पगोड़ा वृक्ष (कहानी) : अज्ञेय

Pagora/Pagoda Vriksh (Hindi Story) : Agyeya

1
उस वृक्ष में पत्ते नहीं थे।
उसकी यह विशेषता थी - विधवा के हृदय की तरह उसमें विस्फोट धीरे-धीरे बुद्धिगत नहीं होता था, उसके लिए वसन्त की वासना के कोमल अंकुर नहीं फूटते थे, न बाल-लीलामयी मधुर झकोरें आती थीं, न नवयौवन के चिकने पत्ते ही निकल पाते थे... केवल वर्ष में एक बार किसी उमस-भरे दिन की वेदना में, प्रगल्भ यौवन के उन्मद सौरभ से भरे, हल्के पीले हृदय वाले श्वेत तारक-फूल, एकाएक ही उसके सर्वांग पर छा जाते थे-उसकी नंगी वीभत्स शाखें एकाएक ही अदृश्य हो जाती थीं...
जीवन! वे मानो प्रौढ़ावस्था के फूल! वसन्त में, जब और सब वृक्ष फूल रहे होते तब उसमें केवल आगे से चपटे बड़े-बड़े कठोर पत्ते पकते हुए दीखते-मानो सजीले सामन्तों की पाँत में एक बूढ़ा शूद्र-पुत्र... और ग्रीष्म में मरुस्थल की लपलपाती गर्म साँस से बचने के लिए सब पेड़ सजाव-सिंगार छोड़कर मोटी हरी चादर ओढ़ चुके होते, तब उसके पके पत्ते एक-एक करके झर जाते, मानो नंगी निरीह शाखों ने पल्ला झाड़कर मरुभूमि के दस्यु को दिखा दिया हो कि हम निःस्व हैं... केवल जब वर्षा के दौंगरे आकाश के कसैले रोष को शान्त कर देते थे, तब वृक्ष की चिरसेचित आत्मग्लानि द्रवित होकर फूट पड़ती थी। विराट वेदना सुन्दर ही होती है। और उस वृक्ष की वेदना पुष्पित हो उठती थी, और वह मानो अपने आन्तरिक सौन्दर्य के उन्मेष से लजाकर स्वयं उसमें छिप पाता था या सौन्दर्य के आवरण में और नंगा हो जाता था...मानो किसी बुड्ढे ने संसार की तिरस्कार-भरी दृष्टि से लज्जित होकर अपने को यौवन के आवरण में लपेट लिया हो।
या किसी विधवा के हृदय में एकाएक प्रेम का पूर्ण विकास हो उठा हो...
अब वह दिन नहीं आया था। बसन्त समाप्त हो चुका था, ग्रीष्म भी पार हो चुका था, उन्मेष का दिन नहीं आया था-वृक्ष के पत्ते गिर गये थे, पर फूल नहीं आये थे।
साँझ हो रही थी। आकाश में बादल के छोटे-छोटे टुकड़े मँडरा रहे थे। उनमें एक ओछा सौन्दर्य था, शक्तिहीन और दर्पहीन - वे बरस चुके थे। और वे मानो एक प्रकार के छिछोरेपन से जमुना के जल में, अपना रंगीन प्रतिबिम्ब देखकर मुस्करा रहे थे...
उस वृक्ष की नंगी शाखों-तले एक स्त्री बैठी हुई थी। वह एक स्थिर दृष्टि से बादलों की ओर देख रही थी, और शून्य भाव से एक पद की निरर्थक आवृत्ति किए जा रही थी - ‘प्रीतम, इक सुमिरिनिया मोहि देहि जाहु।’ धीरे-धीरे अन्धकार होता जा रहा था, किन्तु उसे इसका बिलकुल ध्यान नहीं था। वह मानो हमारे संसार से परे कहीं विचर रही थी, उसके लिए मानो हमारे काल की गति थी ही नहीं...
उसकी सफेद धोती धुँधले प्रकाश में कुछ नीली-सी जान पड़ रही थी, और उसके मुख का वेदना-विकृत भाव भी एक फीकी मुस्कराहट का भ्रम उत्पन्न कर देता था। और जिस मुद्रा में वह बैठी हुई थी, उससे किसी भी दर्शक के हृदय में मूर्तिमती प्रतीक्षा की भावना जाग्रत हो जाती, यद्यपि उसने कई वर्षों से किसी की प्रतीक्षा नहीं की थी - प्रतीक्षा का विचार भी नहीं किया था - क्योंकि वह कई वर्षों से विधवा थी...
यह उसका नित्यक्रम था - नित्य ही सन्ध्या को वह अपने छोटे-से मकान-या झोंपड़े के इस बगीचे में आकर बैठ जाती थी और कभी-कभी घंटों बैठी रहती थी। जब वह इस प्रकार आत्मविस्मृत हो जाती, तब उसे अपनी दैनिक प्रार्थना का ध्यान नहीं रहता... तब तो किसी आकस्मिक शब्द से - किसी पशु के रंभाने से या कभी वायु के झोंके से ही वह चौंककर उठती थी और भीतर चली जाती थी...
आज भी यही दशा थी। उसके बैठे-ही-बैठे रात भी होने को आयी, जो बादल बिखरे हुए थे, वे नयी शक्ति पाकर पुनः आकाश में छा गये। धीरे-धीरे एक अत्यन्त कोमल, निःशब्दप्राय वर्षा भी होने लगी; पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ। जब वायु के एक झोंके ने उसकी धोती के एक छोर को हिलाकर मानो कहा, ‘उठो!’ तब वह उसके गीलेपन से चौंकी, और एक बार मानो जाड़े से काँपकर, पेड़ के सहारे खड़ी हो गयी और जल्दी-जल्दी अपने झोंपड़े की ओर चल दी। वह वृक्ष मानो सत्सर्ग-भरी आवाज़ में बादलों से कहने लगा, ‘भिगो लो तुम भी मेरी नग्नता को!’

2
वह विधवा थी - उसका नाम था सुखदा। जब से उसका विवाह हुआ, तब से ही वह उस झोंपड़े में रहती थी। उसके विवाह को आज बारह वर्ष हो चुके थे - जिनमें से आठ वर्ष उसने वैधव्य में काटे थे। विधवा हो जाने के बाद भी उसने वह घर नहीं छोड़ा - छोड़कर कहीं जाने को कोई स्थान ही नहीं था। वह समाज की ही नहीं, व्यक्तिमात्र की परित्यकता थी; समाज की शरण की ही नहीं, किसी व्यक्ति के स्नेह से भी वंचिता थी; उसका अपना कोई नहीं था। जिस झोंपड़े में वह रहती थी, उसकी सफाई इत्यादि करने के लिए एक बुढ़िया नित्य सवेरे आती थी और दो घंटे बाद चली जाती थी। सुखदा का संसार से कोई सम्बन्ध था तो इतना ही। वह अपना गुजारा कैसे करती थी, कोई नहीं जानता। स्त्रियाँ किस प्रकार गृहस्थी चलाती हैं, यह न आज तक किसी ने जाना है, न जानेगा। हमारे वैज्ञानिक तो कहते हैं कि स्वयंचालित यन्त्र असम्भाव्य है।
सुखदा का पति देहली में काम करता था। वह नित्य सवेरे ही झोंपड़ें से चल पड़ता, और कुछ-एक खेत पार करके मेरठ से देहली जाने वाली सड़क को जमुना के पुल के पास ही पा लेता। उन दिनों सुखदा दूर से जमुना-पुल की ओर देखकर, उस पर रेंगते हुए चींटी-से आकारों को देखती हुई अपने पति को चीन्हने का प्रयत्न किया करती। और, इसी प्रकार जब उसके लौटकर आने का समय होता, तब भी वह पुल पर उसे खोजा करती।
इसका कारण था। पति की अनुपस्थिति में उसे कोई कष्ट या क्लेश होता हो, या वियोग की पीड़ा उसके लिए असह्य हो, यह बात नहीं थी। वर्ष-भर पति के साथ रहकर भी उसने इतनी घनिष्ठता नहीं उत्पन्न की थी, जितने कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ सप्ताह-भर में कर लेते हैं... उसका और उसके पति का जीवन मानो दो अलग और समानान्तर दिशाओं में बह रहे थे, और वे निकट नहीं आ पाते थे। इसीलिए, वह अपने पति के पतित्व का अनुभव एक खास दूरी पर करती थी-जब वह उसके निकट आता, तब वह सुखदा के लिए बिलकुल अजनबी हो जाता। जब वह घर में होता, तब सुखदा के हृदय में उसके प्रति एक उद्वेग, एक प्रकार की झुँझलाहट के अतिरिक्त कोई भावना नहीं होती थी। जब वह दूर पुल पर होता, तब सुखदा अपने हृदय को यह समझाया करती कि ‘वह तेरा पति है।’ स्वच्छन्द, शीतल निरपेक्षता से जैसे कोई बच्चे को इशारे से चिड़िया दिखाकर बताये कि ‘यह अबाबील है।’
उसे स्वयं कभी-कभी इससे अत्यन्त कष्ट होता था। पातिव्रत्य के जो संस्कार उसे मिले थे, वे उसे कभी-कभी अत्यन्त दुखी कर डालते थे। वह इस निरपेक्षता को दूर करने की चेष्टा भी करती थी; किन्तु इसमें मुख्य अड़चन होता था स्वयं उसका पति। उसमें भी ऐसी ही एक उपेक्षा थी-मानो किसी दिन उसे बैठे-बैठे विचार आया हो, ‘मेरे घर में बहू नहीं है,’ और इस न्यूनता को पूरा करने के लिए उसने एक बहू झोंपड़े में ला रखी हो!
