Pathak Ji (Hindi Story) : Rahul Sankrityayan

पाठक जी (दुःखान्त अवसान) : राहुल सांकृत्यायन

औरङ्गजेब की मृत्यु के साथ मुसलमानों के प्रभुत्व का पतन आरम्भ हुआ, लेकिन वही समय है, जब कि मुग़लों के दृढ़ शासन के फलस्वरूप बढ़ी हुई जनसंख्या ने नये-नये गाँवों और बस्तियों को बसाना शुरू किया । पाठक जी के पूर्वज इसी प्रकार १८ वीं शताब्दी के प्रथम पाद में प... गाँव में आकर बस गये । उस समय प... के आस-पास घना जंगल' था, जिसमें भेड़िये बहुतायत से रहा करते थे । पश्चिम ओर छोटे द्वीपावाली एक पुरातन विशाल पोखरी थी । इसका महामाई नाम शायद पाठक के पूर्वजों ने स्वयं रक्खा था । इसी पोखरी के पश्चिम तट पर ब...नाम का छोटा गाँव था, जिसमें खानदानी, सैयद, कारीगर, जुलाहे, साग-भाजियां पैदा करनेवाले मेहनती कोइरी लोग निवास करते थे । यहा की अनेक ईंट चूने की कब्रों से प्रकट होता था कि कभी यह स्थान बहुत समृद्धिशाली था । प... गाँव के उत्तर तरफ़ भी पुरानी बस्ती के कुछ चिह्न थे । लोग पूछने पर बतलाया करते थे कि यहां कभी सिउरी रहते थे, जो पीछे उजड़ कर दूर देश में चले गये । अब भी उनके वंशज उन सुदूर देशों से रात को कभी-कभी आकर बीजक की सहायता से अपने पूर्वजों के गड़े खज़ाने का पता लगाया करते हैं ।

सवा सौ वर्ष बाद अपने प्रथम पूर्वज की ५ वीं पीढ़ी में ( १८४४ ई० में ) पाठक पैदा हुये थे। तब चारों ओर अँगरेज़ों का राज्य था | प... में एक घर के ब्राह्मणों के १७ घर हो गये थे । उनके साथ आये अहीरों और चमारों के भी कितने ही घर हो चुके थे । यद्यपि जंगल काट कर बहुत-से खेत बन गये थे, तो भी इतना जंगल आस- पास में था, जिसमें भेड़िये गुज़र कर सकते थे । पाठक अपने पिता के तीन पुत्रों में मँझले थे, तीनों भाइयों में पाठक कम गोरे थे, तो भी इनका रंग गेहुँये से ज्यादा साफ था । तीनों ही भाई विशालकाय थे, जिनमें पाठक की शरीर-गठन बहुत ही अच्छी थी । पाठक के पिता के पास खेती के अतिरिक्त काफ़ी गायें भैंसें थीं। लड़कपन में पाठक को इन्हीं को चराने का काम मिला था । जब पाठक १२-१३ वर्ष के हुये, तभी माता-पिता ने शादी कर दी । पाठक अपनी भैंस- गायों के चराने में मस्त रहते थे। घर में दूध-घी की इफ़रात थी । यौवन में पदार्पण के साथ पाठक के रग-पुट्ठों मे भी असाधारण बल की झलक दिखाई पढ़ने लगी । लड़के की रुचि कुश्ती की ओर देखकर पिता ने उस समय के रिवाज के मुताबिक बरसात में कसरत कुश्ती सिखाने के लिए एक नट रक्खा। तीन महीने बाद नट को एक भैंस इनाम में मिली । पाठक ने और भी कुछ बरसातें अखाड़े में बिताईं ।

पाठक के गाँव का कोई आदमी नौकरी करने के लिए जिले से बाहर गया हो, इसका पता नहीं। यही नहीं, आस-पास के गाँवों से भी शायद ही किसी ने प्रान्त से बाहर पैर रक्खा हो । पाठक की चरवाही की पाठशाला में भूपर्यटकों के ज्ञान का भाण्डार खुला रहता हो, इसकी संभावना नहीं थी; तो भी पाठक को कहीं से हवा लगी ज़रूर । १८ वर्ष की उम्र में ही पिता के कहीं रक्खे हुये डेढ़ सौ रुपयों को लेकर १८६२ ईसवी में वें वैसे ही चम्पत हुये, जैसे ४६ वर्ष बाद उनका नाती उनके रुपये लेकर ।

