होती है। वरना, हिमालय के ऊंचे शिखरों पर चढ़ने की कोशिश कोई नहीं करता ।
मगर मान लीजिए, हमारे सामने दूसरे दो रास्ते हैं। एक, सफलता की ओर ले चलने वाला, दूसरा, विफलता की ओर तो क्या विफलता का रास्ता अपनाने वाला कोई दिखाई देगा ? मजबूत और तेजस्वी लोगों में भी शायद ही कोई मिले मजबूत और तेजस्वी लोगों की दुनिया भी सफलता के पीछे ही दौड़ने वाली होती है।
फिर भी सफलता को लात मारकर आगे जाने वाले लोग दुनिया में पैदा हुए हैं। ऐसे चन्द लोग तो हमने प्रत्यक्ष देखे भी हैं। गाँधी, लोहिया, जयप्रकाश ऐसे थे । लौकिक दृष्टि से वे विफल लोग हैं। लेकिन विफलता के कारण ही वे दुनिया को आगे ले जा सके हैं।
जयप्रकाश जी ने एक कविता लिखी थी—
जीवन विफलताओं से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आयीं निकट
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से
तो क्या यह मेरी मूर्खता थी ?
नहीं, सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ हैं भिन्न मेरी,
मुझ क्रान्तिशोधक के लिए
अन्य पथ भी मान्य थे...
जग जिसे कहता विफलता
थीं शोध की वे मंजिलें
और मंजिलें तो अनगिनत हैं...
अन्त में वे कहते हैं-
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो...
जयप्रकाश जी को कहीं रुकना नहीं था। वे जिन्दगी भर चलते ही रहे। उनकी तलाश ने उन्हें खामोश बैठने ही नहीं दिया।
सफल आदमी सफलता मिलने पर रुक जाता है। न खुद आगे बढ़ता है, न दूसरों को आगे जाने देता है। सफलता को जिन्होंने तुच्छ माना है वे ही आगे गये हैं। लगातार आगे चलते रहे हैं।
और उन्हीं की वजह से दुनिया भी आगे चलती रही है।
15
मुम्बई से गोवा आ रहा था। सुबह छः बजे के करीब बस कणकवली स्थानक पर आकर रुकी। मैं नीचे उतरा। मुँह धोया और बस स्टैण्ड के एक रेस्तरों में जाकर चाय मँगवायी।
दिमाग बरसों पहले के— सन् 1948/49 के जमाने में मँडराने लगा। उन दिनों यहाँ एक सत्पुरुष रहते थे, जिन्हें मिलने मैं आया था। वे गाँधीजी के इनेगिने पाँच- सात साथियों में से एक थे। 'कोंकण के गाँधी' के नाम से पहचाने जाते थे। लेकिन लोग उन्हें अप्पा के घरेलू नाम से ही पुकारते थे। अपना सारा जीवन उन्होंने कोंकण प्रदेश की सेवा में बिताया था। महादेवभाई देसाई की मृत्यु के कारण जो जगह खाली पड़ी थी वह भरने के लिए गाँधीजी ने अप्पा को निमन्त्रित किया। वे मराठी के अलावा, गुजराती, हिन्दी और अँग्रेजी अच्छी तरह जानते थे और कोई होता तो वह गाँधीजी के इस प्रस्ताव को शिरोधार्य मानकर सब कुछ छोड़कर उनके पास चला जाता। पर अप्पा उधेड़बुन में पड़े रहे। पिछले चौबीस बरसों से जिस प्रदेश की मैंने सेवा की वह यकायक छोड़ कैसे दूँ, यों सोचकर उन्होंने गाँधीजी के सामने अपनी अड़चन रख दी। गाँधीजी ने उनकी निष्ठा की कद्र की और कहा, "आपकी अड़चन सच्ची है, महादेव की जगह प्यारेलाल भर लेंगे। आप अपना कार्य एकनिष्ठा से करते रहिए।" और अप्पा (पटवर्धन) यहीं रहे। खादी ग्रामोद्योग, अस्पृश्यता निवारण, भंगीमुक्ति यही काम करते रहे।
चाय का घूँट पीते-पीते मैंने अपने आपसे पूछा, अप्पा के जिन्दगी भर के सेवाकार्य से कणकवली को क्या मिला ? कणकवली कोई बड़ा शहर नहीं है। आज भी एक मामूली गाँव ही है पर अप्पा को आज यहाँ कोई नहीं जानता। अप्पा की सेवाएँ कहाँ दर्ज हुई मालूम नहीं। उनकी मृत्यु के पश्चात् अप्पा का यहाँ न नाम रहा है, न सेवाकार्य ।
अप्पा रहे हैं उनकी 'सेवाधर्म', 'चलनशुद्धि' जैसी पुस्तकों में और उनकी निहायत सुन्दर जीवनयात्रा' में।
दिमाग कणकवली से उड़कर दूर शान्तिनिकेतन में जाकर मँडराने लगा। कुछ समय पहले मैं यहाँ आकर रहा था और यहाँ का वायुमण्डल देखकर मायूस हुआ था। रवीन्द्रनाथ की पूरी आयु 'विश्वभारती' खड़ी करने के प्रयासों में व्यतीत हुई। विश्वभारती को उन्हें दुनिया का सबसे बढ़िया विश्वविद्यालय बनाना था। उनका यह सबसे बड़ा एक स्वप्न था। आज विश्वभारती में रवीन्द्रनाथ के स्वप्न का कितना हिस्सा बचा है? वह देश के अनेक विश्वविद्यालयों में से एक सामान्य विश्वविद्यालय है। रवीन्द्रनाथ अगर इतना ही काम करते तो इस काम के साथ ही वे भी समाप्त हो जाते।
रवीन्द्रनाथ रहे हैं, उनकी कविताओं में, उनके चित्रों में, उनके संगीत में।
असीरिया में एक जमाने में निनेवे नाम का एक बड़ा शहर था, जो देखने वालों की आँखें चकाचौंध करता था। पाश्काल अपनी पुस्तक 'पाँसे' में लिखते हैं, 'निनेवे के अब अवशेष भी कहीं देखने को नहीं मिलते।'
ईंट-पत्थर का जो कुछ हम बनाते हैं, टिक नहीं पाता। हमारे सेवाकार्यों में भी ऐसी क्या कमी रहती है, कि वह भी टिक नहीं पाता ? आखिरकार क्या टिक पाता है? केवल संस्कार, विचार और प्रेरणाएँ ? केवल अपौरुषेय चीजें ?
