पद्मलता का स्वप्न (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Padmlata Ka Swapna (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
पति के घर से अपने पिता के घर-दूसरे शब्दों में, ससुराल से मैके आने की इच्छाअस्वाभाविक नहीं है। और फिर एक ही जगह रहते-रहते पैदा हुई ऊब को दूर करने के लिए भी लड़कियाँ अपने पिता के घर आना चाहती हैं।
नये ढंग से कुछ दिन जी लेने और मुक्ति की साँस लेने।
बाप के जिन्दा न रहने पर वे भाई के घर भी आती हैं। लेकिन जिसके न तो बाप जीवित हो और न कोई भाई ही हो-ऐसी पद्मलता क्या दोबारा अपने गाँव सोनापलाशी की धरती पर पाँव नहीं रख पाएगी? सोनापलाशी-जहाँ उसके बचपन और जवानी के दिन बीते थे।
भले ही सुख और शान्ति या कि बड़े सम्मान के साथ ये दिन बीते हों लेकिन दुख और अपमान भरे दिनों की स्मृतियों का भी आकर्षण कम नहीं होता। यह भी हो सकता है कि अपनी पहचान को एक बार फिर से पा लेने की या लोगों के बीच स्वयं को प्रतिष्ठित करने की प्रबल लेकिन दबी इच्छा पिछले सात वर्षों से पद्मलता के मन में रही हो।
सोनापलाशी के लोग जदु लाहिड़ी के घर की गरीब ब्राह्मणी महराजिन की बेटी 'पदि' को अचानक पद्मलतादेवी के रूप में देखकर हैरान रह जाएँगे। और यही देख पाने की इच्छा उसने अपने मन में सँजो रखी है। पिछले सात सालों से, दिन हो या रात, तिल-तिल कर इस पौध को इतना भरा-पूरा और हरा रखा है उसने। इसे अपने खयालों में बसा रखा है। कितने ही रंगों और उल्लास की छटाओं से इस चित्र को अंकित करती रही है।
इस प्रसन्नता के अलावा पद्मलता के जीवन में और किसी चीज की साध या सार्थकता नहीं रह गयी है। इसीलिए काफी कोशिशों और चिरौरियों के बाद पति की अनुमति प्राप्त कर वह इतने सालों बाद सोनापलाशी घूमने आयी है।
...और उसका यहाँ आना अकारण नहीं गया है। उसे अपने बीच देखकर सभी सचमुच हैरान रह गये हैं। इतने दिनों बाद, उसके यहाँ इस गाँव में आने पर नहीं बल्कि उसके बात-व्यवहार पर गाँववाले हैरान हैं। हैरान ही नहीं, कहना चाहिए कि एकदम ठगे-से रह गये हैं।
गुदड़ी में लाल कहावत तो बड़ी ही आम है-जिसे पद्मावती पर पूरी तरह लागू कहा जा सकता है। इसमें सन्देह की जरा भी गुंजाइश नहीं। लड़ाई का जमाना है यह-युद्ध-युग। इस युग के शब्दकोश में असम्भव या नामुमकिन जैसा कोई शब्द नहीं। सब कुछ सम्भव है...मुमकिन है। लड़ाई की इस हवाई आँधी में बहुतों के चेहरों से चिपका मुखौटा उतर गया है। इस झंझा में उनके मनसूबी किले और हौसले पत्तों की तरह उड़ गये हैं।
किसी गोबर बीनने वाली को रातों-रात राजरानी होता देखकर मैं एक बार गहरी साँस लेकर हैरान तो होऊँगी लेकिन इस बात पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं है। इसीलिए जदु लाहिड़ी की गरीब ब्राह्मणी महराजिन की बिटिया 'पदि' अचानक ‘सोने की चिड़िया' बनकर अगर सिर्फ लाल और मोती चुगने लगे तो इसमें भला हैरानी की क्या बात हो सकती है !
ऐसी सुखद स्थिति में, जो उससे स्नेह रखते हैं, अभिभूत ही होंगे।
पद्मलता का बिन्दास स्कूल मास्टर पति अगर 'मिलटरी ठेके' की सुनहरी सीढ़ियाँ चढ़कर एक स्वर्ग जैसा पक्का दालान बना सकता है तो क्या वह गाँव के दो-चार अनाथ लड़कों के लिए नौकरी का जुगाड़ नहीं कर सकता ? और क्या पद्मलता स्वयं दो-एक असहाय विधवाओं की बेटी का उद्धार नहीं कर सकती। जो गाँव के पास वाले स्टेशन पर उतरने के साथ ही दोनों हाथों से पैसे लुटाते-लुटाते आ रही थी, उसे यहाँ आये अभी दो ही दिन तो हुए हैं लेकिन इस बीच गाड़ीवान रतन से लेकर कालीबाड़ी के पुरोहित भट्टाचार्य तक उसके गुणों का बखान करते नहीं थकते।...ऐसी उदार दृष्टि इस संसार में सचमुच बहुत दुर्लभ है।
पद्मलता की हँसी कैसी अनुपम है, उसकी बातें कितनी मीठी हैं और उसके व्यवहार की तो जैसे कोई सानी ही नहीं है। यह आज की ही बात नहीं, बचपन से ही उसके बात-बर्ताव की कोई तुलना नहीं और इस बात को कौन नहीं जानता? आज उसी पद्मलता को लेकर छीना-झपटी मच जाएगी, यह स्वाभाविक ही था।
गिने हुए चार दिनों के पहरे पर आयी पद्मलता के लिए यह बहुत ही कठिन हो गया है कि वह किसका निमन्त्रण स्वीकार करे और किसके यहाँ न जाए ?...इतने दिनों के बाद लाहिड़ी परिवार में कैसी धूम मची है ? आने वालों का तांता लगा हुआ है। अपनी सहज मुस्कान और साथ ही चुस्त और चौकस मेहमाननवाजी से पद्मलता उन्हें खिला-पिला रही है। ऐसा जान पड़ता है कि वही इस घर की मालकिन है।
जदु लाहिड़ी के गुजर जाने के बाद, परिवार के लोगों के बीच बोलचाल तक बन्द हो गयी थी। पद्मलता के आने पर उनका मन-मुटाव दूर हुआ और प्रेम के मीठे बोल फूटे।
जब लोग उठने को हुए तो प्रणामी में मिले रुपये को आँचल में बाँधते हुए सत्यबाला ने अपने स्वर में शहद घोलकर और गद्गद कण्ठ से पद्मलता से अनुरोध किया, "कल मेरे यहाँ आकर भी, बस कहने के लिए ही सही...मछली-भात खा जाना, पद्मा रानी ! मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगी। हाँ !"
