परिन्दा पकड़ने वाली गाड़ी (कहानी) : ग़यास अहमद गद्दी

Parinda Pakadne Wali Gaadi (Story in Hindi) : Ghayas Ahmad Gaddi

सुबह होती, दिन चढ़ता और सूरज जब ठीक शिखर पर पहुँचता, शहर में एक ऐसी गाड़ी आती, जो शहर के परिन्दों को पकड़कर ले जाती, ठीक वैसे ही जैसे म्युनिसिपैलटी की गाड़ी कुत्ते पकड़ने के लिए निकलती है। यह गाड़ी, जो चारों तरफ़ से रंगीन शीशों से बन्द बेहद ख़ूबसूरत होती कि निगाह उठाकर दाद देती, इसके चारों तरफ़ नन्ही-नन्ही घण्टिया बँधी होतीं, जो चलते वक़्त धीरे-धीरे बज रही होतीं। घण्टियों की आवाज़ अजीब होती, कुछ ऐसी, जैसे कोई सहर फूँक रहा हो। एक लम्बा, ख़मीदा-कमर, ज़र्दरू आदमी गाड़ी को खींच रहा होता। बिल्कुल उसी तरह दूसरा आदमी गाड़ी के पीछे चल रहा होता, जिसके हाथ में पतला सा, बहुत लम्बा बाँस होता। बाँस के सिरे पर ब्रश जैसा गुच्छा-सा होता, जिस पर गोंद या उसी तरह की चिपक जाने वाली लसदार रोतूबत लगी होती, जिससे वह परिन्दों को पकड़ता था।

दीवार पर, छतों की मुण्डेरों पर, टेलीफ़ोन के खम्भों, पेड़ों या फ़र्श पर दाना-दुनका चुनते हुए परिन्दे जहाँ नज़र आते, वह आदमी बाँस को आगे बढ़ा देता और जिन परिन्दों के परों पर लसदार रोतूबत लगा हुआ गुच्छा छुला देता, पहले तो वे परिन्दे तड़पते, छटपटाते, उड़ने की कोशिश करते, फिर थक-हारकर लसदार रोतूबत से चपड़-चपड़ करते हुए परों की कूवते परवाज के उलझ जाने के कारण एक तरफ़ औंधे होकर लुढ़क जाते। तब वह आदमी जल्दी से बढ़ता और दोनों हाथों से झपटकर परिन्दों को पकड़ता, धीरे से गाड़ी के छोटे-से दरवाज़े को खोलता, उसमें परिन्दे को ढकेल देता, दरवाज़ा बन्द करता, फिर ग़ौर से शीशे को बन्द करके देखता, जहाँ परिन्दा फड़फड़ाकर थक जाता। उस वक़्त उस आदमी के चेहरे पर अजीब-सी हँसी बिखर जाती और आँखें अँधेरे में बिल्ली की आँखों की तरह चमक उठतीं।

हर रोज़ जैसे सूरज सरों पर आता, तेज़ किरणें सरों पर गड़ती, पच्छिमी दरवाज़े की जानिब से छोटी-छोटी घण्टियों की सदा सुनायी देती। ज़रा देर बाद बड़ी सुबुक खरामी से एक आदमी, जिसका चेहरा बेहद ज़र्द होता और जिसकी आँखें नीमदा होतीं, जिसकी कमर से पतली-सी रस्सी लिपटी होती, जो गाड़ी के सिरे से बँधी होती और वह नीम गनूदगी के आलम में चलता बढ़ा आता। फिर जहाँ कोई चिड़िया, कोई परिन्दा नज़र आता, वह आदमी आप-ही-आप रुक जाता और अपने पीछे आने वाले आदमी को परिन्दे की तरफ़ इशारा करता।

यह रोज़मर्रा का दस्तूर होता। दुकानदार दुकानों में होते, राहगीर चलते-चलाते रहते, मोटरकारें तेज़ी से पूँ-पाँ करती गुज़रती होतीं, जूता गाँठने वाला गाँठता रहता, ख़रीदफ़रोख्त होती रहती, शोरोगुल से कान पड़ी आवाज़ सुनायी न देती, लेन-देन का बाज़ार इतना जवाँ होता कि अव्वल तो गाड़ी की तरफ़ किसी की नज़र ही न उठती, लेकिन उनमें से किसी की नज़र उठ भी जाती, तो वह सहरजदा-सा इस अजीबोग़रीब गाड़ी और उसके हुस्न को देखने में खो जाता।

