पगले मन के दस चेहरे (कन्नड़ आत्मकथा) : शिवराम कारंत

Pagle Man Ke Das Chehre (Autobiography in Hindi) : Shivram Karant

हिन्दी पाठकों के नाम

भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली के प्रति मैं हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ कि उसने मेरी आत्म कथा (एक प्रकार की) के हिन्दी में प्रकाशन की दिशा में पहल की। यह योग संस्थान सवधानीपूर्ण चयन एवं उपयुक्त मान्यता-पद्धति के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर निपुण लेखकों की खोज करने और उन्हें राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा दिलाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा है। समय-समय पर मेरी कुछ पुस्तकों के न्यासों, निजी प्रशंसकों एवं संस्थाओं द्वारा हिन्दी रूपान्तर प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, किन्तु मैं पाता हूँ कि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा चुनी गयी पुस्तक ‘मकूज्जी’ ने मुझे सच्ची राष्ट्र व्यापी प्रतिष्ठा दिलायी है। जो व्यापक प्रचार मुझे उससे प्राप्त हुआ है उसे मैं अपना अहोभाग्य मानता हूँ। किन्तु इस तथ्य का अर्थ यह तो नहीं है कि वे मेरे लिए अतिरिक्त कष्ठ उठाएँ। मेरा तात्पर्य यह है कि कि इससे उन्हें यह कैसे लगा कि मेरी आत्माकथा भी बृहत्तर पाठक-वर्ग को रोचक प्रतीत होगी। बहरहाल, जिस भी योग्य हो, यह कृति भारतीय ज्ञानपीठ के अतिरिक्त अनुग्रह के कारण हिन्दी पाठकों के सामने है।

इस पुस्तक का नाम ‘पगले मन के दस चेहरे’ मैंने पाठक को जीवन के अपने क्षेत्रों में अपनी मानसिक साहसिकताओं का आभास देने के लिए तय किया है। अपने सार्वजनिक जीवन की चौथाई शताब्दी (1923-1948) पूर्ण हो जाने पर मैंने अनुभव किया कि कन्नड़ जनता को, जिसके बीच रहकर मैंने इतने लम्बे समय तक संघर्ष किया, अपनी आप बीती कह सुनाऊँ। अनेक लोगों ने मेरी आरम्भिक गति विधियों पर छींटाकशी की थी और मेरे निकट के लोगों तक ने महसूस किया था कि मैं हरफनमौला तो था, मगर किसी भी फन का उस्ताद नहीं। निश्चय ही दक्षता का दावा मेरा किसी भी दिशा में नहीं है।

सबसे पहले तो मैंने यह अन्वेषण करना चाहा कि मुझमें क्या-कुछ करने की क्षमता थी तदुपरान्त मैंने अपनी क्षमता का विस्तार अपने साथियों को जानने एवं उनकी सेवा करने के लिए किया। कन्नड़ में इस आत्मकथा का प्रथम संस्करण 1948 में प्रकाशित हुआ। मैं इतना ही कह सकता हूँ कि इसका व्यापक स्वागत हुआ।
लगभग 1962 में इसकी सामग्री को अद्यतन करते हुए इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया।
छठे दशक में मैंने अपने अपने अतीत की झलकियाँ विषयानुसार प्रस्तुत करने की एक भिन्न पद्धति अपनायी। मैंने उनके शीर्षक इस प्रकार रखे-‘मैं और मेरा मूल स्थान’, ‘मैं और मेरा साहित्य’, ‘मैं और शिक्षा’ ‘मैं और नाटक’ आदि-आदि।
वे तीन भिन्न-भिन्न जिल्दों में स्मृति पलट शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है। तिथी क्रमानुसार आत्मकथा को विस्तार देने का मेरा कोई इरादा न था।

किन्तु कुछ मित्र उसमें भी रूचि रखते थे। अतः अपने जीवन का वर्णन बढ़ाते-बढ़ाते 1983 तक खींच लाने के लिए मैं बाध्य हो गया। सच, जीवन पथ में मेरी यह पर्याप्त लम्बी यात्रा है। यदि हिन्दी पाठक इस प्रकार की पुस्तक पढ़ने की रूचि दिखाएँगे तो मुझे पूरा विश्वास है कि यह उनकी हृत्तन्त्री के कुछ तारों को अवश्य छेड़ेगी।
कोई मनुष्य अपने समकालीनों से और चाहता भी क्या है।

प्रस्तावना
क्षमा-याचना की आवश्यकता नहीं

ऐसी एक रचना के लिए प्रस्तावना लिखनी चाहिए अथवा क्षमा याचना करनी चाहिए ये मेरी समझ में नहीं आ रहा है। लिखना ही मेरी वृति होने के कारण मुझे उसके बारे में क्षमा-याचना करने की आवश्यकता नहीं है। जिन विषयों को मैं जानता हूँ उनके बारे में लिखना मेरी आदत-सी हो गयी है। यह वह अधिकार है जो एक लेखक अपने आप को देता है। यह बिना किसी प्रत्यक्ष गुरू के प्राप्त दीक्षा है। विश्व में जीनेवाले किसी भी व्यक्ति का यदि कोई गुरू न भी हो तो भी वे सारे अनुभव, शिक्षा उसे विश्व से प्राप्त हो जाते हैं। निसर्ग की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक जीव, व्यक्ति के चैतन्य होकर जीनेवाला प्रत्येक क्षण, लेखक की मनोवृति को सदा निरूपित करते रहते हैं। वैसे दूसरे भी उस नियम के बाहर नहीं हैं। जन्म से ही मिलनेवाली यह शिक्षा उसके जीवन के अन्त में ही समाप्त होती है। इन दोनों के बीच के दीर्घ या अल्पावधि में, वह अपने लेखन की दीक्षा प्राप्त करता है। वैसे वह किसी एक व्यक्ति को अपने गुरु के रूप में स्वीकार भले ही न करे, पर सैकड़ों व्यक्ति, सैकड़ों जीव और असंख्य घटनाएँ उसके लिए गुरु ही होते हैं। इनसे परिपुष्ट, स्फूर्ति वाला एक लेखक अनेक कृतियों को जन्म दे सकता है। इनमें अगर सौ खराब हों तो कुछ अच्छे भी होंगी। अच्छे बुरे के बीच की भी कुछ कृतियाँ हो सकती हैं। मूलतः लेखक अथवा कोई भी कलाकार अपनी आत्मतृप्ति के लिए अपने मन के भाव को व्यक्त करता है। वह मूकजीवी नहीं होता है। दूसरे मानव भी मूक नहीं होते हैं। अतः उसकी कृतियाँ उसके समान ही अनुभव वाले दूसरे व्यक्तियों और अनुभवापेक्षियों के लिए उपयोगी हो सकती हैं और पर्याप्त रूप में सन्तोष भी दे सकती हैं। परन्तु कलाकार को पहला सन्तोष और सबसे बड़ा सन्तोष उसकी कृति के निर्माण के समय ही मिलना चाहिए। लोगों की पसन्द, आलोचना अथवा प्रशंसा से मिलनेवाला आनन्द तो एक पर्याय मात्र है। उसी प्रकार निन्दा या उपेक्षा से मिलनेवाला दुख भी एक पर्याय ही उसकी परवाह मुझे है ही नहीं। मेरा जीवन मेरे अधिकार की वस्तु है। मेरा जीवन मेरा अपना है। उसका सुख सौन्दर्य, दर्द, पीड़ा और सौन्दर्य का अभाव ये सब मेरे हैं। दूसरे उसमें भाग लेना चाहें तो अच्छा, उसे स्वीकार करें तो अच्छा, न भी करें तो अच्छा। मैंने जो जीवन बिताया वह मेरा है, केवल मेरा है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं दूसरों को तुच्छ समझता हूँ। इसका यह भी मतलब नहीं कि उनकी आलोचना के सत्यांश की ओर मुझे ध्यान नहीं देना चाहिए। उसके बिना कोई भी मनुष्य प्रगति नहीं कर सकता। फिर भी जिसने जो जीवन बिताया, उसे उसके अलावा भला और कौन जान सकता है ? यह लेखन ही मेरे पगले मन के दस चेहरे हैं। इस लेखन के बारे में यदि मुझे किसी से क्षँमा माँगनी हो तो मेरे जीवन के साथ मुझे उठाकर, जिस जीवन-प्रवाह ने संचार किया उससे माँगनी चाहिए।

एक अर्थ में मैंने अपने जीवन को अपना कहा है। परन्तु विस्तृत अर्थ में, सत्य देखनें चलें तो वह जीवन दूसरों का साथ घुला-मिला है। मैं समाज के जीवन का एक अंश हूँ न ! उसके सुख-दुःख मेरे हैं न ! मेरा सदा का जीवन समाज का हिस्सा है न !

सम्पूर्णता की बात नहीं

यह एक सम्पूर्ण आत्मकथा नहीं है। सम्पूर्ण तो मैं भी नहीं हूँ। सम्पूर्णता का एक अंश भी नहीं बन पाया हूँ। यह मैं जानता हूँ कि यह विश्व ही सम्पूर्णता के लिए संघर्षरत है अतः सवर्ज्ञ पद को मैं वहन नहीं कर सकता। दूसरे अर्थ में भी यह परिपूर्ण नहीं है। मैं अब ढलती उमर पर पाँव रख चुका हूँ। अतः अपने जीवन के जिस समय यह वर्णन कर रहा हूँ, वहाँ तक का ही वह चित्र उपस्थित कर सकता हूँ। पूरे जीवन का चित्र नहीं दिखा सकता। मुझे सौ वर्ष जीने की इच्छा नहीं है। पर यह इच्छा अवश्य है कि दूसरों पर शारीरिक रूप से एक भार बन कर न जीऊँ। यदि बाद में जीवित रहा तो शायद मेरी स्थित वैसी ही हो सकती है जैसी ताण्डव मुनि के बेटे उसे काँवर से उठाकर भटकते थे। दूसरों की सहायता न करनेवाले व्यक्ति को दूसरों पर बोझ नहीं बनना चाहिए न !

