परिव्राजक की प्रजा (कहानी) : हिमांशु जोशी

Parivrajak Ki Praja (Hindi Story) : Himanshu Joshi

खिड़कियों से घिरे काठ के कमरे में एक अजीब दुर्गंध फैल रही है। छोटे—छोटे थैलों की तरह बच्चों का अंबार लगा है। इधर-उधर, ऊपर-नीचे बच्चे ही बच्चे बिखरे पड़े हैं—गहरी नींद में डूबे।

सामने ऊँघते झबरैले फीखी (कुत्ते) की बगल में एक बौना बालक बार-बार करवट बदल रहा है। उसके नन्हे शोम्पा (ऊनी जूते) तार-तार हो गए हैं। सैवारी थुपा (लबादा) फट गया है। बित्ते भर का दोरमा (पाजामा) फट गया है। गरदन और पतली सींक-सी रूखी कलाइयों पर मैल की चिकनी तह-सी जम गई है। जोहारी मेमने की तरह चपटी नाक बह रही है। वह बुरी तरह हाँफ रहा है। शायद ज्वर से उसका रोम-रोम जल रहा है। उसके घुटे सिर पर, हाथों पर, मुँह पर, सारे शरीर पर गर्मी के कारण फफोले-से उभर आए हैं।

पास ही एक पचास-साठ साल का ढाबा (बौद्ध भिक्षु) हाथ में मानी (प्रार्थना चक्र) घुमाता हुआ, आँखें मूँदे, गुनगुनाता-भुनभुनाता हुआ न जाने कौन-सा मंत्र जाप कर रहा है। केवल ओऽऽमऽऽ शब्द ही बार-बार सुनाई देता है।

रात्रि का पता नहीं कौन सा प्रहर बीत रहा है! मैं अपने असबाब के ऊपर बैठा जागा हूँ। फीखी जागा है। ढाबा जागा है। मैं ढाबा की ओर देख रहा हूँ। उसकी तिनके जैसी मात्र दाढ़ी के दो-तीन लंबे सफेद बाल पंखे की हवा में उड़ रहे हैं।

“गैलोङ्!” (भिक्षु-प्रवर) मैं सन्नाटा तोड़ता हूँ।

वह पलकें ऊपर उठाकर देखता है।

“गाने फैबापा?” (कहाँ से आए?)

“बोदने।” (तिब्बत से)। वह वैसे ही बुदबुदाता है। संभवत: वह बोलने के मूड में नहीं है। इसीलिए खजूर-सा मुँह सिकोड़ता है। लेकिन मैं फिर पूछता हूँ—“घोन्पा घाने रे?” (किस मठ से)।

वह बिना मेरी ओर देखे ही संक्षिप्त-सा उत्तर देता है—“डे पुंङ्...।” और फिर मानी और मंत्रों की दुनिया में लौट जाता है।

असह्य सूनापन फिर व्याप जाता है। खटर-खटर की आवाज फिर से सुनाई देती है। लोहे के पहियों पर लोहे का क्रुद्ध अजगर फुफकारता हुआ, अंधकार को चीरता आगे बढ़ रहा है। कभी-कभी उसकी फुफकार सीटी का स्वरूप ले लेती है तो काँच के से टुकड़े की तीक्ष्ण धार की तरह, कहीं कुछ छीलकर निकल जाता है।

छत पर टिकी सफेद शीशे की औंधी प्याली से तापहीन पीला प्रकाश बिखर रहा है। जिसके चारों ओर भिनभिनाते असंख्य कीड़े, टकरा-टकराकर नीचे गिर रहे हैं।

“डे-पुंङ्...(धान्यकटक)!” मैं अनायास बार-बार दुहराता चला जाता हूँ। आँखें मूँदे देख रहा हूँ—पोताला की पथरीली छतों से परे, दोनों बाजुओं से दूर ‘से-रा’ और ‘डे-पुंङ्...धान्यकटक। दिग्नाग, बसुबंध, नागार्जुन के भारत का धान्यकटक नहीं, सोगयुल (मंगोलिया), डुगपुल (भूटान), डेनजोंग (सिक्किम) और बोद (तिब्बत) और दलाईलामा का, नहीं-नहीं अतिशा शांति रक्षित का धान्यकटक।...जहाँ हजारों ढाबा कंजुर-तंजुर (बुद्धचर्या) का परायण कर रहे हैं।...प्रज्ञा पारमिता पर शास्त्रार्थ कर रहे हैं।

किंतु यह क्या? दूर कहीं से एकाएक प्रलय के मेघ उमड़ रहे हैं। माटी के मठ की बर्फीली दीवारें धूलि-धूसरित होकर धरती में सिमट रही हैं। ‘साम्यवादी’ फौलादी तोपें आग उगलती हुई मठों की ओर मुड़ रही हैं। प्रतिरोध में भिक्षु सिर पर कफन समेटे, बौद्ध-विहारों से निकल-निकलकर...हाथों में मशाल उठाए सशस्त्र शोणित-क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित कर रहे हैं।...

