पारिजात (कहानी) : डॉ. पद्मावती

Paarijaat (Hindi Story) : Dr. Padmavathi

“दीदी... मुनिया फर्स्ट डिनिशन में पास हो गई है …और ये सब आपकी मेहनत है दीदी वरना मैं अकेली कहाँ कर पाती ये सब ?” कम्मो आकर सीढ़ियों पर धम्म से बैठ गई । मुनिया उर्फ परी भी आई थी पीले रंग के सलवार सूट में । परी थी तो केवल सत्रह बरस की पर भरे हुए बदन के कारण काफी बड़ी लग रही थी आज मीरा को । स्याम वर्णी चेहरे पर निखार देखते ही बनता था । चेहरा खिला-खिला... नव यौवन की आभा में नहाई सी । तीखे नैन नक्श , पतला माथा ... गहरी काली आंखें और घनी लंबी चोटी । ऐसी मूरत थी जैसे मंदिर की कोई सुंदर प्रतिमा हो । इतने ध्यान से मीरा ने उसे कभी न देखा था । वह आश्चर्य चकित सी उसे देखे जा रही थी । और वो...आई तो थी उछलती पर मीरा को यूँ अपनी ओर यूँ तीक्ष्ण दृष्टि से निहारते देख उसका उबाल थम सा गया । कपोल पर गुलाबी रंग उतर आया । झट से संभली और सिमटी सी नजरें झुकाए पाँव के अंगूठे से धरती खुरचती चुपचाप ताकती रही -कभी जमीन को तो कभी मीरा को ।

सत्रह साल....हाँ... कम समय नहीं था ।

“दीदी ...दीदी दरवाजा खोल...देख तो क्या है?”

उस रात दस बजे अचानक मीरा की आंख खुली और वह हड़बड़ा कर पलंग पर उठ बैठी । बदहवास सा दरवाजा कोई पीट रहा था और धीमे -धीमे से कम्मू की आवाज कानों में सुनाई पड़ रही थी । कुछ पल के लिए तो वह पलंग से उठ भी न सकी । इतनी रात गए तो वह कभी उसके घर न आती थी । फिर कौन हो सकता है? आवाज तो उसकी ही लग रही है । खोलूँ या नहीं ।

इसी उधेडबुन में थी कि फिर दरवाजा पीटने की आवाज आई “ दीदी खोलो मैं कम्मो ... खोलो दरवाजा” । डरते -डरते उसने दरवाजा खोला । पति भी अपने काम से बाहर गए हुए थे और वह घर में अकेली थी इसीलिए डर गई थी ।

“क्या है? इतनी रात गए यहाँ क्यों आई है और दरवाजा क्यों पीट रही है?” आंखें सायास खोलते मीरा ने उसे देखा तो पहले न जाने क्यों उस पर शक हुआ । ऐसा क्या हुआ था, कि वह सुबह का इंतजार भी न कर पाई ।

“ देख दीदी ...इंसान का बच्चा । इंसान का बच्चा है ...” । तेजी से वह अंदर घुस आई और दरवाजा बंद कर आंचल की गठरी खोल मीरा को कुछ दिखाने लगी । अंदर आते ही अपने साथ दुर्गंध भी ले आई ।

“देख ...इस मासूम को देख .. कूड़े के ढेर पर फेंक दिया है किसी इज्जतदार ने...। लड़की है लड़की और वो भी जिंदा। कैसे लोग है? ...इतनी भी ममता नहीं । जन कर फेंक दिया ? क्या करूं इसका?तुम ही कहो दीदी ”

मीरा का मुँह खुला का खुला रह गया । सहमी अधखुली आंखें पूरी होश में आ गईं । जड़वत देखने लगी कभी कम्मो को तो कभी मैले सूखे आंचल में लिपटे उस मांस के लोथड़े को । दिमाग झनझना गया । कब उसकी हथेली अपने नाक और मुँह पर चली गई पता ही न चला । तय न कर पा रही थी कि क्या कहे…क्या अधिक डरावना था? …बच्ची का कूढे के ढेर पर पाया जाना ? या फिर इस मूर्ख का इतनी रात गए चोरी छिपे उसे उसके घर ला देना...?

