परदा (असमिया कहानी) : होमेन बोर्गोहेन

Parda (Asamiya Story in Hindi) : Homen Borgohain

शराब का अधपीया गिलास मुंह से लगाये मि. परेरा, रंजीत और उसके साथियों के साथ बौद्ध-दर्शन की व्याख्या कर रहे थे। उसी समय वहां मुनीन और मैं पहुंच गया । अचानक परेरा थम गये। गिलास को पूरा खाली करके मेज पर झट से रख उन्होंने सिगरेट के लिए मुनीन की जेब में हाथ डाल दिया। किसी बड़े संकट से छुटकारा मिल गया हो, ऐसी मुखमुद्रा बनाकर सतीश ने मेरी ओर देखा और चैन की सांस ली । उसके मन की भावना समझकर कुछ दुष्टता के ख्याल से मैंने परेरा को आवाज दी – “ठहर क्यों गये, परेरा? आज आपका बौद्ध-दर्शन सुनने के लिए ही मैं यहां आया हूं।"

"बौद्ध-दर्शन भला क्या सुनेंगे, बरुवा? सारे दर्शनों का मर्म मुझे मिल गया है, यू नेवर कैन टेल के बोहान की इस पंक्ति में -

इट्स अनवाइज़ टु बी बॉर्न
इट्स अनवाइज़ टु बी मैरिड
इट्स अनवाइज़ टु लिव
ऐंड इट्स वाइज़ टु डाइ।”

परेरा ने अपने बहुविज्ञापित जीवन-दर्शन की फिर एक बार घोषणा की।

मुनीन उन आदमियों में है, जो अपने जीवन के दुख और व्यर्थताओं की कथा लच्छेदार शब्दों में सुनाकर दूसरों की सहानुभूति प्राप्त करने से बड़ी नफरत करते हैं । परेरा का स्वभाव इसके बिलकुल उलटा है । इसी कारण परेरा की जबान खुलते ही मानो मुनीन के शरीर में आग लग जाती है । आज परेरा का चेहरा देखकर ही उसने समझ लिया कि यह भाषण की शुरुआत ही है, असली बातें तो अभी बाकी हैं । इसलिए भावी संकट से छुटकारा पाने के लिए वह चंपा, ओ चंपा' पुकारता हुआ अंदर चला गया।

सतीश हैमलेट की भांति चेहरे को लाल बनाकर परदे के उस पार रक्ताभ अंधकार की ओर दंग होकर देखता रहा। परेरा ने आईने में चेहरा देख मुंह का भाव हंसने जैसा बनाकर खाली गिलास पर नजर टिका एक विषण्ण हंसी हंस दी । रंजीत मुंह के अंदर ही कोई गीत गुनगुनाने लगा। थोड़ा-सा भी होशियार कोई आदमी यह समझ सकता है, कि उसकी वह गुनगुनाहट किसी मानसिक आवेगका स्वतःस्फूर्त प्रस्फुटन नहीं है, मन की किसी दमित उत्तेजना को छिपाये रखने के लिए एक झूठा आवरण भर है।

मुझे करने को कुछ न था। मैं सिर्फ नीरव दर्शक था। सतीश के यहां शराब पीना शुरू करने के समय से ही देख रहा हूं कि कभी कोई बहाना बनाकर मुनीन लाल परदा हटाकर अंदर घुस जाता और साथ ही सतीश, रंजीत और परेरा में उपर्युक्त लक्षण प्रकट होने लगते । इसमें कौन-सा रहस्य छिपा हुआ है, पता नहीं। सिर्फ एक बात समझ गया था कि कहीं एक तार अवश्य है, जिस पर चोट करने से इन सबके दिलों में एक ही साथ झंकार उठती है। मगर है कहां वह तार?