इसी प्रकार सुखदा के दाम्पत्य जीवन के चार वर्ष बीते। (ऐसे भी हैं, जिनका सारा जीवन यों ही बीतता है!) उस समय तक एक विराट्-मुत्यु के कारण वह खेला नहीं जा सका। सुखदा अकेली रह गयी। ट्रेजेडी के अंकुर से भरा हुआ उसका जीवन केवल एक विषाद से भरा रह गया-एक विषाद, जिसकी नीरसता में एक हल्का किन्तु मधुर रस था...
जिसके आधार पर उसने आठ वर्ष बिता दिये थे। नित्य ही जब वह अपने छोटे-से स्वच्छ बगीचे में आकर बैठती, तब मानो उसे इस रस का एक घूँट मिल जाता था। जिस वृक्ष के नीचे वह नित्य बैठती थी, वह उसके पति का लगाया हुआ था। वह इसे मद्रास से लाया था। यद्यपि सुखदा के इस वृक्ष-तले बैठने का कारण यह नहीं था, तथापि वह नित्य ही इस बात का स्मरण कर लिया करती थी। क्षण-भर के लिए उसे यही विश्वास हो जाता था कि वह पति की स्मृति के लिए ही वहाँ बैठी है... इस विश्वास से उसके हृदय की पुरानी अशान्ति, वह अनौचित्य की भावना मिट जाती थी...

3
यदि दुख की अनुपस्थिति, अनुभूति की अचेतना को सुख कह सकते हैं, तो सुखदा सुखी थी। यदि-! किन्तु वह स्वयं सोचा करती, क्या मेरे जीवन का उद्देश्य यही है? उस वृक्ष-तले बैठकर जब वह जमुना का कम्पित वक्ष देखती, तब उसके हृदय में सदा यही प्रश्न उठता, ‘क्या हमारा जीवन बालू पर लिखकर के मिटाये हुए चिह्न से अधिक कुछ भी नहीं है?’ पर इस प्रश्न से उसकी शान्ति भंग नहीं होती थी, यद्यपि विषाद कुछ गहरा हो जाता था। उसके हृदय से मानो अशान्ति की क्षमता नष्ट हो गयी थी-समुद्र मानो तूफान लाना भूल गया था...
वह जो नित्य नियमपूर्वक किया करती थी, वह किसी आन्तरिक अशान्ति की प्रेरणा से नहीं, वह केवल एक नियम-भर था - या उससे कुछ ही अधिक। कभी वह इस विषय पर सोचती थी, तो एक ही बात का निश्चय कर पाती थी-उसे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास था - बस। वह अपनी आत्मा से पूछती थी कि वह प्रार्थना क्यों करती है, तो यही उत्तर मिलता था कि सबसे सरल पथ यही है-कुछ लाभ हो या न हो, उसमें क्या... किन्तु फिर भी अपने वैधव्य के आठ वर्षों में एक दिन भी उसका नियम भंग नहीं हुआ था-और वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि इस नियम को भंग कर दे...
आज जब वर्षा होने लगी और वह चौंककर उठी, तब उसे याद आया कि वह अपनी प्रार्थना भी भूल गयी, और वह दौड़ती हुई इस त्रुटि को पूरा करने गयी।
झोंपड़े में प्रवेश करके उसने एक दीपक जलाया और उसे झोपड़े के एक कोने में ले गयी। उसे एक छोटे-से आले में रखकर वह घुटने टेककर बैठ गयी, उसकी आँखें बन्द हो गयीं... और कुछ ही क्षण में वह इस संसार से परे कहीं पहुँच गयी...
एक अभूतपूर्व घटना घटी। किसी ने किवाड़ खटखटाये। सुखदा का ध्यान भंग हो गया, उसने चौंककर कहा, “कौन!”
कोई उत्तर नहीं आया, पर किवाड़ पहले से भी ज़ोर से खटखटाये जाने लगे।
सुखदा क्षण-भर सोचती रही, खोलूँ या न खोलूँ? इस असमय में कौन आया है? एकाएक हिन्दू समाज के कानूनों का एक पुलिन्दा ही उसकी आँखों के आगे हो गया-समय, परिस्थिति, एकान्त, विधवा, और सबसे बड़ी चीज़ हिन्दू धर्म की नाक-लज्जा...
उसके प्रश्न का बुद्धि ने कोई उत्तर नहीं दिया। किन्तु किसी अज्ञात प्रेरणा से उसने उठकर किवाड़ खोल दिया, और गम्भीर स्वर में पूछा, “कौन है?”
एक युवक ने आगे बढ़कर धीमे स्वर में कहा, “मैं हूँ, बहिनजी! आपको नमस्कार करता हूँ।”
सुखदा विस्मय में कुछ बोली नहीं। स्थिर भाव से उसके मुख की ओर देखती रही। मुख की ओर देखते-ही-देखते उसने बहुत-सी बातें देख लीं।
युवक के शरीर पर कपड़े अधिक नहीं थे; एक धोती, जो घुटनों तक बँधी हुई थी, गले में एक फटी कमीज़। हाथ में एक छोटी-सी पोटली-सी थी। सुखदा ने यह भी देखा कि युवक के शरीर पर के कपड़े वर्षों से नहीं, किसी अधिक गँदले पानी से भीगे हुए थे और हाथ की पोटली प्रायः सूखी थी...वस्त्रों से वह बिलकुल साधारण गँवार मालूम होता था, किन्तु उसका मुख मानो किसी आवरण के भीतर से भी कह रहा था, मैं पढ़ा-लिखा हूँ, सभ्य हूँ, सुसंस्कृत हूँ...
सुखदा को चुप देखकर युवक फिर बोला, “बहिनजी, मुझे यहाँ रात-भर के लिए आश्रय मिल सकता है?”
सुखदा सहसा उत्तर नहीं दे सकी। फिर उसने अत्यन्त गम्भीर स्वर में कहा, “आप कौन है, मैं जानती भी नहीं।”
“मैं एक बिलकुल साधारण व्यक्ति हूँ। कष्ट में होने के कारण रात-भर के लिए आश्रत माँगता हूँ - इससे अधिक आप क्या जानना चाहती हैं?”