लिखने की इच्छा

खैर, कोई भी मुझसे यह पूछ सकता है कि ऐसी आत्मकथा लिखने का पागलपन क्यों ? मैं पहले ही यह स्वीकार कर चुका हूँ कि मेरा मन पगला है, तो यह प्रश्न ही व्यर्थ हो उठता है। कुछ वर्ष पहले मेरे मित्र नेगलूर रंगनाथराय ने मुझसे कहा था, मैं जागीरदार की जीवनी लिख रहा हूँ, मैं आपसे उसकी भूमिका लिखवाना चाहता हूँ वे दोनों ही मित्र हैं। ‘अच्छी बात है’ कहकर मैंने भूमिका के चार शब्द लिख दिये। बाद में उन्होंने कहा, ‘‘मैं आपकी भी जीवनी लिखना चाहता हूँ। उसके लिये आप सामग्री दे सकेंगे ?’’ तब मैंने हँसकर कहा, ‘‘दूसरों की लेखनी से हत्या कराने की इच्छा मुझे नहीं है। मैं अपनी हत्या अपने आप ही कर लूँगा।’’ यह बात हुए कुछ ही साल हुए। मेरे कई मित्रों ने ही नहीं, पत्नी लीला ने भी मेरी जीवनी के बारे में लिखा है। मेरा एक गहरा विश्वास है कि यदि किसी व्यक्ति की जीवनी बढ़िया लिखनी है तो लिखनेवाले का और उस व्यक्ति का निकट का परिचय अवश्य होना चाहिए तभी वह सजीव बन पड़ेगी। केवल पुरानी खोजों से लिखा जानेवाला जीवन-चरित्र एक व्यक्ति का केटेलॉग मात्र हो सकता है। वह हमें तभी सरस लगा सकता है जबकि उसमें लेखक की मनोवृति प्रतिबिम्बित हो। तभी सही मायनों में लेखक की आत्मकथा होगी।

नेगलूर के मेरा ध्यान उस ओर आकर्षित करने के बाद से आत्मकथा लिखने की इच्छा हुई। एक दो मित्रों ने कहा, ‘‘लिख क्यों नहीं डालते ? तब एकदम मरने की इच्छा नहीं है’’ कहकर मैंने मजाक भी उड़ाया था। कुछ वर्ष पूर्व मित्र राजरत्नम् ने ‘दस वर्ष’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखकर जनता को प्रदान की। ‘दस वर्ष’ में तो एक ‘निकली जुबली’ भी नहीं होती। भला मैं उतना छोटा हूँ क्यों लिखूँ ? यह सोचकर मैं पच्चीस वर्ष पूरे होने की प्रतीक्षा करता रहा। ये पच्चीस वर्ष मेरे पूरे जीवन के पच्चीस वर्ष जबसे मैं ‘मैं’ बना और अपने को समझने लगा तब के पच्चीस वर्ष हैं।
बिना दूसरे की सहायता के समाज के प्रवाह में मैंने जो पच्चीस वर्ष काटे उनकी प्रतीक्षा करता रहा। इस लेखन का पहला संस्करण समाप्त होने के पन्द्रह वर्ष बाद दूसरा संस्करण निकला। अब तक तीसरा है।

इतना जीना काफी नहीं ?

सन् 1921 में कॉलेज से मुक्त हुआ। तब मैंने केवल ब्रिटिश सरकार से ही सम्बन्ध नहीं छोड़ा, कहना चाहिए कि अपरोक्ष रूप में मुझसे कहने और पूछनेवाले सभी से सम्बन्ध तोड़ लिये। मेरा ऐसा ‘बे लगाम’ जीवन रहा है। पर उस पर जो बाहरी नियन्त्रण था वह ‘बे’ नहीं था। अब वह जमाना पूरी तरह बीत गया है। 1983 चल रहा है। इस बारे में मेरे मन में एक और ही बात उठ रही है-भारतीयों को यदि जीवन-चरित्र लिखना हो तो उसे मेरी आयु से पहले ही लिख डालना चाहिए। भारतीयों की औसत आयु करीब 23 वर्ष है तो उनके पास उस पर लिखने को ही भला है क्या ? अब मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं उससे तिगुना जी चुका हूँ और चौगुने तक जी सकता हूँ कौन जाने ! मेरे माता पिता, दादी सभी जिद करके इतने समय तक जीये थे। मुझे क्यों नहीं इतना जीना चाहिए ?

आत्मकथाओं का अभाव

कन्नड़ में जीवनियों का अत्यन्त अभाव है। श्री. डी. वी. गुण्डप्पा ने गोखले की जीवनी लिखकर एक मार्गदर्शन किया। उन्होंने श्री गोखले के राजनीतिक जीवन का गहरा अध्ययन किया था। वैसे उच्चकोटि के गुण और संख्या के हिसाब से देखा जाए तो कन्नड़ में जीवनियों का सर्वथा अभाव है। तब आत्मकथा की बात कहाँ से उठी ? विदेशी साहित्य में ऐसी सैकड़ों पुस्तकें हैं। जिन्होंने ऊँचा जीवन बिताया हो यदि वे स्वयं ही लिखें तो उनकी आत्मकथा सशक्त होगी। विदेशों में अनेक वैज्ञानिकों, राजनयिकों, और विविध क्षेत्रों में साहस दिखानेवालों ने रोचक आत्मकथाएँ लिखी है। हमारे यहाँ भी गाँधी की आत्मकथा, जवाहार लाल की आत्मकथा मिलती है। उनका व्यक्तित्व महान होने से उन पुस्तकों को अन्तरराष्टीय ख्याति भी मिली है। उन्हें पढ़कर मैंने भी आनन्द का अनुभव किया है, और कुछ सीखा भी है। विदेशियों की आत्मकथाएँ मैंने अधिक नहीं पढ़ी हैं। लेकिन जिन दो चार को पढ़ा है उनसे मुझे बहुत सन्तोष मिला है। इनमें एच. जी. वेल्स की आत्मकथा, एडमिरल बर्डन की आत्मकथा ने मुझे विशेष रूप से प्राभावित किया है। ऐसी रचनाएँ पढ़कर यह महसूस होने पर भी कि मुझ जैसे व्यक्ति को ऐसे काम में हाथ नहीं डालना चाहिए, मन में यह आशा अवश्य हुई कि एक बृहद् आत्मकथा के बदले एक छोटी-सी आत्मकथा क्यों न लिखी जाए।। मैंने अपने उपन्यासों में बीसियों अमान व्यक्तियों के जीवन को चित्रित किया है। फिर भला अपनी कलम का शिकार मैं स्वयं क्यों न बनूँ। यह शरारत, साहस विनोद इस रचना में प्रतिबिम्बित होना चाहिए। इस भूमिका को पहले लिखकर वास्तव में कहना चाहिए कि लिखवाया अर्थात् मुँह से बोलकर लिखवाया है। ऐसा यह मेरा पहला प्रयास है। अब आगे इसके कुछ और भी अध्याय लिखने हैं।

हम स्वयं नहीं देख सकते

इसका नाम मैंने ‘पगले मन के दस चेहरे’ रखा है। अपने मन के पागलपन का बोध हर समय नहीं होता है। दूसरे का पागलपन जितनी सरलता से दिखाई देता है क्या उतनी ही सरलता से हमें अपने पागलपन दीखता है ? उसे देखने की इच्छा तो मुझे है। जिस प्रकार मैं अपने समाज से दूर खड़े होकर उसे देखकर, समझने का प्रयत्न करता हूँ उसी प्रकार मैं अपने जीवन को देखकर समझना चाहता हूँ। यदि वह आशा पूरी हो तो यह एक अपूर्व सन्तोष की बात है। यदि इसे साध्य करना है तो मुझे अपने भीतर का अहंकार छोड़ना होगा। दूसरों के सामने झूठी सज्जनता दिखाने का दुराशा छोड़नी होगी। इसके अतिरिक्त अपने आपको धोखा देने का भी हमारा एक स्वभाव होता है। जब मनुष्य अपने आपको सफलतापूर्वक धोखा देना सीख लेता है तभी उसमें दुनियाँ को धोखा देने की शक्ति आती है। यह भी एक बात है। हम अपनी गहराई को नाप नहीं सकते। अपना छिछलापन हमें दिखाई नहीं देता । अपने थोड़े गुण अथवा चाहे वे न भी हों, वे ही हमें बहुत नजर आते हैं।

प्यारा-सा पागलपन

मैं अपने मन को पागल क्यों कहता हूँ ? इसका कारण यह नहीं है कि यह पागलपन नहीं चाहता बल्कि उसे मैं पसन्द करता हूँ। ऐसे पागलपन के कारण अनेक ऐसे साहस करके जिन्हें करना नहीं चाहिए, मुझे अपनी और दुनिया का पागलपन समझ में आया है। इसके आलावा इसका एक और भी विशेष कारण है। मैं अपना सारा बचपन अपने दिशाहीन विद्यार्थी जीवन में ही खो बैठा । जब मैंने अपना सार्वजनिक जीवन आरम्भ किया तब देशाभिमान ने अपनी ओर आकर्षित किया। मैं असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ा। विष्णु के यदि दस अवतार हैं तो मेरे ध्येय ने सोलह अवतार लिये। देशप्रेम, स्वदेशी प्रचार, व्यापार, पत्रकारिता अध्यात्म साधना, कला के विभिन्न रूप फोटोग्राफी, नाटक, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, संगीत सिनेमा-इतना ही नहीं समाज- सुधार, ग्रामोद्धार, शिक्षा के नये नये प्रयोग, उद्योग यह सब मेरे कार्य क्षेत्र रहे। और भी नये-नये प्रयोग चल ही रहे हैं। कभी मैं एक प्रेस का मालिक भी रहा हूँ। पुस्तक-लेखन से लेकर संन्यास के जीवन से गुजरकर गृहस्थ भी बना हूँ। केवल अपनी खिड़की से बाहर झाँकनेवालों को भले ही इन सब परिवर्तनों में कोई परस्पर- सम्बन्ध न दीखे पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। इस यात्रा में कोई और व्यक्ति यदि मेरे साथ होता तो उसे पता चलता कि यह सब यात्रा के अलग-अलग पड़ाव हैं। वैसे भला मेरे साथ मित्र ही कितने थे ? उनमें से मुझे केवल एक व्यक्ति की याद आती है ? उस व्यक्ति का चित्रण मैंने अपने चिक्क-दोड्डवरू (बड़े भाई) में किया है।
परन्तु मेरी प्रवृति उनमें एक दम भिन्न है। अतः वे मुझे आसानी से समझ नहीं सकते। वे इतने तेज भी नहीं हैं। केवल अभिमग्न और स्नेह से हमारी मित्रता चली आ रही है। तो यह निश्चित हुआ कि अपनी आत्मकथा लिखने को मैं अकेला ही उपयुक्त हूँ।