“आप कहानी लिखते हैं ?" परेरा ने अचानक मुझसे पूछ लिया।

उनकी जबान से ऐसा प्रश्न सुनने के लिए मैं जरा भी तैयार न था। मैं कुछ सहम-सा गया। उनकी बात में कोई उपहास का संकेत है या नहीं, यह समझने के लिए कुछ देर परेरा के चेहरे की ओर देखता रहा। परंतु उसका चेहरा देखकर कुछ भी अनुमान लगाना संभव नहीं था। अकालप्रौढ़ता की बलि-रेखा से अंकित वह सख्त और बदसूरत चेहरा कभी भी किसी आवेग की लहर से चंचल नहीं हुआ होगा। परेरा के सवाल का जवाब देना भूलकर मैं सिर्फ उनके चेहरे की ओर देखता रहा- ऐसे विस्मय के भाव से, जिंदगी में मानो पहली बार देखा हो।

"मैं असमिया भाषा नहीं जानता। आपकी कहानियां पढ़ने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला।” मेरे जवाब की प्रतीक्षा किये बगैर परेरा अपने-आप कहता गया- "मुनीन से आपके लेखन के बारे में सुना है । आपकी बदनामी भी काफी सुनी है, सतीश आदि की जबान से। पतित मानवात्मा के अंधकार संग्राम की कथा लोगों को सुनाने जाकर आपके व्यक्तिगत जीवन के प्रति वीभत्स संकेतों से पूर्ण जो तिरस्कार आपको सुनने को मिले हैं, आपके मित्र के रूप में उनके लिए मैं गौरव का अनुभव करता हूं।”

परेरा के गुरु गंभीर भाषण का तात्पर्य आखिर क्या है- यह सोचकर भी पार न पा सका। परंतु इस आदमी का स्वभाव ही ऐसा है । भाषण की विषयवस्तु, बौद्ध दर्शन हो या परकीया प्रेम, उसके शब्द-चयन और वचनभंगी में सदैव वही एक जैसी निपुण सतर्कता रहती है। मेरे कहने को कुछ था नहीं । मैं सिर्फ सुनता गया।

"एक कहानी कहं सनेंगे? आपके काम आ सकती है।” कहते हए परेरा ने सतीश की ओर देखते हुए कोई संकेत किया। साथ ही मेज पर एक और बोतल आ गयी । लेकिन मैं अंदर ही अंदर मुनीन के लिए उत्कंठित हो उठा। इतनी देर तक भला वह कर क्या रहा है? एक बार उत्सुकता दबा न पाने के कारण पुकारा भी- “मुनीन !" सुनते ही वह नाटकीय प्रवेश की भंगिमा में परदा उठाकर आ गया- मानो वह मेरी पुकार की ही बाट जोह रहा हो । दूसरों की नजर बचाकर मैंने छिपे-छिपे देख लिया- उसका चेहरा लाल था, बाल बिखरे हुए थे और बहुत ज्यादा नशा किये आदमी की भांति विह्वल थी उसकी दृष्टि । परंतु दूसरे ही क्षण मुझे लगा कि मैं ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति उसे छिप-छिपे देख रहा है, हालांकि हर व्यक्ति की धारणा है कि वह दूसरे की नजर में नहीं आया है।

परेरा ने गिलास से एक बूंट पीकर चारों ओर नजर घुमायी। कहानी सुनने के लिए सभी उत्सुक थे। वे काफी उत्साहित-से लगे। कुछ देर तक सिर झुकाये मौन रहे । कहानी कहां से शुरू करने पर ज्यादा मनोग्राही हो सकती है, जरूर वे यही बात सोच रहे होंगे। अचानक एक बार सिर उठाकर मेरी आंखों में आंखें डालकर उन्होंने बिलकुल क्लासिकल शैली में शुरू किया-