"लेकिन रायबाड़ी की ताई तो मुझे पहले से ही कह गयी हैं, बुआ !" पद्मलता का उत्तर भी विनय की चाशनी में लिपटा हुआ था, “अगर वहाँ नहीं जा पायी तो बुरा नहीं मान जाएँगे? तुम्हीं बताओ?"
“लो...यह रायबाड़ी की ताई हमारे बीच कहाँ से आ टपकी भला ! ओ...वही मुकुन्द राय की भावज... । अब समझी ! दावत खिलाने के बहाने खुशामद करने पर उतर आयी है वह। देखो बेटी, मैं तो खरी बात कहूँगी, हाँ ! बुरा मानो या भला !"
"नहीं बुआ, यह आप क्या कह रही हैं ?" पद्मा ने आगे कहा, "मैं कहाँ की लाट हूँ कि कोई मेरी खुशामद करने लगा...नहीं बुआ। ताई बहुत जोर देकर कह गयी हैं इसीलिए मैं कह रही..."
"हाँ बेटी, हम लोग तो बहुत जोर देकर तुम्हें कह भी नहीं सकते ? लेकिन यह भी सुन लो बेटी कि हम बहुत बढ़ा-चढ़ाकर तुम्हें कहें भी क्यों ? क्या तुम परायी हो ? लेकिन इन सबसे पहले तुम पर मेरा अधिकार है, यह बता देती हूँ। शायद तुम्हें याद हो न हो...तेरी माँ मुझ पर कितनी श्रद्धा-भक्ति रखती थी ? सत्या दीदी...सत्या दीदी...की रट लगाये रहती थी। बोलते-बोलते बेहोश हो जाती थी। सारी आपसी बातों को अब खोलकर या खोदकर कहाँ तक बताया-बुझाया जा सकता है...!"
लेकिन यह सारा बुझौवल बुझाने की जरूरत भी क्या है ?
पद्मलता सोलह साल की उम्र तक इस गाँव का दाना-पानी पाती रही है।
न जाने कितने अपमान भरे घूट और अवसाद के क्षण !
वह भला कैसे भूल सकती है ? उसकी माँ सत्यबाला बुआ की जुबान से टपकता जहर कितनी खामोशी से पीती रही थी-इस 'श्रद्धा-भक्ति' के नाम पर। पद्मा की याददाश्त क्या इतनी ही कमजोर है कि वह यह सब कुछ भूल जाएगी ?
अपनी माँ के लिए पद्मलता को बहुत दुख नहीं होता। उसकी याद आने पर उसकी स्मृतियों के समुद्र में जैसे ज्वार-भाटा-सा उठने लगता है। हाँ, इसे याद है, लाहिड़ी परिवार के इसी दालान में, सर्दी की ठिठुरती रात में, हड्डियों में सुइयाँ चुभोती बर्फीली हवा झेलती एक दुबली-पतली और बीमार विधवा लगातार खाँसती चली जा रही है। यह मुई खाँसी बारह महीने जिसके पीछे लगी रहती है। लट्ठे की मोटी धोती का आँचल बार-बार अपने सीने पर खींचकर ठण्ड से बचने की असफल-सी कोशिश करती...और फिर इसके साथ ही घर-संसार के अगले दिन के तमाम कामों को सहेजने-समेटने लगती है। लेकिन इन ढेर सारे कामों के बीच एक चीज जो लगातार उसके साथ लगी रहती है, वह है उसकी खाँसी। उसकी खाँसी की ठन-ठन अब भी इस दालान के मेहराबों और छज्जों से चिपकी हुई है और अब भी जब रात गहरा जाती है तो ऐसा जान पड़ता है कि उसके खाँसने की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी।
उसी औरत के पीछे-पीछे एक छोटी-सी लड़की चक्कर काटती रहती है। उसकी देह पर भी कोई गर्म कपड़ा नहीं है। वह जदु लाहिड़ी की नातिनों-पोतिनों में से किसी की उतरन पहने है जिसमें ढेर सारे पैबन्द लगे हैं। चीथड़ों और कतरनों से भरे मोटे कपड़े का घाघरा पहनकर वह डोल रही है।
अपनी माँ से अपने सीने को सटाकर थोड़ी-बहुत गर्मी महसूस की जा सकती है लेकिन गर्दन को रेतने वाली कटार की तेज धार को झेलते-झेलते ऐसा भी होता है कि वह इस तरफ से उदासीन हो जाती है।...तब शायद सर्दी का अहसास नहीं रहता। शरीर की दो-एक जगहों पर चिनचिनाती चिकोटी काटे जाते रहने के अहसास के अलावा। परेशानी होती है इन दोनों हाथों को लेकर। बरफ के टुकड़ों की तरह छोटे-छोटे हाथों से माँ के कामों में, जहाँ तक सम्भव हो सकता है, हाथ बँटाती है...पानी में काम करते हुए जब उँगलियाँ अचानक अकड़ जाती हैं...ऐसे मौके पर उसकी माँ का काम दुगुना हो जाता है। तब लालटेन के माथे पर आँचल रखकर वह बिटिया के छोटे-छोटे हाथ-पाँव सेंक देती है...उसे अपनी गोद में खींचकर उससे बकती-झकती है। उसे मीठी झिड़की पिलाती हुई कहती है, “तू इस काटती ठण्ड में क्यों दौड़ती-भागती रहती है, बिटिया ! देख अभी कितना सारा काम बाकी रह गया है।...मैं यहाँ खाना पकाने के लिए रखी गयी हूँ रे !"...लेकिन खाना पकाने का काम खतम हो जाने पर भी उसे छुट्टी नहीं मिलती है। उसे पता है कि किसी अबोध बालिका के लिए दो मुट्ठी भात जुटाना कितना मुश्किल है ! भले ही वह छोटे-मोटे कामों में उसकी सहायता कर दिया करे।
...तभी वह बार-बार अपनी बिटिया को बिछौने पर सो जाने को कहती है। लेकिन अँधेरे और बुझे कमरे की खाली चारपाई पर बिछे बासी बिछौने की याद से ही बेचारी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसके चीकट तकिये पर पता नहीं कौन, पानी उँडेल जाता है।...वह माँ के नरम-गरम कलेजे में दुबककर न सोए तो फिर और कहाँ जाए ? यही नहीं, दुनिया भर के तमाम भूत-प्रेत, दैत्य-दानव क्या उसके इर्द-गिर्द झुण्ड बाँधे...अपने अंजर-पंजर छितराये और मुँह बाये इस कमरे की पलस्तर उधड़ी दीवारों से सटे-घुप्प अँधेरे कोने में खड़े नहीं ?
