परछाईं (कहानी) : शर्मिला बोहरा जालान
Parchhaaeen (Hindi Story) : Sharmila Bohra Jalan
क्या आप जानते हैं कि उसने मुझसे सिर्फ उस महिला के कारण बात बंद कर दी है। ठीक है वह बात न करे तो मुझे क्या पड़ी है। मैं कौन सा उसके बिना मरा जा रहा हूँ। वह मुझे एकदम भी अच्छा नहीं लगता है। उसके सामने मैं गाली नहीं दे सकता। उसके सामने मुझे अच्छा दिखना पड़ता है। वह अपने आपको ज्यादा समझता है। हर समय ज्ञान की बातें बखानता है। उस दिन जब मैं उसके घर गया वह बैठी हुई थी, जिसे देखते ही मुझे कुछ हो जाता है और मैं आपा खो बैठता हूँ। मैंने संयम रखा। चाहा कि मेरे मुँह से महिला के लिए ऐसी-वैसी कोई बात न निकले। मैं वापस जाने लगा। पर उन दोनों ने मुझे देख लिया और मुझे रुकना पड़ा और उनके सामने उस कमरे में बैठना पड़ा।
मैं बैठ गया पर कोशिश यह कर रहा था कि उनकी कोई भी बात मेरे कानों में न पड़े। ऐसा भी कभी हुआ है? मुझे उस औरत की बातें सुननी ही पड़ी। वह भावुक हो मेरे दोस्त से कह रही थी, "विजय ने मुझे कहीं का न छोड़ा।" उसका गला भी भर सकता है, यह मेरे लिए दुनिया का एक नया आश्चर्य था। उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "बीस वर्ष बाद मुझे इस तरह अपने बच्चों को लेकर अलग होना पड़ा, यह मैंने कभी नहीं सोचा था।" मैंने मन ही मन कहा, "तुम तो विजय बहुत साहसी निकले। निकाल दिए अपने जीवन के बीस वर्ष इस बेवकूफ औरत के साथ।" हाँ, मैं इस औरत को अच्छी तरह जानता हूँ, वह जो भी कह रही है उसमें कितनी सच्चाई है, वह क्या मेरे दोस्त से भी छुपी हुई है? मैं चुप ही रहा। वह मेरे दोस्त की मेहमान जो थी।
मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। सूरज डूब रहा था। आसमान नीला-पीला-सुनहरा हो गया था। कितना सुंदर है आकाश का रंग - मैंने शायर के अंदाज में अपने आप से कहा। तभी उस महिला ने अपनी बात बंद कर दी। मेरी तरफ घूमकर मुझे घूरते हुए व्यंग्य में बोली, "कहिए जनाब, आप खुश हैं न!" मेरे कान लाल हो गए। मैंने गुस्से में कहा, "क्या मतलब है आपका?" वह मुस्कुरा कर बोली, "तो क्या खुलकर समझाना होगा? समझ गया कि यह औरत जो कभी मेरी पत्नी की सहेली हुआ करती थी, मुझे मेरी पत्नी से हुए झगड़े की याद दिला रही है। वह जानती है कि मुझमें और मेरी पत्नी में अनबन रहती है। मेरी पत्नी को अपना मायका राजा-महराजाओं का खानदान लगता है और मेरा घर दरिद्रों का कुनबा। जो भी हो, वह कौन होती है, मुझे उन प्रसंगों को याद दिलाने वाली? मेरा मन हुआ, मैं उसके गाल पर खींचकर एक चाँटा मारूँ। वह मेरे दोस्त की मेहमान थी। मैंने अपने दोस्त की तरफ देखा कि वह मुझे बचाए, पर वह साला तो आँखें झुकाकर बैठ गया। उसने मुझे उस पल एकदम अकेला छोड़ दिया। मैं तिलमिला गया। कभी मैं अपने दोस्त को देख रहा था तो कभी उस औरत को। मेरे घरेलू मामले में कुछ भी बोलने वाली वह कौन होती है। वह औरत कुछ भी बोल दे, यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। तभी वह खड़ी हो गई और अँगुली दिखाकर बोली, "आप इतने सीधे नहीं हैं कि मेरी बात का मतलब न समझें।" मैं चीखा, "अगर आप चुप नहीं होंगी तो...?" "तो क्या?" उसने मुझे उकसाया। मैंने अपनी मुट्ठियाँ भींच ली और एक-दो गिनती शुरू कर दी और मन ही मन स्वयं को समझाता रहा कि मुझे इस महिला से कोई बात नहीं करनी। ये बोलती कुछ है, सुनती कुछ और करती कुछ है। एक नंबर की झगड़ालू है और अक्सर विजय से उसकी आय कम होने के लिए झगड़ती रही है। मैंने देखा, वह आँख फाड़े मुझे घूर रही थी। मेरे मुँह से न जाने कैसे निकल गया, "अच्छा हुआ विजय चला गया।"
