पदचाप (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट

Padchaap (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt

गरदन में स्टेथोस्कोप लटकाए ही वह अस्पताल से घर लौटा । डिस्ट्रिक्ट बोर्ड अस्पताल की बगल वाले अहाते में ही उसका घर था।

जब वह ओसारे की सीढ़ियां चढ़ रहा था, बगल में दीवार पर लटके 'डाक्टर सी० पी० माधवन, एम० बी० बी० एस०' के बोर्ड के पास एक पीले रंग की तितली चक्कर लगा रही थी। वह ओसारे में दाखिल हुआ । वहाँ दो कुर्सियाँ, एक छोटी-सी गोल मेज और एक बड़ी-सी बेंत की आरामकुर्सी थी। मेज़ पर नीले रंग का मेजपोश पड़ा था और उस पर एमिलिजोला का 'नाना' उपन्यास रखा था, जिसमें से एक तार झांक रहा था।

वह बेड-रूम की ओर बढ़ा। उसके कानों में बावर्चीखाने से बरतनों की आवाज आयी । बेडरूम में जाकर उसने स्टेथोस्कोप गरदन से निकालकर अपने कोट की जेब में रखा और वह लम्बा-सफेद कोट उतार कर दीवार की खूटी पर टांग दिया।

उस समय दरवाजे की बगल में पड़े छोटी-सी ड्रेसिंग टेबिल के दर्पण पर शाम की पीली धूप पड़ रही थी, जिससे सामने की दीवार के कोने में इन्द्रधनुष के एक टुकड़े की सृष्टि हो गयी थी।

डाक्टर ने अनमने भाव से दर्पण की ओर नजर घुमायी, तो दर्पण की स्वर्णिम आभा के बीच उसका चेहरा काले बादल जैसा लगा। उसने अपनी मूंछों को हौले से सहलाया और फिर दर्पण की ओर गौर से देखा । उसकी मोटी मूंछों के भीतर एक सफेद बाल झाँक रहा था। उसने उसे नाखूनों से पकड़कर जड़ से उखाड़ दिया और थोड़ी देर उसे एकटक देखने के बाद नीचे फेंक दिया।

फिर सिर झुकाये हुए वह ओसारे में आकर एक कुर्सी पर बैठ गया और 'नाना' के भीतर से तार निकालने के लिए उसने किताब खोली । तार ११६ ११७ पृष्ठों के बीच था। यों उसका स्मरण किया।

वह तार दोपहर को ही जब वह घर भोजन करने आया था, मिला था। उसने एक बार और उसे पढ़ा-

पिताजी की बीमारी खतरनाक हालत में पहुँच गयी है। आज ही आने की कृपा करें । रात की गाड़ी के समय में आपका इन्तजार करूँगी-लिल्ली'

उसने रिस्ट वाच की ओरा देखा ---५-५० ।

६-४५ पर दक्षिण की आखिरी गाड़ी है।

तभी पीछे से राधा की कोमल पदचाप और मोटी रेशमी साड़ी की आवाज आयी, तो वह चौंक उठा।

वीणा के स्वर में राधा ने कहा, "उठो, चाय तैयार है।"

"ऊँ !'' इतना ही कहकर वह हाथ के तार की ओर एकटक देखने लगा। "क्या जॉर्ज मास्टर को देखने कूनूर नहीं जाओगे ?" राधा ने पूछा।

"ऊँ ?' कहकर वह रुक गया। फिर उसने मन-ही-मन सोचा, “मैं जॉर्ज मास्टर का गोद लिया हुआ बेटा हूँ। अगर मेरी मेडिकल कालेज की पढ़ाई के लिए वे पैसे खर्च न करते, तो न तो मैं डाक्टर बनता और न मुझे यह नौकरी मिलती । आज वह बूढ़ा गड्ढे में पांव लटकाकर पड़ा है। उसका अंतिम असीस लेने मुझे जाना ही चाहिए।"

राधा को उसका पुराना इतिहास मालूम था। जॉर्ज मास्टर ने उसे गोद लिया था अपनी बेटी के साथ उसकी शादी कराने के लिए । बेचारी लिल्ली ! वह कूनूर के कॉनवेण्ट में एक अध्यापिका होकर जिन्दगी गुजार रही है। यों यह शादी होने की पूरी सम्भावना भी थी। उसने एक ज़माने में लिल्ली से मोहब्बत भी की थी। लेकिन वह शादी नहीं हुई। वह अपना धर्म-परिवर्तन दिमाग में यह सवाल उठा, यह इस तरह सज-धज कर किसका इन्तजार कर रही थी?