युक्तप्रान्त के इस पूर्वी छोर से सुदूर दक्षिण- हैदराबाद को अभी रेल शायद न बनी थी। घर से भाग कर विदेश में चलें-इतना ही उन्हें घर छोड़ते समय ख्याल आया था । वे हैदराबाद के जालना क़स्बे में अँगरेज़ी पल्टन में नौकरी करेंगे, इसका उन्हें कुछ ख्याल भी न था । किन्तु रास्ते के साथियों के कारण आखिर एक दिन वे जालना पहुँच गये । वहाँ उस समय एक पूर्विया फ़ौज रहती थी, जिसमें पाठक के जिले के भी कितने ही राजपूत सिपाही थे; पलटन के सूबेदार मेजर रम्मूसिंह भी उनके अपने ही जिले के थे ।

एक दिन पाठक भी अखाड़े पर गये । आज कुछ विशेष चहल-पहल थी । कुश्ती देखने के लिए पलटन के अफसर भी कुर्सियों पर डटे थे । पाठक ने भी लड़ने की इच्छा प्रकट की । वे सबसे तगड़े आदमी से लड़े । १८-१९ वर्ष के नवयुवक के लिए वह आदमी बहुत भारी मालूम होता था, और कुछ लोग सन्देह में पड़ने लगे थे, किन्तु कुछ ही मिनटों में पाठक ने उसे चित्त कर दिया । कप्तान साहब ने कूद- कर तरुण की पीठ ठोंकी, कुछ इनाम भी मिला । और सबसे बड़ी बात यह हुई कि कप्तान साहब ने खुद सूबेदार मेजर से कहकर उसी दिन पाठक को फ़ौज में भर्ती करा दिया। पाठक ने तनख्वाह और इनाम के १५०) में से सौ रुपये सूबेदार मेजर के साथ में रख कहा-मैं अशर्फियों का कण्ठा पहनना चाहता हूँ । उसी दिन वे रुपये जालना के मारवाड़ी सेठ के पास भेजे गये और दो-तीन दिन के बाद पाठक के गले में सात मुहरों का कण्ठा बन गया ।

पाठक शरीर से जैसे बलवान थे, वैसे ही निशाने में भी सिद्धहस्त निकले | कवायद-परेड का काम सीख लेने के बाद ही कप्तान साहब ने उन्हें अपना अर्दली बना लिया । पलटन के अफ़सरों को हमेशा कोई उतना काम तो होता नहीं । जाड़ों में साहब बहादुर कभी हैदराबाद के जंगलों में, कभी मालवा और नागपुर के वनों में शिकार करते फिरते थे । पाठक भी उनके साथ रहते थे । कितने ही बाघ साहब मारते थे, और कितने ही पाठक के मारे बाघ भी साहब के नाम दर्ज होते थे । हाँ, बाघ मारने का सरकारी इनाम और उसके चमड़े का दाम ही नहीं, ऊपर से साहब की ओर का भी इनाम पाठक को मिल जाया करता था ।

इस जीवन की शिकारयात्राओं की बातें बुढ़ापे में पाठक बड़ी रात बीते तक अपनी सुहृदय धर्मपत्नी को सुनाया करते थे । उस वक्त उनकी बगल में बैठा या गोद में लेटा आठ दस वर्ष का उनका नाती उन बातों को सुनता और आश्चर्य करता । कामठी, धुलिया, अमरावती, नासिक यद्यपि उस समय उस बच्चे को बेमानी मालूम होते थे, किन्तु उन्होंने पीछे उसकी भूगोल और नक्शा पढ़ने में बड़ी दिलचस्पी पैदा की । पाठक कहा करते थे-उधर पहाड़ों में 'बिसकर्मा' (विश्वकर्मा ) के हाथ के बनाये बड़े-बड़े महल हैं वे पहाड़ काटकर बनाये गये हैं । बिसकर्मा ने उन्हें बनाया तो था देवताओं के लिए, किन्तु जब तक देवता आयें तब तक राक्षसों ने उनमें बसेरा कर लिया । देवताओं को खबर देकर जब वे लौटते हैं, तब क्या देखते हैं कि चारों ओर बोतलें खनखना रही हैं । बिसकर्मा ने शाप दिया-जाओ तुम सब पत्थर हो जाओ । पाठक बड़ी गम्भीरता से पठकाइन से कहते --आज भी वे राक्षस या तो हाथ में बोतल लिये, या ताथेई-ताथेई नाचते, या आँख- मुँह बनाते दिखाई देते हैं । देखने से क्या मालूम होता है कि वे पत्थर हो गये हैं ।