नवीनता में आसक्ति

यहाँ आत्मकथा के केवल कुछ ही रूप आप देख सकते हैं। मैंने भी कुछ ही देखे हैं। इस आठ दशक की अवधि में मेरा जीवन और मन इतनी सारी दिशाओं में बहा है। और इससे आगे की यात्रा कैसी होगी इउसकी कल्पना में कैसे कह सकता हूँ ? यदि मेरा उदेश्य इतना निश्चित होता तो मेरे इस तरह जीने की आवश्यकता ही नहीं होती। तब क्या जीवन का उदेश्य पूरा हो जाता ? विश्व का ‘कल’ जितना विचित्र प्रश्न है, हम सब लोगों के ‘कल’ का रहस्य भी उतना ही गूढ़ और विचित्र है। ऐसे कल के लिए नवीनता है। उत्साह है। यह मेरी इच्छा है कि मेरे चारों ओर की दुनिया चिर नवीनता के लिए अवकाश देती रहे। मन को सदा ताजा होना चाहिए, तेज होना चाहिए, साँप की जीभ के समान आगे का रास्ता खोजते रहना चाहिए। परिचित रास्ते पर अन्धे के समान चलने से क्या लाभ ? तात्पर्य यह है कि तब से लेकर अब तक मेरे भीतर जितने परिवर्तन आये हैं। उतने ही परिवर्तन आज से कल में भी आ सकते हैं। परन्तु कईयों के लिए वह अनिश्चित जीवन भयंकर दीख सकता है।

यश की गाथा नहीं

यह आत्मा मेरे जीवन के विविध साहसों के यश की कहानी दीखने की जगह हार की कहानी के रूप में दीख सकती है। परन्तु मनुष्य को जीवन में अनुभव प्राप्त करने के लिए सफलताएँ जितनी आवश्यक होती हैं असफलताएँ भी उतनी ही आवश्यक हैं या उससे भी ज्यादा। क्योंकि तराजू के एक पलड़े में अपना भार और दूसरे में परिस्थितियों का भार होने पर उसमें वह अपनेवाले भार को हल्का पाता है।
यशार्थी अपने समाज संघर्ष करनेवाले दूसरे प्राणियों के सामने अपना बड़प्पन दिखा सकते हैं। उस बड़प्पन से गर्व पैदा हो सकता है। पर वह व्यक्ति का सही वजन बता नहीं सकता। समाज के प्रवाह के अनुकूल बह जाने, हवा के रुख के मुताबिक छतरी पकड़ने वाले को यश जितना आसानी से मिल सकता है। उतना दूसरों को नहीं। दुनियाँ में चाहे जो भी यश क्यों न हो वह केवल हम पर ही निर्भर नहीं होता है, यह मैं अच्छी तरह जान चुका हूँ। विधि कहिए, भाग्य कहिए, अनुकूल परिस्थिति कहिए या और कुछ, कभी-कभी हमारे प्रयत्न से भी अधिक हमें यश मिल जाता है। कभी-कभी हम जब अत्यन्त परिश्रम करते हैं तो भी वही यश हमें ठोकर मार मजाक करके चला जाता है। पर एक बात सत्य है, पराजित को बार-बार कार्य करने का अवसर मिलता है। विजेता के लिए वह कार्य समाप्त होने के बराबर ही है। जब तक हम कार्य में अशक्ति रखते हैं, उसकी आवश्यकता समझते हैं, उसके सौन्दर्य का अनुभव करते है, तब तक कार्य ही आनन्द होता है। हार से दुनिया का अनुभव करते हैं, उसमें भी एक प्रकार एक प्रकार का आनन्द होता है।व्यक्ति यदि सचेत है तो हार से मिलनेवाला अनुभव व्यर्थ नहीं जाता। भावी जीवन में वह सहायक होता है। यह सब हारे हुए व्यक्ति के कहने के दर्शन हैं-चाहे ऐसे ही समझा जाय, खैर मेरा दृष्टि कोण तो यही है।

बहुमुखी होना

इस आत्मकथा में विविधा का मुख्य कारण मेरे मन का बहुमुखी होना है। मेरी इच्छा यह रही है कि मैं अपने शील को, स्वभाव के, इन्द्रियजन लालसाओं को, सभी प्रकार की चेतनाओं को विकास के लिए अवकाश दूँ। अपने जीवन को एक ही ओर मोड़कर एक ही ध्येय की साधना के लिए स्वयं को अर्पित करके उसके लिए निरन्तर परिश्रम करना कुछ लोगों का स्वभाव है। ऐसा परिश्रम करते समय, व्यक्ति कि कुछ शक्तियाँ ज्यादा विकसित होती हैं, पर साथ ही अनेक शक्तियाँ मन्द पड़ जाती हैं। सदा लकड़ी काटनेवाले की बाँह, छाती और पीठ की माँसपेशियाँ अधिक पुष्टि हो जाती हैं, पर पाँव की माँसपेशियाँ क्षीण रह जाती हैं। यह मैं पसन्द नहीं करता। विकासवादियों का कहना है कि मनुष्य का विकास बन्दर से हुआ। मैं अपने मन के स्वभाव से परिचित हूँ। उसकी बहुमुखी चेष्टाओं को देखकर इस वाद को स्वीकार करने के सिवा मेरे लिए और कोई चारा है ?
लम्बी प्रस्तावना लिखने के बदले, आत्मकथा को ही आगे बढ़ाते हुए, अपनी पूर्व स्मृतियों को पिराने का प्रयत्न करता हूँ। इसके सारे अंश सबको भले ही पसन्द न आएँ, पर कुछ अंश तो कुछ लोगों को अवश्य पसन्द आ सकते हैं। एक बात और है, चाहे किसी को पसन्द आएँ न आएँ, पर मुझे पसन्द हैं, अतः उनके लिखने में मुझे क्यों डरना चाहिए ?

अण्डे के भीतर
कूपमण्डूक

हमारा गाँव समुद्र के किनारे बसा है। दक्षिण कन्नड़ के उत्तर में ‘कोट’ नाम का एक ग्राम समुदाय है। हमारे बुजुर्गों ने तो उस ‘कोट’ को कभी एक गाँव नहीं समझा। आज भी बूढ़े लोग उसे ‘कोट जगत्त’ ही कहते हैं। भला कितना बड़ा रहा होगा मेरे उन लोगों का वह जगत ! ‘कोट’ कोट नहीं, वह एक ‘कूट’ है, चौदह गाँवों का एक समुदाय। वहाँ का एक मुख्य समुदाय ब्राह्मणों का है जिसे ‘कूट’ ब्राह्मण कहते हैं। हमारा इतिहास बहुत छोटा है। प्रसिद्ध पुराण सह्याद्रिखण्ड में उसका वर्णन भी है। हमारे लोग समुद्र के तट पर या गाँव के किसी तालाब में खड़े होकर ‘संकल्प’ करते समय, ‘गोदावरी-तीरे कहा करते हैं। साथ-साथ परशुराम क्षेत्र भी कहते हैं। इस प्रान्त के लोगों के उद्धार के लिए ही वनवासियों के राजा मयूर वर्मा ने अहिच्छत्र से कुछ ब्राह्मण परिवारों को लाकर यह प्रान्त बसाया था। उन्हीं से हम उच्च ब्राह्मणों का विकास हुआ। पहले आए हमारे पूर्वजों ने यहाँ के ब्राह्मणों से मिलकर अपने परिवारों की वृद्धि की फिर भी उनका दृण विश्वास है कि कोट ब्राह्मणों के समान शुद्ध ब्राह्मण और नहीं है। मैं अपने मामा के साथ सन् 1922 में काशी गया था। उन्होंने वहाँ के ब्राह्मणों को देख अपना निर्णय देते हुए कहा, ब्राह्मणत्व यदि कहीं बचा है तो वह हमारे कोट में ही है।’ उनके इस निर्णय को हाईकोर्ट भी नहीं बदल सकता। मुझे भी अपने बचपन में ऐसा ही लगता था। मैंने अपने ‘मरळि मण्णिगे’ (माटी की ओर) उपन्यास में अपने लोगों की गरीबी, चाल-चलन और आचार-विचार का काफी विस्तार से चित्रण किया है। उनके स्वभाव में घमण्ड, द्वेष, ओछापन मैंने अपने हल्लिय हत्तु समस्तरल्लि’ में चित्रित किया है। मेरे समाज के स्थूल परिचय के लिए इतना पर्याप्त है।

सौन्दर्य के आगार में

मेरा गाँव बड़ा सुन्दर है। दक्षिण कन्नड़ जिले में एक दुर्लभ मैदानी इलाका है। उस समतल भूमि में खेती-बाड़ी होती है। बीच-बीच में नारियल के झुरमुट में घर हैं। वहाँ दो छोटी खारियाँ (Backwaters) बहती हैं।
पश्चिम में हँगार-कट्टे की ‘कोडी’ से कुन्दापुर की ‘कोडी’ तक बारह मील के क्षेत्र में फैला समुद्र का सुन्दर विस्तार है। एक चट्टान तक नहीं है वहाँ। बचपन से अब तक हमारे घर से दो मील दूर के उस तट पर जब तक मैं घूमता नहीं, उस खारे पानी में कुलाटे नहीं मार लेता और सूखी मछली की गन्ध (अनिवार्य रूप से) सूँघ नहीं लेता, मुझे तृप्ति नहीं मिलती। ऐसा शान्त तट और कहाँ है ! अपने कई दोस्तों को भी वहाँ साथ लेकर गया हूँ। ‘राशि’ ने लिखा है कि मरने से पहले वहाँ जरूर आऊँगा। वी, सीतारामय्या वहाँ पता नहीं कितनी बार खड़े होकर लम्बी-लम्बी साँसे लेकर बेहद खुश हुए थे। वे वहाँ की रेत चुराकर अपने साथ ले भी गये हों तो कोई आश्चर्य नहीं। वहाँ पर सृष्टि के सौन्दर्य का कोई अन्त ही नहीं है। वहाँ के समुद्र की प्रशान्तता और विस्तार मन पर जो प्रभाव डालते हैं, उसका कोई हिसाब नहीं। समीप से देखने पर तो वह चकाचौंध कर डालता है। वह कभी जड़ नहीं। समीप से देखने पर तो वह चकाचौंध कर डालता है। वह कभी जड़ नहीं, निस्तब्ध नहीं है। जरा दूर पर ऊँचाई पर खड़े होकर उसका विशाल दृश्य देखने पर परम सन्तोष मिलता है।