“किसी समय की बात है । एक लड़की थी। उसका नाम था- मान लें- रानी । जिंदा रहने की क्लांति से मलीन, शराब के फेन से उच्छल उनींदी रजनी की विहागरागिनी से गुंजरित एक रहस्यमय जगत में वह अकेली निवास करती थी। इस दुनिया में वह कैसे आयी, कोई नहीं कह सकता । उसके बारे में कहने को सिर्फ एक ही बात है - और वह है उसका अनिंद्य सौंदर्य । उसे देखने पर ऐसा लगता जैसे किसी मानव-मानवी के संगम के फलस्वरूप उसका जन्म नहीं हुआ। उसकी सृष्टि एक अतिप्राकृतिक शक्ति का विस्मयजनक विधान है। पितृ-परिचयहीना उस लड़की के मुख की गठन अजंता की अदभुत, लावण्यमंडित नारी-प्रतिमाओं जैसी थी- पाषाण-वक्ष में चिर काल के लिए स्तंभित से हो जाने वाले उस अमर सौंदर्य का स्वप्नावेश उसकी आंखों में विद्यमान था। उसकी उभरी छाती, पुष्ट उरोज, देह के उतार-चढ़ाव, मुझे जार्ज कीट द्वारा बनायी तस्वीरों की याद दिला देते, जो मनुष्य की सारी इंद्रियानुभूति को ध्वस्त कर उसके बीच एक अतींद्रिय सुधा जगा देती हैं । उसकी सुंदरता की तुलना प्रकृति की महिमा, प्रतिभा के संज्ञातीत रहस्य और मानव के मधुरतम विषाद के साथ ही की जा सकती है।”

लगा कि वह विस्मयकारी सौंदर्य परेरा उस क्षण अपनी आंखों के सामने देख रहे होंवैसी ही एक तल्लीनता की भावना से वे क्षण भर स्तब्ध से होकर बैठे रहे । उसी मौके का फायदा उठाकर मैंने कई ओर नजर घुमाकर देख लिया । जो मुनीन परेरा के जबान खोलते ही बेचैन हो उठता था, वह प्रार्थना की भंगिमा में सिर झुकाये बैठा, तन्मय हो परेरा की कहानी सुन रहा था । गिलास की आधी पी हुई शराब पीना भी वह भूल-सा गया था। एक विशाल स्वप्न का उबलता आवेश अथवा अनेक शत-शताब्दियों की स्मृति-जर्जर अंतर्लीन सत्ता ने मानो अचानक उस पर कब्जा कर लिया हो- वैसी ही एक निरुपाय आत्मसमर्पण की दीनता से उसका समूचा चेहरा भाराक्रांत हो उठा था। परंतु ये सब बातें सोचकर फायदा भी क्या है - कहानी तो बस कहानी है।

परेरा ने फिर कहना शुरू किया-

"रानी जिस घर में रहती थी, वहां दो-एक उच्च वर्गीय अभिजात युवक सदा आया करते, एक रात के लिए नारीदेह का संपर्क पाने के लिए । हालांकि रानी नियमित व्यापार न कर किसी एक की रखैल बना रहना ज्यादा पसंद करती थी। एक दिन अशोक नाम के एक युवक के साथ उसका परिचय हो गया। अशोक एक उच्च पदस्थ सरकारी कर्मचारी था । मां-बाप के मरने के बाद घर से उसका कोई संपर्क न था। जिंदगी में उसे किसी का प्यार नहीं मिला था। संसार में ऐसा कोई न था, जो उसे प्यार दे सके। किसी के प्रति प्यार-मुहब्बत, या कर्तव्यबोधजनित कोई भी दायित्व न रहने के कारण अशोक स्वभावतः उच्छंखल और मनमौजी बन गया था। उसके लिए मानव की स्वाभाविक संग-प्रियता गहरे कलानुराग में बदल गयी थी। लोगों के साथ संपर्क स्थापित न कर पाने के कारण उसने साहित्य, दर्शन और काव्य का आश्रय ले लिया। पर गंभीर ज्ञान-बोध न होने पर बहुधा काव्य-पाठ से भी थकावट आती है । मन की वैसी निरालंब स्थिति में अशोक ने शराब पीना शुरू कर किया। आखिर में लंबी आदत के कारण शराब के बगैर वह पल भर भी नहीं रह पाता था । बहुत ज्यादा शराब पीने के कारण उसके शरीर में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखी गयीं। पहली- फेफड़े की तपेदिक से बुरी तरह आक्रांत हो गया, और दूसरी- उसका पुरुषोचित सामर्थ्य घट गया है, ऐसा उसने अनुभव किया।