पाठक इसी प्रकार साहब के साथ बाड़ों में शिकार खेलते, गर्मियों में शिमला और ठंडे पहाड़ों पर घूमते मौज कर रहे थे । उन्हें नौकरी करते दस वर्ष हो गये थे और इस बीच में उनके साथी और कुछ तो उनकी सिफारिश पर -- तरक्की करके नायक और जमादार बन गए थे, किन्तु उनको न उसकी उतनी इच्छा थी और न साहब ही वैसा करना चाहते थे ।

पिछले सात-आठ वर्षों में पाठक ने कभी एक-आध चिट्ठी तो जरूर भेंज दी थी, किन्तु घर आने का जिक्र तक न किया था । 'उड़ती हुई चिड़िया ने' घर पर खबर दे दी थी कि पाठक ने वहीं स्त्री कर ली है। वस्तुतः था भी ऐसा ही । जालना में कितने ही ऐसे भी घर थे जो पूर्विया सिपाहियों की मराठी स्त्रियों की संतान थे। ऐसे ही एक परिवार की स्त्री उनकी चिररक्षिता हो गई थी । उससे उन्हें एक पुत्र भी हुआ था । पाठक ने उसके लिए घर भी बनवा दिया था। शायद पाठक का वह पुत्र या उसकी सन्तान अब भी जालना में हों ( यदि जालना की अँगरेजी छावनी के टूटने के साथ वे अन्यत्र न चले गये होंगे ) । आठ-नौ वर्ष बीत गये । पाठक के पिता भी मर गये । पाठक के भाइयों का भी बर्ताव उनकी स्त्री के साथ कुछ बहुत अच्छा न था । स्त्री ने अपने भाई को हैदराबाद भेजा । पाठक स्वयं तो न आये किन्तु उन्होंने साले के हाथ स्त्री के लिए कुछ रुपये भेजे । साले ने उस रुपये को अपनी दुखिया बहन को देना पसन्द नहीं किया ।

३, ४ वर्ष और बीते, इसी बीच पाठक दिल्ली दरबार भी हो आये । अभी उनका जीवन-स्रोत वैसा ही बह रहा था। बलजोर और दवन दो राजपूत नौजवानों से उनको सगे भाई से भी ज्यादा मुहब्बत थी । सच पूछिए तो अब उनके लिए जालना घर से कम न था । उनको प.. की फिक्र हो तो क्यों ! किन्तु एक दिन किसी ने पाठक से सूबेदार रम्मूसिंह की कथा सुनाई । वह कई वर्ष पूर्व पेन्शन पाकर घर चले गये थे । रम्मूसिंह जब से पलटन में नौकरी की थी तब से एक ही दो बार कुछ समय के लिये घर गये थे या शायद नहीं ही गये थे | पेन्शन के बाद एक बक्स में अशर्फियाँ भर कर वे घर पहुँचे । उनकी स्त्री बूढ़ी हो चुकी थी । बूढ़े सूबेदार मेजर ने अशर्फियों का बक्स उनके सामने खोल दिया । ख्याल किया होगा, स्त्री बहुत प्रसन्न होगी, किन्तु प्रसन्नता का पता तो तब लगा जब सूबेदार मेजर ने पानी माँगा और उत्तर मिला कि "उन्हीं अशर्फियों से लो । तुमने तो ज़िन्दगी में अशर्फियाँ ही पैदा कीं, पानी देनेवाले थोड़े ही पैदा किये ।” बेचारे सूबेदार पर क्या बीती होगी, इसका तो पता नहीं, किन्तु पाठक पर इस बात का बड़ा असर हुआ । परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों के बाद सबके कहते-सुनते रहने पर भी नाम कटा कर वे घर के लिए रवाना हो गये ।