कूड़े के ढेर पर नवजात ? कितनी अमानवता ? कितनी निर्मम माँ होगी ? फेंक दिया ...? लोक-लाज के डर से या लड़की होने के अभिशाप से ? क्या था यह ? कैसी मजबूरी? न पाल सकने की विवशता थी या फिर प्रेम में छलावे का परिणाम ...?

“दीदी...बोल न? …मैं क्या करूँ?” उसे इस तरह जड़ होते देख कम्मो घबरा गई ।

“कुछ न सूझा ...बस ले आई” । उसका बोलना जारी था ।

“अब कुछ भी हो । अच्छा या बुरा । पता है तुझे ...थी यह बच्ची कूढ़े पर और आस-पास किसी में इतनी हिम्मत न थी कि उसे अस्पताल ही पहुँचाए । और तो आवारा कुत्ते भोंके जा रहे थे उस गठरी के आस-पास । अगर कोई न होता हो तो नोच चुके होते । किसी में हिम्मत न थी ...हाँ... हिम्मत न थी । वे खड़े तमाशा देख रहे थे और कुछ पुलिस का इंतजार । शायद दीदी किसी ने पुलिस को खबर भी दे दी है । वो आने वाली है । कुछ तो नाक पर रुमाल रखे झांक-झांक देखकर निकले जा रहे थे । अंधेरा और ट्रैफिक। मौका देख बिना देर किए मैं कूढ़े में घुस गई और इसे उठा लिया । ले आई बच्ची को सीधे तेरे पास ...। लोग चिल्लाते रहे पर मुझे किसकी परवाह और...किसकी फिक्र? मुझे देखते ही बिचक गए सब के सब ...बदमाश ...लोग । लगा होगा उन्हें -चलो .हटो ...परेशानी दूर हुई । अब तू बता दीदी एक जान को कैसे मरने को छोड‌ देती, दीदी चल इसे अस्पताल ले चलते है । ?” वे बेटोक बोले जा रही थी और बार -बार बच्ची को सहलाए जा रही थी -और आंखों में ममता पानी बन कर बहे जा रही थी ।

पर मीरा के तो होश उड़ चुके थे । वह अभी भी शॉक में थी । बड़ी मुश्किल से होश में आई और संभलकर दो कदम पीछे हटती बोली,

“हे भगवान….तू क्यों ले आई ? यह पुलिस केस है। शोर शराबा होगा । और मेरे पास क्यों लाई? बिल्कुल नासमझ है पागल कहीं की । ऐसी चीजों को हाथ न लगाते और तू पकड कर ले आई और वो भी में ...मेरे पास ? । मैं क्या करूं अब इसका? वहीं रख आ। । रुक । मैं भी चलती हूँ । पुलिस में खबर करते है । रुक’ । मीरा घबरा गई । काफी उलझन पैदा कर दी थी कम्मो ने । समझ न आ रहा था कि क्या करे?

“ नहीं दीदी डरो नहीं । इसे कोई न लेगा । अगर कोई अपनाता तो फेंकता क्या? पुलिस ? ....अरे उसको तो मैं अच्छी तरह जानती है ... उसे क्या चाहिए क्या नहीं चाहिए मेरे को सब मालूम । और आगे आप संभाल लो दीदी । अभी मरी नहीं जिंदा है । सांस चल रही है सच ! देखो दीदी कितनी सुंदर नन्ही सी जान ” ।

“पर तू क्या करेगी इसका? तेरा खुद का ठिकाना नहीं और...” । मीरा जल्दबाजी में कह तो गई लेकिन कहते-कहते रुक गई । उसने अपने होंठ भींच लिए । जानती थी कि गलत बोल रही है पर इस वक्त यही सही था ।

कम्मो का मुँह उतर गया .. चुप्प हो गई पर अगले ही क्षण बोली ,

“ मैं पालूंगी दीदी । विश्वास करो ... मैं इसको पालूँगी । अनाथाश्रम में लड़कियों के साथ क्या होता , तुम्हें नहीं पता दीदी , मैं सब जानती। पुलिस आए तो तुम संभाल लोगी न? दीदी ...सच्ची ...विश्वास रखो ... पढाऊँगी... अपने दम से । बस एक बार आप संभाल लो न...प्लीज” ? कम्मो आगे कुछ न कह पाई । जो कहना था वह सब उसकी आंखें कह रही थीं ।