"उस दिन शराब के नशे में मदहोश, अपनी बांधवी का घर समझकर, वह रानी के घर में जा घुसा । परदा उठाते ही उसे अपनी गलती महसूस हुई.मगर गलती के लिए अफसोस करने का समय नहीं मिला । निर्जन कमरे में रानी मन ही मन अनेक बातें सोचती हुई बिस्तर पर लेटी थी । उसके शरीर के कपड़े भी ज्यादा संयत स्थिति मेंन थे। एक अजनबी को अचानक दरवाजे के सामने देखकर वह बिस्तर पर उठ बैठी। विधांत और विह्वल दृष्टि से वह अशोक की ओर देखती रही। दूसरी ओर अशोक, जैसे आसमान से गिरा हो, स्तब्ध होकर जहां का तहां खड़ा रह गया। रानी के दुःसह सौंदर्य की लेलिहान शिखा ने उसके समूचे मुखमंडल को मानो जलाकर भस्म कर दिया हो। उसकी नजरों के सूनेपन में एक वैसी ही भावना खिल उठी। रानी क्षण पर अवाक् होकर उसकी ओर देखती रही । दूसरे ही क्षण उसकी चेतना लौट आयी। हमेशा जिस तरह अनेक अपरिचित मेहमानों को अपने बिस्तर पर आमंत्रित करती आयी है, बिलकुल उसी तरह अपने चेहरे पर रहस्यमय हंसी खिलाकर उसने बैठे ही बैठे अशोक को आवाज दी- 'आ जाइये।'

रानी के उस आहान में न आमंत्रण था, न तिरस्कार की भावना थी। मगर उसी में उसका जो परिचय मिला अशोक मानो उसके लिए तैयार न था । यह अलोक-सामान्य सौंदर्य, नारी-देह की यह परिपूर्ण महिमा, लोगों की पशु प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने हेतु कभी सृजित नहीं हुई, होना उचित भी नहीं है । बिलकुल निस्पृह भाव से वह यंत्र की भांति रानी के बिस्तर की तरफ बढ़ गया और उसकी अनुमति की प्रतीक्षा किये बगैर बिस्तर के एक सिरे पर बैठ गया। रानी अपने शंख जैसे सफेद और सुंदर गले को थोड़ा मोड़कर अशोक की तरफ देखती रही। अशोक ने सिर्फ एक बार सिर उठाकर उसकी तरफ देखा। इसके बाद पूरा समय वह सिर झुकाये रहा । इस तरह कुछ देर बीतने के बाद, अचानक एक अद्भुत आवेग मानो अशोक की छाती में उफनने लगा। उसके अनजाने ही आंखों से लगातार आंसुओं की धारा बहने लगी।

“अशोक का कांस्य-प्रतिमा जैसा मुखमंडल, होंठों के सिरों पर खिला हुआ मधुर विषाद और कपाल पर खिंची हुई चिंता की छाप देखते ही रानी के मन में एक ऐसी भावना जाग उठी, जो इससे पहले कभी नहीं जागी थी। अब अचानक उसे इस तरह से रोते देखकर वह भी विचलित-सी हो उठी । पर बाहर किसी तरह की चंचलता दिखाये बगैर शांत भाव से उसने पूछा- 'भला, आप रो क्यों रहे हैं?'