“आप स्वयं समझ सकते हैं,” फिर कुछ हिचकिचा कर, “मैं विधवा हूँ, और यहाँ अकेली रहती हूँ।”
युवक ने सहानुभूति के स्वर में कहा, “अच्छा!” और चुप रह गया।
“आप और कहीं नहीं जा सकते?”
युवक एक अत्यन्त सरल-सी हँसी हँसकर बोला, “नहीं।”
सुखदा को वह हँसी अच्छी नहीं लगी। वह उसे समझ नहीं सकी। उसने सन्देह के स्वर में पूछा, “क्यों? आप आये कहाँ से हैं?”
“जमुना-पार से आया हूँ।
“देहली से?”
“जी हाँ।”
“तो यहाँ कैसे आये? सड़क तो इधर नहीं आती। पुल के पास ही कहीं क्यों नहीं ठहरे?”
“मैं पुल पर से नहीं आया।”
“तो?”
“यहीं सामने - तैरकर आया हूँ।”
“हैं? जमुना तैरकर! आज-अभी?”
युवक फिर हँसकर चुप रह गया।
थोड़ी देर बाद सुखदा बोली, “आपने अपना जो परिचय दिया है, उससे मेरा सन्देह बढ़ना ही चाहिए।”
युवक का चेहरा उतर गया। वह बोला, “ठीक है।”
थोड़ी देर फिर दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। दोनों मानो एक-दूसरे को माप ले रहे थे। फिर युवक ने मानो अन्दर-ही-अन्दर किसी निश्चय पर पहुँच कर कहा, “आप मुझे थोड़ी देर के लिए अन्दर आने दें, तो आपको सन्तोष हो जाएगा।”
सुखदा कुछ कह भी नहीं पायी थी कि युवक भीतर चला आया। तब सुखदा भी धीरे-धीरे झोंपड़े के मध्य की ओर चली। एक ओर एक छोटी-सी चौकी पड़ी थी, उसी की ओर इशारा करके युवक से बोली, “बैठ जाइए।”
युवक क्षण-भर खड़ा ही रहा, फिर बैठ गया। सुखदा उससे कुछ दूरी पर खड़ी रही।
“आप क्या जानना चाहती हैं, जिससे आपको सन्तोष हो जाय?”
सुखदा ने बिना किसी कौतूहल के कहा, “आप स्वयं ही कुछ बताना चाहते हैं, मैंने तो कुछ नहीं पूछा।”
युवक ने एक तीव्र दृष्टि से उसकी ओर देखा, और बोला, “अच्छा, ऐसा ही सही। तो सुनिए। मैं दो-तीन साल से इसी प्रकार मारा-मारा फिरता हूँ। आमतौर पर तो अपना कुछ-न-कुछ प्रबन्ध रहता है, और काम चल जाता है। किन्तु कभी-कभी हमारी दशा बहुत बुरी हो जाती है-हमारे लिए इस विराट् ब्रिटिश साम्राज्य में कहीं पैर रखने को भी स्थान नहीं रहता! तब हम इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं कि कहीं कुछ समय के लिए हमें आश्रय मिल जाय, और फिर हम अपना अस्तित्व मिटाकर, एक नया और मिथ्या रूप धारण करके ही उस साम्राज्य में स्थान पाते हैं, जिसमें हमारी सच्चाई के लिए स्थान नहीं...”
सुखदा रोककर कहने को हुई, “आपकी बात मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आयी।” किन्तु जब यह कहने के लिए उसने मुँह खोला, तब अपना प्रश्न सुनकर उसे स्वयं आश्चर्य हुआ - “आप खाना खा चुके हैं?”
युवक ने मुस्कराकर कहा, “हाँ, कल शाम को तो खाया था।”
सुखदा झोंपड़े के एक सिरे पर ताक की ओर जाती-जाती बोली, “तो अब तक क्यों नहीं बताया था? इतना तो मैं कर ही सकती हूँ।”
उसने ताक में से कुछ रोटी, साग और केले निकाले, और फिर बोली, “साग ज़रा गरम कर लाऊँ।” यह कहकर, बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये हुए, वह झोंपड़े के पिछली ओर सटे हुए छोटे-से छप्पर के नीचे चली गयी।
युवक चौकी पर घुटने समेट कर बैठा था। जब उसने छप्पर की ओर से फूँकने की आवाज़ सुनी, तब उसने अपनी ठोड़ी को अपने घुटने पर टेक दिया और चुप-चाप झोंपड़े में पड़ी वस्तुओं को देखने लगा।
एक कोने में, एक छोटे-से लकड़ी के बक्स पर, आठ-दस किताबें पड़ी थीं। युवक के मन में एक क्षीण कौतूहल हुआ कि उठकर देखे कैसी पुस्तकें हैं, पर उसके शरीर पर एक सम्मोहिनी थकान छायी हुई थी, वह नहीं उठा। बक्स से हटकर उसकी आँखें दियेवाले आले की ओर पहुँचीं। उसने देखा, आले के ऊपर, एक लकड़ी के तख्ते पर एक छोटी-सी धातु की प्रतिमा रखी है, जिसके कुछ अंश उस अप्रत्यक्ष प्रकाश में चमक रहे हैं। प्रतिमा के पैर शायद फूलों से ढके हुए थे। युवक के मन में प्रश्न हुआ कि किसकी प्रतिमा, है, किन्तु यह प्रश्न बिलकुल बौद्धिक था, इसमें स्वाभाविक कौतूहल नहीं था। उसकी आँखें उस प्रतिमा से भी हट गयीं। वह छत की ओर देखने लगा। छत पर किसी चीज़ का एक छोटा-सा गोल प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। युवक ने ज़रा घूमकर देखा, वह एक छोटे शीशे-से प्रतिबिम्बित हो रहा दीये का प्रकाश था। उसी शीशे के पास ही एक लकड़ी की कंघी पड़ी थी, और शीशे के कुछ ऊपर किसी गाढ़े रंग के गिलाफ़ में कोई वाद्य टँगा हुआ था। पास ही टँगी हुई गज़ से युवक ने अनुमान किया कि वह बेला या सारंगी होगी। उसे कुछ विस्मय हुआ। वह अब घुटनों पर सिर टेककर सोचने लगा, इस छोटे-से झोंपड़े में इतनी संस्कृति।
छप्पर की ओर से साग के गरम होने का ‘छिम-छिम-छ-छ-छिम-छिम’ स्वर आ रहा था। एक बहुत क्षीण प्रतीक्षा के, और अपने शरीर की थकान की बढ़ती हुई किन्तु अभी तक मधुर अनुभूति के साथ-ही-साथ युवक के मन में यह प्रश्न भी उठा कि क्या यह स्त्री गाती भी होगी... स्वर तो बड़ा मधुर है, और वेदना के सहवास ने उसे एक कम्पित निखार दे दिया है...

4
सुखदा जब रोटी लेकर झोंपड़े में आयी, तब पहले तो वह सीधी युवक के सामने चली आयी, किन्तु फिर एकाएक ठिठक गयी।
युवक उसी प्रकार, घुटनों पर सिर टेके, बिलकुल निश्चल पड़ा था - साँस बिलकुल नियमित रूप से चल रही थी।
वह सो रहा था!
सुखदा थाली लिये खड़ी सोचने लगी, ‘क्या करूँ? इसे जगाऊँ या सोने दूँ? वह सो भी रहा है या कुछ सोच ही रहा है?’ इसका निश्चय करने के लिए उसने धीमे स्वर में कहा, “मैं बड़ी देर से थाली लिये खड़ी हूँ।”
कोई उत्तर नहीं मिला। सुखदा फिर असमंजस में पड़ गयी। उसकी आँखें हठात् युवक के शरीर की आलोचना करने लगीं। युवक ने अपने पैरों पर अपनी पोटली रख ली थी, जिसे वह बायें हाथ से थामे हुए था। दाहिने हाथ से उसने बायें हाथ की कलाई पकड़ ली थी और इस प्रकार घिरे हुए अपने घुटनों पर सिर रखे बैठा था। उसकी तनी हुई भुजाओं की पेशियाँ उभर रही थीं, किन्तु फिर भी ऐसा जान पड़ता था, वे भूखी हैं। फटी हुई कमीज़ में से कन्धे के नीचे का कुछ अंश दीख पड़ता था। पीठ यों झुकी हुई थी, मानो किसी दिक्पाल की पीठ हो...
