पैदल सैनिक (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Paidal Sainik (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
अब और नहीं झेला जा सकता।
फिर शुरू हो गयी है सावित्री की वही एक जैसी बक-बक... । थकी-माँदी...। बकवास और धारदार बातों का एक अजीब-सा घालमेल !
"और सहा नहीं जाता रे...!"
"जान निकले तो जान बचे।"
"यह मुँहझौंसा जमराज कितनों को न्यौत-न्यौतकर ले गया...मुझे क्यों नहीं ले जाता रे...."
बस यही उलाहना लगातार जारी रहता है... । सावित्री उस मुँहझौंसे जम को इसी बात के लिए जली-कटी सुनाती रहती है और अपनी बेबसी का रोना रोती रहती है। बस, उसकी आखिरी और इकलौती ख्वाहिश है मौत...और इस बात को वह ढिंढोरा पीट-पीटकर सारे मोहल्ले के लोगों को बताना चाहती है जिन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं है।
जयन्ती को यह सब बड़ा ही बुरा और बेहूदा लगता है।
उसे अपनी माँ को 'माँ' कहकर बुलाना भी अच्छा नहीं लगता। किसी तरह दोनों वक्त का खाना और रात को सोने के लिए मिलनेवाली थोड़ी-सी जगह के सिवा धीरे-धीरे इस घर से उसका सारा लगाव ही जैसे खत्म होता चला गया है। और इस जुड़ाव को जान-बूझकर ही जयन्ती ने काटकर फेंक देना चाहा है।
उसके पास समय ही कहाँ है कि वह घड़ी देखकर सुबह, दोपहर, शाम और रात-चारों बेला घर आकर हाजिरी दे। अपने लिए भी उसके पास समय कहाँ है !
लेकिन तो भी...समय निकालकर उसे घर तो आना ही पड़ेगा ? अपने घर...सारे दिन काम-काज में डूबे रहने के बाद और अपने आपको निचोड़ देने के बाद खुद अपनी देह का हाथ पकड़कर जबरदस्ती बिछावन पर डाल देने के लिए।
और ठीक इसी समय शुरू हो जाती है सावित्री की बक-झक, आरोप और अभियोग...।
इन बातों...दावों और दलीलों का सिलसिला शुरू हुआ नहीं कि दिन भर चलता रहता है। जयन्ती घर में नहीं रहती इसलिए वह सब सुन नहीं पाती। ईश्वर ने उसे बचा लिया है वर्ना इतनी सारी बकवास सुनकर पागल हो गयी होती।
घर के दो-चार गिने-चुने सदस्यों के लिए भी खाना और नाश्ते का इन्तजाम करने और गृहस्थी सँभालने में भी सावित्री को इतनी अँझलाहट होती है ? इतनी अकेली हो जाती है? अगर उसके कन्धे पर घर भर के लिए खर्चा जुटाने का भार होता तो पता नहीं क्या होता?
जयन्ती को यह सारा कुछ करने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। इस बात को अब तक किसी ने सोचा भी है ?
माँ की स्नेहभरी दृष्टि से भले ही सम्भव न हो पाया हो एक सामान्य प्राणी की दृष्टि से भी क्या सावित्री यह सारा कुछ देख नहीं पाती है ? जिस लड़की ने सारी गृहस्थी को खड़ा करने के लिए अपने को पूरी तरह से निचोड़ दिया है, उसके कानों के पास ही ये सारे बेहूदे और बे-बुनियाद आरोप लगाये जाते हैं। विषैली फूत्कार और चीखपुकार के साथ, एक ही सुर में कभी जमराज तो कभी भगवान को बुलाया जाता है...।
पता नहीं, उसका विवेक तो नहीं मर गया !