कमल के साथ कीचड़

हमारे गाँव में स्नान के लिए, छोटे बड़े तालाब हैं। रेतीली धरती को गहरा खोदकर चारों ओर पत्थर बाँधकर पुराने लोगों ने तालाब बनाये थे। अब सीढ़ियाँ ढीली पड़ चली हैं। पत्थर टेढे-मेढ़े हो जाने से उनके नीचे साँपों और मेंढकों के लिए बिल बन गये हैं। मेरी एक बुआ ऐसे ही एक तालाब के किनारे साँप के काटने से मर गयी थी। अब भी वह चित्र मेरे मन पर से मिटा नहीं। तब मैं कोई चार-पाँच का रहा हूँगा। फिर भी हम लोगों का नित्य स्नान वहीं होता था। हमारे घर के बहुत समीपवाले तालाब का नाम ‘वरूण तीर्थ’ है। उस पवित्रोदक में असंख्य भैंसें और भैंसे आनन्द लेते हैं। मैंने भी गले तक गर्मी में डूबकर गर्मी का शमन करने का प्रयास किया है। वहाँ के कमलों और कुमुदनियों को देख-देखकर मन ही मन आह्लदित हुआ हूँ। उस तालाब के हर एक किनारे पर अलग-अलग जाति के लोग स्नान किया करते थे। अब समतावाद आ गया, जाति-भेद चला गया है। सभी जहाँ जी चाहे स्नान करतें हैं। तालाब को स्वच्छ रखने को भले न सही, उसे गन्दा करने का सभी ने समान अधिकार पा लिया है।
हमारे तालाब के पानी का रंग सभी की पसन्द का है। सदा हरे रंग की काई से भरा रहता है। जब भी उस तालाब को देखता हूँ, अपने लोगों की उदासीनता देखकर दुखी होता हूँ।

बिना मठ के लोग

हमारे गाँव की मुख्य जाति ब्राह्मण ही है। हम स्मार्त ब्राह्मण हैं। यहाँ के लोगों के भाग्य में केवल कौपीन ही बदा है। उनकी गरीबी का कोई ठिकाना नहीं। आज कल तो गाँव के लोग उडपि के कृष्ण की कृपा से दूसरे गाँवों में जाकर होटल के व्यापार से खूब पैसा कमाकर गाँव भेज रहे हैं। तब से अब उनकी आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हो गया है। पैसे का घमण्ड भी आ गया है। सट्टेबाजी में भी उत्साह लेने लगे हैं। हमारा ब्राह्मण वर्ग एक दृष्टि से बड़ा ही विचित्र है। हमारा कोई मठ नहीं है। हमारे लिए संन्यासियों की झंझट ही नहीं। एक जमाने में हमारे ‘कूट’ में ही हमारे आचार-विचारों का निर्णय हो जाता था। लोग उडपि की भोजनशाला में घुसने पर भी वहाँ के संन्यासियों को नमस्कार नहीं करते थे। पहले एक बार श्रृंगेरी मठ के स्वामीजी आये थे तब उनके पाँव छूने से बचने को गाँव के पासवाली नदी में नावों में खड़े होकर ही उनका स्वागत किया था। शायद बाद में स्वामी जी हमारे गाँव आये ही नहीं होंगे। हमारे गाँव में ‘माता’ का एक मन्दिर है। विष्णु की भी मूर्ती है। एक बड़ा-सा शिवालय भी है। हम लोग समान रूप से उन सबकी पूजा करते हैं। लेकिन हमारे कुल देवता लक्ष्मी-नरसिंह है। लक्षमी की कृपा भले ही हमारे गाँववालों पर अधिक नहीं रही, पर नरसिंह से क्रोध तो पर्याप्त मिला है। मुझमें जो क्रोध है, उसका कारण शायद वही नरसिंह रहा होगा जिसे मैं गाँव में ही छोड़ आया हूँ।

मेरे पूर्वज

सुना है कि हमारे पूर्वजों ने भी पहले गरीबी देखी थी। मेरे जन्म के समय परिस्थिति में थोड़ा सुधार हो चुका था। एक बड़े से घर में मेरा जन्म हुआ था। मेरे पिता शेष कारन्त आठ आने मासिक वेतन पर अध्यापन कार्य किया करते थे। उन्हें अपने पिता से केवल तीन रुपये लगान की भूमि विरासत में मिली थी। मेरे पैदा होने से पहले मेरे दादा चल बसे थे। उनकी स्थिति जरा अच्छी थी, परन्तु नागार्जुन के समान, उनमें रसायन विद्या का बड़ा पागलपन था। सारे लोहे को गलाकर सोना बनाने के चक्कर में सारी सम्पत्ति गँवा बैठे थे। मेरे पिता ने कुछ धनी मित्रों से कपड़े का व्यापार आरम्भ किया, आगे-उसी से फूले फले।
हमारा घर मुख्य रास्ते पर था। वहीं मेरा जन्म हुआ। मुझसे पहले चार भाईयों का जन्म हो चुका था। उनमें से एक का बचपन में ही निधन हो चुका था। मेरे बाद में चार भाई और तीन बहनें पैदा हुए। घर में सबसे बड़ी दादी ही थीं। उनका नाम ही था महालक्ष्मी। उनके बाद पिताजी और माँ महालक्ष्मी देवी थे। माँ और दादी बड़े कष्ट में पली थीं। उनका जीवन अपार श्रद्धा और भक्ति से भरा था। तालाब पर स्नान को जाते समय हम कभी शरारत से मेढकों को पत्थर मारते तो वो कहतीं ‘मेंढक ब्राह्मण होता है उसे मारना नहीं चाहिए।’ यदि किसी भी प्राणी को हम सताते है तो हमें उसका दण्ड मिलता था और फिर दादी, माँ दोनों हमारी शरारत, हिंसा और पाप कृत्यों के लिए अपना-अपना जप आधा घण्टा और बढ़ा देती थीं। हमारे लिए भगवान से क्षमा भी माँगती थीं।

मेरी माँ के इस घर में पाँव रखने के बाद से घर की स्थिति सँभली। वे सौजन्य की मूर्ति थीं । धनागम के मामले में वास्तव में लक्ष्मी ही थीं। वे लगभग चालीस वर्ष पहले गुजर गयीं। जब उन्हें याद करता हूँ तो ऐसा लगता है कि बारह बच्चों के जन्मने के कारण ही उनका जीवन ढल गया। फिर भी किसी प्रकार सत्तर साल तक जीवित रहीं। मेरी दादी जब गुजरीं तब पचहत्तर बरस की थीं। हम सब बच्चे गरीबी में भले ही न सही, पर ऐश्वर्य की गोद में नहीं पले । हमारे पिता हमें ज्यादा पैसे नहीं देते थे। उनकी बच्चों के साथ घनिष्ठता भी कम थी। यदि हमें एक-दो आने की आवश्यकता होती तो दादी या माँ के द्वारा अर्जी लगानी पड़ती। बाद में उनकी वकालत से ही मंजूर होती। गाँव के मेले के समय एक या डेढ़ आना हमारे हिस्से पड़ता तो हमें वही एक रुपये के बराबर दीखता था। हमारा घर 'कपड़ेवालों का घर' कहलाता था। गरीबी होने पर भी कभी खाने- पीने की तंगी नहीं रही।

बचपन की यादें

मेरे बचपन के दिनों में मेरे गाँव में पुराने ढंग की पाठशालाएँ चलती थीं। अध्यापक बाँस में डण्डा फँसाना, मुरगा बनाना आदि सजाएँ दिया करते थे । वहाँ गणित, पहाड़े, यक्षगान आदि सिखाया जाता था। रेत पर 'श्री गणाधिपतये नमः ' लिखना सिखाते थे। उसके बाद पट्टी पर लिखाई शुरू होती, फिर स्लेट पर और बाद में भोज-पत्र पर और फिर कण्ठस्थ कराते । मैं तो इस युग का था (जन्म 1902) मैं तो उन पाठशालाओं में पढ़ा नहीं। मेरी उमर के बच्चे वहाँ पढ़ा करते थे । हम तो वहाँ की यज्ञशाला में जाते जहाँ धरती पर बिठाकर पढ़ाई होती थी। मेरे प्रथम गुरु रंगराय थे। वे कल्याणपुर तोन्से के थे। रंगरायजी ने मुझे क्या पढ़ाया अब याद नहीं, पर उनके हाथ की बलखाती छड़ी अब भी याद है। मेरे साथ कृष्णप्पा नाम का एक लड़का पढ़ता था। उसके डराने के लिए वे "तुझे ढोल के भीतर बन्द करवा दूँगा ! " कहा करते थे। गाँव के मन्दिर के आँगन में एक बड़ा-सा ढोल रखा रहता था। उसकी ध्वनि बड़ी गम्भीर हुआ करती थी। भला उसके गर्भ में पहुँचने में किसे खुशी होती ! यज्ञशाला में सदा चमगादड़ लटके रहते थे। हम उनके नीचे बैठते थे। वहीं आस-पास उल्लू, जंगली कबूतर, चमगादड़, बिल्ली हमारे संगी-साथी थे । 'मन्दिर में कभी-कभार मदारी वगैरह लंगूर आदि लेकर आते तो वे भी हमारे प्रिय पात्र बन जाते थे। आजकल तो गाँवों में लंगूर दीखते ही नहीं।'