देख-भाल कर सुखदा की दृष्टि फिर उसी पोटली पर जा पड़ी। इसमें क्या है? अवश्य कोई मूल्यवान वस्तु होगी, नहीं तो वह क्यों उसे हाथ में लिये रहता - क्यों सोते समय भी न छोड़ता? सुखदा उसे ध्यान से देखने लगी। उसे भास हुआ, उसमें एक तो काला-सा चारखाने का कोट है और उसके अन्दर कुछ लिपटा हुआ है। क्या?
कहीं यह व्यक्ति चोर या हत्यारा तो नहीं है?
इसे जगा कर बाहर निकाल दिया जाय?
आश्रय दिया जाय?
रोटी-पानी?
धमकाने पर यदि वार कर बैठे?
पर इतना भोला क्यों मालूम होता है?
बाढ़ में जमुना तैर कर पार कर आया है?
कपड़े अभी तक गीले ही हैं!
फिर भी सो रहा है!
पागल है?
सुखदा ने धीरे से थाली ज़मीन पर रख दी और छप्पर की ओर लौट गयी। वहाँ से एक जलती हुई अँगीठी लेकर आयी ओर युवक के पास ही रख कर फिर खड़ी हो गयी। क्षण-भर वह अनिश्चय में खड़ी रही, फिर उसने युवक के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “उठिए।”
युवक नहीं उठा।
सुखदा ने उसे धीरे से हिलाया। युवक ने सोते-ही-सोते ही कहा, “क्या है, उमा?” और फिर चौंककर जाग पड़ा। जागते ही कुछ लज्जित स्वर में बोला, “मैं कुछ अनाप-शनाप तो नहीं बक गया?”
सुखदा ने गम्भीर भाव से कहा, “नहीं तो, क्यों?”
“मैं सो गया था; मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैंने सोते-सोते कुछ कहा था।”
सुखदा ने अपने स्वर को स्वाभाविक रखने की चेष्टा करते हुए कहा, “नहीं।” फिर बोली, “खाना तैयार है, आप खावें।” कहकर थाली उसके सामने रख दी।
युवक ने कृतज्ञतापूर्वक कहा, “मैंने आपको बहुत कष्ट दिया। पर इतना सन्तोष मुझे है कि जहाँ तक हो सकता है, मैं किसी को कष्ट न देने की चेष्टा करता हूँ।” यह कहकर वह सिर झुकाये धीरे-धीरे खाना खाने लगा।
सुखदा बोली, “आपके कपड़े सुखाने के लिए अँगीठी भी ले आयी हूँ। वह पोटली मुझे दे दें, मैं उन्हें सुखा देती हूँ।”
युवक ने जल्दी से कहा, “नहीं-नहीं, उसे सुखाने का कष्ट न करें!” किन्तु उसके कहते-कहते सुखदा ने पोटली खोल ही तो डाली।
एक कोट था, उसके अन्दर लिपटी हुई एक गाँधी टोपी, और टोपी के अन्दर-एक रिवाल्वर!
सुखदा ने जल्दी से उसे भूमि पर रख दिया, और कुछ सहमकर युवक की ओर देखने लगी। युवक ने कोमल स्वर में कहा, “इसे मुझे दे दें।”
सुखदा निश्चल खड़ी रही। वह सोचने लगी, इससे अभी कह दूँ, चला जाय? यह सोचते-ही-सोचते उसने कहा, “आप अपने बदन पर के कपड़े भी सुखा लें”
युवक कुछ झिझकते हुए बोला, “पर मेरे पास और पहनने को कुछ नहीं है।”
इसका उत्तर स्पष्ट था, किन्तु सोचने लगी, जब मैं इसे यहाँ से निकाल ही रही हूँ, तब क्यों अधिक दया दिखाऊँ? इसलिए उसने यह नहीं कहा कि मैं और कपड़े दे सकती हूँ। वह युवक के पास से हट कर दीये के पास चली गयी और स्थिर दृष्टि से प्रतिमा की ओर देखने लगी। देखते-देखते वह न जाने किस विचार में लीन हो गयी। उसे युवक का ध्यान ही न रहा।
युवक जब खाना खा चुका, तब उसने सुखदा की ओर देखा। किन्तु उसे इस प्रकार तल्लीन देखकर वह बोला नहीं, स्वयं उठकर दबे-पाँव छप्पर की ओर चला गया। वहाँ जाकर हाथ धो कर वह लौटा तो उसने देखा, जहाँ खड़ी थी, वहीं घुटने टेके बैठी है, किन्तु हाथ जोड़े हुए नहीं... उसे कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। युवक फिर लौट कर छप्पर में चला गया, और वहाँ से सुखदा के उठने के स्वर की प्रतीक्षा करता हुआ वह बाहर होती हुई वर्षा का स्वर सुनता हुआ बैठा रहा...

5
भीतर से सुखदा ने पुकारा, “आप कहाँ हैं?”
युवक ने चौंककर कहा, “आया!” और झोंपड़े के भीतर चला गया।
उसके अन्दर आते ही सुखदा ने प्रश्न किया, “आपका नाम क्या है?”
एक क्षण, बहुत छोटे-से क्षण के बाद युवक ने उत्तर दिया, “मेरा नाम दिनेश है।” उस क्षण में उसने देख लिया कि विधवा के स्वर में विरोध या वैमनस्य तो नहीं, किन्तु एक प्रकार का कवचबद्ध दूरत्व, एक स्वरक्षात्मक कठोरता अवश्य है।
रिवाल्वर की ओर इंगित करके, “यह क्या है?”
उत्तर में एक प्रश्न-भरी दृष्टि मानो कहती हो, क्या आप नहीं जानतीं?
“यह क्यों?”
“आत्मरक्षा के लिए।”
“किससे? सच क्यों नहीं कहते, हत्या के लिए?”
“कभी नहीं। मैं हिंसा को घोर पाप समझता हूँ।”
“आप पुलिस से बचते फिरते हैं - मफ़रूर हैं?”
“यही समझ लीजिए।”
“तो आप मेरे पास क्यों आये?”
“शरण माँगने।”
“मेरे पास क्यों?”
“मैंने नदी पार की, तो यही स्थान पहले दीखा। और मुझे राह नहीं मालूम थी।”
“आपने नदी क्यों पार की - पुल से क्यों नहीं आये?”
“पुलिस ने मेरा पीछा किया था - मैं और किसी प्रकार बच नहीं सकता था। इसलिए कोट उतार कर जमुना में कूद पड़ा।”
“तो पुलिस यहाँ भी आ सकती है?”
“हाँ, सम्भव है। पर मैं अँधेरे में कूदा था, उन्हें कुछ अनुमान नहीं होगा कि कहाँ कूदा - या कूदा भी था कि नहीं। और फिर, ऐसी बाढ़ में जमुना पार कर लेना भी आसान नहीं, वे शायद समझें कि डूब गया होगा या नीच बह गया होगा।”
“अगर आप यहाँ पकड़े जाएँ, तो मुझे भी दण्ड मिल सकता है?”
“हाँ। मुझे आश्रय देना जुर्म है। और अगर आप मुझे गिरफ़्तार करा दें तो बहुत कुछ लाभ भी हो सकता है।”
सुखदा ने युवक की ओर तीव्र दृष्टि से देखा, किन्तु उसके मुख पर तिरस्कार का भाव न था। वह थोड़ी देर चुप रही। फिर एकाएक बोली, “आपने यह सब मुझे क्यों बताया? अनजाने में-”
“आपने पूछा था। मैं झूठ भी बोल सकता था, पर आपको धोखे में रखने की इच्छा नहीं हुई।”
“डरे नहीं?”
