पागल (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ

Pagal (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan

उस कार्यालय के सभी लोग अपनी-अपनी जिह्वाओं का इस्तेमाल पूँजी के रूप में किया करते थे। उनकी चतुर जिह्वा अपने अपने स्वार्थ की पूर्ति की मूल संपत्ति थी। वे सर्प-दानव की जिह्वा की तरह अविरत लपलपा रहे थे। जिह्वा से धारदार तलवार की तरह बातें निकलती थीं। जिह्वा के ऊपर और नीचे के नुकीले दाँत औरों को डँसने के लिए कटकटा रहे थे। सभी का मतलब सिर्फ दूसरों को अपनी व्यथा सुनाना था। साधु और संतों की तरह दूसरों को उपदेश देते थे, मानो वे किसी धर्म-प्रचारक के खास शिष्य बन गये हों। कइयों का मस्तिष्क कुटिल बुद्धि के साथ-साथ क्रोध और अहंकार से भरा हुआ था।

लेकिन उस कार्यालय के तृतीय श्रेणी कर्मचारी सदाशिव सबसे अलग किस्म के व्यक्ति थे। वे शान्त, नम्र, ईमानदार, मेहनती, नियमों के प्रति वचनबद्ध और सरलता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी चिंता-धारा हमेशा साधु-महात्माओंकी तरह होती थी। एक आदर्श नागरिक में जो सारे गुण होने चाहिए, वे सारे गुण उनमें थे। वे उपरिस्थ अधिकारी के आदेश और निर्देशों का पालन काफी निष्ठा के साथ किया करते थे। वे कभी किसी से अनावश्यक गपशप करते नहीं थे। जब बोलना जरूरी होता था, तभी बोलते थे। दूसरों के मामलों में टाँग अड़ाते हुए कभी टिप्पणी करते नहीं थे। सबकुछ सुनते थे,लेकिन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते नहीं थे। वे वास्तव में एक संवेदनशील और भावप्रवण व्यक्ति थे। उनका चेहरा हमेशा गंभीर दिखाई पड़ता था। चेहरे की गंभीरता के परदे पर उनके दु:ख की झलक दिखाई पड़ती थी।

सदाशिव हमेशा अपने काम में लगे रहते थे। दफ़्तर का काम करते समय उनका अपना कोई स्वार्थ होता नहीं था। जिसका स्वार्थ नहीं, वह दूसरों के प्रति आग्रह क्यों दिखाता। हमेशा अपने ही काम में लगे रहने वाला तथा दूसरों के प्रति आग्रह प्रकट न करने वाला व्यक्ति कैसा हो सकता है। इसलिए दूसरों की नजर में वे आत्मनिष्ठ...थे।

दफ़्तर का काम करने के लिए वे किसी से रिश्वत लेते नहीं थे। जो रिश्वत देना चाहता था, वे उसके काम को रोक देते थे। हालाँकि दफ़्तर में दूसरे कर्मचारियों को बंद लिफाफे में मेज के नीचे से रिश्वत लेते हुए उन्होंने देखा है और कभी-कभी उसका विरोध भी किया है। खुद रिश्वत न लेना और दूसरों के लेते समय बाधा उपजाने वाला व्यक्ति औरों की नजरों में क्या हो सकता है? इसलिए समाज से दुर्नीति और भ्रष्टाचार दूर करने के लिए और सामाजिक चेतना के निर्माण के लिए वे...!

वे कभी अफसरों को उपहार देते नहीं हैं। इसलिए वे राकेश, नरेश, प्रतिमा आदि सहकर्मियों की भाँति हाकिम के प्रिय पात्र नहीं है, न ही उनके हाथ का खिलौना हैं। वे समय पर दफ़्तर में पहुँचते हैं और दफ़्तर से सभी के लौटने के बाद ही लौटते हैं। इसलिए वे अपने काम के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हैं...!

खाने और पीने के प्रति उनका कोई लोभ नहीं हैं। रिश्वत के रुपये इकट्ठे करके दफ़्तर की तरफ से जो दावत और पिक्निक मनाये जाते हैं, उनमें वे हिस्सा लेते नहीं हैं। कम-से-कम इंसान का स्वादिष्ट भोजन के प्रति लोभ का होना स्वाभाविक है। जो आदमी स्वादिष्ट भोजन से विमुख रहता हो, अवश्य उसे...!