एक किन्नर का साहस - मीरा खड़ी रह गई ... देखती रही उसे ...बस देखती रही । तभी कानों में सायरन की आवाज सुनाई दी । पुलिस आ गई थी ।

मीरा से पूछ्ताछ हुई ।

मीरा के पति का ओहदा काम कर गया । समय लगा पर बात संभाल ली गई और बच्ची लिखा पढ़ी के बाद कानूनन कम्मो को सोंप दी गई ।

पास की बस्ती में कम्मो एक किराए के टूटे-फूटे मकान में रहती थी । उन किन्नरों की अपनी मंडली थी पर सब स्वतंत्र । कोई किसी पर आश्रित नहीं । कुछ ट्रैफिक के हवाले थे , कुछ घर -घर जाकर मांगते पर सब अपने पेट के स्वयं रखवाले । उसे सिगनल पर भीख मांगना बिलकुल मंजूर न था । न ही घर-घर जाकर नेग मांगती । एक दो स्कूलों में झाडू-पोंछा लगाती थी जिससे थोडी बहुत कमाई हो जाती थी । वैसे और भी छोटे -मोटे काम किया करती थी जिससे गुजारा तो हो ही जाता था पर तंगी की तलवार हमेशा लटकती रहती थी । कभी -कभार मीरा के घर आ जाती थी कुछ मिलने की आशा में जब बहुत ही कंगाली रहती घर पर । पर मुँह से कभी भी कुछ भी कहती न थी । और मीरा को उसके हाव-भाव ,उसकी भाषा की खूब समझ थी । देखते ही जान जाती कि वह क्या चाहती है । उस ने भी कभी उसे निराश न किया था । वह आती तो घंटो बैठकर अपनी बदकिस्मती का चिट्टा सुनाती रहती । थी तो अच्छे परिवार से पर किस्मत की मारी । बाहर चबूतरे पर बैठती और घंटों बतियाती । जाते वक्त मीरा बलपूर्वक उसे चावल दाल कुछ पैसे देना न भूलती थी । देती थी तो बड़ी आत्मीयता से, मनुहार से । क्योंकि मीरा उसके स्वाभिमान को चोट न पहुँचाना चाहती थी । एक सेर तो दूसरा सवा सेर …। वह भी ऐसे स्वीकार करती जैसे मीरा का मन रख रही हो । बिना किसी आशा प्रत्याशा के मीरा कब उसके इतने करीब आ गई पता ही न चला । दोनों में काफी घनिष्ठता बढ़ गई थी । आखिर थी तो उसी की हम उम्र । मीरा को सहानुभूति थी या दया ,पर जो भी था वह उसे आने से कभी मना न करती और वह भी उसे अपनी बड़ी दीदी मानकर आ जाती थी ।

कम्मो ने तो पूरी जान लगा दी उस बच्ची को पालने में । छह महीने बाद आई थी उसे उठाकर नाम रखने की इच्छा से ।

“दीदी अब तुम ही अच्छा सा नाम दो न मुनिया का” । मुन्नी गोल मटोल ह्रष्ट- पुष्ट हो गई थी । रंग थोड़ा सांवला था पर लगती थी प्यारी सलोनी डुलमुल गुड़िया । देखा जाए तो इसके पीछे अगर कम्मो का निस्वार्थ प्रेम रहा था तो मीरा की आर्थिक सहायता का बल भी कम न था । मुनिया दोनों की साझी जिम्मेदारी से पल रही थी ।जब भी जरूरत पड़ती तो न ना कहती और इसका कम्मो ने भी कभी फायदा न उठाया था । जी जान लगाकर कमाती और अपनी अधिकतर जरूरतें स्वयं ही पूरी करती ।

“ पारिजात । कैसा है नाम” । मीरा मुनिया को अंदर पूजा मंदिर में ले कर गई और टीका लगाकर कुछ रुपए निकाल कर लाई और कम्मो की तरफ बढा दिए ।

“ आज खीर बनाना कम्मो । बेटी का नामकरण हुआ है । समझी?”

“ परिजात ? अच्छा है दीदी । पर ये नाम क्यों चुना ? बताओ न” ?

