पलाश : झारखण्ड लोक-कथा
Palash : Lok-Katha (Jharkhand)
(पलाश झारखंड का राज्य पृष्प है)
एक घना जंगल था। इसमें तरह-तरह के जंगली जीव-जन्तु रहते थे। जंगल तीन
ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा था और एक ओर एक बड़ी नदी बहती थी। पहाड़
बहुत ऊँचे थे और नदी बहुत गहरी और चौड़ी थी। इसे पार करना बहुत कठिन था।
इसलिए बाहर का कोई व्यक्ति जंगल के भीतर नहीं पहुँच पाता था।
इस जंगल में एक वृद्ध साधु रहता था। वृद्ध साधु के बहुत से शिष्य थे। वृद्ध साधु
ने तो जंगल के बाहर की दुनिया देखी थी, लेकिन साधु के शिष्य बाहर की दुनिया से
पूरी तरह अनजान थे। वे कभी जंगल के बाहर गए ही नहीं थे। अतः बाहर की दुनिया
के बारे में कुछ नहीं जानते थे। वृद्ध साधु ने भी उन्हें बाहर की दुनिया के बारे में कुछ
नहीं बताया था। उसने अपने शिष्यों को स्वर्ग के देवी-देवताओं के बारे में अवश्य
थोड़ा-बहुत बताया था।
वृद्ध साधु और उसके शिष्यों का अधिकांश समय पूजा-पाठ और जप-तप में
व्यतीत होता था। वे प्रातःकाल उठ जाते, नदी किनारे स्नान करते और पूजा-पाठ के
कामों में लग जाते। भूख लगने पर वे जंगल के फल-फूल खाते और नींद आने पर
अपनी-अपनी कुटियों में जाकर सो जाते। वृद्ध साधु और उसके शिष्यों का यही जीवन
था। इसके अलावा उन्हें और कुछ नहीं आता था।
घने जंगल के भीतर उत्तर की ओर एक सुन्दर तालाब था। इस तालाब की
जानकारी केवल वृद्ध साधु को थी। उसके शिष्यों को तालाब की कोई जानकारी नहीं
थी। वृद्ध साधु ने उन्हें तालाब के बारे में कुछ नहीं बताया था। इतना ही नहीं वृद्ध
साधु ने अपने शिष्यों को उत्तर की ओर न जाने के लिए कठोरता से मना कर दिया
था। सभी शिष्य वृद्ध साधु का बड़ा सम्मान करते थे और मन-ही-मन उससे डरते भी
थे। अतः कभी किसी शिष्य ने तालाब की ओर जाने की हिम्मत भी नहीं की।
घने जंगल के उत्तर की ओर का तालाब कोई साधारण तालाब नहीं था। यह
परीलोक की राजकुमारी सोनापरी का तालाब था। सोनापरी हमेशा पूनम को प्रातःकाल
अपनी सखियों के साथ आती थी और दिनभर जलक्रीड़ा करती थी। यह जलक्रीड़ा
शाम तक चलती रहती थी। रात का अँधेरा होने के पहले ही सोनापरी और उसकी
सखियाँ अपने-अपने पंख लगातीं और परी लोक लौट जातीं।
वृद्ध साधु का एक युवा शिष्य हमेशा यह सोचा करता था कि घने जंगल के उत्तर
में ऐसा क्या है? जो उसके गुरु ने सभी शिष्यों को उधर जाने से मना किया है। एक
दिन उसने तय किया कि वह घने जंगल के उत्तर की ओर जाएगा और देखेगा कि वहाँ
क्या है? अगले दिन वह अपने सभी साथियों के पहले उठा और अकेले ही जंगल के
उत्तर की ओर चल पड़ा।
पूनम का दिन था। युवा शिष्य जिस समय तालाब के किनारे पहुँचा, दोपहर हो
रही थी। युवा शिष्य ने तालाब के किनारे जो दृश्य देखा तो देखता ही रह गया।
तालाब में सुन्दर-सुन्दर परियाँ निर्वस्त्र होकर जलक्रीड़ा कर रही थीं। युवा शिष्य ने
परियाँ तो दूर अपने जीवन में कभी किसी स्त्री को नहीं देखा था। सुन्दर-सुन्दर परियों
को देखकर वह जप-तप करना सब भूल गया। वह एक वृक्ष की आड़ में छिपकर शाम
तक परियों की जलक्रीड़ा देखता रहा। शाम को परियाँ तालाब के बाहर निकलीं,
उन्होंने अपने-अपने पंख लगाए, वस्त्र पहने और उड़ गईं। युवा शिष्य ठगा-सा सब
कुछ देखता रहा।