जदु लाहिड़ी की बीमार पत्नी अपने आप उठकर बैठ नहीं सकती। लेकिन दुनिया भर की खबरें उसके कानों तक कैसे पहुँच जाती हैं, यह सचमुच हैरानी की बात है।...दीये का लोभ दिखाकर और आँचल की ओट में पद्मा को बिछावन तक ले जाने के बीच भी लाहिड़ी की पत्नी की उखड़ी-उखड़ी लेकिन खीजभरी आवाज कानों में पड़ती रहती..."अरी ओ नवाब की शहजादी...बेटी को लाड़-दुलारकर इतना सर पर मत चढ़ाओ...दीये का तेल कोई हराम का नहीं आता।...दिमाग में कोई बात टिक पाती तो मेरी बक-झक भी कम होती। और दो-दो लोगों के खाने-पीने...कपड़े-लत्ते का जुगाड़ कोई बच्चों का खेल नहीं। पता नहीं, घर में ऐसा कितना काम है कि माँ-बेटी...दोनों की दोनों...दिन-दोपहर-साँझ-रात डोलती फिरती हैं...आखिर करती क्या रहती हो...? अपने आराम के लिए दिन का काम रात में और रात का काम दिन में...है न ! बाम्हन की बेटी हो...कभी फुरसत मिले तो बैठकर हिसाब लगाना कि इन महीनों में कितना किरासन तेल फूंका गया ?..हाँ...दूसरे का पैसा है तो कलेजे में पीर कैसी ? वो कहावत है न... मोल-तोल किस बात की जब मिले मुफत में माल।' तुम दोनों का बस यही हाल है।...और मैं भी ऐसी दुर्गत में पड़ी हूँ कि तुम जैसी बेईमान को पालना पड़ रहा है...।"
जदु लाहिड़ी की पत्नी बोलना शुरू करती है तो थमती नहीं।
दीये की लौ तब तक दम तोड़ चुकी है।...भूत और प्रेत का भय और चाहे किसी को जितना भी सताए...लाहिड़ी की घरवाली का इससे कुछ आता-जाता नहीं।...बारिश के दिनों में पानी में छपछप करते और घुटने तक कीचड़ में लिथड़े, माँ के साथ-साथ पोखर के घाट तक जाने और फिर वापस लौटने की यादें सुख और दुख दोनों से भरी हैं। कभी-कभी तो इसमें बड़ा मजा आता। लेकिन जब माँ की खाँसी बढ़ जाती तो फिर बड़ी परेशानी होती। उस दिन जी में यही आता कि माँ और बेटी रात और दिन चीथड़े पर लेटकर ही बिता देंगी। भात खाने की भी क्या जरूरत है ? दो-चार दिन नहीं खाएंगे तो क्या हो जाएगा ? लेकिन जरूरत नहीं है...ऐसा कह देने से ही तो जरूरत नहीं मिट जाती।...तो भी एक नन्ही-सी जान को उसने यह जता दिया था।...
ऐसी ही परिस्थितियों के बीच एक और दृश्य उसे याद आता है...यही तो वह घर और दालान था...लेकिन वे दोनों जैसे कोई और थीं।...ताँबई रंग, दुबले-पतले हाथ-पाँव, फटी-चिटी फ्रॉक वाली वह लड़की अब नये यौवनागम के साथ सुडौल और स्वस्थ युवती में परिवर्तित हो गयी थी...एक अदद साड़ी में अब उसकी लाज नहीं टैंक पाती...काटती ठण्ड से बच पाने की अपेक्षा कहीं अधिक कष्टकर है छोटी बहर और अरज की साड़ी से अपनी लाज ढंक पाने की चेष्टा। लेकिन तो भी सिमटते-सकुचाते वह घर-संसार का सारा काम करती है। अपनी बीमार विधवा माँ पर उसकी प्यार भरी देखभाल का कोई अन्त नहीं है। लेकिन माँ है कि उसे भोर हो जाने के बावजूद लोरी सुनाती रहती है। बिटिया माँ की ओर देखकर हँसती है और झिड़कती है, "क्यों...तुम अकेली क्यों नहीं जा सकती...मैं भी तो सुनूँ ? डर लगता है ? क्या तुम्हें कोई भूत भकोस लेगा ?"
माँ उसे किस तरह समझाए कि भूत-प्रेत से नहीं उसे अपनी नवयौवना बेटी से डर लगने लगा है। एक असहाय विधवा की बेटी की उमर का तेजी से बढ़ना ही अपने आप में एक अपराध है और ऊपर से यह रूप। बेटी अनमने ढंग से चलती-फिरती-डोलती है और माँ मुग्ध मन से उसे हेरा करती है। हाँ, उसका पद्मा नाम रखा जाना एकदम सार्थक हुआ है। दोनों पाँव कमल के जुड़वाँ फूल की तरह खिले हैं। लेकिन उसके शरीर की बाढ़ इतनी क्यों है भला ? अपमान और दुतकार से मिले अन्न का ऐसा जोर और ज्वार ?