“ पता है ,पारिजात का फूल डाली पर नहीं टिकता । खिलते ही मिट्टी में गिर जाता है लेकिन श्रीहरि को अत्यंत प्रिय होता है और यह फूल उनके चरणों में स्थान पाता है । फूलों में सबसे अधिक सुगंध फैलाने वाला फूल है पारिजात... जो केवल पूजा के ही काम आता है । पवित्र और पावन । समझी कुछ नासमझ ? तेरी मुनिया भी पारिजात है । मिट्टी में गिरी पर तेरी शरण में आ गई । खूब सुगंध फैलाएगी । खूब नाम रोशन करेगी । समझी ” ।

“ न दीदी । मैं नासमझ क्या समझूंगी? पर जो भी हो , तूने रखा तो ठीक ही होगा । सुंदर भी है नाम, पर मैं तो इसे परी कहूँगी ... हाँ परी । ठीक न दीदी” ?

हाथ नचाती हुई ....परिजात...परिजात नाम दोहराती कम्मो चली गई थी उस दिन ।

परी बड़ी हो रही थी । स्कूल में दाखिला लिया गया । अभिभावक के नाम पर मीरा श्रीधर का नाम लिखा गया । कम्मो का अनुरोध था और स्कूल में स्वीकारोक्ति की बाध्यता भी । सो मीरा ने कोई आपत्ति नहीं जताई । सब ठीक चल रहा था ।

और एक दिन .......

परी दूसरी कक्षा में पहुँच गई । एक दोपहर अचानक रोती हुई आई और घोषणा कर बैठी कि वह कल से स्कूल न जाएगी ।

कम्मो घबरा गई और उसे घसीटती मीरा के पास ले आई । जो भी परेशानी होती तो मीरा ही आखिरी उपाय हुआ करती थी ।

“देख री गुड़िया बता क्या परेशानी है? बड़ी माँ को बता। इस्कूल क्यों न जाएगी” ? कम्मो उसे धमका रही थी और वह रोनी सूरत बनाए चली आ रही थी ।

“ नहीं जाऊँगी नही जाऊँगी ...नही जाऊँगी ” । वह हाथ छुड़ाकर दूर छिटक गई । कम्मो ने पास जाना चाहा तो चिल्ला कर बोली,’तुम मुझे न छुओ... तुम मेरी माई नहीं... नहीं... तुम सब झूठी हो ....” । बाल बिखरे... आंखें भीगी...। उसका रूप और ढ़ंग देख मीरा अपनी हंसी न रोक पाई । अंततः मनाने के लिए उठी और उसे गोद में खींच कर बोली, “बता गुड़िया क्या बात है? ये आज क्या हुआ तुम्हें? किसी ने कुछ कहा?”

उसने हठी स्वर में उत्तर दिया ,”हाँ” । और गुस्सा रुलाई बन कर फूट पड़ा।

मीरा को कुछ समझ न आया । प्यार से समझाया तो हिचकियाँ ले रो-रोकर कहने लगी कि ,” बड़ी माँ सब स्कूल में चिढ़ाते है” । वह मीरा को बड़ी माँ कहती थी। “कहते है कि मैं अनाथ हूँ । ये मेरी माई नहीं है । तरह -तरह की बातें कहते है । कोई मुझसे खेलने को भी तैयार नहीं । कोई बात नहीं करता, मुझे देखते ही सब हंसने लगते है । मैं न जाऊँगी अब वह स्कूल । कभी नहीं जाऊँगी” । वह पांव पटक पटककर रोने लगी थी ।

मीरा सकते में आ गई । कम्मो का चेहरा पीला पड़ गया .. काटो तो खून नहीं । जिसका डर था वही हुआ । दोनों चुप्प एक दूसरे को ताकने लगीं ।

तत्काल निर्णय लिया कि परी को बोर्डिंग के किसी स्कूल में भर्ती करना होगा जो उसे कम्मो की पहचान से दूर रखे । माहोल बदलना आवश्यक था । ऐसी जगह भेजना होगा जहाँ लोग उसके बीते कल से परिचित न हों । यही अच्छा होगा ।