'तुम कितनी खूबसूरत हो... अशोक के मुंह से निकली यह बात निरुद्देश्य प्रार्थना जैसी लगी...

दूसरों की नजरबचाकरमेज के नीचे से मैंने मुनीन के हाथ को अपनी मुट्ठी में दबा लिया। उसके रक्त-प्रवाह के द्रुत स्पंदनों को रोकने के लिए मैंने पूरा बल लगाकर उसका हाथ पकड़ लिया। वह ऐसा निस्पंद-निश्चल बैठा था, मानो उसकी सारी बाहरी चेतना लुप्त हो चुकी है। मैंने उसके चेहरे की ओर नजर डाली । वहां दिखायी पड़ी मृत्यु की शीतल छाया।

"उस घटना के कुछ दिन बाद”, परेरा ने फिर शुरू किया- “रानी का विवाह महेश नाम के एक आदमी के साथ हो गया । विवाह का मतलब किसी तरह समाज-विहित विवाह नहीं। महेश के साथ रानी को पति-पत्नी की तरह रहते देखा गया । बस इतना ही । महेश था शराब का चोर-बाजारी । महेश का मकान ही अशोक के शराब पीने की जगह थी। महेश की उम्र लगभग चालीस साल की थी । वह बड़ा पियक्कड़ था । बेचने की अपेक्षा वह ज्यादातर पीकर ही शराब खत्म कर देता था। उसका चेहरा भी देखने में बैल जैसा था । जान-बूझकर ही अशोक ने उसके खान-पान का दायित्व काफी दिन पहले अपने ऊपर ले लिया था। एक तरह से वह अशोक का आदमी था। पर अशोक के अलावा एक और आदमी से महेश की सद्भावना थी। वह था आर्नल्ड- एक ऐंग्लोइंडियन, उसकी दुकान का नियमित ग्राहक । असल में आर्नल्ड की आजीविका का एकमात्र जरिया था जुआ खेलना । बात यह नहीं थी कि वह दूसरे कामों के लिए अनुपयुक्त था । पर समाज के सभी वर्गों के हजारों मानसिक व्याधि-ग्रस्त लोगों की भांति आर्नल्ड भी लोगों की स्वस्थ एवं सामाजिक जीवन-यात्रा को भय की नजर से देखता था। दिन भर जुआ खेलकर जो मिलता, उससे एक सस्ते-से होटल में खाना खाकर, रात को महेश के यहां शराब पीता । यही उसकी दैनिक जीवन-यात्रा थी।

"महेश के यहां जब उसने रानी को देखा, तो आर्नल्ड के मानस में एक नया विप्लव-सा उठ खड़ा हुआ। इसमें कुछ रहस्य है, यह बात पहले से ही उसके मन में पैठ चुकी थी। उसके मन में भी रानी का सानिध्य पाने की एक उग्र लालसा जाग उठी थी । मगर मित्रता का असम्मान करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई । अतृप्त वासना के ताप से जलता हुआ वह मौन रहा।

“अशोक पहले से ही महेश के यहां शराब पीने आता था । मगर रानी जब से महेश के यहां आयी, अशोक में एक बड़ा बदलाव आया। वह बातें कम करता, शराब भी कम पीता। लोग कहने लगे कि उसने अपना फक्कड़पन छोड़कर लिखने-पढ़ने में मन लगा लिया है। जिस दिन एक सामाजिक पत्रिका में अशोक की एक कहानी छपी, उसकी जान-पहचान के लोग दंग रह गये । रचना-शैली अपुष्ट थी, कहानी की संरचना कमजोर थी, फिर भी कहानी में एक नवीन जीवन के प्रति अनुराग, मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कामना झलक रही थी। किसके यंत्र के प्रभाव से ऐसा चमत्कार संभव हो सका? दो-एक आदमी इस विषय में थोड़ा-बहुत अंदाजा लगा सके थे । उसमें आर्नल्ड भी एक था।