जदु लाहिड़ी की पत्नी अब चाहे गुस्सा करे या न करे। उसकी दोनों नातिनें मलेरिया की चपेट में फँसकर अस्थिपंजर जैसी दीख पड़ती हैं...काली चमगादड़ जैसी...चमड़े से मढ़ी। और इधर यह लड़की पद्मा...चौदह साल की उम्र में ही ऐसी निखर गयी है कि उस पर आँख नहीं ठहरती। सुनने में भले ही उसे बुरा लगे तो लगे...लेकिन बुढ़िया उसे उलाहना देती हुई कहती, “अरी ओ पद्मा...सुन रही है न...भात थोड़ा कम ही भकोसा कर...पराया माल समझकर सब कुछ डकार मत जाया कर। दिनों-दिन हाथिन की तरह फैलती-डोलती जा रही है और यह सब देख-देखकर ही तेरी माँ की देह का सारा खून पानी होता जा रहा है...।"
तब अपमान का इतना सारा जहर पीकर भी, पद्मा ने हँसते हुए कहा था, "माँ की देह में अब खून है भी कहाँ, नानी...? सब पानी हो गया है।" लेकिन इतना सुनना था कि बुढ़िया नानी ने पद्मा के बड़बोलेपन और शेखी की दुहाई देते हुए सारा आसमान ही सर पर उठा लिया था। अगर वह ऐसा न करती तो लोग सारा दोष लाहिड़ी की घरवाली के ही सिर मढ़ देते।
लेकिन बात लाहिड़ी की घरवाली की ही नहीं थी। पास-पड़ोस के सभी लोगों को पद्मा के बारे में अपनी राय दिये बिना चैन न था। जैसे यही उनका मुख-रोचक था...
- “पद्मा का रूप आँखों को सालता रहता है...उसकी चाल-ढाल से चिढ़ होती है। उसके उभारों को देखकर देह में आग-सी लग जाती है..."
-“पद्मा का चाल-चलन ठीक नहीं है...और उसका बात-व्यवहार...खैर, जाने भी दो...यह वह पद्मा नहीं है जो...वह तो कब की मर चुकी...।"
जितने मुँह उतनी बातें।
लेकिन 'पद्मलता' को पा लेने में किसी को आपत्ति नहीं है।
जदु लाहिड़ी की घरवाली, मोतियाबिन्द वाली आँखों के सामने से धुंधला-सा पर्दा हटाती और जैसे चीख पड़ती, “अरे यह कोई छोरी-चोरी नहीं है, साक्षात् लक्ष्मी की छाया है...बचपन से ही तो देख रही हूँ... । इसके रूप-गुण...कोई ओर-छोर नहीं। नसीब का कैसा खेल है कि इसकी माँ ने पहले ही आँखें मूंद लीं। अरे तेरी माँ नहीं रही...लेकिन हम लोग तो नहीं मर गये...अरे साल-छह महीने में आती रहना ! एकदम बिसरा ही मत देना। आखिर मेरी कमली और विमली से तू कोई अलग थोड़े ही है...।"
उसे पता था कि वह इन दोनों से बहुत अलग है। कमला और विमला की तरह पद्मा नानी को 'कलमुँही' नहीं कहती।...
और उसी पद्मलता ने बिस्तर पर पड़ी बुढ़िया नानी को तीरथ पर जाने के लिए अभी-अभी तीन सौ रुपये दिये हैं-नकद।
राय परिवार के यहाँ निमन्त्रण पर जाना एक और यादगार घटना है।
यह कोई आज की बात नहीं, अतीत का इतिहास है। मुकुन्द राय की माँ के , व्रत-उद्यापन से जुड़ी घटना। लाहिड़ी घराने के भी सारे लोग वहाँ मौजूद थे।...इसलिए पद्मा की माँ भी वहाँ काम-काज करने के लिए बुलायी गयी थी। और तभी इन सबके बीच, भोजन परोसने वाले एक लड़के ने पद्मा को भी ब्राह्मण कन्याओं की पाँत में बिठा दिया था। यह लड़का दूसरा कोई नहीं, सान्याल परिवार का मुरारि था। इस बात को लेकर पास-पड़ोस के लोग आपस में गाहे-बगाहे चुगली तो खाते ही थे, दोनों को खासा बदनाम करते रहते थे।...सदा सच बोलनेवाली सत्यबाला पद्मा की माँ को ऐसा पाठ पढ़ाती रही कि बेचारी के पाँव के नीचे से धरती खिसकती जान पड़ी।...रास्ते या घाट पर अगर कच्ची उमर की लड़की और लड़के में बातचीत हो गयी या हँसी-ठट्ठा हो गया तो फिर बाकी क्या बचा...?
गनीमत है कि यह सब कुछ सिर्फ सत्यबाला ने ही देखा है। अगर किसी और ने देखा होता तो बेटी के हाथ पीले कर पाना बड़ा मुश्किल हो जाता। है कि नहीं... लोगों से पूछ लो...!
लेकिन ऐसी कोई परेशानी सामने नहीं आयी।...उसी महीने कुछेक शुभचिन्तकों की सहायता से पद्मा का विवाह सम्पन्न हो गया। लड़का मैट्रिक पास था। एक नामालूम-से गाँव में स्कूल मास्टर था। तीस रुपये माहवार पर । तरक्की मिलती गयी तो सत्तर रुपये मिलेंगे। लेकिन अभी उस बात को जाने दें। पद्मा के विवाह से इस घटना का कुछ लेना-देना नहीं। अभी तो राय-बाड़ी दावत की यादें ही मुखर हो चली हैं।...
...कतार में उसे बैठने नहीं दिया...हाथ पकड़कर उठा दिया गया था। इशारों, संकेतों और फब्तियों की आँधी-सी उठी थी...और इसी हंगामे के दौरान मुकुन्द राय की बड़ी बेटी निभाननी अचानक उठ खड़ी हुई थी और उसने तब जो कुछ कहा था वह बहुत गलत नहीं था।..."सच ही तो है...दूसरे के घर की रसोई तैयार करनेवाली की बेटी को ब्राह्मण-कन्याओं के बीच बिठाकर ऐसा आदर दिया जाने लगा तो बेचारे तिलचट्टे का क्या कसूर है ? उसे भी पंछी का दर्जा दे दिया जाना चाहिए।"...