उसे हॉस्टल भेज दिया गया था । नए स्कूल की प्रिंसिपल भद्र महिला थी । सब जानकारी उन्हें दे दी गई थी सो उन्होनें भी राज को राज रखा और अपनी जिम्मेदारी निभाने का आश्वासन दिया । कम्मो और मीरा आश्वस्त तो हो गईं थी फिर भी भय से पूरी तरह मुक्त नहीं थी ।

परी पढ़ने में काफी होशियार थी और बहुत जल्द पूरे स्कूल की चहेती हो गई थी । कभी कभार आती ...दो तीन दिन रहती फिर वापस अपने ठौर । उसका मन वहाँ रम गया था और कम्मो ने भी इसी में खुश रहना स्वीकार कर लिया था ।

समय पंख लगाकर उड़ने लगा और.........

और आज पारिजात खिलकर फूल बन चुका था जिसका आकर्षण बांध देता था देखने वाले को । मनमोहिनी सूरत और उससे भी अधिक मोहिनी उसकी प्रतिभा , उसकी मेधा ।

“क्या सोच रही हो दीदी”। कम्मो की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी ।

‘डिनिशन नहीं डिविजन पगली” । मीरा उसकी अटपटी अंग्रेजियत पर हंसने लगी । नजरें कम्मो की तरफ हो गईं । आज वह उसको बहुत खुश देख रही थी । पहली बार उसे इतना उत्साहित देखा था । दर्प से चेहरा चमक रहा था । रोम-रोम प्रफुल्लित था ।

“वाह सच में बहुत खुशी हुई । अब आगे क्या करना चाह रही है परी? तू तो कह रही थी कि कुछ परीक्षा लिखी है …क्यों मुनिया ... ?” उसने परी से पूछा ।

“ हाँ ...बड़ी माँ... इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा और उसी में बहुत अच्छा रैंक मिला है । माई उसी की बात कर रही है । हमारे मासाहब ने कहा है कि सरकारी कॉलेज में सीट जरूर मिल जाएगी ... और जिससे फीस भी ज्यादा नहीं होगी और पढ़ाई भी हो जाएगी” परी ने स्थिति को स्पष्ट किया ।

“ हाँ दीदी मैं क्या जानू ... जो भी कहती है , पढ़ती है यही बस ... मुझे क्या मालूम?” । कम्मो ने उसकी बलाइयाँ ली और दोनों खुशी-खुशी चलीं गई ।

आज कम्मो के घर में उत्सव का माहौल था । झाडू पौंछा साफ सफाई की , पकवान बनाए और अपनी लाडली को खिलाए । खुशी से सरोबार हो गई माँ बेटी । इसी खुशी की तो उसे जीवन भर तलाश थी ।

*********

रात को भोजनोपरांत टहलना मीरा को बहुत भाता था । आवश्यकता भी थी । आखिर उम्र के इस पड़ाव पर अपनी सेहत का भी तो ख्याल खुद ही रखना पडता था । मंद मंद बहती ब्यार सुकून पहुँचा रही थी । दिन भर सूर्य कितना भी अग्निकुंड बना रहे शाम ढ‌लते ही ताप शमित हो ही जाता है । प्रकृति भी कितनी उदार मना है । समस्त प्राणियों की पालनकर्ता । सब का ख्याल रखती है । संपन्न वर्ग अपनी वातानुकूलित कमरों में सुकून पाता है तो सामान्य जन सूर्यास्त उपरांत बहती ठंडी बयार में अपना ताप घुला देता है ।