अगर उससे कुछ कहने को जाओ तो रो-पीटकर ऐसा तमाशा खड़ा कर देगी कि हाट-बाजार का-सा दृश्य खड़ा हो जाएगा।
इससे तो अच्छा है कि चुप ही रहा जाए।
इस चुप्पी की वजह से जयन्ती धीरे-धीरे दूर और दूरतर होती चली जा रही है। अचानक जब कभी भी बारिश उतरती है तो आजकल वह चुपचाप...बैठकर उसे निहारा करती है। अगर वह चाहे तो बड़े आराम से रस्सी पर गीले हो रहे कपड़ों को उठा सकती है।
अभाव की अभिशाप-छाया में पल रही इस छोटी-सी गृहस्थी में थोड़े-बहुत कपड़े-लत्ते के गीले हो जाने की चिन्ता जयन्ती को जरा भी विचलित नहीं कर पाती। आजकल...उसके मन में एक निर्मम आक्रोश कण्डली मारकर बैठ गया है। भगवान के विरुद्ध नहीं, खुद अपनी माँ के खिलाफ।
अगर ऐसी ही दुर्दशा होनी है तो घर-गृहस्थी बसाने की जरूरत ही क्या है ? वैसे ही छोटे भाई-बहनों की दुर्दशा का अन्त नहीं है। देह पर एक कुरता नहीं, बालों में तेल और कंघी नहीं...समय पर खाना नहीं...हारी-बीमारी में दवा नहीं। गन्दी बस्ती के लड़कों की तरह धूल, कीचड़ और काई-कादो में खेलते रहते हैं।
दफ्तर जाने के समय जयन्ती और उसके पिताजी खाना खाने को बैठते हैं तो यही लगता है जैसे चोर हैं। लेकिन भोजन की महिमा का बखान कुछ कम नहीं होता। भात के साथ अगर किसी तरह दाल जुट गयी तो बहुत हुआ। जलती हुई आग की तरह आधा सीझे हुए चावल के दाने और दाल को सामने रखकर शर्मिन्दा होने की बात तो दूर...सुबह-सुबह भात बनाने में क्या-क्या परेशानियाँ आती हैं, सावित्री उसकी लम्बी सूची दोहराती रहती है...अपने पति और बेटी के कानों में।...क्या मजाल कि एक भी बात उठा रखे...अगर वह चाहे तो इतनी देर में बड़े आराम से दो-दो सब्जियाँ बन सकती हैं। लेकिन उन्हें जली-कटी सुनाते रहने के सिवा...
ऐसा लगता है कि अगर पेट में दो ठो दाना चला गया तो बिजन बाबू बेटी के साथ जैसे स्वर्ग चले जाएँगे। सुबह से लेकर नौ बजे तक का समय जैसे बहुत ही कम होता है...जबकि वे मुँह-अँधेरे ही उठ जाती हैं...पता नहीं इतनी देर तक क्या करती रहती हैं। सचमुच बड़ी हैरानी होती है।
इस बीच...काफी देर बाद उठकर दो-दो जगह ट्यूशन भी कर आती है। बिजन बाबू भी ट्यूशन के साथ-साथ रोजमर्रा की जरूरत की तमाम चीजें सुबह की खरीददारी, राशन-पानी और कोयला वगैरा...ले आते हैं।
लेकिन वे तो कभी भी, सावित्री की तरह मरने की कामना नहीं किया करते।
लेकिन आज तो जयन्ती के मन में खाने की इच्छा भी नहीं रह गयी है।
घर घुसते-न-घुसते उन्होंने देखा कि सावित्री अपनी गोद के बेटे को पीट रही है और साथ ही अपनी मौत को भी न्यौत रही है। बच्चे ने क्या अपराध किया है, इस बारे में कुछ जान पाना मुश्किल है-क्या बच्चा कुछ बोल या बता पाने की स्थिति में नहीं है?
जयन्ती मन-ही-मन यह हिसाब लगाती हुई कि दो साल के एक बच्चे के प्रति आखिर कितना निर्मम होते हुए उसे पीटा जा सकता है...अपने बिछावन पर जाकर पड़ गयी।
और...थोड़ी देर के बाद जब छोटी मिनु बड़े जतन से और आहिस्ता-आहिस्ता चाय का प्याला रख गयी तो उसने उसे धमक दिया “जा...जाकर बोल दे कि मैं कुछ खाऊँगी नहीं...ले जा यहाँ से चाय !"