सीढ़ियों से ऊपर दोतल्ले के दालान पर पाँव रखते हुए सात-आठ साल पहले वाली घटना उसके मानस में गूंज पैदा कर रही थी लेकिन...तभी उसका ध्यान मुकुन्द राय की पतोहू ने अपनी ओर खींचा और मुस्कराती हुई बोली, “आओ ननद...चलो, तुम्हें इस बात की सुध तो आयी कि तुम्हारी कोई भावज भी है...यहाँ आकर भी एक बार हमारी तरफ रुख तक नहीं किया तुमने ?"
"क्या बताऊँ, भौजी...यहाँ पिछले तीन दिनों से घूमती ही तो रही हूँ।...बस ले-देकर चार दिनों के लिए आना हो पाया है। किसी से अच्छी तरह भेंट तक नहीं कर पायी।"
"बहाने मत बनाओ, बहना ! इतने दिनों के बाद आयी हो...वो भी चार दिनों के लिए ? अपने पति को चिट्ठी लिख भेजो कि इतने दिनों तक खूब मजे उड़ा लिये...अब कुछ दिन हमारे लिए भी रख छोड़ें। और फिर वे तो दुनिया भर के कामों में फँसे रहते हैं, अपने कारोबार में मस्त...फिर यह बीवी-बीवी की रट कैसी?"
"अरी इसी परेशानी के चलते तो आ नहीं पाती कभी ! उनकी सारी देखभाल करनी पड़ती है। अकेले आदमी हैं !"
ऐसा कहते हुए पद्मा के होठों पर खिंच जाती उसके ऐश्वर्य और समृद्धि की रेखा...एक चमकीली मुस्कान बनकर।
थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद असली बात बहू की जुबान पर आ ही गयी, "ननद जी, लगता है तुम देह पर कोई ज्यादा जेवर-जेवरात डालना पसन्द नहीं करती हो...है न...?"
सवाल सचमुच बहुत टेढ़ा था। और पद्मलता ने थोड़े-बहुत जो आभूषण पहन रखे थे वे उसकी पद-मर्यादा के मुकाबले कुछ कम थे। यह आपत्ति पिछले तीन दिनों में अब तक क्यों न उठायी गयी थी, सचमुच आश्चर्य की बात थी ! चाँदी की उजली आभा में सोने का अभाव अब तक लोगों की आँखों में नहीं पड़ा था।
चाँदी की औकात को नीची निगाह से देखने पर वह सोने के मुकाबले अवश्य ही अपराधन बन जाती है। इस बात को सभी जानते हैं।
पद्मलता के चेहरे पर सन्तोष की आभा चमक उठी। वह मधुर मुस्कान के साथ बोली, "अरे क्या बताऊँ...तुम्हारे ननदोई साहब ने सारे गहने अलग उठा रखे
“यह भी कोई बात हुई...दुर्गा-दुर्गा... । क्या कह रही हो तुम ?"
“अब और क्या बताऊँ बहना...मेरे पति का मानना है कि गाँव और कस्बों में चोर-उचक्के और डाकुओं का बहुत जोर होता है। देह पर भारी गहना देखकर वे इसे पहननेवाली को ही उठाकर चम्पत न हो जाएँ। तभी उन्होंने कहा, 'रुपये-पैसे चाहे जितने ले जाओ लेकिन जेवरात...एकदम नहीं।...' इसी डर से और एक सुहागिन के लिए जितना जरूरी है, हाथ-पाँव, नाक-कान में थोड़ा-बहुत डाल रखा है...और क्या ! हाँ...तो मैं क्या कह रही थी भाभी, वह गिरि वाला ताँतन अब है कि नहीं?"
"हाँ, जिन्दा है लेकिन साड़ियों का दाम इतना ज्यादा बढ़ गया है कि कुछ न पूछो।"
“दाम चाहे जो भी हो...अच्छी किनारी वाली पन्द्रह-बीस साड़ियाँ मिल जाएँगी न...!"
“पन्द्रह-बीस साड़ियाँ...? इन्हें एक-साथ ही डालना है क्या ?" बहू की आँखें फटी रह गयीं।
“नहीं, सब अपने लिए नहीं। दरअसल इतने दिनों के बाद यहाँ आयी हूँ। तुम लोगों को प्रणामी भी न दूँ...तो मुझे अच्छा लगेगा ?"
"इन सबको... । अड़ोस-पड़ोस में सबको !"
“यह सब तुम्हारा आशीर्वाद है, भाभी !"
इसके बाद जेवरों की कमी के बारे में अब किसी तरह का सन्देह करने की गुंजाइश कैसे रह सकती थी भला ? मुकुन्द राय की बड़ी भावज के पास उसे बिठाकर और उसे बड़े प्यार से खिलाने-पिलाने के बाद, इतने कम समय के लिए मैके आने की बात पर उसने उसे जी भरकर कोसा।
लेकिन पद्मलता को इस बात का कोई पछतावा न था।
जदु लाहिड़ी के यहाँ खाना पकानेवाली की बेटी 'पदमिया' को फूंक-तापकर सोनापलाशी ग्राम में एक नयी पद्मलता को प्रतिष्ठित करने वाला और कोई नहीं था-सिवा मुरारि के।
अब इस बात का अहसास कैसे नहीं होता भला !
मुरारि, जिसने एक दिन उसका मजाक उड़ाया था और कहा था..."तुझे क्या लगता है, मैं तेरे से बियाह कर लूँगा ? किस खुशफहमी में है तू ? मेरी माँ तुझे सूप में हल्दी, पान और घी का दीया जलाकर चुमौना करने के लिए नहीं आएगी। ऐसा न हो कि मुझे भी सूप की हवा से दूर झटक दे।"
बात ही बात में उसने मुरारि के बारे में जान लेना चाहा। उसे कोई झिझक नहीं हुई ।
पास-पड़ोस की खोज-खबर लेने के बहाने ही उसने बड़े इतमीनान से पूछा, “हाँ तो बड़ी ताई...मुरारि भैया का क्या हाल-चाल है ? गाँव में ही हैं न...?"