आज कम्मो नींद को भी नींद न आई । वह भी अंधेरे में अपनी टूटी फूटी छत पर टहल रही थी ...उसके अपने हिस्से के स्वर्ग में पिघलती । क्योंकि सुख चैन राहत तो सभी का एक सा होता है । वह किसी संपन्नता का मोहताज थोडे न होता है । छत की दीवार से सटी रात की रानी की बेल और उनमें खिले फूलों से उठती मदमस्त सुगंध -दिन भर की परेशानियों को यूँ मिटा देती जैसे कोई नादान बालक अपनी स्लेट पर कुछ लिख कर उसे मिटा देता है और फिर लगता है जैसे उस पर कभी कुछ लिखा ही न गया हो ...एक दम सपाट ...एक दम खाली । विस्मृति कितना सुख देती है ,कितना सुकून देती है । यही तो सच्चा सुख है । यूं कहा जाए तो भूल जाना इंसान के लिए कितना बड़ा वरदान है । भूल जाती थी कम्मो या भूलने का अभ्यास करती थी । कम्मो ने परिस्थितियों से यही सीखा था । उसका जीवन अपमान की अग्नि में तप कर अग्निशिखा बन गया था । सच्चे अर्थों वह साधिका थी । इतना संयम ? न कभी किसी से शिकायत न शिकवा । न भगवान से , न जन्म देने वालों से , न समाज से और न इस बेटी से । क्या मिला था इन सबसे? घृणा, तिरस्कार, अपमान या प्यार ? वह तो हास्य का सामान थी । मिट्टी की कठपुतली जिसको बनाते ईश्वर कितनी बड़ी भूल कर गया था ..उसको पहचान देना ही भूल गया था । ? क्या थी वो? नर थी या मादा ? और इसमें उसका क्या दोष था? निरंतर ढूँढती रहती पर समाधान न मिलता । माँ-बाप ने दुत्कार दिया। शिक्षा से वंचित , न कोई आसरा न आशा । फिर भी जीती गई , अपने बल पर , अपनी शर्तों पर । जानती है , समाज उसके आर्शीर्वाद का अभिलाषी है । उसका आशीर्वाद शगुन है उनके लिए -लेकिन जीवन अपशकुन,अभिशाप । वह जड हो गई थी । निर्लिप्त और निर्विकार । जितना कठोर उसका बदन दिखता था उससे भी कठोर बन गया था उसका मन । लेकिन क्या सब भुलाना इतना आसान था? सब तकलीफें, दुख अपमान कसक ताप संताप ? क्या भूल पाई वह उन सभी क्षणों को ? मिटा पाई अपनी स्मृति से उन सब पलों को ... उन भोगनाओं को ? क्या यह संभव हो पाया ….?

***

परी को इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिल गया था । वह बहुत खुश थी और उसकी खुशी देख कर कम्मो भी खुश । मीरा ने अपनी जिम्मेदारी में कभी कोई कटौती न की थी । घर का भी तो पूरा सहयोग था उसे । उन्होंने कब उसकी बात टाली थी? और परी को तो वे भी अपनी बेटी मानते थे ।

दिन, महीने ,साल बीतते चले गए । परी इंजीनियरिंग ग्रैजुएट हो गई । उसी साल वहीं किसी बड़ी सी कंपनी में उसे नौकरी पर भी रख लिया गया ...बहुत अच्छे पैकेज पर ।

इन सालों में वह बहुत कम ही इस शहर आई थी अपनी माई के पास । वह उसे आने को कहती तो परी परीक्षाओं का बहाना कर देती । और कम्मो भी बहुत जल्द मान जाती ...जिद्द न करती । और तो और उसे वहीं रहने की सलाह भी देती । कम्मो डरती थी कि उसकी पहचान परी के सुनहरे भविष्य में रोडा न खड़ा कर दे - दाग न बन जाए । मीरा को पता चलता तो कम्मो को अच्छी डांट पिलाती थी पर कम्मो हमेशा यही कहती, “ दीदी रहने दो न उसे वहीं खुस । जितना दूर रहेगी उतना ही अच्छा है । अब कच्ची बेल घनी डाल बन गई है । फलने-फूलने दो वहीं पर । है न दीदी” । चेहरे पर आई दर्द की लकीर को छिपाने की असफल कोशिश वह अवश्य करती पर आंखें दगा दे जाती थी । बह पड़ती तो चुपचाप सर झुकाकर चली जाती थी । आदत थी उसे ...तो फिर आज नई बात क्या थी उसके लिए । वैसे मीरा ने कम्मो को कभी रोते-बिलखते नहीं देखा था । निज पर तरस खाना उसे कतई पसंद न था । कोई और उससे सहानुभूति जताता तो गुस्सा हो जाती थी । इतने वर्षों में परी को उसने उसके जन्म के बारे में सच्चाई न बताई थी । इतना कहा था कि उसके माता पिता किसी हादसे का शिकार हो गए थे और बच्ची उसे सौंप गए थे । बस परी इतना ही जानती थी । यह शायद यह काफी था उसके लिए ।

