पर्दे के पीछे (नाटक) : रशीद जहाँ
Parde Ke Peechhe (Drama in Hindi) : Rashid Jahan
एक कमरा जिसमें सफेद फर्श बिछा है और कमरे के बीच में एक दुलाई बिछी है। उस पर गाव तकिया से लगी एक बीबी बैठी है जो दुखी और थकी हुई मालूम होती है। उनके करीब एक छोटी-सी सुराही कटोरे से ढँकी हुई, ताँबे की तश्तरी में रखी हुई है। उनके सामने एक दूसरी बीबी बैठी हुई है जो चालीस के करीब उम्र की हैं और छलिया काट रही हैं। एक तरफ उनकी पिटारी रखी है और दूसरी तरह उगलदान, कमरे में दरवाजे सामने हैं और बाकी जगहों में ताक और अलमारियाँ हैं जिनमें बर्तन और सरपोश चुने हैं। बीच में छत पर से पंखा टँगा है जिस पर गुलाबी झालर लगी है... कमरे के एक कोने में पलंग, उस पर पलंगपोश पड़ा है, दूसरी तरफ एक और दुलाई बिछी है, गाव तकिया लगा है और उगालदान रखा है।
मुहम्मदी बेगम - ऐ है आपा, हमारा क्या है, इतनी गुजर गयी, जो बाकी है वह भी खुदा किसी न किसी तरह गुजार देगा। मेरा दिल तो अब दुनिया से उकता गया है। अगर इन छोटे बच्चों का खयाल न होता तो खुदा की कसम मैं तो जहर ही खा लेती।
आफताब बेगम - दीवानी हुई हो बुआ! अच्छा अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है जो जहर खाने लगीं अब तो तुम्हारे बहार देखने के दिन आये हैं। बच्चे अब बड़े हो रहे हैं, अब चली हैं जहर खाने। मुझे देखो...
मुहम्मदी - तुम्हें क्या देखूँ। कोई उम्र की बात है, कोई बड़े ही दुनिया से तंग आते हैं। हमने तो जितनी जिन्दगी ही हवस बूढ़ों में देखी उतनी जवानों में न देखी। सारी दुनिया मरी जा रही है, न मालूम हमारी मौत कहाँ जा कर सो रही है। बच्चे- वच्चे सब भूल जाते हैं और थोड़े ही दिन में सब ठीक।
आफताब - होश में आ लड़की होश में। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है जो मरने की फिक्र सवार है। मेरे से तो दस बारह बरस छोटी। मेरे ब्याह की बातें हो रही थीं जिस बरस तुम पैदा हुई हो। उस साल मलका मरी थी, मुझे खूब अच्छी तरह याद है। अल्लाह बख्शे चची अम्मा कितनी खुश थीं। मेरे लिए तो बिटिया ही है। चची अम्मा के ब्याह के तीस बरस बाद तुम पैदा हुई थीं। खाना, नाच-रंग और क्या-क्या डोमनियाँ आयी हैं। और तो और, तुम्हारा ब्याह भी किन अरमानों से हुआ है। सारी दिल्ली वाह-वाह बोल गयी थी, तुम्हारे बराबर कौन भाग्यशाली होगा। मुझ दुखिया की ओर देखो, तुम्हारे तो अल्लाह रखे मियाँ बच्चे घर सब ही कुछ है।
मुहम्मदी - हाँ ठीक है, मियाँ बच्चे घर सब ही कुछ है। जवानी! कौन मुझे जवान कहेगा? सत्तर बरस की बुढ़िया मालूम होती हूँ। रोज-रोज की बीमारी, रोज- रोज के हकीम डाक्टर और हर साल बच्चे जनने। हाँ, मुझसे ज्यादा कौन भाग्यशाली होगा। ( यह कह कर आँखों में आँसू भर आये, रूमाल से आँसू पोंछ कर और उगलदान में थूक कर फिर शुरू किया।)