अगर कोई दूसरा दिन होता तो रूठने-मनाने की एक पाली खेली जाती लेकिन पता नहीं क्यों आज किसी ने परेशान नहीं किया।
करेगा भी कौन?
सावित्री के दिमाग का कोई ठिकाना है आज ?
लेकिन सोने के लिए पड़ जाते ही तो नींद नहीं आ जाती। बिछावन पर पड़े-पड़े ही वह सुन रही है सावित्री की चीख-पुकार...छोटे भाई-बहन का रोना-धोना और साथ ही खाना पकाने की 'छूयेक...छूयेंक...की आवाज। बक-झक का शोर थमना नहीं चाहता। मुँहजोर सावित्री है कि जमराज से भिड़ी हुई है...सारे देवी-देवताओं को उलाहना सुना रही है और मुँहचोर पति और पढ़ी-लिखी...कमाऊ बेटी के खिलाफ कमर कसकर खड़ी है। कुल मिलाकर वह सारे संसार और सारी सृष्टि के विरुद्ध अकेली लड़ रही है। वह चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है, “अरे घर-गिरस्ती के काम में इतना खरच हो जाता है लेकिन पचास पैसे की दो हाथ लम्बी रस्सी कोई नहीं ला देता मुझे। आखिर क्यों ? कोई मुझे रस्सी लाकर दो ताकि इस मुए संसार से पिण्ड छूटे मेरा।...लेकिन कोई रस्सी लाकर दे भी क्यों...आखिर उसके हाथ में भी तो रस्सी बँध जाएगी-तभी तो तिल-तिलकर जला रहे हैं मझे।...क्या हआ ? फिर आ धमकी खाने को...चल निकल...दर चली जा मेरी नजरों से...अच्छी मसीबत गले पड़ी है... | नहीं तो ले...खा...खा ले मेरा माथा...अगर ऐसी ही राक्षसी भूख है तो इस दलिद्दर घर में मरने को क्यों आयी...कँगली..."
सावित्री के मुँह से इसी तरह की बकवास और बेहूदी बातों का गन्दा नाला बह रहा है।
ऐसी बातों को झेल पाना सचमुच बड़ा मुश्किल है।
"पिताजी, अब यह सब सहन नहीं होता !"
जयन्ती सामने वाले कमरे के सामने आ खड़ी थी। “अब तो इस घर में किसी का टिक पाना बड़ा मुश्किल है।"
बिजन बाबू हैरान होकर उठ बैठे। उन्होंने बेटी के चेहरे की तरफ अचरज भरी दृष्टि से देखा।
“यह सब सुन-सुनकर तुम्हारी कानों में तो गिरह पड़ चुकी है लेकिन में यह सब नहीं झेल सकती। मेरे लिए इस घर में टिक पाना सम्भव नहीं...मैं यहाँ से चली जाऊँगी।"
“उसका दिमाग दिनोंदिन खराब होता जा रहा है।" बिजन बाबू का स्वर रुंध आया था, "वैसे काम भी बहुत बढ़ गया है। नौकरानी भी नहीं आ रही है।"
जयन्ती ने आहत स्वर में उत्तर दिया, “घर-बार चलाते हए दाल-भात सिझाकर रख देना ही दुनिया का सबसे बड़ा काम नहीं है, पिताजी ! बिना मेहनत होने की भी एक सीमा होती है। आखिर वह कोई पागल नहीं है।"
बिजन बाबू पत्नी की बिगड़ती जा रही आदतों का हवाला देते हुए एकबारगी बुझ गये, "बात तो ठीक ही है। आजकल जीना सचमुच दूभर हो गया है। आखिर में करूँ भी तो क्या ? कछ कहँगा तो घर कुरुक्षेत्र हो जाएगा।"
“इसी डर से तो मैंने भी होठ सिल लिये हैं। लेकिन अब नहीं झेला जाता। कुछ-न-कुछ करने की जरूरत तो है।"
“कोई फायदा नहीं होगा...जब तक कि यह नासपीटी विदा न हो जाए !" सावित्री ने आगे जोड़ा, “मैं भी क्या करूँ ? मौत भी तो नहीं ले जाती मुझे," पता नहीं जयन्ती कब पीछे से आकर खड़ी हो गयी थी। दरवाजे की ओट से अँधेरे में से जैसे कुछ फूटा हो-“दिन-रात तो उसकी दुहाई देती रहती हूँ लेकिन मुँहझौंसा...काना जमराज सुनता कहाँ है ?"