मेरे दोस्त ने मुझे चौंककर देखा। वह अजीब स्थिति में फँस गया था। मुझे आँख दिखाकर बोला, "यह क्या बोल रहे हो? क्या अधिकार है तुम्हें इस तरह की बात बोलने का?" मैंने कहा, "गलत तो नहीं बोला।" हम दोनों एक-दूसरे को आँख और उँगली दिखलाने लगे। वह बोली, "कैसे-कैसे लोग आपके घर में आते हैं।" मैंने अपनी आवाज को और ऊँची करके कहा, "आपसे तो बेहतर आते हैं।"
दोनों तरफ से गोला-बारूद दागे जा रहे थे और मेरा तीस साल पुराना दोस्त मुझे रोकता रहा। चली गई वह पागल औरत हम दोनों के बीच आग सुलगाकर। उसके जाते ही मेरे दोस्त ने कहा, "तुम क्यों बैठे हो? तुम भी जाओ।" मैं अवाक् था। वह मुझे ऐसे कैसे बोल सकता है? वह औरत उसकी अपनी हो गई और मैं पराया! उसने ऐसी कड़ी बात मुझसे कही! मैंने भी कह दिया, "आज तुम मुझे अपने घर से निकाल रहे हो और उन दिनों जब न तुम्हारे पास नौकरी थी और न कोई घर, कैसे पड़े रहते थे मेरे घर में। मेरी बीवी पूरे-पूरे दिन में दो-दो बार तुम्हें खाना और नाश्ता पूछती। भैया-भैया कहते उसकी जुबान नहीं थकती थी। और उस दिन जब तुम्हारी बीवी ने तुम्हारी बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या की, किसने तुम्हें सँभाला? कौन इस अनजान शहर में तुम्हारे साथ पुलिस चौकी से लेकर श्मशान घाट तक चक्कर लगता रहा। बताओ कौन?"
मेरी यह बात सुनकर मेरा दोस्त सन्न रह गया। बोला, "ओ, तो तुम अपने किए को गिना कर मुझे गुलाम बनना कहते हो। अगर इसी तरह मैं भी तुम्हें अपना किया गिनाने लगूँ तो...।" तो क्या? तुम भी गिनाओ। हिसाब-किताब आज बराबर हो जाएगा।" पर उसने बात भी नहीं दुहराई। मैंने उसे उकसाया, "कहते क्यों नहीं? क्या-क्या तुमने मेरे लिए कब-कब किया। तुम क्यों नहीं कहते, यह मैं जानता हूँ। तुम अपने ऊपर अच्छे होने का जो मार्का लगाए हुए हो, उसे मिट्टी में नहीं मिलता चाहते। तुम्हें नशा हो गया है अच्छा कहलाने का। तुम एकदम पाखंडी हो, तुम एकदम पाखंडी हो। हजार बार कहूँगा। तुम अगर नहीं कहते तो मैं ही कह देता हूँ कि कब-कब तुमने मेरे लिए क्या-क्या किया। तुमने मुझे उस समय सहारा दिया जब मैं अपनी प्रेमिका ज्योति के प्यार में रो रहा था। तुमने मुझे उस समय डाँटा जब मैंने अपने ससुर को गली दी। तुममे मेरी बीवी को समझाया कि मैं बदमाश नहीं तुनकमिजाज हूँ।"
वैसे मैंने उस दिन पी नहीं थी, पर न जाने विक्षिप्त क्यों हो गया था। मैंने अपने को विक्षिप्त नहीं कहा। यह तो दोस्त ने मुझसे कहा कि तुम विक्षिप्त हो गए हो। वह ऐसे ही कहता है। किताबें बहुत पढ़ता है न! न जाने कितने लेखक-कवि उसके दोस्त हैं जो उसके पास पड़े रहते है और वह पिलाता रहता है उनको चाय। करते रहते हैं तो सभी देश और समाज पर चर्चा। उनमें कौन कितना सच्चा है, यह मैं जानता हूँ। जानता हूँ तभी तो वह मुझे आने से मना कर देता है। वह डरता है कि कहीं मैं उन साहित्यकारों के मुँह पर उनकी पोल चौड़ी न कर दूँ। अलग से बैठकर वह मेरे साथ उनकी खूब खिल्ली उड़ाता है, पर उनके सामने ऐसा बन जाता है जैसे उनका कितना सगा है। वह यह जानता है कि उसके वे मित्र शराब पीकर कैसी ओछी बात करते हैं। पर जब मैं ओछेपन पर उतरता हूँ तो मुझे डाँटता है। मैं गुस्से में कहता हूँ, तुम एकदम कुत्ते हो। वह हँसने लगता है। वह हँसते-हँसते दोहरा हो जाता है। फिर अचानक खूब गंभीर होकर कहता है, मैं सचमुच कुत्ता हूँ। किसलिए यह सब कर रहा हूँ? मुझे क्या पड़ी है जो सबको समझाता और समझता रहता हूँ। ऐसा कहते हुए वह खड़ा हो जाता है और अपना पाजामा ऊँचा करता है। मैं धीरे से कहता हूँ - नाड़ा लटक रहा है तो वह अपना नाड़ा अंदर डाल ल्रता है।