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मैं देखता हूँ—सामने बैठे भिक्षु का एक हाथ कुहनी पर से कटा है...लबादे से ढका। उसके सिर पर हँसिया और हथौड़े के बड़े-बड़े घावों के निशान हैं।

उसके कटे हाथ के पास बच्चा बुखार से पीड़ित बेहोश पड़ा है। कभी-कभी वह बुदबुदाता है, किंतु आवाज गले से फूटकर बाहर नहीं बिखर पाती।

इन तमाम बच्चों का मात्र अकेला अभिभावक खंपा तरुण फर्श पर गैंडे की तरह लेटा है। खर्राटे भर रहा है। अभी-अभी वह मुझे बहुत सी बातें बतला रहा था—यही कि वह खम-प्रदेश में कहीं शिंदेन के समीप का निवासी है। इधर तिब्बती शरणार्थियों की सेवा में संलग्न है। इन अनाथ, अभागे शिशुओं को वह दिल्ली ले जा रहा है। जहाँ से इन्हें स्विट्जरलैंड, मसूरी आदि अलग-अलग स्थानों में बाँटकर भेजा जाएगा।...इनका कोई भी नहीं है।...

“अकेले ही इतनों की देखरेख कैसे कर लेते हो?”

“क्यों?” वह छत पर रेंगती, हवा देनेवाली चर्खी की ओर देखता है—“ये कुछ भी तो नहीं कहते। जब समय हुआ, जो कुछ भोजन-पानी उपलब्ध हुआ, दे दिया। ये चुपचाप ग्रहण कर लेते हैं। प्रतिरोध या रोने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।...शाम को बरेली में कुछ बाँट दिया था, अब दिल्ली पहुँचकर ही देंगे।” वह सामने के बीमार बच्चे की ओर इंगित करता है—“यह इन सब में छोटा है...कोई ढाई-तीन साल का। इसके माँ-बाप का कुछ भी अता-पता नहीं।”

“यह कभी दूध के लिए नहीं मचलता?”

“ना।”

“रोता भी नहीं?”

“ना।”

“हँसता-खेलता भी नहीं?”

“ना! गूँगा-बहरा-सा हो गया है।”

मनुष्य के जन्मजात गुण भी यों लुप्त हो सकते हैं—मैं यह सोच नहीं पाता।

अब बच्चे की कीचड़ में डूबी आँखें खुली हैं। वह मेरी ओर देख रहा है। शायद मेरी आँखों के चमकते चश्मे की ओर।

“ग्यलसे जीपा!” (राजकुमार बेटे) मैं चुटकी बजाकर पुचकारता हूँ।

वह फफोलों से ढके माथे पर हाथ रखता है।

“गो नागी दुंङ्।” (सिर दुःखता है।)

वह फिर मेरी ओर देखता है।

कुछ पल पश्चात् उसके मुरझाए पतले अधर फड़कते हैं—“छु...ऽ...ऽ...।”

मैं थर्मस से ठंडा पानी प्लास्टिक के प्याले में उड़ेलता हूँ। उसके होंठों पर लगाता हूँ।

गीले होंठों को वह जीभ से चाटता है। और घुटनों में सिर गड़ा लेता है। शनैः-शनै: बड़बड़ाना शुरू कर देता है।

तभी समीप ही आठ-नौ वर्ष की बाला आँखें मलती हुई झुँझलाकर उठती है। उसे झकझोरती हुई कुछ कहती है। उसका स्वर सुनते ही बच्चा सुन्न रह जाता है।

उसके नन्हे नयन मुँदे हैं। उसकी नन्ही काली हथेली फफोलों से ढके सिर पर धरी है—शायद जो अभी तक भी दुःख रहा है।

रात ढल गई है। गाड़ी गजरौला पार कर गई है। फीखी बंद दरवाजे के पास किसी के बिस्तरे के ऊपर बैठा है। धान्यकटक का भिक्षु अभी तक भी निरंतर मानी घुमा रहा है। सभी सोए बच्चे एक-एक कर जाग गए हैं। अपनी-अपनी इंच भर की ठौर में पालथी मारे चुपचाप बैठ गए हैं। सब चुप हैं। कोई कुछ बोलता नहीं।

जिसने तनिक भी ताक-झाँक की नहीं कि उसी आठ-नौ साल की कन्या की त्योरियाँ देखने मात्र से, सहमकर सब साँस खींच लेते हैं।

खंपा अभिभावक भी अब जाग गया है।

वह बच्चों को पुचकारता है। प्यार करता है। सबसे छोटे बीमार बच्चे को खुली खिड़की के पास लिटा देता है। उसका थूपा उतारकर सिरहाने रख देता है। उसके तन पर तमाम फफोले-ही-फफोले बिखरे दीखते हैं।

बच्चे की साँस अब धीरे-धीरे चल रही है। टकटकी बाँधे वह गदले आसमान की ओर न जाने किस भाव से देख रहा है!

लगता है, सूरज आज नहीं उग रहा है...उनींदे गीले बादलों में लिपटकर बुझ गया है। लोहे की समानांतर रेखाओं पर लोहे का अजगर निरंतर भागता जा रहा है।

बच्चे की साँस अब रुक-रुककर चल रही है—और बिना रोए, बिना छटपटाए, बिना कराहे उसने चुपचाप पलकें मीच ली हैं।

मैं देख रहा हूँ—उसकी निर्विकार, निरपराध, निरीह आकृति में अब कोई भी भाव नहीं है—खंपा ने हौले से उठकर उसका लबादा उसके ऊपर ढक दिया है।

(रचनाकाल, 1959-60)

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