कभी ऐसा भी होता कि कोई आदमी चौंकता और ज़रा हौसले से उठता। गाड़ी वाले जब उस आदमी को क़रीब आते देखते, तो झट अपनी लम्बी जेब में हाथ डालते और चन्द सिक्के निकालकर उसकी तरफ़ उछाल देते। फिर वह आदमी सिक्के चुनने में ऐसा लीन हो जाता कि उसे किसी चीज़ का होश ही न रहता। लोग यह मंज़र देखते और आँखों और चेहरों से हैरत का इज़हार करते। इस वक़्त उनकी आँखें फटी-की-फटी रह जातीं। यह भी कुछ ज़्यादा देर नहीं रहता। फ़क़त चन्द मिनट, दस या बीस मिनट तक। फिर हैरत का यह वक़्फा कम होता गया और होते-होते महज चन्द सेकेण्ड रह गया, तो अब उसके बाद वह मंज़िल आने वाली थी कि लोग-बाग अपने कामों में मसरूफ़ हैं और परिन्दे पकड़ने वाली गाड़ी आ गयी है, और परिन्दे पकड़ती चली जा रही है और आदमी है कि उसकी ओर नज़र उठाकर देखता भी नहीं।

ऐसी ही क़ैफ़ियत वाला एक दिन था, जब मैंने एक दुकानदार को जलेबियों के थाल की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि यहाँ देखो, जलेबियों पर कितनी मक्खियाँ बैठी हुई हैं! अभी, जब शहर में बीमारी फैली हुई है, ये मक्खियाँ कितनी ख़तरनाक...

- मक्खियाँ...? हलवाई ने काहिली से हाथ उठाकर मक्खियों को उड़ाने की कोशिश की। मक्खियाँ ज़रा देर से उड़ीं, फिर जलेबियों के थाल पर टूट पड़ीं। हाँ, मक्खियाँ तो साली उड़ती ही नहीं।

हलवाई ने मेरी जानिब ग़ौर से देखते हुए कहा - मगर तुमको क्या साहब, तुमको तो नहीं ख़रीदना!

मैंने जवाब में इन्कार किया, तो हलवाई ने आँख मारी और सरगोशियों से ज़रा क़रीब के लहज़े में कहा - और मुझको क्या साहब, मुझको भी तो खाना नहीं!

बस, यहीं से मैं चौंक गया कि असल बात क्या है... परिन्दे पकड़ने वाली गाड़ी आती है शहर के परिन्दों को पकड़कर ले जाती है और कोई पूछने वाला तो क्या मिलेगा, कोई ख़ुदा का बन्दा पलटकर देखता भी नहीं है... मेरी समझ में बात आ गयी, मेरी पेशानी पर जो बहुत देर से, बल्कि कई दिनों से, एक त्यौरी किसी सन्तरी की तरह खड़ी दिख रही थी, सिमट गयी। फिर मैं हँसा और मैंने भी ज़रा गुफ़्तगू के ज़रा दूर के लहज़े में कहा - तो भाई हलवाई, एक काम करो न, उन गाड़ी-वालों की तवज्जो मक्खियों की जानिब मबजूल कर दो...।

हलवाई चौंक गया और उसने मुस्कुराकर मेरी जानिब देखा। लेकिन पल भर में संजीदा हो गया - अरे हाँ... मगर क्यों साहब, मुझे इस झंझट से क्या फ़ायदा?

- ये, जो मक्खियाँ जलेबी का सारा रस...

- हाँ, ये तो ठीक कहा है, सारा रस चूसे चली जाती हैं कमबख़्त...। मगर साहब, मुझे इससे क्या नुकसान, मुझे तो फ़ायदा है।

- वह क्या? मैंने हलवाई की आँखों में आँखें डालकर पूछा। फ़ायदा कैसे है?

हलवाई पहले हँसा, फिर उसने अपनी वनस्पति में चुपड़ी हुई तोंद पर हाथ फेरा और बेहद संजीदा होकर मेरी तरफ़ झुक गया। बाबू, तुम क्या जानो दुनियादारी! यह राज की बात है...दुनिया ऐसे ही नहीं चलती...! फिर हलवाई ख़ामोश हो गया और ज़रा गहरे होकर फिर बोला - पर तुम मेरे हमदर्द लगते हो, इसलिए बताता हूँ, किसी से कहना नहीं... तो बाबू जलेबियों का यह रस, जो मक्खियाँ चूसती हैं, तो फिर रस और मक्खियाँ कहाँ जाती है, ज़रा इतना तो बताओ?

- कहाँ जाती हैं, मुझे पता नहीं, हलवाई मियाँ तुम्हीं बताओ?

- कहीं नहीं जातीं। हलवाई फ़ैसलाकुन लहज़े में बोला, रस मक्खियों के पेट में और मक्खियाँ जलेबियों के साथ पलड़े पर। समझे बाबू? ऐसे फ़ायदा हुआ! लेकिन मैं बहुत देर तक समझ न सका और बहुत देर तक बेवक़ूफ़ों की तरह हलवाई के चेहरे को ताकता रहा। हलवाई फिर हँसा, फिर उसने मूँछों पर ताव दिया - नहीं समझे अब भी...?