युवा शिष्य का अब हमेशा का यह नियम बन गया। वह पूनम के दिन अपने सभी
साथियों से पहले सोकर उठता और तालाब के किनारे पहुँच जाता और दिनभर जल
परियों की जलक्रीड़ा देखता रहता।
धीरे-धीरे पाँच महीने बीत गए। युवा शिष्य में तीव्र कामेच्छा उत्पन्न होने लगी थी।
उसका मन अब जप-तप में नहीं लगता था। वह दिनभर परियों के बारे में सोचता रहता
था। रात को सपने में उसे जलक्रीड़ा करती हुई परियाँ दिखाई देतीं। युवा शिष्य हमेशा
बड़ा बेचैन रहता था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? इतने दिनों
में उसने परियों के बारे में इतना तो जान लिया था कि परीलोक से आनेवाली परियों
में एक उनकी राजकुमारी है और बाकी सभी उसकी सखियाँ हैं। परियों की राजकुमारी
अपनी सखियों के साथ हमेशा पूनम को आती थी।
एक दिन युवा शिष्य ने निश्चय किया कि वह इस बार परियों की राजकुमारी से
बात करेगा। अगले दिन पूनम थी। युवा शिष्य अपने सभी साथियों से पहले उठा और
तालाब की ओर चल पड़ा । तालाब के निकट पहुँचकर पहले तो वह परियों की जलक्रीड़ा
देखता रहा। इसके बाद उसने परियों की राजकुमारी सोनापरी के पंख उठाए और कुछ
दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे सो गया।
युवा शिष्य काफी देर तक सोता रहा। अचानक उसके कानों में किसी स्त्री की
करुण आवाज पड़ी। कोई स्त्री रो-रोकर कह रही थी-“मेरे पंख कहाँ गए? मेरे पंख
कौन ले गया? मेरे पंख दे दो।” युवा शिष्य उठकर खड़ा हो गया और सोनापरी के
निकट आ गया। यह करुण आवाज सोनापरी की ही थी।
सोनापरी श्वेत रेशमी वस्त्रों में बड़ी सुन्दर लग रही थी। युवा शिष्य ने उसे देखा
तो देखता ही रह गया। उसने उसके पंख उसे दे दिए।
सोनापरी ने भी युवा शिष्य को देखा तो ठगी-सी रह गई । उसने परी लोक में अपनी
माँ से धरती के पुरुषों के बारे में सुना तो था, लेकिन पुरुषों को कभी देखा नहीं था।
सोनापरी को युवा शिष्य बहत अच्छा लगा।
युवा शिष्य सोनापरी को बड़ी प्यार भरी नजरों से देख रहा था। और सोनापरी
भी उसे ऐसे देख रही थी मानो सम्मोहित हो गई हो। सोनापरी की सभी सखियाँ
अपने-अपने पंख लगाकर जा चुकी थीं। वह इस समय अकेली थी।
कुछ समय तक दोनों एक-दूसरे को ऐसे ही देखते रहे। इसके बाद युवा शिष्य ने
सोनापरी का हाथ पकड़ा और एक वृक्ष के नीचे आ गया। सोनापरी ने कोई आपत्ति
नहीं की।
युवा शिष्य सोनापरी से आधी रात तक बातें करता रहा | सोनापरी अपनी सखियों
से बिछुड़ने के कारण बड़ी घबराई हुई थी। लेकिन युवा शिष्य के सान्त्वना देने पर वह
सामान्य हो गई और बातें करने लगी। सोनापरी ने उसे बताया कि उसका परी लोक
यहाँ से बहुत दूर है, लेकिन वह पंख लगाकर बहुत जल्दी अपने लोक में पहुँच जाती
है। सोनापरी ने यह भी बताया कि उसके और उसकी सख्रियों के समान परी लोक की
सभी परियाँ श्वेत रेशमी वस्त्र पहनती हैं। बातें करते-करते सोनापरी युवा शिष्य की गोद
में अपना सिर रखकर सो गई। युवा शिष्य धीरे-धीरे सोनापरी के सिर पर हाथ फेरता
रहा। उसे रातभर नींद नहीं आई। शायद दोनों को एक-दूसरे से प्रेम हो गया था।
प्रातःकाल होने पर सोनापरी की नींद टूटी। उसने युवा शिष्य का आलिंगन किया
और अपने पंख लगाकर परी लोक की तरफ उड़ चली। रात में आकाश मार्ग में दैत्यों,
दानवों आदि का डर था, अतः वह अकेली नहीं जा सकती थी।