माँ की इस बेवात की बात और बेसिर-पैर के झगड़े से जयन्ती की देह में आग-सी लग जाती है। घृणा...जलन और खीज की मिली-जुली कौंध उसकी आँखों में चमक उठती है। लेकिन बिना कुछ कहे वह वहाँ से जाने को हुई कि सावित्री ने उसे पुकारकर कहा, "क्यों, बात क्या है ? किस खुशी में आज खाना गले नहीं उतरेगा !"
बहुत ही तीखे स्वर में जयन्ती ने कुछ ऐसा सुलगता हुआ जवाब दिया कि बारूद धधक उठी, “अब इस घर का एक भी दाना गले से उतारने की साध नहीं होती है, माँ !"
क्या...क्या बताया...साध नहीं होती...मेरे हाथों का खाना खाने की इच्छा नहीं होती...भला क्यों...जरा मँह से तो फूटो...तुम लोगों की तरह जूते-मोजे डालकर घर से बाहर निकल नहीं पाती...इसलिए...है न...!"
“बात ऐसी नहीं है, माँ !...लेकिन मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ...आज के लिए मुझे माफ करो...मुझे शान्ति चाहिए। मैं ही यहाँ से चली जाऊँगी।"
टूटी-फूटी जुबान में इस बात को बोलकर जयन्ती अपने कमरे में वापस आ गयी और इस बात का इन्तजार करती रही कि खिन्न कर देने वाली कोई जोरदार आँधी-सी आएगी। लेकन उसे हैरानी हुई कि सारा घर किसी मन्त्र-बल से शान्त हो गया।...एक ऐसा घहराता चलता-फिरता यन्त्र...जैसे यकायक झटके से...बन्द हो गया हो।
जयन्ती बिछावन पर यूँ ही दुनिया भर की चिन्ता लिये बेचैन-सी पड़ी रही...कल उसके यूनियन की सभा है। सबका यही दबाव है कि वह भी कुछ बोले। अगर वह कोई वक्तव्य न देना चाहे तो लिखित तौर पर ही सही, कुछ पढ़ दे।...उसका ढाँचा रात को ही तैयार कर रखना जरूरी था...अब इस समय...इस भरे हुए दिमाग से क्या किया जाए ? गनीमत है कल शनिवार का दिन है। शाम को पाँच बजे सभा है। इस दौरान प्रारूप तैयार कर लिया जाएगा। अगर सम्भव हुआ तो वह सीधे उनके घर ही पहुँच जाएगी।...अपने घर में तो लंका-काण्ड चलता ही रहता है। वक्तव्य में रखी जाने वाली दो-चार बातों की ओर यूनियन के सचिव सलिल सेन ने इशारा तो कर ही दिया था। उनकी राय में, स्त्रियों के नेतृत्व में, काम कहीं ज्यादा होता है। इसीलिए उन्होंने जयन्ती से यह आग्रह किया था।
उसे जो कछ कहना था...वह सारा कुछ उसके दिमाग में चक्कर काटता रहा।
बातें तो सारी वही हैं...बस उन्हें सजाकर रखने का ढंग ही कुछ नया होगा।...वही मालिक और मजदूर की लड़ाई।...वही स्थापित और विस्थापित...श्रेणीबद्ध और श्रेणीविहीन...सरमायादार और सर्वहारा की एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाई। सवाल यह है कि "आजादी की इस लड़ाई में बेहिसाब और बेशुमार सैनिक लड़े और मर मिटे...रसद और कुमक पहुँचाते रहे...क्या उनके जीवन का अँधेरा मिट सका ? उन्हें याद रखने की जिम्मेदारी किन पर है? इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों पर सोने के अक्षरों में जिनका नाम लिखा होगा...अगली कतार में खड़े सेनापतियों के त्याग और निष्ठा की...ढेर सारी लड़ाइयों और लांछनाओं की कहानी को पढ़ते-पढ़ते क्या किसी का ध्यान इन अभागों की ओर जाता भी है ? जीवन की लड़ाई में हार गये और अपमानित किये गये पैदल सैनिकों की तरफ ?” उमड़ते भावों की लम्बी-चौड़ी दलीलें बघारते चले जा रहे थे...वह सज्जन। दिमाग को शान्त रखकर और कागज-पेसिल को हाथ में ले इन्हीं बातों को लिखते चले जाने पर ही बात बन सकती थी।
लेकिन जब तक दिमाग ठण्डा हो, तब तक उसे नींद आ गयी थी। कैसे घिनौने और बेहूदे माहौल में जयन्ती को रहना पड़ रहा है-इसे क्या सलिल सेन समझते हैं?