अभी दो महीने की बात है। पिछला बच्चा गिरने से पहले की बात है कि डाक्टरनी को बुलाने की सलाह हुई। डाक्टर गयास ने भी कहा कि अन्दरूनी खराबी की वजह से रोज-रोज बुखार न रहता हो बेहतर है कि डाक्टरनी अंदर से देख ले। लो उम्र की बात सुनो। डाक्टरनी ने मुझसे मेरी उम्र पूछी। मैंने कहा, 32 साल! कुछ इस तरह से मुस्कुरायी जैसे कि भरोसा न हुआ हो। मैंने कहा, मिस साहब, मुस्कुराती क्यों हैं? आप को मालूम हो कि सत्तरह साल की उम्र में मेरी शादी हुई थी और जब से हर साल मेरे यहाँ बच्चा होता है। सिवा एक तो जब मेरे पति साल भर को विलायत गये थे और दूसरे जब मेरी उनकी लड़ाई हो गयी थी! और जो यह दाँत आप गायब देख रही हैं डाक्टर गयास ने उखाड़ डाले। पायरिया वायरिया या न मालूम कौन बीमारी होती है वह थी! सारी बात यह है कि हमारे पति जो विलायत से आये तो उनको हमारे मुँह से बदबू आती थी। ( वह बेचारी खूब हँसी।)
आफताब - तुम बातें ही ऐसी करती हो कि सुनने वाली हँसे न तो क्या करे।
मुहम्मदी - खैर उस बेचारी ने सीना देखा, पेट देखा जब अंदर से देखा तो घबरा कर कहने लगी - बेगम साहब, आप को तो फिर दो महीने का बच्चा मालूम होता है। मेरा तो दिल सन्न से हो गया कि लो और आफत आ गयी। (इतने में बच्चों के रोने की आवाज दूसरे कमरे से आयी! बेगम साहब गाव तकिया से उठ बैठीं और चीख कर कहा) अरे कमबख्तों न दो मिनट सोने का आराम न बात करने की मोहलत! इतनी हरामजादियाँ भरी हैं फिर भी बच्चे शोर मचाते जाते हैं।) ( कमरे का दरवाजा खुला, दो अन्नाएँ, साफ कपड़े पाजामे, मखमल के कुरते, दुपट्टे पहने दो बच्चों को रोता हुआ लेकर आयीं और कुछ बच्चे उनसे बड़े दरवाजे में खड़े दिखे जो कमजोर, दुबले पतले थे। )
एक अन्ना - बेगम साहब, यह बड़े नन्हे मियाँ नहीं मानते, जब कमरे में आते हैं बच्चों को सताते हैं खेलने नहीं देते। अब नन्ही बी की गुड़िया और छोटे मियाँ के गेंद ले कर भाग गये और सीधे मर्दाने में चले गये कई बार।
मुहम्मदी - (गुस्से से) कसाई है, निगोड़ा कसाई। घर में किसी को चैन नहीं लेने देता। आखिर किस बाप का बेटा है!
(बच्चे को गोद में लेकर प्यार किया, पिटारी से कुछ निकाल कर खाने को दिया और उसके बाद अन्ना को वापस कर देती है।)
जाओ, खुदा के लिए अब सिधारो! सुबह से शाम तक चीख-पुकार! (फिर ठहर कर) अरे किवाड़ तो बन्द कर दो। जब इधर से निकलेगी किवाड़ खुला छोड़ देंगी।
आफताब - बुआ, तुम्हारे घर में हर समय तो यह मुवा डाक्टर खड़ा रहता है, फिर भी बच्चे देखो, दुबले, पीले, फाकों के मारे मालूम होते हैं।
मुहम्मदी - ऐ, आप ही होंगे जिनको माँ का दूध नसीब न हो! अन्नाएँ जैसी मिल गयीं, रख ली गयीं। मियाँ का हुक्म है कि जब खुदा ने रुपया दिया है तो तुम क्यूँ दुख उठाओ। सारा मजा अपनी इच्छा का है कि जब बच्चा मेरे पास रहेगा तो स्वयं को तकलीफ होगी। न रात देखें न दिन, बस हर समय बीवी चाहिए। और बीवी पर ही क्या है, इधर-उधर जाने में कौन से कम हैं।
आफताब - मुहम्मदी बेगम, तुम तो हर बात में बेचारे अपने मियाँ को ही दोषी ठहराती हो। अन्ना रखे तो बुरा, न रखता तो बुरा होता। बुआ, अल्लाह-अल्लाह करो।
मुहम्मदी - ऐ है आपा, तुम यहाँ नहीं थीं जब नसीब मरा है। चार महीने की जान। जो तकलीफ उस पर गुजरी है वह खुदा दश्मन पर भी न डाले। गैरों से न देखी जाती थी। उसकी अन्ना थी तो काफी हट्टी-कट्टी! देखने में तन्दुरुस्त लेकिन गर्मी की बीमारी थी। अब इसकी किसे खबर थी। बच्चा बीमार पड़ा। यह बड़े-बड़े छाले बदन पर पड़ गये। और फूटे तो कच्चा-कच्चा गोश्त निकल पड़ा। जोड़-जोड़ में पीप पड़ गये। तसला भर-भर के डाक्टर गयास ने निकाला। मैं पर्दे के पीछे से देखती थी। दो महीने इसी तरह सड़-सड़ कर बच्चा चला गया। इसके बाद तीन बच्चे हुए। कितना कहा मैं स्वयं दूध पिलाऊँगी, लेकिन सुनता कौन है। धमकी यह है कि दूध पिलाऊँगी तो मैं दूसरी शादी कर लूँगा। मुझे हर समय औरत चाहिए। मैं इतना सबर नहीं कर सकता कि तुम बच्चों की टिल्ले नवीसी और फिर तुम कहती हो -