यज्ञशाला में ही दो-तीन बरस मेरी शिक्षा चली। उन्हीं दिनों उडपि ताल्लुक बोर्ड ने हमारे गाँव में एक स्कूल के लिए भवन बनाया। हमें उस स्कूल में बैठने को बेंच मिलीं। किताबें पढ़ने के लिए पुस्तकालय भी खुल गया। 'बोधनी' नाम की शिक्षा सम्बन्धी पत्रिका तभी मैंने देखी। स्कूल में सत्तर अस्सी विद्यार्थी और तीन-चार अध्यापक थे । काशप्पय्या मेरे प्रिय अध्यापक थे। वे हमें बागवानी, रंगीन कागजों से फूल बनाना, चटाई बुनना आदि काम सिखाकर खुश होते थे। तभी हमारे स्कूल में हाथ-पैर चलाने की कला यानी ड्रिल नयी-नयी शुरू हुई थी। कुछ दस्तकारियों का प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा था। यदि कभी स्कूल का इन्स्पेक्टर आता तो वह दिन हमारे लिए एक उत्सव जैसा होता था। वह एक नयी कमीज पहनने का अवसर होता था। हम उन्हें इन्स्पेक्टर साहब नहीं पुकारते थे। पहली बार आनेवाले इन्स्पेक्टर विश्वेश्वर राय का नाम ही आगे उस पद के लिए चलता चला। उस शाला में मैं कोई तीन-चार वर्ष पढ़ा हूँगा। तब की एक घटना मुझे अच्छी तरह याद है। मेरे एक सहपाठी सोमयाजी नाम के लड़के ने अपने पिता की ऐनक चुरा ली। जब स्कूल में उसे धमकाया गया कि ऐनक किसे दी, उसने मेरी ओर इशारा कर दिया। उस दिन मेरा सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य, मैंने चश्मा बनवाकर पहना था। अध्यापक ने धमकाते हुए पूछा, "क्या चश्मा तुम्हारे पास है ?" मैंने 'नहीं' कह दिया। उन्होंने छतरी की डण्डी से मेरी खूब पिटाई की। उस मार से डरकर मैंने 'हाँ' कर दी। 'जब तक गर्म नहीं किया जाए मक्खन पिघलता नहीं' यह दर्शन वे पहले से ही जानते थे। मैं दोपहर की छुट्टी में जो घर गया तो वहीं रह गया। चश्मा भला कहाँ से लाता। वह चश्मा बाद में उस लड़के के घर में ही मिल गया। उस दिन मेरे पल्ले तो मार पड़ी। आगे से हमारे उस अध्यापक ने सत्य की परीक्षा करने के उस रास्ते को मुझ पर नहीं आजमाया।

मेरे पुत्तूर आकर बसने के काफी दिन बाद, मेरे एक सम्बन्धी ने कल्याणपुर के समीप के एक गाँव केम्मण्ण के एक घराने में रिश्ता किया। उस घर में शादी पर आये एक व्यक्ति से पता चला कि मेरे प्रथम गुरु रंगराय जी अभी उनके गाँव के समीप ही हैं। बहुत दिनों से उन्हें देखने की इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी । एक बार जब मैं उडपि गया था तब मेरे मित्र हरिदास भट्ट मुझे साथ लेकर केम्मण्ण के पास ही 'तोन्से' ले गये थे। हम समुद्र तट के उस गाँव में रंगराय का घर खोज कर जा पहुँचे। तब वे अस्सी से ऊपर के हो चुके थे। दूसरे लोग तो उनका नाम तक भूल चले थे। हम किसी तरह उनके घर पहुँचे थे। दरवाजा खोलने आयी महिला से मैंने कहा, "जाकर कह दो कि उनका एक शिष्य आया है।" तत्काल उस वयोवृद्ध व्यक्ति ने आकर मेरा स्वागत किया। बुढ़ापे के कारण उनके मुख पर कोई पुरानी छाया शेष न थी। मेरे "मैं शिवराम हूँ" कहते ही वे मुझे पहचान गये। उसका कारण यह था कि शुरू में जब वे हमारे गाँव आये तब वे हमारे घर पर ही ठहरे थे, उन्होंने मेरे बड़े भाइयों को भी पढ़ाया था। मेरे स्कूल जाना शुरू करने के पहले ही वे मुझे गोद में ले जाते और अपनी कुर्सी पर बिठा लेते थे ।

उन्होंने एक कहानी सुनायी जो मुझे मालूम नहीं थी। जब मेरा स्कूल में दाखिला कराया गया तब भी मैंने उस कुर्सी पर बैठने की जिद नहीं छोड़ी। इस पर गुरुजी ने अपने अधिकार का प्रथम परिचय कराया। एक चपत जमाकर मुझे अपनी जगह दिखायी।

मेरी वह भेंट लगभग साठ साल के बाद हुई थी। उस दर्शन के 'सुख को मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्हें एक शाल ओढ़ाकर, उनके पाँव छूकर, इस कृतज्ञ भाव से नमस्कार करके लौटा कि दूसरों ने भी मेरी बुद्धि रूपी बीज को शिक्षा के जल से सींचा था। ज्यों-ज्यों हम बड़े होते जाते हैं, त्यों-त्यों समाज के ऋण का भार भी ज्यादा होता जाता है न!

उन दिनों पाँचवीं क्लास पूरी होने तक हमें, माँ-बाप को पत्र लिखना सिखाने के अतिरिक्त, डिमाण्ड नोट, प्रोनोट, खरीददारी के कागज आदि व्यवहार के लिए आवश्यक बातें लिखनी सिखायी जाती थीं। हस्तलेख पढ़ने का भी अभ्यास कराया जाता था। पता नहीं शायद इसीलिए मेरी लिखाई इतनी खराब हो गयी कि उसे ब्रह्मा भी पढ़ नहीं पाता।

बचपन का स्वप्न साम्राज्य

हमारे स्कूल से बाहर की दुनिया बहुत सरल और सुन्दर थी। हम गाँव के मेले में बिना नागा जाते। कोटेश्वर का मेला, माता का मेला, शालिग्राम का मेला, घर के पास बड़े मन्दिर का मेला - इन सबमें जाते। उस बड़े मन्दिर का नया रथ हमारे घर पर ही तैयार हुआ था। हमारे घर की घुड़साल के पास ही एक छप्पर डाला गया था। उन दिनों हमारे गाँव में घोड़ा गाड़ी रखनेवाले सबसे पहले आदमी मेरे पिताजी ही थे। सफेद और भूरे दुरंगे घोड़े को मेरे पिताजी 'पंच कल्याणी' कहते थे। यह बात मुझे अब भी याद है। घोड़े की बात छोड़कर अब रथ की बात कहता हूँ। रथ तैयार करने के लिए कई बढ़ई साल भर काम करते थे। उस पर चित्र तराशने, छीलने और उकेरने के काम देखने में मुझे बड़ी आसक्ति थी । एकाध रथ आज भी हमारे घर में है। मेला शुरू होते ही रथ को फिर से सजाकर उसे खींचने तक हम उसे देखा करते। शाम की बलि, दीपोत्सव, रथारोहण, गाँव में भगवान की परिक्रमा लगाना यह सब एक भी बिना छोड़े हम देखा करते। ऐसे मौकों पर हमें अपने सम्बन्धियों के बच्चों से मिलने का अवसर मिल जाता था। मेला शुरू होते ही दुकानें लग जातीं। हम खिलौनों की दुकानों के सामने खड़े होकर प्रत्येक वस्तु का भाव-ताव करते और चवन्नी का माल एक पैसे में खरीदने की कोशिश करते । भड़भूजे की दुकान की चीजों को चख चखकर देखने में ही पेट भर लेते। पास तो एकाध इकन्नी ही होती पर व्यापार सैकड़ों का करने के समान दिखावा करते । चाँदनी में खेतों से फलियाँ चुराकर सुबह अलाव तैयार करके उन्हें भूनकर खाते । स्नान को तालाब पर जाते तो गँदले पानी को और भी गन्दा करके गाँव की स्त्रियों से डाँट खाते। अकेले रहते हुए हम बड़े सभ्य रहते थे, पर लड़कों का झुण्ड बनते ही हर प्रकार की लूट में सुध-बुध भूलकर भाग लेते।

मृत्यु का वैराग्य

दीपोत्सव हमें बड़ा अच्छा लगता था। दीपमाला, आतिशबाजी में सुर्री, बाण, चकरी, अनार, पटाखे आदि तो हमें दूसरे लोक की सैर ही करा डालते। सुखद इन यादों के साथ ही एक याद और चली आ रही है। हमारे घर के पासवाले शिव मन्दिर के मेले में आतिशबाजी करने को बम-पटाखे हमारे घर की एक कोठरी में लाकर भर दिये जाते थे। एक बार मेरी बड़ी मौसी का बेटा, जो हमारे ही घर में रहा करता था, हत्थेवाला दीया लेकर उस कमरे में गया। उसके हाथ से दीया छूट गया। बारूद में आग लग जाने से विस्फोट हो गया और उसका सारा शरीर जल गया। उसके झुलसे शरीर का चित्र आज भी मेरे सामने है। दो दिन बाद ही वह चल बसा था।

छुआछूत

अब गाँव की पाठशाला और घर के आचार-विचार तथा सार्वजनिक जीवन के बारे में दो बात कहूँगा। गाँव के मेलों में सैकड़ों लोग इकट्ठे होते थे। लेकिन उनका व्यवहार-व्यापार अपनी जातियों तक ही रहता था। ब्राह्मण जाति में पैदा होने के कारण अड़ोस-पड़ोस के एक-दो लड़कों के सिवा मेरे और ज्यादा दोस्त नहीं थे। छुआछूत माननेवाले हमारे घरवालों को शूद्रों के साथ हमारा खेलना पसन्द न था। तब भीलों (शराब उतारनेवालों) के बच्चों को स्कूल में दाखिला नहीं मिलता था। उन्हें छूने पर हमें नहाना पड़ता था। जब हम स्कूल जाते थे तब सामने से यदि होलेय (अछूत) आ जाता तो उसकी छाया से भी बचकर जाना होता था । दोपहर की धूप के समय जरा पास से निकला जा सकता था। स्कूल के कपड़े बाहर बरामदे में उतारकर हाथ-पाँव धोकर केवल कौपीनधारी होकर ही हम घर में भीतर घुस सकते थे। वह कौपीन भले ही कितना ही गन्दा क्यों न रहे, पर हमारा विश्वास था कि वह सदा शुद्ध ही रहता है। बच्चों के कपड़े छू जाने से हमारी माँ और दादी को कभी-कभी सात आठ बार नहाना पड़ जाता था। पिता जी जब दुकान से आते थे तब दुकान की छूत वाले कपड़े बाहर उतारकर पीताम्बर पहनकर भीतर खाना खाने घुसते थे। हम ही उनसे अच्छे थे। समुद्र के किनारे मेरी ताई का घर था। उनके घर का वातवरण बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि मैंने अपने उपन्यास 'मरळि मण्णिगे' ( माटी की ओर) में राम ऐताल के घर को दिखाया है। वे हमसे भी ज्यादा छुआछूत मानती थीं। उस घर के लोग अध्ययन, होम और यज्ञ में ही समय बिताते थे । वहाँ या अपने मामा के घर श्राद्ध आदि का बुलावा आने पर हमें खूब मौज उड़ाने का मौका मिलता। हमारा सारा समय समुद्र या तालाब में ही गुजरता। समुद्र में कूदना, बाहर रेत में लोटना, फिर पानी में कूदना यही हमारा धन्धा रहता, जो हम भूल ही नहीं सकते। उस उपन्यास के नायक 'राम ऐताल' ने जिस नदी को पार किया था हम उसमें किसी-न-किसी की नाव चुराकर नौका विहार करते थे। दो अलग-अलग नावों में खड़े होकर दल बाँधकर रेत के गोले बनाकर एक-दूसरे से युद्ध करते। उस समय हमारा जो रंग बिगड़ जाता था और कपड़े गन्दे होते थे वह सब हम माटी की सन्तानों को बड़ी ही पसन्द आनेवाली चीजें थीं।