आखिर कितनी देर तक सोती रही जयन्ती ?
यही कोई दो घण्टे... । दस घण्टे ? या पूरे एक युग तक... | ऐसा न होता तो बिजन बाब इस तरह के दीन-कातर भाव से पकार क्यों उठते. "जया...जया बेटी...जल्दी उठ। देख तेरी माँ कैसे पड़ी है...हाथ-पैर कैसे सुन्न पड़े हैं...में जरा डॉक्टर को बुला लूँ...जया...उठ बैठो...तेरी माँ हाथ-पैर पटक रही है।"...
आखिर यह कैसी भाषा है ?
आखिर वह क्या कर रही है ?
जयन्ती हड़बड़ाकर उठ बैठी और बेवकूफों की तरह ताकती रही। गले में गंजी डालते हुए बिजन बाबू रुंधे स्वर में बोलते जा रहे थे, “और अब डॉक्टर भी क्या कर लेगा? सब खत्म हो गया होगा अब तक...। थोड़ी-सी भी हरकत नहीं...और नस-नाड़ी का तो पता ही नहीं चल रहा। बेटी...तू जरा साहस से काम ले और माँ के पास ही बैठ। मैं जरा देख आऊँ। डॉक्टर आना चाहेगा भी कि नहीं...भगवान ही जानता है। पानी पीने को उठी और बस गिरकर बेहोश हो गयी...मैं तो कुछ समझ ही न पाया।"
बिजन बाबू जूते डालना तक भूल गये और नंगे पाँव बाहर निकल गये।
गनीमत थी कि डॉक्टर साहब आ गये थे।
लेकिन वे इलाज किसका करते ? पत्थर के टुकड़े का भी कहीं इलाज हुआ है ? इसी बात पर तो विज्ञान आज तक पराजित है।
हाँ, डॉक्टर ने इतना जरूर बता दिया कि सावित्री का रक्तचाप एकबारगी कितना ज्यादा बढ़ गया था-आँकड़ों की सहायता से।
सावित्री की दुबली-पतली और पीली-सी देह में रक्त का दबाव इतना ज्यादा बढ़ गया था।...आखिर कब और कैसे ? अचानक फूट पड़े उस रक्त-प्रवाह ने दिमाग की नसों और रक्त कोशिकाओं को फाड़ डाला और किसी को-खुद सावित्री तक को-कुछ पता नहीं चला। पता चलता तो कोई-न-कोई उपाय तो किया ही जाता।
अजीब है यह बीमारी ?
चुपचाप और निरुपाय बैठे रहो और मौत की प्रतीक्षा करते रहो...बस। इधरउधर भागने और हाय-तोबा मचाने की जरूरत नहीं। अगर यह किसी बड़े घर का मामला रहा होता तो बेवजह जमीन-आसमान को एक करने का नाटक जारी रहता लेकिन कंगालों को यह सब करना शोभा नहीं देता।
बिछावन के एक किनारे पड़े रहने के सिवा बिजन बाबू ओर कुछ करने की स्थिति में थे भी नहीं। सुबह होने पर...एक बार डॉक्टर को खबर दे देंगे...और इससे ज्यादा किया भी क्या जा सकता था !