अभी हमारी गुफ़्तगू यहीं तक पहुँची थी कि पश्चिमी दरवाज़े की जानिब से घण्टियों की आवाज़ सुनायी पड़ी और मेरी तवज्जो उसकी तरफ़ मबजूल हो गयी। ज़रा देर बाद वह जर्दरू, खमीदा-कमर आदमी दिखायी पड़ता है, हस्ब दस्तूर, उसकी कमर से पतली-सी रस्सी बँधी हुई थी जिसके पिछले सिरे पर वह गाड़ी घसीटने वाला हाथ को आँखों के ऊपर छज्जे की शक्ल में किये आस-पास मुतस्सिस नज़रों से झाँकता फिर रहा था। फिर वह ठहर गया। सामने नाली के किनारे पर एक परिन्दा प्यास से बेहाल झुक-झुककर नाली से पानी पी रहा था और गरदन उठाकर इधर-उधर देख भी रहा था। उसे किसी बात का डर भी लगा हुआ था। तभी गाड़ी खींचने वाले आदमी ने बाँस वाले साथी को इशारा किया। बाँस वाले ने चुपके से लपककर परिन्दे को जा लिया। ज़रा देर बाद उसने रंगीन शीशों वाली गाड़ी के दरवाज़े का पट खोला और धीरे से परिन्दे को अन्दर ढकेल दिया। परिन्दा एक तरफ़ लुढ़क गया, तो फुदकती हुई गौरैया एक बार ज़ोर से शीशों पर फड़फड़ाने लगी, गोया बन्द शीशों को तोड़कर निकल भागेगी। बाँस वाले आदमी ने मुस्कुराकर, शीशे के अन्दर झाँककर देखा। उसके चेहरे और आँखों में चमक आ गयी। फिर उसने शीशे पर हल्की-हल्की थपकियाँ दीं। गौरैया सहमकर एक तरफ़ हो गयी।

इसके बादे वैसी ही हल्की चाल से गाड़ी आगे बढ़ी। घण्टियों की आवाज़ ख़ामोश फ़िज़ाँ में सुनायी दी - टन, टन, टन...टन...टन। ज़रा देर बाद गाड़ी नज़रों से ओझल हो गयी।

- गयी... चली गयी।

- हाँ, चली गयी... उस परिन्दे को भी ले गयी। जब फ़िज़ाँ का सहर टूटा, तो गाड़ी उत्तरी इलाक़े के सख़्त ढलान में उतर चुकी थी। अब दिखायी भी नहीं दे रही थी। फ़क़त उसके पहियों से उड़ती हुई धूल थी, जो धीरे-धीरे फ़िज़ाँ से हाथ छुड़ाकर बैठ रही थी। फिर चन्द मिनट बाद तमाशबीनों के चेहरों पर जो हैरत के असरात थे, वे जायल हो गये और वे अपने-अपने कामों में मसरूफ़ हो गये।

- अच्छा भाई जान, यह परिन्दे वाली गाड़ी...?

सवाल करने वाला रुक गया, और ख़ासी देर तक रुक गया। तब मैंने पलटकर देखा। ठीक मेरी पुश्त पर एक दस-ग्यारह साल का लड़का खड़ा मेरी तरफ़ मुजस्सम सवाल बना तक रहा था।

- यह परिन्दे वाली गाड़ी थी। वह लड़का इतना कहकर फिर रुक गया, जैसे उसे ख़ुद पता नहीं कि पूछना क्या है।

- हाँ-हाँ... मियाँ, क्या पूछना चाहते हो, परिन्दे वाली गाड़ी के मुताल्लिक़?

- जी भाईजान, इतना कि ...यह क्या गाड़ी है - परिन्दे पकड़ने वाली?

- हाँ, मियाँ हम भी यही सोच रहे हैं कि क्या गाड़ी है! हर रोज़ दोपहर में आती है और शहर के जितने परिन्दे मिलते हैं समेटकर चल देती है!

- अच्छा, भाईजान...! ज़रा देर बाद इस लड़के ने यूँ चौंककर सवाल किया, गोया अचानक कोई बात याद आ गयी हो, अच्छा भाई जान, क्या ये लोग बाजी के लका को भी ले जायेंगे?

- हाँ ज़रूर ले जायेंगे, देखने की देर है।

- फिर बाजी कैसे अच्छी होगी...? उन्हें लकवा हो गया है न। हकीमजी ने कहा था, दवाओं के साथ लका कबूतरों के परों की दवा भी चाहिए! लड़के ने बड़ी हैरत से कहा, यूँ कि मैं उसके अफसूर्दा चेहरे की तरफ़ एकटक देखने लगा?

- हाँ-हाँ, बात तो है सोचने की। लका कबूतर को नहीं जाना चाहिए।

- फिर मैं क्या करूँ, आप ही बताइए, भाई जान... मैं तो बहुत छोटा हूँ... मेरी समझ में नहीं आता!