वे दूसरे सहकर्मियों के साथ कालोनी में रहते हैं, लेकिन उनकी जीवन-शैली काफी सरल है। दूसरों की बुराइयों को सुनना, बुरा कहना ओर बुरा देखना उन्हें पसन्द नहीं है। इसलिए वे अकेले ही प्रात:-भ्रमण में निकलते हैं और चाय की दुकान में दूसरों के साथ कभी चाय नहीं पीते हैं। औरों की नजरों में उनकी गिनती सामाजिक प्राणियों में होती नहीं है, इसलिए वे...!

वे कभी दफ़्तर की महिला कर्मचारियों से दाँत निपोरते हुए बतियाते नहीं हैं। उन्हें देख कर दूसरे पुरुष सहकर्मी जिस तरह उन्मादित होते हैं, उनमें ऐसी उन्मादना पनपती नहीं हैं। इसलिए अन्य पुरुष सहकर्मी बातचीत करते समय उनमें स्नायविक अस्वाभ़ाविकता के होने का जिक्र करते हुए हँसी मजाक में उन्हें किसी सेक्सोलोजिस्ट से सलाह-मशविरा करने को कहते हैं। चूँकि यौन जैसे संवेदनशील और गंभीर प्रसंग को लेकर वे अपने मित्रों के सामने किसी प्रकार का आग्रह प्रकाश करते नहीं हैं, इसलिए वे...!

वे कभी अपने अफसर को न मसका मारते है न उनकी खुशामद करते हैं। किसी के पास वे कभी भी सहायता की भीख माँगने जाते नहीं है, परन्तु हमेशा दूसरोंे को सहायाता पहुँचाने के लिए तैयार रहते हैं। अफसर के पास फाइल लेकर जब वे जाते हैं, तब यह सोचकर कि कहीं भूल-चूक न रह गयी हो, वे तनिक अधिक सिरिअॅस, नॅर्वस और गंभीर हो जाते हैं। अफसर ने कभी उनके चेहरे पर मुसकराहट देखी नहीं है। इसलिए वे हाकिम की नजरों में एक भिन्न किस्म के ...!

जिस दिन उनके विभाग की प्रमोशॅन-लिस्ट निकली, उसमें सदाशिव का नाम नहीं था। सभी आपस में फुसफुसा रहे थे कि पागल का प्रमोशन नहीं हुआ है। बेचारा मटियामेट हो गया। फिर भी वे स्थितप्रज्ञ थे। इस पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। लेकिन पत्नी के दबाव में आकर वे मजबूरन हाकिम के पास दुखड़ा सुनाने पहुँचे। कहा-“सर्! मुझे किस अपराध की सजा मिली है? सभी को प्रमोशॅन मिला, लेकिन आपने मेरे नाम की सिफारिश नहीं की? क्या मैं अच्छा काम नहीं कर रहा हूँ।”

हाकिम ने कहा-“सिर्फ काम और ईमानदारी जीवन में सब कुछ नहीं है। सबसे बड़ी बात है व्यक्ति का व्यवहार।”

सदाशिव ने पूछा-“ सर् ! आप मेरे व्यवहार से संतुष्ट नहीं है क्या? ”

हाकिम ने समझाया-“हाँ ! दफ़्तर के और लोगों से आपका कोई मतलब नहीं है। आप हमेशा गंभीर रहते हैं। आप एक आत्मस्वार्थी, आत्मनिष्ठ और आत्मनिविष्ठ व्यक्ति हैं। अर्थात् हमेशा आप सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं और अपनी ही चिंता करते हैं।”

सदाशिव ने उत्तर दिया-“आपको कैसे पता चला कि मैं हमेशा सिर्फ अपनी ही चिंता करता हूँ? बड़ी बात यह है कि मैं सरकार के लिए और देश के लोगों के लिए क्या करता हूँ । बड़ी बात यह नहीं है कि मैं क्या सोचता हूँ ।”

हाकिम ने कहा-“मैं तो वही बात कह रहा हूँ। काम करने से क्या होगा? आपके चेहरे पर कभी किसीने मुस्कान देखी है? मुझे नहीं पता कि आप किस दुनिया में जी रहे हैं। खुद को सुधारने की कोशिश कीजिए।”