खेती और खेल

हमारे यहाँ खेती-बाड़ी के सब काम मजदूरों द्वारा होते थे। पर हाई स्कूल की पढ़ाई खत्म होने पर छुट्टियों में हम भी घर के कामों में लग जाते। क्रिसमस की छुट्टियों में घर के चार बड़े आँगनों को पत्थर से रगड़-रगड़कर साफ-सुथरा करके चिकना कर देते। कुल्थी और उड़द के पौधे खेतों से उखाड़ने जाते। गर्मियों में ढोर चराते, मुर्गे-मुर्गियों से धान की पंजीरी बचाते, उसकी रखवाली करते। मैदानों में गर्मी महसूस करने के बदले हमें मजा ही आता था। गाँव के खेल गुल्ली- डण्डा, कबड्डी, पिट्टू, शेर, गाय - आदि हमारे मनोरंजन के साधन थे । बहुत सुविधाएँ न होने पर भी मन को प्रसन्न रखने को ये खेल हमारे लिए काफी थे ।

भैंसा-दौड़ की स्पर्धा

गाँव में भैंसा-दौड़ होने पर हम ब्राह्मण होने के कारण देखने नहीं जाते थे। तब हमारा विश्वास था कि वह शूद्रों का खेल है। हमारे गाँव से तीन कोस दूरी पर 'बण्डार' नाम का एक गाँव है। वहाँ की प्रसिद्ध भैंसा-दौड़ मैंने अपने चालीस पार करने के बाद देखी। उस खेल के उत्साह के क्या कहने ? एक दिन पहले ही बुलावा जाता और दूर-दूर से भैंसों की जोड़ियाँ उस बाजी में भाग लेने आ जाती थीं । सारी रात होलेय (अछूत) ढोल पीटते और बाजे बजाते हुए उनके साथ जाते। अगर कभी भैंस बीमार पड़ जाए तो लोग मन्नत मनाते कि हम बण्डार के स्पर्धा के मैदान में भैंसे को उतारेंगे। करीब-करीब हजार जोड़ियाँ उस स्पर्धा में भाग लेती हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पाँच-छः एकड़ के कीचड़ भरे मैदान में उन भैंसों की दौड़ हमारे गाँव के भैंसप्रिय लोगों के लिए एक उत्सव होती थी।

सार्वजनिक मनोरंजन

इसके अलावा हमारे गाँव का सार्वजनिक मनोरंजन दशावतार के नाटक थे। उनमें 'वर्धन्ती' और 'मारण कट्टे' आदि नाटक के रूप आज भी प्रसिद्ध हैं। हमारे गाँव में नाटक मण्डलियाँ अकसर आती रहती थीं। जब हम छोटे थे तब बयलाट (खुले मैदान में खेले जानेवाले नाटक) की वेष-भूषा देखने की बड़ी इच्छा रहा करती थी। जब मैं कोई तीन बरस का रहा हूँगा तब मैंने महाकाली (चण्डी) का वेश देखा था जो आज भी मेरे मन पर अंकित है। नाटक में रंग-बिरंगे वेष-भूषा पहने सुबह-सुबह आनेवाले पात्रों को देखने की प्रतीक्षा में हम छोटे-छोटे बच्चे खेल के मैदान में सोकर प्रतीक्षा करते। उप्रल्ली शेष की वेष-भूषा उस जमाने में हमें राक्षस लोक पहुँचा देती। वैसे हम गन्धर्व, किरात, कर्ण, शल्य आदि अद्भुत और आकर्षक वेष धारण करनेवाले पात्रों की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते। वे पात्र आज भी रंग-सज्जा और वेष-भूषा के अति उत्तम उदाहरण हैं। आजकल इस कला का स्तर घट गया है। उन दिनों पाण्डेश्वर पुट्टय्या का नृत्य बड़ा प्रसिद्ध था । उसी पुट्टय्या के एक बेटे ने आगे चलकर सिनेमा के क्षेत्र में खूब नाम कमाया। समय कला के प्रेम में भी परिवर्तन लाता है। वर्षा के दिनों में हमारे घर में रोज भागवत का वाचन चलता था। हमारे पड़ोसी एक मित्र भागवत पढ़ा करते थे और पिताजी उसका अर्थ बताया करते थे। मेरी दादी और माँ आदि सभी बड़ी भक्ति से सुना करतीं। हम भी कहानियों में उतनी ही रुचि लेकर सुनते। ऐसी कहानियाँ सुनने का हमें पूरा आनन्द तब आता जब हम अपने सम्बन्धियों के यहाँ जाते। हम सब वयस्क लड़के आधी रात तक कहानियाँ कहते और सुनते। उनमें दादी, राजकुमार और सूत-सीढ़ी वाली कहानियाँ कम होती थीं। कहानी के हास्य भाग को मजाक की बातों से पूरा कर लेते। इसी प्रकार पहेलियों में भी हमें बड़ा रस आता था ।

अद्भुत में विश्वास

मैंने अपने बचपन में अद्भुत घटनाएँ न ज्यादा सुनी थीं न देखी थीं। जब हम अपनी बड़ी मौसी के यहाँ जाते तब ऐसी बातें सुनने को मिलतीं। वहाँ 'अरम देव' के मन्दिर के पास रेत के टीले पर सैकड़ों चिकने बड़े-बड़े पत्थर थे। उस भगवान के चमत्कार से समुद्र में जाता एक जहाज टूट गया। उससे बचकर किनारे लगे नाविकों ने वहाँ पड़े पत्थरों से चूल्हा बनाया तो चावल के बर्तन में खून उबलने लगा। ऐसी ही एक और कहानी है। हमारे मौसा का अनिष्ट करने के लिए किसी ने 'मारण होम' किया था । स्थानीय मन्दिर, पीपल और बरगद के पेड़ों पर बसनेवाले भूतों की कहानियाँ भी प्रचलित थीं। यह सब हमारे मन को बहुत आकर्षित करतीं। उन्हीं दिनों एक बार हमारे पड़ोस का एक चौदह बरस का लड़का गुम हो गया। गाँववालों का कहना था कि यह सब भूत का उपद्रव है। तीन दिन बाद वह गाँव के मन्दिर की दुछत्ती में मिला। वह वहाँ बेहोश पड़ा हुआ था। ऐसी कहानियों के कारण हमें अदृश्य शक्तियों में एक विशिष्ट विश्वास जाग गया था।

शक्ति ही मृत्यु

अपने बचपन की एक और अद्भुत घटना मुझे याद है। हमारे गाँव में सुब्बण्णा होल्लर नाम के एक ब्राह्मण थे। मैंने जब उन्हें देखा था तब वे करीब पचास वर्ष के हो चुके थे। नाटा और गेहुँआ शरीर, कोई विशेष बात न होने पर भी यह प्रसिद्ध था कि उनके हाथ में गरुड़ रेखा है। प्रसिद्ध ही क्या, वे बीसियों बार नाग साँप अपने हाथ और गले में लपेटकर हमारे घर ले आये थे। वे बाँबी में हाथ डालकर नाग पकड़ लेते थे। सड़क के पासवाले हमारे घर के आँगन में उसे छोड़कर खिलाते भी थे। यदि साँप उनसे छूटकर भागने का प्रयास करता तो वे गुस्सा नहीं करते थे। उन्हें साँपों ने कई बार काटा भी था। काटे हुए शरीर की वे स्वमूत्र से चिकित्सा कर लेते थे। सर्पदंश की मूत्र चिकित्सा और भी बहुत से लोग करते हैं। एक दिन उन्होंने एक साँप को खूब छेड़कर बहुत गुस्सा कर दिया था। उन्होंने उसे काटने को एक पान का पत्ता आगे कर दिया, बाद में वह पान वे चबा गये। लोगों के सामने तो उन्होंने ऐसे प्रदर्शन किये पर अन्त में वे उसी के शिकार हो गये। यह प्राकृतिक शक्ति अन्तिम समय में उनकी सहायक क्यों नहीं हुई, यह मेरी समझ में नहीं आया।