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घर लौटने की सबसे अधिक प्रसन्नता पाठक की स्त्री को होनी ही चाहिए थी । यदि भाइयों के पास समय-समय पर कुछ रुपया आया करता तो इसमें शक नहीं कि पाठक की स्त्री की उतनी उपेक्षा न होती । पठकाइन में एक बड़ा गुण यह था कि वे झगड़ा पसन्द न थीं, किन्तु इसका ही दुष्प्रभाव यह था कि दूसरों के प्रतिकूल व्यवहार को वे मन में रखती जाती थीं । कड़वे मुँहवालों में अक्सर देखा जाता है कि वे किसी के दुर्व्यवहार को फौरन मुँह से निकाल कर भीतर-बाहर दोनों ओर ठण्डे हो जाते है । बेचारी पठकाइन में यह गुण या अवगुण था नहीं, वे बारह वर्ष तक की उपेक्षाएँ ताने सब कुछ दिल में रखती गई थीं । पाठक के आने के बाद वह लेखा एक-एक कर खुलने लगा । परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही समय के बाद पाठक भाइयों से अलग हो गये ।

अब उन्होंने अपने घर को कुछ अपनी रुचि का बनाना चाहा । पहले तो उन्होंने द्वार पर पक्का कुआँ बनवाया और रहने के लिए ईंटों का मकान । पाठक को यह पसन्द न था कि वे अपना गन्ना दूसरे के कोल्हू में पेरने ले जायें। इसलिए चुनार जाकर एक पत्थर का कोल्हू ले आये । कोल्हू को अपने द्वार पर ही गाड़कर उन्होंने दो घर 'कुल्हाड़' के लिये भी बनवा दिये । उनके पास अपना पैत्रिक खेत दो बीघे से ज्यादा न था । कुछ दिनों के बाद उनके एक समीपी कुटुम्बी ने तीनों भाइयों से कहा- मुझे रुपये की आवश्यकता है। तुम लोग मेरे हिस्से का इतना खेत ले लो। नहीं तो मैं दूसरे को बेंच दूँगा। तीनों भाइयों ने मिलकर खेत लिखा तो लिया, किन्तु छोटा भाई दाम न दे सका । पाठक ने उस भूमि को भी ले लिया । इस प्रकार अब पाठक के पास पाँच बीघे ( तीन एकड़ से कुछ अधिक ) के क़रीब ज़मीन हो गई । घर में दो प्राणी थे । एक लड़का हुआ, किन्तु कुछ ही समय के बाद मर गया । १८७६ ई० के क़रीब पाठक को एक लड़की पैदा हुई । वही उनकी अन्तिम और एकमात्र जीवित सन्तान थी। घर में उसका लड़के के ही समान लाड़-प्यार था और होना ही चाहिए था । ९- १० वर्ष की होने पर, लड़की का व्याह १० मील पर एक दूसरे गाँव में कर दिया गया । लड़की अधिकतर मायके ही में रहती थी, ससुराल जाने पर हर दूसरे हफ्ते मां का आदमी कुछ लेकर पहुँचा रहता था । १८९३ ईसवी में लड़की को एक पुत्र हुआ । नाती के जन्म से पाठक-पाठकाइन दोनों को अपार आनन्द हुआ । नाती जब अपनी मां से अलग रहने लायक हो गया तब वह नाना का हो गया । अब बेटी की ममता भी नाती पर चली आई, इससे अब उसे ससुराल में अधिक रहने की इजाज़त हो गई ।

पाठक के बड़े भाई के पाँच बेटे थे और छोटे के दो । उस थोड़ी सी भूमि से बड़े भाई के इसने बड़े परिवार का गुजर होना बहुत कठिन था । वे देखते थे कि जो जायदाद उनको मिलती उसके लिए नाती तैयार किया जा रहा है । इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों परिवारों में अनबन रहने लगी। दिल में जलन तो थी ही, जरा-सा भी मौका मिलते आग भड़क उठती, दो-चार गाली-गलौज होती और फिर तीन-चार मास के लिए दोनों ओर के गाल फूल आते ।