आफताब - ऐ है, तो यह बात है। मुझे क्या मालूम। खुदा ऐसे मर्दों से बचाये, जानवर भी तो कुछ डरते हैं। यह तो जानवरों से भी बदतर हो गये। ऐसे मर्दों के पाले तो कोई न पड़े। ऐसी बातें बुआ पहले न थीं, अब जिस मर्द को सुनो कमबख्त यही आफत है। अब तुम्हारे बहनोई हैं। खैर अब तो बुढ़ापा है, कभी जवानी में भी ज्यादती नहीं की (मुस्कुरा कर) खुदा की कसम पहरों नाक रगड़ाती थी।
मुहम्मदी - (ठण्डी साँस लेकर) अपनी-अपनी किस्मत है। तुम्हारी इस बात पर याद आया कि वह डाक्टरनी वाली बात पूरी नहीं हुई। बात कहाँ की कहाँ जा पहुँची है। जब डाक्टरनी ने कहा मेरे दो महीने का पेट है। वह हैरानी से कह रही थी - बेगम साहब, आप तो कह रही थीं चार महीने से आप पलंग पे पड़ी हैं। रोज शाम को बुखार आता है और डाक्टर गयास भी यही कह रहे थे कि रोज शाम को 100 या 101 पर बुखार आ जाता है। तो आपका मतलब है कि आपके... मैंने कहा - ऐ मिस साहब! तुम भी भली हो, कमाती हो, खाती हो, मजे की नींद सोती हो, यहाँ तो मुर्दा जन्नत में जाय या दोजख (नर्क) में, अपने हलवे-माँडे़ से काम है। बीवी चाहे अच्छी हो चाहे मर रही हो, मर्दों को अपनी इच्छा से काम है। वह बेचारी सुनकर खामोश हो गयी। कहने लगी, आप इतनी बीमार हैं। और बुआ, वह ही बेचारी क्या... सभी डाक्टर यही कहते हैं कि आपके बच्चे किस तरह मोटे हों जब आप स्वयं इतनी कमजोर हैं और दूसरे बच्चे इतनी जल्दी-जल्दी होते हैं। क्या किया जाय, इससे तो क्रिस्टन होते तो भले रहते।
आफताब - तौबा करो तौबा! कुफ्र न बको! खुदा इन काफिरों को मिटाए। एक बेटा है वह भी एक क्रिश्चन कर बैठा। मुझे उसके ब्याह के क्या-क्या अरमान थे। अब तो भाई ने तंग आकर वहीदा की मँगनी कर दी। हाय मेरे दिल पर क्या-क्या न साँप लोटेंगे कि मेरे बचपन की माँग गैर के घर जाये। इससे तो वह पैदा न हुआ होता तो बेहतर होता और मेरे लिए तो मर गया।
मुहम्मदी - किस दिल से कोसती हो। बुढ़ापे का सहारा है, कभी तो ठीक होगा।
आफताब - ऐ, वो क्या ठीक होगा। दो बरस हो गये, सूरत देखने को तरस गई। शहर के शहर में रहता है, कभी आकर झाँकता भी नहीं, अब तो सुना है ड़ेढ़ सौ मिलने लगे हैं। खुदा का यही शुक्र है कि बच्चे अभी तक न हुए। मैं तो यही दुआ माँगती हूँ कि आफताब बन्दी, चाहे तेरी कब्र पर चराग जलाने वाला कोई न हो, लेकिन उस हरामजादी, ईसाइनी के तो बच्चा न हो। हाय बुआ, किससे अपना दर्द कहें, सब अपनी-अपनी मुसीबतों में घिरे हैं, मुहम्मदी बेगम।... तुमने कुछ और भी सुना, मिर्जा मकबूल अली शाह ने और ब्याह कर लिया, दो बीवियाँ मर चुकीं, पोतियाँ, नवासियाँ तक बच्चे वालियाँ हो गयीं और यह नई बीवी भी क्या भोली- भाली शक्ल की है। जवान है, विल्कुल जवान, मुश्किल से कोई बीस बरस की होगी, कमबख्त की किस्मत फूट गयी। अभी तो बेचारी के छे कुँवारी बहनें और बैठी हैं जब ही तो बेचारे माँ-बापू ने...