"तू तो आज बहुत खूबसूरत लग रही है ! तू...तू...तू... राधा के चेहरे की तरफ उँगली उठाकर डाक्टर ने दबी जबान से कहा । फिर वह हँस पड़ा और मूंछों को सहलाने लगा।

उसकी उस दृष्टि, बात, हँसी और मुद्रा से राधा के चेहरे पर ख़ौफ़ और ख़तरे की शंका का बादल छा गया। उसने जैसे उस आतंक से बचने के लिए बाहर दरवाजे की ओर देखा।

उसका इस तरह दरवाजे की ओर देखना भी डाक्टर को रहस्यमय लगा। वह राधा के कान में फुसफुसाया, “तुझे मालूम हो गया है न कि मैंने किस गरज से तुझे यहाँ बैठाया है । तू दरवाजे की तरफ उत्कण्ठा से देख रही है न ? प्रिये क्षमा करो ! उसकी पदचाप सुनायी देगी, तो मैं खुद ही दरवाजा खोल दूंगा। तू इस उपन्यास की पढ़ाई जारी रखे ।" कहकर उसने पलंग के नजदीक पड़ी मेज़ के ऊपर के 'नाना' को उठा लिया और उसे खोलकर देखा, तार उन्हीं पृष्ठों के बीच पड़ा था। फिर उसने राधा की ओर नाराजगी से देखते हुए कहा, "तू इसे पढ़ रही थी न और किसी का सपना देख रही थी न?"

राधा कुछ नहीं बोली।

तभी डाक्टर को बाहर से किसी की पदचाप-सी सुनायी पड़ी तो उसने एक पैशाचिक मुस्कान के साथ राधा की ओर देखा । उसके कान पदचाप की ही ओर लगे थे।

लेकिन जल्दी ही उसे मालूम हो गया कि वह किसी की पदचाप न होकर ताड़ के पत्ते पर ओस की बूंदों के टपकने की आवाजें थीं। तब उसने कमरे में चारों ओर निगाहें घुमायीं। दीवार पर लटकी एक तस्वीर पर उसकी दृष्टि पड़ी, तो उसका चेहरा अचानक ही शान्त हो गया और उसकी आँखों में वात्सल्य लहरा उठा।

वह तस्वीर एक काले कुत्ते की गरदन पकड़े हुए, घुटनों के बल झुकी, मुस्काती उनकी बेटी की उसकी सातवीं वर्ष-गांठ के अवसर पर खींची गयी थीं, दो साल पूर्व । उन दिनों वे तंजाऊर में थे । वह कुत्ता नीरो, उनकी बेटी, मल्लि का प्राण था। उसकी सातवीं वर्ष-गांठ के एक मास बाद ही नीरो एक कार-दुर्घटना का शिकार हो गया था। तब मल्लि ने दो-तीन दिन तक कुछ भी खाया-पिया न था । वह रोती हुई लेटी पड़ी रही थी। वह नीरो को जहाँ दफ़नाया गया था, वहाँ एक स्मारक-मण्डप बनवाना चाहती थी। उसे बनवाने के लिए उसने अपनी जमा की हुई पूरी रकम, पाँच रुपये साठ पैसे पिता को सौंप दी थी। पिता ने भी भेंट के रूप में उसमें अपनी ओर से पांच रुपये जोड़ दिये थे। लेकिन नीरो का स्मारक-मंडप बने इसके पूर्व ही डाक्टर का तबादला मधुरा के लिए हो गया था।

अब मल्लि की आठवीं वर्ष-गाँठ अगले महीने में दसवीं तारीख को पड़ने वाली थी।

डाक्टर ने मद्रास के कला निकेतन बोडिंग स्कूल में पढ़ने वाली बेटी को उसकी वर्ष-गाँठ के अवसर पर भेंट के तौर पर एक फ्राक और कुछ मिठाइयां भेजने की राय जाहिर की थी, तो राधा ने कहा था, "नहीं उसे एक कलम और जवाहर नेहरू के ग्रन्थ 'बेटी के लिए पिताजी के पत्र' देना ठीक रहेगा।"

मल्लि की माँ राधा ! डाक्टर का ध्यान अचानक मद्रास में पढ़ने वाली बेटी से हटकर पास में बैठी राधा की ओर मुड़ गया। उसने राधा की ओर नफरत की निगाहों से देखा ! उसको बड़ा ताज्जुब हुआ। जिन्दगी में उसने पहले कभी उसे इतनी ज्यादा खूबसूरत नहीं देखा था। उसे लगा कि जैसे एक अगाध गड्ढे के ऊपर चट्टान पर उकड़ बैठी कोई यक्षिणी हो, जो उस पदचाप के आते ही अदृश्य हो जाएगी। तब मल्लि को क्या होगा ? नहीं, उसको यह सब जानने की जरूरत नहीं होगी।

कहीं दूर से एक कुत्ते के रुदन की आवाज़ हवा में रेंग आयी । डाक्टर ने अपनी रिस्टवाच की ओर देखा ६-३५ । वह भूल गया था कि एक्के से गिरने के बाद वह बन्द हो गयी थी। उसने दीवार-घड़ी की तरफ निगाहें घुमायीं । ११-१० । 'टिक्-टिक्' दीवार-घड़ी की आवाज उसके कानों में थोड़ी देर पड़ती रही। फिर वह बन्द हो गयी।