पाठक अपने हाथ से काम करना अच्छा न समझते थे । पलटन के तिलङ्गा जो रह चुके थे । घर में दूध देनेवाली एक भैंस वे जरूर रक्खा करते थे बहुत पशुओं के शोकीन न थे, सिर्फ दो बैल और एक भैंस रखते थे । दूध और छाछ के बिना उनका काम न चल सकता था । पहले मछली-मास की भी खूब चाट थी, किन्तु पीछे खानदानी गुरु और अपनी स्त्री के बार-बार कहने पर मजबूर हो बेचारे एक सौ ग्यारह नम्बर वाले धर्म के चेले हो गये । एक काठ की कण्ठी गले में डाल दी गई और पाठक को अपने प्रिय भोज्य से वंचित हो जाना पड़ा । तो भी जब उनका नाती कुछ खाने-पीने लगा तब वे कण्ठी और वैष्णवता के रहते भी नाती के लिए कहीं मछली मिल जाती तो लाये बिना नहीं रहते थे । जीती मछलियों को तो चार-चार पाँच-पाँच सेर लेकर वे एक नाद में पाल लेते थे, जिन्हें नाती निकाल-निकाल कर भूनता- तलता था । नाना-नानी ढंग बतलाने और हल्दी-मसाला पीसकर दे देने में कोई हिचकिचाहट नहीं करते थे ।

पाठक की थोड़ी भूमि उनकी परिमित आवश्यकता के लिए काफी थी । खेत से अनाज और भैंस से दूध-घी उन्हें मिल जाया करता था । घर का काम-काज बहुत कम था । बाहर का काम उनका हलवाहा या दूसरा कर देता था और घर का उनकी स्त्री । बस पाठक को खाना, सीना और सबसे बड़ा काम गप्पें मारना था । उस समय प... गाँव के किसी बाग, कुल्हाड़, या खलिहान में यदि आप पाँच-सात आदमियों के बीच एक मोटे ताजे अधेड़ पुरुष को देखते जो कि पैर और कमर को अँगौछे में बाँध कर कुर्सी बनाये बैठे बातें करता होता, तो समझ जाइए वह पाठक महोदय होते । यद्यपि उन्होंने बारह-तेरह वर्षो में बहुत-से देश और लोग देखे थे, तो भी जब उन्हीं बातों को और उतने ही आदमियों में रोज़ दो-तीन घण्टा कहा जाय तो वे कितने दिनों तक नई रह सकती थीं ? फलतः बाज़ श्रोता पाठक के बात आरम्भ करते ही कह देते -- हाँ, यह हिंगौली छावनी के पहलवान की कथा होगी। तो भी पाठक ऐसे जीव न थे कि श्रोता की अनिच्छा के कारण अपनी कथा छोड़ बैठते ।

प... गाँव में सरस्वती का सत्कार न था । पाठक का छोटा भतीजा प्राइमरी तक पढ़े था, फिर उनका नाती ही पहला आदमी था, जिसने मिडिल पास किया । पाठक स्वयं अनपढ़ रहते हुए भी विद्या के लाभ को जानते थे, इसीलिए अभी नाती जब पाँच ही वर्ष का था तभी पास के स्कूल में पढ़ने के लिए बैठा दिया । वे कहा करते थे-और नहीं तो बैठना तो सीखेगा । पाठक के फुफेरे भाई सदर-आला होकर मरे थे, वही ख्याल करके अपनी स्त्री से वे कहा करते थे- ज़रा मिडिल पास हो जाने दो, फिर मैंने जहाँ एक दिन जाकर पादरी साहब के यहाँ जङ्गी सलामी दागी कि बच्चे को अँगरेजी स्कूल में भर्ती कराकर ही छोड़ूँगा । पाठक को और भी बड़े-बड़े मनसूबे बाँधने की उत्तेजना इस बात से सब से अधिक मिलती थी कि उनका नाती पाठशाला में अपने दर्जे में बराबर अव्वल रहा करता था ।