आज परी घर आ रही थी । कल फोन पर उसने खबर दी थी मीरा को और कम्मो को भी । पर मीरा ने पाया कम्मो हमेशा की तरह आज उतनी खुश नजर न आ रही थी । काफी संतुलित थी । इन सालों में उसका स्वास्थ्य भी काफी गिर गया था । पहले जितनी मेहनत भी न कर पा रही थी । उम्र भी बढ़ चली थी और अब आवश्यकता भी न थी क्योंकि अपना भार परी ने अपने ऊपर ले लिया था ]। कमा रही थी और उसने वहाँ घर भी किराए पर ले लिया था । माई से उसकी जरूरतें अब सीमित हो चुकीं थीं ।

“ बड़ी माँ आपको और माई को बहुत जरूरी बात बतानी है । सोचा फोन पर नहीं आकर ही बताऊँगी” । परी ने हलुवे का चम्म्च मुँह में डाल कर कहा । आज मीरा ने हलुवा बनाया था । परी को मीरा के हाथ का हलुवा बहुत पसंद था ।

“ क्या है परी ? कहो न” ? मीरा ने पूछा । कम्मो चुप थी ।

“ बड़ी मां मेरा काम कम्पनी ने बहुत सराहा है” ।

“ हाँ क्यों नहीं । तुम हो ही काबिल और मेहनती” । मीरा ने उसकी बात काटते हुए कहा ।

“ सुनो न बड़ी माँ , अब वे मुझे एक प्रोजेक्ट पर यू एस भेज रहे है , दो वर्षों के लिए । कम्पनी से चार लोग जा रहे है जिनमें मेरा भी सेलेक्शन हो गया है । सोचा जाने से पहले एक बार आप लोगों से मिलती जाऊँ । फिर अगर उन्हें योग्य लगे तो मुझे स्थाई रूप से वहाँ रहने का अवसर भी मिल सकता है । यह तो अभी कहा नहीं जा सकता पर पता नहीं ...अगर हो जाए तो बहुत अच्छा होगा... है न माई” ।

परी की आंखें चमक रही थी खुशी और गर्व से और कम्मो के होंठ मुसकुरा रहे थे... सूखे ...निर्जीव से ।

“ तो कब जाना होगा?” मीरा दोनों को बार -बार देख रही थी ।

“ आज रात को निकल जाऊँगी बड़ी माँ । वो किशोर हैं न , मेरे कोलीग, मेरा बहुत ख्याल रखते है, वे गाड़ी लेकर आएंगे और मैं चली जाऊँगी । माई.... आप खुश हो न?” परी का स्वर काफी औपचारिक लगा मीरा को ।

“ हाँ गुड़िया , कौन्न खुश न होगा ? तुमने इतनी बड़ी खुशी जो पाई है ? मैं भला कैसे खुश न होंगी” । कम्मो की बुझी बुझी आंखों कुछ क्षणों के लिए चमक आई । उसने प्यार से उसे निहारा पर तुरंत सर झुकाकर हलुवा खाने में व्यस्त हो गई ।

“ माई ,बड़ी माँ आप दोनों ने मेरे लिए जो किया मैं उसे जीवन भर...”

“ नहीं परी अब बस कुछ मत कहना । भगवान के लिए एक शब्द नहीं” । मीरा रोष में आ गई । अब सीमा पार हो गई थी । सहना मुश्किल लगा और वह बिफर पड़ी, ‘ तुम्हारे लिए जो तुम्हारी माई ने किया है वह तो तुम सात जन्म लेकर भी न चुका पाओगी । पर हाँ जब तुमने निर्णय ले ही लिया है तो हम बीच में न आएंगे पर मुझे भी तुम्हें एक बात बतानी है ... राज की बात” । मीरा की गर्दन तन गई और स्वर कठोर बना रहा ।

“ क्या बड़ी माँ” । परी की आंखों में आश्चर्य तैर गया । वह थोडी डिस्टर्ब सी हो गई ।

“ तुम्हारे माँ बाप हादसे का शिकार न हुए थे...”