“नहीं। विश्वासघात आसान नहीं है - विशेषतः वहाँ जहाँ विश्वास हो।”
“तो, आपने मेरी अनुमति प्राप्त करना ज़रूरी समझा? आप जानते हैं, मैं अकेली हूँ, आपको यहाँ से निकाल नहीं सकती।”
“आपका जो अभिप्राय है, उसकी मैंने कल्पना भी नहीं की।”
“क्यों?”
“अगर आप निकाल दें तो मैं बाहर भी रात बिता सकता हूँ। कष्ट होगा, पर कष्ट मात्र पर्याप्त नहीं है।”
“क्या मतलब? विशेष परिस्थिति में आप मेरी इच्छा के विरुद्ध भी यहाँ रहते?”
“हाँ, यदि व्यक्तिगत कष्ट या प्राणों के बचाव के अतिरिक्त और कारण होता तो-”
“अगर मैं लड़ती तो - क्या मार डालते?”
युवक ने थोड़ी देर सोचकर, अधिक गम्भीर होकर कहा, “शायद - नहीं।”
“शायद! निश्चय नहीं है?”
“आप स्त्री हैं, इसलिए शायद नहीं। पर परिस्थिति भी कुछ चीज़ होती है - हम कल्पना नहीं कर सकते।”
“अच्छा!” कहकर सुखदा धीरे-धीरे इधर-उधर टहलने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने कठोर स्वर में कहा, “अपने कपड़े पहन लो।”
विस्मय से - ‘क्यों?’
“मैं तुम्हें आश्रय नहीं दे सकती - तुम जाओ!”
एक क्षण के अंश-भर के लिए युवक अप्रतिभ हो गया, किन्तु फिर बोला, “आपकी जो आज्ञा!’
वह चुपचाप कोट में रिवाल्वर लपेटने लगा।
सुखदा ने कहा, “इसे पहन क्यों नहीं लेते?”
“वर्षा हो रही है, रिवाल्वर भीग जाएगा।”
“हूँ।”
एक क्षण चुप। फिर युवक ने पूछा, “सड़क किधर मिलेगी, यह बता दें।”
“यहाँ से बायें हाथ चलते जाना। थोड़ी दूर जाकर एक-दो खाली खेत आएँगे, वहाँ से फिर बायें मुड़ जाना - बस।”
फिर थोड़ी देर निस्तब्धता। युवक की पोटली तैयार हो गयी। उसे बग़ल में लेकर वह बोला, “अच्छा, अब आज्ञा दें। आपने जो भोजन दिया है, उसके लिए धन्यवाद। और आपने आश्रय देने से पहले जो प्रश्न पूछे, उन्हें तो अब भूल ही जावें-”
“हूँ” से अधिक सुखदा कुछ भी नहीं कह सकी।
युवक चल पड़ा। वह झोंपड़े के किवाड़ पर पहुँच गया, पर सुखदा किवाड़ खोलने या बन्द करने को भी आगे नहीं बढ़ी।
युवक ने किवाड़ खोला, और बाहर होकर उसे पुनः बन्द करने के लिए मुड़ा।
तब, एकाएक सुखदा ने वहीं से पूछा, “उमा कौन है?”
युवक चौंक पड़ा। किवाड़ को थामे-थामे बोला, “कौन उमा?”
“उमा, कोई भी उमा।”
“उमा - थी। मेरी बहन का नाम था।” कहकर युवक ने किवाड़ बन्द कर दिया।

6
सुखदा अब तक मन्त्रमुग्ध-सी खड़ी थी, अब चौंकी। एकाएक उसके मन में दो प्रश्न हुए, “मैंने यह क्या पूछा? “मैंने उसे क्यों निकाल दिया?”
अपने शरीर पर से उसका नियन्त्रण मानो एकाएक टूट गया - उसका रेशा-रेशा चौकन्ना होकर किसी को खोजने लगा-उसके अंग-प्रत्यंग में यह अनुभूति हुई की बाहर गिरती हुई वर्षा की बूँदें दबे स्वर में कह रही है, ‘समय बीता जा रहा हैं - बीता जा रहा है...’
सुखदा कमान की तनी हुई प्रत्यंचा की तरह उछल कर किवाड़ पर पहुँची और उसे खोल कर, आँखें-फाड़कर, बाहर के सजीव और चलायमान अन्धकार को चीर कर देखने की चेष्टा करने लगी...
कहीं कुछ नहीं दीख पड़ा... सुखदा ने आवाज़ दी-”कहाँ चले गये?” पर उत्तर नहीं मिला... उसने फिर पुकारा, “दिनेश, चले आओ! लौट जाओ, तुम्हें आश्रय मिलेगा!”
उत्तर में वही, वर्षा की बूँदों की अपरिवर्त्त नूतनता...
सुखदा लौट आयी। झोंपड़े के मध्य में आकर उसके अन्धे पाँव एकाएक रुक गये, और धम् से भूमि पर बैठ गयी...
मैंने उसे क्यों निकाल दिया? मैंने उसे वापस क्यों बुलाया?
मैंने उसे पहले ही क्यों भीतर आने दिया? अब उसने आवाज़ सुनी होगी या नहीं-
अब लौट कर आ सकता है?
सुखदा ने देखा, उसके हाथ काँप रहे थे। क्यों, यह स्वयं नहीं सोच सकी। वह एकाएक लज्जित हो गयी, और उठकर दीये के नीचे, प्रतिमा के आगे, घुटने टेककर बैठ गयी। प्रतिमा के पास से ही उसने एक छोटा-सा फ्रेम उठाया, और क्षण-भर उसमें जड़े हुए फोटो को देखती रही। उसके मुख ने एक पवित्र किन्तु नीरस मुद्रा धारण की, उसकी आँखें बन्द हो गयीं, वह अस्पष्ट शब्दों में शायद प्रार्थना करने लगी...
आकाश में से किसी की ध्वनि आयी, “आपने मुझे बुलाया था?”
सुखदा के हाथ से फ्रेम गिर पड़ा। उसने उसे जल्दी से उठाकर यथास्थान रख दिया। फिर वह धीरे-धीरे किवाड़ पर गयी और उसे खोल कर एक ओर खड़ी हो गयी।
दिनेश ने फिर पूछा, “आपने मुझे क्यों बुलाया है?”
सुखदा ने धीरे से कहा, “आप रात-भर यहाँ ठहर सकते हैं।”
युवक सहसा अन्दर नहीं आया। बोला, “नहीं, आप आवेश में आकर कोई ऐसा काम न करें, जिसे करने के बाद आपकी अन्तरात्मा आपको कोसे, मैं तो-”
“आप चले आइए, मैं सोच चुकी।”
युवक अन्दर चला आया। सुखदा ने किवाड़ बन्द किया, फिर एक कोने की ओर जाकर, बिस्तर बिछाते हुए बोली, “आप थके हुए होंगे, सो जाइए।”
बिस्तर बिछा कर, एक बार झोंपड़े के चारों ओर दृष्टि डाल कर वह पिछले छप्पर की ओर जाने लगी।
युवक अब तक चुपचाप खड़ा था। उसे जाती देखकर बोला, “और आप?”