16
मैंने स्वर्ग-नरक में कभी विश्वास नहीं रखा। अब कहने लगा हूँ-स्वर्ग भी हैं, नरक भी है।
सार्त्र का 'नो एक्जिट' नाम का एक नाटक देखने गया था। एक जगह दंगे होते हैं। आँखों देखा हाल लिखने के लिए एक पत्रकार वहाँ पहुँच जाता है। उसे वहाँ गोली लगती है और वह मर जाता है। यमदूत उसे उठाकर ले जाता है। वह यमदूत से पूछता है, “मुझे कहाँ ले जा रहे हो, भाई ?" "नरक में" वह जवाब देता है। पत्रकार मन ही मन कहता है, मुझे वह और कहाँ ले जाएगा! पुण्य का संचय तो मैंने कभी किया ही नहीं। नरक ही मेरे भाग्य में है। उसने सुना था, नरक में तरह-तरह की यमयातनाएँ होती हैं। पर यहाँ तो उसे अलग ही अनुभव होता है। रहने के लिए उसे एक आलीशान कमरा दिया जाता है। भोजन भी बढ़िया से बढ़िया मिलता है। न कोई काम, न कोई धन्धा । पूछने वाला भी कोई नहीं। चाहे जो करो। वह चकित होकर यमदूत से पूछता है, "यह नरक है या स्वर्ग ?"
'नरक ही है।" यमदूत जवाब देता है।
"लेकिन यहाँ तो मुझे किसी यमयातना का अनुभव नहीं हुआ।"
यमदूत हँस देता है। कहता है, "पता नहीं, किसने तुम्हें बताया कि यहाँ यमयातनाएँ दी जाती हैं! जो भी यहाँ आता है, ऐसे ही गलत ख्याल लेकर आता है। यहाँ ऐसा कुछ नहीं होता। बस, खाओ, पीओ, मौज करो। "
थोड़ी देर बाद यमदूत एक सुन्दर लड़की को लाकर यहाँ छोड़ जाता है। वह एक फोटोग्राफर थी, जो दंगे के फोटो खींचने गयी थी। वह भी गोली लगकर मर गयी थी। पत्रकार मन ही मन कहता है, "चलो, अच्छा हुआ, एक साथिन तो मिल गयी। वरना अकेले अकेले जी ऊब जाता।"
थोड़ी देर बाद यमदूत एक और लड़की को लाकर वहाँ छोड़ जाता है। पत्रकार को गुस्सा आता है। " और कितने लोगों को लाकर तुम यहाँ छोड़ोगे ?" वह यमदूत से पूछता है।
'और किसी को नहीं... बस तुम तीनों यहाँ रहोगे मजे में रहो।"
तीनों उस कमरे में रहते हैं। फिर वे एक-दूसरे के साथ ऐसे पेश आते हैं कि तीनों को एक दिन मालूम हो जाता है, नरक हमारे बाहर और कहीं नहीं है।
स्वर्ग भी है, नरक भी है। दोनों हमारे अन्दर ही हैं। पृथ्वी के बाहर, ऊपर, नीचे कहीं नहीं। आसपास के लोगों के साथ हमारे सम्बन्ध अच्छे रहेंगे तो स्वर्ग अपने आप हमारे इर्द-गिर्द खड़ा हो जाएगा। हम ही उसका निर्माण करेंगे और सम्बन्ध कटु रहे तो हमारे इर्दगिर्द नरक भी हम ही निर्माण करेंगे। मरने के बाद स्वर्ग या नरक नहीं मिलते। जीवनकाल में ही मिलते हैं।
17
मुम्बई में रोजी-रोटी की तलाश में हर साल करीब पाँच लाख लोग बाहर से आते हैं। इस शताब्दी के अन्त तक मुम्बई की आबादी एक करोड़ अस्सी लाख होगी। यह भी कहा जाता है कि इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में दुनिया के पचास प्रतिशत लोग मुम्बई जैसे शहरों में जाकर बसने वाले हैं।
ये लोग इन शहरों में कहाँ रहेंगे? जहाँ पर भी खाली जगह दीखेगी वहीं । झुग्गी-झोंपड़ियाँ बनाकर ही उन्हें वहाँ रहना पड़ेगा। शौच के लिए ये लोग कहाँ जाएँगे? समुद्र या नदियों के किनारे या खुली जगह कहीं पर भी उन्हें बैठना पड़ेगा। सभी शहर गन्दे होंगे। गन्दगी के कारण शहर में अनेक प्रकार के रोग फैलेंगे। और इनकी लपेट में बड़ी-बड़ी बिल्डिगों में रहनेवाले अमीर भी आ जाएँगे। नौकरियाँ तो सब लोगों को आसानी से मिलने वाली नहीं हैं। नतीजतन कुछ लोग, खासतौर से जवान, चोरी करेंगे, डकैतियाँ डालेंगे।