"आर्नल्ड के मन में दृढ़ निश्चय हो गया कि नारी का प्रेम ही अशोक के हदय के मरुस्थल में नवीन विश्वास का फूल खिलाने में समर्थ हुआ है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह नारी है- रानी । परंतु रानी के पति यानी महेश के होते हुए ऐसी बात भला संभव कैसे हो सकी? आर्नल्ड देखता रहा है - अशोक आजकल बाहर दूसरे ग्राहकों के साथ बैठकर शराब नहीं पीता। महेश के बाहर रहने पर भी सीधे अंदर चला जाता है। एक स्त्री और एक पुरुष की सम्मिलित हंसी-मजाक की उच्छल लहरें आकर दरवाजे पर के रंगीन परदे के पास ही खत्म हो जाती । परदे के उस पार नेपथ्य में जीवन के जिस अज्ञात रहस्य का नर्तन चल रहा है, उसकी कल्पना न कर पाने वाले भग्न-स्वास्थ्य, अधमरे-से लोगों की धंसी हुई आंखें फैली रह जातीं।

"आर्नल्ड आदि शराब पीकर जल्द ही अपने अपने घर चले जाते । अशोक कभी जाता है या बिलकुल जाता ही नहीं, इस बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं । एक दिन इस अभिनय को आखिर तक देखने की आर्नल्ड की बड़ी इच्छा हुई । मगर रात को वहां रहा कैसे जाये ? उसके दिमाग में एक भयावह युक्ति सूझ गयी। उस दिन शराब पीने बैठते ही मानो अचानक गिर गयी हो ऐसा भाव दिखाकर उसने बोतल से जरा-सी शराब जांघ के कपड़े पर डाल ली। कुछ देर बाद सिगरेट जलाने के लिए दियासलाई जलाकर मानो असावधानीवश जलती तीली को कपड़े पर उसी जगह गिरा दिया, जहां शराब गिरी थी। भक से आग जल उठी । महेश आदि ने दौड़कर आग बुझा दी, परंतु उसके पहले आर्नल्ड की आशा के विपरीत उसके दोनों पैर काफी जख्मी हो गये, जला हुआ घाव सूखने में महीना भर लगा । घाव सूखने पर देखा गया कि उसके चलने-फिरने की ताकत बिलकुल खत्म हो गयी है । पंगु, विकलांग बनकर आर्नल्ड महेश के आश्रित के रूप में उसके घर ही रहने लगा।"

इतना कहकर परेरा ने सतीश की आंखों में आंखें डालीं । एक जलते-से आवेश को दबा रखने के प्राणांतक प्रयास से उसका चेहरा पीला पड़ गया था। मैं इसका कोई मतलब समझ नहीं पाया। लगा कि उस कहानी से उसे उत्तेजना की काफी खुराक मिल गयी थी। अपनी आंखें वहां से हटाकर परेरा फिर कहने लगा-

“जब से महेश के यहां रहने लगा था, तभी से आर्नल्ड ने गौर किया था कि महेश और रानी में पति-पत्नी जैसा संपर्क नहीं है । दोनों एक-दूसरे से काफी दूरी बनाये रखते हैं । एक और बात उसके ध्यान में आयी कि महेश की आंखों के सामने ही अशोक रानी पर काफी अधिकार जताया करता है । कभी-कभी उनका व्यवहार शालीनता की सीमा भी पार कर जाता है। इस पहेली का हल ढूंढ़ने का उसने दृढ़ संकल्प किया। महेश को कई तरह से उकसाकर आर्नल्ड ने उससे जो बातें उगलवायीं उनका सार यह है -