सावित्री की सारी संवेदनाएँ मर चुकी हैं-यह सोचकर घर के सारे लोगों की अनुभूतियाँ खत्म हो गयीं।...सारी रात जगने के चलते दूसरे दिनों के मकाबले चाय पीने की इच्छा बिजन बाबू के मन में और अधिक जग गयी थी। और यही हाल जयन्ती का भी था। छोटे बच्चों ने भी उठकर रोना-धोना शुरू कर दिया था। आज उनका रोना-कलपना पहले से कहीं ज्यादा ही था।
सारे घर का माहौल सबको बड़ा अजीब-सा लग रहा था।
ऐसी स्थिति में, बिजन बाबू ने अपनी शर्मिन्दगी को परे रखकर बेटी को पास बुलाया और कहा, “तू ऐसा कर बेटी, एक बार जाकर चूल्हा तो जला दे...इन बच्चों को तो कुछ खिलाना-पिलाना होगा। और थोड़ी-सी चाय भी बना ले।"
जयन्ती को नौकरी पर भी जाना है...आज यह बात उनके मन में आयी भी नहीं थी शायद।
जयन्ती मानो नींद से उठी-अच्छा तो आज से उसे ही यह सब करना होगा...ओह...!
लेकिन रसोईघर में आते ही बेचारी के पाँव जम गये।
वह कहाँ आग सुलगाए...? अपनी साड़ी में ?-चूल्हे के गले तक तो राख की ढेर जमी थी-ठसाठस । इन सारी राख और जले कोयले का क्या होगा ? सारे रसोईघर में बर्तन-भाण्डे बिखरे थे, पीढ़े औंधे पड़े थे...मिनू और सानू की आपसी लड़ाई की निशानी के तौर पर पानी के गिलास इधर-उधर बिखरे थे।
लगता है पिछली रात यह सारा कुछ सावित्री धो-माँज नहीं पायी थी। हर रोज...हर रात जब सारा घर सो जाता है तब सावित्री के अगले दिन का काम शुरू हो जाया करता था।
बर्तन धोना-माँजना और घर की सफाई, चूल्हे की झाड़-पोंछ और कोयले तोड़ना, साग-सब्जी काटना-कूटना और मसाले पीसना-ये सारे काम चुपचाप किये जाना और वह सब भी इतनी कम रोशनी में। ताकि घर के लोगों की नींद न टूटे और न ही मिट्टी का तेल ही ज्यादा खर्च हो।
क्या जयन्ती ने आज तक देखा भी है कि सावित्री कब सोने गयी?
लेकिन आज सावित्री के बारे में कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। वह सारी दुनिया से आँखें मूंदकर सोयी हुई है। शायद जयन्ती को सबक सिखाने के लिए ही।
अब इस घड़ी जयन्ती क्या करे?
जूठे और बासी पड़े बर्तनों को धोए ? पानी डाल-डालकर कमरों की सफाई करे। चूल्हे में अटी राख निकालकर फेंके और इसके बाद गोयठे, कोयले और लकड़ी से उसे सुलगाए? जब वह आग पकड़ ले तब क्या करे? चाय बनाए? और सिर्फ चाय ही नहीं...भात और दाल भी...दूध और बार्ली भी...सुबह ? दोपहर ? शाम और रात को...? फिर अगले दिन...
चाय की आशा में बैठे-बैठे बिजन बाबू एक बार तो बुरी तरह निराश हो गये और बच्चों के लिए कुछ नाश्ता लाने के बहाने बाहर किसी दूकान से ही चाय पी आये।...सावित्री की हालत देखकर उनका मन-प्राण हाहाकार कर उठता लेकिन चाय की तलब तब भी बनी हुई थी।...अब और किसी भी दिन उस बड़े काँच के गिलास में, भाप उबलती गरमा-गरम और भरपूर चाय हाथ में लेकर सुबह के समय सावित्री उन्हें पुकारा नहीं करेगी...जिस पुकार को सुनकर उनकी नींद टूट जाया करती थी। इस बात को सोचते-सोचते वह अन्यमनस्क हो उठे और चाय की प्याली पी चुकने के बाद भी उन्होंने उसे एक बार होठों से लगा लिया।
"और एक प्याली चाय लीजिए न...!"