संसार में करीब दो सौ अस्सी बड़े शहर हैं। इनमें दो-दो करोड़ आबादी वाले महाकाय शहर करीब छब्बीस हैं। बीसवीं शताब्दी के अन्त में संसार में कुल मिलाकर तीन सौ नब्बे शहर खड़े होंगे। इनमें महाकाय शहर करीब चालीस होंगे। तेरह एशिया खण्ड में और दक्षिण अमेरिका में।
'विकास' के नाम से यह जो शहरीकरण की अन्धाधुन्ध और अविवेकी प्रक्रिया दुनिया में चल रही है वह हमें अन्ततोगत्वा कहाँ ले जाएगी ? विनाश की ओर तो नहीं ? गाँव के बहुसंख्य लोगों को अपने-अपने गाँवों में ही रोजी-रोटी के साधन मुहैया करा देना विकास का मकसद होना चाहिए था। रोजी-रोटी की तलाश में गाँव के बाहर शहर में जाने की नौबत किसी पर भी आनी नहीं चाहिए। शहर में जाना सिर्फ नाम कमाने के लिए, यही नियम बनना चाहिए, पर यह तभी सम्भव होगा जब विकास की दिशा हम बदल देंगे - ज्यादा से ज्यादा माल तैयार करके विदेशों में भेजने और 'फॉरेन एक्सचेंज' कमाने के बदले ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम देकर सभी गाँवों को आत्मनिर्भर करना। यही विकास का मकसद हो ।
पर हमारी सबसे बड़ी अड़चन यह है कि इस मकसद को कबूल करने के लिए हमें गाँधी की ओर मुड़ना पड़ता है और गाँधी की ओर मुड़ना हमें पीछे हटने जैसा लगता है।
एक बात ध्यान में रखें - विकास का मतलब वृद्धि नहीं। वृद्धि के लिए अँग्रेजी में एक और शब्द है, ग्रोथ और ग्रोथ जब विषैला और असाध्य होता है तब उसे 'कैंसर' कहते हैं।
और 'कैंसर' के लिए कोई इलाज नहीं है।
18
सुधारक जब लोगों को सुधार की बातें बताता है तब लोग उसे सुनने के बजाय अकसर उसकी परीक्षा लेने लगते हैं और उनकी परीक्षा में उसे एक भी मार्क कम पड़े तो तुरन्त कहने लगते हैं, "यह क्या हमें सिखलाएगा, इसे खुद सीख लेना चाहिए।"
और जैसे चलते आये हैं वैसे ही चलते रहते हैं।
मान लीजिए, सुधारक परीक्षा में सौ में से सौ ही अंक लेकर पास हुआ, तो वे कहेंगे, "कहाँ वह और कहाँ हम हमारे बीच कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। वह तो दूसरी ही दुनिया का आदमी है। महात्मा है।"
और जैसे चलते आये हैं, वैसे ही चलते रहते हैं।
चालीस साल के अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि सुधारक को किसी भी हालत में ऊँचे स्थान पर बैठकर लोगों को नसीहत नहीं देनी चाहिए। उसे इस तरह लोगों से पेश आना चाहिए कि लोगों को वह अपने ही जैसा पतनशील मालूम हो। उसके बाद ही जब वह बताएगा कि हम जिस रास्ते से चल रहे हैं, वह गलत रास्ता है, हमें दूसरा रास्ता लेना चाहिए, इसी में हमारा भी भला है और दुनिया का भी, तभी लोग उसकी बातें सुनेंगे।
दूसरों से अलग होकर सुधारक सुधार नहीं कर सकता। दूसरों के साथ रहेगा तभी वह समाज को ऊँचा ले जाने में सफल होगा। जिस स्तर पर लोग हैं उसी स्तर पर सीढ़ी रखनी चाहिए ताकि लोग ऊपर चढ़ सकें। अभी तक सुधारकों की मनोवृत्ति 'मेरे पीछे चलो' कहने की रही है। इसे छोड़कर 'चलो, हम साथ चलें' वाला रवैया अपनाना चाहिए, तभी वे सफल होंगे।
19
मैंने नायबराज जी से कहा, "आज मंजू को घर आने में देर होगी। सात साढ़े सात बज जाएँगे। मैं खुद उसे घर लाकर छोड़ दूँगा।"
"क्या प्रोग्राम बनाया है?" उन्होंने पूछा।
मैंने कहा, “सन्निधि में काम करने वाली सभी लड़कियों को बंगाली मार्किट में आइसक्रीम खिलाने ले जाने की सोची है।"
"यह फिजूल खर्च करने की क्या जरूरत?"