"अशोक ने रानी के प्रेम में आकंठ डूबकर उसे अपनी जीवन-संगिनी बनाना चाहा, परंतु उसकी सामाजिक मर्यादा, ऊंची सरकारी नौकरी और सामाजिक संस्कार-बोध ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। शरीर का व्यापार करने वाली एक औरत के साथ आत्मीय संबंध बनाये रखने में भी उसे संकोच होता। दूसरी ओर, रानी का दुर्निवार आकर्षण था- इन दोनों के संघात में पड़कर उसने बीच का रास्ता अपनाया । उसने अपने पूर्व-परिचित लोभी महेश को कुछ हजार की रकम देकर उसे रानी को इस शर्त पर अपनी पत्नी के रूप में रखने को विवश किया कि वह उनके दांपत्य जीवन में कोई रुकावट नहीं डालेगा, लेकिन महेश को याद रखना होगा कि रानी के साथ अशोक की मुहब्बत में भी महेश कोई रोक-टोक नहीं कर सकेगा। मानसिक बोध की दृष्टि से महेश वैसे भी निचले दरजे का आदमी था । स्वाभाविक स्थिति में ऊंची कीमत देकर रानी का सानिध्य खरीद पाना उसके लिए संभव नहीं था, इसलिए यह व्यवस्था उसे बड़ी लोभप्रद लगी।

"इस बात का पता चल जाने पर आर्नल्ड के मन में रानी के बारे में एक नयी अनुभूति जाग उठी । ऐसी अद्भुत घटना भी ईश्वर की इस दुनिया में हो सकती है ? रानी-सृष्टि का विस्मय, साकार सौंदर्य, इस रूढ़ि-जर्जर संसार में अपने लिए नये ढंग से जिंदा रहने की महान प्रेरणा है - उसके साथ अगर उसके जीवन का जरा भी संबंध जुड़ जाये, तो उस वेगवान प्रेरणा की बहती धारा में स्वयं अवगाहन कर इस पंकिल जीवन-यात्रा के पाप और पतन से उसे छुटकारा मिल जायेगा, सौंदर्य की वेदी पर आत्मनिवेदन द्वारा वह प्रकृति के साथ नये ढंग से परिचित हो सकेगा। इस गरिमामय सुखानुभूति के बीच वह नये ढंग से जीवन और जगत को प्यार करना सीखेगा। महेश की जबान से सारी बातें सुनकर और रानी के बीते दिनों की जानकारी पाकर आर्नल्ड का संकोच मिट गया । एक दिन दोपहर को एकांत क्षण में उसने रानी से प्रेम-निवेदन किया । उसने रानी को बता दिया कि उसने रानी की कण भर सहानुभूति पाने को ही जिंदगी भर के लिए यह पंगुता अपना ली है।

“नारी जिस-तिस को झट से प्यार नहीं करने लगती, हालांकि प्रणयार्थी के ऐकांतिक प्रेम-निवेदन से मन ही मन पुलक अनुभव करती है । रानी आर्नल्ड की बातों से विचलित-सी हो उठी। परंतु अशोक की सीख पाकर और स्वभाव से भी वह गंभीर थी। उसने आर्नल्ड से कहा - 'किसी एक को एकांत रूप से प्यार करना, किसी के गहरे प्रेम में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना, जिंदगी का कितना महान अनुभव है, यह बात अशोक से प्रेम करके ही मेरी समझ में आयी है । इस दुनिया में अब किसी से और कुछ भी मैं पाना नहीं चाहती । हम जैसे लाखों लोग हैं जो अपने ज्ञान से या सेवा से संसार का कोई उपकार नहीं कर सकते, परंतु हममें से हर आदमी कम से कम एक-एक आदमी को अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना हो सके, सुखी बना सकता है। और खुद भी सुख से रह सकता है । सही माने में सुखी आदमी भले ही कुछ करे या न करे, अपने सुख की ही महिमा से दुनिया का उपकार करता है।...आपको मैं और कुछ तो नहीं दे सकती, पर अपनी मित्रता जरूर दे सकती हूं।'