- मेरी भी समझ में नहीं आता, मियाँ... और सच पूछो तो मैं भी बहुत छोटा हूँ।

- आप छोटे हैं?... वह लड़का खिलखिलाकर हँस पड़ा। आप इतने बड़े हैं, वाह...! वह लड़का फिर कहकहे लगाने लगा।

मैं ख़ामोशी से बदस्तूर उसे देखता रहा और दिल-ही-दिल में कहा, मियाँ तुम हँस रहे हो?

- भाई जान, एक बात और पूछूँ? उसने ज़रा ठहरकर दूसरा सवाल किया।

- पूछो मियाँ वह भी पूछ डालो...

- आप इतने उदास...भाई जान, आप कभी हँसते क्यों नहीं?

मेरा जी चाहा, सच कह दूँ, कैसे हँसू मियाँ, इस कारजा शीशागरी में हँसना कोई खेल है? मगर मैं इस मासूम बच्चे को, जो ज़रा देर पहले लका कबूतर के चले जाने की फ़िक्र में उदास था और अब ज़रा देर में कहकहे लगा रहा था, कुछ नहीं बता सका।

- भाई जान, मैं आपको हँसा दूँ?... वह लड़का बड़ी मुहब्बत से मेरी तरफ़ बढ़ा और मेरी आँखों में आँखें डालकर बोला - आप कहिए तो मैं आपको हँसा दूँ?

पहले तो मैं चौंका, दफ़्तन मुझे अजीब-सा लगा, नासमझी में इस लड़के ने ज़रा अपने कद से बड़ी बात कर दी थी। फिर मैंने ज़रा मुहब्बत से ताकीद की - मियाँ, आहिस्ता बोलो। घर जाओगे, किसी ने सुन लिया, तो दूसरों को ख़बर कर देगा कि यह कैसा लड़का है कि इसकी बहन बीमार पड़ी है और इसका लका कबूतर भी चला जाने वाला है और यह है कि ख़ुद हँसता भी है और दूसरों को हँसाने की भी सोचता है! होश के नाख़ून लो, मियाँ मुफ़्त में मारे जाओगे।

- बला से मार दिया जाऊँगा! लड़के ने हौसले में कहा। आप कहिए तो, हँसा दूँ आपको?

- हँसा दो, मियाँ, बड़ा करम होगा...बड़ी मेहरबानी होगी तुम्हारी।

- तो फिर दोस्ती कीजिए। उसने दोस्ती के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया।

- तुमसे दोस्ती? अरे छटंकी, तुम्हारे इत्ते-इत्ते तो मेरे बेटे हैं! मैं तुम्हारे बाप के बराबर हूँ!

- तो क्या हुआ, बाप भी दोस्त होते हैं। मेरे मौलवी जी कहते हैं, अच्छे बाप अपने बच्चों के दोस्त भी हुआ करते हैं।

- यह बात है... तो हुआ दोस्त तुम्हारा आज से! मैंने उसके नन्हे-से, ख़ूबसूरत हाथ पर अपना हाथ दे दिया।

- फिर चलिए मेरे साथ नदी की तरफ़। वहाँ आप और हम, दो ही होंगे। वहाँ मैं आपको एक चीज़ दिखाऊँगा।

फिर वह मेरा हाथ पकड़कर ले चला। मैं पीछे-पीछे और वह आगे-आगे। राहगीर पलट-पलटकर हमारी दोस्ती को देखते रहे और हम पलटकर राहगीरों को ताक रहे थे, जिनके कोई दोस्त थे भी या नहीं, जिनके कोई ऐसे प्यारे बेटे थे भी या नहीं। यूँ जब हम नदी के क़रीब पहुँचे, तो उसने पहले तो चालाक निगाहों से दायें देखा, बायें देखा, हर तरफ़ से इतमीनान हो गया, तो उसने अपने नेकर की जेब से माचिस की एक डिबिया निकाली, मुस्कुराया, मेरी तरफ़ पलटा और गहरी सरगोशी में बोला - इसमें है...

जवाब में मैंने भी उतनी ही होशियारी से पहले बायीं तरफ़ देखा, दायीं तरफ़ देखा, जब हर तरफ़ से इतमीनान हो गया, तो उतनी ही सरगोशी में पूछा -

क्या है इसमें?

- यह है... यह है इसमें! लड़के ने कहा और झट से माचिस के अन्दरूनी हिस्से को बाहर ढकेल दिया।

माचिस की डिबिया में मेरी आँखों के सामने एक बेहद ख़ुशरंग-सी तितली नीमजान-सी पड़ी थी, जो बाहर की हवा और धूप लगते ही फड़फड़ाने लगी। उसके नन्हे-नन्हे परों के इर्द-गिर्द ज़ाफ़रानी रंग बिखरा हुआ था। पैरों के ऐन दरमियान जेरा के बराबर सुर्ख़ी थी और परों के किनारे पर अफशाँ चमक रही थी। डूबते सूरज की रोशनी में बेहद हसीन दिख रही थी।

मैं तितली को ग़ौर से देखता रहा और ज़रा देर रंगों की दुनिया में खोया रहा। जब तक मैं रंगों में डूबता-उबरता रहा, वह लड़का इतने ही इनहेमाक से मेरे चेहरे के खतो-ख़याल पर कुछ ढूँढ़ता फिरा। मैंने तितली की तरफ़ से नज़र उठायी, उस लड़के की तरफ़ देखा, वह क़दरे अफसुर्दगी से मेरी तरफ़ पलटा - आप तो अजीब हैं, भाई जान!... आप तो तितली देखकर भी ख़ुश नहीं हुए!