मैंने कहा, "तीस-चालीस रुपयों की ही तो बात है। तीस-चालीस रुपये खर्च करने पर बच्चों के चेहरे पर जो आनन्द देखने को मिलता है वह मेरे लिए तीस-चालीस लाख रुपयों से भी अधिक कीमत का है।"
नायबराज जी चुप रहे। थोड़ी देर बाद कहने लगे, "पैसा तो लक्ष्मी है। लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है। हम सबकी वह माँ है। माँ को भोगा नहीं जाता, उसकी तो भक्ति और सेवा ही करनी चाहिए।"
20
भांजियाँ - भतीजियाँ अब शादी के लायक हो चुकी हैं। उनके माँ-बाप उनके लिए अच्छे घर ढूँढ़ने लगे हैं। कभी-कभी मुझसे पूछते हैं, "यह लड़का कैसा है ? हमें वह पसन्द आया है।" और मैं उनसे कहता हूँ, "लड़का अच्छा है, पर रिश्ता पक्का करने से पहले यह पूछताछ करो कि क्या माँ-बाप ने उसके लिए कोई जायदाद रखी है ? अगर रखी हो तो उसे छोड़ दो, दूसरा ढूंढ़ो।"
मेरे परिचितों में जिन लड़कों के माँ-बाप ने जायदाद रखी थी, वे सब जिन्दगी में निकम्मे साबित हुए। वे कोई उद्यम, पराक्रम या पुरुषार्थ नहीं कर पाये। बच्चों को जायदाद रखकर माँ-बाप उनके पुरुषार्थ को नष्ट कर देते हैं। उन्हीं लोगों ने अब तक कुछ कर दिखाया है जिनको विरासत में कोई जायदाद नहीं मिली थी।
अमीर घर के लड़के से बेटी का रिश्ता पक्का करना दुर्भाग्य की ही बात माननी चाहिए।
21
दो महीने लगातार जापान में घूमता रहा। कहीं पर भी कुली या हमाल नहीं दिखे। सभी जगहों पर यात्रियों को अपना सामान खुद उठाकर ले चलते देखा। चूँकि हर एक को अपना-अपना सामान उठाना पड़ता है, इसलिए हर एक जापानी यात्री उतनी ही वस्तुएँ लाता है, जितनी वह खुद उठा सकता है।
जापान में किसी के घर नौकर या नौकरानियाँ भी नहीं दिखीं। नौकर - नौकरानियों का काम घर के ही लोग करते हैं। और चूँकि यह काम उन्हीं को करना पड़ता है, इसलिए जापानी कम से कम बर्तन उपयोग में लाते हैं।
जापान शहरों का देश है। चीन तो भारत के जैसा ही लाखों देहातों का देश है। वहाँ पर भी मैंने कहीं कुली- हमाल, नौकर-नौकरानियाँ नहीं देखीं। देहातों में सैप्टिक कवाले पाखाने अभी नहीं आये हैं। जो पाखाने देहातों में हैं, उन्हें रोज साफ करना पड़ता है। घर के लोग ही बारी-बारी से उन्हें साफ करते हैं। चीन में मेहतर- मेहतरानियाँ नहीं हैं।
कुली, हमाल, नौकर, नौकरानियाँ, मेहतर, मेहतरानियाँ हमारे इस पुण्यभू भारतवर्ष में ही देखने को मिलते हैं। मुम्बई दिल्ली में सबसे अधिक आधुनिक दुनिया में ये 'प्राणी' कहीं भी नहीं हैं। हम अपने को आधुनिक भले मानें, पर सामन्ती संस्कारों से हम अभी मुक्त नहीं हुए हैं।
हर कोई अपना-अपना कुली, नौकर, बावर्ची, मेहतर बने, यह आदर्श हमारे सामने रखा सिर्फ गाँधी ने उनकी प्रेरणा से देश में जहाँ-जहाँ आश्रम चलते हैं, वहाँ सभी अपने-अपने घर की सफाई करते हैं, सभी अपने-अपने कपड़े धोते हैं, सभी अपने-अपने बर्तन माँजते हैं और सभी पाखानों की सफाई करते हैं। मैंने आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश जी जैसों को भी यह सब काम करते देखा है। किशोरलालभाई मशरूवाला को तो अपनी पत्नी की रसोई में मदद करते भी देखा है।
राजाजी गवर्नर जनरल बनकर राष्ट्रपति भवन में जाकर रहे (वह उस समय 'वाइसरिगल हाउस' था) पर गुसलखाने से बाहर हमेशा कपड़े धोकर ही आते थे। आज जब सभी आधुनिक देश गाँधी का आदर्श अमल में लाने लगे हैं तब किस मुँह से कहें कि ये पुराने आदर्श हैं? ये तो सनातन आदर्श हैं। आगे भी चलने वाले हैं। हम अपने-अपने कुली बनें, अपने-अपने घरों में झाडू लगाएँ, अपने-अपने कपड़े धोएँ, बर्तन साफ करें, पाखाने साफ करें। अपनी सामन्ती आदतों से हम मुक्त हो जाएँगे और जीवन में जड़मूल से बदलाव आएँगे, तभी सही माने में हम मॉडर्न बन पाएँगे।
देश में कुली, हमाल, नौकर-नौकरानियाँ, मेहतर मेहतरानियाँ होना शर्म की बात है।
22
जब से वे विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे हैं, अन्यमनस्क से हो गये हैं। खोये खोये से, अपनी ही धुन में चलते हैं। भुलक्कड़ और लापरवाह भी हुए हैं।
प्राध्यापक को अन्यमनस्क होना चाहिए, वरना वह प्राध्यापक-सा नहीं दीखता, यही शायद उन्होंने मान रखा होगा।
मैंने उनसे कहा, "वाकई आप अन्यमनस्क हुए होंगे तो मुझे कहना पड़ेगा, आपकी बुद्धि की धार भोथरी हो गयी है। प्राध्यापक की बुद्धि हमेशा सतर्क, फुर्तीली, जाग्रत रहनी चाहिए।"