किसी सज्जन के ऐसा कहने पर उनका ध्यान टूटा।
"आजकल बारिश के दिनों में...अरे सुना नहीं तुमने...इधर एक प्याली चाय..."
"नहीं...नहीं...रहने दीजिए." कहकर बिजन बाबू तेजी से उठ खड़े हुए।
लेकिन इस जयन्ती को क्या हो गया ?
मूढ़ी और चना-चबेना के बूते पर अपनी भूख दूर भगानेवाले चाँदू और खोका ने भात खाने की रट लगा रखी थी। बिजन बाबू अधीर हो चले थे। उन्होंने बेटी के पास जाकर चिरौरी की, “आखिर भात का क्या हुआ, जया ?...अगर बन गया हो तो ये दो कौर खा तो लेंगे...दो चम्मच दूध डालकर। अब तो इन्हें सँभाल पाना सचमुच बड़ा मुश्किल है।"
"भात...?"
बिजन बाबू क्या कोई सपना देख रहे हैं?
अभी-अभी तो बर्तन साफ करके उठी है जयन्ती। गन्दे कपड़े-लत्ते का अम्बार पड़ा है...और नल से पानी कब का गायब हो चुका है।
मिनू ने दादी पर तरस खाकर चूल्हे में आग सलगायी थी। चल्हे ने भी ढेर सारा धुआँ उगला लेकिन फिर पता नहीं ठण्डा क्यों पड़ गया, ईश्वर ही जाने।
इस बीच जयन्ती नहाकर आ चुकी थी और चूल्हे के मुँह पर हाथ से पंखा झल रही थी। उसका हाथ अकड़ गया था। बर्तनों में एक बँद पानी नहीं भरा गया था... अगर चूल्हा सुलग गया तो वह उस पर भात वाली हाँड़ी आखिर क्योंकर चढ़ाएगी ?
"अरे भात बना कि नहीं?" तभी बिजन बाबू ने सवाल दोहराया।
"भात आखिर बन जाएगा कैसे ?"
पिता की आपा-धापी से जयन्ती की देह में आग-सी लग जाती है लेकिन वह कहे भी तो क्या ? साढ़े दस बज चुके हैं, इस बात से भी आँखें नहीं मूंदी जा सकतीं।
अब कलकत्ता शहर में तालाब या पोखर तो है नहीं...लेकिन ट्यूबवेल लगे हुए हैं-यह भी सरकारी दया का ही नमूना है जो कि लड़ाई के दिनों की तैयारी की धुंधली-सी याद जगाती है।
छोटी-सी बाल्टी लेकर मिनू पानी लाती रही कम-से-कम पन्द्रह-एक बार।
किसी तरह लाज रह गयी।
सिर्फ भात और दाल की थाली-कटोरी सबके सामने रखते-रखते कब और किस तरह दिन के दो बज गये, इसे जयन्ती समझ ही नहीं पायी।
उसे अपना खाना समाप्त करते-करते तो तीन बज जाएंगे इस तरह। फिर सारा रसोईघर धोना होगा। सारे घर में झाड़-पोंछा लगाना बाकी है अभी। घर कल से वासी पड़ा है। वर्तन धोने हैं, दोनों वक्त के कपड़े धोना भी जरूरी है, जिनका ढेर पड़ा है-साड़ियाँ, कुरते, गंजी, कथरी, चीथड़े, दस्ती और न जाने क्या-क्या...?