- हाँ मियाँ!... मैं चौंक उठा। इस दस बरस के बच्चे ने तो मुझे बहुत दूर पहुँचकर पकड़ लिया। यह तुमने क्या कह दिया मियाँ कि मैं...

- हाँ, भाई जान!... उसने कतए कलाम करते हुए कहा, आप तो तितली से भी ख़ुश नहीं होते, कैसे हमारी दोस्ती निभेगी?...

- नहीं निभेगी, मियाँ कभी नहीं निभेगी!

मैं यह कहकर आगे बढ़ गया, मगर साथ-साथ तेज़ी से चलते हुए वह लड़का भी हमराह रहा - लेकिन भाई जान, यह मेरा लका कबूतर... वह गाड़ी... दूसरे दिन मैं बाज़ार के सारे लोगों से कहता रहा... जूते गाँठने वाले मोची से, कपड़े बेचने वाले बजाज से, भीड़ में घिरे रहने वाले डॉक्टर से, रोटी और दाल बेचने वाले से, सफ़ेद पतलून वाले तेज़ रफ़्तार बाबू से, बोझ ढोने वाले कुली से, रंगीन दुपट्टे वाली ख़ातून से, जो सड़क पर हौले-हौले यूँ चलती हैं गोया सारे ज़माने को रौंदकर गुज़र जाने का फ़ैसला कर लिया हो, उन राहगीरों से जो संजीदा अन्दाज़ की गुफ़्तगू में लपके चल जा रहे थे, एक-एक आदमी से पूछता फिरा। तेज़ रफ़्तार गाड़ियों को रोकने की नाकामयाब कोशिश की कि उस दस साल के बच्चे की जवान बहन लकवा की मरीज़ है और हकीम जी ने दवाओं के साथ लका कबूतर के परों की दवा के लिए कहा है। अगर ये गाड़ी वाले बच्चे के कबूतर को भी ले गये, तो फिर क्या होगा?

मुझे किसी ने जवाब नहीं दिया। सब अपनी-अपनी दुनिया में मसरूफ़ रहे। इसीलिए मैं दस साल के बच्चे के सवाल को पी गया और कोई जवाब नहीं दे सका। मुझे अफ़सोस था। उदास, सिर झुकाये चला जा रहा था। मेरे पाँव थक गये थे। दोपहर से शाम होने को आ गयी थी। सुरमई अँधेरे का जन्म होने वाला था कि मेरी नज़र चौक के कोठे पर गयी, जहाँ शहर की मशहूर रण्डी मुन्नी बाई बालकनी में खड़ी बाल सँवार रही थी। मुन्नी बाई के सामने अड्डे पर उसका तोता दायें-बायें गरदन घुमा-घुमाकर झूम रहा था और वह अपने बालों में कंघी करती जा रही थी और तोते को पढ़ाती भी जा रही थी।

मैं चुपके से कोठे पर चढ़ गया। उसके कमरे को ओबूर करके बालकनी में ऐन मुन्नी बाई की पुश्त पर खड़ा हो गया। मुन्नी बाई मेरी आवाज़ से मुतलिक बेख़बर तोते को पढ़ाने में मगन थी - बोल मियाँ मिट्ठू, नबीजी, रोज़ी भेजो!

मियाँ मिट्ठू ने अड्डे में दायें और बायें जानिब रखी हुई दोनों प्यालियों को गरदन घुमाकर देखा, फिर एक प्याली पर झुककर, हरी मिर्च को कुतरकर, मुन्नी बाई की तरफ़ मुख़ातिब होकर बोला - नबीजी, रोज़ी भेजो...! नबीजी, रोज़ी भेजो! तोते ने अकड़कर कहा।

- सो मैं आ गया। उसके पीछे खड़े मैंने आहिस्ता से कहा। मुन्नी बाई सुनकर चौंक उठी। उसने पलटकर मुझे घूरा, ज़रा देर को सहम गयी, फिर ज़रा डपटकर बोली - तुम कैसे चले आये जी... कौन हो?