युवा शिष्य भी सोनापरी को विदा करने के बाद अपने साथियों के पास वापस लौट
आया । उसके जाने की बात साधु और उसके शिष्यों को नहीं मालूम थी। अतः युवा
शिष्य को कोई परेशानी नहीं हुई और वह अगले दिन से अपने अन्य साथियों के समान
जप-तप में लग गया।
युवा शिष्य अपने साथियों के साथ जप-तप करता अवश्य था, लेकिन इसमें उसका
मन बिलकुल नहीं लगता था। वह आँखें बन्द करके बैठ जाता था और सोनापरी के
बारे में सोचता रहता था। उसके साथी समझते थे कि वह जप-तप कर रहा है।
कभी-कभी युवा शिष्य को बड़ी बेचैनी होती थी। ऐसे में वह उठकर किसी एकान्त स्थान
में पहुँच जाता था और सोनापरी को याद करके रोता रहता था। उसे हमेशा पूनम की
प्रतीक्षा रहती थी। वह हमेशा सोचता रहता था कि किसी तरह पूनम आए और वह
अपनी सोनापरी के पास पहुँच जाए।
युवा शिष्य पूनम के दिन प्रातःकाल तालाब की ओर चल देता था और दोपहर तक
पहुँच जाता था। दिनभर वह सोनापरी के साथ रहता और न जाने क्या-क्या बातें करता
रहता। सोनापरी भी उसके प्रेम में पूरी तरह दीवानी हो चुकी थी। वह भी परी लोक
में हमेशा खोई-खोई रहती थी और पूनम की प्रतीक्षा करती रहती थी। पूनम का दिन
दोनों के लिए एक दिन की खुशियाँ लेकर आता था। दोनों पूनम के दिन शाम तक
प्रेमालाप करते और रात का अँधेरा होते ही सोनापरी अपनी सखियों के साथ परी लोक
लौट जाती थी और युवा शिष्य अपने साथियों के पास आ जाता था।
धीरे-धीरे एक वर्ष हो गया।
युवा शिष्य की स्थिति अब पागलों जैसी हो गई थी। वह दिनभर खोया-खोया
रहता था। जप-तप करना उसने छोड़ दिया धा। उसका किसी काम में मन नहीं लगता
था। उसके साथियों ने उससे बहुत पूछा, लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। वृद्ध
साधु नदी पार करके कुछ दिनों के लिए बाहर गया था। अतः युवा शिष्य की हालत
की उसे कोई जानकारी नहीं थी।
युवा शिष्य के साथी उसकी स्थिति देखकर परेशान थे। उन्हें बस इतना मालूम
था कि युवा शिष्य पूनम के दिन कहीं जाता है। रात में लौटने पर वह खुश रहता है
और फिर दो-चार दिन बाद उसकी स्थिति पहले जैसी हो जाती है।
युवा शिष्य के सभी साथियों ने मिलकर इस बारे में विचार-विमर्श किया और
अन्त में यह निर्णय लिया कि वे अगली पूनम को युवा शिष्य का चुपचाप पीछा करेंगे
और सारी बातें जानने का प्रयास करेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया।
अगली पूनम को हमेशा की तरह युवा शिष्य कुछ जल्दी उठा और तैयार
होकर तालाब की ओर चल पड़ा। उसके साथी पहले से ही तैयार थे। वे कुछ दूरी
पर रहकर उसका पीछा करने लगे। दोपहर होने तक सभी लोग तालाब तक आ
पहुँचे ।
युवा शिष्य के साथियों ने तालाब में जो दृश्य देखा तो देखते ही रह गए। निर्वस्त्र
परियाँ तालाब में जलक्रीड़ा कर रही थीं। वे अपनी एक सखी के साथ छेड़छाड़ भी कर
रही थीं। यह परी सबसे सुन्दर थी। शायद यह उनकी राजकुमारी थी।
युवा शिष्य को देखते ही परियों की राजकुमारी सोनापरी तालाब के बाहर निकली।
उसने अपने कपड़े पहने और अपने प्रेमी के पास आ गई।
युवा शिष्य के साथी सब देख रहे थे। अचानक उन सभी के मन में न जाने क्या
आया कि सभी ने आगे बढ़कर तालाब में जलक्रीड़ा कर रही परियों के पंख उठा लिए।
परियों ने अजनबी लोगों को देखा तो पहले तो घबराई, फिर शीघ्र ही सामान्य हो गईं।