“ न दीदी न न न । रहने दे । अब इन बातों का कोई मोल है? क्यों अब ये सब । बिटिया खुशी से जा रही है तो खुस रहने दे न दीदी” । कम्मो ने कटोरी नीचे रखी । उठी और सधे कदमों से घर की ओर निकल गई ।

“ नहीं बड़ी माँ बताइए आप क्या कहना चाहती है? प्लीज’ । परी ने कम्मो को रोकने का प्रयत्न न किया ।

“ तो सुनो तुम्हारी माई तुम्हें कूढे के ढेर से उठा लाई थी । फेंक गया था कोई अपनी गलती को । दुनिया भर को चुनौती देते हुए उसने अपना सब कुछ दांव पर रख तुम्हारा पालन पोषण किया । केवल और केवल तुम्हारे लिए । समझी । कभी कोई कमी न होने दी । खुद खाली पेट रही ,तुम्हें खिलाया । दिन रात मेहनत की, तुम्हें बोर्डिंग स्कूल भेजने के लिए । और... और... बस ... तुम यह जान गई मेरे लिए यह काफी है । जाओ परी.... दुनिया की सब दौलत, धन ऐश्वर्य तुम्हारे चरणों में । तुम भाग्यशाली हो जो कम्मो जैसी माँ तुम्हें मिली । परी तुम सोच रही हो कि आज मैने यह राज क्यों खोला ? तो सुनो । शायद तुम्हारा अपनी माई से यह मिलन आखिरी मिलन हो । हो सकता है तुम कभी फिर कम्मो से न मिलो और मैं जानती हूँ कि तुमने कभी अपनी माई को मन से नहीं अपनाया । वह बहुत बीमार है परी । शायद अगली बार जब तुम आओ तो वह न बचे । उसने पत्थर में जान फूंक दी है , हीरा बना दिया है । और यह सब जानकर , मैं सोचती हूँ कि फिर कभी तुम उस मूरत से घृणा न कर पाओगी । उसकी तपस्या का यह फल काफी है । जाओ परी , एक बार अपनी माई के पांव छूकर आशीर्वाद ले लो । पारिजात की धन्यता भगवान के चरणों में ही है । सदा खुश रहो” । मीरा फूट -फ़ूट कर रोने लगी ।

परी को सांप सूंघ गया । पत्थर सी जम गई थी । सांस भी जैसे चलना भूल गई हो ।

बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा । वह हड़बड़ा कर उठी और चली भागती गई -पीछे मुड़कर भी न देखा ।

*****

कुछ समय बाद ....

“बड़ी माँ ,फ्लाइट रात के दो बजे की है । मैं सुबह पहुँच जाऊँगी । आप माई को तैयार रखिएगा । वैसे मैंने सब औपचारिकताएं पूरी कर ली है । मैं चाहती हूँ आप भी एयर्पोर्ट आएं हमें सीऑफ करने के लिए । मानेगी न मेरी बात बड़ी माँ ...आखिरी बार” ।परी फोन पर लगभग रो रही थी ।

मीरा की गाड़ी कम्मो को लिए एयरपोर्ट पहुँची । आज परी कम्मो को अपने साथ विदेश ले जा रही थी । अपने खर्चे से । उसने कम्पनी से अनुमति ले ली थी अपनी माई का इलाज करवाने । कम्मो को बड़ी मुश्किल से मनाया गया था । और अंत में जीत गई थी परी ।

“ बड़ी माँ” परी आगे आकर मीरा के पांव पर झुक गई । “ आपने सच कहा था बड़ी माँ , पारिजात ईश्वर के चरणों में ही शोभा देता है । आप भी तो ईश्वर से कम नहीं । मुझे आपने माँ दे दी । आपका कर्ज कैसे चुकेगा बड़ी माँ” ।

मीरा ने परी को उठा कर गले से लगा लिया । माथा चूमते बोली ,” पगली माँ बाप का कोई कर्ज होता है संतान पर? खुश रहो , सदा खुश रहो”।

मीरा ने कम्मो की तरफ देखा और मुस्कुरा कर कहा,” कम्मो तुम्हारी परी सचमुच की परी है ...है..न” ।

दोनों सहेलियाँ मुस्कुरा रहीं थी और दोनों की आंखें जार -जार आंसू बहा रही थी ।

तभी घोषणा हुई और कम्मो परी के साथ प्रस्थान गेट की ओर चली पर नजरें पीछे मीरा पर ही अटकी रह गई...।

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