राय घराने की ताई ने शिकायत के स्वर में कहा, “अरे रे...रे...उस लड़के के बारे में कुछ न पूछ, बेटी... । बेचारा बीमारी से जूझ रहा है। सूखकर काँटा हो गया है। एक पैसे का रोजगार नहीं। घर-द्वार सब गिरवी पड़ा है। हाँ, बातें बड़ी लम्बी-लम्बी बनाया करता है। बीवी-बच्चे भी वैसे ही राम-भरोसे हैं।"
अच्छा...तो बातें अब भी बनाया करता है ? उसकी कतरनी-सी चलनेवाली जुबान का इलाज पद्मलता जानती है। क्या वह इस पर अमल कर देखे।
बार्ली का कटोरा अपने मुँह से अलग करते हुए मुरारि का चेहरा विकृत हो गया था। वह अपनी पत्नी को एक लौंग दे जाने को कहने ही वाला था कि ड्योढ़ी के सामने लगे किवाड़ को अन्दर की तरफ ठेलकर पद्मलता भीतर दाखिल हुई।
मुरारि अपने बिचके हुए चेहरे को समेटकर मुस्कराने की कोशिश में लगा ही था कि पद्मलता ने हैरानी से पूछा-"क्या बात है ? क्या गटक रहे थे ? साबूदाना ?"
मुरारि ने अपनी दोनों हथेलियों को उल्टा छितरा दिया और फिर मजाक के स्वर में बोला, “हरे कृष्ण... । साबूदाना ?
यह तो पिछले जनम का सपना है। गले से बार्ली उतार रहा था-खाँटी मण्डल बार्ली।"
“क्या हुआ है ?"
“बीमारी और क्या... । कोई एक अदद बीमारी है ? गरीबी, दुश्चिन्ता, साहूकार का डर, घरवाली, आये दिन झगड़ा, पीलिया, बुखार...डिस्पे...फिया..."
“अच्छा-अच्छा...बस भी करो,” पद्मलता ने उसे झिड़कते हुए कहा, "इस खुर्रे को ज्यादा लम्बी करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी घरवाली कहाँ है ?"
“आस-पास ही होगी कहीं !"
“और बड़े भैया...बड़ी भाभी ?"
"वे लोग...? वे सब तो बहुत पहले ही गाँव छोड़कर चले गये। माँ-बाप के गुजर जाने के बाद।..."
“तभी तुम्हारा यह हाल है!"
मुरारि ने अपनी कमजोर और बीमार देह पर नजर दौड़ायी और फिर तीखे स्वर में बोला, “इसमें बुरा ही क्या है ? अब सबके नसीब में सोने का कदलीवन तो लिखा नहीं होता।"
"कदलीवन न हो...बेंत का वन तो होता है !" पद्मलता ने छूटते ही कहा।
"अरे रोना तो इसी बात का है कि बड़े लोगों की खाल पर इस बेंत का कोई असर नहीं होता," कहते-कहते मुरारि हँस पड़ा।
उसके इस मजाक पर कोई ध्यान न देते हुए पद्मलता पास रखे एक मोढ़े पर बैठ गयी और बोली, “अब तुम बैठने को तो कहोगे नहीं। बड़ी अकड़ वाले हो। लो, मैं तो बिना कहे जम गयी। अरी कहाँ चली गयी, ओ घर की मालकिन !...कोई अता-पता नहीं।"
घर की मालकिन तब अपनी रूखी-सूखी धज को सहेजने में ही लगी थी। सब कुछ अस्त-व्यस्त पड़ा था। यहाँ तक कि किसी के सामने निकल पाना भी मुश्किल हो जाता है। दोनों बच्चे भी बाबा आदम की औलाद बने फिर रहे हैं। कैसे सँभाले वह यह सब !
पद्मलता सारी बातें समझती है इसलिए वह उसे पुकारना छोड़कर मुरारि के साथ ही बतियाने लगी है।
"देख रही हूँ, बातें तो तुम पहले की तरह ही बड़ी लम्बी-लम्बी हाँक रहे हो।...लेकिन घर-गिरस्ती का हाल तो बड़ा खस्ता बना रखा है...घर का जो हुलिया देख रही हूँ..."
“घर?" मुरारि के मुँह का स्वाद ही जैसे बिगड़ गया, "थू...दूसरे के घर पर अब कैसा मोह ?"
पद्मलता अबूझ बनी रही। फिर बोली, “दूसरे का घर ? मैं समझी नहीं।"
“इसमें समझना-समझाना क्या है ? गले तक कर्जे तले डूबा हूँ। घर-द्वार, खेत-खलिहान सब बन्धक है। क्यों, तुमने यह दिलचस्प खबर अब तक नहीं सुनी ?"
“यह तुमने क्या किया ? घर को भी रेहन रख दिया ? यह क्या कह रहे हो तुम ? छीः-छीः अपने बाप-दादा का नाम कैसा रोशन कर रहे हो तुम ?" पद्मलता यह कहते-कहते सचमुच बहुत कातर हो उठी।
मुरारि हौले-से मुस्कराया। फिर बोला, “अरे अपना नसीब खोटा न होता तो तुझे मुझ पर तरस खाने का मौका कहाँ से मिलता ? लेकिन तेरा यह रोब-दाब देखकर तो मुझे बड़ी हँसी आ रही है, पदमिया ! याद है...मुकुन्द राय की बेटी ने क्या कहा था... तिलचट्टा भी चिड़िया हो गया...' कैसी जुगत भिड़ायी थी...है न!"