बुद्धि सतर्क नहीं रहती तब हम ऐसी बातें कर बैठते हैं जो हमें नहीं करनी चाहिए। फिर 'ध्यान नहीं रहा' कहकर हमें अपनी गलतियों का समर्थन करना पड़ता है। यह संस्कारी आदमी को शोभा नहीं देता।
भगवान बुद्ध कहते थे, प्रमाद में रहोगे तो खो जाओगे। जाग्रत रहोगे तो जीत पाओगे। वे यह भी कहते थे कि चित्त इतना जाग्रत रहना चाहिए कि जब हम उठते हैं या बैठते हैं तब 'मैं उठ रहा हूँ' या 'मैं बैठ रहा हूँ' इसकी हमें स्मृति रहनी चाहिए। किसी विद्रोही पर नजर रखने के लिए सरकार जब कोई जासूस तैनात करती है तब वह विद्रोही के घर के पास ही ऐसी एक जगह ढूँढ़ लेता है, जहाँ उसे कोई देख न सके और वहीं बैठकर वह उसके यहाँ कौन आता-जाता है, इसकी निगरानी रखता है। वैसे ही हमें अपने चित्त में एक जासूस तैनात करना चाहिए जो हमारे दिमाग में कौन-से विचार आते-जाते हैं, इसकी निगरानी रखे। मनुष्य को हर पल जाग्रत ही रहना चाहिए।
अन्यमनस्क आदमी स्कूटर चलाता रहे तो उसे किसी न किसी दिन दुर्घटना का शिकार बनना ही पड़ेगा। अन्यमनस्क बनकर कोई दूकान चलाता रहे तो उसे किसी न किसी दिन अपने दिवालियेपन का सामना करना ही पड़ेगा। अन्यमनस्क सेना को हम देश की सुरक्षा सौंप देंगे तो किसी न किसी दिन हमें पछताना ही पड़ेगा। अन्यमनस्क यानी प्रमादी और भगवान बुद्ध कहते हैं-'पमादो मच्चुनो पदम् ' प्रमाद मृत्यु समान है।
कोई वचन देता है और उसका पालन नहीं करता, ऊपर से 'मैं भूल गया', कहता है, तब मुझे उस पर इतना गुस्सा आता है कि मैं उससे हमेशा के लिए सम्बन्ध ही तोड़ लेता हूँ।
'मैं भूल गया' वाक्य को संज्ञेय (cognizable offence ) मानना चाहिए।
23
न मालूम क्यों, जी उकता गया था। थकान महसूस होने लगी थी। मन में कोई उत्साह नहीं था। बिस्तर पर लेटे-लेटे करवटें बदलता रहा।
दो दिन यही सिलसिला चला। तीसरे दिन शाम को बिस्तर से उठा, कपड़े पहनकर घर से निकल पड़ा। करीब एक घण्टे का चक्कर लगाकर लौटा। थकान कहाँ उड़ गयी, पता ही न चला। कुएँ पर जाकर ठण्डे पानी से स्नान किया।
स्वर्ग सुख किसे कहते हैं, यह उस दिन मालूम हुआ।
पिताजी कहा करते थे, जब सुस्ती महसूस हो, कुदाली लेकर बगीचे में जाओ, पसीना बहने लगे तब तक काम करते रहो। सुस्ती नहीं रहेगी। श्रम ही है नींव जीवन की। बिना श्रम किये न अनाज पैदा होता है, न कपड़े बुने जाते हैं, न घर बन पाता है। हमारी मामूली से मामूली आवश्यकताएँ भी बिना श्रम के पूरी नहीं होतीं। फिर यह श्रम हम भले ही न करें। पर किसी न किसी को तो वह हमारे लिए करना ही पड़ता है। हमारे लिए दूसरे किसी को श्रम करना पड़े, इस बात की हमें शर्म मालूम होनी चाहिए।
पर आज की हमारी तथाकथित सभ्यता ने हमें बेशर्म बना दिया है। उसने ऐसा एक समाज बनाकर हमें दिया है, जिसमें एक ओर असंख्य लोगों को बेहद श्रम करना पड़ता है (और बदले में भूखे रहना पड़ता है) और दूसरी ओर ऐसे थोड़े लोग हैं, जो किसी तरह का श्रम नहीं करते (और बदले में बेहद कमाते हैं)। यह समाज व्यवस्था अन्यायी है। हमें वह तोड़नी ही होगी। किस तरह हम वह तोड़ पाएँगे? उत्पादक श्रम को संस्कारी जीवन का एक प्रतिष्ठित अंग बनाकर आदमी चाहे डॉक्टर हो, वकील हो, प्राध्यापक हो, लेखक हो, लीडर हो, उसे निश्चय करना चाहिए कि आज से 'कुदाली या फावड़ा लेकर बगीचे में जाऊँगा, रोज कम से कम एक घण्टा काम करूँगा। उत्पादक श्रम में बिना पसीना बहाये अनाज का एक दाना भी पेट में जाने नहीं दूँगा।' सब इस तरह का निश्चय करें तो एक ओर हम राष्ट्रीय सम्पत्ति में कुछ न कुछ योगदान देते रहेंगे और दूसरी ओर समाज में कोई आलसी और सुस्त दिखाई नहीं देगा। सब मेहनत करेंगे। हमारे स्वभाव में भी बदलाव आएगा और सबसे महत्त्व की बात -समाज में जो ऊँच-नीच का भेद-भाव दिखाई देता है, वह नष्ट हो जाएगा और सामाजिक समानता की ओर हम अग्रसर होते रहेंगे।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और संयम (ब्रह्मचर्य) को जीवनमूल्य मानने वाले विचारवान लोग समाज में हैं। इन जीवनमूल्यों को जीवन में व्रतों का स्थान देना चाहिए, यह कहने वाले ये लोग हैं। पर इन जीवनमूल्यों से भी अधिक महत्त्व का और एक व्रत है शरीरश्रम, जो न्यायोचित समाज स्थापन करने का एक प्रभावी साधन भी है, यह क्या किसी ने हमें बताया है? यह जीवन का बुनियादी व्रत है। एक था, जो हमें यह बताया करता था। लेकिन उसको तो हमने सनकी झक्की कहकर 'महात्मा' बना दिया और अपने से उसे दूर रखा।
देश की कितनी बड़ी हानि हुई है, इस बात का क्या किसी को कोई अन्दाज है ?