(इतने में बड़े शहजादे, कोई 12 साल की उम्र, मिट्टी में पजामे की मुहरियाँ भरी हुई, जोर से किवाड़ खोल कर आते हैं। एक हाथ में रेल, दूसरे में कैंची और उनके पीछे-पीछे एक तन्दुरुस्त लड़की तंग पाजामे में मलगुजे कपड़े, दुपट्टा लटका हुआ आता है।)
लड़की - देख लीजिए अम्मा! यह बड़े मिर्जा नहीं मानते। यह देखिए मेरा नया पजामा काट दिया। (यह कह कर कुर्ता उठा कर दिखाती है।) मैं उनसे बात भी नहीं कर रही, चुपचाप बैठी अब्बा की अचकन में बटन टाँक रही थी। और देखिए यह दुपट्टे का आँचल भी फाड़ दिया। (दीवार से लग कर खिसिया कर रोने लगी। लड़का बहन की नकल उतारते हुए)
लड़का - ऊँ, ऊँ, ऊँ अपनी नहीं कहतीं। हाँ, तुम सी रही थी? कह दूँ अम्मा से यह वाहियात किताबें पढ़ रही थी - दिलदार यार या बाँका छैला। मैंने ठीक से नहीं देखा कि क्या था।
लड़की - (तुरन्त मुड़ कर) खुदा के लिए इतना झूठ मत बोला करो, खुदा की कसम अम्मा! मैं मौलवी अशरफ अली साहब का 'बेहिश्ती जेवर' पढ़ रही थी। मेरे पीछे पड़ गये कि दिखाओ। जब मैंने नहीं दिखाया तो मेरा पजामा काट दिया। आप कभी इन्हें कुछ नहीं कहतीं।
मुहम्मदी - (माथा पीट कर) शाबाश है बेटी, शाबाश। अम्मा मरें या जियें, हाथ बँटाने से तो रही, और छोटे बहन-भाइयों से लड़ती हो। (बेटे की तरफ मुड़ कर) यह मूजी तो सारे दिन किसी न किसी को परेशान करता रहता है। भाग यहाँ से।
आफताब - आओ मियाँ, मुझे कैंची दो, देखो अपनी आपा को कौन परेशान करता है। वह बेचारी कुछ दिन के लिए तुम्हारे पास है। अब बरस दो बरस में ब्याह कर ससुराल चली जायेगी तो सूरत देखने को तरस जाओगे!
(साबरा ने इस वाक्य पर शरमा कर सर झुका लिया और चुपके से पीछे खिसक जाती है। बड़े मिर्जा गाव तकिया का घोड़ा बना कर बैठ जाते हैं और पल भर ठहर कर कूदने लगते हैं।)
लड़का - तो फिर यह हमें क्यूँ नहीं दिखाती थीं?
मुहम्मदी - ऐ है, मिर्जा, खुदा के लिए रहम करो, और इस तरफ मुझको न हिला डालो। सारा जिस्म हिला दिया। कमबख्त धड़कन होने लगी। खुदा के लिए जाओ, बाहर जाओ अपने अब्बा के पास और मौलवी साहब आते ही होंगे, सबक याद कर लिया?