मैं उसे ध्यान से देखता हूँ। वह मुझे थका और पस्त दिखलाई पड़ता है। लगता है वर्षों से नहाया नहीं है। मुझे उस पर प्रेम आता है, तभी मैं गुस्से में कहता हूँ कि तुम पागल हो गए हो। जो ज्यादा पढ़ता है वह पागल हो जाता है ऐसा बाबा कहा करते थे। वह जमीन पर बैठ जाता है और बच्चों की तरह मुझसे पूछता है, "क्या बाबा ऐसा कहते थे?" मैं कहता हूँ, "हाँ। वह हमेशा कहते थे।" वह न जाने क्या सोचता है। ऐसा लगता है जैसे वह बाबा को देख रहा हो, फिर बार-बार दुहराने लगता है, "तुम्हारे बाबा एकदम ठीक कहते थे। वह जब मरे तब तुम कहाँ थे?" मैं कहता हूँ, "जानते तो हो कि विलायत में था फिर क्यों पूछते हो?" वह कहता है, "तुम सभी एकदम स्वार्थी हो। विलायत में ही क्या लड़कियाँ मिलती हैं, यहाँ नहीं।" मैं चीखता हूँ कि गलत-सलत मत बोलो, तुम अच्छी तरह जानते हो, मैं औरतबाज नहीं हूँ। तब वह गुस्से में कहता है - हो जाते तो अच्छा था। कम से कम मेरा पिंड तो छोड़ते।
मैं अपना सामान उठा, जाने लगता हूँ और कसम खाता हूँ कि कभी उसकी चौखट पर पाँव नहीं रखूँगा। कसम खाता हूँ कि कभी उसका मुँह नहीं देखूँगा। कसम खाता हूँ कि कभी उसे याद नहीं करूँगा। वह साला समझता है कि मैं उसके बिना मरा जा रहा हूँ। सालों से मैं यहाँ आता हूँ, इसके पास, जिसे मेरी जरूरत नहीं। जो उस झगड़ालू के सामने मुझे आँख दिखाने लगा। साला औरत के सामने अच्छा बनने का नाटक कर रहा था। एक नंबर का डरपोक है। कभी भी किसी भी औरत को कुछ न बोल सका। बस दूर से ही देखकर खुश हो लेता। जब वह हँसती हुई उसके पास आकर बैठ गई थी तो उसका पाजामा नीचे होने लगा था। रोयें ऐसे खड़े हो गए थे जैसे कोई चोरी पकड़ ली गई हो और आज भाषण झाड़ रहा था उसके सामने!
मैंने उसे उस औरत के सामने यही तो कहा कि तुम एकदम झूठे हो। बस, उसने मुझसे बात बंद कर दी। वह मुझसे बात नहीं कर रहा। पूरा एक महीना हो गया वह मेरे पास नहीं आया। जब कभी मैं उसके घर जाता हूँ पता चलता है, वह घर पर नहीं है। वह कहाँ गया? वह घर पर क्यों नहीं मिलता? उसका इस शहर में मेरे सिवा और कोई नहीं है। वह किसी कवि-लेखक के यहाँ बैठा होगा यह मैं नहीं मान सकता, क्योंकि मैं जनता हूँ उसे साहित्यकारों से कितनी एलर्जी है। वह किसी औरत के चक्कर में भी नहीं फँसेगा। वह किसी आंदोलन का अगुवा तो नहीं बन गया? कहीं किसी बस्ती में जाकर पढ़ाना-वढ़ाना तो शुरू नहीं कर दिया? हे भगवान, कहाँ खोजूँ उसे? क्या उसे कोई खोज नहीं सकता? वह शराब नहीं पीता है। वह सिगरेट नहीं छूता। वह ताशबाज नहीं है। वह एकदम अच्छा नहीं है। वह साला मर क्यों नहीं जाता! मैंने उसे इतनी बार कहा कि वहाँ उस इलाके में अकेले पड़े रहते हो, आकर मेरे पास क्यों नहीं रह जाते, यहाँ कमरा खाली है पर वह माने तब ना? अपना खाना अपने आप बनाता है। सारा काम अपने आप करता है। कहता है, इस देश में बहुत सारे लोग इससे भी बुरे हाल में रहते हैं। मुझे उसकी ये बातें बेकार लगती हैं, फालतू आदर्शवादी बातें। पर वह हँस देता है। वह उस हालत में, फटेहाल रहकर हँस कैसे सकता है? वह जैसा खाना बनाता है, जिस ढंग से जिस बर्तन में खाता है वैसे तो झुग्गीवाले भी नहीं खाएँगे। वह मैले-कुचैले कपड़ों में रहता है। क्या वैसे ही जिया जाता है? वह वैसे ही है। पर वह कहाँ चला गया? वह क्यों चला गया? वह जनता है मैं उसके बिना नहीं रह सकता। मैं रोने-रोने को हो आया। हाँ, मैं रो रहा हूँ, वह महिला नहीं आती तो वह मुझसे बात बंद नहीं करता। वह एकदम भी अच्छा नहीं है।