इन सबके बाद फिर चूल्हे से जूझना। फिर वही भात और दाल।
इसके बाद फिर अगले दिन की तैयारी। अगर ऐसा न किया गया तो उसके अगले दिन फिर ऐसी ही हड़बोंग मचेगी और अफरातफरी होगी और कोई काम समय पर न होगा।
काम भी कोई इतना ही नहीं है। और भी ढेर सारे काम हैं, जिनके बारे में जयन्ती कुछ नहीं जानती।
कल...आज...कल...फिर परसों...उसके बाद भी आगे और अगले दिनों में भी सावित्री अब कभी भी काम का यह भार अपने कन्धे पर नहीं ढो पाएगी...। वह अपने पाँवों पर चलकर इन सारे सवालों से जूझ नहीं पाएगी...मिट्टी के खिलौने की तरह चुपचाप पड़ी रहेगी...और फिर देखते-देखते पथरा जाएगी...दूसरे के कन्धों पर चढ़कर ही अब वह विदा होगी?
आखिर यह सब कौन करेगा?
दिन की पाली सँभालने के बाद ही जयन्ती को यह लगने लगा कि अब क्या करे ? वह बिछावन पर जाकर पड़ जाए। या...फिर किसी जंगल की तरफ भाग जाए।
अपनी बेटी के चेहरे की तरफ देखकर बिजन बाबू के मन में जैसे दया का भाव उमड़ आया। दोपहर ढलने के बाद वे बेटी से बोले, “जया, सुन...अब इस बेला रसोई बनाने की जरूरत नहीं। दूकान से डबलरोटी मँगवा ली जायगी।...और तू ऐसा कर कि माँ के पास ही थोड़ी देर के लिए बैठ जा। मैं देखता हूँ चाय-वाय का क्या किया जा सकता है?"
"तुम...आखिर तुम क्या करोगे?" जयन्ती ने बुझे स्वर में पूछा।
"देखूँ...क्या कुछ है...हम दोनों ही तो इस मामले में अनाड़ी हैं। मिनू, चल तो...जरा मुझे दिखा तो सही...कहाँ क्या रखा है?"
चूल्हे में ताव देते हुए भी जयन्ती चुपचाप पिताजी को देखती रही। आगे उन्हें मना करे उसमें ऐसा उत्साह न था। थोड़ी देर खड़ी रहने के बाद वह माँ के बिछावन के पास जाकर बैठ गयी।
सावित्री के चेहरे पर कोई भाव न था...। ऐसा लगता था मौत के पहले ही वह घर और संसार से अपने तमाम सम्बन्धों को तोड़ देना चाहती हो।
अपनी माँ पर होने वाले गुस्से के चलते ही लगता है उसकी आँखों में इतनी देर बाद आँसू उमड़ आये।
दुनिया भर के काम के साथ अपनी दुबली-पतली काया को घसीटती चली जा रही थी। दिन और रात...रात और दिन... । इस तरह किसी भी दिन डबलरोटी खरीदकर उन्हें रात नहीं बितानी पड़ी थी और न ही ट्यूबवेल से मिनू को पानी ढोकर लाना पड़ा था।
उसने देखा था कभी कि रसोईघर के फर्श पर औंधे पड़े बिजन बाबू चूल्हे के सामने पंखा झल रहे हैं?
नौकरी मिलने के बाद एक बार के लिए भी कभी जयन्ती ने माँ के लिए पान का एक पत्ता भी सजाकर आगे बढ़ाया है ?
उसकी नौकरी से मिलने वाले ये थोड़े-से रुपयों की भला औकात भी क्या है ? या फिर उन रुपयों की चमक और चौंध इतनी ज्यादा है कि जयन्ती की आँखें चौंधिया गयी हैं।
तभी घड़ी ने टन...टन...टन...टन...टन...पाँच बजाये।
पाँच बजे...ठीक पाँच बजे उसे कोई जरूरी काम करना था...ओह...हाँ...सभा में जाना था। आज तो दफ्तर भी नहीं जा पायी थी वह । उसे तो कुछ याद भी नहीं रहा था। क्या तो कहना था जयन्ती को ? उसे ललितसेन का चेहरा भी ठीक से याद नहीं आ रहा...उसकी बातें रह-रहकर याद आती रहीं... । पैदल सैनिक...कौन हैं वे...? सिर्फ लड़ाई के मैदान में लड़नेवाले सैनिक...या कारखाने में काम करने वाले मजदूर ?
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)