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राममोहन राय से लेकर राममनोहर लोहिया तक के सभी सुधारकों ने जातिप्रथा के लिए ब्राह्मणों को ही दोषी माना। सिर्फ गाँधीजी की लिखावट में उन्हें दोषी ठहरानेवाला एक भी शब्द मुझे नहीं मिला। मैंने काकासाहब (काका कालेलकर) से पूछा। वे बोले, "जातिप्रथा के वे खिलाफ ही थे, पर वर्णव्यवस्था को वे वैज्ञानिक मानते थे। हर वर्ण का एक पेशा होता है। किसी को अपना पेशा छोड़कर दूसरे को अपनाने की जरूरत नहीं है। बढ़ई के बेटे को बढ़ईगिरी छोड़कर चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट बनने की कोई जरूरत नहीं है, बढ़ईगिरी नीच पेशा नहीं है, ऐसा उनका कहना था।"
मेरे प्रश्न का यह जवाब नहीं था।
मैंने दादा धर्माधिकारी जी से पूछा। उन्होंने कहा, "हिन्दुओं के बीच ब्राह्मण हैं, बनिया हैं, जाट हैं, मराठा हैं, असंख्य जातियों के लोग हैं। हिन्दू कहीं नहीं है।" यह भी मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं था।
फिर मैं अपने ढंग से उत्तर ढूँढ़ने लगा। मैंने महसूस किया, जातिप्रथा श्रेणीबद्ध यानी सीढ़ियोंवाली है। एक सीढ़ी पर दो जातियाँ नहीं होतीं। हर जाति या तो किसी से ऊपर होती है या किसी से नीचे। मान लीजिए, गाँव में बीस जातियाँ हैं। सब किसी न किसी सीढ़ी पर बैठे पाये जाएँगे। इनमें से पन्द्रहवीं सीढ़ी पर बैठी हुई जाति के लोग ऊपर बैठी हुई पाँच जातियों की तीखी आलोचना करेंगे, उन्हें गालियाँ भी देंगे। पर नीचे की चौदह सीढ़ियों पर बैठे हुए लोगों से अपने को ऊँचा ही मानेंगे। दलितों के बीच भी यह सीढ़ियाँ हैं।
यानी सब जातियाँ ब्राह्मणी 'मनोवृत्ति' की हैं। दूसरों के मुकाबले में अपने को ऊँचा मानने वाली। हिन्दू समाज में एक ही जाति ऐसी है, जिसके नीचे दूसरी कोई जाति नहीं है। वह भी अपने से किसी को नीचे नहीं मानती। वह है, भंगियों की ( सफाई कर्मचारियों की)। गाँधीजी ने इसी जाति को अपने अधिकार में ले लिया। उसके हाथ में झाड़ू था। वह सवर्णों के (खासतौर से ब्राह्मणों के) हाथ में देकर उनसे कहा, यह आइन्दा आपके पाखाने साफ नहीं करेगा।
और इस प्रकार उन्होंने जातिप्रथा की नींव ही हिलाने की कोशिश की।
विनोबा निपुण सफाई कर्मचारी (भंगी) बने थे और अप्पा पटवर्धन तो सफाई कर्मचारी के साथ-साथ निपुण चर्मकार भी बने थे। और दोनों ब्राह्मण थे।
अभी-अभी ए. एल. भाशम् की 'वण्डर दैट वाज़ इण्डिया' पुस्तक लेकर बैठा था। सहज जिज्ञासा से उसमें दिया हुआ जातिप्रथा का इतिहास पढ़ने लगा। वे कहते हैं, पिछले साठ-सत्तर वर्षों से यह प्रथा धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है, इसके कारण हैं-
1. शिक्षा का व्यापक प्रचार 2. सुधारकों का गहरा काम 3. खुद दलितों में पैदा हुई जागृति और 4. देश का अपनाया लोकतन्त्र का आदर्श But when Mahatma Gandhi persuaded his followers to sweep their own floors and clean their own latrines, he sounded the death knell of the old Hindu social order. लेकिन जब महात्मा गाँधी ने अपने अनुयायियों को घरों में झाडू लगाने और अपने पाखाने साफ करने के लिए प्रेरित किया तो जैसे उन्होंने परम्परागत हिन्दू समाज- व्यवस्था के सीने में कील ठोंक दिया।
एक बहुत बड़े इतिहासकार का यह कथन है।
इसका मतलब गाँधीजी केवल सुधारवादी नहीं थे, बल्कि उग्र सुधारवादी (redicalist) थे। यही होता है न!
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थोरो की 'वॉल्डन' बरसों पहले पढ़ी थी। उसकी तफसील आज याद नहीं है। पर उसकी जो छाप दिमाग पर पड़ी थी वह अब भी कायम है।
अमेरिका के वॉल्डन सरोवर के पास एक जंगल में थोरो की अपनी जमीन थी। वहाँ अपने हाथों उसने एक कुटिया बनायी और वहीं जाकर वह रहने लगा। वह कहता है, सीधा-सादा जीवन ही बढ़िया जीवन है। इस तरह का जीवन जीने की इच्छा हो जाए तो तुम्हारे हाथों में कुदाली अपने आप आ जाएगी। तुम जमीन पर अपने ही हाथों से काम करने लगोगे। अपनी जरूरतें तुम ही पूरी करने लगोगे। फिर तुम्हें अच्छी भूख लगेगी। भूख लगने पर सादा आहार बड़े चाव से खाने लगोगे। सेहत अच्छी रहेगी। नींद अच्छी आएगी। मन प्रसन्न रहेगा। चिन्तन-मनन गहराई से चलता रहेगा। और जो तुम लिखोगे वह बढ़िया ही साबित होगा।
दो साल वह इस तरह की मेहनत मजदूरी करके जीविका चलाता रहा। साथ- साथ प्रकृति का निरीक्षण भी करता रहा। अपने इन दो सालों के निरीक्षण, मनन- चिन्तन पर आधारित उसने जो पुस्तक लिखी वही यह 'वॉल्डन' पुस्तक है।
बड़ी सुन्दर पुस्तक है!