आफताब - ज्यादा बच्चे होते हैं तो कम से कम घर तो भरा-भरा मालूम होता है। लेकिन हर समय का शोर-गुल नाक में दम कर देता है। बुआ, अब मैं घर में हर समय कव्वा हँकनी की तरह बैठी रहती हूँ। यह आते हैं नमाज पढ़ने। घड़ी-दो घड़ी बैठे, फिर बैठक में चले गये। खुदा किसी को ऐसा अकेला भी न करे। हाय, क्या-क्या अरमान थे।
(दरवाजा खुलता है और एक कोलन आती है।)
कोलन - सलाम बेगम साहब, सलाम। बड़ी बेगम, लीजिए मैं तो आप के यहाँ हिस्सा ले कर जाने वाली थी, कहो बेगम, मिजाज कैसा है, अल्लाह रखे बच्चे कैसे हैं?
मुहम्मदी - हाँ, बुआ, मैं तो जैसी हूँ वैसी हूँ। कहो भाभी, अच्छी हैं। सब बच्चे अच्छे हैं। खुदा पोता मुबारक करे। पंजीरी होगी। रहीमन ले, तश्तरी खाली कर दे। (सन्दूकची खोलते हुए) आपा एक टुकड़ा पान का दे देना।
आफताब - रहीमन, मेरा हिस्सा यहीं ले ले।
(यह कह कर पान लगाने लगीं, मुहम्मदी ने दो आने कोलन को दिये।)
मुहम्मदी - सब को दुआ सलाम कह देना। किसी रोज तबीयत अच्छी रही तो आऊँगी, सब के मिलने को दिल फड़क गया। बच्चे को देखने को बड़ा दिल चाहता है। और बुआ, भाभी से कहना तुमने तो न आने की कसम खा ली है।
(अफताब ने पान दिया और कमरबन्द से आने निकाल कर दिये।)
कोलन - बेगम साहब, हमारी बीवी भी बहुत प्यार करती है। फुर्सत नहीं मिलती, आजकल तो खैर घर भरा है। सब ही आये हुए हैं।
आफताब - सुल्तान देलहन को मेरी ओर से दुआ कह देना और कहना पोता मुबारक हो। मैं जुमा को इंशा अल्लाह आऊँगी।
(कोलन प्लेट ले कर दोनों को सलाम करके चली जाती है।)
मुहम्मदी - आपा, हमारी भाभी सुल्ताना का भी खूब तरीका है। उनके मियाँ ने कभी चालीस रुपये से ज्यादा नहीं कमाया लेकिन वह सलीका है कि माशा अल्लाह सब कुछ किया। बेटों का ब्याह किया, बेटियों का ब्याह किया। अब बेटा नौकर हो गया है, कोई सवा सौ का आगे बढ़ने की भी उम्मीद है।
आफताब - बहू भी अच्छी है (ठंडी साँस भर कर) अपनी-अपनी किस्मत है। एक हम हैं! खैर यह तो होगा, कहो कहो रजिया की भी कुछ खबर है? तुम्हारे मामू ने तो उसकी ऐसे चट मँगनी पट ब्याह किया कि किसी को बुलाया तक नहीं।
मुहम्मदी - बुलाया तक नहीं तो क्या हुआ। घर-घर दोहरा-तीहरा खाना भिजवाया था। शादी उस गरीब की जैसे हुई वह अपनी बदनामी के डर से जल्दी कर दी और उसमें भी खुदा उनका भला करे।
आफताब - ऐ है, यह बात थी, तो मुझे मालूम ही नहीं। हाँ तो फिर क्या हुआ?