नाग-नृत्य

हमारे गाँव के लोग नागपूजक हैं। नाग देवता पर उन्हें बड़ा विश्वास है। वे नागवन की पूजा करते हैं। यह नाग देवता दूसरों की तरह कुछ लोगों के शरीर में आता था। हमारे गाँव के नारायण ऐताल प्रसिद्ध नागपात्री या माध्यम थे। जब वे नाग के समान काँपते तो बिल्कुल कालिंग नाग ही लगते। उनके शरीर का रंग भी वैसा ही था। यह कोई विशेष बात न थी। 'नाग मण्डल' नाम की एक विशेष सर्पाराधना के समय उनका सर्पनृत्य देखने में बहुत अच्छा लगता था। पौ फटने के समय एक अलंकृत छप्पर के तले विचित्र आकार की रंग-बिरंगी रंगोली रची धरती पर यह नृत्य होता था। सामने एक-दो वैद्य (पुजारियों के दल) नाग सम्बन्धी गीत गाते हुए डमरू बजाकर गोल घूमते। उनके सामने नागपात्री (नाग माध्यम ) कालिंग सर्प की भाँति नाचता । तीन घण्टे तक अनेक भंगिमाओं में फँसने और छूटने का प्रयत्न करता-सा नाचता। वह सब देखने में अपूर्व था। तीस-चालीस वर्ष बीत जाने पर बचपन में देखा नाग-नृत्य आज भी याद है। आस्ट्रोलॉयड का सर्पनृत्य क्या ऐसा हो सकता है ? मुझे लगता है कि हमारे दक्षिणापथ की द्रविड संस्कृति का सही अवशेष ऐसी ही भूताराधना में है। इसके अतिरिक्त हमारे गाँव की दैवाराधना में निम्न जाति के पुजारी भूतों के वेष धारण करके कोल नाम के (छोटी जाति का एक उत्सव) उत्सव में नृत्य करते हैं। यह उत्सव मैंने अपने बचपन में नहीं देखा था। बाद में मैंने वह नृत्य अलग से देखा है।

अंग्रेज़ देवता

हमारे गाँव में दो-चार बरस में एक बार अंग्रेज़ लोग आया करते थे। घोड़े की बग्घी में बैठकर जिला अधिकारी वेल्स आये थे; जो मुझे अब भी याद है। तब हमारे लोगों के द्वारा उनके स्वागत की शान शौकत याद करें तो आजकल हमारे गवर्नर को भी वैसा सम्मान नहीं मिलेगा। पूरे रास्ते पर तोरण बँधते थे। एक बार उनका स्वागत नदी के किनारे हुआ। एक अलंकृत नौका पर बैठकर उन्होंने एक मील की यात्रा की। बाद में हमारे गाँव के प्रमुख गणपय्या हन्दे के घर उन्हें ले जाया गया। मैंने वह भव्य स्वागत देखा है। वहाँ भी बन्दनवार सजे थे । मण्डप अलंकृत किया गया था। रंग-बिरंगी और तरह-तरह की झण्डियाँ बँधी थीं, बन्दनवार बँधे थे। सिंघ, तुरही, नृसिंह आदि वाद्य सुनने और हाथी देखने को हजारों अधनंगे लोग इकट्ठे हो गये थे। जिन्होंने उनका स्वागत किया था उन्होंने उस रात के समारोह का आयोजन भी किया था। बाद में आनेवाले अंग्रेज़ अफसरों की ऐसी आवभगत नहीं हुई। हमारे बड़े-बूढ़े लोगों में कोचमैन साहब बड़े प्रसिद्ध थे। उन्होंने सारस्वत समाज की कहानी बतानेवाले 'इन्दिरा' नाम के उपन्यास का अँग्रेजी में अनुवाद किया था।

धूमकेतु

सन् 1910-11 में आकाश में बहुत दिनों तक एक बड़ा धूमकेतु दो-दो बार दिखाई पड़ा। हमारे लोगों का विश्वास था कि इससे राजा का अनिष्ट होगा। शायद उनके विश्वास को ही सत्य करने को सप्तम एडवर्ड चल बसा। दूसरे वर्ष जार्ज पंचम गद्दी पर बैठा। उस धूमकेतु ने शुभ और अशुभ दोनों फल दिखाये। जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार के समय (सन् 1911 दिसम्बर में) हमारे गाँव में भी उत्सव हुआ। तब अपनी कक्षा में शायद मैं ही होशियार रहा हूँगा या कोई बात होगी। जार्ज की तस्वीरवाले निकल का सिक्का मुझे मैडल के तौर पर मिला था। बहुत दिन तक मैं उसे पदक के रूप में गले में लटकाये रहा। उस उत्सव की रात की एक और घटना की याद मुझे अब भी है। हम सब रात का उत्सव देखकर लौट रहे थे कि तभी हमारे गाँव के ट्रेवलर्स बँगले को किसी ने आग लगा दी। तब एक अग्नि - उत्सव देखने को भी मिला। मैंने पहली बार ऐसी भयानक आग देखी थी ।

तोतारटन्त विद्या

मेरा जन्म 10 अक्टूबर, सन् 1902 में हुआ। उस दिन अष्टमी थी। लगभग सन् 1912 से कुन्दापुर के हाईस्कूल में पढ़ने गया । उससे पहले एलिमेण्टरी स्कूल में पाँचवीं तक पढ़ चुका था। पर अँग्रेजी की वजह से पुनः चौथी से आरम्भ करना पड़ा। कुन्दापुर हमारे गाँव से केवल सात-आठ मील दूरी पर है। मेरा सबसे बड़ा भाई तब कॉलेज में पढ़ता था। छुट्टी में आने पर ही उसके दर्शन होते। मेरे और दो बड़े भाई तब हाईस्कूल में पढ़ते थे। हमारे पिताजी ने सब बच्चों को अँग्रेजी पढ़ाने का प्रबन्ध किया था। उन दिनों हमारे गाँव में बच्चों की पढ़ाई के लिए ऐसी व्यवस्था करनेवाले थे ही नहीं। अच्छी जनसंख्या वाले गाँवों से भी सात- आठ घरों के लड़कों से ज्यादा उन दिनों अँग्रेजी पढ़ने नहीं जाते थे। हमारे गाँव के रईस ‘हन्दे' घराने के सभी बच्चे अँग्रेजी स्कूल में जाते थे। उनके अलावा ऐसा करनेवाले हमारे घर के लोग मुख्य थे। गाँव के शेष सात-आठ घरों से मिलकर भी हमारे एक घर के बराबर लड़के अँग्रेजी पढ़ने नहीं जाते थे। जब मैं हाईस्कूल में पढ़ने गया तब हमारे पिताजी ने हमें पढ़ने के लिए काफी सुविधाएँ दी थीं। मेरे भाइयों के भाग्य में बहुत समय तक होटल का खाना ही बदा था। मेरे कुन्दापुर जाने के बाद वहाँ हमारे लिए एक घर बनवाया गया। एक रसोइया रखा गया। वहाँ का वास सुविधाजनक था। उन दिनों हाईस्कूल के विद्यार्थी आज की तरह बन्दरों की-सी हरकतें नहीं करते थे। संसार के सुख-दुख से उनका परिचय रहता था। देखने में तो वे बड़े-बड़े दीखते थे, पर उनमें काफी लोग मूर्ख भी थे। जब मैं हाईस्कूल गया तब मेरे भाई के सहपाठी मेरे भी सहपाठी बने। जब मैं वहाँ की पढ़ाई पूरी करके निकला, तब भी कुछ लोग वहीं जमे रहे थे। उन्हें एक- एक क्लास में तीन-तीन वर्ष पढ़ने पर भी तृप्ति नहीं होती। उनके साथ फुटबाल खेलना हमारे जैसे लड़कों के लिए सम्भव ही नहीं था। उन मुश्टण्डों के साथ यदि हम खेलने जाते तो हमारी चटनी बन जाती।

हमारे स्कूल के खेल के मैदान में एक ऊँची सीढ़ी थी। स्लाइड; ट्रैफेज भी थे। डबल बार, सिंगल बार हार्स - यह सब कसरत की सामग्रियाँ भी थीं। कसरत को भी ड्रिल के समान ही प्रमुखता प्राप्त थी। इसके साथ क्लब, डम्बेल्स आदि कसरत के साधन थे। जब हम हाईस्कूल के फोर्थ फार्म पहुँचे तो यह सब खतम हो गये, केवल ड्रिल ही रह गयी थी। आजकल तो किसी भी स्कूल में ऐसे सर्कस के खेलों के समान खेलों के उपकरण हैं ही नहीं।

नींद प्यारी थी

स्कूल की पढ़ाई के बारे में कुछ ज्यादा कहने को नहीं है। शुरू से मैं स्कूल की किताबें कम पढ़ा करता था। उन दिनों एक आने में मिलनेवाली 'बुक्स फॉर दी बैराज' की कहानियाँ मुझे काफी प्रिय थीं। उन्हें मैं रात के समय पढ़ा करता था। यूँ कहिए कि उन्हें भी बहुत सरलता से नहीं पढ़ा। टेबल पर एक दीया होता था। वह चिमनी का नहीं होता था। बच्चों की आँखें खराब न हों यह कहकर होन्नहेण्णे वाला दीप ही रखा जाता था। उसकी एक तरफ मेरा भाई, दूसरी ओर मैं बैठा करते थे। सात बजे खाना खाकर पढ़ने बैठते ही निद्रादेवी मेरा पीछा करने लगती। मेरी पलकें मुँदते ही मेरे भाई का एक जोर का धौल पीठ पर पड़ता। इस प्रकार नौ बजे तक मुझे पढ़ाने का काम उसका था। उस भाई पर का गुस्सा मैं गाँव में जाकर उतारता था। वहाँ मैं ही पहले उसे मारकर साथ ही रोने लग जाता। दादी का निर्णय सदा मेरी तरफ ही होता। जब मैं नौवीं कक्षा में पहुँचा तभी मुझे भाई के अधिकार से मुक्ति मिली। वह और उससे छोटा मेरा दूसरा बड़ा भाई भी मंगलूर चले गये। तब मैं ही घर का राजा बन गया। मेरे साथ और दो छोटे भाई भी आ मिले।

मेरे बड़े भाई

मेरे बड़े भाइयों में दूसरा लक्ष्मीनारायण, विद्यार्थी जीवन में कसरत की जगह पर लकड़ी चीरता। बागवानी का उसे बहुत शौक था। उसे मेहनत के काम बहुत आते थे। वह सब कामों में एक समान उत्साह से भाग लेता, पर उतनी ही जल्दी उद्विग्न भी हो उठता। उसके बाद वाले भाई का नाम वासुदेव था। वह पढ़ने में बड़ा तेज था। मेरी और उसकी ज्यादा पटती थी। पर एक रहस्य की बात थी - वह सुँघनी का सेवन करता था। वह सुँघनी सबकी आँख बचाकर दुकान से लाने का काम मेरे जिम्मे था। उसने बी. ए. ( आनर्स) करके एल. टी. की। एक-दो वर्ष अध्यापक भी रहा। आगे टाटा इन्स्टीट्यूट से इंजीनियर बना। बाद में मद्रास सरकार का चीफ इलेक्ट्रिकल इन्स्पेक्टर बना। इस प्रकार कॉलेज की पढ़ाई शुरू होते-होते मुझसे भाई अलग होते चले । गर्मियों की छुट्टियों में ही हम सब घर में मिलते। प्रति सन्ध्या समुद्र के किनारे जाते । उन दिनों समुद्र का पागलपन हमारे घर के सब लोगों के अलावा और किसी को नहीं था। अमावस्या के दिन हमारे गाँववाले वहाँ स्नान के लिए अवश्य जाते थे। परन्तु समुद्र देखने की चीज है, यह बात उनकी परमार्थक बुद्धि को कभी सूझी नहीं ।

यह अहंकार है

स्कूल में दूसरों की पढ़ाई में और मेरी पढ़ाई में कोई अन्तर नहीं । इतनी याद है कि जब मैं हाईस्कूल के दूसरे वर्ष में था तो अपनी क्लास में प्रथम आया था। मेरे भाई का कहना था कि इसीलिए मेरा सिर फिर गया और मैंने अपना बेड़ा गर्क कर लिया। क्या मैं अपने घमण्ड को आप जान सकता था ? उसके बारे में लिखने के बदले अपने गुरु, मित्र और शरारतों के बारे में लिखना उचित होगा न!