वह कहता है- श्रमजीवन नीरस, कष्टकर, थकानेवाला होता ही नहीं, बल्कि बड़ा फुर्तीला होता है। जमीन बड़ी उदार है। तुम उस पर जितना श्रम करोगे, उससे सौ गुना अधिक वह तुम्हें देती रहेगी।
थोरो का यह प्रयोग करीब डेढ़ सौ साल पुराना है। मॉडेल के रूप में आज वह शायद हमारे काम न आए पर प्रकाशघर के रूप में उसे सामने रखकर हम अगला कदम अवश्य उठा सकते हैं। उत्पादक श्रम को हमारे जीवन में प्रतिष्ठा का स्थान मिलना ही चाहिए। यह जो कमर पर हाथ रखकर जीने का आदर्श पण्ढरपुर के विठोबा ने चलाया, वह 'अट्ठाईस युगों तक चला। यह काफी है। अब उसे चलने नहीं देना चाहिए। कमर झुकाकर मिट्टी में हाथ डालकर काम करने के दिन अब आये हैं। विठोबा का आदर्श हम सफेदपोश लोगों ने अपनाया और हमारे अनुकरण में बाकी के सारे लोग परिश्रम के कामों को कमीने, नीचे, ओछे मानने लगे। अब विठोबा के अनुयायियों का समाज तोड़ना ही होगा, अब सफेदपोश लोगों को भी उत्पादक श्रम करके ही रोजी-रोटी कमाने का तरीका ढूँढ़ना होगा।
वॉल्डन फिर से पढ़ने की इच्छा हुई है। यही नहीं, थोरो के जैसे प्रयोग करके ऐसी ही एक नयी पुस्तक लिखने की इच्छा मन में पैदा हुई है।
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हमें एक ऐसा समाज बनाना है जहाँ कोई बेकार नहीं रहेगा, सभी लोगों को काम मिलेगा। काम ढूँढ़ने की नौबत किसी पर भी नहीं आएगी और बिना काम किये कोई खाना नहीं खाएगा।
काम ऐसा मिलेगा जिसमें हमारी सभी कुशलताओं का अच्छा उपयोग होता रहेगा और काम करते-करते हमारी कुशलताओं का विकास भी होता रहेगा। काम करते समय हमें यह महसूस होता रहेगा कि जो कुछ हम कर रहे हैं वह सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के धारण-पोषण व संवर्द्धन के लिए ही कर रहे हैं।
इसी तरह का काम आनन्दघन होता है, सृजनशील होता है।
काम सच्चा हो, अच्छा हो, काम करने वाले को शोभा देने वाला हो। कोई बेमन से सिर्फ गुजारे के लिए काम करे यह सभ्य समाज को शोभा नहीं देता। 27
एक अफसर बता रहे थे - "गोवा का कारोबार चलाने के लिए आठ या दस हजार कर्मचारी काफी थे। पर करीब पचास हजार कर्मचारी आज वह चला रहे हैं। भला, कारोबार कुशलता से कैसे चलेगा ?"
मैंने कहा, "आप उन्हें नौकरी से निकाल तो नहीं सकते। पर एक काम अवश्य कर सकते हैं। निहायत जरूरी कर्मचारियों को रखकर बाकी सबको निवृत्त तो कर ही सकते हैं। आप उन्हें बता दीजिए, आपको लेकर सरकार ने बड़ी गलती की। अब कृपया आप घर पर ही रहिए, आराम कीजिए या कोई मनपसन्द समाजोपयोगी काम स्वतन्त्र बुद्धि से करते रहिए। सरकार की तरफ से आपको अपनी तनख्वाह नियमित रूप से घर पर ही मिलती रहेगी। यहाँ आने का कष्ट आप न उठाएँ। आप आते हैं तब प्रशासन की कार्यक्षमता घटती है।"
मैंने बड़ी गम्भीरता से उन्हें यह सलाह दी थी। पर उन्हें लगा, मेँ मजाक कर रहा हूँ। असल में जितने अधिक कर्मचारी, उतनी कम प्रशासन की कार्यक्षमता; यह दुनिया भर का अनुभव ही मैं उन्हें बता रहा था।
अकसर सभी सरकारी कर्मचारी काम से भागते हैं। जहाँ तक सम्भव हो, काम टालते रहते हैं। टालना असम्भव हो तो दूसरों पर लादते हैं। यह भी सम्भव न हो तो बेगारों की तरह बेमन से काम करते हैं। और सत्ता सम्पत्ति उन्हीं के हाथों में होने से सभी लोग उन्हीं की तरह सरकारी कर्मचारी बनना पसन्द करते हैं। गोवा में किसान का बेटा अब खेती का काम नहीं करता। क्लर्क की नौकरी कहीं न मिले तो प्यून तो बनता ही है। खेती करने में उसे शर्म मालूम होती है। पर उसे हम दोष कैसे दें ? उत्पादक श्रम करने वाले को समाज में प्रतिष्ठा ही नहीं है। उन्हें मुआवजा भी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता। और सभी देखते हैं कि जो उत्पादक श्रम बिलकुल नहीं करते वे ही समाज में ज्यादा कमाते हैं।
सभी मूल्य उलटे-पुलटे हो गये हैं।