उस दिन वे दु:खी मन से कार्यालय से लौटे। पता नहीं कि उनकी गलती क्या है जो हाकिम ने उन्हें सुधरने के लिए कहा। इस बात को सोचते-सोचते उन्हें सारी रात नींद नहीं आयी। सुबह-सुबह आईने के सामने खड़े होकर उन्होंने हँसने की कोशिश की। हँसने की कोशिश में वे अलग-अलग किस्म की आवाज निकालते रहे। उन्हें याद है कि जब वे दस साल के थे, तब एक सड़क हादसे में परिवार के सभी लोगों की मौत हो गयी थी। संयोग से वे अकेले बच गये और मामाजी के यहाँ पले-बसे। उस दिन से पता नहीं उनकी मुसकराहट कहीं गायब हो गयी। लेकिन मुसकराना अब उनके लिए निहायत जरूरी है। आईने के सामने खड़े होकर वे जोर- जोर से हँसने लगे। उनकी विकराल हँसी को सुनकर परिवार के सभी की नींद टूट गयी। पत्नी, बेटा, बेटी सब बिस्तर छोड़कर आये और देखा कि वे अलग-अलग हाव- भाव प्रदर्शन करते हुए बिना किसी कारण के जोर-जोर से हँस रहे हैं। सभी ने सोचा कि वे पागल हो गये हैं।

दिन के दस बजे दफ़्तर में पहुँचने के बाद सदाशिव ने जिस किसी को देखा, अपनी भौंहें ऊपर-नीचे नचाते हुए हौले-हौले मुसकराने लगे। उनकी मेज के पास जो भी आया, उसे देख कर हँसने लगे। चपरासी चाय लेकर आया, तो उसे देखकर तनिक हँसने लगे। दफ़्तर की अॅसिस्टेण्ट प्रतिमा फाइल लेकर आयी, तो उसे देख कर काफी फीकी मुस्कान बिखेर दी। सभी कानाफूसी करने लगे कि सदाशवि का पागलपन और बढ़ गया है। प्रतिमा ने शिकायत की कि सदाशिव की मुस्कान में मेरे लिए कुछ अलग और गलत इरादा भरा हुआ लगता है। इस बात को लेकर दफ़्तर में खूव चर्चा चली। जो व्यक्ति बिना किसी कारण के हँसता हो, वह पागल नहीं है तो और क्या है?

यदि सभी लोग बकरे को कुत्ता कहेंगे, तो बकरे को भी कुत्ता माना जाएगा। कार्यालय में सभी की नजर में सदाशिव पक्का पागल माने गये । कसरत के नाम पर विलासी व्यक्ति पचास बार दण्ड-बैठक लगाता है, सुबह-शाम भ्रमण करता है, व्यायामशाला में जाता है। हड्डीतोड़ मेहनत करने वाला मजदूर इसे पागलपन समझता है। पागल की बदनामी को ओढ़ कर सदाशिव जीने के लिए मजबूर हुए।

विभाग को मिलने वाले एक प्रकल्प के काम में भ्रष्टााचार का सूराख पाकर एक दिन अचानक विजिलॅन्स वालों ने कार्यालय पर छापा मारा। भ्रष्टाचार के आरोप में हाकिम बाबू के साथ राकेश, नरेश, प्रतिमा से पूछताछ हुई और उन्हें गिरपÌतार किया गया। उस दिन उनके सामने सदाशिव ठहाके लगाते हुए हँसने लगे। खिलखिला कर हँसते हुए देख उन्हें हाकिम ने चुप रहने की ताकीद की।

सदाशिव ने कहा-“ सर्! मैं हँस नहीं रहा था, इसलिए आपने मुझे पागल की उपाधि दी थी। अब हँस रहा हूँ, इसलिए मुझे पागल कह रहे हैं। नारी सहकर्मी के स्नेह- सौहार्द के लिए आप पागल हैं, रिश्वत लेने के लिए आप पागल हैं। आपको मसका मारकर प्रमोशन लेने के लिए और लोग पागल हैं। दफ़्तर में देर से पहुँच कर जल्दी जाने के लिए सभी पागल हैं। सरकारी कार्य के प्रति प्रतिबद्धता न रखते हुए, बिना काम किये तनखाह पाने के लिए भी सभी पागल हैं । सरकार की दौलत को लूटने के लिए सभी पागल हैं सर्! बताइए कि सचमुच पागल कौन है? मुझे पागल समझते हुए सचमुच आप पागल हो गये हैं। मैं आपकी तरह पागल नहीं हूँ...। ”

फिर वे कार्यालय में उन्हें सौंपे गये काम में मशगूल हो गये।

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