वे तालाब के बाहर निकलीं और अपने-अपने कपड़े पहनकर युवा शिष्य के साथियों के
पास आ गईं और उनसे अपने पंख माँगने लगीं।
युवा शिष्य के साथियों ने सभी परियों के पंख लौटा दिए। युवा शिष्य के जितने
साथी थे, उतनी ही परियाँ थीं। यह देखकर सभी को आश्चर्य हो रहा था। परियों ने
भी, पंख मिलने के बाद उन्हें लगाया नहीं, बल्कि युवा शिष्य के साथियों से मुस्कराकर
बात करने लगीं। थोड़ी ही देर में एक-एक परी ने एक-एक साथी को चुन लिया। और
उनके जोड़े बन गए।
सोनापरी और युवा शिष्य ने उन्हें देखा तो मुस्करा दिए।
धीरे-धीरे शाम हो गई। परियों ने एक बार आसमान की ओर देखा। आज उनका
मन परीलोक लौटने का नहीं हो रहा था, लेकिन अँधेरा होने के पहले परी लोक लौटना
आवश्यक था। अतः सबने अपने-अपने पंख लगाए और अपने-अपने प्रेमियों से विदा
लेकर परी लोक की ओर उड़ चलीं।
धीरे-धीरे छह महीने और बीत गए। युवा शिष्य और उसके साथी पूनम के दिन
तालाब के पास पहुँच जाते थे और दिनभर परियों के साथ प्रेमालाप करते थे और रात
का अँधेरा होने के पहले परियों को विदा करके वापस लौट जाते थे। वृद्ध साधु अभी
तक वापस नहीं लौटा था।
बसन्त का मौसम आनेवाला था। ठंडक धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। एक दिन
युवा शिष्य सोनापरी का सिर अपनी गोद में रखे उससे मीठी-मीठी बातें कर रहा था।
उसके साथी भी परियों के साथ प्रेमालाप में मग्न थे। शाम होने को थी। सोनापरी और
उसके साथ की परियों के लौटने का समय होनेवाला था।
अचानक वृद्ध साधु प्रकट हुआ। वह बड़े क्रोध में था।
सोनापरी और उसके साथ की परियों ने क्रोधित साधु को देखा तो शाप के भय
से अपने पंख लगाए और परी लोक की ओर उड़ चलीं।
क्रोधित वृद्ध साधु ने परियों को तो कुछ नहीं कहा, लेकिन अपने सभी शिष्यों को
उसने असुन्दर वृक्ष होने का शाप दे दिया।
युवा शिष्य और उसके साथी शीघ्र ही असुन्दर पलाश के वृक्षों में बदल गए और
कुछ ही पलों में तालाब के चारों ओर पलाश के वृक्षों का एक जंगल-सा दिखाई देने
लगा।
अगली पूनम को जब सोनापरी अपनी सखियों के साथ आई तो उसे युवा शिष्य
और उसके साथियों की यह स्थिति देखकर बड़ा दुख हुआ। सोनापरी युवा शिष्य को
हृदय से प्यार करने लगी थी। वह बड़ी देर तक वृक्ष पर अपना सिर पटककर रोती रही।
इससे उसका सिर फट गया और पलाश का पेड़ खून से तर हो गया | सोनापरी के समान
उसके साथ की परियाँ भी पेड़ बने अपने-अपने प्रेमियों पर सिर पटक रही थीं। उनके
भी सिर फट गए और खून बहने लगा।
सोनापरी और उसके साथ की परियाँ शाम तक रोती बिलखती रहीं और फिर
अपने-अपने पंख लगाकर भारी मन से परी लोक चली गईं।
कहते हैं कि सोनापरी और उसके साथ की परियों का खून पलाश के वृक्ष पर
जहाँ-जहाँ, गिरा वहाँ पलाश के फूल खिल उठे। आज भी बसन्त के आगमन के समय
सोनापरी और उसके साथ की परियाँ धरती पर आती हैं। वे टेढ़े-मेढ़े पलाश के पेड़ों
पर अपना सिर पटक-पटककर रोती हैं और अपना सिर लहूलुहान कर लेती हैं। सोनापरी
और उसके साथ की परियों के जाने के बाद उन सभी का खून फूलों में बदल जाता
है और पलाश का पेड़ सुन्दर लाल फूलों से लद जाता है।
(डॉ. परशुराम शुक्ल की पुस्तक 'भारत का राष्ट्रीय
पुष्प और राज्यों के राज्य पुष्प' से साभार)