हमने पैसों को हद से ज्यादा महत्त्व दिया, यही इसका कारण है पैसों की तो खुद अपनी ही कीमत नहीं है। जो चीज पाँच साल पहले एक रुपये में मिलती थी वह चीज आज पन्द्रह रुपये में लेनी पड़ती है। लोग कहते हैं, वस्तुओं की कीमतें बढ़ गयी हैं। असल में पैसों की कीमत घट गयी है। और पैसों के अनुपात में आदर्शों की, जीवनमूल्यों की, चारित्र्य की नीति की और देश की इज्जत - आबरू की भी कीमत घट गयी है।
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हिमालय के केदारनाथ को हम शाम के करीब छः बजे पहुँचे थे। सर्दी कड़ाके की थी। कालीकमली वाले की धर्मशाला में मैं तीन कम्बल ओढ़कर पड़ा था।
कुछ समय में करन्दीकर जी दौड़ते मेरे पास आये। कहने लगे, "मन्दिर में आरतियाँ चल रही हैं। भक्ति का इतना बड़ा उद्रेक तुम्हें और कहीं देखने को नहीं मिलेगा। चलो, मैं तुम्हारे पाँव पकड़ता हूँ।"
करन्दीकर जी की उम्र मुझसे दुगुनी थी। धरासू से हमारी पैदल यात्रा शुरू हुई, उसी दिन से वे हमारे साथ थे। वे मेरे पाँव पकड़ें ? बिस्तर से तुरन्त उठ, शाल ओढ़कर मैं मन्दिर की ओर चल दिया।
सचमुच वहाँ भक्ति का एक सागर उछल रहा था। दो-ढाई सौ लोग थे। 'जय जगदीश हरे' भजन गाकर तालियाँ बजाते बजाते नाच रहे थे। मन्दिर में मूर्ति नहीं है। मूर्ति के बदले एक बड़ी शिला है। मस्ती में आकर सब उसका आलिंगन कर रहे थे। मेरी बगल में दुबली-पतली सफेद बालोंवाली एक बुढ़िया मस्त होकर तालियाँ बजाती - बजाती नाच रही थी। अचानक मेरी नजर उसकी आँखों की ओर गयी। उसे आँखें नहीं थीं।
मैंने उससे पूछा, "माताजी, आपको तो दिखाई नहीं देता ! फिर इतने कष्ट उठाकर आप यहाँ क्या देखने आयी हैं?"
"मुझे भले ही दिखाई न दे, पर बेटे, उसे तो मैं दिखाई देती हूँ न ? उसकी नजर मुझ पर पड़े, बस, इसीलिए तो आयी हूँ!" उसने जवाब दिया।
मेरी कमर अपने आप झुक गयी और मैंने उसके पाँव छुए।
करन्दीकर जी गद्गद होकर हमारी ओर देख रहे थे। उन्होंने तुरन्त मुझे अपने बाहुपाश में ले लिया। उनकी खुशी एक तरह की थी, मेरी दूसरी तरह की ।
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जीभ के काम दो हैं। एक खट्टे मीठे कड़वे, तीखे रस चखना और दूसरा खट्टे मीठे कड़वे, तीखे शब्द बोलना उसके इन दोनों कामों पर नियन्त्रण जरूरी है। वरना, एक काम हमारी सेहत खराब कर देगा, तो दूसरा हमारे सम्बन्ध बिगाड़ देगा ।
जीभ में हड्डी नहीं होती। बिना हड्डी वाली यह छोटी-सी जीभ नाजुक, कोमल, दुर्बल होने पर भी किसको रौंद देगी या किसका कतल करवा देगी, बताना मुश्किल है। द्रौपदी की जीभ ने अठारह अक्षौहिणी सेना का कत्लेआम करवा दिया था। जीभ की ताकत तलवार से भी बड़ी है।
जो दिल में होगा वही जीभ पर आएगा। दिल साफ होगा तो जीभ पर जो आएगा वह हमारे इर्दगिर्द का माहौल स्वर्ग के जैसा बना देगा। दिल गन्दा होगा तो यही माहौल नरक से बदतर हो जाएगा। हमारे इर्द-गिर्द हम स्वर्ग खड़ा करें या नरक, यह पूरी तरह जीभ पर निर्भर है।
पाँव भले ही फिसल जाए। मगर जीभ को बिलकुल फिसलने नहीं देना चाहिए।
उसे वश में ही रखना चाहिए।
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ऋषिपुत्र गुस्से में शाप दे देता है। फिर जब कोई उसे बताता है कि तुमने यह गलत काम किया, उसे पछतावा होता है। पर वह कहता है, "मैं क्या करूँ, अब तक मेरी जबान से कोई असत्य वचन नहीं निकला, इसलिए जो निकला है वह कभी व्यर्थ नहीं होगा। शाप तो उसे लगेगा ही। मगर मैं एक काम कर सकता हूँ। उसे उ:शाप देकर शाप से मुक्त कर सकता हूँ।"
पुराणों में ऐसे कई किस्से पढ़ने को मिलते हैं। कितनी जबरदस्त श्रद्धा थी इन लोगों की सत्य वचन पर !
किसका वचन व्यर्थ नहीं जाता ? जो हमेशा सच बोलता आया है उसका। जो जरूरत से ज्यादा एक शब्द भी नहीं बोलता, आवश्यक हो तभी बोलता है, नाप- तौलकर बोलता है, राग-द्वेष आदि दुर्गुणों से परे होकर बोलता है, उसका।
वाचाशुद्धि की यही शक्ति है। इस शक्ति का हम सही उपयोग करें तो दुनिया बदलने के लिए हमें शस्त्रों की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होगी।