पाठक ने नाती को अपने सुख के लिए ही इतने लाड़-प्यार से- पाला था, किन्तु इसी प्रेम ने उनके जीवन की संध्या को दुःखान्धकार पूर्ण बना दिया । वस्तुतः यदि पाठक को अपने मन से करने दिया गया होता तो वे अपने भतीजों को दुश्मन न बनाते । उनका अपने भाइयों के प्रति हमेशा स्नेहपूर्ण बर्ताव रहता था । हाँ, जिस वक्त वायु-मंडल बिलकुल कड़वा हो जाया करता था, उस वक्त भी पाठक के हृदय में सतह से ज़रा नीचे जाने पर भाइयों का स्नेह वैसा ही तर पाया जाता । ऐसे मौके आये, जिस वक्त ये तीनों वृद्ध भाई झगड़े के तूफ़ान के बीच भी स्वच्छन्दता-पूर्वक मिलने पर 'भैया" 'भैया' ! कह कर फूट-फूट कर रोने लगते । तो क्या पाठक की स्त्री को दोष दिया जा सकता है ? उनका स्वभाव भी बहुत मधुर था । आदमी जन, हित-पाहुना ही नहीं, रात के टिकने वाले भिखमंगे भी उनकी तारीफ किया करते थे । अतिथियों को खिलाने-पिलाने में उनको बड़ा आनन्द आता था । मधुर- भाषिणी तो इतनी कि सिवा अपनी जेठानी के ( जिसका कारण और ही था ) उन्होंने किसी को कभी कड़े शब्द न कहे होंगे । दया का उदाहरण लीजिए । वैसे पाठक के घर से कुत्ते-बिल्लियों का बिलकुल सम्बन्ध न था, किन्तु एक बार एक कुतिया ने आकर बाहर के घर के कोने में बच्चे जन दिये । फिर क्या था ? पठकाइन ने समझा-इस प्रसूता की परिचर्या का सारा भार उन्हीं पर है । कुतिया के लिए प्रसूता की तरह खाना मिलने लगा । इस दया का फल तुरन्त ही यह हुआ कि कुतिया द्वार की मालकिन बन गई और उसने एक बुढ़िया भिखमंगिन को काट खाया । एक प्रकार से कहा जा सकता है अपने घर के दो दायादों के सिवा वे अजातशत्रु थीं ।

तो क्या उनकी जेठानी और देवरानी कसूरवार थीं ? देवरानी और पाठक के घर का विरोध तो हमेशा क्षीण रहा ( न उन्हें कुछ आशा थी, न कुछ मिला ) हाँ, जेठानी उन सासों में थीं जो कड़ाई के बिन अपनी बहुओं को शासन में रख सकती थीं। उनमें बहुत गंभीरता थी । अनपढ़, अल्प-वित्त, बहुसन्तान और ग्रामीण होते हुए भी उनमें व्यवस्था और परख करने का गुण था । वे उदारमना थीं, जो गुण उनकी परिस्थिति की स्त्रियों में बहुत कम पाया जाता है । उनके पति-पाठक के बड़े भाई तो पूरे धृतराष्ट्र थे । लड़कों के मारे भाई का विरोध करते भी असमञ्जस में ही पड़े रहते थे । पाँच लड़के थे। इतने परिवार का उतनी थोड़ी भूमि से निर्वाह होना मुश्किल था । इसलिए होश सँभालते ही दो तो कलकत्ता जाकर पुलिस में भर्ती हो गये । जब वे दो-चार वर्ष में छुट्टी में घर आते तब चाहे चचा ( पाठक) और अपने घर से बोल-चाल न भी हो; भेंट की चीज़ लेकर पहले वे चचा के पास ही पहुँचते थे । भेंट सामने रख कर चरण छूकर चाचा-चाची को प्रणाम करते थे ।

एक बार एक पुलिसमैन भतीजा उस वक्त घर आया, जिस वक्त रूस- जापान की लड़ाई हो रही थी । आकर उसने घन्टों पनडुब्बी नावों की बातें और दूसरी खबरों-जिन्हें कि वह कलकत्ता में सुना करता था -- का वर्णन करता रहा । सब से छोटा भतीजा असाधारण व्यवहारकुशल तथा प्रतिभाशाली था । यदि उसे शिक्षा का अच्छा अवसर मिला होता तो वह एक विशेष आदमी हुआ होता । पाठक के नाती या अपने भांजे के साथ उसका प्रेम था । उसी ने ले जाकर उसे अक्षरारंभ करवाया था। घर पर रहते वक्त वह भांजे को कुछ काम की बातें बतलाकर उत्साहित करता रहता था। अपर प्राइमरी तक पढ़कर उसे चिठ्ठीरसा की नौकरी कर लेनी पड़ी थी, इसलिए जिले में ही किन्तु बराबर बाहर रहना पड़ता था । बाकी दो भतीजे अपनी स्वतन्त्र बुद्धि न रखते थे । वस्तुतः यदि वह थोड़ी-सी जमीन --- जो सारी कड़वाहट की जड़ थी-का ख्याल हटा दिया जाय तो भतीजे बुरे ही न थे, बल्कि बहुत अच्छे थे । भतीजों की बहुएँ ? एक पाठक के साले की लड़की थी। दूसरी उनके ही कथनानुसार गौ थी । सबसे छोटी बहू की तो वे प्रशंसा करते न थकते थे। और बाकी दो बेचारी घर के भीतर चुपचाप रहनेवाली थीं, उन्हें झगड़े-झंझट से कोई वास्ता नहीं था ।