“मैं भी सो जाऊँगी, छप्पर में बहुत स्थान है।”
“नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं छप्पर में चला जाता हूँ।”
“नहीं, आप अतिथि हैं - ऐसा नहीं हो सकता।”
“मैं शरणागत हूँ। आप मेरे लिए इतना कष्ट न करें।”
“आप मेरे अतिथि हैं; और आपको मेरे प्रबन्ध में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”
युवक धीमे स्वर में, कुछ डरते-डरते बोला, “आप मुझे विवश न करें, नहीं तो मैं आपका आतिथ्य स्वीकार नहीं कर सकूँगा।”
सुखदा क्षण-भर चुप रह गयीं। फिर उसने कहा - “जैसी आपकी इच्छा!” और दो-तीन कम्बल इत्यादि निकालकर युवक को दे दिये। युवक उन्हें लेकर छप्पर में चला गया।
सुखदा धीरे-धीरे उस झोंपड़े में टहलने लगी। थोड़ी देर बाद उसने सुना, युवक बिलकुल निश्चिन्त और निःस्वप्न नींद की नियमित साँसें ले रहा है। तब वह छप्पर से कुछ हट कर झोंपड़े के दूसरी ओर जाकर टहलने लगी। ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जाती थी, त्यों-त्यों उसकी टहलने की गति अधिक तीव्र होती जा रही थी...
वर्षा कुछ देर के लिए बन्द हो गयी थी, इसलिए सुखदा बहुत दबे-पाँव चल रही थी, ताकि दिनेश की नींद न भंग होने पावे...

7
उसके भीतर एकाएक ही कुछ जाग उठा-या कुछ टूट गया। जिस प्रकार उन्मत्त व्यक्ति के ऊपर ठंडा पानी पड़ने से उसका खुमार एकाएक टूट जाता है - या उसकी साधारण चेतना जाग उठती है। उसे मालूम हुआ, अब तक वह जो कुछ कर रही थी, एक नशे में कर रही थी... बाह्य वस्तुओं की अनुभूति उसे होती थी पर नहीं होती थी। इन्द्रियाँ अपना काम करती थीं, किन्तु मस्तिष्क उनकी भाषा को कुछ काल के लिए भूल गया था-या समझता ही नहीं था - और दिनेश के सो जाने के कुछ क्षण बाद ही उसने जागकर अपने सामान्य कर्म आरम्भ कर दिये थे - अब वह एक अपूर्व चेतना से धधक उठा था...
उसके मन में रौरव मचा हुआ था... प्रश्नों का तूफ़ान इतने ज़ोरों से उठा हुआ था कि वह एक प्रश्न को दूसरे से अलग भी नहीं कर पाती थी। मानो उसका समूचा मस्तिष्क विद्रोही हो गया हो, और हजारों नयी माँगें उपस्थित कर रहा हो - माँगें जो एक-दूसरी से मिलकर एक विराट कोहराम हो गयी थीं - एक उद्दीप्त ललकार का रूप लेकर पूछ रही थीं - ‘तूने क्या किया?’
सुखदा इस रौरव से घबरा उठी। उसने दीये की बत्ती को सरका कर तेज कर दिया और फिर प्रार्थना करने बैठ गयी।
‘ईश्वर, मुझे शान्ति दे। मेरे मन में जो रौरव मचा हुआ है, इसका शमन कर दे, ताकि मैं जान पाऊँ कि मैं क्या चाहती हूँ। मुझे सद्बुद्धि दे...
‘मैंने अच्छा किया या बुरा, मैं नहीं जानती - इसमें संसार का लाभ है या हानि मुझे नहीं मालूम... पर मैं यह भी नहीं जानती कि मैंने अपनी आत्मा से विश्वासघात किया है या नहीं -यही मुझे बता दे! यदि मैंने किसी मोह में पड़कर, जान-बूझकर बुरा किया, है, तो मुझे दण्ड दे, मुझे उससे शान्ति मिलेगी... यदि मैंने ऐसा नहीं किया, तो भी कर दे - मुझे शान्ति मिलेगी...
‘ईश्वर! इस अनिश्चय को दूर कर दे - क्षण-भर, एक अत्यन्त छोटे-क्षण-भर के लिए प्रकट होकर मेरी प्रार्थना का उत्तर दे दे!’
पर कहाँ? यदि ईश्वर प्रत्येक प्रार्थना की अत्यन्त सूक्ष्म काल में ही पूर्ति कर डाले, तो कुछ ही दिनों में उसका अस्तित्व ही मिट जाय! उसका अस्तित्व ही इस बात पर निर्भर करता है कि आकांक्षा के समय कुछ न मिले, उपभोग के समय दारिद्र्य हो, विरक्ति में लोभ हो कि वे याचना के समय दिवालिया और समृद्धि के समय दयालु हों...
जब उस मूर्तिमती प्रतीक्षा की काफी उपेक्षा करके भगवान अपनी सर्वशक्तिमत्ता दिखा चुके, तब सुखदा चुप हो गयी और कुछ सोचने लगी... किन्तु प्रार्थना में वह जिस प्रकार अपने भावों का उच्चारण कर रही थी, उसी प्रकार अब भी करती रही।
‘प्रपीड़ित को क्या आश्रय न दिया जाय? पर वह तो हत्या भी कर सकता है! आत्मरक्षा क्या हत्या है? पर और भी तो संसार बसता है, उनकी भी तो आत्मरक्षा होती है अत्याचार का विरोध नहीं करना चाहिए? पर अत्याचार का विरोध अत्याचार से नहीं होता।
‘इसका निश्चय मैं नहीं कर सकूँगी - बड़े-बड़े नहीं कर सके...
‘मैंने पहले उसे निकाल दिया था। वह मुझसे आश्रय माँगता था, पर उसे मेरे जीवन की क़द्र नहीं? कहता था कि स्त्री पर हाथ नहीं उठाऊँगा - कहता था कि उसके भी आदर्श हैं... पर अगर मैं उसका विरोध करती, तो शायद मुझे मार डालता!
‘मैंने क्या डरकर आश्रय दिया? मैंने उसे निकाल दिया था, फिर बुलाया।
‘क्यों?’
‘उमा कैसी थी, उसके बारे में कल पूछूँगी। उसे कितना याद करता होगा?
‘कहता था, मेरी बहन थी। अगर बहिन न हो तो? अगर...’
इससे आगे वह नहीं सोच सकी; एकाएक उठा खड़ी हुई। अगर क्या? अगर उमा उसकी प्रेमिका रही हो! सुखदा को यह विचार असह्य प्रतीत हुआ। वह तीव्र गति से इधर-उधर टहलने लगी... ‘यह कभी नहीं हो सकता - उसकी प्रेमिका नहीं हो सकती! नहीं हो सकती - वह ऐसा नहीं हो सकता!’
सुखदा इस विचार को मन से हटा नहीं सकी, न स्वीकार ही कर सकी! वह उन्मत्त की भाँति चलती रही, इधर से उधर, उधर से इधर, किन्तु पाँव दबी चाँप से पड़ रहे थे...
उसका मुँह लाल हो गया-फिर पीला पड़ गया। वह खड़ी हो गयी। प्रतिमा के पास पड़ा हुआ फ्रेम उठाकर वह उसकी ओर देखने लगी, और बोली, “क्या मैं पापिनी हूँ? मैंने अपना व्रत तोड़ा है? तुम्हारे प्रति अपने कर्त्तव्य को भूल गयी हूँ। नहीं तो क्यों मुझे वह विचार असह्य होता -असह्य है?
“पर अगर तुम हत्यारे होते और मैं तुमसे घृणा करती होती, तो क्या मैं तुम्हें निकाल देती?”
किसी तिरस्कार-भरी हँसती आवाज़ ने उनके कानों में कहा, “तो दिनेश क्या तेरा पति है?’
फिर वही आरक्त मुद्रा, वही उन्मत्त चाल, इधर से उधर, उधर से इधर...
उसके रक्त में विद्रोह जाग रहा था। यह कैसा अत्याचार है - कैसे बन्धन? वह क्या मेरा बन्धु नहीं? वह क्या मानव नहीं? अगर मैं विधवा हो गयी हूँ, समाज ने मुझे जूठन की तरह अलग फेंक दिया है, तो मैं समाज के एहसान से मुक्त हूँ! मैं अपना कर्त्तव्य जो समझूँगी, करूँगी!