पद्मलता को पता है कि उसे जान-बूझकर अपमानित किया जा रहा है। और यह उसी अपमान का बदला है। शायद ऐसा ही होता है जब कोई मधुर सम्बन्ध अचानक कड़वा हो उठता है। तब दोनों ही पक्ष एक-दूसरे को नीचा दिखाने के मद में चूर हो रहते हैं।
लेकिन अभी पद्मलता के नाराज होने से तो बात ही बिगड़ जाती। उसने हँसते हुए कहा, "वैसे तुम्हारी याददाश्त तो बड़ी तेज है, मुरारि भैया ! चलो...गाँव-जवार में कोई तो है जो उस ‘पदमिया' को याद रखे हुए है। वर्ना यहाँ तो अब भी वही पद्मा...पद्मा...की रट लगी हुई है। और बताओ...क्या हाल-चाल हैं...?"
“मेरा अब क्या हाल और चाल ! बस...सब डूबने ही वाला है। कहते हैं न...भूत का भी कोई जन्मदिन होता है भला?" मुरारि थोड़ी देर रुका फिर उसने धीरे-से पूछा, “हाँ रे, मैंने सुना है तू तो बड़ी पैसेवाली हो गयी है। दोनों हाथों से रुपये उलीच रही है। क्या बात है?"
"तुमने तो अब तक मेरा मुँह नहीं देखा, फिर तुम्हें यह सब कैसे मालूम ?"
"लो... । पिछले तीन दिनों से तुम्हारे नाम का जो संकीर्तन चल रहा है...उसे सुन-सुनकर तो कान ही पक गये। पाठशाला के लिए चन्दा, पंचायत-घर के लिए चन्दा, चापाकल के लिए दान, काली थान की मरम्मत के लिए चन्दा...चन्दा न हुआ...हरि-लूट हो गया। तुम्हारी बेवकूफी पर तो...बस तरस ही खा सकता हूँ। लेकिन नाम का डंका भी तो पिटना चाहिए।"
पद्मलता ने उसकी बातों पर ध्यान न देते हुए कहा, "मेरा भाग्य ही ऐसा है। ऐसा क्या कुछ दे दिया कि बड़ा नाम हो गया ? मेरे मन में जो कुछ था...उसे मैं कहाँ पूरा कर पायी। वह सब तो जी में ही रह गया। जल्दबाजी में कुछ भी नहीं समेट सकी। थोड़ा-बहुत जो कुछ था वही ले-लिवा लायी। मेरे पास हजार एक रुपये थे वह लायी थी, पति ने हाथ-खर्च के लिए आठ-एक सौ रुपये दिये थे और...दो-एक सौ छुटे रुपये हों तो हों। इनमें किसका काम और कैसा नाम ? पड़ोसवाली मानी बुआ की नतनी की शादी नहीं हो पा रही है। हाथ में पैसे हों तब न। यह सब सुना तो जी मसोसकर रह गया। वापस जाते ही कुछ रुपये भिजवा दूंगी...और क्या ?"
“अरे बाप रे...! अच्छा यह तो बता, अविनाश ने कितने लाख जोड़ लिये हैं...किन-किन चीजों की सप्लाई का ठेका लिया था उसने...चावल का...गेहूँ का...गाय-बकरियों का या फिर छोकरियों का...?" यह कहते-कहते मुरारि की नाक का अगला सिरा और भी टेढ़ा हो गया...घृणा और व्यंग्य से। होठों के कोने पर धारदार मुस्कान खेलने लगी थी।
लेकिन पद्मलता भी यहाँ कोई हारने के लिए नहीं आयी थी। वह आयी थी जीतने। इसलिए उसने बड़े सहज ढंग से कहा, "किसे पता है कि किन-किन चीजों का कारोबार करता है वह। और मुझे यह सब जानने की जरूरत भी क्या है ? मुझे तो इतने से ही गरज है कि मैं जितना चाहूँ उतने रुपये मुझे मिल जाएँ। लेकिन तुम्हारे लिए तो मुझे मरकर भी चैन नहीं मिलेगा। अपने घर तक को गिरवी रख दिया और पैसे खा गये। और अगर इसे छुड़ा न पाए तो? आखिर कितने रुपये में गिरवी रखा है इसे ?"
“पाँच सौ में। क्यों, तू देगी मुझे रुपये ?"
“और नहीं तो क्या ? थोड़े-से रुपयों के लिए बाबा-दादा की रही-सही थाती बेच खाओगे?" इतना कहकर पद्मलता अपनी साड़ी के आँचल में बँधी गाँठ खोलने लगी।
“क्या बात है, पदमिया ! तू पाँच-सात सौ रुपये हमेशा अपने पल्लू से बाँधकर ही घर से बाहर निकलती है क्या ?"
"तो फिर और क्या करती, मुरारि भैया ?" और बोली, “लाहिड़ी नानी ने इन रुपयों को अपने पास रखने से मना कर दिया। जो कुछ लायी थी, वह पल्लू में ही बँधा है। खैर, रुपये तो खर्च करने के लिए ही होते हैं। वापसी का किराया साथ रहे, यही वहुत है ?"
इसके बाद उसने बड़े आकार के पाँच नोटों को एक-एक कर गिना और उसे जमीन पर रखा। लेकिन इस बीच मुरारि यकायक गम्भीर हो गया। उसने भरे गले से कहा, "देख पदमी, तिलचट्टे का पंछी हो जाना तो ठीक है लेकिन वह एक बारगी गरुड़ हो जाए, ऐसा दिखावा मत करना।"
"लेकिन..." पद्मा कहती गयी, "भले ही तुम मुझे जी भरकर अपमानित कर लो...लेकिन ये रुपये तो तुम्हें लेने ही पड़ेंगे। इन थोड़े-से रुपयों के लिए मैं तुम्हें अपनी ही मडैया से बेदखल होने नहीं दूंगी।"
"लेकिन मैं तेरे पैसे क्यों लेने लगा ? बड़ी पैसेवाली आयी है ! पैसे का रोब डालकर तू मानी बुआ जैसी औरतों का सिर अपनी झोली में डाल ले। तू मुझ पर अपना जाल मत फैला !" इतना कहकर मुरारि ने रुपयों को आगे खिसका दिया। लेकिन तभी उसकी नजर अपनी पत्नी पर पड़ी जो इतनी देर तक गायब रहने के बाद सामने आ खड़ी थी। उसने उससे चिढ़कर कहा, "कब से एक लौंग माँग रहा हूँ...क्या हुआ ? सब-के-सब कहाँ मर गये?"