और नाती ? वह तो लड़का था । वह सभी चीजें अपने शिशु-नेत्रों से देखता था । तो भी यदि उसके उस बाल-अनुभव -- चौदह वर्ष की अवस्था के पूर्व के अनुभव की कीमत है तो उसे सभी मामियाँ बड़ी ही मधुर मालूम होती थीं। छोटी मामी से उसे असाधारण प्रेम था । स्कूल से लौटते ही, जहाँ नानी ने कुछ खाना दिया नहीं कि वह छोटी मामी के दरबार में हाज़िर हुआ । इस मामी में असाधारण कोमलता थी । वह सुन्दर थी, स्वच्छ थी, शीघ्र बात समझने वाली थी, और अपने भांजे को खुश करने वाली मीठी बातें करना जानती थी । आने पर खाने को पूछना, पानी के लिए पूछना, फिर दिल खोलकर बातें करना – एक बालक के लिए और चाहिए ही क्या ? सचमुच यदि उस लड़के को पूछा जाता कि तुमको सिर्फ एक आदमी दुनिया में मिलेगा, चुन लो और हमेशा के लिए निर्जन बन में चले जाओ तो वह अपनी इसी छोटी मामी को ही चुनता । उसका बालक हृदय टूक-टूक हो गया, जब एक बार दोनों घरों की बोलचाल बन्द होने पर भी वह छोटी मामी के पास गया; और आते ही बड़े ही रूखे शब्दों में उसे कहा गया- तुमने बहू को गाली दी है, खबरदार ! अब इधर मत आना । मामी को भी इससे कम दुःख न हुआ होगा, क्योंकि उसे भी अपने भांजे को शाम-सवेरे देखे बिना चैन न आता था । बालक को क्या मालूम था कि यह दुनिया प्रेम और सद्भाव का स्रोत बहाने के लिए नहीं है । कुछ ही वर्ष बाद वह प्यारी मामी मर गई ।

व्यक्तियों में अलग-अलग ढूंढ़ने में तो किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता था, किन्तु समुदाय में भयंकर कड़वाहट पैदा हो जाती थी । इसका कोई सबब ज़रूर था ।

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१९०५ ईसवी में पाठक की लड़की मर गई । अब पाठक के चार नाती थे । बाकी तीन छोटे अपने घर पर रहा करते थे । पठकाइन ने ज़ोर दिया-नातियों के नाम लिखा-पढ़ी कर देनी चाहिए, ज़िन्दगी का ठिकाना क्या है । १९०६ में पाठक ने अपनी जायदाद को नातियों के नाम लिख दिया ।

अब तो युद्ध की घोषणा हो गई । किन्तु बेचारी पठकाइन उस युद्ध के प्रचंड होने से पूर्व ही प्लेग में इस दुनिया को छोड़ चल बसीं । नाती अब गाँव से कुछ दूर एक मिडिल स्कूल में पढ़ता था, जहाँ से छठे माहे ही आता था; और जब झगड़ा जोर पकड़ चुका तब तो आता भी न था । लड़ने वाले थे, एक ओर पाठक के भतीजे और दूसरी ओर पाठक और उनका दामाद । अनुकूल-प्रतिकूल आदमी सभी जगह मिल जाते हैं । वही यहाँ भी हुआ । भतीजों ने पहले तो हिस्से-को नजायज करार दिलाने के लिए दीवानी में एक मुकद्दमा दायर किया, किन्तु वे जानते थे, कानून उनके विरुद्ध है । फिर उन्होंने फ़ौजदारी मुकद्दमे और मारपीट शुरू कर दी । फ़ौजदारी में तो जो पुलिस को खूब रुपया दे, झूठे-सच्चे गवाह दे उसकी जीत होगी। दोनों ओर से रुयया खर्च होने लगा । साल भर तक यह घमासान युद्ध होता रहा; जितनी की जायदाद नहीं थी, उतनी हानि ओर खर्च पाठक के दामाद को उठाना पड़ा । भतीजों को भी उससे कम खर्च नहीं करना पड़ा । दोनों को कुछ होश आने लगा । दामाद साहब भी समझने लगे, दूसरे गाँव में आकर यह सब करने में हम नुकसान में रहेंगे। उनके अपने घर का लेन-देन, खेतीबारी का काम बिगड़ रहा था । अन्त में पंच के द्वारा सुलह हुई | पंच ने नाती को ग्यारह या बारह सौ रुपये दिलवाये |