ओ, कल उसमें चाबी देनी थी। मल्लि की माँ ही यह काम करती थी। लेकिन वह भूल गयी थी। भूलती क्यों नहीं उसका ध्यान तो और किसी में लगा होगा।

"दीवार-घड़ी भी उसी की तरह मर जाय ! इस संदर्भ में समय जानना खतरनाक है !" उसने अपने-आप जोर से कहा।

कमरे में उसे बड़ी गर्मी महसूस हुई। उसने उठकर बेडरूम के पीछे का दरवाजा खोल दिया। उस दरवाजे से अस्पताल के पीछे का बरामदा और पेड़ों से भरा हुआ अहाता दिखाई दे रहा था । उसे चाँदनी में डूबा अस्पताल का मकान और पेड़ों की छायाओं से ढंका विस्तृत बालुका-भूमि अत्यन्त मनोरम लगी । दिन-भर के चीत्कारों, शोर-शराबों, आहों-कराहों, पीड़ा रुदन आदि का कहीं पता नहीं था । सब-कुछ एकदम शान्त था। पेड़ की झुकी हुई डालों के नीचे खून और मल से लिथड़ी रुई और पट्टियों के टुकड़े इधर-उधर फैले हुए होंगे। लेकिन चांदनी में सब-कुछ एक प्रेम-लेख में बदल गया था। उसे लगा कि जैसे पेड़ की छाया एक इंसान के कलेजे की आकृति हो।

तभी उसे आभास हुआ कि किसी ने दरवाजा खटखटाया था। वह दरवाजे के नज़दीक जाकर चुपचाप खड़ा हो गया । "एक चमगादड़ पंख फड़फड़ा दरवाजे के निकट से उड़ गया।

तब उसने निराशा और अकारण ही क्षोभ के साथ मल्लि की माँ के चेहरे की ओर देखा । वह पलंग पर सिर झुकाये बैठी थी।

समय यों ही गुजरा जा रहा था। रात की चिड़ियों की आवाजें आ रही थीं। चमगादड़ पंख फड़फड़ाते उड़ रहे थे। ताड़ के फलों के नीचे गिरने की आवाजें आ रही थीं। दूध-सी चाँदनी हँस रही थी। वह पदचाप अभी तक नहीं पहुंचा था।

"है नहीं कोई खुशी माया-प्रपंच में..."

दूर से किसी के गाने की आवाज सुनाई दी। डाक्टर को मालूम था कि आधी रात में वह गीत गानेवाला एक्केवान राजू था । उसने राजू का इतिहास सुना था। काले-कलूटे, बदसूरत और काने राजू की बीवी गोरी और खूबसूरत थी। किसी को भी यह मालूम नहीं था कि उसे इतनी सुन्दर बीवी कैसे मिल गयी थी। वह उसे एक रानी की तरह रखता था। कभी-कभी शाम को वह उसे अपने एक्के में बिठाकर शहर घुमाने ले जाता था। नकली गहने पहने और हाय में एक मोर-पंखा लिये वह कोमलांगी काले-कलूटे बंदर की तरह एक्केवान के साथ अधमरे घोड़े वाले एक्के पर बैठी मोहल्ले से गुजरती, तो लोग हंसहँसकर उसे देखते।

यह सात बरस पहले की बात थी। अब तो राजू की बीवी भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित थी। उसके ओंठ सूज गये थे, कान भूने हुए पापड़ की तरह हो गये थे । बदन जलती हुई मोमबत्ती की तरह एकदम विकृत हो गयी थी।

लेकिन राजू अब भी उसे अपने एक्के पर बैठाकर ले जाता । एक कुष्ठ रोगिणी को वह अपने एक्के पर बैठाता था, इसलिए उसके एक्के से कोई नहीं जाता । वह दिन में भूखों रहकर रात में गीत गाता था ।

"है नहीं कोई खुशी और इस माया-प्रपंच में..."

चाँदनी में पेड़ों और ताड़ों के पत्तों में सरसराता वह गीत दूर के जंगलों में विलीन हो गया।

चाँद अब डूबने वाला था। एक मुर्गे ने बांग दी।

पदचाप के आ जाने का वक्त तो हो गया। हाँ, समय हो गया ! उसकी अंतरात्मा ने उसे जगा दिया।

तभी ठक्-ठक्, ठक्-ठक्"किसी ने दरवाजा खटखटाया।

ठक-ठक-ठक...फिर खटखटाहट सुनाई दी।

डाक्टर ने दरवाजे की ओर उल्लू की तरह घूरकर देखा।

राधा ने भी अपनी आँखें दरवाज़े की ओर की। उसकी निगाहें जैसे दरवाजे की ओर पंख फड़फड़ाकर उड़ने लगीं।

डाक्टर ने अपनी बीवी की तरफ नहीं देखा। ठक्-ठक-ठक की आवाज़ जैसे बिजली की कड़क की तरह उसके कानों में बज रही थी । वह दरवाजे की ओर बढ़ा । उसके पैर कांप रहे थे ? उसका दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था, जैसे मोटी-मोटी ओस की बूंदें ताड़ के पत्तों पर पड़ रही हों।

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