मुहम्मदी - तुम्हें नहीं मालूम। अब तो सभी को मालूम है। इस बेचारी की उम्र ही क्या है। मेरी साबरा से दो ढाई साल बड़ी है। मेरी शादी के बाद पैदा हुई है। जब छोटे मामू बरसों बाद कलकत्ता से आए, हम सभी जमा थे, नानी अम्मा बेचारी सबसे ज्यादा खुश थीं। रजिया को मैं कुछ रोज के लिए साथ ले आयी। फिर छोटी मुमानी मैके चली गयीं। लड़की तीन-चार महीने रह गयी। रजिया ननिहाल पर जान देती है। ननिहाल से उसे कुछ मुहब्बत नहीं। बड़ी बहन का घर था, रह गई तो क्या हुआ। मेरे फरिश्तों तक को खबर नहीं। जब माँ मैके से आई तो रजिया घर चली गई। एक रोज रजिया का खत आया कि आपा जान, खुदा के लिए जल्दी आइए। बस आपा क्या बाताऊँ, जब वहाँ पहुँची तो आप तो जानती हैं छोटी नानी कैसी हैं। खुदा की पनाह, बहुत आव-भगत की। रजिया ने चुपके से एक खत दिया और कहा, दुल्हा भाई रोज हमारे यहाँ आते हैं। और अम्मा बड़ी खातिर करती हैं। और चुपके-चुपके बातें होती हैं। कुँवारी लड़की और क्या कहती। यह भी बेचारी ने बड़ी हिम्मत की। खत देखूँ तो हमारे मियाँ का रजिया के नाम। वह प्रेम पत्र कि नावेलों में भी न होगा। बस मैं जल ही तो गई। रजिया को समझा कर कि तुम कुछ न कहो, मैं किसी से तुम्हारा नाम नहीं लूँगी, मैं जलती-सुलगती घर पहुँची। उनसे कहा, ऐ आपा, खुदा की कसम! दीदों में घुस गये कि क्या बुराई है और मैं तो रजिया से शादी करूँगा, चाहे तुम्हें तलाक ही देना पड़े। मैंने कहा, मियाँ, होश में हो या बिल्कुल ही बेहोश हो। शरीफों की लड़की है, अगर उसका नाम भी लिया तो उसके बाप, चाचा, भाई तुम्हारी हड्डी-बोटी एक कर देंगे। इन खयालों में भी न रहना।
आफताब - तो तुम्हारी मुमानी ने चुपके-चुपके बात पक्की कर ली होगी, इसलिए तो गर्व के साथ कह रहे होंगे।
मुहम्मदी - ऐ और क्या। उन्हें अल्लाह बख्शे, अम्मा और मुझसे हमेशा की दुश्मनी है। जब अम्मा बीमार थीं तब कसमें खा-खा कर कहती थीं तब तक चैन न लूँगी जब तक मुहम्मदी का घर उजड़वा न दिया। और हम ही पर क्या, बड़ी मुमानी जान से भी यही जलन है और चूँकि रजिया की मँगनी चचा के यहाँ हुई थी तो रोज- रोज की लड़ाई थी कि चाचा के यहाँ लड़की न दूँगी।
आफताब - (हँस कर) और बुआ, तुम्हारे मियाँ में ही क्या रखा था, बीवी वाला, बच्चों वाला, हाँ, रुपया है। तो तुम्हारे बड़े मामू भी गरीब न थे। कही शरीफों में भी ऐसी बातें हुई हैं। मूए पंजाबियों में दो बहनें अपनी बेटियाँ एक मर्द को ब्याह दीं, हमारे यहाँ तो ऐसा होता नहीं। अब नया जमाना है, जो कुछ न हो थोड़ा है। हाँ तो फिर हुआ?
मुहम्मदी - जब मैं बिगड़ी और बातें सुनाईं तो खुशामद करने लगे कि मैं उस पर आशिक हो गया हूँ। हाय, खुदा के लिए मेरी मदद करो। मेरी मदद करना तुम्हारा फर्ज है। अब इससे ज्यादा कौन-सी आग होती? यह हर समय का जलना, हर समय यही बातें कि मैं पागल हो जाऊँगा। कमरा बंद किये मुँह औंधाए पड़े हैं। रजिया, हाय रजिया हो रही है, मैं पड़ी सब सुन रही हूँ। खुदा की कसम आपा इस कदर कलेजा पक गया है कि यह रुपया-पैसा अब तो मुसीबत मालूम होता है। रूखी रोटी हो और सुख हो। आपा, जरा एक पान देना, बातें करते-करते होंठ सूख गये।(पास सुराही रखी थी, उसमें से पानी निकाल कर पिया। और दोनों ने पान खाया) अत: यही हालत जारी रही और वह इश्किया शब्द उस मासूम कुवाँरी बच्ची के लिए इस्तेमाल करे और मैं सब सुनूँ और दिल में घुटूँ। मुमानी हैं कि वही सुलूक वही खातिर। रजिया, तुम्हारे दुल्हा भाई आये हैं। पान दो, इलायची लाओ।