और पति?
इसमें क्या अनौचित्य है? अगर उसे आश्रय देना मेरा धर्म था, तो वैधव्य उसमें क्यों बाधक हो-पति भी क्यों हो?
फिर वही तिरस्कार की हँसी-वही उन्मादक प्रश्न - ‘तू उससे प्रेम करती है?’
सुखदा ने चित्र वहीं रख दिया, हाथ से बत्ती दबाकर दीपक बुझा दिया, और फिर बड़ी तीव्र गति से टहलने लगी... उसके पैरों की दबी हुई चाँप में भी एक ललकार थी - अपने को, या मानवता को, न जाने...
यही है मानवता का जीवन-यह अन्धकार में अशान्ति, उन्माद में जलन, विश्वास में अनिश्चय, सम्पन्नता में विद्रोह; रात्रि की प्रशान्त गति में यह अपूर्ति और ललकार...

8
बादल फट रहे थे। रात बीत चुकी थी।
अभी उषा के प्रकाश का भास नहीं होता था, किन्तु मानो अन्धकार का रंग बदल गया था।
सुखदा थक गयी थी। उसके उन्माद की पराकाष्ठा धीरे-धीरे ढीली पड़कर बहुत उतर आयी थी।
वह झोंपड़े के किवाड़ खोलकर देहरी पर बैठ गयी और बाहर देखने लगी।
दूर पर जमुना के विशाल वृक्ष का कुछ अंश दीख रहा था। उसका जल पहले-सा क्षीण - ‘सर-सर-सर’ छोड़ अब खेतों को नाँघता हुआ एक दर्प-भरा ‘झूल-झूल-झूल’ गुर्राता हुआ चला जा रहा था... उससे कुछ इधर दो वृक्षों के आकार कुछ स्पष्ट-से नज़र आते थे, जिनकी ओर सुखदा देख रही थी। इन्हीं में से एक वह पगोड़ा वृक्ष था, जिसके नीचे उसने इतनी बार अपने हृदय की परीक्षा ली थी...
सुखदा को एकाएक ऐसा ज्ञात हुआ, उस वृक्ष के नीचे कोई खड़ा है। वह ध्यान से उसकी ओर देखने लगी, उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई अपनी आँखों पर हथेली की आड़ दिये, दूर कहीं देखने का प्रयत्न कर रहा था... पर, देर तक देखने पर भी जब वह आकार हिला-डुला नहीं, तब सुखदा की दृष्टि उस पर से हटकर बहुत दूर पर जगमगाती हुई जमुना के पुल की लैम्पों की ओर गयी... उस पर कई-एक लैम्पें चलती हुई नज़र आ रही थीं देहली से मेरठ की ओर। सुखदा ने सोचा, ‘ये मोटरें होंगी,’ और फिर उन्हें भूल गयी। वह फिर उस वृक्ष की ओर देखने लगी - पर अब वह आकार, जिसकी ओर उसका ध्यान पहले आकृष्ट हुआ था, वहाँ नहीं था।
न जाने क्यों, सुखदा का ध्यान एकाएक फिर दिनेश की ओर गया। उसकी आन्तरिक अशान्ति, जो कुछ क्षीण हो पड़ी थी, फिर धधक उठी - वही प्रश्न फिर उसके मन में नाचने लगा - ‘मैंने क्या किया... मुझे क्या हो गया...’
वह उठकर अन्दर गयी। दबे-पाँव छप्पर के पास जाकर उसने देखा, वहाँ खाली कम्बल पड़े थे - दिनेश नहीं था!
उसका हृदय धक् से होकर रह गया। उसे ऐसा जान पड़ा, उसके मस्तिष्क पर फ़ालिज पड़ गया है... उसकी आन्तरिक अशान्ति भी मानो स्तिमित हो गयी...
पता नहीं कैसे, वह छप्पर से कुछ दूर तक चलकर आयी, और खूँटी से सारंगी और गज़ लेकर फिर पूर्ववत् देहरी पर आ बैठी। उसका शरीर क्या कर रहा है, यह वह स्वयं नहीं जानती थी...
उसकी उँगलियाँ गज़ को इधर-उधर चलाने लगीं, तारों से दो-चार टूटे-से, अनमिल स्वर निकलने लगे... धीरे-धीरे उनका प्रकार बदलता गया - और थोड़ी देर बाद वे एक प्रकार के संगीत में परिणति हो गये - एक संगीत जिसमें उत्कंठा और रोना मिले हुए थे, जिसमें एक विराट् भव्यता के साथ ही एक भयंकर निरर्थकता फूटी पड़ती थी... वैसे ही जैसे किसी सम्पूर्ण जीवनी में सब-कुछ रहने दिया गया हो, केवल एक उद्देश्य निकाल दिया गया हो...
थोड़ी देर बाद नदी में कहीं एक ‘छड़ाप्!’ शब्द हुआ, किन्तु सुखदा ने उसे सुनकर भी नहीं सुना। इस शब्द का कुछ अर्थ हो सकता है, यह विचार उसके स्तिमित मन पर नहीं उदित हुआ। वह उस समय अपने ही संगीत की निरर्थकता में बही जा रही थी...
उसका मन जगा तब, जब उसने सामने से बहुत-से बूटों की चाँप सुनी, और आँख उठाकर देखा कि कई-एक सशस्त्र पुलिस के सिपाही और अफ़सर उसकी ओर बढ़े चले आ रहे हैं।
एक हाथ में सारंगी और दूसरे में गज़ लिये वह धीरे-धीरे उठकर खड़ी हो गयी।
एक सिपाही ने उसके मुख पर टार्च का तीक्ष्ण प्रकाश डालते हुए कड़ककर पूछा, “कौन है तू? क्या नाम है?”
सुखदा ने शान्त भाव से कहा, “मेरा नाम सुखदा है।”
“तेरे घर में और कौन है?”
“मैं अकेली हूँ।”
सिपाही घर में घुस आये, सुखदा किवाड़ के एक तरफ खड़ी रही। सिपाहियों ने क्षण-भर में झोंपड़े को देख डाला, और छप्पर में घुसे। घुसते ही एक ने पूछा, “यहाँ कौन सोया था?”
“मैं सोती हूँ।”
“और उनमें कौन सोता है, तेरा खसम?” सिपाही ने झोंपड़ेवाले बिस्तर की ओर इंगित करके पूछा।
“वहाँ कोई नहीं सोता है, मैं विधवा हूँ।”
उसके इस शान्त उत्तर को सुनकर यदि सिपाही कुछ लज्जित हुआ, तो उसने इसे प्रकट नहीं होने दिया।
इसी समय दो अँग्रेज़ अफ़सर भी आ पहुँचे। सिपाही दोनों ओर हटकर खड़े हो गये। अफ़सर ने पूछा, “तलाशी ली?”
“जी हाँ, कुछ नहीं मिला।”
“अच्छा, तुम लोग बाहर रहो, हम इससे बात करेंगे।”
सिपाही बाहर चले गये, सुखदा चित्रवत् खड़ी रही। जब सब सिपाही बाहर हो चुके, तब अफ़सर सुखदा के सामने खड़े होकर बोला, “तुम जानता है, तुमको कितना सजा मिल सकता है?”
“मैंने क्या किया है?”
“तुमने एक मफ़रूर आदमी का मदद किया है। तुम्हारे पास इधर रात को सूर्यकान्त नाम का एक डाकू और ख़ूनी आदमी रहा - जिसको पकड़ने का पाँच हजार रुपया इनाम है।”
“आप भूलते हैं। यहाँ कोई नहीं आया। मैंने इस नाम को सुना भी नहीं।”
कहते हुए सुखदा सोच रही थी, ‘तो उसका असली नाम सूर्यकान्त था।’
“हूँ। सब मालूम पड़ जाएगा।”
अब दूसरा अफ़सर बोला, “देखो, हमको सब पता लग गया है। हमको जमुना में उसका लाश मिला है - वह पार जाने को था, डूब गया। तुम्हारे घर के बाहर उसके पैर का निशान भी है। तुम सच बता देगा तो छूट सकता है, नहीं तो...