- सीढ़ियों से जी... मुझे नहीं पहचाना, मुन्नी बाई? मुझे नबीजी ने तुम्हारे पास भेजा है।

मुन्नी बाई यह सुनकर हँस पड़ी - अच्छा...अच्छा जी चलो, इधर बैठो तख़्त पर। उसने कंघी के दाँतों से सुनहरे बालों का गुच्छा निकाला, गोली बनाकर उस पर थूका, फिर नीचे सड़क पर फेंक दिया।

- बड़ी तोताचश्म हो मुन्नी बाई, ज़रा-से में तोते की तरह रंग बदलती हो! जवाब में मुन्नी बाई ने एक और रंग बदला और मुस्कुरा पड़ी।

तख़्त पर बैठे हुए मैंने उसके क़दमों पर चौदह रुपये के एक-एक नोट रख दिये। मेरे पास इतने ही हैं, जो तुम्हारे नबीजी ने बड़े ग़रीब आदमी को आज इधर भेजा!

- नहीं जी, ये भी क्या कम है!... हम तो अपने आकाओं की खि़दमत करना जानते हैं।

लेकिन बहुत देर हो गयी और मैंने मुन्नी बाई से कोई खि़दमत नहीं ली तो वह झल्ला गयी - यहाँ काहे को आये हैं जी! ...और ये रुपये क्यों दिये?...

- मुन्नी बाई, बुरा न मानो। मैं तो सिर्फ़ इसीलिए आया हूँ कि तुमसे भी पूछ देखूँ, तुम क्या कहती हो?

- काहे के बारे में?

- ये जो आजकल हर दोपहर में परिन्दे पकड़ने वाली गाड़ी आती है, इसको देखती हो?

- हाँ, देखती हूँ कभी-कभी।

- तो तुम्हें कैसा लगता है?

- अच्छा जी... अच्छा लगता है... पीले-पीले, लाल-लाल, ख़ूबसूरत शीशों में से चहकते हुए परिन्दे भले दीखते हैं।

बहुत दूर से देखती हो न... जितनी दूर से तुम्हें तुम्हारे चाहने वाले देखते हैं। -

हाँ जी, इस बालकनी से।

- मुन्नी बाई, किसी दिन नीचे जाकर क़रीब से देखो।

- वह क्यों? मुझे इतनी फ़ुरसत नहीं जी! मुन्नी बाई ने नागवारी से मेरी ओर देख, फिर गालिबन उसे मेरे चौदह रुपये के नोट याद आ गये, तो वह मुस्कुरा पड़ी

- तुम मुझे ज़रा क़रीब से देखो न, जी...

- सो तो देख ही रहा हूँ, मुन्नी बाई, और तुम भी देख लोगी, जिस दिन गाड़ी वाले तुम्हारे तोते को पकड़कर ले जायेंगे...

- मेरे तोते को क्यों ले जाने लगे! मुन्नी बाई ने कड़ककर बर्जस्ता कहा। यह कोई सड़क पर फिरने वाला आवारा परिन्दा है? यह तो पालतू है, मेरा हीरामन।

- हाँ मुन्नी बाई, पहले तो वह सड़क पर फिरने वाले परिन्दे को पकड़ेंगे, फिर कुछ दिनों बाद लाल-लाल, पीले-पीले ख़ूबसूरत शीशों के पीछे से और परिन्दों के दरमियान यह तुम्हारा हीरामन तोता देखने में कितना अच्छा लगेगा! तुम देखो न देखो, सड़क पर चलने-फिरने वाले लोग-बाग और दुकान में सौदा-सुलुफ बेचने वाले बनिये ज़रूर देखेंगे और सड़क पर जो परिन्दे वाली गाड़ी वाले दोनों आदमी सिक्के फेंक देते हैं, उन सिक्कों को और लोगों के साथ तुम भी चुनने लगोगी और यह भूल जाओगी कि...

- क्या भूल जाऊँगी...? बहुत से सिक्के मिल जायें, तो हीरामन को कौन रोता है! गाड़ी वाले अगर ढेर सारे सिक्के फेंक देंगे, तो मैं सब चुन लूँगी। बाज़ार से नया तोता ले आऊँगी।

- हे-हे मुन्नीबाई, होश के नाख़ून लो! यह दुनिया है और दुनिया साली बड़ी मतलबी होती है। मान लो बाज़ार में तोता न मिला और मिला तो ऐसा पढ़ने वाला न मिला और ऐसा पढ़ने वाला भी मिल गया, तो उसकी ज़ुबान में यह तासीर... मुन्नीबाई खिल-खिलाकर हँस पड़ी और कुछ देर तक हँसते रहने के बाद बोली

- वाह, बहुत अच्छा बोलते हो जी! कहाँ रहते हो? क्या काम करते हो?

- कहानियाँ लिखता हूँ, मुन्नी बाई। रहता-वहता क्या, जहाँ पाया, रह लिया। जहाँ चाहा, सो लिया।

- अरे, कहानियाँ लिखना भी कोई काम हुआ! लगता है, तुम तो हमसे भी गये-गुज़रे हो! तुम्हारा धन्धा तो हमारे धन्धे से भी गया-गुज़रा लगता है जी... क्यों जी?