“आर्नल्ड मंत्र-मुग्ध-सा रानी की बातें सुनता रहा । उसका कथन खत्म होने पर अचानक उसे लगा कि रानी की जबान से वह अशोक का ही कथन सुन रहा है। असल में अशोक अपनी तेज बुद्धि से पहले ही समझ गया था कि आर्नल्ड कभी न कभी रानी से प्रेमयाचना अवश्य करेगा। इसलिए उसने हर बात रानी को रटा दी थी। अशोक और रानी की आत्माएं प्रेम के ताप से पिघलकर एक हो गयी हैं। रानी की अब कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रही है । आर्नल्ड को बड़ी ईर्ष्या हुई ।....विस्मय से वह अवाक् हो गया, मुग्ध हो गया । उसे यह नयी सीख मिली कि जीवन का विकास सदैव वातावरण पर निर्भर करता है। कोई इंसान जन्म लेते ही हीन या कलुषित बनकर नहीं आता, विवश होकर कोई बुरा हो भी जाये तो भी प्रेम, दया, सौंदर्यबोष, कलानुराग आदि चिरंतन भावनाएं आदमी के मन से बिलकुल विलुप्त नहीं हो जाती । प्रेम के जादू की छड़ी के स्पर्श से रानी को नया जन्म मिल गया है। अशोक की लीला-संगिनी हैउसका कोई और परिचय नहीं है। वह किसी समय की गणिका नहीं, महेश की तथाकथित पत्नी नहीं, वह सिर्फ एक सुगठित नारी-देह भर नहीं है । अचानक आनल्ड आनंद से झूम उठा। उसे लगा, रानी ने भले ही उसे कुछ और न दिया हो, एक ऐसा विश्वास दिया है, जिसके प्रकाश में वह मौत के दरवाजे तक अनायास अकेले आगे बढ़ता जा सकेगा। कृतज्ञता से उसकी आंखें आंसुओं से छलछला आयीं।”

इतना कहकर परेरा अचानक रुक गया। मैंने उनके चेहरे की ओर देखा, उसकी आंखें डबडबा रही हैं । मुनीन की आंखें आग जैसी जल रही हैं । रंगे हाथों पकड़े गये अपराधी की भांति सतीश कुंठित और मैं निर्बुद्धि-सा इधर-उधर तकने लगा। तभी अचानक देखा, एक छाया-प्रतिमा परदे के उस पार तेजी से अंदर चली आ रही है। साथ ही मेरी आंखों के सामने से भी जिंदगी के करुण रहस्य का एक रक्तरंजित परदा खुल गया । न जाने किस अंधे आवेश में आकर मैंने खड़े हो परेरा के पैरों पर से कपड़ा हटा दिया। देखा- उसकी दोनों जांघों पर श्वेत कुष्ठ जैसे जलने का निशान और सिकुड़ी, पर उभरी हुई नसें हैं । एक असाधारण रूपसी नारी को केंद्रित कर तीन उखड़े इंसानों की जिंदगियां चक्कर लगा रही हैं। एक ही नारी में एक को मिला है संभोग का आनंद, दूसरे को प्रेम की स्वर्गीय ज्योति औरतीसरे को रूढ़ि-जर्जर संसार में नये ढंग से अपने लिए जिंदा रहने की महत् प्रेरणा । उन तीनों में सबसे ज्यादा फायदा किसका हुआ है, यह समझने के लिए मैंने सतीश, मुनीन और परेरा के चेहरे की तरफ एक तरफ से नजर डाली । मगर इस सवाल का सही-सही जवाब तो एकमात्र वह रहस्यमयी नारी ही दे सकती है, जो दरवाजे पर के लाल परदे के उस पार अदभुत, रहस्यमंडित-सी एक बिस्तर के कोने पर बैठी अपने दिल का परदा उठाने की कोशिश कर रही है। उसमें सतीश, मुनीन और परेरा की जगह कहां है?

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