आफताब - अच्छा तो यह सब किया-धरा तुम्हारी मुमानी का था।
मुहम्मदी - और क्या। वह लड़की घण्टों रोए। कहीं मैं मिल जाऊँ तो दिल का बुखार निकाल ले। एक महीना तो मैं चुप रही। फिर एक दिन दोनों मामू मुझसे मिलने आये। मैंने कहा, क्यूँ मामू जान, क्या रजिया की मँगनी टूट गयी? दोनों भाई चकरा गये, फिर मैं भरी बैठी थी - मैंने सब कच्चा चिट्ठा कह डाला। दोनों में कुछ राय हुई होगी। तीसरे दिन रजिया का ब्याह हो गया।
आफताब - अल्लाह - अल्लाह! खैर करे।
मुहम्मदी - लेकिन बुआ यह छै महीना घर में नहीं घुसे। हर समय चावड़ी में पड़े रहते थे! और मैं तो खुश थी। अल्लाह गवाह है जिस रोज यह इधर-उधर चले जाते हैं तो मैं चैन की नींद सोती हूँ। रोज यही है कि तुम रोज-रोज की बीमार हो, मैं कब तक सबर करूँ? मैं दूसरा ब्याह करता हूँ। और फिर यह जिद है कि तुम मेरा ब्याह कराओ। शरअ में चार बीवियाँ जायज हैं तो मैं क्यूँ न ब्याह करूँ। मैंने तो कहा, बिस्मिल्लाह करो। अब साल भर बाद साबरा की विदाई है। बाबा-बेटियों का साथ- साथ हो जाय। एक गोद में नवासा खिलाना, दूसरी में नई बीवी का बच्चा। बस लड़ने लगते हैं कि औरतें क्या जानें, खुदा ने उनको एहसास ही नहीं दिया। मैं तो कहती हूँ कि तुममें सारे मर्दों का एहसास भरा है। अब क्या...
आफताब - (भड़क कर) मुहम्मदी बेगम, जहाँ देखो यही आफत आई है। मर्दों में तो वह गुण है कि अट भी मारे पट भी। अब यह जुल्म कि ब्याह भी करूँगा और यह भी बीवी भी कमबख्त।
मुहम्मदी - इसी से तो जल-जल कर अपने मरने की दुआ माँगती हूँ। एक तो हर समय की अपनी बीमारी, रोज-रोज का बच्चों का दुख अलग, बड़े तो ठीक हैं पर छोटे बच्चे हर समय बीमार रहते हैं। इन सब बातों ने जीने का मजा छीन लिया है। और यह तो मैं जानती हूँ कि यह दूसरा ब्याह करेंगे ही, हर समय का यह धड़का अलग। खुदा इससे पहले मुझे उठा ले कि मैं सौतन का मुँह देखूँ। और सौतन के डर से बुआ मैंने क्या-क्या न किया। दो बार अपरेशन भी कराया।
आफताब - ऐ हाँ, हमने तो सुना था कि तुमने अब कुछ ऐसा करवा लिया है कि अब बच्चे न होंगे।
मुहम्मदी - यह तुमसे किसने कहा? अस्ल बात यह थी कि पेट और नीचे का सारा जिस्म झुक आया था, तो उसको ठीक करवा लिया था। कि फिर से मियाँ को नई बीवी का मजा आये। ऐ बुआ, जिस औरत के हर साल बच्चे हों उसका जिस्म कब तक ठीक रहेगा? फिर खिसक गया। और फिर मेरे पीछे पड़ कर डरा-धमका कर मुझे कटवाया। और फिर भी खुश नहीं हैं।
(अजान की आवाज पास की मस्जिद से आती है)
आफताब - ऐ है बुआ, जुहर का समय हो गया। बातों में ऐसी खोयी कि सब कुछ भूल गई। अब नमाज पढ़के ही जाऊँगी। तुम्हारे भाई बेचारे इंतेजार कर रहे होंगे।
मुहम्मदी - ऐ आपा, आज तुम आ गईं तो इतना दिल का बुखार निकल गया। जरा जल्दी-जल्दी आया करो। मैं तो बीमार हूँ, न कहीं आने की न कहीं जाने की। ऐ रहीमन - रहीमन - गुल शब्बो।
(रहीमन आती है)
मुहम्मदी - जा बड़ी बेगम साहब को वजू करवा। और... और दालान में चौकी पर जानमाज बिछवा दे।
(पर्दा)