- हाँ, मुन्नी बाई, तुम तो ज़रा में इकट्ठे चौदह रुपये रखवा लेती हो और मुझे तो चौदह रुपये हासिल करने के लिए आठ कहानियाँ लिखनी पड़ती हैं! दो रुपये फी कहानी के हिसाब से ज़रीदे वाले ने दिये हैं।

- दो रुपये फी कहानी!... ये तो बहुत कम होते हैं... मुन्नी बाई ने मायूसी से कहा। अचानक उसे कोई बात याद आ गयी - दो रुपये फी कहानी के हिसाब से आठ कहानियों के सोलह रुपये बनते हैं... बाक़ी दो रुपये भी निकालो... जल्दी करो!

- हाँ जी, बनते तो सोलह रुपये ही हैं, मगर एक कहानी तो नाप-तौल में चली गयी।

- नाप-तौल में? अरे वाह! मुन्नी बाई फिर हँसी। नाप-तौल में कैसे चली गयी।

- वह ऐसे कि जब ज़रीदे वाले के पास पहुँचा उसे आठ कहानियाँ पढ़ायीं, तो वह झट अन्दर से तराजू ले आया।

- तराजू? कहानियाँ क्या तौलकर बिकती हैं?

- ख़ुदा का शुक्र है, मुन्नी बाई, अभी तो तौलकर बिकती हैं, कुछ दिनों बाद देखना बेतौले ही बेचनी पड़ेंगीं!

- अच्छा-अच्छा, फिर वह तराजू ले आया?... मुन्नी बाई ने दिलचस्पी से कहा।

- हाँ, तराजू ले आया। डण्डी मिलायी, तो एक तरफ़ पासंग था। उसने झट आधी कहानी नोच ली और दूसरी तरफ़ वाले पलड़े पर रख दी। जब पासंग बराबर हो गया, तो एक तरफ़ वज़न के सात पत्थर रखे और दूसरी तरफ़ साढ़े सात कहानियाँ।

मैंने कहा - वज़न सात ही पत्थर रखे गये हैं। देखो तो, कहानीवाला पलड़ा कितना झुक गया है... आधी कहानी तो तुमने पहले ले ली!...

- पहले लेकर आधी कहानी क्या मैं खा गया? पासंग न मिला तराजू का? ज़रीदे वाले ने चिढ़कर कहा।

बात सच थी। मैंने जल्दी से कहा - अच्छा, ठीक है, तुम सच कहते हो, पर दूसरी तरफ़ का पलड़ा जो इतना झुक आया है। मुन्नी बाई, यह सुनकर जरीदे वाला बिगड़ गया। उसने तुर्शी से कहा - इतना झुक गया, तो दम निकल गया तुम्हारा! क्या सोना तौल रहे हो? कहानियाँ ही तो हैं!

- सच ही ज़रीदे वाले ने... मुन्नी बाई ने हमदर्दी से मेरी तरफ़ देखते हुए कहा। फिर मुझे दिलबरदाश्ता देखकर मुन्नीबाई ने दुख से कहा - वाकई हमारा धन्धा तुम्हारे धन्धे से बहुत अच्छा है।

- हाँ, मुन्नी बाई, बहुत अच्छा है, इसीलिए कभी-कभी जी चाहता है, काग़ज़ क़लम फेंककर तुम्हारा ही वाला धन्धा शुरू कर दूँ।

यह सुनकर मुन्नी बाई बेसाख्ता हँस पड़ी और उसने जल्दी से दोनों हाथों से चेहरे को ढँक लिया - अल्लाह ऐसा न कर बैठना जी, वरना मुफ़्त में हमारी रोटी मारी जायेगी!... बहुत देर तक हँसते रहने के बाद जब मुन्नी बाई थक गयी तो उसे कुछ याद आया। अच्छा जी, एक कहानी हम पर लिखो!...

- नहीं मुन्नी बाई, तुम पर तो बहुतों ने कहानियाँ लिखी हैं। मैं तो तुम्हारे तोते पर एक अच्छी-सी कहानी लिखना चाहता हूँ।

- लिखो जी ज़रूर लिखो, मेरे तोते पर ही लिखो!... मुन्नी बाई ने मसर्रत से कहा। मगर क्या लिखोगे?