नन्दलिके से तुलना

सबसे पहले मुझे अपने एक पुराने गुरुजी के बारे में कहना है। नन्दलिके लक्ष्मीनारायणप्पा और मेरे दोनों के गुरु एक ही थे, कहूँ तो आपको असूया हो सकती है। वे थे मळली सुब्राय । वे बड़े नाटे थे, चौड़ा मुँह था, बड़ी-बड़ी मूँछें थीं। क्लास में बैठते तो उनका स्वर उन्हीं को सुनाई देता था, आँखें बन्द करके ही पढ़ाते थे। उनके हाथ में सदा एक सोटा रहता था। उसी से अपराधियों को सजा देते। उन्होंने यक्षगान के कुछ प्रसंग लिखकर प्रकाशित करवाये थे। पता चला है कि कवि मुद्दण्णा को यक्षगान में रुचि उन्हीं से पैदा हुई थी।

हाईस्कूल की पढ़ाई माने मेरे कितने अध्यापक नहीं रहे होंगे ? यहाँ तो केवल स्मरण करने लायक कुछ लोगों की ही बातें बता रहा हूँ। जब मैं हाईस्कूल की पहली कक्षा में पढ़ता था तब एक कैथोलिक अध्यापक अँग्रेजी पढ़ाने आते थे। वे एक हाथ भर लम्बी छड़ी के बिना पढ़ा ही नहीं सकते थे। सुबह पढ़ाने आते समय ही खूब धुत्त होकर आते थे। नशा उतारने के लिए हमारे घर से छाछ मँगवाकर पीते थे। तभी जाकर विद्यार्थियों को शान्ति मिलती। ग्यारहवीं कक्षा तक उन्होंने हमारा पीछा किया। उनकी आँखें सदा लाल रहतीं। मुँह भी ऐसा ही रहता था। वे हमें अँग्रेजी पढ़ाते थे। इससे ज्यादा और कोई बात याद न होने पर भी मैं उन्हें भुला नहीं पाया। कुछ वर्ष पहले एक बार वे पौ फटने से पहले ही हमारे घर आये। आते ही “मैं तुम्हारा मास्टर रहा हूँ। तुम्हें याद है?" कहकर मुझे अचरज में डाल दिया। भला मुझे कैसे अचरज न होता ? तब वे पचहत्तर के हो चुके थे। उनका स्वागत करके कुछ भेंट देकर उन्हें विदा किया। उसके बाद वर्ष-दो वर्ष में एक बार शिष्य को आशीर्वाद देकर ही जाते। अस्सी वर्ष की आयु में भी वे मंगलूर से पुत्तूर तक बत्तीस मील पैदल चलकर आते रहे। उनकी शारीरिक चुस्ती से मैं हैरान रह गया। यह तो मैं कल्पना तक नहीं कर सकता। पता नहीं उन्हें किस शक्ति ने इतने समय तक उत्साहित रखा।

विद्यार्थी कुलगुरु

गैब्रियल कौण्ड्स अनेक पीढ़ियों से कुन्दापुर के विद्यार्थी समुदाय के लिए कुलगुरु थे। वे ड्राइंग सिखाते थे। ड्राइंग में पास न होनेवाले लड़कों को वे 'सूअर, कूर्म' की उपाधि देते। उनका निर्णय था कि ऐसा कूर्म और किसी विषय में पास नहीं हो सकता। विद्यार्थियों के हाथ के फुट रूलर ही उनकी शिक्षा का हथियार होता था। अपने विद्यार्थियों से वे बहुत प्यार करते थे। अपने पचासवें वर्ष में वे बम्बई में रहने लगे थे। वे जहाँ भी रहते ढूँढ़कर अपने विद्यार्थियों के यहाँ पहुँच जाते । उनके सुख-दुख को अपना समझकर उनसे पूछताछ करते रहते। बम्बई से कुन्दापुर आते-जाते । जब भी हमारे घर आते तब खट्टी लस्सी पीकर जाते थे। उनका उत्साह और प्रेम कभी नहीं घटा। उनके समान शिष्यों पर वात्सल्य रखनेवाले अध्यापक मैंने और कहीं नहीं देखे। शिष्यों की एक डायरेक्टरी ही उनके पास रहती थी। ऐसा कोई विद्यार्थी न था जो उनसे प्रेम न करता हो। दिल्ली से साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेकर जब मैं बम्बई गया तब बम्बई में मेरे स्वागत के लिए एक बृहद् आयोजन किया गया था। उस स्वागत समारोह के समय अपने गुरु श्री कौण्ड्स को वहाँ देखकर मुझे अत्यन्त सन्तोष हुआ था ।

भूत की करामात

एक अद्भुत घटना हमारे कौण्ड्स मास्टर साहब के घर में घटी जो मैंने अपनी आँखों से देखी। वे नये-नये प्रोटेस्टेण्ट क्रिश्चियन बने थे। फिर भी ब्राह्मणों के घर का साँबार और रसम् चखकर काफी सुधर चुके थे। उन्होंने एक बार गाँव के एक देवता का पत्थर लाकर अपने गुसलखाने में लगा लिया। तब से एक महीने तक रात-दिन उनके घर में उस देवता का उपद्रव जारी रहा। कोटेश्वर के मेले में पादरियों के साथ मिलकर 'मूर्तिपूजा' के विरुद्ध भाषण देनेवालों में वे भी एक थे। उन्हीं को वही पत्थर का देवता तंग करने लगा। घर के पिछवाड़े लगायी गयी सारी साग-सब्जी उजड़ गयी। कपड़े, बर्तन रखे रखे चूर-चूर होने लगे। कुछ दिन को घर में खाने के भी लाले पड़ गये। जहाँ-तहाँ आग का उत्पात होने लगा। वह उत्पात करनेवाला प्रेत केवल उनके घर की नौकरानी को ही दीखता था। वह दूसरों को दिखाई नहीं पड़ा, पर उसका प्रभाव जरूर दिखाई देता था। उसका उत्पात सहना उनके लिए असम्भव हो गया। हमारे मास्टर साहब ने एक दिन उस नौकरानी को भूत दिखाई देने की दिशा में गोली चलायी। बाद में तो उपद्रव सौ ने बढ़ गये। लगभग एक मास तक स्कूल के बच्चों के लिए उनका घर एक यात्रा-स्थल बना रहा। वहाँ कई अजीब-अजीब दृश्य दिखाई दिये । हमारे मास्टरजी के घरवालों को दूसरों के घरों में खाना खाना पड़ा। बाद में उनके उस भूत की शरण में जाने के बाद से ही उसका उपद्रव कम हुआ।

भोजन भट्ट

कौण्ड्स महोदय पेटू लड़कों के लिए एक आदर्श अध्यापक थे। एक बार एक स्पर्धा में उन महाशय ने सात सेर हलवा खाया था । शायद उन्हीं की स्फूर्ति से मैंने भी उनका शिष्यत्व सिद्ध करने को भोजन के बाद एक स्पर्धा में बत्तीस होळिगे (पूरन पूरी) खाये थे। मुझसे भी एक छोटा लड़का सैंतीस तक पहुँचा था । कौण्ड्स साहब ने एक बार एक छोटी-सी तलवार से एक चीते पर हमला किया। उसमें उन्हीं की जीत हुई। ऐसे गुरु को पसन्द करने के सिवा और किसे पसन्द किया जा सकता है ?

कन्नड़ के गुरु

कुन्दापुर स्कूल में मेरे पढ़ाई शुरू करने से पहले से ही शिवरामय्या कन्नड़ के पण्डित थे। उन्होंने हनुमद्रामायण का सम्पादन भी किया था। वे मंगलूर के थे । वे क्रोध के अवतार थे। उनके बाद उनके स्थान पर श्री ए. सीतरामय्या आये जो उतने ही शान्त थे । उन्होंने बड़े परिश्रम से विद्यार्जन किया था। काफी समय तक वे हमारे घर में ही रहे। उन्होंने हमारे लिए 'कर्नाटक पुस्तक भण्डार' नाम से एक पुस्तकालय खोला। पहली बार उन्होंने हमें कन्नड़ साहित्य के रस का पान करने का अवसर दिया। तभी मैंने वेंकटाचार्य, पुट्टण्णय्या, वासुदेवाचार्य, तिरुमलाब और चामराज नगर के वेंकटरमण शास्त्री आदि की रचनाएँ पढ़ीं। तब मैं हाईस्कूल के दूसरे साल में पढ़ता था । कृष्णसूक्ति, कादम्बरी संग्रह, सत्यवादी आदि पत्रिकाएँ मँगवाकर हम पढ़ते थे। इस प्रकार कन्नड़ साहित्य के प्रति रुचि अंकुरित करनेवाले पहले व्यक्ति श्री शिवरामय्या ही थे। तब मेरे पढ़े उपन्यासों में मैसूर के पुट्टष्णय्या का ‘मडिदुणों महाराज' (जैसा करोगे वैसा भरोगे) और बोलार बाबूराम का लिखा 'वाग्देवी' प्रमुख हैं। दोनों ही सामाजिक उपन्यास हैं। 'वाग्देवी' में उडुपि मठों का यथार्थ चित्रण है ।