भतीजे अब भी पाठक को रहने के लिए कहते थे । किन्तु पाठक समझते थे कि किसी समय उन्हें ताना मारा जा सकता है । यद्यपि वे अपने सबसे छोटे भतीजे की बहू को देवता मानते थे, (यह छोटी मामी के मरने के बाद दूसरी शादी थी) । साथ ही पाठक को इससे भी कम ग्लानि न थी कि जिस लड़की के गाँव तक में धर्म-भीरु लोग पानी पीना नहीं चाहते, वहीं उन्हें अपनी ज़िन्दगी का अन्तिम समय अपरिचित मुखड़ों के बीच बिताना पड़ेगा । साँप-छछून्दर की दशा थी । यदि पाठक ने पहले इस परिणाम को जाना होता तो अपने भतीजों को वे विरोधी न बनाते । एक दिन पाठक इच्छा से या अनिच्छा से दामाद के गाँव में चले गये, साथ ही जवानी के जाये उस पत्थर के कोल्हू को भी लेते गये ।

यद्यपि यहाँ तक दामाद और सम्बन्धियों का सम्बन्ध था, उनका बर्ताव अच्छा था, तो भी पाठक को वह स्थान अनुकूल अपरिचित- सा जान पड़ता था । अब भी वे अपने शिकार की अपनी यात्राओं की बातें सुनाते थे, और सुननेवाले भी होते थे; किन्तु उन्हें कहने में, वह रस न आता था । अब उनका अपना नाम चला गया था, और उसकी जगह वह अमुक के ससुर कहे जाते थे । पाठक का अपना मकान एक छोटे गाँव में था, किन्तु वहाँ मील भर पर अच्छा बाजार था, और फेरीवाली खटकिनें, कोइरिनें भी साग-भाजी लेकर आ जाया करती थी । अब उस झारखण्ड के गाँव में खाने-पीने की उन चीज़ों की सुविधा न थी । स्त्री-वियोग और पुत्री-वियोग ऊपर से चित्त को खिन्न किये रहता था । अब एक और घटना हुई, जिसने उनके जीवन को बिल्कुल ही नीरस बना दिया । पहले तो नाना की विचित्र यात्राओं के बात से प्रभावित नाती एक वर्ष घुमक्कड़पन में गँवा आया । फिर. मिडिल पास करने पर दूसरा खब्त सवार हुआ । कहने लगा- अंगरेजी म्लेक्ष-भाषा है, मैं तो संस्कृत पढूँगा । उसी में स्वर्ग-मोक्ष का मार्ग रक्खा है | घरवालों के जिद करने पर एक दिन वह चुपके से निकल भागा। पाठक के लिए यह असह्य बात थी । उनका सारा प्रेम उसी नाती में केन्द्रित था । जब उन्हें पता लगा कि नाती बदरी- नारायण की ओर गया है तब वे भी उधर चल पड़े, किन्तु उससे भेंट न हुई । पीछे नाती को बनारस में रहकर संस्कृत पढ़ने की अनुमति हो गई । कुछ वर्षों तक वह बनारस में संस्कृत पढ़ता रहा, किन्तु इसी बीच १९१२ ईसवी में पाठक ने सुना कि नाती साधु होकर कहीं चला गया ।

पाठक अब जीवन की अन्तिम सीमा पर पहुँच चुके थे । उनका शरीर और हड्डियाँ जितनी दृढ़ थीं और जैसे वे नीरोग रहते आये थे, उससे अभी वे और जी सकते थे किन्तु अब तुम्हें जीने की चाह नहीं रह गई थी । १९१३ में वे बीमार पड़े, जान गये अब चलना है । उस वक्त उनकी एक यही इच्छा थी कि अन्तिम समय नाती को देख लें। किन्तु नाती उस समय डेढ़ हजार मील दूर मद्रास में था । वह जानता भी न था और यदि सुन भी पाता तो कौन जानता है वह अपने वृद्ध नाना की आत्मशांति के लिए उनके पास आना पसन्द करता । रामशरण पाठक एक दिन चल बसे और उस प्रथा को याद करते हुए जिसके द्वारा भाइयों को वंचित कर दूर गाँव के सम्बन्धियों को अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाया जा सकता है ।

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