- यह लिखूँगा कि परिन्दा पकड़ने वाली गाड़ी आ गयी है और अब जब बाज़ार के सारे परिन्दे ख़त्म हो चुके हैं, रंगीन शीशों से घिरी हुई गाड़ी वाले, दोनों ज़हरीली आँखों वाले आदमी चारों ओर घूर-घूरकर ढूँढ़ते फिर रहे हैं, कि कहीं से कोई परिन्दा नज़र आ जाये। कहीं से कोई गौरेया, उमरी बुलबुल, कहीं से कोई कर्क, नीलकण्ठ, कोई मैना, कोई तोता दिखायी पड़े। इतने में उनकी चारों ज़हरीली निगाहें तुम्हारे तोते पर पड़ती हैं और वे दोनों चुपके से तोते के बायें बाज़ू पर लसदार रतूबत वाले गुच्छे को छुआ देता है। तोता फड़फड़ाता है, थरथराता है, उड़ने की कोशिश करता है और बरसों के अड्डे को ग़ैर-महफूज़ जानकर बालकनी की रेलिंग का सहारा लेना चाहता है, मगर नहीं ले पाता और तड़पता हुआ नीचे आ रहता है, जहाँ वह खड़ा होता है। वह लपककर तोते को उठाता है, तोता चें-चें की आवाज़ से ज़ोर से चीख़ता है, फड़फड़ाता है, फिर पता नहीं, उसका साथ छोड़ती हुई उड़ान की ताक़त कहाँ से लौट आती है। वह ज़रा ऊपर उड़ता है, लेकिन फिर गिर पड़ता है।

वह आदमी जिसकी कमर से गाड़ी वाली रस्सी बँधी होती है, अपने दूसरे साथी को देखता है और इतमीनान से मुस्कुरा देता है, जिसके जवाब में रफ़ीक पहले अपने साथी को देखता है, फिर फ़र्श पर हाँफते हुए तोते को देखता है, इसके बाद फिर अपने साथी को देखकर इतमीनान से मुस्कुरा देता है और आहिस्ता से आगे बढ़कर तोते को उठाने के लिए झुकता है...

लेकिन दफ़्तन तोता उसकी गिरफ़्त में आने की बजाय तड़पकर उछलता है और उसकी कनपटियों पर झपटता है और गरदन का गोश्त नोच लेता है।

उस आदमी के मुँह से चीख़ निकलती है, जिसे सुनकर उसका दूसरा साथी लपकता है और तोते की गरदन पर हाथ डालना ही चाहता है कि तोता घूरकर दूसरे आदमी को देखता है। उसकी छोटी-छोटी आँखें फैल जाती है और उनमें लहू उतर आता है। वह अपनी पूरी ताक़त को समेटता है और रेल कर दूसरे आदमी पर भी हमला करता है और उसके सारे चेहरे को नोचकर लहुलूहान कर देता है। वह आदमी भी झल्ला उठता है और जल्दी से अपने दोनों हाथों की मदद से तोते को अलग करता है और उसे ज़ोर से ज़मीन पर फेंक देता है।

अब दोनों तोते के एक तरफ़ खड़े हैरत से देख रहे होते हैं और तोता आहिस्ता-आहिस्ता टहलता हुआ कभी पहले आदमी की तरफ़ जाता है, फिर उसी इतमीनान-ख़ातिर से टहलता हुआ दूसरे आदमी की तरफ़ लौट जाता है और दोनों को अपनी ख़ून उतरी नज़रों से घूर रहा होता है...

और इतने में मुन्नी बाई जल्दी से कह उठती है - मैं लपककर जाती हूँ और अपनी चादर उस पर डाल देती हूँ और परिन्दे को पकड़कर गाड़ी वाले के हिस्से कर देती हूँ और उससे बहुत से... जब बहुत-पैसे मिलने वाले हों, तो क्या मैं तोते को ये सब करने दूँगी...?

मुन्नी बाई हिकारत से मेरी तरफ़ देखती है और थूक देती है - ऐसी कहानी लिखी जाती है, जी...?

जवाब में मैं मुन्नी बाई के चेहरे को देखता हूँ, अड्डे पर इधर से उधर होते हुए तोते को देखता हूँ और फिर एक बार पलटकर तोते को देखता हूँ। फिर कहता हूँ - फिर गाड़ी वाले मुन्नी बाई के नबी जी से "रोज़ी भेजो" की मेहनत करने वाले तोते को भी ले जाते हैं। फिर रफ़्ता-रफ़्ता शहर सूना हो जाता है। कहीं कोई परिन्दा, कोई गौरैया, कोई बुलबुल, मैना, तोता, कोई मुर्ग, कोई फाख़्ता नज़र नहीं आती।

शाम ढले दरख़्तों पर बसेरा लेने वाली चिड़ियों की चहकार सुनायी नहीं देती। लाजवर्दी आसमान पर सफ़ेद बगुले, तवाजुन से उड़ने वाले बगुले भी नहीं दिखायी देते। भरी दोपहर की ख़ामोश फ़िज़ाँ में चीलों की दर्द-भरी चीख़ भी सुनायी नहीं देती। कबूतर की गुटरगूँ, पपीहे की पी-कहाँ, पी-कहाँ, मैना की खाँय-खाँय की आवाज़ से हम महरूम हो जाते हैं, यहाँ तक कि मौलवी साहब के मुर्ग की अजान भी कहीं खो गयी है।

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