सुखदा का हृदय धड़कने लगा। उसकी लाश! तो वह वापस भी तैर कर ही गया - क्यों? सुखदा को एकाएक याद आया, उसने वह ‘छड़ाप्!’ का शब्द सुना था... उस समय पुल पर से मोटरें चली आ रही थीं - ऐसे समय में...
इस पीड़ा में, धड़कन में, एक विचित्र शान्ति थी... वह रात-भर की कसक, वह जलन और अशान्ति, और उनसे उत्पन्न हुए भूतकाल के दृश्य, सब एक साथ ही बुझ गये, उसे ऐसा मालूम हुआ, सैकड़ों वर्षों की थकान के बाद उसे शय्या पर लेट जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो...
उसे चुप देखकर पुलिस अफ़सरों ने सोचा उस पर कुछ प्रभाव पड़ा है। उन्होंने कहा, “हाँ, जल्दी कहो, जो कुछ कहना है। हम पूरा कोशिश करेगा कि तुम छूट जाओ।”
सुखदा ने दृढ़ स्वर में कहा, “मुझे नहीं कहना है। मैंने सूर्यकान्त का कभी नाम भी नहीं सुना है।”
अफ़सर ने कुछ क्रुद्ध होकर कहा, “अच्छा, तुम गिरफ़्तार है।” फिर उसने आवाज़ दी, “सिपाही!”
दो सिपाही अन्दर आये। अफ़सर ने कहा, “इसको गिरफ़्तार करके ले चलो।”
“अच्छा, हुजूर,” कहकर सिपाही आगे बढ़े।
सुखदा ने कहा, “मुझे तैयार होने के लिए पाँच मिनट का समय दीजिए।”
अफ़सरों ने आपस में इशारा किया, फिर एक बोला, “अच्छा, हम दो मिनट दे सकता है।”
सिपाही रुक गया।
सुखदा ने कहा, “आप बाहर जावें।”
अफ़सरों ने घूरकर उसकी ओर देखा, पर फिर बाहर जाते-जाते बोले, “दो मिनट से ज्यादा नहीं मिलेगा, जल्दी करो।”
सुखदा ने किवाड़ बन्द कर लिया। छप्पर से एक लोटा पानी लेकर उसने मुँह धोया फिर एक चादर निकालकर कन्धों पर डाल ली। एक बार धीरे-धीरे दृष्टि फिराकर उसने सारे झोंपड़े को देख डाला। इन सबका अब कौन रखवाला होगा?
वह उस आले के पास गयी, जिसमें प्रतिमा रखी थी, और वहाँ से उसने अपने पति का चित्र उठाया। उसे फ्रेम में से निकालकर क्षण-भर देखती रही, फिर धीरे-धीरे फाड़ने लगी... दो, चार, आठ... सैकड़ों टुकड़े करके उसे प्रतिमा के पास ही रख दिया।
फिर उसने लकड़ी के बक्स पर पड़ी किताबों में से दो-तीन चुनकर धोती के छोर में लपेट लीं।
क्षण-भर वह झोंपड़े के मध्य में अनिश्चित खड़ी रही।
और क्या करना है? एक बार फिर उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर देख लिया - यह उसकी विदा थी।
उसकी दृष्टि चौकी पर जाकर रुकी। रात की बुझी हुई अँगीठी उसके सामने पड़ी थी।
सुखदा को याद आया, उसके पास कुल दो मिनट का समय था। वह क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रही, फिर एकाएक प्रार्थना के लिए झुक गयी। अपने देवता के आगे नहीं, अपने पति के फटे हुए चित्र के आगे नहीं, किन्तु उस चौकी के आगे, जिस पर दिनेश - या सूर्यकान्त - बैठे-बैठे सो गया था। उसने घुटने जमीन पर टेक दिये और सिर को धीरे से चौकी पर नवा दिया...
उस अपने जीवन के अपूर्व एक मिनट में उसने किससे क्या प्रार्थना की, कौन जाने... किन्तु जब वह उठी, तब मानो उसके प्राणों का तूफ़ान बैठा गया था... उसकी आत्मा के सभी संस्कार, अच्छे या बुरे, नये या पुराने, एक पुरानी केंचुल की तरह झड़ गये थे, वह निरावरण हो गयी थी... सुखदा के मुख पर शान्ति थी - उस शान्ति में वैराग्य की, त्याग की भावना स्पष्ट थी; किन्तु वह त्याग वैधव्य की भाँति मलिन या उद्विग्न नहीं था...

9
किन्तु जब वह किवाड़ खोलकर वापस आयी, तब एकाएक उसके हृदय पर मानो कोई दैवी प्रकाश छा गया... उसे किसी दिव्य ज्ञान की एक रेखा ने कहा, ‘ये झूठे हैं!’
सूर्यकान्त मरा नहीं, वह मर सकता ही नहीं था...यह विचार भी असम्भव था-असम्भावना से भी अधिक असम्भव...
वह ज्ञान-रेखा कह रही थी, ‘ये झूठे हैं! वह नहीं मरा! तुम्हारे कर्म की सफाई के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसकी मृत्यु हो गयी हो!’
सुखदा इस ज्ञान के प्रकाश के आगे यह सोच ही नहीं सकी कि उसे कैसे पुलिस के कथन पर विश्वास हो गया - चाहे क्षण-भर के लिए ही... जब उसे याद आया कि यह समाचार सुनकर ही उसकी आत्मा की पीड़ा के साथ-साथ शान्ति का अनुभव हुआ था, तब उसका हृदय लज्जा से भर गया...
वह धीरे-धीरे झोंपड़े के सामनेवाले पगोड़ा वृक्ष की ओर अग्रसर हो रही थी। पुलिसवाले उसे बाहर आया देखकर इकट्ठे हो रहे थे। वह उनकी उपेक्षा करती हुई, वृक्ष की ओर देखती हुई चल रही थी।
वह रुकी। एकाएक उसका हृदय एक अदम्य सुख से, एक ज्वलन्त उल्लास से भर आया।
यही जीवन का चरम उद्देश्य था - सृष्टि का चरम साफल्य, अनुभूति कर अन्तिम विकास-सुख की अन्तिम पराकाष्ठा... पीड़ा का, उत्कट पीड़ा का ज्ञान-ऐसी पीड़ा का, जो कि स्वयं अपनी इच्छा से, अपने हाथों की स्वागत भावना से अपने ऊपर ली गयी है... यह आत्म-निछावर की चेतना...
सुखदा को ऐसा प्रतीत हुआ, उसका वर्षों का वैधव्य, और उससे पूर्व की जीवित मृत्यु, आज एकाएक अपनी सीमा पर पहुँच गये हैं - समाप्त हो गये हैं; और वह आज एक नयी स्त्री, एक नयी शक्ति हो गयी है...
उसने एक बार अपने छोटे-से बगीचे के चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, वह जमुना के विशाल वृक्ष को छूती हुई फिर उसी पगोड़ा वृक्ष पर आकर रुक गयी। क्षण-भर सुखदा स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखती रही, उसके मुख पर एक शान्त-स्निग्ध हँसी छा गयी...
फिर उसने कहा, “चलो!” और विस्मित सिपाहियों के आगे अभिमान-भरी मुद्रा से चल पड़ी।
रात-रात में पगोड़ा वृक्ष ने पुरानी केंचुल उतार फेंकी थी - या नये वस्त्र धारण कर लिये थे। आज उसकी कालिमा का चिह्न भी कहीं नज़र नहीं आता था, वह फूलों से भरा हुआ, सौन्दर्य से आवृत, सौरभ से झूम रहा था।
उस समय उषा का प्रकाश नभ में फूट रहा था।

(मुल्तान, जेल अक्टूबर 1933)

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