मुरारि की घरवाली इतनी देर तक शायद अपने को सहेज रही थी और अब सबके सामने थी। लेकिन जब उसने देखा कि बात रुपये-पैसे की चल रही है तो वह फिर आड़ में चली गयी थी। अचानक पति के बुलाने पर वह रंगमंच पर अवतरित हुई और झूँझल भरे स्वर में बोली, “मर-खप जाती तभी जी को चैन मिलता ! तुम्हारे हाथ से छुटकारा तो मिलता। मुआ मेरा नसीब ही जला-भुना है। अब आप ही देखिए दीदी, जब से आप आयी हैं यह कैसी जली-कटी सुना रहा है ?"
"देख रही हूँ। इस आदमी का दिमाग खराब हो गया है। भाभी, ये थोड़े-बहुत रुपये हैं, उठाकर रख लो। आखिर इस-घर को छुड़ाना भी तो है। वर्ना रहोगी कहाँ ?"
घरवाली ने हालाँकि सब कुछ सुन रखा था और वह रुपयों की तरफ ललचायी नजर से देख भी रही थी तो भी उसने कहा, “इस आदमी को तुम इतने सारे रुपये उधार दे रही हो, दीदी ? इस जनम में वह इन्हें चुका भी पाएगा ?"
“अरे नहीं, पगली...इन्हें चुकाने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हारी शादी पर मैंने तुम्हें कुछ नहीं दिया था। वही समझ लेना। लो, इन्हें रख ले। और अपने बाल-गोपाल को तुमने किस लोहे की सन्दूक में बन्द कर रखा है भला...! दीख नहीं रहे।"
मुरारि की पत्नी ने पलक झपते उन रुपयों को उठाकर पल्लू में बाँधा और बड़े उत्साह से बच्चों को पुकारने लगी, “अरी ओ पुष्पा...मुन्ना...झुन्ना...चलो, यहाँ आ जाओ सबके सब और बुआ जी को प्रणाम करो..."
मुरारि ने जलती हुई निगाहों से अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की लेकिन जब उसने इसकी अनदेखी कर दी तो वह आपे से बाहर हो गया। “रुपये वापस कर दो छोटी बहू...मैं कहे दे रहा हूँ...मैं नहीं ले पाऊँगा...।"
लेकिन पल्लू में बँधी किसी चीज को वैसे ही गँवा दे, छोटी बहू इतनी मूरख न थी। इसीलिए उसने बड़े उत्साह से कहा, "हाँ...हाँ...दूंगी क्यों नहीं? एक दिन बाद को ही जब बच्चों के हाथ पकड़कर पेड़ के नीचे खड़ा रहना पड़ेगा। वापस कर दूँ ? और रानी दीदी हमारे लिए परायी तो नहीं ? बताइए न रानी दीदी, में ठीक कह रही हूँ न...!”
रानी दीदी ने अब तक पुष्पा के नन्हे हाथों में दो का नोट थमा दिया था। और वह गोद वाले बच्चे की मुट्ठी ढूँढ़ रही थीं।
नहीं, पद्मलता को अब सचमुच कोई अफसोस या बेचैनी नहीं थी। उसने अपने जीवन में और किसी चीज की चाह नहीं की थी। वह इन क्षणों की सार्थकता को, इनके सुख को अपनी दोनों मुट्ठियों में बाँध लेना चाहती थी।
ठीक इसी समय...कबूतर की कोलखी जैसे सँकरे, बुसे और अँधेरे कमरे में एक मरियल-सी चारपाई पर औंधा पड़ा अविनाश, चिट्ठी लिख रहा था। चार दिनों के विरह में ही इतना लम्बा पत्र ? लेकिन इसके सिवा चारा भी क्या था ? वह कैसे अपने मन की बेचैनी प्रकट करे ! हालाँकि उसे पता था कि अगले ही दिन उसकी घरवाली आने वाली है। उसने लिखा :
"प्रिय पद्मा,
मेरा सारा कुछ लुट गया। मैंने पटना में जिस नौकरी के लिए आवेदन दिया था-उसे मैं इस जीवन में पा भी सकूँगा, इसकी उम्मीद नहीं।...मैंने सोचा था अगर मुझे यह नौकरी मिल गयी तो हम जीवन का बाकी हिस्सा किसी तरह चैन से विता सकेंगे। लेकिन विधाता ने हमारे साथ बड़ा भारी मजाक किया है। मैंने सब कुछ...घर-द्वार माल-असबाब बेच-बाचकर सिक्यूरिटी के लिए दो हजार की जो रकम जमा की थी-वह सब लुट गया। तुम तो जानती ही थी कि चोर या उचक्के के डर से मैंने उन रुपयों को बक्से में नहीं...बल्कि रजाई के अन्दर एक छोटी-सी थैली में छुपाकर रखा था। लेकिन चोर की नजर वहाँ भी कैसे पड़ गयी-यह सचमुच हैरानी की बात है।
मुझे यही जान पड़ता है कि यह किसी ऐसे आदमी का काम है जो इस बारे में जानता था। अब में किससे क्या कहूँ ? मैं तो एकदम तबाह ही हो गया। मुझे आगे के लिए भी कोई उम्मीद नहीं रही। मैं तो यही समझ लूँगा कि मैंने बड़ा भारी गुनाह किया है। मुझे बार-बार इस बात का पछतावा होता रहता है कि मैं तुम्हें भेजने को राजी कैसे हो गया। घर की लक्ष्मी घर में रहती तो यह दुर्दशा न होती। खैर, जो हो गया...हो गया। अब चिट्ठी पढ़ना खत्म होते ही आने की तैयारी करना। मैं तुम्हें लिवा लाने की स्थिति में नहीं...और अब मैं तो तुम्हें अपना मुँह भी नहीं दिखा पाऊँगा शायद।"
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)